________________
गीता दर्शन भाग-44
यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः । जिसे हम अपना शरीर कहें, वह हमारे लिए एक कब्र से ज्यादा प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ।। २३ ।। | नहीं है, एक चलती-फिरती कब्र! और यह लंबा विस्तार जन्म से
अग्निज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम् । | लेकर मृत्यु तक, बस आहिस्ता-आहिस्ता मरते जाने का ही काम तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ।। २४ ।। करता है। ऐसे हम गुजरते हैं रोज-रोज और मौत के करीब पहुंचते
और हे अर्जुन, जिस काल में शरीर त्यागकर गए हुए | हैं। हमारी सारी यात्रा मरघट पर पूरी हो जाती है। योगीजन, पीछे न आने वाली गति को और पीछे आने वाली | लेकिन बुद्ध भी मरते हैं, कृष्ण भी, क्राइस्ट भी, मोहम्मद भी, गति को भी प्राप्त होते हैं, उस काल को अर्थात मार्ग को | और उनकी मृत्यु के लिए हमें दूसरा शब्द खोजना पड़ता है। उनके कहूंगा।
| जीवन के लिए भी हमें दूसरा शब्द खोजना पड़ता है। वे कुछ और उन दो प्रकार के मागों में से जिस मार्ग में अग्नि है, ज्योति | ढंग से जीते हैं और वे कुछ और ढंग से मरते हैं। जीने का सब कुछ है, और दिन है, तथा शुक्ल पक्ष है और उत्तरायण के छः | निर्भर है जीने के ढंग पर, और मरने का भी सब कुछ निर्भर है मरने माह है, उस मार्ग में मरकर गए हुए ब्रह्मवेत्ता पुरुष ब्रह्म को के ढंग पर। हमें जीने का ढंग भी नहीं आता। बुद्ध जैसे व्यक्ति को प्राप्त होते हैं।
मरने का ढंग भी आता है।
कृष्ण अर्जुन से उस क्षण, उस मार्ग, मृत्यु की उस कला की बात
इन सत्रों में करेंगे, जिस कला को जानने वाला. जिस मार्ग को + ई ऐसे भी जी सकता है जैसे मरा हुआ रहा हो, और पहचानने वाला, मरकर मरता नहीं, अमृत को उपलब्ध हो जाता है।
कोई ऐसे भी मर सकता है कि उसकी मृत्यु को हम कृष्ण ने कहा है, और हे अर्जुन, जिस काल में शरीर त्यागकर गए
जीवंत कहें। जीवन भी मृतवत हो सकता है, और मृत्यु हुए योगीजन, पीछे न आने वाली गति को और पीछे आने वाली गति भी अति जीवंत।
को भी प्राप्त होते हैं, उस काल को, उस मार्ग को मैं तुमसे कहूंगा। जिस भांति हम जीते हैं, उसे जीवन नाम-मात्र को ही कहा जा | इसमें दो-तीन बातें ठीक से समझ लेनी चाहिए। .. सकता है। न तो जीवन का हमें कोई पता है; न जीवन के रहस्य का जिस काल में, जिस क्षण में! द्वार खुलता है; न जीवन के आनंद की वर्षा होती है; न हम यही बड़ा मूल्य है क्षण का, बड़ा मूल्य है काल का, जिस क्षण में कोई जान पाते हैं कि हम क्यों जी रहे हैं, किसलिए जी रहे हैं। हमारा | व्यक्ति मृत्यु को उपलब्ध होता है। निश्चित ही, क्षण से अर्थ, बाहर होना करीब-करीब न होने के बराबर होता है। कहना उचित नहीं की घड़ी में घूमते हुए कांटे से जो नापा जाता है, उस क्षण से नहीं कि हम जीते हैं, यही कहना काफी है कि हम किसी भांति बने रहते है। लेकिन भीतर भी एक घड़ी है, और भीतर भी क्षणों का एक हैं, किसी भांति अस्तित्व को ढो लेते हैं, जीवित रहते हुए भी मुर्दे | | हिसाब है। एक तो बाहर नापने की हमने यांत्रिक व्यवस्था की है की भांति। लेकिन ऐसा भी होता है कि मरते क्षण में भी कोई इतना | समय को। वह बाहर के कामों के लिए जरूरी है, भीतर के कामों जीवंत होता है कि उसकी मृत्यु को भी हम मृत्यु नहीं कहते। । | के लिए नहीं। भीतर एक और भी माप है। और उस माप में, जिस
बुद्ध की मृत्यु को हम मृत्यु नहीं कह सकते हैं और हमारे जीवन | | क्षण में व्यक्ति की मृत्यु होती है-भीतरी माप के जिस क्षण में, को हम जीवन नहीं कह पाते हैं। कृष्ण की मृत्यु को मृत्यु कहना भूल | भीतरी घड़ी के जिस क्षण में बहुत कुछ निर्भर होता है। होगी। उनकी मृत्यु को हम मुक्ति कहते हैं। उनकी मृत्यु को निर्वाण क्योंकि इस जगत में आकस्मिक कछ भी नहीं है. मत्य भी कहते हैं। उनकी मृत्यु को हम जीवन से और महाजीवन में प्रवेश | | आकस्मिक नहीं है। मृत्यु भी बहुत सुव्यवस्थित है। और मृत्यु भी कहते हैं।
बहुत कारणों से सुनिश्चित है। और हर आदमी हर कभी नहीं मरता; उनकी मृत्यु के क्षण में कौन-सी क्रांति घटित होती है, जो हमारे हर आदमी अपनी मृत्यु चुनता है; दैट इज़ ए च्वाइस; जिसे हम जीवन के क्षण में भी घटित नहीं हो पाती! किस मार्ग से वे मरते हैं | जिंदगीभर निर्मित करते हैं। और मृत्यु को देखकर कहा जा सकता है कि परम जीवन को पाते हैं! और किस मार्ग से हम जीते हैं कि जीवित कि व्यक्ति कैसे जीया। भीतर, मृत्यु का क्षण निर्णायक है। रहते हुए भी हमें कोई जीवन की सुगंध का भी पता नहीं पड़ता है। | | यदि भीतर की घड़ी, भीतर का समय विचार से भरा हो, वासना
12A