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*गीता दर्शन भाग-4
प्रयाणकाले मनसाचलेन
सकें, मोही नहीं, तो आप उस अशरीरी का अनुभव कर सकते हैं, भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।
जिसे शरीर में रहते हुए अनुभव करना कठिन मालूम पड़ता है। भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्
नया जन्म प्रारंभ नहीं हुआ; पुराना समाप्त हो रहा है। बीच की सतं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ।। १० ।। उस संधिकाल घड़ी में यदि प्रभु का स्मरण हो, तो चेतना की यात्रा यदक्षरं वेदविदो वदन्ति
संसार को छोड़कर ब्रह्म की ओर शुरू हो जाती है। विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः।
इसलिए कृष्ण यहां अर्जुन को उस अंतिम क्षण में क्या किया जा यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्य चरन्ति
सकता है और उस अंतिम क्षण में स्मरण करता हुआ पुरुष कैसी तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ।। ११ ।।
यात्रा पर निकल जाता है, उसकी बात कह रहे हैं। वह भक्तियुक्त पुरुष अंतकाल में भी योगबल से भृकुटी ___ कृष्ण कहते हैं, वह भक्तियुक्त पुरुष अंतकाल में भी योगबल
के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापन करके, फिर से भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापन करके, फिर निश्चल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्य स्वरूप परम | निश्चल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्य स्वरूप को ही प्राप्त
पुरुष परमात्मा को ही प्राप्त होता है। होता है। और हे अर्जुन, वेद के जानने वाले जिस परम पद को इसमें बहुत-सी बातें समझने जैसी हैं। (अक्षर) ओंकार नाम से कहते हैं और आसक्तिरहित भक्तियुक्त पुरुष! भक्ति क्या है और भक्तियुक्तता क्या है? यत्नशील महात्माजन जिसमें प्रवेश करते हैं, तथा जिस | मनुष्य की चेतना में विचार की एक क्षमता है। एक और क्षमता है, परमपद को चाहने वाले ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं. उस | भाव की। विचार उपकरण है संसार में गति का; भाव उपकरण है परमपद को तेरे लिए संक्षेप में कहूंगा।
संसार के पार गति का।
___ मनुष्य की चेतना की दो क्षमताएं हैं। एक, विचार की। विचार of तिम क्षण समस्त जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण क्षण | | की क्षमता संसार के लिए उपयोगी है। संसार में विचार के बिना 1 है। क्योंकि वही आगे की जीवन की यात्रा का बीज है। | एक कदम भी चलना असंभव है। लेकिन ठीक ऐसे ही एक और .
__अंतिम क्षण में हम अपने जीवन का सब कुछ सिकोड़ | | क्षमता है, भाव की। उस भाव की क्षमता के बिना एक कदम भी कर पुनः इकट्ठा कर लेते हैं, नई यात्रा के लिए। अंतिम क्षण में वह परमात्मा की तरफ चलना मुश्किल है। सब संगृहीत हो जाता है, जिसके सहारे आगे की यात्रा होती है। लेकिन एक बड़ी भूल हो जाती है। चूंकि संसार में हम विचार
ठीक से समझें, तो जब कोई जन्म लेता है, तो जन्म का क्षण | | के सहारे चलते हैं, जीवन का अनुभव अनेक जीवन का अनुभव, प्रारंभ नहीं है। क्योंकि जन्म में तो वही बीज अंकुरित होता है, जो | | विचार का ही अनुभव होता है। और हमारा यह भी अनुभव होता पिछली मृत्यु में संगृहीत हुआ था। ठीक प्रारंभ का क्षण मृत्यु का है कि जितना हम विचार करते हैं, उतनी ही सफलता मिलती है क्षण है। उस समय बीज बनता है। फिर वक्ष तो जन्म से शरू होता | संसार में। अनंत-अनंत जीवन का निचोड़ यह बन जाता है कि है, अंकुरित होता है और यात्रा पर जाता है।
बिना विचार किए कोई सफलता ही नहीं है। और बिना विचार किए जो नहीं जानते, वे जन्म को प्रारंभ कहते हैं। जो जानते हैं, वे भटक जाने का डर है। तो फिर हम परमात्मा की तरफ भी अगर मृत्यु को ही प्रारंभ कहते हैं। एक अर्थ में मृत्यु दोनों है। पिछले जन्म | कभी चलते हैं, तो उसी विचार के उपकरण को लेकर चलते का अंत है और नए जन्म का प्रारंभ है। शायद सर्वाधिक महत्वपूर्ण | | हैं-भटक न जाएं इसलिए, असफल न हो जाएं इसलिए। क्षण है। क्योंकि इसी समय अगर हम छलांग ले सकें; संसार की | । और जिसे हम समझते हैं, सफलता का साधन, वही असफलता तीव्रता से घूमती हुई जो विक्षिप्त दशा है, जो वर्तुल है पागल; अगर | | का कारण बन जाता है। और जिसे हम समझते हैं कि भटकाव से मृत्यु के क्षण में हम छलांग ले सकें उसके बाहर, तो उससे ज्यादा बच जाएंगे, वही भटकाव है। क्योंकि जो उपकरण संसार में काम सरलता से छलांग और कभी नहीं ली जा सकती। क्योंकि मृत्यु के | करता है, वह परमात्मा की तरफ काम नहीं करता है। जैसे कोई क्षण में शरीर छूटता है। अगर आप शरीर के छूटने के साक्षी बन |
रीर छटता है। अगर आप शरीर के छटने के साक्षी बन व्यक्ति कान से देखने की कोशिश करने लगे और आंख से सनने