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* गीता दर्शन भाग-48
अब यह जगत है व्यक्त, दि मैनिफेस्ट। और कृष्ण कहते हैं, थू | ही चीज के दो छोर हैं। जन्म एक छोर है, मृत्यु दूसरा छोर दिस मैनिफेस्ट, माई अनमैनिफेस्ट इज़ मैनिफेस्टेड। यह जो प्रकट | है-उसका, जिसे हम जीवन कहते हैं। है जगत, यह जो व्यक्त है, यह जो दिखाई पड़ रहा है, यह जो लेकिन सोचने में मृत्यु दुश्मन और जन्म मित्र मालूम पड़ता है। साकार है, यह जो सगुण है, यह जो रूप से भरा है, इसके भीतर तो जन्म के समय हम बैंड-बाजे बजाकर स्वागत कर लेते हैं; और मेरा अरूप, मेरा निर्गुण, मेरा निराकार, मेरा अव्यक्त, मेरा अदृश्य | मृत्यु के समय रो-धोकर विदा कर देते हैं। प्रकट हो रहा है।
शायद हमें खयाल हो कि हंसना और रोना भी विपरीत चीजें हैं, अब ये दोनों बातें सही नहीं हो सकती हैं हमारे गणित से। हमारी तो फिर हम गलती में हैं। हमारी भाषा और सोचने के नियम की बुद्धि से ये दोनों बातें सही नहीं हो सकती हैं। सीधी बात कहनी | भूल है। अगर आप रोते ही चले जाएं, तो थोड़ी ही देर में रोना हंसने चाहिए। अव्यक्त का अर्थ है, जो प्रकट नहीं होता, जो प्रकट हुआ | में बदल जाएगा। प्रयोग करके देखें। यह तो कोई बहुत कठिन ही नहीं कभी। तो जगत से प्रकट कैसे होगा? और अगर जगत से प्रयोग नहीं है। रोते ही चले जाएं, रुकें ही मत; एक क्षण आएगा प्रकट हो रहा है, तो उसे अव्यक्त कहने की क्या जरूरत है? दो में | कि आप पाएंगे, रोना समाप्त हो गया और हंसने का जन्म हो गया से कुछ एक करो। तर्क अगर होगा, तो कहेगा, दो में से कुछ एक | है! हंसते चले जाएं, रुकें ही मत, तो आप पाएंगे कि हंसना विलीन करो। या तो कहो कि यह जो प्रकट हुआ है, यही मैं हूं, प्रकट हुआ; | | हो गया और रोना शुरू हो गया। और या कहो, यह जो प्रकट हुआ है, यह मैं नहीं हूं; अप्रकट हूं मैं। | इसलिए ग्रामीण स्त्रियां भी जानती हैं कि बच्चों को ज्यादा हंसने
लेकिन कृष्ण कहते हैं, यह जो प्रकट हुआ है, इसमें मैं ही व्याप्त | नहीं देतीं। कहती हैं, अगर ज्यादा हंसेगा, तो फिर रोएगा। इसलिए हूं; मैं ही इसमें भरा हूं; मैं ही इसमें परिपूर्ण हूं। रूप के भीतर मेरा | हंसने में ही रोक लेना उचित है। लेकिन हमारी भाषा में हंसना और ही अरूप है। आकार के भीतर मेरा ही निराकार है। दृश्य के भीतर रोना विपरीत है; जन्म और मृत्यु विपरीत है; अंधेरा और प्रकाश मैं ही अदृश्य हूं।
| विपरीत है; बचपन और बुढ़ापा विपरीत है; सर्दी और गर्मी यह हमें कठिनाई में डालता है। लेकिन इसे समझना पड़े। श्रद्धा | विपरीत है। हो, तब तो यह तत्काल समझ में आ जाता है; समझना नहीं पड़ता। यह भाषा की भूल है। यह तर्क की भूल है। ये विपरीत हैं नहीं! श्रद्धा न हो, तो इसे थोड़ा समझना पड़े। इसे थोड़ी चेष्टा करनी पड़े | ऐसा कहीं प्रकाश देखा है आपने, जो अंधेरे से न जुड़ा हो? ऐसा कि क्या प्रयोजन होगा ऐसी उलटी बात कहने का? और फिर यह कहीं कोई अंधेरा देखा है आपने, जो प्रकाश से न जुड़ा हो? उलटी बात आगे बढ़ती ही चली जाती है। वे इसे और उलटाते चले | सगे-साथी हैं, संगी हैं, ऐसा भी कहना ठीक नहीं है। एक ही चीज जाते हैं।
के दो छोर हैं। अगर यह खयाल में आ जाए, तो कृष्ण का सूत्र इतना हमारी बुद्धि की सोचने की जो व्यवस्था है, हमारी बुद्धि की जो बेबूझ नहीं मालूम होगा। कैटेगरीज हैं, हमारे सोचने के जो नियम हैं, उन नियमों में ही | लेकिन इस सूत्र ने बड़ी कठिनाइयां दी हैं। इस बात ने बड़ी बुनियादी भूल है। उन नियमों के कारण, जो जीवन में हो रहा है, | कठिनाइयां दी हैं कि परमात्मा सगुण है या निर्गुण? कितने उपद्रव, वह हमें दिखाई नहीं पड़ता।
कितने विवाद! नासमझी का कोई अंत नहीं मालूम पड़ता है। और जैसे अगर मैं यह कहूं कि जन्म भी मैं हूं और मृत्यु भी मैं, तो | जिन्हें हम सोचते हों कि समझदार हैं, वे भी बैठकर विवाद करते गणित और तर्क के लिहाज से गलत है। क्योंकि अगर मैं जन्म हूं, रहते हैं कि परमात्मा निर्गुण है या सगुण? तो मृत्यु कैसे हो सकता हूं? जन्म और मृत्यु तो विपरीत हैं। | सगुण के उपासक हैं, वे कहते हैं, निर्गुण की बात ही मत करो।
हमारे सोचने में विपरीत हैं, वस्तुतः विपरीत नहीं हैं। अस्तित्व में | | निर्गुण के उपासक हैं, वे कहते हैं, सगुण की सब बात बकवास है। जन्म और मृत्यु जुड़े हैं, एक हैं। जन्म, मृत्यु का ही पहला छोर है; | आकार को मानने वाले हैं, तो मूर्तियां बनाकर बैठे हैं। निराकार को
और मृत्यु, जन्म का ही दूसरा। जन्म लेकर हम करते क्या हैं सिवाय मानने वाले हैं, तो मूर्तियां तोड़ने में लगे हैं! मृत्यु तक पहुंचने के! जन्म और मृत्यु दो चीजें नहीं हैं। विपरीत तो मुसलमान हैं, वे निराकार को मानने वाले हैं। उन्होंने कितनी हैं ही नहीं; दो भी नहीं हैं। दो तो हैं ही नहीं; भिन्न भी नहीं हैं। एक मूर्तियां मिटा दी दुनिया से! बनाने वालों ने जितनी मेहनत नहीं की,
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