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________________ ६ वासना, समय और दुख & दिया! ऐसी नींद आ रही है, कि घोड़े बेचकर सो रहे हैं। लेकिन | | आ जाता है। सिर्फ नींद आ रही है, और कुछ भी नहीं हो रहा! उन्होंने मुझसे कृष्ण कहते हैं, ब्रह्मलोक से लेकर सब लोक रिपिटीटिव हैं, कहा, सिर्फ नींद आ रही है, और कुछ भी नहीं हो रहा! मैंने उनसे | | | पुनरावर्ती हैं। वापस लौट-लौटकर वही-वही होता रहता है, कहा, चार दिन पहले आप कहते थे, न मुझे ईश्वर चाहिए, न मोक्ष, वही-वही होता रहता है। न आत्मा। सिर्फ नींद आ जाए, सब कुछ आ गया। और अब आप नीत्शे बहुत अदभुत बात कहता था इस संबंध में, किसी ने ही चार दिन बाद मुझसे कह रहे हैं कि सिर्फ नींद आ रही है और | | उसकी सुनी नहीं। मानने जैसी भी नहीं; थोड़ी घबड़ाने जैसी भी है। कुछ नहीं हो रहा है! लेकिन भारतीय प्रतिभा उसकी बात को समझ सकती है। नीत्शे __ आदमी की स्मृति इतनी कमजोर है। कुछ भरोसा नहीं कि आप कहता था, ऐसा भी नहीं है कि पहले कोई दूसरे लोग हुए हैं; हम जो अभी जान रहे हैं, क्षणभर बाद भी जान सकेंगे! भूल जाएंगे। ही लोग! और ठीक ऐसा ही जगत हम बार-बार दोहराते रहे हैं; इसलिए हमें नया मालूम पड़ता है कि देखो, यह कितनी नई बात है। हम ही लोग! अगर नीत्शे को समझना हो, तो ऐसा समझें। यह अगर कृष्णमूर्ति कहते हैं कि कोई गुरु नहीं, तो लगता है, बहुत | | सभा इस जमीन पर आज जो हो रही, आज ही नहीं हो रही। नीत्शे नई बात है। सभी गुरुओं ने सदा यही कहा है। असल में इस दुनिया | | कहता था, यह सभा बहुत बार इन्हीं लोगों को लेकर, इसी बोलने में कोई आदमी गरु हो ही नहीं सकता. जिसको इतना भी पता न हो | वाले को लेकर. इन्हीं सनने वालों को लेकर कि बिना गुरु के ज्ञान हो सकता है। गुरु को तो पता होता ही है।। | घबड़ाने वाली है यह बात, घबड़ाने वाली बात है। लेकिन जगत शिष्य को पता नहीं होता। उसकी बात अलग है। उसको कहने से इतना रिपिटीटिव है कि हो सकता है, नीत्शे भी सही हो। इसमें कोई भी पता नहीं होता। उसको कहे चले जाओ। शिष्य से अगर कहो | अड़चन नहीं है। चीजें इतनी दोहरती हैं बार-बार, तो यह हो सकता कि गुरु बनाने की कोई जरूरत नहीं। ज्यादा कहो, तो वह तुम्हीं को | | है कि हम बहुत बार यही लोग, इसी भांति, इसी जमीन के टुकड़े गुरु बना लेता है कि ठीक है, आप ही हमारे गुरु हुए और यही पर बहुत बार मिल चुके हों। याददाश्त कमजोर है। फिर दुबारा हमारा सिद्धांत हुआ कि गुरु बनाने की कोई जरूरत नहीं। | मिलते हैं, और लगता है, फिर सब नया हो रहा है। कृष्णमूर्ति के पीछे ऐसे ही लोग इकट्ठे हो गए हैं। वे कहते हैं कि बुद्ध ने कहा है कि मैं और भी पहले बहुत बार इन्हीं बातों को बिलकुल ठीक। चालीस साल से हम आपको ही सुनते हैं। आप | तुमसे कहा हूं। क्राइस्ट ने कहा है, मैं कोई पहला नहीं हूं, जो इन बिलकुल ठीक कहते हैं। गुरु की बिलकुल जरूरत नहीं। तो बातों को कहने आया हूं। मुझसे पहले और लोग भी यही कह चुके चालीस साल से इस बेचारे का पीछा क्यों कर रहे हो! | हैं। क्राइस्ट ने कहा है, मैं कोई नई बात कहने नहीं आया, आइ हैव इस जगत में कुछ भी नया नहीं है। मौलिक का दावा निपट कम टु फुलफिल दि प्रोफेसीज आफ दि ओल्ड। वे जो पुराने अज्ञान है। लेकिन वक्त लग जाता है; वक्त लग जाता है। पक्षी हैं, | वक्तव्य हैं, घोषणाएं हैं, उन्हीं को पूरा करने आया हूं। मोहम्मद ने जो एक ही मौसम में मर जाते हैं। कुछ कीड़े हैं, पतंगे हैं, जो वसंत | | भी कहा है, मैं नया नहीं हूं। मुझसे पहले और लोग आए हैं। उसमें में पैदा होते हैं और दुबारा वसंत नहीं देखते, मर जाते हैं। लेकिन | | एक इशारा तो बुद्ध की तरफ है। क्योंकि कहा है कि वट वृक्ष के उनके अंडे पड़े रहते हैं। दुबारा वसंत आता है, उन अंडों में से फिर | नीचे बैठकर भी एक आदमी ने ऐसी कुछ बातें कही हैं, बोधि वृक्ष पतंगे निकलते हैं। उड़ते हैं फूलों के पास और सोचते हैं कि जगत | | के नीचे बैठकर ऐसी कुछ बातें कही हैं। में, जीवन में, अस्तित्व में, पहली दफा वसंत आया है। फिर मर | इस जगत में कुछ भी नया नहीं है। लेकिन सब नया मालूम पड़ता जाते हैं, फिर अंडे छोड़ जाते हैं। फिर वसंत आता है, फिर उनके है, क्योंकि हमारे लिए पहली दफा दिखाई पड़ता है। यह हम भूल बच्चे उड़ते हैं, और फिर वही बात कहते हैं, जो सदा-सदा कही | गए होते हैं, और पहली दफे दिखाई पड़ता हुआ मालूम पड़ता है। गई है—वसंत पहली बार आया है; ऐसा वसंत कभी नहीं आया। ब्रह्मलोक तक, कृष्ण कहते हैं, सब लोक, ब्रह्मलोक तक...। आदमी की स्मृति कमजोर। समय का वर्तुल बड़ा। आदमी चुक असल में जहां तक लोक हैं, जहां तक जगत की पर्ते हैं, चाहे जाता है, आरे घूमते रहते हैं। यहां कुछ भी नया नहीं है, सब पुराना हम उसे ब्रह्मलोक ही क्यों न कहें, अंतिम लोक, वहां तक भी दोहर रहा है। सब पुराना दोहर रहा है। सब पुराना लौट-लौटकर पुनरुक्ति ही होती रहती है। फिर पुनरुक्ति कहां बंद होती है? उसे 85
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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