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* गीता दर्शन भाग-4
मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् । दुख आदमी के ऊपर टूट पड़ने वाला है। नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ।। १५ ।। पृथ्वी पर ज्ञात पांच हजार वर्षों के इतिहास में पश्चिम ने
आब्रह्मभुवनालोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन। . . | सर्वाधिक समृद्धि, यंत्र-कौशल, वैज्ञानिक प्रगति और बाहर की मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते । । १६ ।। स्थिति को मनुष्य के अनुकूल रूपांतरित करने में जैसी सफलता पाई
सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः ।। है, वैसी किसी सदी ने और किसी समाज ने कभी नहीं पाई थी। रात्रि युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः।।१७।। लेकिन आज उस सफलता के शिखर पर बैठा हुआ अमेरिका दुख और वे परम सिद्धि को प्राप्त हुए महात्माजन मेरे को प्राप्त के महागर्त में गिर गया है। ऐसे दुख के गर्त में गरीब, दीन-हीन, होकर, दुख के स्थान आलयरूप क्षणभंगुर पुनर्जन्म को नहीं | | पीड़ित और भिखारी समाजों को भी गिरते कभी नहीं देखा गया। प्राप्त होते हैं।
| पश्चिम का तर्क बुरी तरह असफल हुआ है। क्योंकि हे अर्जुन, ब्रह्मलोक से लेकर सब लोक पुनरावर्ती पूरब और तरह से सोचता है। पूरब ने जाना है कि परिस्थिति में स्वभाव वाले हैं, परंतु हे कुंतीपुत्र, मेरे को प्राप्त होकर | दुख नहीं, मनुष्य की चेतना में ही दुख है। मनुष्य की चेतना ही बदल __उसका पुनर्जन्म नहीं होता है।
जाए, तो ही दुख से छुटकारा हो सकता है। अन्यथा मनुष्य की और हे अर्जुन, ब्रह्मा का जो एक दिन है, उसको हजार युग चेतना को कैसी भी परिस्थिति मिले, दुख को पकड़ लेने वाली, तक अवधि वाला और रात्रि को भी हजार युग तक अवधि दुख को पैदा कर लेने वाली चेतना, पुनः-पुनः दुख पैदा कर लेती वाली, ऐसा जो पुरुष तत्व से जानते हैं, वे योगीजन काल के | | है, हर स्थिति में दुख पैदा कर लेती है। दुखवादी हर जगह दुख को तत्व को जानने वाले हैं।
खोज लेता है।
यह मनुष्य की चेतना का रूपांतरण ही दुख से मुक्ति बन सकता
है। कृष्ण अर्जुन से इसका पहला सूत्र कहते हैं। वे कहते हैं, परम 17 रब की मनीषा ने दुख का कारण, पश्चिम की मनीषा सिद्धि को जो प्राप्त हुए महात्माजन हैं, वे मुझे पाकर, दुख के प से बिलकुल ही भिन्न जाना है। शायद धर्म और विज्ञान | स्थान, आलयरूप, क्षणभंगुर पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होते हैं। दुख
on का वही भेद है। या ऊपर से जीवन की जो खोज करते | | के आलयरूप, दुख का जहां घर है, ऐसे क्षणभंगुर जीवन को वे हैं और भीतर जीवन के गहन तत्व में जो प्रवेश करते हैं, उनकी दृष्टि उपलब्ध नहीं होते हैं। का वह अंतर है।
इसे समझना पड़े। यह पूरब का गहनतम तर्क है, अंतर्दृष्टि है। पश्चिम सदा से सोचता रहा है कि दुख का कारण परिस्थिति में | दुख का घर पुनर्जन्म है। पुनर्जन्म का प्रारंभ जीवन की आकांक्षा है, है, स्थिति में है। और यदि हम परिस्थिति को बदल लें, तो दुख | जीते रहने की आकांक्षा, लस्ट फार लाइफ, जीवेषणा, और जीता विनष्ट हो जाएगा। यदि बाहर की सारी स्थिति ऐसी बनाई जा सके, | ही रहूं, और जीता ही चला जाऊं। एक वासना पूरी नहीं होती कि जहां दुख पैदा न हों, तो फिर दुख पैदा नहीं होगा। बाह्य को हम दस वासनाओं को जन्म दे जाती है। और किसी भी वासना को पूरा बदल लें, तो दुख की समाप्ति है। दुख है, तो इसलिए कि बाहर | करना हो, तो जीवन चाहिए, समय चाहिए, अन्यथा वासना पूरी की परिस्थिति भीतर की चेतना के अनुकूल नहीं है।
नहीं होगी। इसलिए पश्चिम दो हजार वर्षों तक निरंतर विज्ञान की सतत | वासना के लिए भविष्य चाहिए। अगर भविष्य न हो, तो वासना साधना से बाहर की स्थिति को बदलने में लगा रहा है। और अब. क्या करेगी? अगर मैं इसी क्षण मर जाने वाला हूं, तो वासना करना पहला मौका है, जब पश्चिम कुछ सीमा तक सफल हुआ। और | व्यर्थ हो जाएगा। क्योंकि वासना के लिए जरूरी है कि कल हो, सफल होते ही उसकी सारी आशाओं का महल गिरकर ढेर हो गया। आने वाला दिन हो। आने वाला दिन हो, तो ही मैं वासना को है। सफलता इतनी असफल हो सकती है, यह कभी पश्चिम के फैलाऊं, श्रम करूं, भवन बनाऊं, पूर्ति की आकांक्षा करूं, दौडूं। चिंतकों ने सोचा भी नहीं था। सोचा भी नहीं था कि जिस दिन हम वासना पूरी हो सके, उस मंजिल तक जाने का यत्न करूं। लेकिन परिस्थिति से सारे दुख को अलग कर लेंगे, उस दिन और भी बड़ा समय की जरूरत है; टाइम इज़ नीडेड।
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