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* स्मरण की कला *
ऊपर एक नई मान्यता बिठाते हैं, कि नहीं, मैं ज्ञानी हूं। भटकाव लंबा हो जाता है। पर्त दर पर्त पागलपन हो जाता है।
वस्तुतः ज्ञानी, मैं ज्ञानी हूं, इसकी खोज में नहीं जाता। इसी खोज में जाता है कि यह मेरी मान्यता जो है, वस्तुतः है? मैं अज्ञानी हूं?
और जैसे-जैसे भीतर खोजता है, मान्यता उखड़ जाती है। और एक क्षण वह पाता है कि में न ज्ञानी, न अज्ञानी: अविद्या से परे हैं।
दोनों, ज्ञानी और अज्ञानी, अविद्या के भीतर पड़े होते हैं। इसलिए उपनिषदों ने कहा है कि ज्ञानी भी भटक जाते हैं। अज्ञानी तो भटकते ही हैं, ज्ञानी महा अंधकार में भटक जाते हैं।
अविद्या से परे-न ज्ञान, न अज्ञान-वैसा हमारा स्वभाव है। इस स्वभाव की जो परम अभिव्यक्ति है, वह परमात्मा है। और जिस दिन हमारे भीतर, किसी के भी भीतर वह अभिव्यक्ति हो जाती है, तो वह भी परम परमात्मा हो जाता है। कहीं भी वह अभिव्यक्ति हो जाए, वही। और जहां नहीं है अभिव्यक्ति, वहां भी परमात्मा मौजूद है, सिर्फ आपकी भ्रांत धारणा में दबा हुआ है।
कोई आदमी अपने को मान ले कुछ, फिर वही धारणा उसे घेरती चली जाती है। यह आटो-हिप्नोसिस है। हमारी जो स्थिति है, यह आत्म-सम्मोहन है। इस आत्म-सम्मोहन को तोड़ना हो, तो प्रभु का सतत स्मरण मंत्र है।
आज इतना ही। लेकिन कोई उठेगा नहीं, और जाएगा नहीं। पांच-सात मिनट प्रभु का स्मरणं हम यहां करेंगे।
लेकिन दो बातें आपसे कह दूं। उठे नहीं। क्योंकि एक जन भी उठता है, तो पीछे के लोगों को उठना पड़ता है। और यहां कल कीर्तन में आपमें से कुछ लोग उठकर आगे आ गए। तो फिर दूसरे लोगों को उठना पड़ता है। बैठे रहें जहां हैं। वहीं से ताली बजाएं। वहीं से कीर्तन में साथ दें। गाएं। आनंदित हों। सात मिनट, इसे प्रसाद समझें और लेकर ही जाएं। उठेगा कोई भी नहीं। और बीच में कोई आगे नहीं आए।