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* गीता दर्शन भाग-4
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति । | रहा हूं, यह परमात्मा का दिया हुआ नहीं है; यह आदमी का अपना तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ।। २६ ।। अर्जित है। यह अहंकार कि मैं कुछ कर रहा हूं, आदमी की अपनी यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् ।
खोज है। यह आदमी का अपना आविष्कार है। और जब तक कोई यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ।। २७ ।। | आदमी इस भाव को उसके चरणों में न चढ़ा दे, तब तक वह
शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः। | रूपांतरण घटित नहीं होता, जिसकी कृष्ण बात कर रहे हैं। संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ।। २८।। ___ इसलिए वे कहते हैं कि तू खाए तो, तू चले तो, बैठे तो, हवन तथा हे अर्जुन! मेरे पूजन में पत्र, पुष्य, फल, जल इत्यादि जो करे तो, तू जो कुछ भी करे, वह सब मेरे अर्पण कर। कर्मों को मेरे कुछ कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से अर्पण करता है, उस शुद्ध | अर्पण कर। कर्ता होने के भाव को मुझे अर्पण कर। और जिस क्षण बुद्धि, निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ | तू यह कर पाएगा, उसी क्षण तू संन्यस्त हो गया।
वह पत्र, पुष्य, फल आदि में ही ग्रहण करता हूं। यह बहुत अदभुत बात है। क्योंकि संन्यास का अर्थ होता है, इसलिए हे अर्जुन, तू जो कुछ कर्म करता है, जो कुछ खाता | कर्म को छोड़ देना, कर्म का त्याग। कृष्ण कर्म के त्याग को नहीं है, जो कुछ हवन करता है, जो कुछ दान देता है, जो कुछ कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, कर्म तो तू कर, लेकिन मुझे अर्पित स्वधर्माचरण रूप तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर। | होकर। कर्म को छोड़ नहीं जाना है, करते जाना है। लेकिन वह जो इस प्रकार कर्मों को मेरे अर्पण करने रूप संन्यास-योग से करने वाला है, उसे छोड़ देना है; वह जो भीतर मैं खड़ा हो जाता युक्त हुए मन वाला तू शुभाशुभ फलरूप कर्मबंधन से मुक्त | | है, उसे विसर्जित कर देना है। हो जाएगा और उनसे मुक्त हुआ मेरे को ही प्राप्त होवेगा। | अहंकार अकेली चीज है आदमी के हाथ में, जो पूजा में चढ़ाई
| जा सकती है। वह आदमी की अपनी है, बाकी तो सब परमात्मा
का है। लेकिन दो-तीन बातें और इस संबंध में समझ लेनी जरूरी 1 रमात्मा की पूजा भी करनी हो, तो भी हमारे पास ऐसा | | होंगी। कठिन भी है उसे ही चढ़ाना। धन आदमी चढ़ा सकता है। प कुछ भी नहीं है उसे देने को, जिसे हम अपना कह | | जोश में हो, तो जीवन भी चढ़ा सकता है। गर्दन भी काटकर रख .
__सकें। और जो हमारा ही नहीं है, उसे देने का भी क्या | सकता है। इतना कठिन नहीं है। ऐसे भक्त हुए हैं, जिन्होंने गर्दन अर्थ है? जो कुछ भी है, उसका ही है। तो पूजा में उसके द्वार पर काटकर चढ़ा दी, अपना जीवन समर्पित कर दिया। वह उतना भी हम जो रखेंगे, उसका ही उसे लौटा रहे हैं।
| कठिन नहीं है, क्योंकि जीवन भी उसी का ही है। लेकिन जिसने मनुष्य के पास ऐसा क्या है जो परमात्मा का दिया हुआ नहीं है? गर्दन चढ़ाई है, वह भी भीतर समझता रहता है कि मैं गर्दन चढ़ा अगर उसकी ही चीजें उसे लौटा रहे हैं, तो बहुत अर्थ नहीं है। कुछ | | रहा हूं! याद रखना, स्मरण रखना, भूल मत जाना, मैं गर्दन चढ़ा ऐसा उसे दें, जो उसका दिया हुआ न हो, तो ही पूजा में चढ़ाया, तो रहा हूं। ही पूजा में हमने कुछ अर्पित किया।
गर्दन जब कटती है, तब भी भीतर मैं खड़ा रहता है। मैं को इसे थोड़ा समझना पड़ेगा। बड़ी कठिनाई होगी खोजने में। | | बचाकर भी गर्दन चढ़ाई जा सकती है। और अगर मैं बच गया, तो क्योंकि क्या है जगत में जो उसका नहीं है? अगर वृक्षों से तोड़कर | जो हम चढ़ा सकते थे, वह बच गया; और जो चढ़ा ही हुआ था, फूल मैं चढ़ा आता हूं उसके चरणों में, वे फूल तो उसके चरणों में | | वही वापस लौट गया। धन कोई चढ़ा दे, जीवन कोई चढ़ा दे, चढ़े ही हुए थे! और अगर नदी का जल भरकर उसके चरणों में | | पद-प्रतिष्ठा कोई चढ़ा दे, सब कुछ चढ़ा दे, लेकिन पीछे मैं बच ढाल आता हूं, तो वह नदी तो सदा से अपना सारा जल उसके | | जाए, तो जो चढ़ाना था, वह बच गया और जो चढ़ा ही हुआ था, चरणों में ढाल ही रही थी! मैं इसमें क्या कर रहा हूं? और इस करने | वह हमने चढ़ा दिया। और चढ़े ही हुए को चढ़ाकर हम और अपने से मेरे जीवन का रूपांतरण कैसे होगा?
| मैं को मजबूत कर लेते हैं कि मैंने इतना चढ़ाया है। चढ़ाने वाले भी लेकिन एक बात जरूर मनुष्य के पास ऐसी है, जो परमात्मा की | | हिसाब रखते हैं! दी हुई नहीं है। एक ही बात ऐसी है। कर्ता का भाव, मैं कुछ कर | एक आदमी कुछ दिन पहले मेरे पास आया था। उसने मुझे कहा
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