SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * अक्षर ब्रह्म और अंतर्यात्रा विश्राम भी कर रहे होते हैं अपने बिस्तर पर लेटकर, तब आपका | के मूल में कोई अगति चाहिए। और जहां सब चीजें चल रही हों, खुन पूरी गति लगा रहा है। आपके कण-कण शरीर के गति कर वहां उनके चलने के लिए भी कोई अचल चाहिए। इस गत्यात्मक रहे हैं। आपका हृदय धड़कन कर रहा है; आपकी श्वास गति कर जगत में गति-शून्य कोई कील चाहिए। रही है; आपका मन स्वप्नों में परिभ्रमण कर रहा है। जब आप उस कील को ही कृष्ण अक्षर कह रहे हैं। वे कहते हैं, वह जो बिस्तर पर विश्राम कर रहे हैं, तब भी कहीं कोई आपके भीतर अक्षर है, अव्यक्त है, वह भाव ही परम गति है। विश्राम की जगह नहीं है। इस जगत में होते हुए विश्राम नहीं है। लेकिन इस अक्षर तक पहुंचने के लिए हम कौन-सी यात्रा करें? कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, और जो वह अव्यक्त अक्षर ऐसा कहा | इस अव्यक्त भाव को, जो गहन में छिपा है, निगूढ़ है, इस तक हम गया है, उस अक्षर नामक अव्यक्त भाव को परम गति कहते हैं। कैसे पहुंचें? क्योंकि हमारे पहुंचने का कोई भी उपाय अगर परिधि और अर्जुन, अगर तू उस परम गति को उपलब्ध होना चाहता है, | पर हुआ और चाक के सहारे हुआ, तो हम कभी भी इस कील तक जहां विश्राम स्वभाव है...। नहीं पहुंच पाएंगे। इस जगत में तो श्रम ही स्वभाव है, अशांति ही परिणाम है। इस ऐसा समझें कि एक बड़ा चाक है, उस पर आप बैठे हुए हैं। और जगत में रहते हुए, इस जगत की कील पर घूमते हुए, न कोई विश्राम आप चाक पर घूमते रहें, हजारों-हजारों चक्कर लगाएं, तो भी आप को उपलब्ध हो सकता है, न कोई विश्रांति को। यदि कोई विश्रांति | केंद्र पर नहीं पहुंचेंगे। यद्यपि चाक केंद्र पर ही घूमता है, कील पर की खोज में जाना ही चाहे, तो उसे अपनी चेतना का तल ही बदलना। | ही घूमता है, फिर भी आप कील पर नहीं पहुंचेंगे चाक पर घूमते पड़ेगा। परिधि से हटाकर केंद्र पर, संसार से हटाकर ब्रह्म पर, उसे | हुए। आपको चाक छोड़कर कील की तरफ सरकना होगा। आपको अपनी चेतना का पूरा रूपांतरण कर लेना होगा। धीरे-धीरे चाक से हट जाना होगा। परिधि से हटना होगा, केंद्र की वह जो अक्षर नाम से कहा है, उस अक्षर नामक अव्यक्त भाव तरफ सरकना होगा। और जिस दिन आप चाक को बिलकुल छोड़ को ही परम गति कहते हैं। देंगे, उसी क्षण आप कील को, अक्षर को उपलब्ध हो जाएंगे। यहां दो बातें समझ लेनी चाहिए। अक्षर का अर्थ है, जो कभी संसार में हम कितनी ही यात्राएं करें, उस अक्षर को हम न खोज क्षीण नहीं होता, क्षरता नहीं। जैसा है, वैसा ही है। कणभर जिसमें पाएंगे। कोई चाहे तो जाए हिमालय, केदार और बद्री, और कोई कभी कोई रूपांतरण नहीं होता, जो अपने स्वभाव से जरा भी च्युत चाहे तो जाए कैलाश। कोई चाहे तो मक्का और मदीना, कोई नहीं होता। अंच्यत है. ठहरा हआ है। काशी, कोई गिरनार, जिसे जहां जाना हो, भटकता रहे। संसार में देखा है रास्ते पर चलती हुई बैलगाड़ी को। चाक चलता है, कहीं भी कोई ऐसी जगह नहीं है, जहां से आप कील पर पहुंच लेकिन कील ठहरी रहती है। और बड़ा मजा तो यह है-और इस | जाएंगे। संसार की कोई भी यात्रा तीर्थयात्रा होने वाली नहीं है। जहां मजे के राज को जान लेना, जीवन के बड़े राज को जान लेना पहुंचने के लिए पैरों की जरूरत पड़ती हो, वह परम धाम नहीं है। है कि जिस कील पर चाक घूमता है, वह कील जरा भी नहीं और जहां पहुंचने के लिए शरीर को साधन बनाना पड़ता हो, वह घूमती है, वह खड़ी ही रहती है। चाक हजारों मील की यात्रा कर | परिधि ही होगी, वह केंद्र नहीं होगा। जहां जाने के लिए बाहर ही लेता है, कील अपनी जगह को छोड़ती ही नहीं। और मजा इसलिए गति करनी पड़ती हो, वह अंतरतम नहीं है। बाहर चलकर हम बाहर कहता हूं कि अगर यह कील न हो, तो यह चाक जरा भी घूम नहीं | | ही पहुंचेंगे। संसार में यात्रा करके हम संसार में ही खड़े रहेंगे। पैरों सकता। इस ठहरी हुई कील के कारण ही, इसके आधार पर ही | से चलकर हम वहीं पहुंच सकते हैं, जहां पैर पहुंचा सकते हैं। चाक घूमता है। | उस परम गति अक्षर को पाने के लिए तो हमें अपने भीतर एक संसार का अस्तित्व असंभव है, अगर इस संसार के भीतर गहन ऐसी यात्रा करनी पड़ेगी, जिसमें पैरों की कोई जरूरत नहीं पड़ती। में, इसकी गहराइयों में, कहीं कोई अव्यक्त, कहीं कोई अक्षर कील | | एक ऐसी यात्रा करनी पड़ेगी, जिसमें हमें बाहर नहीं, भीतर की मौजूद न हो। यह पूर्वीय मनीषा की खोजों में से एक गहनतम खोज | | तरफ जाना पड़ता है। एक ऐसी यात्रा करनी पड़ेगी, जिसमें इंद्रियों है। क्योंकि पाया हमने कि जहां भी परिवर्तन है, वहां परिवर्तन के | | का उपयोग नहीं होता, इंद्रियों का अनुपयोग होता है। एक ऐसी आधार में कोई अपरिवर्तित चाहिए। और जहां भी गति है, वहां गति | | यात्रा करनी पड़ेगी, जहां मन का सहारा लेना नहीं पड़ता, मन का 109
SR No.002407
Book TitleGita Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy