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________________ अतर्क्य रहस्य में प्रवेश उन बेचारों ने उससे भी ज्यादा मेहनत की मिटाने में! बनाने वाले भी इतनी फिक्र नहीं करते मूर्ति की, जितनी मिटाने वाले को करनी पड़ती है। मिटाने वाला जान की जोखिम लगा देता है, मूर्ति को मिटा देता है, क्योंकि परमात्मा निराकार है। लेकिन कैसे मूर्तियां मिटाओगे ? बनाने वाले बनाए चले जाते हैं। जिन्होंने मूर्तियां बनाईं, उनका कोई हिसाब है ? भारत में हम समझते हैं कि जितने आदमी हैं, उससे कम परमात्मा नहीं हैं, उससे कम परमात्मा की मूर्तियां नहीं हैं। पहले तैंतीस करोड़ आदमी हुआ करते थे, तो तैंतीस करोड़ देवता थे हमारे पास। इधर आदमियों ने तो थोड़ी संख्या बढ़ा ली है, पता नहीं देवता क्या कर रहे हैं ! बनाने वाले बनाए चले जाते हैं; क्योंकि वे कहते हैं, सगुण है, साकार है, रूपवान है। मिटाने वाले मिटाए चले जाते हैं। लेकिन भाषा की भूल इतनी महंगी पड़ सकती है। जिसे हम सगुण कहते हैं, वह निर्गुण का ही एक छोर है। जिसे हम निर्गुण कहते हैं, वह सगुण का ही एक छोर है । सगुण और निर्गुण दो विपरीत घटनाएं नहीं, एक ही अस्तित्व के दो छोर हैं। जिसे हम रूप कहते हैं, वह अरूप का ही एक हिस्सा है। • इसे ऐसा समझें कि अरूप का जो हिस्सा हमारी इंद्रियों की पकड़ में आ जाता है, उसे हम रूप कहते हैं। और रूप का भी जो हिस्सा हमारी इंद्रियों की पकड़ के बाहर चला जाता है, उसे हम अरूप कहते हैं। सगुण? जिसे हम नाप लेते हैं, तौल लेते हैं, वह सगुण हो जाता है। निर्गुण ? जो हमारी नाप-तौल के पार निकल जाता है, तो निर्गुण हो जाता है। मेरे घर में आंगन है, तो मेरे आंगन का अपना आकाश है, दीवाल है आंगन की। मेरा आकाश पड़ोसी के आकाश से जुदा है, भिन्न है। अगर पड़ोसी मेरे आकाश में आना चाहे, तो मैं इनकार करूंगा। मेरा आकाश, मेरे आंगन का आकाश ! लेकिन इससे क्या आकाश विभाजित होता है? कितनी ही हम दीवाल खड़ी करें, इससे केवल हमारी सीमा बनती है देखने की । लेकिन दीवाल के पार का आकाश और मेरे आंगन के आकाश में क्या कोई खंड हो जाता है ? कोई टूट हो जाती है ? मेरी दीवाल मेरी ही आंख के लिए बाधा बनती है, आकाश के लिए नहीं। ध्यान रखें, मेरी दीवाल मेरी ही आंख की सीमा बनती है, आकाश की नहीं। तो मेरे लिए आकाश दो हिस्सों में बंट जाता है; आकाश नहीं बंटता है। मेरे आंगन का आकाश उस आकाश का ही हिस्सा है, जो बाहर है। और जो बाहर है, वह मेरे आंगन के ही आकाश का विस्तार है। जितने भी विपरीत शब्द हैं हमारे पास, वे सभी एक ही अस्तित्व | के छोर हैं। इसलिए कृष्ण कहते हैं, मेरे अव्यक्त स्वरूप से यह सब जगत परिपूर्ण है । मेरा निराकार इन सब आकारों में छिपा है । मेरा निर्गुण इन सब गुणों में प्रकट हुआ है। मेरा परमात्मा ही इस पदार्थ | का आधार है । और सब भूत मुझमें स्थित हैं। और यह जो सारा जगत दिखाई पड़ रहा है, यह मुझमें स्थित है, मुझमें ही ठहरा हुआ है । और तब तत्काल एक विपरीत बात वे कहते हैं — विपरीत हमें | दिखाई पड़ती है - और सब भूत मुझमें स्थित हैं, लेकिन मैं उनमें स्थित नहीं हूं। सब भूत मुझमें हैं, लेकिन मैं उनमें नहीं हूं, यह कैसे होगा ? अगर सब भूत परमात्मा में स्थापित हैं और अगर परमात्मा ही सब में प्रकट हो रहा है, तो फिर यह कहना कि मैं उनमें नहीं हूं, हमारे तर्क को नई दुविधा दे देगा। श्रद्धा को कठिनाई नहीं है, क्योंकि श्रद्धा प्रश्न नहीं उठाती । श्रद्धा आर-पार देख लेती है, ट्रांसपैरेंट है। वह देख लेगी कि ठीक है; कुछ अड़चन नहीं है। बिलकुल ठीक है। झेन फकीर बोकोजू के पास एक जिज्ञासु आया है और उस जिज्ञासु ने पूछा कि परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग क्या है ? बोकोजू चुपचाप बैठा रहा और फिर उसने खिड़की के बाहर झांककर देखा और कहा कि देखो! सूरज ढलने लगा, सांझ होने के करीब है। कोई संबंध न था! उस आदमी ने पूछा था, ईश्वर को पाने का मार्ग क्या है? और यह आदमी खिड़की के बाहर हाथ उठाकर बोला, देखो, सांझ होने लगी, सूरज ढलने के करीब है। उस आदमी ने पैर छुए और चला गया। एक दूसरा आदमी बैठा था, वह हैरान हो गया। यह बोकोजू तो पागल है ही, वह जो आ गया था, वह महापागल मालूम पड़ता है ! उसने जो प्रश्न पूछा था कि ईश्वर को पाने का मार्ग क्या है ? हद्द पागल आदमी था! और इसने जो उत्तर दिया ! कुछ लेन-देन ही नहीं दोनों में! कोई संबंध नहीं! कोई दूर की भी संगति नहीं। कहां ईश्वर | को पाने का मार्ग ! और क्या मतलब इससे कि सूरज डूबता है और सांझ हो रही है ! 189 उस आदमी ने कहा कि मुझे भी एक सवाल पूछना है, लेकिन कृपा करके ऐसा जवाब मत देना। मुझे यह पूछना है कि इस आदमी जो पूछा, उसका क्या हुआ ?
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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