Book Title: Gita Darshan Part 03
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ বহন | भाग तीन ओशो Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ष्ण एक अनूठा प्रयोग करना चाह कृ 'रहे हैं; शायद विश्व के इतिहास में पहला, और अभी तक उसके समानांतर कोई दूसरा प्रयोग हो नहीं सका। वह प्रयोग यह करना चाह रहे हैं, युद्ध को एक धर्मयुद्ध बनाने की कीमिया अर्जुन को देना चाह रहे हैं। ... युद्ध के क्षण में किसी को योगी बनाने की यह चेष्टा बड़ी इंपासिबल है, बड़ी असंभव है।... ये कृष्ण जैसे लोग सदा ही असंभव प्रयास में लगे रहते हैं। उनकी वजह से ही जिंदगी में थोड़ी रौनक है; उनकी वजह से ही, ऐसे असंभव प्रयास में लगे हुए लोगों की वजह से ही, जिंदगी में कहीं-कही कांटों के बीच एकाध फूल खिलता है; और जिंदगी के उपद्रव के बीच कभी कोई गीत जन्मता है।... कृष्ण एक असंभव चेष्टा में संलग्न हैं। और इसीलिए गीता एक बहुत ही असंभव प्रयास है। असंभव होने की वजह से ही अदभुत; असंभव होने की वजह से ही इतना ऊंचा, इतना ऊर्ध्वगामी है। वह असंभव प्रयास यह है कि अर्जुन, तू योगी भी बन और युद्ध में भी खड़ा रह। तू हो जा बुद्ध जैसा, फिर भी तेरे हाथ से धनुष-बाण न छूटे। - ओशो गीता-दर्शन भाग तीन अध्याय 6-7 ओशो द्वारा श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय छह ‘आत्म-संयम-योग' एवं अध्याय सात 'ज्ञान-विज्ञान- योग' पर दिए गए इकतीस अमृत प्रवचनों का अपूर्व संकलन | Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE REBEL PUBLISHING HOUSE Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता-दर्शन भाग तीन अध्याय 6-7 ओशो द्वारा श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय छह 'आत्म-संयम-योग' एवं अध्याय सात ‘ज्ञान-विज्ञान-योग' पर दिए गए इकतीस अमृत प्रवचनों का अपूर्व संकलन। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25 oাবালি अध्याय 6-7 भाग तीन ओशो Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकलनः स्वामी दिनेश भारती, स्वामी प्रेम राजेंद्र संपादनः स्वामी योग चिन्मय, स्वामी आनंद सत्यार्थी डिजाइन ः मा प्रेम प्रार्थना टाइपिंगः मा कृष्ण लीला, मा देव साम्या डार्करूमः स्वामी प्रेम प्रसाद संयोजनः स्वामी योग अमित फोटोटाइपसेटिंगः ताओ पब्लिशिंग प्रा.लि., 50 कोरेगांव पार्क, पुणे मुद्रण : टाटा डॉनली लिमिटेड, मुंबई प्रकाशक : रेबल पब्लिशिंग हाउस प्रा.लि., 50 कोरेगांव पार्क, पुणे Copyright © 1980 Osho International Foundation All Rights Reserved सर्वाधिकार सुरक्षितः इस पुस्तक अथवा इस पुस्तक के किसी अंश को इलेक्ट्रानिक, मेकेनिकल, फोटोकापी, रिकार्डिंग या अन्य सूचना संग्रह साधनों एवं माध्यमों द्वारा मुद्रित अथवा प्रकाशित करने के पूर्व ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन __ की लिखित अनुमति अनिवार्य है। TRADEMARKS. OSHO, Osho's signature, the swan symbol and other names and products referenced herein are either trademarks or registered trademarks of Osho International Foundation. द्वितीय विशेष राजसंस्करण - जनवरी 1999 ISBN 81-7261-120-X Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ओशो के प्रति संसार की समस्त भाषाओं में जो साहित्य रचा गया, निश्चय ही वह जीवन के किसी न किसी बिंदु से जुड़ा होगा। मनुष्य ऐसा प्राणी है जो स्वभावतः समस्त जीव-जंतुओं पर, प्रकृति पर राज करना चाहता है और इस हेतु ही उसके क्रिया-कलाप होते रहते हैं। धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य, अच्छाई-बुराई के पैमाने बना कर इसने अपने लिए घेरे खींच लिए। इन्हीं घेरों में एक क्रम से वह आता रहता है, जाता रहता है। आने-जाने के रहस्य को समझने-समझाने का प्रयास अनेक ऋषियों, मुनियों, कवियों, लेखकों, विचारकों, दार्शनिकों ने किया। इस संदर्भ में भारतीय वाङ्मय बहुत समृद्ध है। हमारे अनेक ग्रंथ बहुत समय से संपूर्ण विश्व को आकर्षित करते रहे हैं। ___ यदि देखा जाए तो ओशो स्वच्छ-निर्मल जल का बहता हुआ आईना हैं। जिसके निकट जाते ही आदमी को अपना अक्स दिखाई पड़ने लगता है। भीतर गहरे में हलचल पैदा होने लगती है।...आदमी सब जगह से तो भाग सकता है, अपने आप से नहीं। जो लोग ओशो के निकट आने में घबराते हैं उनकी घबराहट का यह अर्थ कत्तई नहीं होता कि ओशो-साहित्य पठन और मनन योग्य नहीं है। बल्कि परोक्ष में वे इस बात पर मोहर ठोंकते हैं कि ओशो एक महान क्रांतिकारी-विचारक, चिंतक और व्याख्याता हैं। मनुष्य ने ही अपने बीच देवताओं की कक्षा का नियमन भी किया। निर्धारित (पारंपरिक) मापदंडों / मान्यताओं से आग्रहमक्त होकर मेरे लिए ओशो एक मनुष्य होते हए भी अलौकिकता के ऐसे प्रतिबिंब हैं जो मनुष्य को देवताओं की कोटि में बिठाती है। ___ सब जानते हैं कि कृष्ण महाभारत-युद्ध में अर्जुन के सारथी बने और युद्ध-क्षेत्र में गीता का उपदेश दिया। अर्जुन जिस रथ पर सवार थे उसे कृष्ण संचालित कर रहे थे। अर्जुन को अपनों से ही युद्ध करना था। अपनों के प्रति मोहग्रस्त होने से अर्जुन जब द्वंद्व की स्थिति में आ जाते हैं तो कृष्ण गीता का उपदेश देकर उनके मोह के बंधन काटते हैं, ज्ञान-दृष्टि देते हैं। गीता का यह संक्षिप्त संदर्भ है।...अर्जुन का अपनों के प्रति अस्त्र न चलाना, संसार में लिप्त हुए मनुष्य की प्रकृति है। अपनों से लड़ना, मतलब स्वयं से लड़ना, साधारण बात नहीं है। आदमी यहीं पलायन करता है और इस जगह ही उसे आत्म-प्रेरणा की, ऊर्जा की, ज्ञान की आवश्यकता होती है। सामान्यतः गीता को 'निष्काम कर्मयोग' का ग्रंथ बता कर इसकी मीमांसा की जाती है। इसके समस्त अध्याय महत्वपूर्ण हैं और मननोपरांत अनुपालन योग्य हैं किंतु षष्ठ और सप्तम अध्याय इसलिए केंद्र-बिंदु कहे जा सकते हैं क्योंकि इनमें 'आत्म-संन्यास योग' एवं 'ज्ञान-विज्ञान योग' की चर्चा है। गीता में श्लोक संस्कृत में हैं, दूसरे यह काव्य है, इसलिए इसमें छिपा गूढ़ रहस्य, मर्म तब तक प्रकट नहीं होता जब तक कि कोई तत्व-ज्ञानी एक-एक शब्द की विस्तृत विवेचना कर के उसे उद्घाटित न करे। इस पक्ष में ओशो के प्रवचन अद्वितीय हैं। आज, बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में, भाषा के जिस लालित्य और गांभीर्य की जरूरत है ओशो के पास वह सहज रूप में विद्यमान है। हमारे वाङ्मय में ज्ञान सूत्रों में, श्लोकों में, मंत्रों में है। उसमें निहित अर्थ को उद्घाटित करने, संप्रेषित करने में ओशो असमानांतर दिखाई पड़ते हैं। गीता में कृष्ण का शिष्य अर्जुन!...तो कृष्ण, अर्जुन की पात्रता के अनुरूप ही बोलते हैं। ओशो आज बोल रहे हैं—आज की भाषा में ही मर्म तक हमें ले जाते हैं। ___ जिन्हें कुछ कहना है उन्हें रोकने का कोई औचित्य नहीं, वे कह सकते हैं, ओशो का मौलिक कुछ नहीं है। तो ओशो ऐसा कोई दावा भी तो नहीं करते जैसा कि 'मौलिक' का अर्थ रूढ़ होकर आज ग्रहण किया जा रहा है। वे तो कहते हैं—मौलिक वह जो मूल से जुड़ा हो। यह ओशो-साहित्य पर टिप्पणी करने वालों को समझने के लिए है कि संपूर्ण सृष्टि का मूल तो एक ही है और उसे ही सब धर्मों में परम प्राप्तव्य बताया गया है। समस्त भाषाओं में ब्रह्म के स्वरूप-निरूपण की विधियां, रास्ते अलग हो सकते हैं, ब्रह्म नहीं। जो विधान दिए Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गए, जो योग बताए गए, उन्हें ही कृष्ण, बुद्ध, जीसस, नानक, मुहम्मद, वेदव्यास या ओशो जैसे महापुरुष विभिन्न संकेतों में बार-बार मनुष्य को बताते रहे। अवतारों की घटनाओं, कहानियों के द्वारा ही सत्य को सरलतम भाषा में, रोचक शैली में ओशो परिभाषित करते हैं। निर्लिप्त भाव से अमृत-वचनों में गूढ़ रहस्यों को उद्घाटित करते हैं। ऋषियों ने श्रति-प्रथा से अथवा लिपिबद्ध करके जन-जन तक संदेश पहंचाने का काम किया। ओशो ने भी यही किया। परंत ओशो यहां थोड़े अलग प्रतीत होते हैं, क्योंकि वे समालोचना भी करते चलते हैं। ओशो एक अवतार ही प्रतीत होते हैं, क्योंकि उनकी वाणी में, भाषा में जो चुंबकीयता है, जो माधुर्य है, जो गहन प्रतीति है, जो वैचारिक स्पष्टता-सहजता का सम्मोहन है, वह अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता। व्याख्या करते समय, ओशो समझाने की प्रक्रिया में जीवन से ही उदाहरण उठा कर बात कहते हैं। वे ऐसा कोई उदारहण नहीं रखते जिसकी प्रासंगिकता जीवन में न हो। हम अपने आग्रहों से कट कर यदि विचार करें तो ओशो एक अवतार ही हैं। 'श्रीमद्भगवद्गीता' जीवन की व्यावहारिकता, दर्शन और अध्यात्म का एक अनूठा ग्रंथ है। अनेक भाषाओं में इस एक ग्रंथ के अनुवाद, टीकाएं व भाष्य हो चुके हैं, फिर भी इसकी ऊर्जा का स्रोत स्खलित नहीं हुआ। देश, काल और समाज की स्थिति भगवान श्रीकृष्ण के सामने लगता है आज के जैसी ही रही होगी। तभी गीता का उपदेश देने की आवश्यकता पड़ी होगी। इस परिप्रेक्ष्य में आज इस ग्रंथ के षष्ठ और सप्तम अध्यायों की प्रासंगिकता का अनुभव किया जा सकता है। मनुष्य अपने केंद्र से ही विचलित है, भटक गया है। सच पूछा जाए तो ओशो के प्रवचनों के किसी संकलन को भूमिका की दरकार नहीं। क्योंकि भूमिका में, पुस्तक में व्यवहृत विषय पर प्रकाश डाला जाता है और वह चर्चा की जाती है जो कृतिकार का गूढ़ भावार्थ होता है। ओशो की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि वे जिस विषय को उठाते हैं उसे उसके संपूर्ण आयामों तक खोल देते हैं, सरल कर देते हैं। 'गीता' में मनुष्य को उसकी इकाई की पहचान दी गई है। ओशो 'व्यक्तित्व' के निर्माण और उसके विकास के चिंतक हैं। 'चरित्र' जैसे शब्द के रूढार्थ को वे तरजीह नहीं देते। लेकिन व्यक्तित्व निर्माण में जहां चरित्र की आवश्यकता होती है ओशो उसे नजरअंदाज भी नहीं करते। ओशो का अवतरण भारत-भूमि पर हुआ, चाहें तो हम इस पर गर्व कर सकते हैं। इस शताब्दी में ओशो जैसा दार्शनिक, विचारक, मनोविश्लेषक, चिंतक, साहित्यकार, व्याख्याता कोई दूसरा नहीं हुआ। ओशो रूढ़ियों के पक्षधर नहीं थे और उन्होंने विश्व-वाङ्मय को मथ कर अमृत-बिंदु, मनुष्य की शुभकामना में संजोए हैं। शतदल पोस्ट-बाक्स नं. 22 कानपुर-208001 श्री शतदल भारत के सुप्रसिद्ध कवियों में एक अति संवेदनशील हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएं व्यक्ति के हृदय को गहराई तक छूती हैं। आप एक बहुआयामी साहित्यकार हैं। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्ण कोई व्यक्ति की बात नहीं है; कृष्ण तो चैतन्य की एक घड़ी है, चैतन्य की एक दशा है, परम भाव है। जब भी कोई व्यक्ति परम को उपलब्ध हुआ और उसने फिर गीता पर कुछ कहा, तब-तब गीता से पुरानी राख झड़ गई, फिर गीता नया अंगारा हो गई। ऐसे हमने गीता को जीवित रखा है। समय बदलता गया, शब्दों के अर्थ बदलते गए, लेकिन गीता को हम नया जीवन देते चले गए। गीता आज भी जिंदा है। ओशो Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम गीता-दर्शन अध्याय 6 कृष्ण का संन्यास, उत्सवपूर्ण संन्यास ...1 संन्यास को नया आयाम दिया कृष्ण ने / बाह्य परिवर्तन नहीं-अंतरंग का रूपांतरण / बाह्य-कर्म-त्यागआलसियों को सहारा / कर्म में रस नहीं है हमारा / फल चाहिए-इसलिए कर्म करते हैं / कृष्ण का संन्यासः फलाकांक्षाशून्य कर्म / संन्यास जीवन का परम भोग है / जीयो-अभी और यहीं / पुराना संन्यास-पलायनवादी / पीड़ा का कारण वासना है-परिस्थिति नहीं / स्वर्ग और मोक्ष के लोभ से संसार छोड़ना / जीवन का अर्थशास्त्र : दूसरी इच्छा के लिए पहली इच्छा का त्याग / इच्छाएं छूट जाएं तो भी कर्म जारी / ठीक कर्म जीवन का स्वभाव है / इच्छाएं बुरे कर्म करवा लेती हैं / जिसकी कोई इच्छा नहीं, वह संन्यासी / जो इच्छाओं में जीता है, वह गृहस्थ / इच्छाएं न रहीं-तो मन न रहा / निर्दोषता मनुष्य का स्वभाव है / चेतना के दर्पण पर इच्छाओं की धूल / भविष्य में कृष्ण का संन्यास ही बच सकेगा / जहां हो, वहीं वासनाशून्य हो जाओ / निष्काम जीवन का स्वाद भर लग जाए / जीवन—एक खेल, एक अभिनय हो जाता है / तैरो मत-बहो / समर्पण संन्यास है / जो प्रभु की मरजी / प्रभु की मरजी पर जीने वाला संन्यासी / संकल्पों का त्याग योग है, संन्यास है / वासना से संकल्प का जन्म / इच्छा+अहंकार = संकल्प / अहंकार की मृत्यु–महाजीवन का आविर्भाव / बीज टूटे तो अंकुर निकले / ठीक भूमि की तलाश है धर्म / समस्त धर्मों का सार है-तुम मिटो/ अहंकार की खोल टे / डार्विन कहता है : जीवन-संघर्ष में श्रेष्ठतम लोग बचते हैं / कृष्ण कहते हैं : श्रेष्ठ वे लोग हैं जो मिट जाते हैं / सब अपनी सुरक्षा में लगे हैं / संन्यास है-असुरक्षा में उतरना / संकल्प बाधा है / बूंद मिटे–तो सागर हो / संकल्प मिटे-तो परमात्मा हो / आदमी है बूंद-परमात्मा है सागर / संकल्प है-मैं का बचाव / नीत्से का जीवन-दर्शन-संकल्प / कृष्ण के अनुसार संकल्प-शून्य व्यक्ति ही युद्ध में जाने का पात्र है / नीत्से का संकल्प हिंसात्मक है / मन झुकना नहीं जानता / दिन भर मैं-मैं-मैं / अहंकार की सतत बहती अंतर्धारा / मैं का मजा-दूसरे के संदर्भ में / संन्यास है-अहं-विसर्जन का विज्ञान / अहंकार के तीन रूप-ठोस, तरल और वाष्पीय / कामना पूरी न हो तो दुख / कामना पूरी हो तो दुख / इच्छा के रहते सुख संभव नहीं / इच्छा गई–कि सुख बरसा / कृष्ण का संन्यास-हंसता, नाचता, गाता हुआ / प्रकाश जलाओ-अंधेरे से मत लड़ो / पलायन से उदासी / समग्रता से जीना। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसक्ति का सम्मोहन ... 21 समता-योग का सार है / अतियों में डोलता है मन / दो के बीच रुकना / योगी-न तो भोगी है, न त्यागी / जो चुनावरहित हुआ, निर्द्वद्व हुआ-वह योगी / चुनाव मध्य में नहीं ठहरता / चुनाव में विपरीत का बंधन / मनुष्य अर्थात मन वाला / मन-गौरव भी और कष्ट भी / मन का अतिक्रमण / मन अर्थात चुनाव / संकल्प-विकल्प, राग-द्वेष / चुनाव उत्तेजना है / उत्तेजना पीड़ा है / मिल गए से ऊब / विपरीत का आकर्षण / पछताना-क्रोध की पुनः तैयारी है / पश्चात्ताप न करने से पीड़ा का सघन होना / विपरीत में न जाएं-रुकें/मन के रहते-निर्द्वद्वता संभव नहीं / अ-मन में साम्यवाद घटित / समाज की व्यवस्था-द्वंद्वात्मक मन का फैलाव है / योगारूढ़-समतावान व्यक्ति अत्यल्प होते हैं / मन ही नर्क है / समता के कुछ प्रयोग करें / बाएं-दाएं पैर पर शरीर का वजन समान करना / मध्य में देहशून्यता का अनुभव / निर्द्वद्व होना बड़ी बुद्धिमत्ता है / द्वंद्व के सब निर्णय-नासमझी के / योगारूढ़ अर्थात जो स्वयं में ठहर गया / मध्य में है आत्मा / योग के पंख-परमात्मा में छलांग / चुनाव छूटा-कि संकल्प छूटा / संकल्प है-वासना में नियोजित शक्ति / जिन-जिन संकल्पों से लौट सकते हैं-लौट जाएं / अचुनाव का निर्णय / इच्छाओं के बादलों का आना-जाना / विचार-शून्यता और संकल्प-शून्यता में क्या भेद है? / दोनों की प्रक्रिया भिन्न है-सिद्धि एक है / निर्विचार की प्रक्रिया है-साक्षी / निःसंकल्पता की प्रक्रिया है-समत्व / विचारक, दार्शनिक–इच्छाओं के जाल में नहीं होते / आइंस्टीन का जीवन—एक तपस्वी का / विचारों की दुनिया में खोया हुआ / दो टाइप-बुद्धिजीवी और वासनाजीवी / अर्जुन इच्छाजीवी है, योद्धा है / विचार नहीं-कृत्य, संकल्प / जापानी योद्धा समुराई का तत्काल कृत्य / पूरे प्राणों से लड़ना / आइंस्टीन की भुलक्कड़ी / अधिकतम लोग वृत्तियों में, वासनाओं में जीते हैं / विचार के प्रति सजगता; भाव के प्रति स्मृति; वासना के प्रति समत्व / घाट अलग-अलग-गंगा एक / तीर्थंकर अर्थात घाट बनाने वाला / घाट-छलांग के लिए / अपने ही घाट का दावा गलत है / कर्मों में आसक्ति-इंद्रियों में आसक्ति के कारण / धन का मूल्य है-वासनाओं की तृप्ति में / नरक के द्वार पर स्वर्ग की तख्ती / तृप्ति का मात्र आश्वासन है / इंद्रियातीत स्व की खोज / इंद्रियों से तादात्म्य हटाना / चेतना सदा ताजी है / देह से अपने सम्मोहन को तोड़ना / आसक्ति न रहने पर सम्यक कर्प का जन्म / मानसिक विलास / जरूरत और विलास / आसक्ति से विकृति / वासना अनंत है—आवश्यकता अल्प है / कामवासना प्रकृति के लिए जरूरी-व्यक्ति के लिए नहीं / भोजन जारी रहेगा-वासना तिरोहित हो जाएगी / आसक्ति-शून्य इंद्रियां-शुद्धतम / शुद्धतम कर्म शेष। मालकियत की घोषणा ... 39 योग मंगल है | आत्मा स्वतंत्र है-ऊपर उठने या नीचे गिरने के लिए / अहित की भी स्वतंत्रता / स्वयं के लिए दुख बोना / फल बताता है कि बीज कैसे थे/चाहते हैं अमृत-बोते हैं जहर / तरंगों का वापस लौटना / बीज बोकर भूल जाना / इंच-इंच का हिसाब है / अधार्मिक अर्थात जो अपना शत्रु है / शुभ और अशुभ तरंगों का सूक्ष्म जगत / मंगल-कामना की तरंगें बिखेरना / नमस्कार से प्रभु-स्मरण / जय राम जी / भीतर छिपे श्रेष्ठ को उभारना / स्वयं के मित्र बनना / पुरानी भूलें न दोहराना / दूसरे के साथ वही करो, जो तुम अपने साथ किया जाना चाहते हो / योग का प्रारंभ-अपना मित्र होने से / मित्रता बड़ी साधना है / शत्रुता आसान है / क्रोध है-दूसरे की गलती के लिए खुद को सजा देना / स्वयं को प्रेम करना कठिन है / दूसरे को प्रेम करना सरल है / गुरजिएफ का बाल-संस्मरण : चौबीस घंटे बाद क्रोध करना / बुरा करने से पहले रुकना / शुभ का स्थगन न करें / अपना मित्र होना योग है । अपना शत्रु होना अयोग है / अपना स्वर्ग बनाएं या नर्क दायित्व और स्वतंत्रता आपकी है / शरीर और इंद्रियां वश में हों / विपरीत दौड़ती इंद्रियां / खंड-खंड मन / इंद्रियों की मालकियत / सोई हुई आत्मा / छोटे-छोटे कारणों से बड़ी दुर्घटनाएं हो जाना / महाभारत युद्ध का कारण-द्रौपदी का दुर्योधन पर हंसना / आदमी इंद्रियों के पाश में बंधा हुआ पशु है / जितेंद्रिय पशुपति–मालिक हो जाता है / रथ में जुते बे-लगाम Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घोड़े / नशे में डूबा सारथी/मालकियत के लिए श्रम करना जरूरी/ इंद्रियों की शक्ति का रूपांतरण / मालकियत की घोषणा / मालकियत का सूत्र-इंद्रियों से पृथक होने का बोध / इंद्रियों से अपना तादात्म्य क्षीण करना / इंद्रियां खिड़कियां हैं / इंद्रियां उपकरण हैं / उपकरणों को आत्मा न समझें / शरीर चलता है-मैं नहीं / शरीर खाता है-मैं नहीं / पृथकता बोध के बाद ही मालकियत की घोषणा संभव / हार्मोन्स से आंदोलित भावनाएं, वासनाएं / इंद्रियां मित्र हो जाती हैं, अगर आप मालिक हैं। 4 ज्ञान विजय है ... 57 द्वंद्वों के बीच थिरता / उत्तेजना का कारण-सुख-दुख से तादात्म्य / सुख-दुखादि से बाहर रह जाने की कला–योग / सुख-दुख तो बुद्धपुरुषों को भी आते हैं / तादात्म्य-शून्य चेतना प्रभु में विराजमान / तादात्म्य-भूल नहीं, भ्रांति है / भूल व्यक्तिगत है / भ्रांति समूहगत होती है / रस्सी में सांप देखना भूल है / मैं मन हूं-यह भ्रांति है; बहुत गहरे अचेतन से आती है यह भ्रांति / असली कठिनाई है-सुख से तादात्म्य तोड़ने में / दुख से बचना और सुख पकड़ना / दुखी लोगों की धर्म की तलाश / सुख बीज है और दुख फल / दुख से छूटना हो तो सुख से छूट जाएं / सुख एक प्रलोभन है | सुख एक नींद है / सुख में डोले-फिर दुख में डोलना पड़ेगा / सुख में जागें/ बच्चे को सुख से तादात्म्य करना न सिखाएं / चेतना कंपी-कि कमजोर हुई / समतावान व्यक्ति पराधीन नहीं बनाया जा सकता / परमात्मा को झेलने की पात्रता—निष्कंप हो जाना / हम क्षुद्र बातों से डांवाडोल हो जाते हैं । ताकत की नहीं समझ की जरूरत है / समझ से अहंकार गलता है / निष्कंप होना चरित्र है / प्रज्ञा से-समझ से-शील और समाधि फलित / आत्मा को जीतने का क्या अर्थ है? / स्वयं पर हमारा रत्तीभर वश नहीं है / जानना जीतना बन जाता है / ज्ञान विजय है / हमें इतना भी पता नहीं कि मैं कौन हूं / अज्ञानी के भीतर आत्मा होते हुए भी नहीं ही है / आत्मज्ञानी अभय हो जाता है / ज्ञान-विज्ञान से तृप्त हुआ जो / ज्ञान है-स्व को जानना / विज्ञान है-पर को जानना / कुतुहल अर्थात बचकाना मन / शिशु-सभ्यताएं विज्ञान को जन्म देती हैं और प्रौढ़-सभ्यता धर्म को / सब उत्तर कामचलाऊ हैं / अस्तित्व निरुत्तर है, इसीलिए रहस्य है / निष्प्रश्न चित्त तृप्त हो जाता है / निष्प्रश्न चित्त रहस्य से आत्मसात हो जाता है / धर्म है-न पूछकर जानने का ढंग / सब सवाल-जवाब बचकाने हैं / मौन में उतरना प्रौढ़ता है। हृदय की अंतर-गुफा ...73 अपने-अपने मुख्य द्वंद्व में समता को साधना / सुख-दुख, यश-अपयश, मित्रता-शत्रुता / प्रत्येक व्यक्ति के बोध-तंतु भिन्न-भिन्न / मित्र और शत्रु में समभाव रखने के सूत्र / अपना कोई स्वार्थ या लक्ष्य न हो / जीवन एक काम नहीं-लीला है / समत्व-जब प्रेम पाने की आकांक्षा न बची हो / प्रेम चित्त का भोजन है / प्रेम की जरूरत है तो मित्र और शत्रु में भेद / प्रेम कोई सौदा नहीं है / प्रौढ़ व्यक्ति जो प्रेम मांगने नहीं जाता / पूंछ हिलानाः एक इनवेस्टमेंट / धनपति–जिसकी धन पर अब पकड़ न रही / जो प्रेम देता है-मांगता नहीं-वह सम्राट हुआ / समभाव हो, तो शत्रु भी परमात्मा का ही काम करता हुआ दिखेगा / अर्जुन का द्वंद्व-कि अपनों को कैसे मारें / अर्जुन युद्ध के संताप से पलायन चाहता है / कृष्ण चाहते हैं : अर्जुन योगारूढ़ होकर युद्ध में उतरे / युद्ध धर्म-युद्ध बन जाए / कृष्ण का असंभव प्रयास का अभियान / एकांत अर्थात स्वयं में होना / लोनलीनेस और अलोननेस में फर्क / चित्त से भीड़ का विसर्जन / दूसरों से रस लेना / भीतरी आकाश का एकांत / अंतर-गुहा में ही प्रभु का ध्यान संभव / हृदय की गुफा / आबरी मेनन की पुस्तक-दि स्पेस ऑफ दि इनर हार्ट / मैं भीतर कौन हूं? / शरीर और मन के पार मैं कौन हूँ? / छांदोग्य उपनिषद से इशारा मिला / आंतरिक शून्यता-एकांत-प्रभु-मिलन / जिसे जानते नहीं—उसका स्मरण कैसे करेंगे? / प्रभु-स्मरण की पूर्व-शर्त-समत्व / निष्कंप चित्त Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और हृदय गुफा में प्रवेश / भीतर आप भी खो जाते हैं - तब मिलन / योग है - अंतर- गुफा में प्रवेश की विधि / अकेलापन उदासी लाता है, और एकांत - आनंद / भीतर जाने से बचना / एकांत की खोज / भगवान ही हो जाना। 6 अंतर्यात्रा का विज्ञान ... 87 अंतस प्रवेश का विज्ञान / बाहर से भीतर की ओर / मंदिर की सीढ़ियां पार करनी होंगी / आत्यंतिक वक्तव्य साधक के लिए उपयोगी नहीं / कृष्णमूर्ति द्वारा विधियों व मार्गों का निषेध हानिप्रद / बौद्धिक समझ से कुछ होने वाला नहीं / छोटी-छोटी चीजों का प्रभाव है / सम्यक आसन / शरीर पर न्यूनतम गुरुत्वाकर्षण हो / सुखासन, सिद्धासन, पद्मासन / जमीन न ऊंची हो न नीची / श्रेष्ठ व निम्न तरंगों के तल / ज्यादा श्रेष्ठ तरंग झेलना भी कठिन / ऊंचे पर्वतों में निर्मित तीर्थस्थल / ध्यान-साधना में मृगचर्म, खड़ाऊं और लकड़ी के तख्ते का उपयोग / ध्यान में अंतर्विद्युत सक्रिय / विद्युत - अचालक वस्तु के लाभ / देह - विद्युत को संरक्षित करना / विद्युत वर्तुल के टूटने के कारण झटके लगना / सम्यक आसन, वस्त्र, भूमि - फिर इंद्रियों को अंतर्मुख करना आसान / योग के आसन और मुद्राओं का विज्ञान / दांतों के पास संगृहीत हिंसा / मसूढ़ों के दबाने से हिंसा का रेचन / क्रोध में दांत पीसना / शरीर के कई बिंदुओं पर संगृहीत तनाव / बुद्ध और महावीर की ध्यानस्थ मूर्तियां / विद्युत वर्तुल से ध्यान सहज / अंतर्विद्युत से अंतआकाश में प्रवेश / कृष्णमूर्ति अनजान में बड़ी साधनाओं से गुजारे गए / पूर्व जन्मों में की गई साधना का भी परिणाम / रिझाई को संबोधि - सूखे पत्ते को गिरते देखकर / सूर्य की विभिन्न स्थितियों का ध्यान पर प्रभाव / सुबह, सांझ - ध्यान में सहयोगी / सूर्य पर त्राटक का अर्थ / ध्यान का प्रारंभ है समय में / ध्यान का अंत है समयातीत में / तरंगों की नदी के साथ बहना / साधना की अनुकूलताएं-प्रतिकूलताएं / ध्यान में उपयोगी – कुश नामक घास का आसन / महावैद्य लुकमान और सुश्रुत द्वारा ध्यान में खोजी गई जड़ी-बूटियां / ध्यान में पौधों से एकात्मता / ध्यान के समय विशेष वस्त्रों का उपयोग / सूती वस्त्र तरंगों को पी जाते हैं / रेशमी वस्त्र निष्प्रभावी होते हैं / मंदिर अर्थात निम्न तरंगों से अप्रभावित स्थान / सत्संग का महत्व / पवित्र पुरुष का दर्शन / चरण-स्पर्श / पवित्र स्थल / गुरुत्वाकर्षणशून्यता में ऊर्ध्वगमन / रीढ़ सीधी रखकर बैठना / नासाग्रदृष्टि से संसार स्वप्नवत लगना / अधखुली आंख से अंतर्यात्रा में सहयोग / नासाग्रदृष्टि से आज्ञाचक्र पर चोट / आज्ञाचक्र के ऊपर परमात्मा - नीचे संसार / आज्ञाचक्र के साधक को ब्रह्मचर्य व्रत जरूरी / ध्यान के समय काम विचार से ऊर्जा का अधोगमन / ध्यान के पहले यौन-चिंतन करने का प्रयोग / काम-चिंतन के लिए मूर्च्छा जरूरी / होश में काम- विचार मुश्किल है / पहले तेईस तीर्थंकरों ने ब्रह्मचर्य की बात नहीं की / महावीर अब्रह्मचारियों के बीच बोल रहे थे / ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन ब्रह्मचर्य है / ऊर्ध्वगमन - बड़ा आनंददायी / जो परमात्मा को जान लेता है - वह परमात्मा ही हो जाता है। 7 अपरिग्रही चित्त 103 प्रभु स्मरण का अर्थ / हमारे हाथ में एक क्षण से ज्यादा कभी नहीं होता / क्षणभर स्मरण की क्षमता ही निरंतर स्मरण बन जाती है / अपरिग्रही चित्त - जो वस्तुओं का उपयोग करता है, लेकिन उनसे राग नहीं बनाता / जीवन की सघनता में जीते हुए अस्पर्शित रहना / एकांत में भाग जाना आसान है / भाग जाना - मुक्त हो जाना नहीं / मालिक - गुलाम - पारस्परिक बंधन / व्यक्ति से राग बनाने में अड़चनें हैं / वस्तुओं से राग बनाना सुविधापूर्ण है / दूसरे को पराधीन बनाया - कि खुद पराधीन हुए / जिंदा आदमी एक स्वतंत्रता है / परिवार टूट रहे हैं / व्यक्ति व्यक्ति के बीच बढ़ती दूरी / वस्तुओं से रोमांस / वस्तु- प्रेम में स्त्रियों का निकास / एक हाथ की ताली : बोध कथा / नेति नेति / भयरहित होने का ध्यान से क्या संबंध है? / मौलिक भय – मृत्यु का / ध्यान महामृत्यु है / मैं की मृत्यु – मन की मृत्यु / बिना अभय ध्यान में प्रवेश नहीं / मृत्यु की प्रतीति ही अमृत का द्वार है / मृत्यु-भय Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण ध्यान से वापस लौट आना / मृत्यु की पूर्व सूचना उपयोगी है / मृत्यु की प्रतीति सौभाग्य है / मन मर जाता है – आप नहीं मरते / ठीक से शांत हुए मन वाला / ठीक शांति - गलत शांति / आत्म-सम्मोहन से जनित झूठी शांति / खुद को धोखा देने की मन की क्षमता / झूठी बीमारी-झूठे इलाज / धोखे की दवा - प्लेसबो / सब पैथियां चलती हैं / मन के खेल / आरोपित शांति - झूठी शांति / अनुशासित परिणाम / सही दिशा है – अशांति को समझना / अशांति के कारण / महत्वाकांक्षा का ज्वर / तनाव के कारण छोड़ें / शांति सहज स्वभाव है। 8 योगाभ्यास - गलत को काटने के लिए 9 योग का अंतर्विज्ञान ... ... अति बाधा है / मनुष्य की रचना बड़ी जटिल है / अंतस प्रवेश के लिए शरीर और मन की लयबद्धता जरूरी / चेतना का अंतर्गमन / स्वास्थ्य अर्थात विदेह-चेतना / सम्यक आहार हो, तो चेतना पेट से मुक्त / सम्यक निद्रा ध्यान में सहयोगी / बुढ़ापे में नींद का कम हो जाना / बच्चों के भोजन और निद्रा की सहज प्रकृति को नष्ट न करना / बच्चों में सम्यक आहार की अंतःप्रज्ञा : इजरायल में हुए प्रयोग / जानवरों की आदतें प्राकृतिक / मनुष्य में सभ्यता के साथ विकृतियों का आना / प्रत्येक व्यक्ति की जरूरत अलग है / जरूरतों का औसत नियम - अवैज्ञानिक / सबके लिए एक ही समय निश्चित करना अप्राकृतिक / स्कूल, दफ्तर और दूकानों का समय व्यक्तियों के अनुकूल पुनर्व्यवस्थित करना / दुख सूचक है / संतुलन का सुख / सम्यक चर्चा से एक आंतरिक सुख का बोध / सुख और दुख मापदंड हैं / सम्यक श्रम - सम्यक विश्राम / हर बात का मध्य खोज लेना / अतियों में जीने वाला ध्यान में न जा सकेगा / गहरी नींद के दो घंटों में शरीर का तापमान दो डिग्री गिर जाना / स्त्रियों का मासिक-धर्म चांद के अनुकूल / सभ्यता के साथ प्राकृति लयबद्धता का टूटते जाना / आदिवासियों की स्वप्नरहित गहरी नींद / स्वप्नों के ग्राफ बनाने वाले यंत्र / सुषुप्ति है - बेहोश समाधि / सुषुप्ति में परमात्मा से जुड़ जाना / संतुलित व्यक्ति को गहरी नींद उपलब्ध / कर्मों में सम्यक चेष्टा का क्या अर्थ है ? / असम्यक चेष्टा - लिखते समय पूरे शरीर का तन जाना / जरूरत से ज्यादा करना या कम करना / संयत बुद्धि का उपयोग / सम्यक कर्म बांधते नहीं / बुद्ध-साधना के आठ सम्यकत्व / सम्यक कर्म के पीछे कोई पछतावा नहीं होता / दफ्तर में घर-घर में दफ्तर का चला आना / सम्यक कर्म करने वाला निर्भर होता है / योगाभ्यास अर्थात स्वनिर्मित बंधनों को काटने का आयोजन / योगाभ्यास की जरूरत नहीं - अगर कोई नर्क निर्मित नहीं किया है / अशांति का हमारा भारी अभ्यास है / कोई परेशानी न हो, तो भी आदमी बेचैन होता है / जीवन में भले को देखना / योग - जीवन में विधायक को बढ़ाने की कीमिया / पुराने गलत अभ्यास को इंच-इंच काटना / गलत अभ्यासों को काटने का अभ्यास / अशुभ पर-भाव है / शुभ स्वभाव है। . 135 119 योगाभ्यास से अशुद्धि कैसे कटती है ? / परमात्मा हमारा स्वभाव है / स्वभाव खो नहीं सकता – केवल विस्मरण हो सकता है / योग है - विस्मरण को तोड़ने की अवस्था / बोध के लिए विपरीत जरूरी / बिछुड़ना - मिलने का प्राथमिक अंग है / भूलने की प्रक्रिया है पर से तादात्म्य / तादात्म्य तोड़ने की प्रक्रिया है योग / योग शुद्ध विज्ञान है / योग है – वैज्ञानिक धर्म की आधारशिला / योग से सोई हुई शक्तियों को जगाना / नब्बे प्रतिशत शक्तियां सोई पड़ी हैं / अंतर्यात्रा के लिए बड़ी ऊर्जा चाहिए / प्राणायाम, आसन और मुद्राओं से – ऊर्जा स्रोतों पर चोट / मस्तिष्क में खून के अधिक प्रवाह का परिणाम / शक्ति के स्रोत – विभिन्न चक्र / योग से एक नए ही मन का निर्माण / शरीर के लिए हठयोग और मन के लिए मंत्रयोग / चित्त पर ध्वनि तरंगों का प्रभाव / अराजक ध्वनियों से मन विक्षिप्त / विशिष्ट ध्वनियों का उच्चार / हर मंत्र का अलग तरंग ढांचा / एक लयबद्ध मन निर्मित करना / योग के तीन आयाम - ऊर्जा, ध्वनि और ध्यान / जहां ध्यान जाता, वहां चेतना बहती / परमात्मा की कोई दिशा नहीं / ऊर्जा के वर्तुल और अंतर्यात्रा / निष्कंप Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त प्रभु में पहुंच जाता है / ऊर्जा के मंडल में चेतना का निष्कंप हो जाना / संसार कंपनों का समूह है / वासनाओं के बीच कंपता हुआ चित्त / सोच-विचार से चित्त और ज्यादा अशांत / पत्तों, शाखाओं को मत काटो-जड़ को ही काट दो / क्रोध, लोभ, मान, अहंकार का कुल जोड़ सब में बराबर / जड़ है-मन का ढांचा / मन बदला कि सब बदला / योग की तीन शाखाएं-ज्ञान, भक्ति और कर्म / विचार, भाव और क्रिया / न ज्ञेय बचे न ज्ञाता बचे-सिर्फ ज्ञान रह जाए / सिर्फ नृत्य रह जाए, सिर्फ गीत रह जाए / सिर्फ कर्म रह जाए / महावीर, मीरा और अर्जुन-ज्ञान, भक्ति और कर्म के तीन टाइप। 101 चित्त वृत्ति निरोध ... 149 चित्त की दौड़ सुखोन्मुख है / दौड़ती हुई चेतना मन है / उपराम हुई चेतना आत्मा है / खोज गई–कि चित्त गया / बुद्ध के चार आर्य-सत्यः योग की आधारशिला / जीवन दुख है तो दौड़ समाप्त / पैडल न मारने पर साइकिल का रुक जाना / दुख के अनुभव से हम निष्पत्ति नहीं निकालते / सख की आशा बनाए रखना / भूलों की पुनरावृत्ति / दुख के साथ असंवेदनशील हो जाना / गलती करने की कुशलता / जीवन दुख दिख जाए, तो ही अमृत की खोज शुरू / दुख से बाहर छलांग / दूसरा आर्य-सत्य ः दुख से मुक्ति का उपाय है / योग है-दुख से मुक्ति की खोज / सुख की खोज संसार है / • व्यर्थ को हटा देने पर स्वभाव प्रगट / आनंद स्वभाव है / घर में आग लगी है। यह प्रतीति-और छलांग / हमें कोई आग नहीं दिखाई पड़ती / योग विधि है, उपाय है / योग काम आएगा-यदि जीवन दुख प्रतीत हो गया हो / तीसरा आर्य-सत्यः दुख-मुक्ति की अवस्था है | तीसरे आर्य-सत्य के प्रमाण हैं- स्वयं बुद्ध / पूछना क्या सच में इसमें सुख है? / इससे कभी सुख किसी को मिला? / पहले लगता सुख–बाद में सिद्ध होता दुख / वह कौन है जो जानता-सुख को, दुख को? / रोज एक घंटा अंतस-विश्राम के लिए समय निकालना / व्यर्थ के काम करके समय काटना / क्षण-क्षण जीवन बीत रहा है / खाली आदमी उपद्रव करता है / प्रभु स्मरण के लिए समय कहां है-मन की आत्म-वंचना / समय सबके पास बराबर है / चित्त वृत्ति निरोध का आप क्या अर्थ करते हैं? / निरोध-दमन नहीं है / दमन अज्ञान है / दमन नहीं समझ / समझ-साक्षात्कार-निरोध बन जाती है | जहर को जहर जानते ही–जहर से छुटकारा / क्रोध के पूरे नर्क का साक्षात्कार / फिर क्रोध होना कठिन / गुरजिएफ के आयोजन-साधकों के लिए / कुनकुनी वृत्ति परिचय नहीं बनती / काम, क्रोध, लोभ, भय-इन्हें जानना, इनकी परिपूर्ण तीव्रता में / दो चेहरे-क्रोधी चेहरा, अक्रोधी चेहरा / असली आदमी-नकली आदमी / झूठे मुखौटे तोड़ना / असली रूप-नर्क है, दुख है / असली रूप पहले आर्य-सत्य को प्रगट कर जाएगा / भीतर है-पागलपन, विक्षिप्तता / इंद्रियों से तादात्म्य करने की चेतना की क्षमता / मैं इंद्रियां हूं-तो संसार की यात्रा शुरू / फिर विषयों की खोज में निकलते हैं / भगवत्स्वरूप से चलायमान होना / शरीर और इंद्रियों से भिन्न स्वयं के होने पर ध्यान / मन से, शास्त्र से आए उत्तर व्यर्थ हैं / शरीर से अलग, भिन्न हुई चेतना प्रभु में रम जाती है। दुखों में अचलायमान ... 165 प्रभु को उपलब्ध व्यक्ति समस्त दुखों में अविचलित / हम कुनकुने दुखों के आदी हो गए हैं / भीतर आनंद हो, तो दुख बाहर ही बाहर रहते हैं | समान ही समान को खींचता है-दुख दुख को, सुख सुख को / प्रेमियों की वास्तविक खोज-परमात्मा की / प्रभु-मिलन परम मिलन है / अथक रूप से योग का अभ्यास / ऊब-मनुष्य का विशेष गुण / दुख भी उबाते-सुख भी उबाते / परमात्मा की ओर यात्रा में ऊब की बाधा / ध्यान में सातत्य की कठिनाई / संसार की यात्रा में प्रयत्न नहीं उबाता-प्राप्ति उबाती है / परमात्मा की यात्रा में प्रयत्न उबाता है-प्राप्ति कभी नहीं / बुद्धपुरुषों की वाणी में Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धा / कृष्ण को कभी विचलित नहीं देखा / कृष्ण की चेतना सदा युवा, सदा ताजी / बांसुरी और चारों ओर सदा नाचती गोपियां-आंतरिक प्रतीक / संगीत, नृत्य, उत्सव-कृष्ण के होने का ढंग है / भरोसे पर यात्रा संभव / करने से जानना आएगा / धनुर्विद्या और ध्यान / तीर चले-चलाने वाला कोई नहीं हो / समय बोध का तनाव-ध्यान में बाधा / दुख में समय लंबा मालूम पड़ना / ध्यान है समय के बाहर निकल जाना / प्रयत्न और प्रतीक्षा / बिना ऊबे श्रम करना / सोच-विचार के हजार कदम = श्रम का एक कदम / ऊब-साधक के लिए सबसे बड़ी बाधा / कृष्ण बार-बार क्यों दोहराते हैं? / हम सुन नहीं पाते / सुनने के भी क्षण हैं | हर बार कोई नया इशारा / प्रभु का सतत चिंतन / विचार नहीं–प्यास / सब के भीतर प्रभु की प्यास है / प्रभु प्यास को सब लोग पहचान जाते हैं / प्यास की गलत व्याख्या कर लेना / धन, पद, प्रभुता की खोज / नेपोलियन, सिकंदर की गलत दिशा में खोज / गलत दिशाएं छुटे–तो सतत चिंतन शुरू हो जाता है। मन साधन बन जाए... 179 चंचलता मन का स्वभाव है / मन परिवर्तन सूचक यंत्र है / संसार में मन की उपादेयता है / मन से परमात्मा नहीं जाना जा सकता / परमात्मा शाश्वत है / मन को चालू और बंद करने की कला / मन को मारना नहीं-वश करना है / मन एक उपयोगी साधन हो जाए / मन का कोई कसूर नहीं है / चलने की प्राचीन आदत / मन को ठहराने की कला सिखाना / ब्रेक और गति-वर्धक साथ-साथ न दबाना / मन को गति मिलती है तादात्म्य से / तादात्म्य से वृत्तियां गतिमान / तादात्म्य तोड़ना निरोध है / असहयोग से अगति / साक्षी आया—कि मन गया / मन संसार के लिए साधन है-प्रभु के लिए बाधा / जितना तेज मन-उतना ही संसार में कुशल / परिवर्तन के साथ-तनाव, बेचैनी, चिंता होगी ही / संसार और परमात्मा दोनों में जीने की कला / मन अनिवार्यतया असंगत होगा / हमारी जिंदगी-एक दुर्घटना है / विक्षिप्त मन के साथ प्रभु की ओर यात्रा असंभव / संसार से टूटना-परमात्मा से जुड़ना / पाप क्या है? / नए-नए रूप और आकारों में पाप की अभिव्यक्ति / पाप के भी फैशन बदलते हैं / पाप के मूल को समझना / रजोगुण पाप का आधार है / तीन गुण-सत्व, रज, तम / तम अवरोधक, रोकने वाली शक्ति है / घर, पत्नी-बच्चे-पुरुष के लिए रोकने वाली शक्ति / पुरुष है-रज, गति / स्त्री है-तम, अगति / सब धर्म पुरुष पैदा करते हैं / मगर धर्मों की सुरक्षा स्त्रियां करती हैं / तम ठहराव है, रज गति है, सत्व स्थिति है / सुषुप्ति में रजशून्यता से जड़ता / समाधि में-रज और तम बराबर–सत्व का उदय / रज आधिक्य पाप करवाता है / अकारण भी पाप करना / कुछ करने के लिए बेचैन आदमी/रज और तम संतुलन में शून्य हो जाएं / गति और अगति का संतुलन / विधि है-मन पर मालकियत / सारी जटिलताएं असंतुलन का परिणाम हैं / तमोगुण से पाप को नकारात्मक सहयोग / निगेटिव पापी के लिए अभी कोई जेल नहीं है / सत्व पुण्य है / सक्रिय ज्ञानी, निष्क्रिय ज्ञानी; निष्क्रिय अज्ञानी, सक्रिय अज्ञानी / सत्व है सक्रिय ज्ञान। पदार्थ से प्रतिक्रमण-परमात्मा पर ... 193 आत्मा को पदार्थ में लगाए रखना पाप है / आत्मा को परमात्मा में लगाए रखना पुण्य है / पदार्थ का उपयोग करने की कला / पदार्थ नहीं बांधता–रस बांधता है / सुख बाइप्रोडक्ट है / आसक्ति नहीं वरन सम्यक उपयोग / वस्तुएं साधन हैं-साध्य नहीं / रोटी जरूरत है-लक्ष्य नहीं / संपन्नता में भीतर का खालीपन स्पष्ट / वस्तुओं का रस सभी तरह के पाप करवा लेता है / चीजें बच जाती हैं, मालिक मर जाता है / स्वामी रामतीर्थ का जापानी संस्मरण / सदा पदार्थ की ओर दौड़ता हुआ चित्त / पदार्थ की ओर-या परमात्मा की ओर / पदार्थ की ओर चलने में अनंत भटकाव / पदार्थ से परमात्मा पर वापसी प्रतिक्रमण है / त्याग पुण्य है, क्योंकि वह प्रतिक्रमण है / बुद्ध को संपत्ति विपत्ति दिखाई पड़ी / पाप है आक्रमण-पदार्थ पर / पुण्य है Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण-पदार्थ से / हीरे और पत्थर पर आदमी द्वारा आरोपित हैं मूल्य / पदार्थ से मुक्ति और प्रभु में प्रवेश-युगपत घटित / पाप से मुक्त होते ही चित्त प्रभु में लग जाता है / प्रभु-स्मरण की सतत अंतर्धारा / सोते हुए रामतीर्थ के शरीर के रोएं-रोएं से राम की गूंज / सुख आनंद नहीं है / अनंत बूंदों का जोड़ सागर है / अनंत सुखों का जोड़ भी आनंद नहीं है / सुख और आनंद में परिमाण का नहीं-गुण का फर्क है / दुख के पार जाना हो, तो सुख के पार जाना पड़े / भारतीय का अध्यात्मवाद झूठा-वह असल में पदार्थवाद है / आध्यात्मिक होने के लिए जीवंत प्रयोग करना पड़े / अनासक्त होने की कला का अभ्यास / संकीर्तन क्या है? / बुद्धि के बाहर भाव-जगत में एक छलांग / गीत और नृत्य में व्यक्ति का खोना-और परमात्मा का होना। अहंकार खोने के दो ढंग ... 207 परमात्मा अदृश्य नहीं-हम अंधे हैं / सोच-विचार से आंख नहीं खुलती/अरूप की तरफ गति / खिड़की से देखने पर आकाश में आकार / इंद्रियां खिड़कियां हैं / इंद्रियां निराकार को आकार और विराट को सीमा दे देती हैं / स्त्रैण-चित्त को एक में सबको देखने में आसानी / पुरुष-चित्त को अनेक में रुचि / स्त्री को एक में तृप्ति / पश्चिमी स्त्री में स्त्रैणता कम होती जा रही है / स्त्रियों को बुनियादी बदलाहटें पसंद नहीं / स्त्री-पुरुष के चित्त-भेद के कारण उनके बीच बड़ी कलह है / दोनों को इंद्रियों के पार उठना पड़ेगा / चलचित्र के पर्दे पर जीवन होने का भ्रम / चित्त से गहन तादात्म्य / तादात्म्य तोड़ने के लिए साक्षीभाव का अभ्यास / अनेक में एक देखना-भक्ति मार्ग-स्त्रैण-चित्त के लिए / मीरा और महावीर / मीरा के लिए एक ही पुरुष है-कृष्ण / कृष्ण में सब लीन हो गए हैं / स्त्रैण-चित्त के लिए समर्पण है सूत्र / महावीर शुद्ध पुरुष-चित्त हैं / संकल्प, साधना / विज्ञान के विकास से भक्ति के रूप खंडित हुए / बुद्ध द्वारा स्त्रियों को दीक्षा देने से इनकार / समर्पण है छलांग और संकल्प है क्रमिक / गंगा में अशर्फियां फेंकना-गिन-गिनकर / पुरुष का मार्ग है-क्रिस्टलाइजेशन / स्त्री का मार्ग है विसर्जन / पुरुष के लिए तनाव से विश्राम आएगा / स्त्री को स्वीकार पहले आता है-प्रमाण बाद में / पुरुष के लिए पहले प्रमाण-फिर स्वीकार / अहंकार निराकार को नहीं देख पाता है / अहंकार आकार देता है | पुरुष-चित्त में अहंकार सघन होकर फूट जाता है / स्त्री-चित्त में अहंकार फैलकर विराट में लीन हो जाता है / अहंकार खोने के ये दो ढंग / हम वही देख सकते हैं, जो हम हैं / समान ही समान से मिल सकता है / हमारी अशुद्धि, हमारी सीमा / निराकार का आकार से मिलन संभव नहीं है / सब आकार दूसरे से बनते हैं / निराकार और असीम के लिए कोई दूसरा नहीं है / सम्राट से मिलने के लिए योग्यता चाहिए / बूंद बूंद रहते हुए सागर से नहीं मिल सकती / कृष्ण क्यों कहते हैं-मुझ वासुदेव को? / ताकि अर्जुन समझ सके / मुझ निराकार को, मुझ ब्रह्म को–अर्जुन यह न समझ पाएगा / अर्जुन आकार की भाषा समझता है / शुद्ध सत्य अज्ञानी की समझ में नहीं आएंगे / करुणावश थोड़ा गैर-सही होना / बच्चों को भाषा सिखाना—ग गणेश का / सब शास्त्र क ख ग हैं / अर्जुन को उस जगह लाना, जहां वह देख सके कि कृष्ण भगवान हैं, ब्रह्म हैं / कृष्णमूर्ति शुद्ध भाषा बोलने के कारण परिणामकारी नहीं हो सके / विद्यार्थी की भाषा बोलना जरूरी / कृष्णमूर्ति एकालाप करते हैं / संस्मरण : दर्शन शास्त्र के अकेले विद्यार्थी / गीता एक महानतम संवाद है / गीता में बहुत उतार-चढ़ाव हैं / अंत में अर्जुन शुद्ध सत्य को समझ पाएगा। सर्व भूतों में प्रभु का स्मरण ... 223 समस्त भूतों में प्रभु-स्मरण / भजन का व्यापक रूप / जीवन के सतत प्रवाह में भजन / अरूप को प्रतिपल देखने की साधना / जीवंत साधना-जीवन के विराट घनेपन में / महानास्तिक-महाआस्तिक-एकनाथ / शिवलिंग पर पैर रखना और कुत्ते को राम कहना / फांसी पर मंसूर-हसन का फूल से मारना / स्मरण की सतत चोट जरूरी/ रूप में अरूप को खोजना / परमात्मा बिना खोज के न मिलेगा / गुरु की कठोर करुणाः Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवनींद्रनाथ और नंदलाल का संस्मरण / शरीर और मन की अनेक पर्तों के पार छिपा परमात्मा / आखिरी रातः जीसस का शिष्यों के पैर धोना / जुदास में भी प्रभु को देखना / पूरा अस्तित्व ही परमात्मा का मंदिर है / समत्व योग है / अपने सादृश्य से सब में सम देखना / स्वयं के लिए और दूसरों के लिए समान माप-दंड रखना / स्वयं को हमेशा बचा रखना / दूसरों के निर्णायक न बनना / तथाकथित साधु-संन्यासी : स्वयं को पवित्र और श्रेष्ठ समझना / सबके भीतर एक ही बैठा हुआ है / मैं को तू के सम लाना महायोग है / दूसरों को नीचा दिखाने की तरकीबें-धन, पद, ज्ञान/निंदा को मान लेना-प्रशंसा के लिए प्रमाण खोजना / निकटतम संबंधों में भी मैं को ऊपर रखने का संघर्ष / महावीर की अहिंसा-स्वयं के सदृश दूसरों से व्यवहार / अहंकार-मेरा जैसा कोई भी नहीं / परमात्मा की मजाक ः तुझ जैसा दूसरा नहीं बनाया / मरघट में निवासः सादृश्य-योग साधना / मौत सबको समान कर देती है। सादृश्यता के साथ करुणा का जन्म / सादृश्यता अहंकार की मृत्यु है। मन का रूपांतरण...235 मन चंचल और बलशाली है / मन वायु की तरह सूक्ष्म और अदृश्य है / मन की थिरता कठिन है-असंभव नहीं / असंभव कहने से खोज बंद / मन-शरीर और चेतना की एक बाइप्रोडक्ट, उप-उत्पत्ति है / मन वस्तु नहीं-संबंध है / संबंध नष्ट होते हैं—पदार्थ नष्ट नहीं होता / मन को, प्रेम को प्रयोगशाला में पकड़ा नहीं जा सकता / पदार्थ का न सृजन हो सकता—न विनाश / जो चंचल है, वह थिर हो सकता है / सब शक्तियां दो विपरीत ध्रुवों में बंटी / प्रेम-घृणा, मित्रता-शत्रुता–साथ-साथ आते हैं / सिद्धांतों में विरोध हैं-सत्य में नहीं / जीवन की सभी असंगतियां गीता में हैं / कृष्ण से ज्यादा तरल आदमी खोजना कठिन है / अर्जुन के मन का निदान / मन वश में अभ्यास और वैराग्य से / अभ्यास और वैराग्य गीता के प्राण हैं / आदमी वही हो जाता है, जो अभ्यास कर लेता है / अभ्यास से रूपांतरण संभव / पूरे जीवन, दौड़ का प्रतिक्षण / संस्कारों को अभ्यास से काटा जा सकता है। चंचलता का मूल आधार-राग / थिरता का मूल आधार-वैराग्य। वैराग्य और अभ्यास ...249 राग है-संसार की यात्रा का मार्ग / वैराग्य है-स्वयं के घर की ओर वापसी / जिसे वैराग्य नहीं, वह अभ्यास में नहीं जाएगा / राग से वितृष्णा, विकर्षण / विषाद के बाद नए राग की खोज / सुख मात्र की व्यर्थता का बोध-असामान्य घटना / बोधकथा : ययाति की जीवेषणा / अनुभव के ऊपर आशा की विजय / शरीर को गहरे देखने पर विषयों से विराग / सोई हुई स्त्रियों को देखकर बुद्ध को जगा वैराग्य / वैराग्य : विषय से मुक्ति और स्वयं की तरफ यात्रा / हमारा राग का गहरा अभ्यास है / सबको वैराग्य आता है, लेकिन थिर नहीं हो पाता / बाहर सुख नहीं है / कामवासना का भारी अभ्यास चल रहा है / वैराग्य का भी अभ्यास करना पड़ेगा/अपना-अपना विशेष राग-काम, भोजन, यश आदि / राग के क्षण-विराग के क्षण-बराबर-बराबर / पति-पत्नी-सुख का धोखाः एक बोध संस्मरण / अतीत के दुखों की स्पष्टता- भविष्य की आशा का क्षीण होना / झेन फकीर कहते हैं : अभ्यास की जरूरत नहीं है स्वभाव को पाने के लिए / हमारा अभ्यास है-परमात्मा को खोने का / गलत आदतों के विसर्जन के लिए प्रयास जरूरी / कुछ न करने का अभ्यास करना / कृष्णमूर्ति की चुनावरहित जागरूकता : एक अभ्यासरहित अभ्यास / रूपांतरण अनिवार्य है / अनंत विधियां हैं / सभी धर्मों का आग्रह ः केवल यही मार्ग सत्य है / आग्रह-करुणावश / महावीर के सप्तभंगी वक्तव्य / किसी एक विधि में ही निष्ठा आवश्यक है / अल्लाह ईश्वर तेरे नाम के पीछे छिपी है राजनीति / अल्लाह और राम का पूरा ध्वनि शास्त्र अलग है / एक साथ दो द्वारों से प्रवेश संभव नहीं है / दो नावों में सवारी संभव नहीं / रामकृष्ण की छलांग-सगुण से निर्गुण में / काली–अंतिम बाधा / राग को अभ्यास से काटना पड़ेगा / कीर्तन की विधि। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 तंत्र और योग ... 265 मन को वश में किए बिना योगोपलब्धि-तंत्र से / तंत्र साधना-बहुत छोटे से वर्ग के लिए / तंत्र की प्रक्रिया बहुत कठिन / होशपूर्वक भोग से गजरना / मैथन करें-पर स्खलन न हो / शराब पीएं-होश कायम रखें / मन विषयों में दौड़े-साक्षी अकंप रहे / मन वश में हो, तो योग सरल है । गिरने पर चोट-अकड़ जाने के कारण / छलांग-अल्प लोगों के लिए / क्रमिक सीढ़ियों का जन-पथ / निरंकुश मन से छलांग लगा जाना / गुरु की जरूरत है—यदि विधि और मार्ग पूछते हैं / मन को वश में करना-सीढ़ियों वाला मार्ग/ हत्यारे अंगुलीमाल की तात्कालिक छलांग/अनुकूल परिस्थिति में शांत हो जाना सरल है / कृष्ण युद्ध में भी अकंप हैं / कृष्ण छलांग से पहुंचे हैं / शब्दों में कहा गया सत्य—मत हो जाता है / निःशब्द में है सत्य / मत के साथ स्वतंत्रता है-मानने या न मानने की / सभी शास्त्र मत हैं / मत को पढ़-सुनकर साधना प्रारंभ करना / ज्ञात से अज्ञात में छलांग-संकोच, झिझक स्वाभाविक / दूसरा किनारा है भी या नहीं! / मृत्यु के बाद-योग-भ्रष्ट की गति / संदेह के जो पार गया-वही सहायक / सांसारिक मन–पाने के लिए कुछ छोड़ने वाला / जो छोड़ता है, वही पाता है—उलटबांसी / कबीर की उलटबांसियां / यह किनारा छोड़ दो-उस किनारे की बात मत करो / पूरी गीता-संदेह के सिर काटने की व्यवस्था / बुद्ध सपना भी तोड़ेंगे और विकल्प भी न देंगे / दूसरा किनारा नहीं है / न संसार-न मोक्ष / कृष्ण के आश्वासन-एक झूठ छुड़ाने के लिए दूसरे झूठ का उपयोग / कृष्ण की करुणा। 197 यह किनारा छोड़ें ... 279 शुभ कर्म से सदा सदगति / विनाश या निर्माण सिर्फ संयोग का तत्व का नहीं / दो परम तत्व–पदार्थ और चेतना / चेतना नष्ट नहीं होती-न इस लोक में, न परलोक में / न चेतना मरती है-न शरीर मरता है / केवल संयोग टूटता है / प्रयोगशाला में टेस्ट-ट्यूब में बच्चे का जन्म संभव है / प्रयोगशाला में मनपसंद बेहतर आदमी का जन्म / वैज्ञानिक, संगीतज्ञ, मजदूर-जो चाहें-वैसा संयोग / डुप्लीकेट आदमी भी बना सकेंगे / कृत्रिम गर्भ बनाएंगे-आत्मा नहीं / शुभ कर्म कभी निष्फल नहीं जाते / असफल शुभ कर्म से भी सदगति / असफल अशुभ कर्म से भी दुर्गति / विचार और भाव भी कर्म हैं / हाथी के एक शुभ कर्म ने उसे अगले जन्म में संन्यासी बना दिया / बीज में छिपे-फूल, फल / मूर्छा में पाप किए जाना / एक क्षण में संन्यास घटित / संन्यास का स्थगनः कल का क्या भरोसा / योगभ्रष्ट चेतना स्वर्ग में सुख भोगती है या कुलीन घर में जन्मती है / सभी सुख चुक जाने वाले./ दुख निखारता है / सुखों में प्रतिभा का निखार नहीं होता / संसार चौराहा है / कृष्ण की करुणामय कोमलता और बोधिधर्म की कठोरता / अर्जुन और बुद्ध की मुलाकात संभव नहीं / कृष्ण धीरे-धीरे फुसलाते हैं अर्जुन को / दूसरे किनारे का आकर्षण बताकर यह किनारा छुड़वाना / अपने पाल खोलो-ताकि प्रभु की हवाएं तुम्हें ले चलें उस पार / शक्ति का उपयोग कमजोर करते हैं / परमात्मा सर्वशक्तिमान है / परमात्मा अनंत प्रतीक्षा कर सकता है | हमारा समय अल्प है / किनारा छोड़ें। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आंतरिक संपदा ... 293 जीवन समस्त प्रयासों का जोड़ है / श्रृंखलाबद्ध सातत्य / पूर्वजन्म के संस्कारों का प्राकट्य / अनायास संबोधि के छिपे कारण / आखिरी तिनका-आखिरी डिग्री / संबोधि कथाः एक झेन भिक्षुणी की / अहंकार का घड़ा फूटना / एडमंड बक को अनायास हुई परमात्मा की अनुभूति / कोलेरेडो की सोने की खदानः कुछ इंच से चूकना / प्रभु की दिशा में किया गया कोई भी प्रयास व्यर्थ नहीं जाता / अचेतन मन–अतीत जन्मों का संग्रह / आत्महत्या का क्षण-संन्यास का क्षण / बुद्धपुरुष की उपस्थिति-अचेतन पर्तों का खुलना / प्रयोग की गहराई से निकले शब्द / सदगुरु के निकट वास / जब शिष्य तैयार होता है, तो सदगुरु प्रगट होते हैं / योग्यता के अनुकूल अस्तित्व देता है / अस्तित्व देता है—पर हम चूक सकते हैं / बुद्ध का मृत्यु में प्रवेश / सुभद्र का प्रश्न : बुद्ध की करुणा / आत्मिक संपदा मृत्यु में नष्ट नहीं होती / परमात्मा की एक किरण भी काफी है / अनजान मार्गों से प्रभु की कृपा का संस्पर्श / बड़े भारी शास्त्रज्ञान से योग की छोटी जिज्ञासा श्रेष्ठ है / वेद विश्व-कोश है / सब के लिए संदेश-क्षुद्र से श्रेष्ठतम तक / अदभुत सर्व स्वीकार-वेद का / सकाम उपासना-निष्काम जिज्ञासा / वेद के सर्वस्वीकार से बुद्ध, महावीर, कृष्ण-सभी चिंतित / वेद-चुनावरहित संकलन / वेद की निंदा करनी बहुत आसान है / बुद्ध और महावीर के अवैदिक धर्म / वेद में सब है-इसलिए असंगति है / कंकड़-पत्थर से हीरे-जवाहरातों तक सब संग्रहीत / शुद्धि के बाद भी साधन जरूरी / पवित्र अहंकार का खतरा / सात्विक अहंकार / योग की विधियां-मैं को काटने के लिए / बायजीद का एक सम्राट से बुहारी लगवाना / संन्यासी का भिक्षा मांगना-एक विधि है / बुद्ध का जोर-भिक्षा मांगने पर / पिता की डांट-डपट-बुद्ध को / मैं जन्मों-जन्मों का भिखारी हूँ / राहुल को वसीयत देना–भिक्षा मांगने की / सात्विक अहंकार को काटने के लिए साधन / कीर्तन भी एक साधन है। श्रद्धावान योगी श्रेष्ठ है ... 307 योगी श्रेष्ठ है-तपस्वी से, सकाम कर्मी से / योग है अंतधिना / तपश्चर्या है बहिसाधना / तपस्वी और भोगी दोनों शरीर केंद्रित हैं / तपस्वी दमन व संघर्ष करता है शरीर से / योग अंतर-रूपांतरण है / योगी अंतसचेतना पर प्रयोग करता है / तपश्चर्या सबको दिखाई पड़ती है / कांटे पर लेटना-एक साधारण सर्कस / ध्यान का ठहर जाना योग है / योगी में भी एक सूक्ष्म अदृश्य अंतस तपश्चर्या फलित / योगी न दुख बुलाता, न सुख / आत्मपीड़क तपस्वी / पर-पीड़न-आत्मपीड़न का ही उलटा रूप / महात्मा गांधी, नीम की चटनी और लुई फिशर / गांधी के आश्रम में गोबर खाने वाले प्रोफेसर भंसाली / शास्त्रज्ञ से श्रेष्ठ है योगी / कबीर : मैं कहता आंखन देखी / पहले अनुभव फिर शास्त्र / स्वानुभव के बाद ही शास्त्र का सही अर्थ प्रगट / सकाम पूजा-प्रार्थना, जप-यज्ञादि / योग का आधार-निष्कामता / क्षत्रिय-मूलतः पर-पीड़क है / क्षत्रियों ने बड़े-बड़े तपस्वी पैदा किए / ब्राह्मण की नाजुक व्यवस्था / अर्जुन तू योगी बन / श्रद्धायुक्त योग-सरल, सहज / बिना श्रद्धा के योगाभ्यास-दूभर और लंबी यात्रा / श्रद्धा-विराट के लिए खुलापन / मैं अकेला काफी नहीं हूं / परमात्मा की सहायता-सभी के लिए प्राप्य / श्रद्धावान प्रभु-कृपा ग्रहण कर पाता है / परमात्मा का साथ हो, तो सब संभव है / संत थेरेसा का कैथेड़ल-तीन पैसे से बनना शुरू हुआ/ श्रम श्रद्धा = प्रभु-कपा = धन्यता। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता-दर्शन अध्याय 7 अनन्य निष्ठा ... 317 जीवन का स्वीकार / अस्वीकार और विरोध-अहंकार के कारण / प्रेम में दो शेष रहते हैं / प्रार्थना में दो विलीन हो जाते हैं / प्रेमियों को दूरी और सीमा का अहसास / प्रेमियों की पीड़ा / केवल प्रभु-प्रेम ही असीम / तू खोते ही मैं भी खो जाएगा / न प्रेमी न प्रेयसी–केवल प्रेम शेष / दो व्यक्तियों में कलह सुनिश्चित / प्रेम की अशुद्धि का भक्ति में प्रक्षेप / राग की कालिमा / कृष्ण के मैं को समझा तो पूरी गीता समझी / कृष्ण का सहज ही कहना : सब छोड़; मेरी शरण आ / पीछे कोई अहंकार नहीं है / अहंकार जटिल और चालाक होता है / वैज्ञानिक प्रयोग में संशय जरूरी / विज्ञान में ससंशय निष्ठा / धर्म में निःसंशय निष्ठा / संशय के लिए-गलती दूसरे में / निःसंशयी-भूल स्वयं में खोजता है / मिटना धर्म है / आज की शिक्षा–संदेह की / पूरब की श्रद्धा पर आस्था / भीतर का द्वार खुलता है-श्रद्धा से / अर्जुन ने अश्रद्धा के प्रश्न न उठाए / जिप्सियों की समूहगत जीवन शैली / जैसे संस्कार-वैसे विचार / अति पर संशय का गिर जाना / निःसंशय आत्मीयता में ही गहरे सत्य संवादित / संदेहशील चित्त बंद होता है / रूपांतरण का भय / परमात्मा में आसक्त मन वाला इसका क्या अर्थ है? / पूर्ण अनासक्त व्यक्ति ही परमात्मा में आसक्ति वाला / समस्त रूपों में छिपा अरूप / समस्त आकारों में छिपा निराकार / संदर्भ के अनुकूल शब्दों के भिन्न अर्थ / इक साधे सब सधै / श्वेतकेतु का शास्त्रज्ञान / स्वयं मिटकर ही रहस्य जाना जाता है / रहस्य में जानने वाले का खो जाना / फिलासफी और धर्म का अंतर / अज्ञान में छलांग / मास्टर-की-ऐसी कंजी जिससे सब ताले खुल जाते हैं / ज्ञान का बोझ / आत्मज्ञान। सक्त व्यक्ति ही परमात्मा में आ नराकार / संदर्भ के अनकल श कर ही रहस्य जाना जाता N परमात्मा की खोज ... 333 प्रभु को वस्तुतः कभी खोया नहीं है / पाना कठिन है, क्योंकि हम उसकी ओर पीठ किए हैं / प्रभु से दूर भागना / करोड़ों में कोई एक उसे खोजता है / पता चलने के लिए दूरी चाहिए / सागर बिच मीन पियासी / ध्यान जाता है—अभाव की ओर / निकट पर ध्यान को लगाना / वर्तमान में रस लेना / संतोष का अर्थ / प्रभु-खोज की अभीप्सा / मन का भिखमंगापन / और ज्यादा-और ज्यादा / नहीं है को भूलें-जो है, उसे देखें / कोई भी गरीब नहीं है / बोधकथा : आंखें बेचोगे? हाथ-पैर बेचोगे? / संदेहवान चित्त नकारात्मक / श्रद्धालु चित्त विधायक / समर्पण अति दुर्लभ है / बाहुबली की कठिन तपश्चर्या / अहंकार को खोना / पंच महाभूत-आधुनिक विज्ञान की भाषा में / जीवन की मूलाधार ऊर्जा-अग्नि / अंतर्यात्रा में प्रकाश के अनुभव / जीवन-ज्योति और आक्सीडाइजेशन / विद्युत-अग्नि का ही एक रूप / अग्नि के तीन रूप-ठोस, द्रवीय और वायुवीय / अग्नि की स्थिति-आकाश में, स्पेस में / समय-आकाश का ही एक रूप / अग्नि देवता और पंच महाभूत-लोक-भाषा के शब्द / अग्नि के ही अंतस रूप—मन, बुद्धि, अहंकार / पंच महाभूत और मन, बुद्धि, अहंकार-इन आठ के पार है परमात्मा / अहंकार बड़ा सूक्ष्म है / कुछ भी करो-अहंकार पीछे खड़ा हो जाता है । अहंकार, बुद्धि और मन-विद्युत ऊर्जा से ही क्रियाशील / मशीनों में बुद्धि और अस्मिता भी डालना संभव / मनुष्य का अहंकार भी यांत्रिक है / जो अस्रष्ट है-वह परमात्मा / जो निर्मित हुआ—वह प्रकृति है / प्रकृति के पार जाए कोई तो परमात्मा / अपरा है प्रकृति-परा है चैतन्य / योग-पार को पहचानने की प्रक्रिया / साक्षीत्व से-परा / जो भी दृश्य बन गया वह मैं नहीं हूं / मैं को देखने में कठिनाई-क्योंकि वह अति सूक्ष्म है / दूसरे की उपस्थिति से मैं में फर्क / हाथी का अहंकार-चूहे का अहंकार / जागकर देखें-यह मैं कब-कब Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खड़ा होता है / अहंकार के साक्षीत्व से-परा में प्रवेश / सब को धारण किए है - परा चैतन्य । 3 अदृश्य की खोज... 347 प्रगट जगत सम्हला हुआ है - अप्रगट परमात्मा में / धर्म है - अदृश्य की खोज / संसार है— दृश्य में अटक जाना / जो इंद्रियगम्य है - वह प्रकृति / इंद्रियों के पार है परमात्मा / अदृश्य के बोध वाला व्यक्ति ही प्रौढ़ है / धर्म-शून्य संस्कृति बचकानी / जीवन संपदा - गहरे में छिपी / जिन खोजा तिन पाइयां गहरे पानी पैठ / परमात्मा स्रष्टा है / परमात्मा विनाशक भी है – केवल भारत का साहसपूर्ण वक्तव्य / विनाश में भी प्रभु कृपा देखने वाला - धार्मिक / विश्राम है—- मृत्यु, प्रलय / जीवन वर्तुलाकार है / जीवन के समस्त द्वंद्व संयुक्त हैं / शैतान को परमात्मा से अलग मानना - विभाजित निष्ठा / अविभाजित परमात्मा हो – तो ही श्रद्धा अविभाजित होगी / पश्चिम में विखंडित व्यक्तित्व / कृष्ण का समग्र स्वीकार - शांति भी, युद्ध भी / अविरोध - वेदांत का सार / अद्वैत सत्य को अपरा और परा में क्यों बांटा गया ? / विभाजन – अज्ञानियों को समझाने के लिए / दृश्य वृक्ष और अदृश्य जड़ें / धीरे-धीरे गहरी बातें कहना / शब्द से निःशब्द की ओर ले जाना / अर्जुन के अहंकार को धीरे-धीरे पकड़ना / अज्ञानी की भाषा का ही उपयोग करना / परमात्मा रस है / सौंदर्य, प्रेम, आनंद, ब्रह्म - सब रस हैं / मैं पवित्र सुगंध हूं / पवित्र सुगंध - जो जीवन ऊर्जा को ऊर्ध्वगामी करे / अपवित्र गंध - जो वासनाओं को जगाए / समाधिस्थ व्यक्ति से निकलती सुगंध - अति संवेदनशील व्यक्ति को पता चलता है / एक पृथ्वी - अलग-अलग बीजों द्वारा अलग-अलग गंध खींचना / कामोत्तेजना में शरीर से एक दुर्गंध निकलना / ध्यानी के शरीर से विशिष्ट सुगंध निकलना / महावीर की सुगंध / पवित्र सुगंध — केवल चेतना के फूल में / सूर्य-चंद्र-ताराओं में मैं प्रकाश हूं / आपने कभी प्रकाश नहीं देखा है - प्रकाशित चीजें देखी हैं / प्रकाश एक अदृश्य उपस्थिति है / परमात्मा प्रकाश है / सिद्ध की दिव्य आभा / आभा दिखाई दे, तो आकार खो जाएगा / बुद्ध बोधि के बाद एक प्रकाशपुंज हैं / आध्यात्मिक विकास की नाप - तेज की मात्रा से / आकाश में मैं शब्द हूं / शब्द की तरंगें नष्ट नहीं होतीं / शुभ तरंगें इकट्ठी करने के प्रयास / राधेश्याम कहने पर नाराज वृद्ध - एक बाल-अवस्था का संस्मरण / वेदों में मैं ओम हूं / ॐ में समस्त साधनाएं बीज रूप से संगृहीत हैं / अ उ म -से जगत के सब शास्त्र निर्मित हो सकते हैं / उ के तीव्र उच्चार से जीवन ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन / ऊर्जा स्रोत – नाभि पर चोट / ॐ में बीजरूप में छिपी परमात्म-ऊर्जा । 4 आध्यात्मिक बल ... 363 अभिव्यक्ति का प्रयास / कृष्ण के शब्द इशारे मात्र हैं / अंगुली न पकड़ें - चांद की ओर आंख उठाएं / पुरुषों में पुरुषत्व हूं / देहरूपी नगर के भीतर रहने वाला - पुरुष / शाश्वत, निर्गुण, निराकार है पुरुषत्व / लहरें दिखाई पड़ती हैं - सागर नहीं / मैं वासनारहित वीरत्व / महावीर का वीतराग वीर्य / एक ही वीरत्व - अकेले होने का साहस / वासना से आने वाला - एक प्रकार का बल / वासना अंधी है / धर्म से भरी कामवासना संभव है / प्रभु-अर्पित काम / सामान्यतः हम कामवासना के शिकार / धर्म को उपलब्ध व्यक्ति प्रकृति को आज्ञा दे सकता है / जीसस का जन्म क्वांरी मां से / किसी आत्मा को सचेतन रूप से गर्भ देना / आध्यात्मिक गर्भ-विज्ञान / तीर्थंकर के गर्भ में आने के सांकेतिक स्वप्न / बुद्ध की मां की मृत्यु पूर्व-अपेक्षित / बुद्ध का पुन अवतरण - मैत्रेय के रूप में - योग्य गर्भ का अभाव / संपूर्ण भूतों का सनातन कारण हूं / एक घटना – हजारों कारण / कार्य-कारण का अनंत जाल / एकमात्र कर्ता — परमात्मा / मनुष्य का भ्रम - स्वयं कर्ता होने का / सनातन कारण के बोध से व्यक्ति शांति को उपलब्ध / बुद्धिमानों की बुद्धि हूं मैं / उधार बुद्धि / असली बुद्धि - प्रज्ञा / उधार ज्ञान वक्त पर काम नहीं पड़ता : एक बोधकथा / जानकारी नहीं – अंतर्जागरण, बोध / अंतर-आकाश Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में खड़े हो जाना / मैं तपस्वियों में तप हूं / प्रदर्शनकारी तपश्चर्या ः अहंकार का खेल / राबर्ट रिप्ले की तिकड़में प्रसिद्ध होने के लिए / सम्यक तप—द्वंद्वों में अकंप / तप से क्रिस्टलाइजेशन फलित / तप-जो आत्मवान बनाए / तपश्चर्या आसान है; तप कठिन है / कृष्ण अनेक-अनेक मार्गों की खबर दे रहे हैं / बार-बार कहना-पता नहीं अर्जुन कब सुन ले / खुलेपन के क्षण / बायजीद की शिक्षा का अनूठा ढंगः शिष्यों को नींद से उठाकर निर्देश देना / कृष्ण की कोशिशें। L . प्रकृति और परमात्मा ... 377 प्रकृति परमात्मा में है लेकिन परमात्मा प्रकृति में नहीं है / साधक के लिए यह सूत्र है / प्रकृति के पार साक्षी / शरीर में, प्रकृति में परमात्मा है तो खोज की त्वरा न रहे / पहले खोजो परमात्मा को / हम सब खोजते हैं—प्रभु को छोड़कर / परमात्मा की आग में सब पाप का जल जाना / सात्विकता प्रभुरहित हो तो व्यर्थ / नीति है बाह्य परिवर्तन / धर्म है—अंतस क्रांति / परमात्मा से संबंध बने, तो क्रांति आप ही आप / बुरा असंभव हो जाता है | धर्म अवतरण है-पूर्ण से खंड की ओर / धर्म शुरू करता है विराट से-विज्ञान शुरू करता है अणु से / धर्म है समर्पण, और विज्ञान है-संघर्ष / सत्व, रज, तम तीनों ही मोहित करते हैं / अर्जुन सत्व से सम्मोहित हो रहा है / दूसरों का कल्याण करने के पहले-अपना तो कर लो / शुभ, अशुभ दोनों से मक्त होने पर-ऊर्ध्वगमन / लोहे की जंजीरें सोने की जंजीरें / साध और संत की भिन्नता / संयम और सहजता / व्यक्ति, प्रकृति और परमात्मा / केवल परमात्मा के सहारे प्रकृति से ऊपर उठना संभव / परमात्मा को देखते ही प्रकृति शांत हो जाती है / बड़ी शक्ति है प्रकृति की / शरीर, मन, बुद्धि-सब प्रकृति से निर्मित / भजन भाव की दशा है / सब में प्रभु-स्मरण आए / जहां स्मृति-वहां चेतना का बहाव / शब्द नहीं—भाव / मां और बच्चे के बीच बहती-निःशब्द भाव की धारा / सतत भाव से एक धारा का, एक सेतु का निर्माण / प्रकृति परमात्मा की योगमाया है / परमात्मा का स्मरण सम्मोहन भंजक है / किसी भी बहाने प्रभु-स्मरण कर लो / मेरे नाम के आगे भगवान लगाना-एक बहाना / रजनीश भूल जाए–भगवान याद रहे / सदा मैं आपके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता रहा / प्रभु-स्मरण सीखें / कीर्तनः प्रभु-स्मरण। जीवन अवसर है ... 393 मनुष्य के दो परम विभाजन-प्रभु-उन्मुख और प्रभु-विमुख / प्रभु को न भजने वाला मूढ़ है / मूढ़-स्वयं को हानि पहुंचाने वाला / परमात्मा के बिना आदमी दरिद्र ही रहेगा / परमात्मा से लड़ना अर्थात स्वयं से लड़ना / भजन है सेतु-आदमी और परमात्मा के बीच / सजन-वृत्ति-विनाश-वृत्ति / प्रभु-विस्मरण-परम दुर्भाग्य / प्रभु के अभाव में सब उपद्रव इकट्टे / मांग है, तो प्रार्थना संभव नहीं / प्रार्थना है–धन्यवाद, अहोभाव / मांगने की आदत / जीवन व्यर्थ की बातों में खोना / एकमात्र बुद्धिमत्ता-शाश्वत को खोज लेना / मृत्यु-बोध द्वार है-अमृत-बोध का / पाप की आग से गुजरकर संतत्व का जन्म / सम्मोहित हुए मूढ़ता की पुनरावृत्ति करते चले जाना / अनुभव के ऊपर आशा की विजय / अनुभव सम्मोहन तोड़ सकता है / प्रेम में स्वयं को पूरा का पूरा प्रगट कर देना / छिपाव दूरी बनाएगा / ईसाइयत का कीमती दान-पाप की स्वीकारोक्ति-विधि / मुखौटे और धोखे / कभी-कभी असावधानी में मुखौटे का उखड़ जाना / छिपाव दूजापन है / अछिपाव एकीभाव है / अप्रौढ़ चित्त की धर्म में गति नहीं / सांसारिक लोभ / सम्राट श्रेणिक! ध्यान खरीदा नहीं जा सकता / लोभवश धर्म में उत्सुकता-बचकानी / संसार की व्यर्थता-धर्म की पूर्व-भूमिका / भय और लोभ-एक ही सिक्के के दो पहलू / वृद्धावस्था में धर्म में रुचि-मृत्यु-भय के कारण / अभी तो तू जवान है! / मुर्दे के पास राम-राम करना / क्या प्रभु-कृपा सशर्त बंटती है? / प्रभु तो सदा बरस रहा है / हम उलटे घड़े हैं / जबर्दस्ती आंखें नहीं खोली जा सकती / बरसता समान है—मिलता कम-ज्यादा है / लोभ और Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भय वाला आदमी उलटा घड़ा है / प्रलोभन नहीं-अभीप्सा, ममक्षा। मुखौटों से मुक्ति ... 409 प्रभु को जानने वाला प्रभु ही हो जाता है / हम व्यक्ति नहीं-भीड़ हैं / हम एक सतत बदलता हुआ प्रवाह हैं / हमारे अनेक चेहरे / हर आदमी चेहरा लगाए घूम रहा है / स्वयं को धोखा देना / परमात्मा से जुड़ने के लिए भीतर एक होना जरूरी / विराट से जुड़ते ही क्षुद्रताओं का जल जाना / जानना और परिचय का फर्क / हमारा सब जानना द्वैत का / वानगॉग का सूर्य के साथ तादात्म्य / पहले बांस हो जा—फिर उनके चित्र बनाना / ब्रह्मतत्व-जहां होना और जानना एक है | ब्रह्म सत्य-तो संसार स्वप्नवत / खोजी खो जाता-परमात्मा बचता / अर्थार्थी-सांसारिक पदार्थों के लिए प्रार्थना करने वाले / आर्त-दुख और पीड़ा से प्रार्थना करने वाले / जिज्ञासु-विचारक, दार्शनिक / ज्ञानी भक्त-आमूल रूपांतरण के लिए जीवन दांव पर लगाने वाला / भक्तों की संख्या अत्यंत विरल / सकामी आराधक-तथाकथित, नाममात्र के भक्त / वासना-चेतना का पतन है / हर वासना के बाद दीनता और विषाद / विचार प्रवाह को तोड़ने के उपाय / फरीद का बेबूझ और तर्कातीत व्यवहार / विभिन्न धर्मों की विधियां-चेतना-धारा को वासना से हटाना / मंदिर के घंटे / पूजा के पहले स्नान / जूते बाहर निकालना / साष्टांग प्रणाम / ज्ञान स्वभाव है / वासना को पकड़ना पड़ता है / कैलाश-अंतस चेतना का शिखर / प्रार्थना की पहली शर्त-कोई मांग न हो/सस्ते देवी-देवता-मनोनिर्मित / मोहम्मद ने काबा की मूर्तियां हटवाई-ताकि लोग एक परमात्मा को पुकार सकें / सिर चढ़ाने के बदले नारियल चढ़ाना / शुभ मृतात्माओं से सहायता मिलना संभव / परम उपलब्धि के लिए देवता सहायता नहीं कर सकते / वासना-शून्य भक्त भगवान हो जाता है। 8 श्रद्धा का सेतु ... 425 श्रद्धा हो—किसी भी बहाने / श्रद्धा-न विश्वास है, न अविश्वास / श्रद्धा है-अविश्वास का अभाव / झूठी श्रद्धा के कारण धर्म मृत हो गया है । विश्वासी संदेह और जिज्ञासा से डरता है / सकाम उपासना धीरे-धीरे निष्काम बने / वासना पूरी हो जाए, तो पता चले कि कुछ भी पूरा नहीं हआ / एक रास्ता है : गलत छोड़ें, तो सही मिले / दूसरा रास्ता है : सही मिले, तो गलत छूट जाए / कृष्ण का जोर दूसरे रास्ते पर है / कृष्णमूर्ति का जोर-कि गलत पहले छूटे / कृष्ण की करुणा अपरिसीम है / कृष्ण प्रौढ़ बनाते हैं-खिलौने नहीं छुड़ाते / दीया जले, तो अंधेरा आप ही आप न हो जाए / कृष्ण गलत को भी समर्थन देते हैं / देवताओं के बहाने श्रद्धा को बढ़ाना / कमजोर लोगों की फिक्र करना / कृष्णमूर्ति की कठोरता / विविध नाम-रूप में परमात्मा की ही शक्ति काम करती है। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निराकार का बोध ... 431 सकाम प्रार्थनाओं के फल-क्षणिक वस्तुएं / क्षुद्र वस्तुएं मांगना-अल्प बुद्धि का लक्षण / परम आवश्यकता को मांगना-बुद्धिमत्ता है / गलत दिशा में सुख खोजना / दूर-दृष्टि की कमी / सम्राट अशोक का युद्ध से वैराग्य / जो मिला है, उसे भूल जाना / प्रार्थना धन्यवाद है-जो मिला ही है, उसके लिए / कृष्ण में छिपे निराकार को न देख पाना / परमात्मा का आकार में रूपायित होना / कृष्ण को केवल देहधारी की तरह पूजना नासमझी है / कृष्ण की भगवत्ता का इनकार-दूसरी नासमझी है / प्रेमी की अति-नास्तिक की अति / निराकार को देखने की क्षमता / केवल आकार को देखने की हमारी जड़ आदत / शब्दों को समझना, अर्थ को समझना नहीं है / प्रकट होते ही रूप बन जाता है / अरूप की खोज / बुद्ध न चले, न बोले / रिझाई : मैं अजन्मा हूं / ध्यान का एक प्रयोगः मेरी सीमा कहां है? / शरीर के फैलने-सिकुड़ने का बोध / मेरी कोई सीमा नहीं है / दूसरा एक ध्यान : मेरी उम्र कितनी है? / ध्यान है—आकार से निराकार की तरफ यात्रा / निराकार में है-सत् चित् आनंद / इंद्रियां आकार का निर्माण करती हैं | ध्यान का एक तीसरा प्रयोग : मैं मर गया हूं / मैं शरीर नहीं हूं-ध्यान का अनुभव / निराकार परमात्मा-इंद्रियातीत अनुभव है / कृष्ण जैसी चेतना में भूत, भविष्य, वर्तमान का एक हो जाना / सब है-अभी और यहीं/ अस्तित्व है-शाश्वत वर्तमान / हम बीते हैं-समय नहीं / समाधिस्थ चेतना में सम्यक ज्योतिष का जन्म / चेतना की ऊंचाइयों में अतीत, वर्तमान और भविष्य का फासला गिरना / नियति का पूर्व-बोध / नियत महाभारत युद्ध-और निमित्त अर्जुन / जीसस की सूली–जो होने वाला है, वह होगा ही / क्राइस्ट-ड्रामा / कृष्ण के लिए युद्ध-नाटक से ज्यादा नहीं / गांधी की तरकीब-महाभारत युद्ध 'को प्रतीकात्मक मानना / अर्जुन युद्ध करे-प्रभु समर्पित होकर / साधारण आंखों में कृष्ण एक सारथी हैं / आंख वालों के लिए कृष्ण परम परमात्मा हैं | कीर्तन से निराकार की ओर गति। धर्म का सार : शरणागति ... 445 प्रार्थना का बीज-वासनाओं के घासपात / राग-द्वेष के रहते प्रार्थना कठिन / प्रतिकूल परिस्थितियों के रहते प्रार्थना अंकुरित हो / सृजनात्मक जीवन / अज्ञानी द्वारा नर्क का सतत निर्माण / देखने का ढंग / वर्षा में नाचना / बाजार की भाषा में सोचना / वर्षा की बूंदों को परमात्मा के प्रसाद की तरह लेना / शरीर का भीगना-आत्मा का भीगना / विराट का बोध और शरण-भाव / जो तेरी मर्जी / स्वीकार से रूपांतरण / मैं की दीवाल / एक मात्र शरण योग्य-परमात्मा ही है / सूली पर जीसस-दो क्षण की शिकायत / तेरी मर्जी पूरी हो-और जीसस क्राइस्ट हो गए / जिसका मैं खोया-उसे सब मिला / जमीन पर लेटकर शरण-भाव में डूबना / शरण का अर्थ है-ओपनिंग / इंडोनेशिया का कीमती ध्यान आंदोलन-सुबुद / परमात्मा के हाथ में अपने को छोड़ देना / विराट ऊर्जा का प्रवाह / बुद्धं शरणं गच्छामि / मैं है बाधा–होने में / पूरी गीता का सार-शरणागति / कृष्ण की शरणागति और महावीर का अशरण-एक ही बात / अशरण तभी पूरा होगा—जब मैं न बचे / जीवन को दो खंडों में तोड़कर देखना / शुभ-अशुभ, प्रकाश-अंधकार / सब एक परमात्मा ही है / बुद्धि का काम है-तोड़कर देखना / ईसाई फकीर सेलवीसियस की भारत यात्रा : चमत्कारी खोपड़ी का रहस्य / रहस्य होता है-समग्रता में / खंडित होते ही रहस्य खो जाता है / विज्ञान है विश्लेषण और धर्म है संश्लेषण / समग्रता में दिव्य सौंदर्य है । सब भूतों में परमात्मा को देखना / जीवन अद्वैत है / रोज एक घंटे चुप बैठना / गीता ज्ञान यज्ञ-शब्द से—मौन से / मौन अखंड करता है / शब्दातीत का बोध-मौन में। Page #26 --------------------------------------------------------------------------  Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 6 पहला प्रवचन कृष्ण का संन्यास, उत्सवपूर्ण संन्यास Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < गीता दर्शन भाग-3 श्रीमद्भगवद्गीता कृष्ण का संन्यास अंतरात्मा के रूपांतरण पर, इनर ट्रांसफार्मेशन अथ षष्ठोऽध्यायः पर जोर देता है। कर्म को छोड़ना बहुत कठिन नहीं है। आलसी भी कर्म को श्रीभगवानुवाच | छोड़कर बैठ जाते हैं। और इसलिए, अगर पुराने संन्यास की धारणा अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः। ने आलसियों को आकर्षित किया हो, तो बहुत आश्चर्य नहीं है। स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ।।१।। और इसलिए, अगर पुराने संन्यास की धारणा को मानने वाले श्रीकृष्ण भगवान बोले, हे अर्जुन, जो पुरुष कर्म के फल को समाज धीरे-धीरे आलसी हो गए हों, तो भी आश्चर्य नहीं है। जो न चाहता हुआ करने योग्य कर्म करता है, वह संन्यासी और कुछ भी नहीं करना चाहते हैं, उनके लिए पुराने संन्यास में बड़ा रस योगी है और केवल अग्नि को त्यागने वाला संन्यासी, योगी मालूम होता है। कुछ न करना कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है। नहीं है; तथा केवल क्रियाओं को त्यागने वाला भी संन्यासी, इस जगत में कोई भी कुछ नहीं करना चाहता है। ऐसा आदमी योगी नहीं है। खोजना मुश्किल है, जो कुछ करना चाहता है। लेकिन सारे लोग करते हुए दिखाई पड़ते हैं, इसलिए नहीं कि कर्म में बहुत रस है, बल्कि इसलिए कि फल बिना कर्म के नहीं मिलते हैं। हम कछ चाहते क ष्ण के साथ इस पृथ्वी पर एक नए संन्यास की धारणा हैं, जो बिना कर्म के नहीं मिलेगा। अगर यह तय हो कि हमें बिना १० का जन्म हुआ। संन्यास सदा से संसार-विमुख धारा | कर्म किए, जो हम चाहते हैं, वह मिल सकता है, तो हम सभी कर्म ८ थी-संसार के विरोध में, शत्रुता में। जीवन का छोड़ दें, हम सभी संन्यासी हो जाएं! लेकिन चाह पूरी करनी है, तो निषेध, कृष्ण के पहले तक संन्यास की व्याख्या थी; लाइफ कर्म करना पड़ता है। यह मजबूरी है, इसलिए हम कर्म करते हैं। .. निगेटिव था। जो छोड़ दे सब-कर्म को, गृह को, जीवन के सारे कृष्ण इससे उलटी बात कह रहे हैं। वे यह कह रहे हैं, कर्म तो रूप को निष्क्रिय हो जाए, पलायन में चला जाए, हट जाए तुम करो और फल की आशा छोड़ दो। हम कर सकते हैं आसानी जीवन से, वैसा ही व्यक्ति संन्यासी था। कृष्ण ने संन्यास को बहुत से, कर्म न करें और फल की आशा करें। जो आसान है, वह यह ' नया आयाम, एक न्यू डायमेंशन दिया। वह नया आयाम इस सूत्र | | मालूम पड़ता है कि हम कर्म तो न करें और फल की आशा करें। में कृष्ण अर्जुन से कहते हैं। और अगर कोई फल पूरा कर दे, तो हम कर्म छोड़ने को सदा ही __ अर्जुन के मन में भी यही खयाल था संन्यास का। अर्जुन भी यही तैयार हैं। कृष्ण इससे ठीक उलटी ही बात कह रहे हैं। वे यह कह सोचता था कि सब छोड़कर चला जाऊं, तो जीवन संन्यास को रहे हैं कि कर्म तो तुम करो ही, फल की आशा छोड़ दो। यह फल उपलब्ध हो जाएगा। अर्जुन भी सोचता था, कर्तव्य छोड़ दूं, करने की आशा छूट जाए, तो कृष्ण के अर्थों में संन्यास फलित होगा। योग्य है वह छोड़ दूं, कुछ भी न करूं, अक्रिय हो जाऊं, निष्क्रिय फल की आशा के बिना कर्म कौन कर पाएगा? कर्म करेगा ही हो जाऊं, अकर्म में चला जाऊं, तो संन्यास को उपलब्ध हो कोई क्यों? दौड़ते हैं, इसलिए कि कहीं पहुंच जाएं। चलते हैं, जाऊंगा। लेकिन कृष्ण ने उससे इस सूत्र में कहा है, फल की इसलिए कि कोई मंजिल मिल जाए। आकांक्षाएं हैं, इसलिए श्रम आकांक्षा न करते हए जो कर्म को करता है. उसे ही मैं संन्यासी | करते हैं; सपने हैं, इसलिए संघर्ष करते हैं। कुछ पाने को दूर कोई कहता हूं। उसे नहीं, जो कर्म को छोड़ देता है मात्र, लेकिन फल तारा है, इसलिए जन्मों-जन्मों तक यात्रा करते हैं। की आकांक्षा जिसकी शेष रहती है। जो बाह्य रूपों को छोड़ देता वह तारा तोड़ दो। कृष्ण कहते हैं, वह तारा तोड़ दो। नाव तो खेओ है, लेकिन अंतर जिसका पुराना का पुराना ही बना रह जाता है, उसे | | जरूर, लेकिन उस तरफ कोई किनारा है, उसका खयाल छोड़ दो। मैं संन्यासी नहीं कहता हूं। पहुंचना है कहीं, यह बात छोड़ दो; पहुंचने की चेष्टा जारी रखो। तो संन्यास की इस धारणा में दो बातें समझ लेनी जरूरी हैं। असंभव मालूम पड़ेगा। अति कठिन मालूम पड़ेगा। फिर नाव एक तो संन्यास का बहिर रूप है; लेकिन एक संन्यास की किसलिए चलानी है, जब कोई तट पर पहुंचना नहीं! अंतरात्मा भी है। पुराना संन्यास बहिर रूप पर बहुत जोर देता था। | | पर कृष्ण बहुत अदभुत बात कहते हैं। वे यह कहते हैं कि नाव Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +कृष्ण का संन्यास, उत्सवपूर्ण संन्यास - चलाने से कोई तट पर नहीं पहुंचता, जन्मों-जन्मों तक चलकर भी बैठोगे, तो सुख हो जाएगा। अगर आप जिस भांति दुकान पर बैठे कोई मंजिल पर नहीं पहुंचता, आकांक्षाएं करने से कोई आकांक्षाएं हो, उसी भांति मंदिर में बैठ गए, तो कोई सुख न होगा। आप ही पूरी होती नहीं हैं। लेकिन जो आदमी नाव चलाए और किनारे पर तो मंदिर में बैठ जाओगे! आप बाजार में थे; आप ही जंगल में बैठ पहुंचने का खयाल छोड़ दे, उसे बीच मझधार भी किनारा बन जाती | जाओगे। आपमें कोई फर्क न हुआ, तो जंगल में उतनी ही पीड़ा है, है। और जो आदमी कल की आशा छोड़ दे और आज कर्म करे, | | जितनी बाजार में दुकान पर थी। कर्म ही उसका फल बन जाता है, कर्म ही उसका रस बन जाता है। सवाल यह नहीं है कि जगह बदल ली जाए। जगह का कोई भी फिर कर्म और फल में समय का व्यवधान नहीं होता। फिर अभी | संबंध नहीं है। जहां आज आपकी दुकान है, कल कभी वहां जंगल कर्म और अभी फल। रहा था। और कल कभी कोई संन्यास लेकर उस जंगल में आकर संन्यास जीवन का त्याग नहीं है कृष्ण के अर्थों में, जीवन का | बैठ गया होगा। जगह वही है; अब वहां दुकान है। जहां आज जंगल परम भोग है। है, कल दुकान हो जाएगी। जहां आज दुकान है, कल जंगल हो जीवन का रहस्य ही यही है कि हम जिसे पाना चाहते हैं, उसे | जाएगा। जगहों में कोई अंतर नहीं है। जमीन ने तय नहीं कर रखा है हम नहीं पा पाते हैं। जिसके पीछे हम दौडते हैं. वह हमसे दर हटता कि कहां जंगल हो और कहां दुकान हो। दुकान तय होती है मन से, चला जाता है। जिसके लिए हम प्रार्थनाएं करते हैं, वह हमारे हाथ | | स्थान से नहीं। दुकान तय होती है मनःस्थिति से, परिस्थिति से नहीं। के बाहर हो जाता है। जीवन करीब-करीब ऐसा है, जैसे मैं मुट्ठी में कृष्ण कहते हैं, अगर तुम तुम ही रहे, तो तुम कहीं भी भाग हवा को बांधूं। जितने जोर से कसता हूं मुट्ठी को, हवा उतनी मुट्ठी | जाओ, दुख तुम्हारे साथ पहुंच जाएगा। वह तुम्हारे भीतर है, वह के बाहर हो जाती है। खुली मुट्ठी में हवा होती है, बंद मुट्ठी में हवा | | तुममें है, वह तुम्हारी वासना में है, वह तुम्हारी इच्छा में है। जहां नहीं होती। हालांकि जिसने मुट्ठी बांधी है, उसने हवा बांधने को | | इच्छा है, वहां दुख छाया की तरह पीछा करेगा। इसलिए भागो बांधी है। जंगल में, गुफाओं में, हिमालय पर, कैलाश पर। दुख को तुम जीवन को जो लोग जितनी वासनाओं-आकांक्षाओं में बांधना | | पाओगे कि वह तुम्हारे साथ मौजूद है। खोलोगे आंख, पाओगे, चाहते हैं, जीवन उतना ही हाथ के बाहर हो जाता है। अंत में सिवाय | सामने खड़ा है। बंद करोगे आंख, पाओगे, भीतर बैठा है। रिक्तता, फ्रस्ट्रेशन, विषाद के कुछ भी हाथ नहीं पड़ता है। । दुख उस चित्त में निवास करता है, जो वासना में जीता है। । कृष्ण कहते हैं, खुली रखो मुट्ठी; आकांक्षा से बांधो मत, इच्छा फिर यह भी मजे की बात है कि जो आदमी संसार छोड़कर से बांधो मत। जीओ, लेकिन किसी आगे भविष्य में कोई फल | | भागता है, वह भी वासनाएं छोड़कर नहीं भागता। वह भी किसी मिलेगा, इसलिए नहीं। फिर किसलिए? हम पूछना चाहेंगे कि फिर वासना के लिए संसार छोड़कर भागता है। इस बात को भी थोड़ा किसलिए जीओ? ठीक से समझ लेना जरूरी है। वह पाना चाहता होगा मोक्ष, पाना कृष्ण कहते हैं, जीना अपने में ही आनंद है। चाहता होगा परमात्मा, पाना चाहता होगा स्वर्ग. पाना चाहता होगा जीने के लिए कल की इच्छा से बांधना नासमझी है। जीना अपने | शांति, पाना चाहता होगा आनंद। लेकिन पाना जरूर चाहता है। में ही आनंद है। यह पल भी काफी आनंदपूर्ण है। और तब श्रम ही | नीत्शे ने कहीं बहुत व्यंग्य किया है उन सारे लोगों पर, जो जीवन अपने में आनंद हो जाए, कर्म ही अपने में आनंद हो जाए, तो कुछ | को छोड़कर भागते हैं। उसने कहा है कि तुम अजीब हो पागल! तुम आश्चर्य नहीं है। कहते हो, हम इच्छाओं को छोड़कर भागते हैं, लेकिन मैंने एक भी लेकिन कृष्ण के समय तक सारा संन्यास भगोड़ा, एस्केपिस्ट | ऐसा आदमी नहीं देखा जो किसी इच्छा के लिए न भाग रहा हो। था, पलायनवादी था। हट जाओ। जहां-जहां दुख है, वहां-वहां से यहां इच्छाएं छोड़ता है, वहां इच्छाएं पाने के लिए भागता है! और हट जाओ। जहां-जहां पीड़ा है, वहां-वहां से हट जाओ। लेकिन | अगर किसी इच्छा के लिए ही इच्छा छोड़ी गई, तो इच्छा कहां छोड़ी कृष्ण कहते हैं, पीड़ा स्थान की वजह से नहीं है; पीड़ा वासना के गई है? ऐसे तो कोई भी छोड़ देता है। कारण है। वही उनकी बुनियादी खोज है। ___ एक आदमी को सिनेमा जाना होता है, तो दुकान छोड़कर जाता पीड़ा इसलिए नहीं है कि आप बाजार में बैठे हो; और जंगल में है। एक आदमी को वेश्या को खरीदना होता है, तो कुछ छोड़कर 3 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +गीता दर्शन भाग-3 - खरीदना होता है। जीवन की इकॉनामी है। एक ही चीज से आप सब | | खिलते हैं। ठीक कर्म जीवन का स्वभाव है। चीजें नहीं खरीद सकते। एक चीज छोड़नी पड़ती है, तो दूसरी चीज | गलत कर्म जीवन का स्वभाव नहीं है। इच्छाओं के कारण गलत खरीद सकते हैं। जीवन का अपना अर्थशास्त्र है। कर्म जीवन करने को मजबूर होता है। जो आदमी चोरी करता है, आपके खीसे में एक रुपया पड़ा हुआ है। रुपया बहुत चीजें | वह भी ऐसा अनुभव नहीं करता कि मैं चोर हूं। बड़े से बड़ा चोर खरीद सकता है। जब तक नहीं खरीदा है, तब तक रुपया बहुत | भी ऐसा ही अनुभव करता है कि मजबूरी में मैंने चोरी की है; मैं चोर चीजें खरीद सकता है। लेकिन जब खरीदने जाएंगे, तो एक ही चीज नहीं हूं। बड़े से बड़ा चोर भी ऐसा ही अनुभव करता है कि ऐसा खरीद सकता है। जब आप एक चीज खरीदेंगे, तो बाकी जो चीजें | दबाव था परिस्थिति का कि मुझे चोरी करनी पड़ी है, वैसे मैं चोर रुपया खरीद सकता था, उनका त्याग हो गया। अगर आपने एक नहीं हूं। बुरे से बुरा कर्म करने वाला भी ऐसा नहीं मानता कि मैं बुरा रुपए से टिकट खरीद ली और रात जाकर सिनेमा में बैठ गए, तो हूं। वह ऐसा ही मानता है, एक्सिडेंट है बुरा कर्म। आप एक रुपए से और जो खरीद सकते थे, उस सबका आपने आज तक पृथ्वी पर ऐसा एक भी आदमी नहीं हुआ, जिसने कहा त्याग कर दिया। आप भी त्याग करके वहां गए हैं। हो सकता है, | हो कि मैं बुरा आदमी हूं। वह इतना ही कहता है, आदमी तो मैं बच्चे को दवा की जरूरत हो, आपने उसका त्याग कर दिया। हो | अच्छा हूं, लेकिन दुर्भाग्य कि परिस्थितियों ने मुझे बुरा करने को सकता है, पत्नी के तन पर कपड़ा न हो, उसको पकड़े की जरूरत मजबूर कर दिया। हो, आपने उसका त्याग कर दिया। हो सकता है, आपका खुद का लेकिन परिस्थितियां! उसी परिस्थिति में बुद्ध भी पैदा हो जाते पेट भूखा हो, लेकिन आपने अपनी भूख का त्याग कर दिया। | हैं; उसी परिस्थिति में एक डाकू भी पैदा हो जाता है; उसी परिस्थिति जगत में जीवन की एक इकॉनामी है, अर्थशास्त्र है। यहां एक में एक हत्यारा भी पैदा हो जाता है। एक ही घर में भी तीन लोग तीन इच्छा पूरी करनी हो, तो दूसरी इच्छाएं छोड़नी पड़ती हैं। तो जो तरह के पैदा हो जाते हैं। बिलकुल एक-सी परिस्थिति भी एक-से आदमी संसार की इच्छाएं छोड़कर जंगल चला जाता है, पूछना आदमी पैदा नहीं कर पाती। जरूरी है. वह क्या पाने वहां जा रहा है? कहेगा. परमात्मा को पाने परिस्थिति भेद कम डालती है; इच्छाएं भेद ज्यादा डालती हैं। जा रहा हूं, आत्मा को पाने जा रहा हूं, आनंद को पाने जा रहा हूं। इच्छाएं इतनी मजबूत हों, तो हम सोचते हैं कि एक इच्छा पूरी लेकिन इच्छाओं को छोड़कर अगर किसी इच्छा को पाने ही जा रहे होती है, थोड़ा-सा बुरा भी करना हो, तो कर लो। इच्छा की गहरी हैं, तो आप संन्यासी नहीं हैं। पकड़ बुरा करने के लिए राजी करवा लेती है। बुरा काम भी कोई कृष्ण कहते हैं संन्यासी उसे, जो किसी इच्छा के लिए और आदमी किसी अच्छी इच्छा को पूरा करने के लिए करता है। बुरा इच्छाओं को नहीं छोड़ता, जो इच्छाओं को ही छोड़ देता है। इस काम भी किसी अच्छी इच्छा को पूरा करने के लिए अपने मन को फर्क को ठीक से समझ लें। किसी इच्छा के लिए छोड़ना, तो सभी | समझा लेता है कि इच्छा इतनी अच्छी है, साध्य इतना अच्छा है, से हो जाता है। नहीं, इच्छाओं को ही छोड़ देता है। | इसलिए अगर थोड़े गलत मार्ग भी पकड़े गए, तो बुरा नहीं है। और हम कहेंगे कि इच्छा छूटी कि कर्म छूट जाएगा। हम कहेंगे कि ऐसा नहीं है कि छोटे-छोटे साधारणजन ऐसा सोचते हैं, बड़े इच्छा अगर छूट जाए, तो फिर हम कर्म क्यों करेंगे? यह भी हमारा | बुद्धिमान कहे जाने वाले लोग भी ऐसा ही सोचते हैं। मार्क्स या इच्छा से भरा हुआ मन सवाल उठाता है। क्योंकि हमने बिना इच्छा | लेनिन जैसे लोग भी ऐसा ही सोचते हैं कि अगर अच्छे अंत के लिए के कभी कोई कर्म नहीं किया है। लेकिन कृष्ण गहरा जानते हैं। वे बुरा साधन उपयोग में लाया जाए, तो कोई हर्जा नहीं है; ठीक है। जानते हैं कि इच्छा छूट जाए, तो भी कर्म नहीं छूटेगा, सिर्फ गलत लेकिन हम जो करना चाहते हैं, वह तो अच्छा ही करना चाहते हैं। कर्म छूट जाएगा। यह दूसरा सूत्र इस सूत्र में समझ लेने जैसा है। | बुरे से बुरे आदमी की भी तर्क-शैली यही है कि जो मैं करना इसलिए वे कहते हैं, जो करने योग्य है, वही कर्म। जैसे ही इच्छा चाहता हूं, वह तो अच्छा ही है। अगर मैं एक मकान बना लेना छटी कि गलत कर्म छट जाएगा, ठीक कर्म नहीं छटेगा। क्योंकि छाया में दोपहर विश्राम करना चाहता है, तो ठीक कर्म जीवन से वैसे ही निकलता है, जैसे झरने सागर की तरफ बुरा क्या है। सहज, स्वाभाविक, मानवीय है। फिर इसके लिए बहते हैं। ठीक कर्म जीवन में वैसे ही खिलता है, जैसे वृक्षों में फूल थोड़ी कालाबाजारी करनी पड़ती है, थोड़ी चोरी करनी पड़ती है, Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्ण का संन्यास, उत्सवपूर्ण संन्यास थोड़ी रिश्वत देनी पड़ती है, वह मैं दे लेता हूं। क्योंकि उसके बिना यह नहीं हो सकेगा। कृष्ण कहते हैं कि जिस आदमी की इच्छाएं छूट जाएं, उस आदमी बुरे कर्म तत्काल छूट जाते हैं। लेकिन अच्छे कर्म नहीं छूटते । अच्छा कर्म वही है – उसकी परिभाषा अगर मैं देना चाहूं, तो ऐसी देना पसंद करूंगा – अच्छा कर्म वही है, जो बिना इच्छा के भी चल सके। और बुरा कर्म वही है, जो इच्छा के पैरों के बिना न चल सके। जिस कर्म को चलाने के लिए इच्छा जरूरी हो, वह बुरा है; और जिस कर्म को चलाने के लिए इच्छा बिलकुल भी गैर-जरूरी हो, वह कर्म अच्छा है। अच्छे का एक ही अर्थ है, जीवन के स्वभाव से निकले, जीवन से निकले। कृष्ण कहते हैं, अगर इच्छाएं छोड़ दे कोई और सिर्फ कर्म करे, तो उसे मैं संन्यासी कहता हूं। यह बड़ी इसोटेरिक, बड़ी गुह्य व्याख्या है। साधारणतः यही दिखाई पड़ता है संन्यासी और गृहस्थ का फर्क कि गृहस्थ वह है ज़ो घर में रहे, संन्यासी वह है जो घर छोड़ दे। कृष्ण की परिभाषा में उलटा भी हो सकता है। घर में रहने वाला भी संन्यासी हो सकता है, घर छोड़ने वाला भी गृहस्थ हो सकता है। कृष्ण की परिभाषा थोड़ी गहन है। अगर कोई आदमी घर छोड़ दे, किसी इच्छा के लिए, तो वह गृहस्थ है। और अगर कोई आदमी घर में चुपचाप रहा आए बिना किसी इच्छा के, तो वह संन्यासी है। अगर कोई आदमी अपने घर में बिना इच्छाओं के जीने लगे, तो घर गया। और अगर कोई आदमी आश्रम में जाकर नई इच्छाओं के आस-पास जाल बुनने लगे, तो वह घर हो गया। आश्रम ऐसा संन्यासी आपने देखा है, जिसकी इच्छा न हो? अगर ऐसा संन्यासी नहीं देखा जिसकी इच्छा न हो, तो समझना कि आपने संन्यासी ही नहीं देखा है। आदमी का मन, बहुत रूपों में अपने को बचाने में कुशल है। सब तरफ से अपने को बचाने में कुशल है । विपरीत स्थितियों में भी अपने को बचा लेता है। जंगल में भी बैठ जाएं, तो वहां भी इच्छा के जाल बुनता रहता है। मंदिर में, तीर्थ में भी बैठकर इच्छाओं के जाल बुनता रहता है। मन का काम ही इच्छाओं के जाल निर्मित करना है। अगर हम ऐसा कहें कि मन ऐसा वृक्ष है, जिस पर इच्छाओं के पत्ते लगते हैं, लगते ही चले जाते हैं। एक पत्ता कुम्हलाया, गिरा नहीं कि नए पत्ते के पीके निकलने शुरू हो गए, अंकुरित होने लगे। अगर और गहरे में देखें, तो पुराना पत्ता गिरता तभी है, जब उसके नीचे से नया पत्ता उसे गिराने के लिए धक्के देने लगता है। एक इच्छा छूटती तभी है, जब दूसरी इच्छा जगह बनाने के लिए मांग करती है कि मुझे जगह खाली करो । एक इच्छा हटती तभी है, जब उससे भी प्रबल इच्छा धक्के देकर जगह बनाती है। मन में इच्छाएं निर्मित होती चली जाती हैं। 5 कृष्ण कहते हैं, इच्छाएं न हों, तो संन्यासी हो जाएगा। मैं आपसे कहता हूं, जिसमें इच्छाएं न रहीं, उसमें मन भी न रहा। क्योंकि मन और इच्छाएं एक ही चीज का नाम है। मन समस्त इच्छाओं का जोड़ है, समस्त कामनाओं का जोड़, समस्त तृष्णाओं का जोड़। अगर इच्छाएं न रही, तो मन न रहा। कृष्ण कहते हैं, जिसके पास मन न रहा, वह संन्यासी है। कर्म न रहा, नहीं; मन न रहा, वह संन्यासी है। बुरे कर्म तो गिर जाएंगे, क्योंकि बुरे कर्म बिना इच्छाओं के कोई भी नहीं कर सकता। इसमें एक बहुत गहन आस्था भी प्रकट की गई है। कृष्ण की मनुष्य पर निष्ठा अपरिसीम है। इतनी निष्ठा शायद किसी दूसरे व्यक्ति की पृथ्वी पर कभी रही हो । जो आदमी भी माना है कि तुम्हें अच्छा होना पड़ेगा, उस आदमी की आदमी पर बहुत निष्ठा नहीं है। कृष्ण की निष्ठा है कि आदमी तो अच्छा है, सिर्फ मन मौजूद न हो, तो आदमी की अच्छाई में कोई कमी ही नहीं है। वह अच्छा है ही । वह स्वभावतः अच्छा है। वह शुभ है। इतनी ही शर्त | काफी है कि वह इच्छाएं छोड़ दे और उसके भीतर शुभ का जन्म हो जाएगा। वह बिलकुल शुद्ध, पवित्रतम, निर्दोष, निष्कलंक प्रकट हो जाएगा। उसकी इनोसेंस, उसका निर्दोषपन जाहिर हो जाएगा। जैसे दर्पण पर धूल जम गई हो और धूल को किसी ने पोंछ दिया और दर्पण शुद्ध हो जाए। लेकिन क्या आप कहेंगे कि जब दर्पण पर धूल थी, तब दर्पण अशुद्ध हो गया था ? आपको तस्वीर नहीं | दिखाई पड़ती थी, यह बात दूसरी है। लेकिन दर्पण तब भी अशुद्ध नहीं हो गया था । दर्पण तब भी पूरा ही दर्पण था। सिर्फ धूल की एक पर्त थी कि तस्वीर दिखाई नहीं पड़ती थी । दर्पण में धूल कहीं घुस नहीं गई थी, प्रवेश नहीं कर गई थी, बाहर ही बाहर थी। फूंक मार दी, झाड़ दी। धूल हट गई, दर्पण साफ हो गया। कृष्ण की दृष्टि में आदमी दर्पण की तरह शुद्ध है। इच्छाएं करता है, तो धूल इकट्ठी कर लेता है चारों तरफ, इच्छाओं के कण इकट्ठे कर लेता है। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 गीता दर्शन भाग-3 अभी पश्चिम में इस बात पर काफी चिंतन-मनन चलता है कि | बहुत बड़ी घटना थी। आज हमारे मन में खयाल आएगा कि यह क्या जब आदमी इच्छाएं करता है, तो क्या उसके मन में कोई अंतर बात कहते हैं कृष्ण कि जिसने अग्नि छोड़ दी! आज हमारे लिए पड़ता है इच्छाओं के करने से? जब एक आदमी क्रोध से भरता है,। अग्नि उतनी बड़ी घटना नहीं है। लेकिन जिस दिन यह बात कही गई तब उसके पास वही मन रहता है, जो क्रोध करने के पहले था? | | थी, उस दिन अग्नि उतनी ही बड़ी घटना थी, जितनी अगर हम आज जब एक आदमी क्षमा से भरता है, तब उसके पास वही मन रहता | सोचना चाहें, तो सिर्फ एक ही बात खयाल में आ सकती है। जैसे है, जो क्रोध के वक्त था? आज अगर हम कहें कि जिस व्यक्ति ने यंत्रों का उपयोग छोड़ दिया। तो अब मनोविज्ञान कहता है कि मन तो वही रहता है, लेकिन आज अगर पैरेलल, समानांतर कोई बात कहना चाहें; अगर आज मन के आस-पास की चीजें बदल जाती हैं। जब आदमी क्रोध से | हम कहें कि जिस व्यक्ति ने यंत्रों का उपयोग छोड़ दिया। भरता है, तो शरीर की ग्रंथियां ऐसे जहर को छोड़ देती हैं, जो मन | तो आप सोचें कि यंत्र के उपयोग छोड़ने में करीब-करीब को चारों तरफ से घेर लेता है, पायजनस कर देता है, जैसे दर्पण | जीवन का सब कुछ छूट जाएगा। क्योंकि आज जीवन को यंत्र ने को धूल घेर ले। और जब आदमी प्रेम से भरता है, तो उसकी | | सब तरफ से घेर लिया है। वह आदमी ट्रेन में नहीं बैठ सकेगा। रस-ग्रंथियां उसके सारे शरीर से उस अमृत को छोड़ देती हैं; तब | वह आदमी माइक से नहीं बोल सकेगा। वह आदमी चश्मा नहीं भी मन वही रहता है, लेकिन उसके चारों तरफ रस की धार बहने । लगा सकेगा। वह आदमी कपड़ा नहीं पहन सकेगा। सब यंत्र पर लगती है-उसी आदमी के पास।। निर्भर है। वह आदमी फाउंटेनपेन से नहीं लिख सकेगा। वह कृष्ण और भी गहरी बात कहते हैं। वे कहते हैं कि आदमी की | | आदमी जाकर नाई से बाल नहीं बनवा सकेगा। थोड़ा सोचें कि चेतना तो निर्दोष है ही। बस, तुमने चाहा कि दोष इकट्ठे होने शुरू जिस आदमी ने यंत्र का उपयोग छोड़ दिया, उसके जीवन में क्या हुए। वे भी बाहर ही इकट्ठे होते हैं, भीतर प्रवेश नहीं करते। एक | बच रहेगा? कुछ नहीं बच रहेगा। क्षण को भी कोई इच्छाएं छोड़ दे, तो वे सारे दोष गिर जाते हैं। और उस दिन अग्नि इतनी ही बड़ी घटना थी। तो उस दिन कष्ण कहते तब बुरा कर्म असंभव हो जाता है। लेकिन शुभ कर्म जारी रहता है। हैं कि जिसने अग्नि छोड़ दी। उस दिन सब कुछ अग्नि पर निर्भर सच तो यह है कि जो शक्ति हमारे बुरे कर्म में लगती है, वह सारी । | था: भोजन, जीवन की सुरक्षा, जीवन की व्यवस्था। अग्नि बहुत शक्ति बच जाती है और शुभ कर्म में समायोजित हो जाती है। बड़ी घटना थी। जब तक अग्नि नहीं थी आदमी के पास, तब तक कृष्ण के लिए, कर्म इच्छाओं के कारण से नहीं होते; कर्म जीवन | आदमी इतना असुरक्षित था, कहना चाहिए, सभ्य नहीं था। आदमी के स्वभाव की स्फुरणा है; जीवन की एनर्जी से होते हैं। जहां शक्ति सभ्य हुआ अग्नि के साथ। है, वहां कर्म आएगा। क्योंकि शक्ति कर्म में प्रकट होना चाहती है। ___ अग्नि नहीं थी, तो मांसाहार भोजन के अतिरिक्त और कोई यह परमात्मा इतने बड़े विराट जगत में प्रकट होता है, यह उसकी उपाय न था। या कच्चे फल खा लेता, या मांस खा लेता। अग्नि ऊर्जा है, शक्ति है, जो प्रकट होना चाहती है। जमीन से एक पत्थर थी, तो भोजन पकाकर उसने खाना शुरू किया। अग्नि नहीं थी, तो हटा लिया और एक फव्वारा फूटने लगा। यह फव्वारा कहीं जाने को दिनभर ही घूम-फिर सकता था। रात होते ही खतरे में पड़ जाता था। नहीं फूट रहा है। इसके भीतर ऊर्जा है, वह प्रकट होना चाहती है। चारों तरफ जंगली जानवर थे, उनका भय था। रातभर आधे लोगों आदमी की अगर इच्छाएं गिर जाएं, तो उसके जीवन की पूरी | को पहरा देना पड़ता, आधे लोग सोते। तब भी खतरा हमेशा मौजूद ऊर्जा शुभ में प्रकट होना चाहती है। इच्छाओं रहित चेतना शुभ की | | रहता। सभ्य होने का मौका नहीं था। खाना और रात सो लेना, दो ऊर्जा को प्रकट करने लगती है। काम जीवन की सारी ऊर्जा ले लेते थे। अग्नि ने आकर बड़ा उपाय तो कृष्ण कहते हैं, बुरे कर्म गिर जाएंगे। जो करने योग्य है, वही कर दिया। अग्नि ने सुरक्षा दे दी। जंगल का आदमी चारों तरफ किया जा सकेगा। इसको ही मैं संन्यास कहता हूं। उसको नहीं कि | | अग्नि जलाकर बीच में आराम से सोने लगा। अग्नि पहला देवता जिसने अग्नि छोड़ दी। था, आदमी को सभ्य करने वाला। सभ्यता आई अग्नि के साथ। उन दिनों अग्नि को छोड़ना बहुत बड़ी घटना थी। इसको थोड़ा तो जिस जिन यह सूत्र कहा गया, उस दिन अग्नि ने जीवन को खयाल में ले लें। यह सूत्र जब कहा गया, तब अग्नि को छोड़ना चारों तरफ से इसी तरह सिविलाइज किया था, सभ्य किया था, जैसे Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्ण का संन्यास, उत्सवपूर्ण संन्यास - आज यंत्रों ने किया हुआ है। तब जो जीवन का एक बहुत अमृत-फूल नष्ट हो जाएगा। तब तो अग्नि छोड़ दे जो उस दिन, उसका सब छूट जाता था। सब! | जीवन की एक बहुत अदभुत सुगंध-क्योंकि जिसने संन्यास नहीं उसके हाथ में कुछ बचता नहीं था। वह सभ्य जीवन से हट जाता जाना, उसने जीवन नहीं जाना—वह नष्ट हो जाएगा, वह खो था। वह असभ्य जीवन की ओर. वन की ओर. अरण्य की ओर जाएगा। कृष्ण का संन्यास बच सकता है। हट जाता था। वह उसी दुनिया में लौट जाता, जहां अग्नि के पहले इसलिए मुझे कई बार लगता है कि गीता भविष्य के लिए बहुत आदमी रहता था, गुफाओं में। हाथ से खाना नहीं पकाता था। आग सार्थक होती चली जाएगी। उसकी दृष्टि भविष्य के लिए रोज जलाकर ठंड से अपने को नहीं बचाता था। वह वहां लौट जाता था। अनुकूल पड़ती चली जाएगी। कृष्ण रोज करीब आते चले जाएंगे। अग्नि छोड़ने का अर्थ यह है, गुफा-मानव की ओर वापस लौट क्योंकि वे गहरी बात कर रहे हैं। वे कह रहे हैं, कहीं कोई जाने की जाए कोई। जरूरत नहीं है। जहां हो वहीं, सिर्फ एक शर्त पूरी करो और तुम तो भी कृष्ण कहते हैं, वह संन्यासी नहीं है। क्योंकि अगर यह | गृहस्थ न रह जाओगे। एक शर्त पूरी करो, और तुम संन्यासी हो कृत्य भी किसी वासना से प्रेरित होकर हो रहा है, तो संन्यास नहीं है। जाओगे। और वह शर्त है कि तुम वासना मत करो, फल की कृष्ण कहते हैं, वासनाशून्य कृत्य। कोई भी कृत्य वासना से | आकांक्षा मत करो। शून्य हो जाए, फिर चाहे वह कृत्य कितना ही बड़ा हो। अर्जुन युद्ध | | कठिन होगा समझना कि फल की आकांक्षा कैसे न करें! चौबीस में जाने को खड़ा है। कृष्ण कहते हैं, तू युद्ध में जा। अगर फल की | | घंटे के लिए प्रयोग करके देखें, तो खयाल में आ जाएगा, अन्यथा आकांक्षा छोड़कर जा सके, तो यह युद्ध भी संन्यास है। फिर कोई | शायद जीवनभर समझने से खयाल में न आ सके। हर्ज नहीं है। । __ कुछ चीजें हैं इस जीवन में, जो प्रयोग करने से तत्काल समझ . अजीब बात कहते हैं। जो आदमी सब कुछ छोड़कर जंगल की | | में आ जाती हैं। मुंह पर कोई शक्कर का एक टुकड़ा रख दे, और गुफा में चला जाए, उसे कहते हैं, वह भी संन्यास नहीं। अर्जुन जो | तत्काल समझ में आता है कि स्वाद क्या है। एक जरा-सा टुकड़ा, युद्ध में खड़ा है, युद्ध में लड़े, उससे कहते हैं, यह भी संन्यास है! | | एक क्षण की भी देर नहीं लगती, पूरा शरीर खबर देता है कि क्या कृष्ण का यह वक्तव्य बहुत सोचने जैसा है। सैद्धांतिक अर्थों में | | है। और जिस आदमी ने नहीं स्वाद लिया हो, उसे हम पूरे के पूरे उतना मूल्यवान नहीं, जितना व्यावहारिक अर्थों में मूल्यवान है। जीवनभर समझाते रहें कि स्वाद क्या है; वह कहेगा, आप कहते अगर भविष्य में इस पथ्वी पर कोई भी संन्यास बचेगा. तो वह कष्ण हैं. सब ठीक है। लेकिन फिर भी स्वाद क्या है. अभी समझ में नहीं का संन्यास बच सकता है, और कोई संन्यास बच नहीं सकता है। | आया। उसमें समझ की कोई गलती नहीं है। समझ का काम ही नहीं क्योंकि अगर आज कोई मान ले पुराने संन्यास की धारणा को | | है; अनुभव का काम है। कुछ बातें हैं, जो समझ से समझ में आती पृथ्वी पर साढ़े तीन अरब लोग हैं, अगर ये छोड़कर जंगल में चले | | हैं। बेकार बातें समझने से समझ में आ जाती हैं। गहरी और काम जाएं, तो जंगल में सिर्फ मेला भर जाएगा, और कुछ भी नहीं होगा! की बातें सिर्फ अनुभव से समझ में आती हैं, समझने से समझ में ये जहां जाएंगे, वहीं जंगल नहीं रहेगा। ये कहीं भी चले जाएं, ये नहीं आतीं। जहां जाएंगे, वहीं जंगल सपाट हो जाएगा। कृष्ण कहते हैं, फल की आकांक्षा छोड़ दो। यह साढ़े तीन अरब लोगों की पृथ्वी, जो रोज बढ़ती जा रही है। हजारों साल से हम सुन रहे हैं। गीता इतनी परिचित है, जितनी इस सदी के पूरे होते-होते और एक अरब संख्या बढ़ जाएगी। और और कोई किताब परिचित नहीं है। मुझसे कोई बोला कि गीता तो वैज्ञानिक कहते हैं कि अगर सौ वर्ष इसी तरह संख्या बढ़ती रही, इतनी परिचित है, आप गीता पर क्यों बोलते हैं? मैंने कहा कि मैं तो आदमी को कोहनी हिलाने की जगह नहीं बचेगी। सब जगह, इसीलिए बोलता हूं, क्योंकि मैं मानता हूं कि गीता के संबंध में बड़ा जहां भी जाएगा, कोई हाथ चारों तरफ लगा रहेगा। अब भागकर | | भ्रम हो गया है कि परिचित है। पढ़ ली, तो हम सोचते हैं, परिचित आप नहीं जा सकेंगे। है। गीता से ज्यादा अपरिचित किताब मुश्किल है। एक अर्थ में ठीक तो फिर क्या होगा संन्यास का? पुराना गुहा वाला संन्यास तो है कि परिचित है। सभी लोगों के घरों में रखी है और धूल इकट्ठी फिर नहीं हो सकेगा। तो फिर इस पृथ्वी पर संन्यास ही नहीं होगा? | करती है। सभी लोगों को पता है कि गीता में क्या लिखा है। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सगीता दर्शन भाग-3 काश, सभी लोगों को पता होता, तो यह दुनिया बिलकुल दूसरी वे मुश्किल में पड़ जाते हैं। और जो बाप होशियार हैं, वे खुद जमीन हो सकती थी! नहीं, पता नहीं है। शब्द पता हैं। शायद अर्थ भी पता पर लेट जाते हैं और हार जाते हैं। और उनके बच्चे बाद में पछताते है, क्योंकि अर्थ शब्दकोश में मिल जाता है। अभिप्राय पता नहीं है, हैं कि बाप ने बहुत गहरी मजाक कर दी। लेकिन तब कोई आकांक्षा क्या प्रयोजन है! नहीं है, सिर्फ उस छोटे-से खेल में सब समा गया है। ये कृष्ण कहते हैं कि तू फल कि आकांक्षा छोड़ दे और कर्म कर। - मेरे एक मित्र जापान के एक घर में मेहमान थे। सुबह घर के मैं आपसे कहूंगा, एक चौबीस घंटे के लिए दुनिया नष्ट नहीं बच्चों ने उनको आकर खबर दी कि हमारे घर में विवाह हो रहा है, हो जाएगी-एक दिन प्रयोग कर लें। सुबह छः बजे से दूसरे दिन आप शाम सम्मिलित हों। उन्हें थोड़ी हैरानी हुई, क्योंकि बहुत छोटे सुबह छः बजे तक फल की आकांक्षा छोड़ दें और कर्म करें। और बच्चे थे। तो उन्होंने सोचा कि कुछ गुड्डा-गुड्डी का विवाह करते आपकी जीभ पर स्वाद आ जाएगा। और आपको पता चलेगा कि होंगे। उन्होंने कहा, मैं जरूर सम्मिलित होऊंगा। लेकिन सांझ के कर्म हो सकता है, फल की आकांक्षा के बिना भी। और पहली दफे पहले घर के बड़े-बूढ़ों ने भी आकर निमंत्रण दिया कि घर में विवाह आपके जीवन में ऐसा कर्म होगा, जिसको हम टोटल एक्ट, पूर्ण है, आप सम्मिलित हों। तब वे समझे कि मुझसे भूल हो गई। कर्म कह सकते हैं। क्योंकि मन कहीं नहीं दौड़ेगा; फल की कोई लेकिन जब सांझ को घर के हाल में गए, जहां कि सब आकांक्षा नहीं है। और एक बार आपको स्वाद आ जाए, तो मैं बैंड-बाजा सजा था, तो देखा कि वहां दूल्हा तो नहीं है। वहां तो आपको भरोसा दिलाता हं कि वे चौबीस घंटे फिर कभी खतम नहीं गड़ा ही रखा है और बारात तैयार हो रही है। गांव के आस-पास होंगे। छः बजे शुरू जरूर होगी यात्रा, लेकिन दूसरे छः फिर कभी के बूढ़े भी इकट्ठे हुए हैं; बारात बाहर निकल आई है। तब उन्होंने नहीं बजेंगे। एक बूढ़े से पूछा कि यह क्या मामला है ? मैं तो सोचता था कि एक बार स्वाद आ जाए, तो आपको पता चले कि इतने निकट बच्चों के खेल बच्चों के लिए शोभा देते हैं, आप लोग इसमें सब जीवन के, इतना बड़ा सागर था आनंद का, हमने कभी नजर न की सम्मिलित हैं! हम चूकते ही चले गए। हमारी गर्दन ही तिरछी हो गई है। हम भागते तो उस बूढ़े ने हंसकर कहा कि अब हमें बड़ों के खेल भी बच्चों ही चले जाते हैं। बस, चूकते चले जाते हैं। देख ही नहीं पाते कि के खेल ही मालूम पड़ते हैं। बड़ों के खेल भी! अब तो जब असली किनारे कोई एक और स्वाद भी है जीवन का। कभी-कभी उसकी | दूल्हा भी बारात लेकर चलता है, तब भी हम जानते हैं कि खेल ही झलक मिलती है किन्हीं कृत्यों में। है। तो इस खेल में गंभीरता से सम्मिलित होने में हमें कोई हर्ज नहीं कभी आप अपने बच्चे के साथ खेल रहे हैं, कोई फल की है। दोनों बराबर हैं। आकांक्षा नहीं होती। कभी आपने खयाल किया है कि बच्चे के । गांव के बूढ़े भी सम्मिलित हुए हैं। मेरे मित्र तो परेशान ही रहे। साथ खेलने में कैसा आह्लाद! हां, अगर बड़े के साथ खेल रहे हैं, सोचा कि सांझ खराब हो गई। मैंने उनसे पूछा कि आप करते क्या तो उतना आह्लाद नहीं होगा, क्योंकि बड़े के साथ खेल भी काम सांझ को, अगर खराब न होती तो? रेडियो खोलकर सुनते, सिनेमा बन जाता है। बाजी! हार-जीत शुरू हो जाती है। फल की आकांक्षा । देखते, राजनीति की चर्चा करते? सुबह जो अखबार में पढ़ा था, आ जाती है। बाप अपने छोटे-से बेटे के साथ खेल रहा है। कभी उसकी जुगाली करते? क्या करते? करते क्या? कहा, नहीं, करता आपने किसी बाप को अपने छोटे बेटे के साथ खेलते देखा? वैसे तो कुछ नहीं। तो फिर मैंने कहा कि बेकार चली गई, यह खयाल यह घटना दुर्लभ होती जाती है। कैसे पैदा हो रहा है? बेकार जरूर चली गई, क्योंकि उस घंटेभर में बाप अपने छोटे बेटे के साथ खेल रहा है। हराने का कोई सवाल आपको एक मौका मिला था, जब कि आकांक्षा फल की कोई भी नहीं उठता। हराने का खयाल भी नहीं उठता। हां, खेल में हार जाने न थी, तब आपको एक खेल में सम्मिलित होने का मौका मिला का मजा जरूर वह लेता है। जमीन पर लेट गया है. बेटे को छाती था. वह आप चक गए। मैंने कहा. दोबारा जाना। कोई निमंत्रण न पर बिठा लिया है। बेटा नाच रहा है खुश होकर; बाप को उसने भी दे, तो भी सम्मिलित हो जाना। और उस घंटेभर इस बारात को हरा दिया है! आनंद से जीना, तो शायद एक क्षण में वह दिखाई पड़े, जो कि सभी बेटे बाप को हराना चाहते हैं। और जो बाप जिद्द करते हैं, फलहीन कर्म है। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -कृष्ण का संन्यास, उत्सवपूर्ण संन्यास - खेल में कभी फलहीन कर्म की थोड़ी-सी झलक मिलती है। जो दे, उसमें चुपचाप बह जाओ। कोई आकांक्षा कल की मत लेकिन नहीं मिलती है, हमने खेलों को नष्ट कर दिया है। हमने बांधो, कोई फल निश्चित मत करो, कोई कर्म की नियति मत बांधो, खेलों को भी काम बना दिया है। उनमें भी हम तनाव से भर जाते वह प्रभु पर छोड़ दो। वह उस पर छोड़ दो, जो समग्र को जी रहा हैं। जीतने की आकांक्षा इतनी प्रबल हो जाती है कि खेल का सब है। और ऐसा करते ही व्यक्ति संन्यासी हो जाता है। मजा ही नष्ट हो जाता है। ___ संन्यासी वह है, जिसने कहा कि कर्म मैं करूंगा, फल तेरे हाथ। नहीं, कभी चौबीस घंटे एक प्रयोग करके देखें, और वह प्रयोग संन्यासी वह है, जिसने कहा कि शक्ति तूने मुझे दी है, तो काम आपकी जिंदगी के लिए कीमती होगा। उस प्रयोग को करने के | करवा ले। न मुझे कल का पता है, न मुझे बीते कल का कोई पता पहले इस सूत्र को पढ़ें, फिर प्रयोग को करने के बाद इस सूत्र को है। न मुझे यह भी पता है कि क्या मेरे हित में है और क्या मेरे अहित पढ़ें, तब आपको पता चलेगा कि कृष्ण क्या कह रहे हैं। और एक में है। मुझे कुछ भी पता नहीं है। बाकी तू सम्हाल। जिसने जीवन काम भी अगर आप फल के बिना करने में समर्थ हो जाएं, तो | की परम सत्ता को कहा कि सब तू सम्हाल; मुझमें जो ऊर्जा है, आपकी पूरी जिंदगी पर फलाकांक्षाहीन कर्मों का विस्तार हो | उससे जो काम लेना है, वह काम ले ले। काम मैं करूंगा, फल की जाएगा। वही विस्तार संन्यास है। बातचीत मुझसे मत कर। ऐसा व्यक्ति संन्यासी है। सच, ऐसा ही . होगा क्या? अगर आप फल की आकांक्षा न करें, तो क्या व्यक्ति संन्यासी है। बनेगा, क्या मिट जाएगा? संन्यास का अर्थ ही यही है कि जिसने अपनी अस्मिता का बोझ नहीं, प्रत्येक को ऐसा लगता है कि सारी पृथ्वी उसी पर ठहरी अलग कर दिया, जिसने अपने अहंकार का बोझ अलग रख दिया, हुई है! अगर उसने कहीं फल की आकांक्षा न की, तो कहीं ऐसा न जिसने कहा कि अब समर्पित हूं। समर्पण संन्यास है। हो कि सारा आकाश गिर जाए। छिपकली भी घर में ऐसा ही सोचती समर्पित व्यक्ति फल की आकांक्षा नहीं करता। क्योंकि हम है मकान पर टंगी हुई कि सारा मकान उस पर सम्हला हुआ है। जानते ही नहीं कि क्या ठीक है और क्या गलत है। क्या होना चाहिए अगर वह कहीं जरा हट गई, तो कहीं पूरा मकान न गिर जाए! और क्या नहीं होना चाहिए, यह भी हमें पता नहीं है। हम भी वैसा ही सोचते हैं। हमसे पहले भी इस जमीन पर अरबों । एक अरेबिक कहावत है कि अगर परमात्मा सबकी आकांक्षाएं लोग रह चुके और इसी तरह सोच-सोचकर मर गए। न उनके कर्मों पूरी कर दे, तो लोग इतने दुख में पड़ जाएं, जिसका कोई हिसाब का कोई पता है, न उनके फलों का आज कोई पता है। न उनकी हार नहीं। उस कहावत के पीछे फिर बाद में एक सूफी कहानी वहां का कोई अर्थ है, न उनकी जीत का कोई प्रयोजन है। सब मिट्टी में प्रचलित हुई, वह मैं आपसे कहूं, फिर हम दूसरे सूत्र पर बात करें। खो जाते हैं। लेकिन थोड़ी देर मिट्टी बहुत पागलपन कर लेती है। | सुना है मैंने, एक आदमी ने यह कहावत पढ़ ली कि परमात्मा थोड़ी देर बहुत उछल-कूद; जैसे लहर उठती है सागर में, थोड़ी देर आकांक्षाएं पूरी कर दे आदमियों की, तो आदमी बड़ी मुसीबत में बहुत उछल-कूद; उछल-कूद हो भी नहीं पाती कि गिर जाती है पड़ जाएं। उसकी बड़ी कृपा है कि वह आपकी आकांक्षाएं पूरी नहीं वापस। ऐसे ही हम हैं। करता। क्योंकि अज्ञान में की गई आकांक्षाएं खतरे में ही ले जा कृष्ण कहते हैं कि जानो तुम कि जिस परमात्मा ने तुम्हें पैदा किया सकती हैं। उस आदमी ने कहा, यह मैं नहीं मान सकता हूं। उसने या जिस परमात्मा की तुम एक लहर हो, जिसने तुम्हें जीवन की परमात्मा की बड़ी पूजा, बड़ी प्रार्थना की। और जब परमात्मा ने ऊर्जा दी, वही तुमसे कर्म करवाता रहा है, वही तुमसे कर्म करवाता आवाज दी कि तू इतनी पूजा-प्रार्थना किसलिए कर रहा है? तो रहेगा। तुम जल्दी मत करो। तुम अपने सिर पर व्यर्थ का बोझ मत उसने कहा कि मैं इस कहावत की परीक्षा करना चाहता हूं। तो आप लो। तुम उसी पर छोड़ दो। तुम इसकी भी फिक्र छोड़ दो कि कल मुझे वरदान दें और मैं आकांक्षाएं पूरी करवाऊंगा; और मैं सिद्ध क्या होगा! जो होगा कल, वह कल देख लेंगे। जो आज हो रहा | करना चाहता हूं, यह कहावत गलत है। परमात्मा ने कहा कि त कोई भी तीन इच्छाएं मांग ले. मैं परी कर में अपने को छोड़ दे और बह जाए। तैरे नहीं, बह जाए; जस्ट देता हूं। उस आदमी ने कहा कि ठीक। पहले मैं घर जाऊं, अपनी फ्लोटिंग। तैरने का भी श्रम मत करो। बस, बह जाओ। जीवन तुम्हें पत्नी से सलाह कर लूं। पे कोई पानी Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < गीता दर्शन भाग-3 अभी तक उसने सोचा नहीं था कि क्या मांगेगा, क्योंकि उसे होगी, इसका कोई भरोसा नहीं। भरोसा ही नहीं था कि यह होने वाला है कि परमात्मा आकर कहेगा। संन्यासी वह है, जिसने फल का खयाल ही छोड़ दिया, जो आज आप भी होते, तो भरोसा नहीं होता कि परमात्मा आकर कहेगा। जी रहा है, यहीं। जितने लोग मंदिर में जाकर प्रार्थना करते हैं, किसी को भरोसा नहीं क्या आप सोच सकते हैं कि बिना फल के आप होता। कर लेते हैं। शायद! परहेप्स! लेकिन शायद मौजूद रहता है। | कर सकेंगे? अगर चोर को भरोसा न हो कि रुपए मिल सकेंगे; तय नहीं किया था; बहुत घबड़ा गया। भागा हुआ पत्नी के पास | | तिजोरी लूट ही लूंगा, फल पा ही लूंगा; चोर चोरी करने जा आया। पत्नी से बोल कि कुछ चाहिए हो तो बोल। एक इच्छा तेरी सकेगा? असंभव है। आपके जीवन से बुरा कर्म तत्क्षण गिर पूरी करवा देता हूं। जिंदगीभर तेरा मैं कुछ पूरा नहीं करवा पाया। जाएगा, अगर आकांक्षा और फल की कामना गिर गई। फिर भी पत्नी ने कहा कि घर में कोई कड़ाही नहीं है। उसे कुछ पता नहीं था | जीवन की ऊर्जा काम करेगी। लेकिन तब प्रभु का हाथ बन जाती है कि क्या मामला है। घर में कड़ाही नहीं है; कितने दिन से कह रही | | जीवन की ऊर्जा, और वैसा प्रभु के हाथ बने हुए आदमी को कृष्ण हूं। एक कड़ाही हाजिर हो गई। वह आदमी घबड़ाया। उसने सिर संन्यासी कहते हैं। पीट लिया कि मूर्ख, एक वरदान खराब कर दिया! इतने क्रोध में आ गया कि कहा कि तू तो इसी वक्त मर जाए तो बेहतर है। वह मर गई। तब तो वह बहुत घबड़ाया। उसने कहा कि यह तो बड़ी यं संन्यासमिति प्राहयोग तं विद्धि पाण्डव। । मुसीबत हो गई। तो उसने कहा, हे भगवान, वह एक और जो इच्छा न ह्यसंन्यस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन ।। २ ।। है बची है; कृपा करके मेरी स्त्री को जिंदा कर दें। । इसलिए हे अर्जुन, जिसको संन्यास ऐसा कहते हैं, उसी को ये उनकी तीन इच्छाएं पूरी हुईं। उस आदमी ने दरवाजे पर लिख तू योग जान, क्योंकि संकल्पों को न त्यागने वाला कोई भी छोड़ा है कि वह कहावत ठीक है। पुरुष योगी नहीं होता। हम जो मांग रहे हैं, हमें भी पता नहीं कि हम क्या मांग रहे हैं। वह तो पूरा नहीं होता, इसलिए हम मांगे चले जाते हैं। वह पूरा हो जाए, तो हमें पता चले। नहीं पूरा होता, तो कभी पता नहीं चलता 1 कल्पों को न त्यागने वाला पुरुष योगी नहीं होता है। 7 और संकल्पों को जो त्याग दे, वही संन्यासी है। कृष्ण कहते हैं, मांगो ही मत। क्योंकि जिसने तुम्हें जीवन दिया, संकल्प क्यों है हमारे मन में? संकल्प क्या है? इच्छा वह तुमसे ज्यादा समझदार है। तुम अपनी समझदारी मत बताओ। | हो, तो संकल्प पैदा होता है। कुछ पाना हो तो पाने की चेष्टा, कुछ डोंट बी टू वाइज। बहुत बुद्धिमानी मत करो। जिसने तुम्हें जीवन | पाना हो तो पाने की शक्ति अर्जित करनी होती है। संकल्प है वासना दिया और जिसके हाथ से चांद-तारे चलते हैं और अनंत जीवन | | को पूरा करने की तीव्रता, वासना को पूरा करने के लिए तीव्र जिससे फैलता है और जिसमें लीन हो जाता है, निश्चित, इतना तो | आयोजन। संकल्प विल है। जब मैं कुछ पाना चाहता हूं, तो अपने तय ही है कि वह हमसे ज्यादा समझदार है। और अगर वह भी | को दांव पर लगाता हूं। अपने को दांव पर लगाना संकल्प है। नासमझ है, तो फिर हमें समझदार होने की चेष्टा करनी बिलकुल | जुआरी संकल्पवान होते हैं। भारी संकल्प करते हैं। सब कुछ बेकार है। | लगा देते हैं कुछ पाने के लिए। हम सब भी जुआरी हैं। मात्रा कृष्ण कहते हैं, उस पर छोड़ दो। तुम किए चले जाओ; सब उस कम-ज्यादा होती होगी। दांव छोटे-बड़े होते होंगे। लगाने की पर छोड़ दो। सामर्थ्य कम-ज्यादा होती होगी। हम सब लगाते हैं। अपनी __ और बड़ा आश्चर्य तो यह है कि जो छोड़ देता है, वह सब पा | इच्छाओं पर दांव लगाना ही पड़ता है। सिर्फ जुआरी वही नहीं है, लेता है जो मिलने जैसा है। और जो नहीं छोड़ता—इस अरेबियन जिसकी कोई फलाकांक्षा नहीं है। वह जुआरी नहीं है। उसके पास कहावत में उस आदमी के हाथ में कड़ाही तो कम से कम हाथ लग | दांव पर लगाने का कोई सवाल नहीं है। कोई उसका दांव नहीं है। गई–लेकिन जो नहीं छोड़ता है, उसके हाथ में कड़ाही भी लगती | हम तो संकल्प करेंगे ही। 10 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्ण का संन्यास, उत्सवपूर्ण संन्यास - कृष्ण कहते हैं, सब संकल्प छोड़ दे, वही योगी है, वही कृष्ण बिलकुल उलटी बात कहते हैं। वे कहते हैं, संकल्पों को संन्यासी है। | जो छोड़ दे बिलकुल। संकल्प को जो छोड़ दे, वही प्रभु को संकल्प तभी छूटेंगे, जब कुछ पाने का खयाल न रह जाए। नहीं | उपलब्ध होता है। संकल्प को छोड़ने का मतलब हुआ, समर्पण हो तो संकल्प जारी रहेंगे। मन चौबीस घंटे संकल्प के आस-पास जाए। कह दे कि जो तेरी मर्जी। मैं नहीं है। समर्पण का अर्थ है कि अपनी शक्ति इकट्ठी करता रहता है। जो इच्छाएं संकल्प के बिना | जो हारने को, असफल होने को राजी हो जाए। रह जाती हैं, वे इंपोटेंट, नपुंसक रह जाती हैं। हमारे भीतर बहुत __ध्यान रखें, फलाकांक्षा छोड़ना और असफल होने के लिए राजी इच्छाएं पैदा होती हैं। सभी इच्छाएं संकल्प नहीं बनतीं। इच्छाएं | होना, एक ही बात है। असफल होने के लिए राजी होना और बहुत पैदा होती हैं, फिर किसी इच्छा के साथ हम अपनी ऊर्जा को, फलाकांक्षा छोड़ना, एक ही बात है। जो जो भी हो, उसके लिए अपनी शक्ति को लगा देते हैं, तो वह इच्छा संकल्प हो जाती है। राजी हो जाए; जो कहे कि मैं हूं ही नहीं सिवाय राजी होने के, निष्क्रिय पड़ी हुई इच्छाएं धीरे-धीरे सपने बनकर खो जाती हैं। एक्सेप्टिबिलिटी के अतिरिक्त मैं कुछ भी नहीं हूं। जो भी होगा, जिसके पीछे हम अपनी शक्ति लगा देते हैं, अपने को लगा देते हैं, उसके लिए मैं राजी हूं। ऐसा ही व्यक्ति संन्यासी है। वह इच्छा संकल्प बन जाती है। ___ तो संन्यासी का तो अर्थ हुआ, जो भीतर से बिलकुल मिट जाए; संकल्प का अर्थ है, जिस इच्छा को पूरा करने के लिए हमने | जो भीतर से बिलकुल मर जाए.। संन्यास एक गहरी मृत्यु है, एक अपने को दांव पर लगा दिया। तब वह डिजायर न रही, विल हो बहुत गहरी मृत्यु। गई। और जब कोई संकल्प से भरता है, तब और भी गहन खतरे ___ एक मृत्यु से तो हम परिचित हैं, जब शरीर मर जाता है। लेकिन में उतर जाता है। क्योंकि अब इच्छा, मात्र इच्छा न रही कि मन में | वह मृत्यु नहीं है। वह सिर्फ धोखा है। क्योंकि फिर मन नए शरीर उसने सोचा हो कि महल बन जाए। अब वह महल बनाने के लिए | निर्मित कर लेता है। वह सिर्फ वस्त्रों का परिवर्तन है। वह सिर्फ जिद्द पर भी अड़ गया। जिद्द पर अड़ने का अर्थ है कि अब इस इच्छा | पुराने घर को छोड़कर नए घर में प्रवेश है। के साथ उसने अपने अहंकार को जोड़ा। अब वह कहता है कि | । इसलिए जो जानते हैं, वे मृत्यु को मृत्यु नहीं कहते, सिर्फ नए अगर इच्छा पूरी होगी, तो ही मैं हूं। अगर इच्छा पूरी न हुई, तो मैं | | जीवन का प्रारंभ कहते हैं। जो जानते हैं, वे तो योग को मृत्यु कहते बेकार हूं। अब उसका अहंकार इच्छा को पूरा करके अपने को सिद्ध हैं। वे तो संन्यास को मृत्यु कहते हैं। करने की कोशिश करेगा। जब इच्छा के साथ अहंकार संयुक्त होता __वस्तुतः आदमी भीतर से तभी मरता है, जब वह तय कर लेता है है, तो संकल्प निर्मित होता है। कि अब मेरा कोई संकल्प नहीं, मेरी कोई फल की आकांक्षा नहीं, अहंकार, मैं, जिस इच्छा को पकड़ लेता है, फिर हम उसके पीछे मैं नहीं। जैसे ही कोई व्यक्ति यह कहने की हिम्मत जुटा लेता है कि पागल हो जाते हैं। फिर हम सब कुछ गंवा दें, लेकिन इस इच्छा | | अब मैं नहीं हूं, तू ही है, उस क्षण महामृत्यु घटित होती है। को पूरा करना बंद नहीं कर सकते। हम मिट जाएं। अक्सर ऐसा और ध्यान रहे, उस महामृत्यु से ही महाजीवन का आविर्भाव होता है कि अगर आदमी का संकल्प पूरा न हो पाए, तो आदमी होता है। जैसे बीज टूटता है, तो अंकुर बनता है, वृक्ष बनता है। आत्महत्या कर ले। कहे कि इस जीने से तो न जीना बेहतर है। अंडा टूटता है, तो उसके भीतर से जीवन बाहर निकलता है; पंख पागल हो जाए। कहे कि इस मस्तिष्क का क्या उपयोग है ! संकल्प। फैलाता है, आकाश में उड़ जाता है। ऐसे ही हम भी एक बंद बीज लेकिन साधारणतः हम सभी को सिखाते हैं संकल्प को मजबूत हैं, अहंकार के सख्त बीज। जब अहंकार की यह पर्त टूट जाए और करने की बात। अगर स्कूल में बच्चा परीक्षा उत्तीर्ण नहीं कर पा रहा यह बीज की खोल टूट जाए, तो ही हमारे भीतर से एक महाजीवन है, तो शिक्षक कहता है, संकल्पवान बनो। मजबूत करो संकल्प का पक्षी पंख फैलाकर उड़ता है विराट आकाश की ओर। को। कहो कि मैं पूरा करके रहूंगा। दांव पर लगाओ अपने को। लेकिन हम तो इस बीज को बचाने में लगे रहते हैं। हम उन अगर बेटा सफल नहीं हो पा रहा है, तो बाप कहता है कि संकल्प पागलों की तरह हैं, जो बीज को बचाने में लग जाएं। बीज को की कमी है। चारों तरफ हम संकल्प की शिक्षा देते हैं। हमारा पूरा बचाने से कुछ होगा? सिर्फ सड़ेगा। बीज को बचाना पागलपन है। तथाकथित संसार संकल्प के ही ऊपर खड़ा हुआ चलता है। बीज बचाने के लिए नहीं, तोड़ने के लिए है। बीज मिटाने के लिए Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 गीता दर्शन भाग-3 > है। क्योंकि बीज मिटे, तो अंकुर हो । अंकुर हो, तो अनंत बीज लगें। अहंकार हमारा बीज है, सख्त गांठ । और ध्यान रहे, बीज की खोल जो काम करती है, वही काम अहंकार करता है। बीज की सख्त खोल क्या काम करती है? वह जो भीतर है कोमल जीवन, उसको बचाने का काम करती है। वह सेफ्टी मेजर है, सुरक्षा का उपाय है। वह जो खोल है सख्त, वह भीतर कुछ कोमल छिपा है, उसको बचाने की व्यवस्था है। लेकिन बचाने की व्यवस्था अगर टूटने से इनकार कर दे, तो आत्महत्या बन जाएगी। जैसे कि हम एक सिपाही को युद्ध के मैदान पर कवच पहना हैं लोहे के । वह बचाने की व्यवस्था है कि बाहर से हमला हो, तो बच जाए। लेकिन फिर कवच इतना सख्त हो जाए और प्राणों पर इस तरह कस जाए कि जब सिपाही युद्ध से घर लौटे, तब भी कवच छोड़ने को राजी न हो; बिस्तर पर सोए, तो भी कवच को पकड़े रखे और कह दे कि अब मैं कवच कभी नहीं निकालूंगा; तो वह कवच उसकी कब्र बन जाएगी। वह मरेगा उसी कवच में, जो बचाने के लिए था। बीज की सख्त खोल, उसके भीतर कोमल जीवन छिपा है, उसको बचाने की व्यवस्था है। उस समय तक बचाने की व्यवस्था है, जब तक उस बीज को ठीक जमीन न मिल जाए। जब ठीक जमीन मिल जाए, तो वह बीज टूट जाए, सख्त खोल मिट जाए, गल जाए, हट जाए; अंकुरित हो जाए अंकुर निकल आए कोमल जीवन सूर्य को छूने की यात्रा पर चल पड़े। ठीक हमारा अहंकार भी हमारे बचाव की व्यवस्था है। हमारा अहंकार भी हमारे बचाव की व्यवस्था है। जब तक ठीक भूमि न मिल जाए, वह हमें बचाए । ठीक भूमि कब मिलेगी ? अधिक लोग तो बीज ही रहकर मर जाते हैं। उनको कभी ठीक भूमि मिलती हुई मालूम नहीं पड़ती। उस ठीक भूमि का नाम ही धर्म है । जीवन की सारी खोज में जितने जल्दी आप के रहस्य को समझ लें, उतने जल्दी आपको ठीक भूमि मिल जाए। यह मैं गीता पर बात कर रहा हूं इसी आशय से कि शायद आपके किसी बीज को भूमि की तलाश हो । कृष्ण की बात में, कहीं हवा में, वह भूमि मिल जाए। इस चर्चा के बहाने कहीं कोई स्वर आपको सुनाई पड़ जाए और वह भूमि मिल जाए, जिसमें आपका बीज अपने को तोड़ने को राजी हो जाए। इसलिए तो कृष्ण पूरे समय अर्जुन से कह रहे हैं कि तू अपने को छोड़ दे, तू अपने को तोड़ दे सारा धर्म यही कहता है। सारी दुनिया के धर्म यही कहते हैं। चाहे कुरान, चाहे बाइबिल, चाहे महावीर, चाहे बुद्ध । दुनिया में जिन्होंने भी धर्म की बात कही है, उन्होंने कहा है कि तुम मिटो। अगर तुम अपने को बचाओगे, तो तुम परमात्मा को खो दोगे । और तुम अगर | अपने को मिटाने को राजी हो गए, तो तुम परमात्मा हो जाओगे । मिटो! अपने को मिटा डालो ! तुम ही तुम्हारे लिए बाधा हो । अब इस खोल को तोड़ो। इस | खोल को कई जन्मों तक खींच लिया। अब तुम्हारी आदत हो गई | खोल को खींचने की । अब तुम समझते हो कि मैं खोल हूं। अब | तुम, भीतर का वह जो कोमल जीवन है, उसको भूल ही चुके हो। वह जो आत्मा है, बिलकुल भूल गई है और शरीर को ही समझ लिया है कि मैं हूं। वह जो चेतना है, बिलकुल भूल गई है और मन की वासनाओं को ही समझ लिया है कि मैं हूं। अब इस खोल को तोड़ो, इस खोल को छोड़ दो। लेकिन हम संकल्प करके इस खोल को बचाए चले जाते हैं। संकल्प इस खोल को बचाने की चेष्टा है। हम कहते हैं, मैं अपने को बचाऊंगा। हम सब एक-दूसरे से लड़ हैं, ताकि कोई हमें नष्ट न कर दे। हम सब संघर्ष में लीन हैं, ताकि हम बच जाएं। डार्विन ने कहा है कि यह सारा जीवन स्ट्रगल फार सरवाइवल है। यह सब बचाव का संघर्ष है। और वे ही बचते हैं, जो सर्वाधिक योग्य हैं। सरवाइवल आफ दि फिटेस्ट । वे जो सर्वाधिक योग्य हैं, वे ही बचते हैं। 12 लेकिन अगर डार्विन ने कभी कृष्ण को समझा होता, तो कृष्ण कुछ दूसरा सूत्र कहते हैं। कृष्ण कहते हैं कि जो श्रेष्ठतम हैं, वे तो अपने को बचाते ही नहीं। और जो मिटते हैं, वे ही बचते हैं। जीसस से पूछा होता डार्विन ने तो जीसस भी यही कहते कि अगर तुमने बचाया अपने को, तो खो दोगे। और अगर खोने को राजी हो गए, तो बच जाओगे । धर्म कहता है कि हमने खोल को समझ लिया अंकुर, तो हम भूल में पड़ गए। यह खोल ही है । और आप मत मिटाओ, इससे अंतर नहीं पड़ता। खोल तो मिटेगी। खोल को तो मिटना ही पड़ेगा। सिर्फ एक जीवन का अवसर व्यर्थ हो जाएगा। फिर नई खोल, और फिर आप उस खोल को पकड़ लेना कि यह मैं हूं, और फिर आप एक जीवन के अवसर को खो देना ! संकल्प हमारी बचाने की चेष्टा है। हर आदमी अपने को बचाने में लगा है। आदमी ही क्यों, छोटे से छोटा प्राणी भी अपने को Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्ण का संन्यास, उत्सवपूर्ण संन्यास बचाने में लगा है। छोटा-सा पक्षी भी बचा रहा है। छोटा-सा कीड़ा-मकोड़ा भी बचा रहा है। एक पत्थर भी अपनी सुरक्षा कर रहा है। सब अपनी सुरक्षा कर रहे हैं। अगर हम पूरे जीवन की धारा को देखें, तो हर एक अपनी सुरक्षा में लगा है। संन्यास असुरक्षा में उतरना है, ए जंप इनटु दि इनसिक्योरिटी । संन्यास का अर्थ है, अपने को बचाने की कोशिश बंद । अब हम मरने को राजी हैं। हम बचाते ही नहीं हैं, क्योंकि हम कहते हैं कि बचाकर भी कौन अपने को बचा पाया है। कृष्ण कहते हैं, संकल्पों को छोड़ देता है जो, वही योगी है। लेकिन एक आदमी कहता है कि मैंने संकल्प किया है कि मैं परमात्मा को पाकर रहूंगा। फिर यह आदमी संन्यास नहीं पा सकेगा। अभी इसका संकल्प है। यह तो परमात्मा को भी एक एडीशन बनाना चाहता है अपनी संपत्ति में। इसके पास एक मकान है, दुकान है, इसके पास सर्टिफिकेट्स हैं, बड़ी नौकरी है, बड़ा पद है। यह कहता है कि सब है अपने पास, अपनी मुट्ठी में भगवान भी होना चाहिए! ऐसे नहीं चलेगा। ऐसे नहीं चलेगा, ऐसे सब तरह का फर्नीचर अपने घर में है; यह भगवान नाम का फर्नीचर भी अपने घर में होना चाहिए ! ताकि हम मुहल्ले - पड़ोस के लोगों को दिखा सकें कि पोर्च में देखो, बड़ी कार खड़ी है। घर में मंदिर बनाया है, उसमें भगवान है । सब हमारे पास है। भगवान भी हमारा परिग्रह का एक हिस्सा है। जो भी संकल्प करेगा, वह भगवान को नहीं पा सकेगा। क्योंकि संकल्प का मतलब ही यह है कि मैं मौजूद हूं। और जहां तक मैं मौजूद है, वहां तक परमात्मा को पाने का कोई उपाय नहीं है। बूंद कहे कि मैं बूंद रहकर और सागर पा लेना चाहती हूं, तो आप उससे क्या कहिएगा, कि तुझे गणित का पता नहीं है। बूंद कहे, मैं बूंद रहकर सागर को पा लेना चाहती हूं! बूंद कहे, मैं तो सागर को अपने घर में लाकर रहूंगी! तो सागर हंसता होगा। आप भी हंसेंगे। बूंद नासमझ है। लेकिन जहां आदमी का सवाल है, आपको हंसी नहीं आएगी। आदमी कहता है, मैं तो बचूंगा और परमात्मा को भी पा लूंगा। यह वैसा ही पागलपन है, जैसे बूंद कहे कि मैं तो बचूंगी और सागर को पा लूंगी। अगर बूंद को सागर को पाना हो, तो बूंद को मिटना पड़ेगा, उसे खुद को खोना पड़ेगा। वह बूंद सागर में गिर जाए, मिट जाए, तो सागर को पा लेगी। और कोई उपाय नहीं है। अन्यथा कोई मार्ग नहीं है। आदमी भी अपने को खो दे, तो परमात्मा को पा ले । बूंद की तरह है, परमात्मा सागर की तरह है। आदमी अपने को बचाए और कहे कि मैं परमात्मा को पा लूं - पागलपन है। बूंद पागल हो गई है। लेकिन बूंद पर हम हंसते हैं, आदमी पर हम हंसते नहीं हैं। जब भी कोई आदमी कहता है, मैं परमात्मा को पाकर रहूंगा, तो वह आदमी पागल है। वह पागल होने के रास्ते पर चल पड़ा है। मैं ही तो बाधा है। कबीर ने कहा है कि बहुत खोजा । खोजते खोजते थक गया; नहीं पाया उसे। और पाया तब, जब खोजते खोजते खुद खो गया। जिस दिन पाया कि मैं नहीं हूं, अचानक पाया कि वह है । ये दोनों एक साथ नहीं होते। इसलिए कबीर ने कहा, प्रेम गली अति सांकरी, ता में दो न समाय । वह दो नहीं समा सकेंगे वहां या तो वह या मैं । 13 संकल्प है मैं का बचाव। वह जो ईगो है, अहंकार है, वह अपने को बचाने के लिए जो योजनाएं करता है, उनका नाम संकल्प है। वह अपने को बचाने के लिए जिन फलों की आकांक्षा करता है, उन आकांक्षाओं को पूरा करने की जो व्यवस्था करता है, उसका नाम संकल्प है। नीत्शे ने एक किताब लिखी है, उस किताब का नाम ठीक इससे | उलटा है। किताब का नाम है, दि विल टु पावर - शक्ति का | संकल्प। और नीत्शे कहता है, बस, एक ही जीवन का असली राज है और वह है, शक्ति का संकल्प। संकल्प किए चले जाओ। और शक्ति, और शक्ति, और ज्यादा शक्ति - चाहे धन, चाहे यश, चाहे पद, चाहे ज्ञान - लेकिन और शक्ति चाहिए। बस, जीवन का एक ही राज है, नीत्शे कहता है कि और शक्ति चाहिए। उसका संकल्प किए चले जाओ। जो संकल्प करेगा, वह जीत जाएगा। जो नहीं करेगा, वह हार जाएगा। और जो हार जाएं, उन्हें मिटा डालो। उनको बचाने की भी कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि वे जीवन के काम के नहीं हैं। जो जीत जाएं, उन्हें बचाओ । नीत्शे जो कह रहा है, वह संकल्प की फिलासफी है; वह संकल्प का दर्शन है। इसलिए नीत्शे ने कहीं कहा है कि मैं एक ही सौंदर्य जानता हूं। जब मैं सिपाहियों को रास्ते पर चलते देखता हूं और उनकी संगीनें सूरज की रोशनी में चमकती हैं, बस, इससे ज्यादा सुंदर चीज मैंने कोई नहीं देखी। निश्चित ही, जब संगीन चमकती है रास्ते पर, तो इससे ज्यादा सुंदर प्रतीक अहंकार का और | कोई नहीं हो सकता । नीत्शे कहता है, मैंने कोई और इससे महत्वपूर्ण संगीत नहीं सुना । जब सिपाहियों के युद्ध के मैदान की Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ← गीता दर्शन भाग-3 > तरफ जाते हुए जूतों की आवाज रास्तों पर लयबद्ध पड़ती है, इससे सुंदर संगीत मैंने कोई नहीं सुना । निश्चित ही, अहंकार अगर कोई संगीत बनाए, तो जूतों की लयबद्ध आवाज के अलावा और क्या संगीत बना सकता है ! अगर अहंकार कोई संगीत, कोई मेलोडी, अगर अहंकार कभी कोई मोजार्ट और बीथोवन पैदा करे, अगर अहंकार कभी कोई बड़ा संगीतज्ञ, तानसेन पैदा करे, तो अहंकार जो संगीत बनाएगा, वह जूतों की आवाज से ही निकलेगा। वह जो आर्केस्ट्रा होगा, उसमें जूतों के सिवाय कुछ भी नहीं होगा। संगीनें हो सकती हैं, जूते हो सकते हैं। संगीनों की चमकती हुई धार हो सकती है, जूतों की लयबद्ध आवाज हो सकती है। लेकिन नीत्शे ठीक कहता है। संकल्प का यही परिणाम है, संकल्प का यही अर्थ है। वह अहंकार की बेतहाशा पागल दौड़ है। कृष्ण कहते हैं, लेकिन संकल्प जहां है...। इसलिए बहुत से लोगों को - यह मैं आपको इंगित करना उचित समझंगा - बहुत से लोगों को यह भ्रांति हुई है कि नीत्शे और कृष्ण के दर्शन में मेल है। क्योंकि नीत्शे भी युद्धवादी है और कृष्ण भी अर्जुन को कहते हैं, युद्ध में तू जा। इससे बड़ी भ्रांति हुई है। लेकिन उन्हें पता नहीं कि दोनों की जीवन की मूल दृष्टि बहुत अलग है ! कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि तू युद्ध में जाने के योग्य तभी होगा, जब तेरा कोई संकल्प न रहे। तू युद्ध में जाने के योग्य तभी होगा, जब तेरी कोई कामना न रहे। तू युद्ध में जाने की तभी योग्यता पाएगा, जब तू न रहे। संन्यासी की तरह युद्ध में जा । कृष्ण का युद्ध धर्मयुद्ध है। बहुत और ही अर्थ है उसका। और जब नीत्शे कहता है कि युद्ध में जा, तो वह कहता है, युद्ध का अर्थ | ही है, दूसरे को नष्ट करने की आकांक्षा। युद्ध का अर्थ ही है, स्वयं को सिद्ध करने का प्रयास । युद्ध का अर्थ ही है कि मैं हूं, और तुझे नहीं रहने दूंगा। युद्ध एक संघर्ष है अहंकार की घोषणा का । तो जिन लोगों ने भी नीत्शे और कृष्ण के बीच तालमेल बिठालने की कोशिश की है, वे एकदम नासमझी से भरे हुए वक्तव्य हैं। नीर और कृष्ण के बीच कोई तालमेल नहीं हो सकता, बिलकुल बिपरीत लोग हैं। शर्तें उनकी अलग हैं। कृष्ण अर्जुन को युद्ध पर भेज सकते हैं, जब अर्जुन बिलकुल शून्यवत हो जाए। और अगर शून्य लड़ेगा, तो अधर्म के लिए नहीं लड़ सकता। अधर्म के लिए लड़ने के लिए शून्य को क्या कारण है? शून्य अगर लड़ेगा, तो धर्म | के लिए ही लड़ सकता है। क्योंकि धर्म स्वभाव है। और शून्य | स्वभाव में जीने लगता है। वह स्वभाव से लड़ सकता है। इसलिए कृष्ण ने अगर अर्जुन को इस युद्ध के लिए कहा कि तू जा युद्ध में, तो युद्ध में जाने के पहले बड़ी शर्तें हैं उनकी। वे शर्तें | अर्जुन पूरी करे, तो ही युद्ध की पात्रता आती है। वह शर्तें पूरी कर दे, तो अर्जुन में कुछ भी नहीं रह जाता जो अर्जुन का है, अर्जुन परमात्मा का हाथ बन जाता है। जो भी ये शर्तें पूरी कर देगा, वह परमात्मा का हाथ हो जाता है। वह एक सिर्फ बांस की पोंगरी हो गया, जिसमें गीत प्रभु का होगा अब । वह तो सिर्फ खाली जगह है, जिससे गीत बहेगा - एक पैसेज, एक मार्ग, एक जगह, एक रास्ता। बस, इससे ज्यादा नहीं। संकल्प सब छोड़ दे कोई । और संकल्प तभी छोड़ेगा, जब इच्छाएं छोड़ दे। इसलिए पहले सूत्र में कृष्ण ने कहा, इच्छाएं न हों। तब दूसरे सूत्र में कहते हैं, संकल्प न हों। अगर इच्छाएं होंगी, तो संकल्प तो पैदा होंगे ही। इच्छाएं जहां होंगी, वहां संकल्प भी आरोपित होंगे। संकल्प का अर्थ है, जिस इच्छा ने आपके अहंकार में जड़ें पकड़ लीं, जिस इच्छा ने आपके अहंकार को अपना सहयोगी बना लिया, जिस इच्छा ने आपके अहंकार को परसुएड कर लिया, फुसला लिया कि आओ मेरे साथ, चलो मेरे पीछे, मैं तुझे स्वर्ग पहुंचा देती | अहंकार जिस इच्छा के पीछे चलकर स्वर्ग पाने की खोज करने लगा, वही संकल्प है। इसलिए पहले सूत्र में कहा, इच्छाएं न हों; दूसरे सूत्र में कहा, संकल्प न हों; तब संन्यास है। तो संन्यास का अर्थ संकल्प नहीं है। संन्यास का अर्थ समर्पण है - समर्पण, सरेंडर | मंदिर में तो जाकर हम भी परमात्मा के चरणों में सिर रख देते हैं। लेकिन जरा गौर से खोजकर देखेंगे, तो बहुत हैरान होंगे। यह शरीर वाला सिर तो नीचे रखा रहता है, लेकिन असली सिर पीछे खड़ा हुआ देखता रहता है कि मंदिर में और भी कोई देखने वाला है या नहीं ! अगर कोई देखने वाला होता है, तो मंत्रोच्चार जोर से होता है। अगर कोई देखने वाला न हो, तो जल्दी निपटाकर आदमी चला जाता है। वह असली अहंकार तो पीछे खड़ा रहता है। वह परमात्मा के चरणों में भी सिर नहीं झुकाता है। | असल में, हमारे जीवन का सारा ढंग सिर झुकाने का नहीं है। | जीवन का सारा ढंग सिर को अकड़ाने का है। कभी-कभी झुकाते 14 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ← कृष्ण का संन्यास, उत्सवपूर्ण संन्यास हैं, मजबूरी में! लेकिन वह अस्थायी उपाय होता है। इसलिए जिस आदमी ने आपसे सिर झुकवा लिया, उसको आपसे सदा सावधान रहना चाहिए। क्योंकि आप कभी इसका बदला चुकाएंगे। जिस आदमी ने कभी आपके सामने सिर झुकाया हो, अब उससे जरा बचकर रहना। आपने एक दुश्मन बना लिया है। वह आपसे बदला लेगा। क्योंकि सिर मन मर्जी से नहीं झुकाता। सिर मन बड़ी बेमर्जी झुकाता है। और प्रतीक्षा करता है कि कब मौका मिल जाए। कब मौका मिल जाए कि मैं भी इस सिर को झुकवा लूं! जब तक मन है, तब तक सिर नहीं झुक सकेगा। और जहां मन नहीं है, वहां सिर झुका ही हुआ है। वहां खड़ा हुआ सिर भी झुका हुआ है। कृष्ण जब कहते हैं, संकल्प न रहे, तो वे यह कह रहे हैं कि भीतर वह अहंकार न रह जाए, जो क्रिस्टलाइज करता है सब संकल्पों को। भीतर मैं का स्वर जारी रहता है चौबीस घंटे। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप मैं न बोलें। न! न बोलने से काम नहीं चलेगा, बोलना तो पड़ेगा ही । लेकिन जब आप बोलते हों कि मैं, तब भी जानें कि भीतर कोई मैं सघन न हो पाए। भीतर कोई मैं मजबूत न हो पाए। मैं यह सिर्फ शब्द में रहे, भाषा में रहे, व्यवहार में रहे, भीतर गहरा न हो पाए। लेकिन हमारी हालत उलटी है। हम अक्सर बाहर से मैं का उपयोग न भी करें, तो भी भीतर मैं मौजूद रहता है! बार्ड करके एक विचारक है। उसने एक छोटा-सा अभ्यास विकसित किया है साधकों के लिए। और वह अभ्यास यह है कि दिन में तुम खयाल रखो कि कितनी बार मैं का उपयोग किया; इसे नोट करते रहो। तो हुबार्ड के साधक अपनी जेब में एक नोट बुक लिए रहते हैं और दिनभर वे आंकड़े लगाते रहते हैं कि कितना मैं का उपयोग किया। दंग रह जाते हैं देखकर कि दिनभर में इतना मैं ! इतनी बार मैं बोले ! फिर हुबार्ड कहता है, इसका होश रखो। होश रखने से मैं का उपयोग कम होता चला जाता है। आज सौ दफे हुआ। कल नब्बे दफे हुआ। दो-चार महीने में वह दो-चार दफे होता है । चार-छः महीने में वह शून्यवत 'जाता है। लेकिन तब साधक को पता चलता है कि मैं का उपयोग न भी करो, तो भी भीतर मैं खड़ा है। तब पता चलता है, तब खयाल में आता है कि मैं का उपयोग मत करो, तो भी मैं खड़ा है। रास्ते पर आप चले जा रहे हैं। कोई नहीं है, तो आप और ढंग 15 से चलते हैं। फिर दो आदमी रास्ते पर निकल आए, आपका मैं मौजूद हो गया। भीतर कुछ हिला; भीतर कुछ तैयार हो गया। टाई वगैरह उसने ठीक कर ली; कपड़े उसने ठीक किए; चल पड़ा। बाथरूम में आप होते हैं तब ? कल खयाल करना। बाथरूम में वही आदमी रहता है, जो बैठकखाने में रहता है? तब आपको पता | चलेगा कि बाथरूम में और कोई स्नान करता है; बैठकखाने में और | कोई बैठता है ! आप ही । आप ही जब बैठकखाने में होते हैं, तो कोई और होते हैं । आप ही जब बाथरूम में होते हैं, तो कोई और होते हैं। बाथरूम में कोई देख नहीं रहा है, इसलिए मैं को थोड़ी देर के लिए छुट्टी है। अभी इसकी कोई जरूरत नहीं, क्योंकि मैं का सदा दूसरे के सामने मजा है, दूसरे के सामने लिया गया मजा है। बाथरूम में छुट्टी दे देते हैं। लेकिन बाथरूम में अगर आईना लगा है, तो आपको जरा मुश्किल पड़ेगी। क्योंकि आईने में देखकर आप दो काम करते हैं। दिखाई पड़ने वाले का भी और देखने वाले का भी। दो हो जाते हैं, दो मौजूद हो जाते हैं आईने के साथ। आईने के सामने खड़े होकर फिर सब बदल जाता है। सूक्ष्म, भीतर, चौबीस घंटे बोलें, न बोलें, मैं की एक धारा सरक रही है। एक बहुत अंतर्धारा, अंडर करेंट है। उसके प्रति सजग होना जरूरी है। उसके प्रति सजग हो जाएं, तो धीरे-धीरे आप समझ सकते हैं कि वही धारा संकल्पों को पैदा करवाती है। क्योंकि बिना | संकल्प के वह धारा एक्चुअलाइज नहीं हो सकती। ऐसा समझें कि जैसे आकाश में भाप के बादल उड़ रहे हैं। जब तक उनको ठंडक न मिले, तब तक वे पानी न बन सकेंगे, आकाश में उड़ते रहेंगे। ठंडक मिले, तो पानी बन जाएंगे। और ठंडक मिले, तो बर्फ बन जाएंगे। ठीक हमारे मन में भी अंतर्धारा बड़ी बारीक बहती रहती है, भाप की तरह, अहंकार की । इस भाप की तरह बहने वाली अहंकार की | जो बदलियां हमारे भीतर हैं, उनका हमें तब तक मजा नहीं आता, जब तक कि वे प्रकट होकर पानी न बन जाएं। पानी ही नहीं, जब | तक वे बर्फ की तरह सख्त, जमकर दिखाई न पड़ने लगें सारी दुनिया को, तब तक हमें मजा नहीं आता। तो अहंकार ऐसे कर्म करेगा, जिनके द्वारा बादल पानी बन जाएं। ऐसे कर्म करेगा, जिनके द्वारा पानी सख्त बर्फ, पत्थर बन जाए; तब लोगों को दिखाई पड़ेगा। तो अगर आप अकेले हैं, तब आपके भीतर अहंकार बादलों की तरह होता है। जब आप दूसरों के साथ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 हैं, तब पानी की तरह हो जाता है। और अगर आप कुछ धन पाने में समर्थ हो गए, कुछ पद पाने में सफल हो गए, कुछ स्कूल से शिक्षा जुटा ली, कुछ कूड़ा-कबाड़ इकट्ठा करने में अगर आप सफल हो गए, तो फिर आपका पानी बिलकुल बर्फ, ठोस पत्थर के बर्फ की तरह जम जाता है, फ्रोजन। फिर वह साफ दिखाई पड़ने लगता है। दिखाई ही नहीं पड़ने लगता है, गड़ने लगता है दूसरों को । और जब तक अहंकार दूसरे को गड़ने न लगे, तब तक आपको मजा नहीं आता। तब तक मजा आ नहीं सकता। जब तक आपका अहंकार दूसरे की छाती में चुभने न लगे, तब तक मजा नहीं आता। मजा तभी आता है, जब दूसरे की छाती में घाव बनाने लगे। और दूसरा कुछ भी न कर पाए, तड़फकर रह जाए, और आपका अहंकार उसकी छाती में घाव बनाए। तब आप बिलकुल विनम्र हो सकते हैं। तब आप कह सकते हैं, मैं तो कुछ भी नहीं हूं। भीतर मजा ले सकते हैं उसकी छाती में चुभने का, और ऊपर से हाथ जोड़कर कह सकते हैं कि मैं तो कुछ भी नहीं हूं, सीधा-सादा आदमी हूं! यह जो हमारे संकल्पों की, अहंकारों की, वासनाओं की अंतर्धारा है, इस अंतर्धारा को ही विसर्जित कोई करे, तो संन्यास उपलब्ध होता है। इसलिए संन्यास एक विज्ञान है। एक-एक इंच विज्ञान है। संन्यास कोई ऐसी बात नहीं है कि आप कहीं अंधेरे में पड़ी कोई चीज है कि बस उठा लिए। संन्यास एक विज्ञान है, एक साइंस है। और आपके पूरे चित्त का रूपांतरण हो, एक-एक इंच आपका चित्त बदले, आधार से बदले शिखर तक, तभी संन्यास फलित होता है। आधार क्या है? आधार है फल की आकांक्षा । प्रक्रिया क्या है? प्रक्रिया है संकल्प । उपलब्धि क्या है ? उपलब्धि है अहंकार। ये तीन शब्द खयाल ले लें : फल की आकांक्षा, संकल्प की प्रक्रिया, अहंकार की सिद्धि । आधार में फल की आकांक्षा, मार्ग में संकल्पों की दौड़, अंत में अहंकार की सिद्धि । यह हमारा गृहस्थ जीवन का रूप है। जो भी ऐसे जी रहा है, वह गृहस्थ है। जो इन तीन के बीच जी रहा है, वह गृहस्थ है। जो इन तीन के बाहर जीना शुरू कर दे, वह संन्यस्त है। कहां से शुरू करेंगे? वहीं से शुरू करें, जहां से कृष्ण कहते हैं। फल की आकांक्षा से शुरू करें, क्योंकि वहां लड़ाई सबसे आसान है। क्योंकि अभी बादल है वहां, पानी भी नहीं बना है। बर्फ बन गया, तो बहुत मुश्किल हो जाएगा। फिर बर्फ को पहले पिघलाओ, पानी बनाओ। फिर पानी को गर्म करो, भाप बनाओ। और तभी भाप से मुक्त हुआ जा सकता है, आकाश में छोड़कर आप भाग सकते हो कि अब छुटकारा हुआ। वहीं से शुरू करें। बहुत कुछ तो आपके भीतर बर्फ बन चुका होगा। अभी उसके | साथ हमला मत बोलें। बहुत कुछ अभी पानी होगा। प्रक्रिया चल रही होगी बर्फ बनने की, अभी उसको भी मत छुएं। अभी तो उन बादलों की तरफ देखें, जिनको आप पानी बना रहे हैं । जिन आकांक्षाओं को अभी आप नए संकल्प दे रहे हैं, उनकी तरफ देखें । उन आकांक्षाओं के प्रति सजग हों और लौटकर पीछे देखें कि इतनी आकांक्षाएं पूरी कीं, पाया क्या? इतने फल पाए, फिर भी निष्फल हैं। अगर पचास साल की उम्र हो गई, तो लौटकर पीछे देखें कि पचास साल में इतना पाने की कोशिश की, इतना पा भी लिया, फिर भी पहुंचे ? पाया क्या? और अगर पचास साल और मिल जाएं, तो भी हम क्या करेंगे? हम वही पुनरुक्त कर रहे हैं। जिसके पास दस रुपए थे, उसने सौ कर लिए हैं। सौ की जगह वह हजार कर लेगा। हजार होंगे, दस हजार कर लेगा। दस हजार होंगे, लाख कर लेगा। लेकिन दस हजार जब कोई सुख न दे पाए ! और जब एक रुपया पास में था, तो खयाल था कि दस रुपए भी हो जाएं, तो बहुत सुख आ जाएगा। दस हजार भी कोई सुख न ला पाए, तो | दस लाख भी कैसे सुख ला पाएंगे? लौटकर पीछे देखें। और अपने अतीत को समझकर, अपने भविष्य को पुनः धोखा न देने दें। नहीं तो भविष्य रोज धोखा देता | है। भविष्य रोज विश्वास दिलाता है कि नहीं हुआ कल, कोई बात नहीं; कल हो जाएगा। वही उसका सीक्रेट है आपको पकड़े रखने का। कहता है, कोई फिक्र नहीं; हजार रुपए हो सका, हजार में कभी होता ही नहीं; लाख में होता है। जब लाख हो जाएंगे, तब यही मन कहेगा, लाख में कभी होता ही नहीं; दस लाख में होता है। यह मन कहे चला जाएगा। इस मन ने कभी भी नहीं छोड़ा कि कहना बंद किया हो। जिनको पूरी पृथ्वी का राज्य मिल गया, उनसे भी इसने नहीं छोड़ा कि तुम तृप्त हो गए हो। उनको भी कहा कि इतने से क्या होगा? | अभी देख रहे हैं आप, अमेरिका और रूस के बीच एक | जी-जान की बाजी चली पिछले दो-तीन वर्षों में कि चांद पर पहुंच जाएं। इस जमीन पर साम्राज्य बढ़ाकर देख लिया, कुछ बहुत रस मिला नहीं। अब चांद पर साम्राज्य बढ़ाना है। चांद पर झंडा गाड़ 16 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्ण का संन्यास, उत्सवपूर्ण संन्यास देना है। वह किसी की छाती में झंडा गाड़ना है। मंगल पर कल गाड़ देंगे। होगा क्या ? हम गणित को ही नहीं समझते, उसको फैलाए चले जाते हैं। गणित सीधा और साफ है कि फल की दौड़ से सुख का कोई भी संबंध नहीं है। संबंध ही नहीं है। सुख का संबंध है कर्म में रस लेने से। सुख का संबंध फल में रस लेने से जरा भी नहीं है। सच तो यह है कि जिसने फल में लिया रस, मिलेगा उसे दुख | फल में रस, दुख उसकी निष्पत्ति है। जितना ज्यादा फल में रस लिया, , उतना ज्यादा दुख मिलेगा। दो कारण से दुख मिलेगा। अगर फल नहीं मिला, तो दुख मिलेगा। यह दुख मिलेगा कि फल नहीं मिल पाया, मैं हार गया। पराजित, पददलित। अगर मिल गया, तो भी दुख मिलेगा, क्योंकि मिलते ही पता चलेगा कि इतनी मेहनत की, इतना श्रम उठाया और यह मिल भी गया और फिर भी कुछ नहीं मिला ! फ दो तरह से दुख लाता है। हारे हुओं को भी और जीते हुओं को भी । हारे हुओं को कहता है कि फिर कोशिश करो, तो जीत जाओगे। जीते हुओं को कहता है कि किसी और चीज पर कोशिश करो। यह मकान तो बना लिया, ठीक है। एक हवाई जहाज और खरीद लो। क्योंकि हवाई जहाज के बिना कभी किसी को सुख मिला? हवाई जहाज जिसको मिल जाता है, उसे कुछ हुआ नहीं। कुछ और कर डालो। और कुछ लोग ऐसी जगह पहुंच जाते हैं एक दिन, जहां कुछ करने को नहीं बचता। सब कुछ उनके पास हो जाता है। आज अमेरिका में वैसी हालत हो गई है। कुछ लोग तो उस जगह पहुंच गए हैं, जिनके पास सब है, अतिरिक्त है। तो अमेरिका में जो आज चीजें बेचने वाले लोग हैं, वे मन की तरकीब को जानते हैं। वे क्या कहते हैं? वे लोगों को समझाते हैं कि एक मकान से कहीं सुख मिला? सुख उनको मिलता है, जिनके पास दो मकान हैं। वह एक मकान में पति-पत्नी रह रहे हैं कुल जमा, उसमें बीस कमरे हैं। वह उनको समझा रहा है - वह जो जमीन बेचने वाला, मकान बेचने वाला आदमी—कि एक मकान से कहीं सुख मिलता है ? अमेरिका मकानों का विज्ञापन अखबारों में देखें, तो आपको बहुत हैरानी होगी। अखबारों में विज्ञापन कहते हैं, कहीं एक मकान से सुख मिलता है? एक मकान और चाहिए हिल स्टेशन पर । जिनके पास दो मकान हैं, उनसे कहते हैं कि एक मकान और चाहिए समुद्र तट पर। वह मन की तरकीब का खयाल है कि सुख! मन हमेशा कहता है कि सुख मिल सकता है। या तो तुमने गलत चीज में सोचा था पहले। इसी मन ने समझाया था वह भी । अब यही मन समझाता है कि दूसरी चीज चुनो। या मन कहता है - अगर हार गए, तो वह कहता है- हारने में तो दुख मिलता ही है, और संकल्प करो। और संकल्प करो, तो जीत जाओगे । मन के इस गणित को समझेंगे आप, कृष्ण का महागणित समझ में आ सकेगा। वह संन्यास का है, वह बिलकुल उलटा है। वह यह है कि मन की इस प्रक्रिया में जो उलझा, वह सिवाय दुख के और कहीं भी नहीं पहुंचता है। सुख है। ऐसा नहीं कि सुख नहीं है। सुख निश्चित है, लेकिन उसकी प्रक्रिया दूसरी है। उसकी प्रक्रिया है कि बर्फ को पानी | बनाओ, पानी को भाप बनाओ। भाप से छुटकारा, नमस्कार कर लो। भाप से कहो कि जाओ; यात्रा पर निकल जाओ आकाश की। अहंकार को संकल्पों में बदलो, संकल्पों को कामनाओं में कामनाओं का छुटकारा कर दो। अहंकार को गलाओ, संकल्प का पानी बनाओ। संकल्प को भी आंच दो, ज्ञान की आंच दो, उसको भाप बन जाने दो। वह बादल बनकर तुमसे हट जाए। उसके बाहर ओ और जिस दिन भी कोई व्यक्ति ऐसी स्थिति में आ जाता है - और कोई भी आ सकता है, क्योंकि सभी उस स्थिति के हकदार हैं। वह कृष्ण कुल अर्जुन से ही कहते हों, ऐसा नहीं है। कोई भी, जिसके जीवन में चिंतना आ गई हो, उसके लिए सिवाय इसके कोई भी मार्ग नहीं है। जिसने सोचा हो जरा भी, उसके लिए सिवाय इसके कोई मार्ग नहीं है। और अगर आपको अब तक यह पता न चला हो कि इच्छाओं के मार्ग से सुख नहीं आता है, तो आप समझना कि आपने अभी | सोचना शुरू नहीं किया। अगर आपको अभी यह खयाल न आया हो कि इच्छाएं दुख लाती हैं, तो आप समझना कि अभी आपके सोचने की शुरुआत नहीं हुई। क्योंकि जो आदमी भी सोचना शुरू | करेगा, जीवन की पहली बुनियादी बात उसको यह खयाल में | आएगी। यह पहला चरण है सोचने का कि इच्छाएं कभी भी सुख लाती नहीं, दुख में ले जाती हैं। फिर सुख कहां है? तो दो उपाय हैं। या तो हम समझें कि फिर सुख है ही नहीं; या फिर एक उपाय यह है कि सुख इच्छाओं के अतिरिक्त कहीं हो सकता है। इसके पहले कि हम निर्णय करें कि सुख है ही नहीं, कुछ क्षण इच्छाओं के बिना जीकर देख लें। 17 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < गीता दर्शन भाग-3> ऐसे भी कुछ लोग हैं, जो कहते हैं, सुख है ही नहीं; दुख ही है। नहीं कर रहे हैं। बड़े जीवंत, लिविंग, तेजस्वी संन्यास की बात कर जैसे फ्रायड कहेगा, दुख ही है। आप ज्यादा से ज्यादा इतना कर रहे हैं; नाचते हुए संन्यास की; जीवन को आलिंगन कर ले, ऐसे सकते हैं कि सहने योग्य दख उठाएं, ज्यादा मत उठाएं। या ऐसा संन्यास की। भागता नहीं है, ऐसे संन्यास की। हंसते हए, आनंदित कर सकते हैं कि अपने को इस योग्य बना लें कि सब दुखों को सह | संन्यास की। सकें। सुख है नहीं। फ्रायड कहता है, कहीं कोई सुख नहीं है। ज्यादा ___ ध्यान रहे, जो आदमी इच्छाओं की कामना को तो नहीं छोड़ेगा, और कम दुख हो सकता है; ज्यादा सहने वाला कम सहने वाला फल को कामना को नहीं छोड़ेगा, सिर्फ जीवन और कर्म के जीवन आदमी हो सकता है। लेकिन दुख ही है। से भागेगा, वह उदास हो जाएगा। दुखी तो नहीं रहेगा, उदास हो लेकिन फ्रायड का यह वक्तव्य अवैज्ञानिक है। एक तरफ से जाएगा। इस फर्क को भी थोड़ा खयाल में ले लेना आपके लिए फ्रायड ठीक कहता है, क्योंकि जितना उसने समझा, सभी इच्छाएं उपयोगी होगा। दुख में ले जाती हैं। इसलिए उसका यह वक्तव्य ठीक है कि दुख उदास उस आदमी को कहता हूं मैं, जो सुखी तो नहीं है, और ही है। लेकिन फ्रायड को उस क्षण का कोई भी पता नहीं है, जो दुखी होने का भी उपाय नहीं पा रहा है। उदास वह आदमी है, जो इच्छाओं के बाहर जीया जा सकता है। एक क्षण का भी उसे कोई | सुखी तो नहीं है, लेकिन दुखी होने का भी उपाय नहीं पा रहा है। पता नहीं है, जो इच्छाओं के बाहर जीया जा सकता है। अगर उसको दख भी मिल जाए. तो थोडी-सी राहत मिले। बंद हो जिनको पता है, बुद्ध को या कृष्ण को, वे हंसेंगे फ्रायड पर कि गया है सब तरफ से। सुख की कोई यात्रा शुरू नहीं हुई, दुख की तुम जो कहते हो, आधी बात सच कहते हो। इच्छाओं में कोई सुख यात्रा बंद कर दी। हीरे-जवाहरात हाथों में नहीं आए, कंकड़-पत्थर संभव नहीं है। लेकिन सुख संभव नहीं है, यह मत कहो। क्योंकि रंगीन थे, खेल-खिलौने थे, उनको सम्हालकर छाती से बैठे थे, इच्छाओं के बिना आदमी संभव है। और इच्छाओं के बिना जो उनको भी फेंक दिया। ऐसा आदमी उदास हो जाता है। आदमी संभव है, उसके जीवन में सुख की ऐसी वर्षा हो जाती। कंकड़-पत्थर सम्हाले बैठे हैं आप। भूल-चूक से मैं आपके है-कल्पनातीत! स्वप्न भी नहीं देखा था, इतने सुख की वर्षा चारों रास्ते से गुजर आया और आपसे कह दिया, क्या कंकड़-पत्थर ओर से हो जाती है। जैसे ही इच्छाएं हटी, और सुख आया। रखे हो? अरे, पकड़ना है तो हीरे-जवाहरात पकड़ो! छोड़ो' अगर इसे मैं ऐसा कहूं, तो शायद आसानी होगी समझने में। कंकड़-पत्थर। आप मेरी बातों में आ गए, फेंक दिए सुख और इच्छा में वैसा ही संबंध है, जैसा प्रकाश और अंधेरे में। कंकड़-पत्थर। कंकड़-पत्थर का बोझ तो कम हो जाएगा, उनसे अगर इसे ठीक से समझना चाहें, तो ऐसा समझें कि सुख के | आने वाली दुख-पीड़ा भी कम हो जाएगी। कंकड़-पत्थर चोरी चले विपरीत दुख नहीं है, सुख के विपरीत इच्छाएं हैं। सुख का जो जाते, तो जो पीड़ा होती, वह भी नहीं होगी। कंकड़-पत्थर खो जाते, अपोजिट पोल है, वह दुख नहीं है। सुख का जो विरोधी है, वह तो जो दर्द होता, वह भी नहीं होगा। कंकड़-पत्थर कोई चुरा न ले इच्छा है। कमरे में दीया जलाया; अंधेरा नहीं रहा। कमरे में दीया जाए, उसकी जो चिंता होती है, वह भी नहीं होगी। रात आसानी से बुझाया; अंधेरा भर गया। इच्छाएं भरी हों, अंधेरा भरा है। दीया सो जाएंगे। लेकिन खाली हाथ! हीरे जवाहरात, कंकड़-पत्थर जलाएं, इच्छाहीन मन को जलाएं, अंधेरा खो जाएगा। अंधेरे में दुख फेंकने से नहीं आते। खाली हाथ उदास हो जाएंगे। है; इच्छाओं में दुख है। जिस चित्त में सुख का आगमन नहीं हुआ और दुख की स्थिति कृष्ण जिस संन्यास की बात कर रहे हैं, वह कोई उदास, जीवन | । को छोड़कर भाग खड़ा हुआ, वह उदास हो जाता है। उदासी एक से हारा हुआ, थका हुआ, आदमी नहीं है। कृष्ण जिस संन्यास की निगेटिव स्थिति है। वहां दुख भी नहीं है; और सुख का कोई रास्ता बात कर रहे हैं, वह हंसता हुआ, नाचता हुआ संन्यास है। उस नहीं मिल रहा। और जो भी रास्ता मिलता है, वह फिर दुख की तरफ संन्यास के होठों पर बांसुरी है। ले जाता है। तो वहां जाना नहीं है। सुख का कोई रास्ता नहीं वह संन्यास वैसा नहीं है, जैसा हम चारों तरफ देखते हैं। मिलता। तो आंख बंद करके अपने को सम्हालकर खड़े रहना है। संन्यासियों को-उदास, मुर्दा, मरने के पहले मर गए, जैसे इस सम्हालकर खड़े रहने में उदासी पैदा होती है। संन्यास जो इतना अपनी-अपनी कब्र खोदे हुए बैठे हैं! कृष्ण उस संन्यास की बात | उदास हो गया, उदासीन, उसका कारण यही है। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्ण का संन्यास, उत्सवपूर्ण संन्यास कृष्ण नहीं कहेंगे यह; मैं भी नहीं कहूंगा। मैं कहता हूं, कंकड़-पत्थर फेंकने की उतनी फिक्र मत करो। हीरे-जवाहरात मौजूद हैं, उनको देखने की फिक्र करो। जैसे ही वे दिखाई पड़ेंगे, कंकड़-पत्थर हाथ से छूट जाएंगे, छोड़ने नहीं पड़ेंगे। और उनके दिखाई पड़ने पर जीवन में जैसे कि बिजली कौंध गई हो, ऐसे आनंद की लहर दौड़ जाएगी। संन्यासी अगर आनंदित नहीं है, आह्लादित नहीं है, नाचता हुआ नहीं है, प्रफुल्लित नहीं है, तो संन्यासी नहीं है। लेकिन वैसा संन्यासी, सिर्फ कृष्ण जो कहते हैं, उस तरह से हो सकता है। कर्म को छोड़ा कि आप उदास हुए; क्योंकि आपके जीवन की जो ऊर्जा है, जो एनर्जी है, वह कहां जाएगी ! उसे प्रकट होना चाहिए, उसे अभिव्यक्त होना चाहिए। अगर हम किसी झाड़ पर पाबंदी लगा दें कि तू फूल नहीं खिला सकेगा; बंद रख अपने फूलों को ! तो झाड़ बहुत मुश्किल में पड़ जाएगा, क्योंकि ऊर्जा का क्या होगा ? ऐसे ही वह आदमी मुश्किल में पड़ जाता है, जो कर्म को छोड़ देता है; जीवन को छोड़कर भाग जाता है। प्रकट होने का उपाय नहीं रह जाता। सब झरने भीतर बंद हो जाते हैं; भीतर ही घूमने लगते हैं; विक्षिप्त करने लगते हैं । चित्त को ग्लानि और उदासी से भर जाते हैं; अनंत अपराधों से भर जाते हैं, पश्चात्तापों से भर जाते हैं। और फिर, फिर वही वासनाएं वापस मन को खींचने लगती हैं, क्योंकि उनका कोई तो अंत नहीं हुआ है। कृष्ण कहते हैं, कर्म करो पूरा, छोड़ दो फल का खयाल । कर्म को इतनी पूर्णता से करो कि फल के खयाल के लिए जगह भी न रह जाए। और तब एक नए तरह का आनंद भीतर खिलना शुरू हो जाता है। हीरे प्रकट होने लगते हैं; फिर कंकड़-पत्थर अपने आप छूटते चले जाते हैं। जो भी करें, उसे पूरा। अगर भोजन भी कर रहे हैं, तो इतने आनंद से और इतना पूरा कि भोजन करते वक्त चित्त में और कुछ भी न रह जाए। सुन रहे हैं मुझे, तो इतना पूरा कि सुनते वक्त चित्त कुछ भी न रह जाए। बोल रहे हैं, तो इतना पूरा कि बोलना ही मैं हो जाऊं; बोलते वक्त और कुछ भी भीतर न रह जाए। अगर कर्म इतनी तीव्रता से और पूर्णता से किए जाएं, तो आपका फल अपने आप छूटने लगेगा। फल के लिए जगह न रह जाएगी मन में बैठने की। कर्महीन क्षणों में ही फल भीतर प्रवेश करता है । निष्क्रिय क्षणों में ही फल भीतर घुसता है। और आकांक्षाएं मन को पकड़ती हैं और हम कल का सोचने लगते हैं कि कल क्या करें? जिसके पास अभी करने को कुछ नहीं होता, जिसकी शक्ति अभी में पूरी नहीं डूब पाती, उसकी शक्ति कल की योजना बनाने लगती है। आज और अभी और इस क्षण में अपनी पूरी शक्ति को जो लगा दे, फल को प्रवेश करने का मौका नहीं रह जाता। और एक बार पूरे कर्म का आनंद आ जाए, तो फल आपसे हाथ भी जोड़े कि मुझे भीतर आ जाने दो, तो भी आप उसे भीतर नहीं आने देंगे। आप उससे कहेंगे, बात समाप्त। वह नाता टूट गया। | पहचान लिया मैंने कि तुम आते हो सुख की आशा लेकर; दे जाते हो दुख! तुम्हारा चेहरा, जब तुम दूर होते हो, तो मालूम पड़ता है सुख है; और जब तुम छाती से लग जाते हो, तब पता चलता है दुख है । तुम धोखेबाज हो । फल की आकांक्षा धोखेबाज है, प्रवंचना है। 19 ये तीन बातें - फल की आकांक्षा, संकल्प की प्रक्रिया, अहंकार का सघन होना— तीन गृहस्थी की व्यवस्थाएं हैं। इन तीन के जो बाहर है, वह संन्यस्त है। आज इतना ही । लेकिन पांच मिनट रुकेंगे। इसके आगे के सूत्र पर हम कल सुबह बात करेंगे। अभी पांच मिनट रुकेंगे। जिस आनंदित संन्यासी की मैंने बात कही और कृष्ण जिसकी बात कर रहे हैं, वे हमारे | संन्यासी यहां इकट्ठे हैं; वे आपको प्रसाद देंगे आनंद का। पांच मिनट वे यहां नाचेंगे आनंद से। आप पांच मिनट बैठकर ताली बजाकर उनके आनंद में सहभागी हों और उनका प्रसाद लेकर जाएं। कोई भी उठेगा नहीं, कोई भी जाएगा नहीं । Page #46 --------------------------------------------------------------------------  Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 6 दूसरा प्रवचन आसक्ति का सम्मोहन Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 > आरुरुक्षोर्मुनेयोगं कर्म कारणमुच्यते । योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते । । ३ । । और समत्वबुद्धिरूप योग में आरूढ़ होने की इच्छा वाले मननशील पुरुष के लिए योग की प्राप्ति में, निष्काम भाव से कर्म करना ही हेतु कहा है और योगारूढ़ हो जाने पर उस योगारूढ़ पुरुष के लिए सर्वसंकल्पों का अभाव ही कल्याण में हेतु कहा है। स मत्वबुद्धि योग का सार है। समत्वबुद्धि को सबसे पहले समझ लेना उपयोगी है । साधारणतः मन हमारा अतियों में डोलता है, एक्सट्रीम्स में डोलता है। या तो एक अति पर हम होते हैं, या दूसरी अति पर होते हैं। या तो हम किसी के प्रेम में पागल हो जाते हैं, या किसी की घृणा में पागल हो जाते हैं। या तो हम धन को पाने के लिए विक्षिप्त होते हैं, या फिर हम त्याग के लिए विक्षिप्त हो जाते हैं। लेकिन बीच में ठहरना अि कठिन मालूम होता है। मित्र बनना आसान है, शत्रु भी बनना आसान है; लेकिन मित्रता और शत्रुता दोनों के बीच में ठहर जाना अति कठिन है। र जो दो के बीच में ठहर जाए, वह समत्व को उपलब्ध होता है। जीवन सब जगह द्वंद्व है। जीवन के सब रूप द्वंद्व के ही रूप हैं। जहां भी डालेंगे आंख, जहां भी जाएगा मन, जहां भी सोचेंगे, वही पाएंगे कि दो अतियां मौजूद हैं। इस तरफ गिरेंगे, तो खाई मिल जाएगी; उस तरफ गिरेंगे, तो कुआं मिल जाएगा। दोनों के बीच में बहुत पतली धार है। वहां जो ठहर जाता है, वही योग को उपलब्ध होता है। दो के बीच, द्वंद्व के बीच जो पतली धार है, द्वंद्व के बीच जो संकीर्ण मार्ग है, वही संकीर्ण मार्ग समत्वबुद्धि है। समत्वबुद्धि का अर्थ है, संतुलन; द्वंद्व के बीच सम हो जाना । जैसे कभी देखा हो दुकान पर दुकानदार को तराजू में सामान को तौलते। जब दोनों पलड़े बिलकुल एक से हो जाएं और तराजू का कांटा सम पर ठहर जाए – न इस तरफ झुकता हो बाएं, न उस तरफ झुकता हो दाएं; न बाएं जाए; न दाएं जाए, न लेफ्टिस्ट हो, न राइटिस्ट हो बीच में ठहर जाए, तो समत्वबुद्धि उपलब्ध होती है। कृष्ण कहते हैं, समत्वबुद्धि योग का सार है। कृष्ण उसे योगी न कहेंगे, जो किसी एक अति को पकड़ ले। वह भोगी के विपरीत हो सकता है, योगी नहीं हो सकता । त्यागी हो 22 | सकता है। अगर शब्दकोश में खोजने जाएंगे, तो भोगी के विपरीत जो शब्द लिखा हुआ मिलेगा, वह योगी है। शब्दकोश में भोगी के विपरीत योगी शब्द लिखा हुआ मिल जाएगा। लेकिन कृष्ण भोगी के विपरीत योगी को नहीं रखेंगे। कृष्ण भोगी के विपरीत त्यागी को रखेंगे। योगी तो वह है, जिसके ऊपर न भोग की पकड़ रही, न त्याग की पकड़ रही। जो पकड़ के बाहर हो गया। जो द्वंद्व में सोचता ही नहीं; निर्द्वद्व हुआ। जो नहीं कहता कि इसे चुनूंगा; जो नहीं कहता कि उसे चुनूंगा। जो कहता है, मैं चुनता ही नहीं; मैं चुनाव के बाहर खड़ा हूं। वह च्वाइसलेस, चुनावरहित है। और जो चुनावरहित है, वही संकल्परहित हो सकेगा। जहां चुनाव है, वहां संकल्प है। मैं हूं, मैं हूं। अगर मैं यह भी कहता हूं कि मैं त्याग को चुनता हूं, तो भी मैंने किसी के विपरीत चुनाव कर लिया। भोग के विपरीत कर लिया। अगर मैं कहता हूं, मैं सादगी को चुनता हूं, तो मैंने वैभव और विलास के विपरीत निर्णय कर लिया। जहां चुनाव है, वहां अति आ जाएगी। चुनाव मध्य में कभी भी नहीं ठहरता है। चुनाव सदा ही एक पर ले जाता है। और एक बार चुनाव शुरू हुआ, तो आप अंत आए बिना रुकेंगे नहीं । और भी एक मजे की बात है कि अगर कोई व्यक्ति चुनाव करके एक छोर पर चला जाए, तो बहुत ज्यादा देर उस छोर पर टिक न सकेगा; क्योंकि जीवन टिकाव है ही नहीं। शीघ्र ही दूसरे छोर की आकांक्षा पैदा हो जाएगी। इसलिए जो लोग दिन-रात भोग में डूबे | रहते हैं, वे भी किन्हीं क्षणों में त्याग की कल्पना और सपने कर लेते | हैं | और जो लोग त्याग में डूबे रहते हैं, वे भी किन्हीं क्षणों में भोग | के और भोगने के सपने देख लेते हैं। वह दूसरा विकल्प भी सदा मौजूद रहेगा। उसका वैज्ञानिक कारण है। द्वंद्व सदा अपने विपरीत से बंधा रहता है; उससे मुक्त नहीं हो सकता। मैं जिसके विपरीत चुनाव किया हूं, वह भी मेरे मन में सदा मौजूद रहेगा। अगर मैंने कहा कि मैं आपको चुनता हूं उसके विपरीत, तो जिसके विपरीत मैंने आपको चुना है, वह आपके चुनाव में सदा मेरे मन में रहेगा। आपका चुनाव आपका ही चुनाव नहीं है, किसी के विपरीत चुनाव है। वह विपरीत भी मौजूद रहेगा। और मन के नियम ऐसे हैं कि जो भी चीज ज्यादा देर ठहर जाए, उससे ऊब पैदा हो जाती है। तो जो मैंने चुना है, वह बहुत देर ठहरेगा मैं ऊब जाऊंगा। और ऊबकर मेरे पास एक ही विकल्प रहेगा कि उसके विपरीत पर चला जाऊं। और मन ऐसे ही एक द्वंद्व Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसक्ति का सम्मोहन - से दूसरे द्वंद्व में भटकता रहता है। यह दूसरी बात भी खयाल में ले लें। - जब कृष्ण कहते हैं, समत्व, तो अगर हम ठीक से समझें, तो | मन के कारण वह पशुओं के ऊपर उठ जाता है। लेकिन मन के समत्व को वही उपलब्ध होगा, जो मन को क्षीण कर दे। क्योंकि ही कारण वह परमात्मा नहीं हो पाता। पशुओं से ऊपर उठना हो, मन तो चुनाव है। बिना चुनाव के मन एक क्षण भी नहीं रह सकता। | तो मन का होना जरूरी है। और अगर मनुष्य के भी ऊपर उठना हो ___ जब मैंने आपसे कहा कि तराजू का कांटा जब बीच में ठहर जाता | और परमात्मा को स्पर्श करना हो, तो मन का पुनः न हो जाना जरूरी है, तब अगर हम दूसरी तरह से कहना चाहें, तो हम यह भी कह | है। यद्यपि मनुष्य जब मन को खो देता है, तो पशु नहीं होता, सकते हैं कि तराजू अब नहीं है। क्योंकि तराजू का काम तौलना है। परमात्मा हो जाता है। और जब कांटा बिलकुल बीच में ठहर जाता है, तो तौलने का काम | ___ मनुष्य मन को जान लिया, और तब छोड़ता है। पशु ने मन को बंद हो गया; चीजें समतुल हो गईं। तौलने का तो मतलब यह है | जाना नहीं, उसका उसे कोई अनुभव नहीं है। अनुभव के बाद जब कि तराजू खबर दे। लेकिन अब दोनों पलड़े थिर हो गए और कांटा | कोई चीज छोड़ी जाती है, तो हम उस अवस्था में नहीं पहुंचते जब बिलकुल बीच में आ गया, समतुलता आ गई, तो वहां तराजू का अनुभव नहीं हुआ था, बल्कि उस अवस्था में पहुंच जाते हैं जो काम समाप्त हो गया। समतुल तराजू, तराजू होने के बाहर हो गया। अनुभव के अतीत है। ऐसे ही मन का काम अतियों का चुनाव है। __मन है चुनाव, च्वाइस-यह या वह। मन सोचता है ईदर-आर अगर ठीक से हम समझें, अगर हम मनोवैज्ञानिक से पूछे, तो | की भाषा में। इसे चुनूं या उसे चुनूं! दुकान पर आप खड़े हैं; मन वह कहेगा, मन का विकास ही चुनाव की वजह से पैदा हुआ। और | सोचता है, इसे चुनूं, उसे चुनूं! समाज में आप खड़े हैं; मन सोचता इसीलिए आदमी के पास सबसे ज्यादा विकसित मन है, क्योंकि | है, इसे प्रेम करूं, उसे प्रेम करूं! प्रतिपल मन चुनाव कर रहा है, आदमी के पास सबसे ज्यादा चुनाव की आकांक्षा है। पशु बहुत | यह या वह। सोते-जागते, उठते-बैठते, मन कांटे की तरह डोल चुनाव नहीं करते, इसलिए बहुत मन उनमें पैदा नहीं होता। पक्षी | | रहा है तराजू के। कभी यह पलड़ा भारी हो जाता है, कभी वह बहुत चुनाव नहीं करते। पौधे बहुत चुनाव नहीं करते। आदमी की पलड़ा भारी हो जाता है। सामर्थ्य यही है कि वह चन सकता है। वह कह सकता है. यह और ध्यान रहे, जिस चीज को मन चुनता है, बहुत जल्दी उससे भोजन मैं करूंगा और वह भोजन मैं नहीं करूंगा। पश तो वही ऊब जाता है। मन ठहर नहीं सकता। इसलिए मन अक्सर जिसे भोजन करते चले जाएंगे, जो प्रकृति ने उनके लिए चुन दिया है। | चुनता है, उसके विपरीत चला जाता है। आज जिसे प्रेम करते हैं, अगर यहां हजार तरह की घास लगी हो और आप भैंस को छोड़ कल उसे घृणा करने लगते हैं। आज जिसे मित्र बनाया, कल उसे दें, तो भैंस उसी घास को चुन-चुनकर चर लेगी जो प्रकृति ने उसके | शत्रु बनाने में लग जाते हैं। जो बहुत गहरा जानते हैं, वे तो कहेंगे, लिए तय किया है, बाकी घास को छोड़ देगी। भैंस खुद चुनाव नहीं | मित्र बनाना शत्रु बनाने की तैयारी है। इधर बनाया मित्र कि शत्रु करेगी, इसलिए भैंस के पास मन भी पैदा नहीं होगा। बनने की तैयारी शुरू हो गई। मन लौटने लगा। सारी प्रकृति मनुष्य को छोड़कर मन से रहित है। ठीक से समझें, थियोडर रेक अमेरिका का एक बहुत विचारशील मनोवैज्ञानिक तो मनुष्य हम कहते ही उसे हैं, जिसके पास मन है। मनुष्य शब्द | | था। उसने लिखा है, मन के दो ही सूत्र हैं, इनफैचुएशन और का भी वही अर्थ है, मन वाला। फ्रस्ट्रेशन। उसने लिखा है, मन के दो ही सूत्र हैं, किसी चीज के __ मनुष्य में और पशुओं में इतना ही फर्क है कि पशुओं के पास प्रति आसक्त हो जाना और फिर किसी चीज से विरक्त हो जाना। कोई मन नहीं और मनुष्य के पास मन है। मनुष्य इसलिए मनुष्य | या तो मन आसक्त होगा, या विरक्त होगा। या तो पकड़ना नहीं कहलाता कि मनु का बेटा है, बल्कि इसलिए मनुष्य कहलाता | चाहेगा, या छोड़ना चाहेगा। या तो गले लगाना चाहेगा, या फिर है कि मन का बेटा है; मन से ही पैदा होता है। वह उसका गौरव कभी नहीं देखना चाहेगा। मन ऐसी दो अतियों के बीच डोलता भी है, वही उसका कष्ट भी है। वही उसकी शान भी है, वही उसकी | | रहेगा। इन दो अतियों के बीच डोलने वाले मन का ही नाम मृत्यु भी है। मन के कारण वह पशुओं से ऊपर उठ जाता है। लेकिन | संकल्पात्मक, संकल्प से भरा हुआ। मन के कारण ही वह परमात्मा नहीं हो पाता। जहां संकल्प है, वहां विकल्प सदा पीछे मौजूद रहता है। जब Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3> गा आप किसी को मित्र बना रहे हैं, तब आपके मन का एक हिस्सा | सुख नहीं मिला, तो फिर उलटे को चुन लो। और मन निरंतर, उसमें शत्रुता खोजने में लग जाता है, फौरन लग जाता है! आपने | | जिसको हम अनुभव कर लेते हैं, उससे ऊब जाता है और उससे किसी को प्रेम किया और मन का दूसरा हिस्सा तत्काल उसमें घृणा | विपरीत, जिसका हम अनुभव नहीं करते, उसके लिए लालायित के आधार खोजने में लग जाता है। आपने किसी को सुंदर कहा और बना रहता है। मन का दूसरा हिस्सा तत्काल तलाश करने लगता है कि कुरूप और स्मृति हमारी बड़ी कमजोर है। ऐसा नहीं है कि जिसे हम क्या-क्या है! आपने किसी के प्रति श्रद्धा प्रकट की और मन का आज ऊबकर छोड़ रहे हैं, उसे हम फिर पुनः कल न चुन लेंगे। दूसरा हिस्सा फौरन खोजने लगता है कि अश्रद्धा कैसे प्रकट करूं! स्मृति हमारी बड़ी कमजोर है। कल फिर हम उसे चुन सकते हैं। मन का दूसरा पलड़ा मौजूद है, भला ऊपर उठ गया हो, अभी जिसे हमने आज ऊबकर छोड़ दिया है और विपरीत को पकड़ लिया वजन उस पर न हो। लेकिन वह भी वजन की तलाश शुरू कर है, कल हम विपरीत से भी ऊब जाएंगे और फिर इसे पकड़ लेंगे। देगा। और ज्यादा देर नहीं लगेगी कि नीचे का पलड़ा थक जाएगा, स्मृति बड़ी कमजोर है। हल्का होना चाहेगा। ऊपर का उठा पलड़ा भी थक जाएगा और असल में अतियों से भरे हुए चित्त में स्मृति होती ही नहीं। भारी होना चाहेगा। और हम एक पलड़े से दूसरे पलड़े पर वजन अतियों से भरे चित्त में तो विपरीत का आकर्षण ही होता है। कभी रखते हुए जिंदगी गुजार देंगे। इस पलड़े से वजन उठाएंगे, उस लौटकर जिंदगी को देखें। आपकी जिंदगी में आप उन्हीं-उन्हीं चीजों पलड़े पर रख देंगे। उस पलड़े से वजन उठाएंगे, इस पलड़े पर रख को बार-बार चुनते हुए मालूम पड़ेंगे। देंगे। पूरी जिंदगी, मन के एक अति से दूसरी अति पर बदलने में | आज सांझ किया है क्रोध; मन पछताया। क्रोध करते ही मन बीत जाती है। पछताना शुरू कर देता है। वह विपरीत है। वह दूसरी अति है। इधर कृष्ण कहते हैं, उसे कहता हूं मैं योगी, जो समत्वबुद्धि को क्रोध जारी हुआ, उधर मन ने पछताने की तैयारी शुरू की। क्रोध उपलब्ध हो। जो पलड़ों पर वजन रखना बंद कर दे। इस बचकानी, | हुआ, आग जली, उत्तेजित हुए, पीड़ित-परेशान हुए। फिर मन नासमझ हरकत को बंद कर दे और कहे कि मैं इस किस जाल में | | दुखी हुआ, रोया, पराजित हुआ, पछताया। पछताने में दूसरी अति पड़ गया! जो तराजू के पलड़ों से अपनी आइडेंटिटी, अपना छू ली। लेकिन ध्यान रखना, पछताकर फिर आप क्रोध करने की तादात्म्य तोड़ दे। और तराजू जहां ठहर जाता है, जहां समतुल हो तैयारी में पड़ेंगे। कल सांझ तक आप फिर तैयारी कर लेंगे क्रोध जाता है, वहां आ जाए, मध्य में। दो अतियों के बीच, ठीक मध्य की। वह कल जो पछताए थे, उसकी स्मृति नहीं रह जाएगी। को जो खोज ले; न मित्र, न शत्रु; जो बीच में रुक जाए। कितनी बार पछताए हैं! पश्चात्ताप कोई नई घटना नहीं है। वही यह बड़ा अदभुत क्षण है, बीच में रुक जाने का। और एक बार किया है रोज-रोज; फिर पछताए हैं। फिर वही करेंगे, फिर इस बीच में रुकने का जिसे आनंद आ गया और इस बीच में | पछताएंगे। और कभी यह खयाल न आएगा कि इतनी बार रुकने के अतिरिक्त कहीं कोई आनंद नहीं है। क्योंकि जब भी एक पश्चात्ताप किया, कोई परिणाम तो होता नहीं। पलड़े पर भार होता है, तभी चित्त में तनाव हो जाता है। तो अगर आप इतना भी कर लें कि अब क्रोध तो करूंगा, लेकिन __जब भी आप कुछ चुनते हैं, चित्त में उत्तेजना शुरू हो जाती है। | पश्चात्ताप नहीं करूंगा, तो भी आप बड़ी मुश्किल में पड़ जाएंगे। च तो यह है कि उत्तेजना के बिना चन ही नहीं सकते। उत्तेजना से क्योंकि अगर आपने पश्चात्ताप नहीं किया. तो फिर मन फिर से ही चुनते हैं; उद्विग्न हो जाते हैं। और जब भी उत्तेजना से चुनते हैं, क्रोध की तैयारी नहीं कर पाएगा। यह आपको उलटा लगेगा। तभी मन के लिए पीड़ा के लिए निमंत्रण दे दिया, दुख को बुलावा लेकिन जीवन की धारा ऐसी है। दे दिया। फिर थोड़ी देर में ऊब होगी, फिर थोड़ी देर में परेशान __ आपसे मैं कहता हूं, क्रोध मत छोड़ें, पश्चात्ताप ही छोड़ दें होंगे। फिर इससे विपरीत चुनेंगे, यह सोचकर कि जब इसमें कुछ सिर्फ। फिर आप क्रोध नहीं कर पाएंगे, क्योंकि पश्चात्ताप पुनः क्रोध सुख न मिला, तो शायद विपरीत में मिल जाए। की तैयारी है। क्रोध छोड दें. तो पश्चात्ताप नहीं कर पाएंगे. क्योंकि मन का गणित ऐसा है। वह कहता है, इसमें सुख नहीं मिला, पश्चात्ताप की कोई जरूरत न रह जाएगी। पश्चात्ताप छोड़ दें, तो तो इससे उलटे को चुन लो। शायद उसमें सुख मिल जाए! उसमें क्रोध नहीं कर पाएंगे, क्योंकि पश्चात्ताप के बिना क्रोध को भूलना | 24 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ <आसक्ति का सम्मोहन - असंभव है। फिर क्रोध के पलड़े पर ही बैठे रह जाएंगे; फिर दूसरे इसलिए जो आदमी क्रोध कर सके, वह क्रोध में ही ठहर जाए। पलड़े पर जाना तराजू के बहुत मुश्किल है। और मन एक ही पलड़े बुरा है क्रोध बहुत। ठहर नहीं सकेंगे, हटना पड़ेगा। रुक न सकेंगे, पर बैठा नहीं रह सकता; बहुत घबड़ा जाएगा, बहुत परेशान हो | उतरना ही पड़ेगा। लेकिन जल्दी न करें दूसरी अति पर जाने की। जाएगा। और अगर आपने इतना ही तय कर लिया कि मैं | तो फिर एक ही विकल्प रह जाएगा अपने आप, आपको मध्य में पछताऊंगा नहीं, तो मन के लिए एक ही उपाय है कि वह मध्य में | जाने के अलावा कहीं जाने की गति न रह जाएगी। चला जाए, जहां कोई पलड़ा नहीं है। ___ जो भी चित्त का रोग है, उसी रोग में ठहर जाएं। भागें मत; जल्दी लेकिन मन धोखा देता है। मन कहता है, क्रोध किया है, | | न करें। विपरीत रोग को न पकड़ें; वहीं ठहर जाएं। मन के ठहरने पछताओ। और मन यह भी समझाता है, और न मालूम कितने लोग | | का नियम नहीं है; वह तो जाएगा। आप उसको द्वंद्व में भर न जाने समझाते रहते हैं—साधु हैं, संन्यासी हैं—सारे मुल्क में समझाते | दें, तो वह मध्य में चला जाएगा। इसे प्रयोग करें और आप हैरान रहते हैं, बिलकुल अवैज्ञानिक बात। वे कहते हैं, क्रोध किया है, तो | हो जाएंगे। पश्चात्ताप करो। पश्चात्ताप से, वे कहेंगे कि तुम्हारा क्रोध मिट लेकिन जैसे ही क्रोध हुआ कि मन दूसरा कदम उठाकर जाएगा। कभी किसी का नहीं मिटा। वे कहते हैं, क्रोध किया, तो पश्चात्ताप के पलड़े में रखना शुरू कर देता है। आदमी का आधा पश्चात्ताप करो; पश्चात्ताप से क्रोध मिट जाएगा। क्रोध नहीं हिस्सा क्रोध करता है, आधा हिस्सा पश्चात्ताप की तैयारी करने मिटेगा, सिर्फ क्रोध को पुनः करने की सामर्थ्य पैदा हो जाएगी। | लगता है। क्रोध करते हुए आदमी को देखें। उसके चेहरे पर खयाल करके देखें और आप पाएंगे कि पुनः आप समर्थ हो गए। रखें, तो आप फौरन उसके चेहरे पर धूप-छाया पाएंगे। वह क्रोध क्रोध से जो थोड़ा-सा दंश पैदा हुआ था, पीड़ा आई थी, वह भी कर रहा है, सकुचा भी रहा है; तैयारी भी कर रहा है कि फिर मिट गई। क्रोध से जो अहंकार को थोड़ी-सी चोट लगी थी कि पश्चात्ताप कर ले। अभी हाथ मारने को उठाया था; थोड़ी देर में मैं कैसा बुरा आदमी हूं, वह फिर मिट गई। पश्चात्ताप से फिर लगा हाथ जोड़कर माफी मांग लेगा। निपटा दिया। वह मन के द्वंद्व में पूरा कि मैं तो अच्छा आदमी हूं। पश्चात्ताप करके आप पुनः उसी स्थिति एक कोने से दूसरे कोने में चला गया। इस मन की द्वंद्वात्मकता को, में आ गए, जैसा क्रोध करने के पहले थे। आपने स्टेटस को, | | डायलेक्टिक्स को समझ लेना जरूरी है। पुनः-पुनः पुरानी स्थिति में अपने को स्थापित कर लिया। अब आप मार्क्स ने तो कहा है कि समाज डायलेक्टिकल है, द्वंद्वात्मक है। फिर क्रोध कर सकते हैं। अब आप बुरे आदमी नहीं हैं। अब आप | समाज द्वंद्व से जीता है। लेकिन ऐसा दिन तो कभी आ सकता है, क्रोध कर सकते हैं। जब समाज द्वंद्व से न जीए। मार्क्स के खुद के खयाल से भी अगर द्वंद्व! और जो मैंने क्रोध के लिए कहा, वही मन की सभी वृत्तियों कभी साम्यवाद दुनिया में आ जाए, तो कोई द्वंद्व नहीं रह जाएगा। के लिए लागू है। सभी वृत्तियों के लिए लागू है। कृष्ण कहते हैं, फिर नान-डुअलिस्टिक हो जाएगा समाज। नान-डायलेक्टिकल हो बीच में है योग। ये दोनों ही अयोग हैं—क्रोध भी, पश्चात्ताप भी; । जाएगा; द्वंद्व नहीं होगा। लेकिन मन कभी भी, किसी स्थिति में भी प्रेम भी, घृणा भी। बीच में है योग; वहीं है, जहां संतुलन है। गैर-द्वंद्वात्मक नहीं हो सकता। द्वंद्व रहेगा। हां, मन ही न रह क्या करें? संतुलन में कैसे ठहर जाएं ? कहां रुकें? जाए-उसके सूत्र कृष्ण कह रहे हैं-वह बात दूसरी है। मन जब भी एक पलड़े से दूसरे पलड़े पर जाने की तैयारी हो रही हो, | | रहेगा, तो द्वंद्व रहेगा। मन ही न रह जाए, तो द्वंद्वहीनता आ जाएगी। तब दूसरे पलड़े पर न जाएं। जल्दी न करें। दूसरे पलड़े पर न जाएं। इसलिए कृष्ण के सूत्र को अगर कोई ठीक से समझे, तो मार्क्स अगर क्रोध है, तो क्रोध में ही ठहर जाएं; पश्चात्ताप पर जल्दी न | का साम्यवाद दुनिया में तब तक नहीं आ सकता, जब तक कि करें जाने की। क्रोध में ही ठहर जाएं। | दुनिया में बड़े पैमाने पर ऐसे लोग न हों, जिनके पास मन न रह ठहर न सकेंगे। मन का नियम नहीं है ठहरने का। अगर | जाए। नहीं तो द्वंद्व जारी रहेगा। द्वंद्व बच नहीं सकता। पश्चात्ताप पर जाने से आपने रोक लिया, तो भी मन जाएगा। समाज में जो द्वंद्व दिखाई पड़ते हैं, वे व्यक्ति के ही मन के द्वंद्वों लेकिन जाने का, तीसरा एक ही उपाय है कि वह पलड़े के बाहर का विस्तार है। जब तक भीतर मन द्वंद्वात्मक है, डायलेक्टिकल है, चला जाए। | तब तक हम कोई ऐसा समाज निर्मित नहीं कर सकते, जिसमें द्वंद्व Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 समाप्त हो जाए। हां, द्वंद्व बदल जाएगा। अमीर-गरीब का न रहेगा, | उपलब्ध न हो-और एक व्यक्ति के चित्त के समता को उपलब्ध तो सत्ताधारी कमीसार और गैर-सत्ताधारी का हो जाएगा। पद वाले होने से कुछ भी नहीं होता। क्योंकि कुछ कृष्ण और महावीर और का और गैर-पद वाले का हो जाएगा। धन का न रहेगा, सौंदर्य का कुछ बुद्ध सदा समता को उपलब्ध होते रहे हैं। लेकिन इसके हो जाएगा, बुद्धि का हो जाएगा। अतिरिक्त कोई भी मार्ग नहीं है। और बड़े मजे की बात है! पुराने जमाने में लोग कहते थे कि धन __ मन दुख लाएगा ही, क्योंकि मन द्वंद्व लाएगा। जहां होगा द्वंद्व, तो भाग्य से मिलता है। कल अगर समाजवाद दुनिया में आ जाए, | वहां होगा संघर्ष, वहां होगी कलह, वहां होगा द्वेष, वहां होगी तो कोई सुंदर होगा, कोई असुंदर होगा। किसी के सुंदर होने से | उत्तेजना, वहां होगा तनाव; वहां पीड़ा सघन होगी, वहां संताप घना उतनी ही ईर्ष्या जगेगी, जितनी किसी के धनी होने से जगती रही है। होगा, वहां जीवन नर्क होगा। फिर साम्यवाद क्या कहेगा कि संदर होना कैसे हो जाता है? | मन नर्क का निर्माता है। मन के रहते कोई स्वर्ग में प्रवेश नहीं कहेगा, भाग्य से हो जाता है। कहेगा, प्रकृति से हो जाता है। कर सकता। क्योंकि मन ही नर्क है। लेकिन अगर कोई सम हो फिर एक आदमी बुद्धिमान होगा और एक आदमी बुद्धिहीन जाए...। होगा। और बुद्धिहीन सत्ता में तो नहीं पहुंच पाएंगे; बुद्धिमान सत्ता तो कभी छोटे-छोटे प्रयोग करके देखें सम होने के। बहुत में पहुंच जाएंगे। फिर समाजवाद क्या कहेगा? कि ये बुद्धिमान | छोटे-छोटे प्रयोग करके देखें; उनसे ही रास्ता धीरे-धीरे साफ हो सत्ता में पहुंच गए। आखिर बुद्धिमान और बुद्धिहीन को समान हक सकता है। होना चाहिए। पर यह बुद्धिमान सत्ता में पहुंच जाता है। तब एक ही कभी स्नान करके खड़े हैं। खयाल करें, तो आप हैरान होंगे कि उत्तर रह जाएगा कि बद्धिमान के लिए हम कैसे बंटवारा करें। वह या तो आपका वजन बाएं पैर पर है या दाएं पैर पर है। थोडा-सा शायद भाग्य से ही है। वह बुद्धिमान है पैदाइश से, और तुम खयाल करें आंख बंद करके, तो आप पाएंगे, वजन बाएं पैर पर है बुद्धिमान नहीं हो पैदाइश से। या दाएं पैर पर है। अगर पता चले कि आपके शरीर का वजन बाएं द्वंद्व बदल जाएंगे। द्वंद्व नहीं बदलेगा; द्वंद्व जारी रहेगा। क्योंकि पैर पर है, तो थोड़ी देर रुके हुए देखते रहें। आप थोड़ी देर में पाएंगे मन द्वंद्वात्मक है। लेकिन मार्क्स को खयाल भी नहीं था मन का, कि वजन दाएं पैर पर हट गया। अगर दाएं पैर पर वजन मालूम उसे तो खयाल था समाज की व्यवस्था का। पड़े, तो वैसे ही खड़े रहें और पीछे अंदर देखते रहें कि वजन दाएं बुद्ध या कृष्ण या महावीर या क्राइस्ट को हम पूछे, तो वे कहेंगे, पैर पर है। क्षण में ही आप पाएंगे कि वजन बाएं पैर पर हट गया। समाज की व्यवस्था तो मन का फैलाव है। हां, उस दिन समाज | मन इतने जोर से बदल रहा है भीतर। वह एक पैर पर भी एक क्षण समतुल हो सकता है, जिस दिन व्यक्ति योगारूढ़ हो जाएं, बड़े खड़ा नहीं रहता। बाएं से दाएं पर चला जाता है; दाएं से बाएं पर पैमाने पर। इतने बड़े पैमाने पर व्यक्ति योगारूढ़ हो जाएं कि जो चला जाता है। योगारूढ़ नहीं हैं, वे अर्थहीन हो जाएं; उनका होना, न होना व्यर्थ अब अगर इस छोटे-से अनुभव में आप एक प्रयोग करें, उस हो जाए। पर अभी तो एकाध आदमी कभी करोड़ में योगारूढ़ हो स्थिति में अपने को ऐसा समतुल करके खड़ा करें कि न वजन बाएं जाए, तो बहुत है। इसलिए जो सिर्फ सपने देखते हैं, वे कह सकते पैर पर हो, न दाएं पैर पर; दोनों पैरों के बीच में आ जाए। यह बहुत हैं कि कभी ऐसा हो जाएगा कि सब लोग योगारूढ़ हो जाएं। यह छोटा-सा प्रयोग आपसे कह रहा हूं। वजन दोनों के बीच आ जाए। दिखाई नहीं पड़ता। यह संभावना बड़ी असंभव मालूम पड़ती है। एक क्षण को भी उसकी झलक आपको मिलेगी, तो आप हैरान यह आशा बड़ी निराशा से भरी मालूम पड़ती है कि समाज किसी। | हो जाएंगे। और मिलेगी झलक। क्योंकि जब बाएं पर जा सकता है दिन समतुल हो जाए। क्योंकि अभी तो हम व्यक्ति को भी समबुद्धि और दाएं पर जा सकता है, तो बीच में क्यों नहीं रह सकता! कोई का नहीं बना पाते हैं। समाज तो बड़ी घटना है। और समाज तो कारण नहीं है, कोई बाधा नहीं है, सिर्फ पुरानी आदत के अतिरिक्त। बदलती हुई घटना है। एक व्यक्ति भी हम निर्मित नहीं कर पाते हैं, एक क्षण को आप ऐसे अपने को समतुल करें कि बीच में रह गए, जो कि सम हो जाए। इसलिए साम्य कभी समाज में हो जाए, यह न बाएं पर वजन है, न दाएं पर। और जिस क्षण आपको पता चलेगा असंभव मालूम पड़ता है। जब तक व्यक्ति का चित्त पूरी समता को कि बीच में है, उसी क्षण आपको लगेगा कि शरीर नहीं है। एकदम 261 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसक्ति का सम्मोहन - लगेगा, बाडीलेसनेस हो गई है। शरीर में कोई भार न रहा। शरीर प्रति आप भी सचेतन नहीं हैं। आप तो थोड़ी देर बाद सचेतन होंगे; जैसे निर्भार हो गया। ऐसा लगेगा. जैसे आकाश में चाहें तो उड | देर लगेगी। इस आदमी से बातचीत होगी। और आपके मन ने जो सकते हैं! उड़ नहीं सकेंगे; लेकिन लगेगा ऐसा कि चाहें तो उड़ निर्णय ले लिया, उस निर्णय के अनुसार मन इस आदमी में वे-वे सकते हैं। ग्रेविटेशन नहीं मालूम होता। ग्रेविटेशन तो है, जमीन तो बातें खोज लेगा, जो आपने निर्णय लिया है। अभी भी खींच रही है। लेकिन जमीन का जो भार है, वह असली आमतौर से आप सोचते हैं कि आप सोच-समझकर निर्णय लेते भार नहीं है। असली भार तो मन का है, जो निरंतर द्वंद्व, हर छोटी हैं। लेकिन जो मन को समझते हैं, वे कहते हैं, निर्णय आप पहले चीज में द्वंद्व को खड़ा करता है। लेते हैं, सोच-समझ सब पीछे का बहाना है। इस छोटे-से प्रयोग को भी अगर रोज पंद्रह मिनट कर पाएं, तो | एक आदमी के प्रेम में आप पड़ जाते हैं। आपसे कोई पूछे, क्यों तीन महीने में आप उस स्थिति में आ जाएंगे, जब दोनों पैर के बीच पड़ गए? तो आप कहते हैं, उसकी शकल बहुत सुंदर है, कि में आपको खड़े होने का अनुभव शुरू हो जाएगा। तो इस छोटे-से | उसकी वाणी बहुत मधुर है। लेकिन मनोवैज्ञानिक कहते हैं, प्रेम में सूत्र से आपको मन को समत्वबुद्धि में ले जाने का आधार मिल | आप पहले पड़ जाते हैं, ये तो सिर्फ बाद के रेशनलाइजेशंस हैं। जाएगा। तब जब भी मन और कहीं भी बायां-दायां चुनना चाहे, । | अगर कोई पूछे कि क्यों प्रेम में पड़ गए? तो आप इतने समझदार तब आप वहां भी बीच में ठहर पाएंगे। लेकिन बीच में ठहरने का | | नहीं हैं कि आप यह कह सकें कि मुझे पता नहीं क्यों प्रेम में पड़ अनुभव कहीं से तो शुरू करना पड़े। कठिन बात मैंने नहीं कही है, | | गया! बस, पड़ गया हूं! समझदारी दिखाने के लिए आप कहेंगे कि बहुत सरल कही है। क्योंकि और चीजें बहुत कठिन हैं। | इसकी शकल देखते हैं, कितनी सुंदर है! लेकिन इसी की शकल . और चीजें बहुत कठिन हैं। मित्र न बनाएं, शत्रु न बनाएं-बड़ा | को देखकर कोई घृणा में पड़ जाता है। इसी की शकल को देखकर कठिन मालूम पड़ेगा। मन ने किसी को देखा नहीं कि बनाना शुरू | कोई दुश्मन हो जाता है। कहते हैं, देखते हैं, इसकी आवाज कितनी कर देता है। आपको थोड़ी देर बाद पता चलता है; मन उसके पहले | | मधुर है! इसी की आवाज सुनकर किसी को रातभर नींद नहीं बना चुका होता है। अजनबी आदमी भी आपके कमरे में प्रवेश आती। और आपको भी कितने दिन आएगी, कहना पक्का नहीं है। करता है. आपका मन चौंककर निर्णय ले चका होता है। निर्णय महीने. दो महीने. तीन महीने. चार महीने बाद हो सकता है. आपको भी बाद में जाहिर होते हैं। मन कह देता है, पसंद नहीं है डायवोर्स की दरख्वास्त लेकर खड़े हों। यही आवाज बहुत कर्णकटु यह आदमी। अभी मिले भी नहीं, बात भी नहीं हुई, चीत भी नहीं हो जाए, जो बहुत मधुर मालूम पड़ी थी। हुई; अभी पहचाना भी नहीं, लेकिन मन ने कह दिया कि पसंद नहीं | क्या हो गया? आवाज वही है, आप वही हैं, चेहरा वही है। है। पुराने अनुभव होंगे। | इससे बड़ी सुगंध आती थी, अब दुर्गंध आने लगी। नाक-नक्श मन के पास अपने अनुभव हैं। कभी इस शकल के आदमी ने | वही है, लेकिन पहले बिलकुल संगमरमर मालूम होता था, अब कुछ गाली दे दी होगी। कि इस आदमी के शरीर से जैसी गंध आ| | बिलकुल मिट्टी मालूम होने लगा। हो क्या गया? रही है, वैसे आदमी ने कभी अपमान कर दिया होगा। कि इस | | कुछ हो नहीं गया। मन भीतर पहले निर्णय ले लेता है; पीछे आदमी की आंखों में जैसा रंग है, वैसी आंखों ने कभी क्रोध किया आपकी बुद्धि उसका अनुसरण करती रहती है। होगा। कोई एसोसिएशन इस आदमी से तालमेल खाता होगा। मन | | फ्रायड का कहना है-और फ्रायड मन को जितना जानता है, ने कह दिया कि सावधान! यह आदमी तुर्की टोपी लगाए हुए है, कम लोग जानते हैं—कहना है कि मनुष्य अपने सब निर्णय अंधेरे मुसलमान है। यह आदमी तिलक लगाए हुए है, हिंदू है। जरा | | में और अचेतन में लेता है। और उसकी सब बुद्धिमत्ता झूठी और सावधान! यही आदमी मस्जिद में आग लगा गया था; कि यही बेईमानी है। सब बातें वह जो कहता है कि मैंने बड़ी सोच-समझकर आदमी मंदिर को तोड़ गया था। सावधान! की हैं, कोई सोच-समझकर नहीं करता। बातें पहले कर लेता है, यह बहुत अचेतन है, यह आपके होश में नहीं घटता है। होश | | पीछे सोच-समझ का जाल खड़ा करता है। में घटने लगे, तब तो घट ही न पाए। यह आपकी बेहोशी में घटता। हम ऐसे मकान बनाने वाले हैं—मकान बनाने के लिए स्ट्रक्चर है। आपके भीतर उन अंधेरे कोनों में घट जाता है यह निर्णय, जिनके | खड़ा करना पड़ता है न बाहर! चारों तरफ बांस-लकड़ियां बांधनी Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3> पड़ती हैं, फिर मकान बनता है। लेकिन मन का मकान उलटा बनता | गए; आप आत्मा में ठहर गए। तब किसी शरीर के हिस्से पर जोर है। पहले मकान बन जाता है, फिर हम बाहर लकड़ियां वगैरह बांध नहीं पड़ता है। देते हैं। और ऐसा ही सब चीजों के लिए है। घृणा भी मन का हिस्सा है, पहले मन निर्णय ले लेता है, फिर पीछे हम बुद्धि के सब बांस प्रेम भी मन का हिस्सा है। अगर दोनों के बाहर ठहर गए, तो आत्मा इकट्ठे करके खड़ा करते हैं, ताकि कोई यह न कह सके कि हम | में ठहर गए। क्रोध भी मन है, और क्षमा भी मन है। दोनों के बाहर निर्बुद्धि हैं। किसी की छोड़ दें, हम न कह सकें अपने को ही कि ठहर गए, तो मन के बाहर ठहर गए। हम निर्बुद्धि हैं। हम बुद्धिमान हैं। हमने जो भी निर्णय लिया है, इन दोनों के बाहर ठहरे हुए व्यक्ति को कृष्ण कहते हैं, बहुत सोच-समझकर लिया है। योगारूढ़, योग में ठहरा हुआ, योग में थिर। कोई निर्णय आप सोच-समझकर नहीं ले रहे हैं। क्योंकि जो ऐसी थिरता जीवन के समस्त राज को खोल जाती है। ऐसी आदमी सोच-समझकर निर्णय लेगा, वह एक ही निर्णय लेता है, थिरता जीवन के सब द्वार खोल देती है। हम पहली बार अस्तित्व वह जो कृष्ण ने कहा है, वह समत्व का निर्णय लेता है। वह कोई की गहराइयों से संबंधित होते हैं। पहली बार हम उतरते हैं वहां, दूसरा निर्णय कभी लेता ही नहीं। जहां जीवन का मंदिर है, या जहां जीवन का देवता निवास करता द्वंद्व के सब निर्णय नासमझी के निर्णय हैं। निर्द्वद्व होने का निर्णय है। पहली बार हम परमात्मा में छलांग लगाते हैं। ... ही समझदारी का निर्णय है। वे जो भी समझदार हैं, उन्होंने एक ही योग के पंख मिल जाएं जिसे, वही परमात्मा में छलांग लगा निर्णय लिया है कि द्वंद्व के बाहर हम खड़े होते हैं। और जिसने कहा पाता है। लेकिन योग के पंख उसे ही मिलते हैं, जिसे संमत्व का कि मैं द्वंद्व के बाहर खड़ा होता हूं, वह मन के बाहर खड़ा हो जाता हृदय मिल जाए। नहीं तो योग के पंख नहीं मिलते। समत्व से शुरू है। और जो मन के बाहर खड़ा हो गया, उसकी शांति की कोई सीमा करना जरूरी है। नहीं; क्योंकि अब उत्तेजना का कोई उपाय न रहा। ऐसा व्यक्ति संकल्पों से क्षीण हो जाता है, कृष्ण कहते हैं। उत्तेजना आती थी द्वंद्व से, चुनाव से, च्वाइस से। अब कोई संकल्प की जरूरत ही नहीं रह जाती। संकल्प की जरूरत ही तब उत्तेजना का कारण नहीं। अब कोई टेंशन, अब कोई तनाव पैदा | पड़ती है, जब मुझे कुछ चुनाव करना हो। कहता हूं, वह चाहता हूं, करने वाले बीज न रहे। अब वह बाहर है। अब वह शांत है। अब | तो फिर पाने के लिए मन को जुटाना पड़ता है। कहता हूं, धन पाना वह मौन है। अब वह जीवन को देख सकता है, ठीक जैसा जीवन है, तो फिर धन की यात्रा पर मन को दौड़ाना पड़ता है। चाहता हूं है। अब वह अपने भीतर झांक सकता है ठीक उन गहराइयों तक, कि हीरे की खदानें खोजनी हैं, तो फिर खदानों की यात्रा पर शक्ति जहां तक गहराइयां हैं। और ऐसा व्यक्ति जो अपने भीतर पूर्ण को नियोजित करना पड़ता है। नियोजित शक्ति का नाम संकल्प है। गहराइयों तक झांक पाता है—योगारूढ़, योग को आरूढ़, योग | इच्छा सिर्फ प्रारंभ है। अकेली इच्छा से कुछ भी नहीं होता। फिर को उपलब्ध। सारी ऊर्जा जीवन की उस दिशा में बहनी चाहिए। योग का प्रारंभ है समत्व, लेकिन जैसे ही समत्व फलित हुआ ___ मैं हाथ में तीर लिए खड़ा हूं, सामने वृक्ष पर पक्षी बैठा है। अभी कि आदमी योगारूढ़ हो जाता है। योगारूढ़ का अर्थ है, अपने में | तीर चलेगा नहीं, अभी पक्षी मरेगा नहीं। मन में पहले इच्छा पैदा ठहर गया। होनी चाहिए, इस पक्षी का भोजन कर लं, या इस पक्षी को कैद हम योग अरूढ़ हैं। हम च्युत हैं। हम कहीं-कहीं डोलते फिरते | करके अपने घर में इसकी आवाज को बंद कर लूं, कि इस पक्षी के हैं। वह जगह भर छोड़ देते हैं, जहां हमें ठहरना चाहिए। कभी बाएं सुंदर पंखों को अपने पिंजड़े में, कारागृह में डाल दूं। इच्छा पैदा पर, कभी दाएं पर, मध्य में कभी भी नहीं। मध्य में ही आत्मा है। होनी चाहिए, इस पक्षी की मालकियत की। पर अकेली इच्छा से बाएं भी शरीर है, दाएं भी शरीर है। जब बाएं पैर पर जोर पड़ता है, | कुछ भी न होगा। इच्छा आपमें रही आएगी, पक्षी बैठा हुआ गीत तब शरीर के एक हिस्से पर जोर पड़ता है। और जब दाएं पैर पर गाता रहेगा वृक्ष पर। इच्छा आपके भीतर जाल बुनती रहेगी, पक्षी जोर पड़ता है, तब भी शरीर के एक हिस्से पर जोर पड़ता है। अगर वृक्ष पर बैठा रहेगा। आप दोनों पैर के बीच में ठहर पाए, तो आप शरीर के बाहर ठहर नहीं; इच्छा को संकल्प बनना चाहिए। संकल्प का मतलब है, Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 आसक्ति का सम्मोहन - सारी ऊर्जा नियोजित होनी चाहिए। हाथ तीर पर पहुंच जाना लेना चाहिए कि चुनाव से पैदा हो रहे हैं। और दाएं और बाएं के बीच चाहिए। तीर पक्षी पर लग जाना चाहिए। सारी एकाग्रता, सारी मन में खड़ा हो जाना चाहिए। और कहना चाहिए, मैं चुनूंगा नहीं। मैं एक की शक्ति, सारे शरीर की शक्ति तीर में समाहित हो जानी चाहिए। ही चुनाव करता हूं कि मैं चुनूंगा नहीं। टु बी च्वाइसलेस इज़ दि जब तीर चढ़ गया प्रत्यंचा पर, पक्षी पर ध्यान आ गया, तो इच्छा ओनली च्वाइस। एक ही चुनाव है मेरा कि अब मैं चुनाव नहीं करता। न रही, संकल्प हो गया। हां, अभी भी लौट सकते हैं। अभी भी इच्छाओं के बादल थोड़ी देर में ही बिखर जाएंगे और तिरोहित संकल्प छूट नहीं गया है। लेकिन अगर तीर छूट गया हाथ से, तो हो जाएंगे। और अगर आप बाएं और दाएं के बीच में खड़े हो गए, फिर लौट नहीं सकते। संकल्प अगर चल पड़ा यात्रा पर, प्रत्यंचा | तो समत्व का अनुभव होगा। और समत्व का अनुभव योगारूढ़ के बाहर हो गया, तो फिर लौट नहीं सकते। होने का द्वार खोल देता है। वहां कोई संकल्प नहीं है; वहां कोई तो संकल्प की दो अवस्थाएं हैं। एक अवस्था, जहां से लौट | | विकल्प नहीं है। वहां परिपूर्ण मौन, परिपूर्ण शून्य है। उसी शून्य में सकते हैं; और एक अवस्था, जहां से लौट नहीं सकते। हमारे सौ | परम साक्षात्कार है। में से निन्यानबे संकल्प ऐसी ही अवस्था में होते हैं, जहां से लौट __ कृष्ण के सभी सूत्र परम साक्षात्कार के विभिन्न द्वारों पर चोट सकते हैं। जिन-जिन संकल्पों से लौट सकते हैं, लौट जाएं। करते हैं। वे अर्जुन को कहते हैं कि तू समत्वबुद्धि को उपलब्ध हो संकल्प से लौटेंगे तो इच्छा रह जाएगी। हमारी सौ प्रतिशत इच्छाएं जा. फिर त योगारूढ हो जाएगा। और फिर यो तेरे सारे ऐसी हैं, जिनसे हम लौट सकते हैं। निन्यानबे प्रतिशत संकल्प ऐसे संकल्प गिर जाएंगे, सब विकल्प गिर जाएंगे; तेरे चित्त की सारी हैं, जिनसे हम लौट सकते हैं। केवल उन्हीं संकल्पों से लौटना | | चिंताएं गिर जाएंगी। तू निश्चित हो जाएगा। सच तो यह है कि तू मुश्किल है, जिनके तीर हमारी प्रत्यंचा के बाहर हो गए। चित्तातीत हो जाएगा। चित्त ही तेरा न रह जाएगा, मन ही तेरा न रह ___ मैं उस क्रोध से भी वापस लौट सकता हूं, जो अभी मेरी वाणी | जाएगा। अगर ऐसा कहें, तो कह सकते हैं कि फिर तू अर्जुन न रह नहीं बना। मैं उस क्रोध से भी वापस लौट सकता हूं, जो अभी जाएगा, आत्मा ही रह जाएगा। मुखर नहीं हुआ। लेकिन जो क्रोध गाली बन गया और मेरे होठों | और जिस दिन कोई सिर्फ आत्मा रह जाता है, उसी दिन जान से बाहर हो गया, उससे वापस लौटने का कोई उपाय न रहा; तीर | पाता है अस्तित्व के आनंद को, वह जो समाधि है अस्तित्व की, छूट गया है। वह जो एक्सटैसी है, वह जो मंगल है, वह जो सौंदर्य है लेकिन जिन संकल्पों के तीर छूट गए हैं, तीर छूट गया, अब गहन–सत्य, स्वयं में छिपा-उसके उदघाटन को। परम है पक्षी को लगेगा और पक्षी गिरेगा मरकर, तो भी मैं इतना तो कर ही | | संगीत उसका, परम है काव्य उसका। सकता हूं, संकल्प को व्यर्थ कर सकता हूं। लौट तो नहीं सकता, लेकिन जानने के पहले एक तैयारी से गुजरना जरूरी है। उसी लेकिन व्यर्थ कर सकता हूं। व्यर्थ करने का मतलब यह है कि पक्षी | | तैयारी का नाम योग है। उस तैयारी की सिद्धि को पा लेना योगारूढ़ पर मालकियत न करूं। जिस इच्छा को लेकर संकल्प निर्मित हुआ | हो जाना है। उस तैयारी की प्रक्रिया समत्वबुद्धि है। था, उस इच्छा को पूरा न करूं। अभी भी तीर खींचा जा सकता है पक्षी से। अभी भी पक्षी के घाव ठीक किए जा सकते हैं। अभी भी पक्षी को पिंजड़े में न डाला जाए, इसका आयोजन किया जा सकता प्रश्नः भगवान श्री, इस श्लोक में कहे गए शमः है। अभी भी पक्षी जिंदा हो, तो उसे मुक्त आकाश में छोड़ा जा अर्थात सर्वसंकल्पों के अभाव में और निर्विचार सकता है। अवस्था में क्या कोई भेद है अथवा दोनों एक ही हैं? तो जो संकल्प तीर की तरह निकल गए हों, उन संकल्पों को कृपया इस पर प्रकाश डालें। अनडन करने के लिए जो भी किया जा सके, वह साधक को करना चाहिए, उनको व्यर्थ करने के लिए। जो संकल्प अभी प्रत्यंचा पर चढ़े हैं, प्रत्यंचा ढीली छोड़कर तीरों को वापस तरकस में पहुंचा देना +- विचार और निःसंकल्प क्या इन दोनों में कोई भेद है चाहिए। जो संकल्प इच्छा रह जाएं, उन इच्छाओं के द्वंद्व को समझ OI या दोनों एक हैं? Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 जहां तक अंत का संबंध है, दोनों एक हैं। जहां तक सिद्धि का | आइंस्टीन का जीवन तो एक तपस्वी का जीवन है। भोजन करते संबंध है, दोनों एक हैं। जहां तक उपलब्धि का संबंध है, दोनों एक | वक्त भी उसकी पत्नी को ही खयाल रखना पड़ता है कि नमक हैं। जहां पूर्ण होता है निःसंकल्प होना या निर्विचार होना, वहां एक | ज्यादा तो नहीं है, शक्कर ज्यादा तो नहीं है, क्योंकि वह तो खा ही अनुभूति रह जाती है-शून्य की, निराकार की, परम की। लेगा। वह जीता है विचार की दुनिया में, वहीं दौड़ता रहता है। लेकिन जहां तक मार्ग का संबंध है, दोनों में भेद है। जहां तक मार्ग डाक्टर राममनोहर लोहिया एक दफा आइंस्टीन को मिलने गए का संबंध है, दोनों में भेद है। जहां तक मैथडॉलाजी का, विधि का | थे। ग्यारह बजे का वक्त उनकी पत्नी ने दिया था कि आप ठीक संबंध है, वहां दोनों में भेद है। ग्यारह बजे आ जाएं; और जरा-सी भी देर की, तो कठिनाई होगी। निर्विचार की प्रक्रिया भिन्न है निःसंकल्प होने की प्रक्रिया से। तो लोहिया ने सोचा कि शायद कोई बहुत जरूरी काम होगा ग्यारह निःसंकल्प होने की प्रक्रिया है, समत्वबुद्धि, द्वंद्व के बीच में ठहर के बाद आइंस्टीन को। वे भागे हुए ठीक ग्यारह बजे पहुंचे, लेकिन जाना। निःसंकल्प होने की, संकल्पातीत होने की, संकल्पशून्य सिर्फ एक मिनट की देरी हो गई। होने की विधि है-जो मैंने अभी आपसे कही-समबुद्धि को तो उनकी पत्नी ने कहा कि आप तो चूक गए। पर उन्होंने कहा, उपलब्ध हो जाना। निर्विचार होने की प्रक्रिया है, साक्षित्व को एक ही मिनट! मुझे दरवाजे पर भी वे दिखाई नहीं पड़े। वे गए उपलब्ध हो जाना। कहां? उसकी पत्नी ने कहा कि वे बाथरूम में चले गए। उन्होंने परिणाम एक होंगे। निर्विचार होने की प्रक्रिया है, साक्षी हो जाना | | कहा, आप भी क्या बात करती हैं! मैं प्रतीक्षा कर सकता हूं। उसने विचार के। कैसा ही विचार हो, उस विचार के केवल विटनेस हो कहा, लेकिन कोई हिसाब नहीं कि वे कब निकलें। उन्होंने कहा, जाना, देखने वाले हो जाना, दर्शक बन जाना। खेल में होते हुए, बाथरूम में कितना नहाते हैं? उसने कहा, नहाने का तो सवाल खेल के दर्शक हो जाना। जैसे नाटक को देखते हैं, ऐसा अपने मन कहां है। कई दफा तो बिना नहाए निकल आते हैं। तो बाथरूम में को देखने लगना। विचारों की जो धारा बहती है, उसके किनारे, ।। करते क्या हैं? वे वही करते हैं, जो चौबीस घंटे करते हैं। टब में जैसे रास्ता चल रहा है, लोग चल रहे हैं, उसके किनारे बैठकर । लेट जाते हैं; सोचना शुरू कर देते हैं। नहाना तो भूल जाते हैं! रास्ते को देखने लगा कोई। ऐसे किनारे बैठकर, मन के विचारों की छः घंटे बाद वे निकले। बड़े आनंदित बाहर आए। कोई गणित धारा को देखने लगना। की पहेली हल हो गई। डाक्टर लोहिया ने पूछा कि गणित की पहेली विचारों के प्रति जागरूकता विधि है। और जो विचारों के प्रति आप क्या बाथरूम में हल करते हैं? तो आइंस्टीन ने कहा कि जागरूक होगा, वह वहीं पहुंच जाएगा निर्विचार होकर, निराकार एक्सपैंडिंग यूनिवर्स का जो सिद्धांत मैंने विकसित किया कि जगत में। लेकिन उन दोनों के छलांग के स्थान अलग-अलग हैं। और निरंतर फैल रहा है. ठहरा हआ नहीं है, जैसे कि कोई गब्बारे में हवा व्यक्ति व्यक्ति के टाइप, प्रकार पर निर्भर करता है कि कौन-सा | भर रहा हो और गुब्बारा बड़ा होता जाए, ऐसा जगत बड़ा होता जा उचित होगा। रहा है; ठहरा हुआ नहीं है। जगत रोज बड़ा हो रहा है। आइंस्टीन जैसे उदाहरण के लिए, कुछ लोग हैं, जो इच्छाओं जैसी चीज के सिद्धांत को समर्थन मिल पाया और सही सिद्ध हुआ। तो ज्यादा करते ही नहीं, विचार ही करते हैं। इंटलेक्चुअल्स, बुद्धि की आइंस्टीन ने कहा कि यह सिद्धांत मैंने अपने बाथरूम के टब में दुनिया में जीने वाले लोग इच्छाओं के जाल में बहुत नहीं पड़ते। बैठकर साबुन के बबूले उठाते वक्त, जब साबुन के बबूले बड़े अक्सर गहन बुद्धि में जीने वाला आदमी बहुत आस्टेरिटी में, होते, तब मुझे खयाल आया। यह साबुन के बबूले अपने टब में तपश्चर्या में जीता है। बनाते हुए और बबूलों से खेलते वक्त मुझे खयाल आया कि यह आइंस्टीन! अब आइंस्टीन से अगर आप कहो कि चुनाव मत जगत एक्सपैंडिंग हो सकता है। करो, तो वह कहेगा, चुनाव हम करते ही कहां! अगर आइंस्टीन से हमारे पास तो जो शब्द है ब्रह्म, उसका मतलब ही होता है, आप कहो कि न काली कार चुनो, न नीली कार चुनो; वह कहता एक्सपैंशन। इस मुल्क के ऋषि तो सदा से यह कहते रहे हैं कि है कि हमने कभी खयाल ही नहीं किया कि कौन-सी कार काली है। जगत फैल रहा है, जगत ठहरा हुआ नहीं है। ब्रह्मांड का अर्थ ही और कौन-सी नीली है! होता है, जो फैलता चला जाए। जो रुके ही नहीं, फैलता ही चला Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ << आसक्ति का सम्मोहन > जाए। स्वभाव ही जिसका फैलाव है। जाओगे। तलवार चलाओ, विचार मत करो। जब लड़ रहे हो, तो ___ पर आइंस्टीन को यह खयाल उसके बाथरूम में मिला। ऐसे लोग तलवार चलाओ, विचार मत करो। अगर जरा-सा विचार किया, इच्छाओं में नहीं जीते, विचारों में जीते हैं। थोड़ा फर्क है। ऐसे लोग | तो तलवार उतनी देर के लिए चूक जाएगी; उतनी देर में दुश्मन तो इच्छाओं में नहीं जीते, विचारों में जीते हैं। इनके लिए, दो इच्छाओं छाती में तलवार डाल देगा। के बीच ठहर जाओ, इस सूत्र का बहुत अर्थ नहीं होगा। इनके लिए, | तो अगर कभी दो समुराई योद्धा उतर जाते हैं तलवार के युद्ध में, विचारों के प्रति सजग हो जाओ, इसका ज्यादा अर्थ होगा। तो बड़ी मुश्किल हो जाती है जीत-हार तय करना। क्योंकि दोनों ही तो जो इंटलेक्चुअल टाइप है, जो बुद्धिवादी टाइप है, जिसका निर्विचार लड़ते हैं एक अर्थ में, विचार नहीं करते, सीधा लड़ते हैं। प्रकार बुद्धि में जीने का है, वासनाओं में जीने का नहीं—बुद्धि भी और लड़ना इंटयूटिव होता है, क्योंकि विचार तो होता नहीं कि कहां वासना है, पर बहुत विभिन्न प्रकार है उसके जीने का उसके लिए चोट करूं! जहां से पूरे प्राण कहते हैं चोट करो, वहीं चोट होती है। तो निर्विचार की साधना है। चोट होने में और विचार करने में फासला नहीं होता। चोट ही लेकिन अधिकतम लोग विचारों में नहीं जीते; अधिकतम लोग । विचार है। वासनाओं में जीते हैं। कभी कोई आइंस्टीन जीता है विचार में। ___ और बड़ी हैरानी की बात है कि समुराई योद्धाओं का अनुभव है अधिक लोग वासनाओं में जीते हैं। अगर आप विचार भी करते हैं, | | यह कि दूसरा व्यक्ति, दुश्मन जब हमला करता है, तो वह कहां तो किसी वासना के लिए। और आइंस्टीन जैसे आदमी अगर कभी | हमला करेगा, पूरे प्राण अपने आप वहां तलवार को उठा देते हैं वासना भी करते हैं, तो किसी विचार के लिए। बचाव के लिए। विचार में तो देर लग जाएगी। विचार में तो थोड़ी इस फर्क को खयाल में ले लें। देर लग जाएगी। विचार में टाइम गैप होगा ही। अगर आप विचार भी करते हैं, तो किसी वासना के लिए। आप अगर आप मुझ पर तलवार से हमला कर रहे हैं और मैंने सोचा चाहते हैं, एक बड़ा मकान हो जाए, तो विचार करते हैं कि कैसे हो कि पता नहीं, यह हमला कहां करेंगे—गर्दन पर, कि कमर में, कि जाए? क्या धंधा करूं? कैसे धन कमाऊं? अगर आइंस्टीन को छाती में! मैंने इतनी देर विचार किया, तलवार की गति तेज है, इतनी कभी बड़े मकान का भी विचार आता है, तो वह तभी आता है, जब देर में तलवार गर्दन काट गई होगी। विचार का मौका नहीं है। यहां उसको लगता है कि उसकी प्रयोगशाला छोटी पड़ गई है। अब | | तो मुझे बिना विचार के तलवार चलाने की सुविधा है, बस। तलवार इसमें विचार ठीक से नहीं हो पा रहा है। वह सोचता है, कोई बड़ी वहां पहुंच जानी चाहिए, जहां तलवार पहुंच रही है दुश्मन की। इसमें प्रयोगशाला मिल जाए। अगर आइंस्टीन जैसा आदमी बड़े मकान | | विचार की बाधा, इसमें विचार का व्यवधान नहीं होना चाहिए। की वासना भी करता है, तो किसी विचार के कारण। और हम अगर तो अर्जुन तो समुराई है। उसकी तो सारी प्रक्रिया पूरे प्राणों से कभी बैठकर थोड़ा विचार भी करते हैं, तो किसी वासना के कारण। लड़ने की है। वासनाएं उसके जीवन में हैं, विचार का बहुत सवाल यह भेद है। जिनकी वासना इंफेटिकली तेज है, उनके लिए कृष्ण नहीं है। इसलिए कृष्ण उससे कह रहे हैं कि तू दो वासनाओं के बीच जो कह रहे हैं, वह ठीक कह रहे हैं। में सम हो जा। दो वासनाओं के बीच में सम हो जाए अर्जुन, तो __ अर्जुन विचार वाला आदमी नहीं है, इच्छाओं वाला आदमी है, योगारूढ़ हो जाए। योद्धा है। विचार से बहुत लेन-देन नहीं है उसको। और आइंस्टीन | आइंस्टीन को योगारूढ़ होना हो, तो वासनाओं में सम होने का जैसा विचार में खो जाए, तो युद्ध न कर पाएगा। युद्ध का सूत्र ही कोई सवाल नहीं। आइंस्टीन कहेगा, वासनाएं हैं कहां? होश भी है कि विचार मत करना, लड़ना। विचार किया, तो लड़ाई कठिन | नहीं है उसे वासना का। हो जाएगी; हार सुनिश्चित हो जाएगी। युद्ध में तो वह आदमी ___ एक मित्र के घर एक रात भोजन के लिए गया था। ग्यारह बजे जीतता है, जो विचार नहीं करता, समग्र रूप से लड़ता है। विचार | भोजन समाप्त हो गया। फिर बाहर बरांडे में बैठकर मित्र के साथ करता ही नहीं। गपशप चलती रही। आइंस्टीन अनेक बार अपनी घड़ी देखता है, जापान में योद्धाओं का एक समूह है, समुराई। समुराई शिक्षक फिर वह सिर खुजलाकर फिर बातचीत में लग जाता है। मित्र बड़ा सिखाते हैं कि अगर तुमने एक क्षण भी विचार किया, तो तुम चूक परेशान है। बारह बज गए, एक बज गए। अब मित्र की हिम्मत भी Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 नहीं है कहने की कि आइंस्टीन जैसे व्यक्ति को कहे कि अब आप हैं। जिनके लिए न तो बहुत किसी प्रयोगशाला से अर्थ है, न किसी जाइए; अब मैं सोऊ! फिर दो बज गए। और हैरानी इससे और बढ़ गणित की खोज करनी है, न कोई दर्शनशास्त्र की पहेली हल करनी जाती है कि आइंस्टीन कई दफा अपनी घड़ी देखता है। फिर घड़ी है। सिद्धांतों से जिन्हें लेना-देना नहीं। न जिन्हें कोई बड़ा राज्य देखकर सिर खुजलाकर फिर बैठा रह जाता है। वह मित्र बड़ा परेशान बनाना है, न कोई बड़े भवन बनाने हैं। लेकिन जो भाव में जीते हैं, है कि घड़ी भी देख लेते हैं। उनको पता भी है कि दो बज गए। प्रेम में, क्रोध में, जो भाव में जीते हैं। फिर आखिर में मित्र ने कहा कि क्या आज सोइएगा नहीं? जैसे कि उमर खय्याम ने अपनी रुबाइयात में कहा है कि वृक्ष हो आइंस्टीन ने कहा, यही तो मैं सोच रहा हूं बार-बार घड़ी देखकर छायादार, साथ में सुराही हो सुरा की, और प्रिय तुम निकट हो, कि आप जाएंगे कब! उसने कहा कि आप हद कर रहे हैं! यह घर काव्य की कोई पुस्तक पास हो, तो मैंने सब जगत जीत लिया है; मेरा है। आइंस्टीन ने कहा, माफ करो; मुझे बहुत पक्का नहीं रह फिर कुछ और चाहिए नहीं। गीत को कभी हम काव्य की पुस्तक से जाता कि घर किसका र-बार घड़ी इसीलिए | पढ़ लेंगे: सुरा को कभी हम पी लेंगे: और फिर तारों से भरे आकाश देख रहा हूं कि अब जाओ! आप जाएंगे कब? के नीचे आलिंगन में निमग्न होकर सो जाएंगे। छायादार वृक्ष हो, अब जिस आदमी को यह खयाल न रह जाता हो कि कौन-सा इतना काफी है। किसी बड़े मकान की कोई आकांक्षा नहीं है। घर मेरा है, वह घर बनाने की वासनाओं में नहीं पड़ सकता। वह अब यह उमर खय्याम जिस टाइप की बात कर रहा है, वह कोई सवाल नहीं है; वह प्रश्न नहीं है; वह उसके चित्त का हिस्सा भावनाशील। जिंदगी में प्रेम हो, गीत हो, छायादार वृक्ष हो, तो नहीं है। पर्याप्त। न बहुत विचार का सवाल है, न वह इस विचार में पड़ेगा मोटे दो विभाजन हम कर सकते हैं। एक वे, जो विचार में जीते कि शराब पीना चाहिए कि नहीं पीना चाहिए; न वह इस वृत्ति और हैं, बुद्धि में। एक वे, जो वृत्ति में जीते हैं, वासना में। उन दोनों के वासना में पड़ेगा कि वृक्ष के नीचे कहीं कोई प्रेम हो सकता है, महल बीच भी एक पतला विभाजन है; वे, जो भाव में जीते हैं, भावना | होना चाहिए। नहीं; प्रेम है, तो वृक्ष महल हो गया। और ऐसे व्यक्ति में। ये तीन मोटे विभाजन हैं। इन तीनों के लिए अलग-अलग को अगर प्रेम नहीं मिला, तो बड़ा महल भी वीरान हो जाएगा। यह. प्रक्रियाएं हैं। भाव के तल पर जीने वाला व्यक्ति है। यह भी बहुत कम है। यह भी वृत्ति में जो जीता है, वासना में और अधिकतम लोग वृत्ति में | बहुत कम है! एक काव्य की पुस्तक पास में हो, उमर खय्याम कहता जीते हैं, सौ में से निन्यानबे लोग; इससे कम नहीं। अधिकतम लोग | है, तो बस काफी है। कभी गीत गा लेंगे उससे निकालकर। वृत्ति में जीते हैं। उनके लिए सूत्र है कि वे दो वृत्तियों, दो वासनाओं __ ऐसे व्यक्ति को जो प्रक्रिया है, बुद्ध ने उस प्रक्रिया को नाम दिया के बीच में सम हों। है, राइट माइंडफुलनेस, सम्यक स्मृति। इस बात का होश, इस बात बहुत थोड़े-से लोग, आधा परसेंट सौ में से, विचार में जीते हैं। की स्मृति कि यह प्रेम है, यह धृणा है, यह क्रोध है, यह राग है। उनके लिए सूत्र है कि वे विचार के प्रति सजग हों। और आधा इस बात की पूरी स्मृति, इसका पूरा एकाग्र बोध। यह क्या है? यह प्रतिशत लोग, बहुत कम लोग, भावना में जीते हैं। उनके लिए भी जो मैं कर रहा है, यह क्या है? सूत्र है कि वे भाव के प्रति स्मरण से भरें। इन तीनों में थोड़े-थोड़े अगर भाव के प्रति कोई एकाग्र स्मृति को उपलब्ध हो जाए और फर्क हैं। जान पाए कि यह प्रेम है, तो वह बहुत चकित हो जाएगा। क्योंकि विचार से जिसको निर्विचार की तरफ जाना है, उसे अवेयरनेस, वह पाएगा कि जैसे ही वह होश से भरा कि यह प्रेम है, वैसे ही उसे विचार के प्रति जागरूकता। भाव से जिसे निर्भाव में जाना है, उसे दिखाई पड़ा कि यही घृणा भी है। ट्रांसपैरेंट हो जाएगा, पारदर्शी हो भाव के प्रति माइंडफुलनेस, स्मृति, होश। थोड़ा फर्क है। जाएगा प्रेम, और उसके पार घृणा खड़ी दिखाई पड़ेगी। जैसे ही उसे जागरूकता में और स्मृति में थोड़ा फर्क है। और जिन्हें वृत्तियों से दिखाई पड़ा, यह क्रोध है, अगर उसने गौर से देखा, तो फौरन पीछे जाना है, उन्हें समत्व, समबुद्धि, दो के द्वंद्व के बीच ठहर जाना। पश्चात्ताप, क्षमा भी खड़ी हुई दिखाई पड़ जाएगी। ट्रांसपैरेंट हो एक दो शब्द बीच के सूत्र के लिए और कह दूं। वे जो भावना | जाएंगे भाव। में जीते हैं; न तो वासना में जीते, न विचार में जीते, भावना में जीते । भाव बहुत ट्रांसपैरेंट हैं, बहुत पारदर्शी हैं, कांच की तरह हैं। 321 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < आसक्ति का सम्मोहन - वासनाएं पत्थर की तरह हैं, नान-ट्रांसपैरेंट हैं, उनके आर-पार कुछ | उससे भी कहते हैं कि नाव छोड़ो, तो हम एक ही गंगा में पहुंच नहीं दिखाई पड़ता। वृत्तियां बहुत ठोस हैं। भाव बहुत तरल, भाव जाएंगे। तुम जो ठीक अपोजिट, विपरीत खड़े हो। उस तरफ घाट बहुत झीने हैं, उनके आर-पार दिखाई पड़ सकता है। वृत्तियों के बनाया तुमने। ठीक है। उस तरफ के उतरने वालों के लिए वही आर-पार कुछ दिखाई नहीं पड़ता। वृत्तियों के तो, दो वृत्तियों के | उपयोगी होगा। इस तरफ वाले उस तरफ के घाट से कैसे उतरेंगे? बीच में आप खड़े हों, तो द्वार मिलेगा। दो पत्थर हैं वे। लेकिन भाव | और उस तरफ के लोग इस तरफ के घाट से कैसे उतरेंगे? में अगर आप सजग हो जाएं, तो भाव में से ही आप को पार दिखाई तो महावीर कहते हैं, कहीं से भी घाट हो, गंगा में, सत्य की गंगा पड़ने लगेगा। भाव कांच की तरह झीने हैं, दिखाई पड़ सकता है में, अस्तित्व की गंगा में उतर जाएं। तो कहते हैं, सभी ठीक हैं। उनके पार; पारदर्शी हैं। एक ही बात को महावीर गलत कहते हैं। वे कहते हैं, जब भी कोई विचार के प्रति सजगता, भाव के प्रति स्मृति, वासना के प्रति घाट वाला कहता है कि बस, यही घाट है, तब गलत कहता है। समत्व। परिणाम एक होगा। ये भेद, तीन तरह के लोग हैं पृथ्वी बस, एक बात गलत है। जब कोई कहता है, यही घाट ठीक है, पर, इसलिए हैं। परिणाम एक होगा। और सब घाटों को गलत कहता है, तभी गलत कहता है। बाकी निर्विचार हो जाएं, कि निर्भाव, कि निःसंकल्प। जो बचेगा, वह | कोई गलती नहीं है। घाट बिलकुल ठीक है, दावा गलत है। उस निराकार है। आप एक ही गंगा में कूदेंगे, लेकिन घाट अलग-अलग घाट से भी उतर सकते हैं। लेकिन बस दावा यह गलत है कि इसी होंगे। घाट आपका अपना होगा। जब तक घाट पर खड़े हैं, तब घाट से उतर सकते हैं। महावीर कहते हैं, इतना ही कहो, इससे भी तक फर्क होगा। गंगा में कूद गए, फिर कोई फर्क नहीं होगा। फिर उतर सकते हैं। यह मत कहो, इसी से उतर सकते हैं। बस इसी में आप क्या फर्क करेंगे कि मैं अलग घाट से कदा था, इसलिए मेरी हिंसा आ जाएगी। दूसरे घाटों को इनकार हो जाएगा। गंगा अलग है! कि तुम अलग घाट से कूदे थे, इसलिए तुम्हारी गंगा | और सब घाट बड़े छोटे हैं, गंगा बहुत बड़ी है। पूरी गंगा पर अलग है! घाट तो उसी क्षण छूट गया, जब आप गंगा में कूदे। घाट बनाना भी मुश्किल है। हालांकि सभी धर्म कोशिश करते हैं लेकिन घाट के फर्क हैं। अगर हम ठीक से समझें, तो सारी दुनिया कि पूरी गंगा पर मेरा ही घाट बन जाए! बन नहीं पाता। जब तक के धर्म, घाट के फर्क हैं। घाट बनता है, तब तक अक्सर गंगा अपनी धारा बदल देती है। जैन बहुत ठीक शब्द उपयोग करते हैं अपने उपदेष्टाओं के कभी बन नहीं पाता है। लिए, जिन्होंने ज्ञान दिया। उनको वे कहते हैं, तीर्थंकर। तीर्थंकर का ___ गंगा बड़ी है। अस्तित्व की गंगा विराट है। हम एक छोटे-से अर्थ होता है, घाट बनाने वाला, तीर्थ बनाने वाला। उसका इतना कोने में घाट बनाने में सफल हो जाएं, वह भी बहुत है। उससे भी ही मतलब होता है कि इस आदमी ने एक घाट और बनाया, जिससे | | हम छलांग लगा सकें, वह भी बहुत है। लोग कूद सकते हैं। दावा गंगा का नहीं है, दावा सिर्फ घाट का है। | तीन प्रकार के घाट मल रूप से भिन्न हैं—भाव वाला. विचार इसलिए दावा बिलकल ठीक है। दावा यह नहीं है कि इस आदमी वाला, वासना वाला। कष्ण ने जो यह सत्र कहा है. यह वासना ने गंगा बनाई। दावा इतना ही है कि इस आदमी ने एक घाट और वाले के लिए है। समत्व के घाट से वह योगारूढ़ हो सकता है। बनाया, जहां से नाव छोड़ी जा सकती है। और भी घाट हैं, उनका कोई इनकार नहीं है। इसलिए महावीर ने किसी घाट का इनकार नहीं किया। कहा, यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते । और भी घाट हैं। उनसे भी कोई जा सकता है। इसलिए महावीर को सर्वसंकल्प संन्यासी योगारूढस्तदोच्यते ।। ४ ।। बहुत कम समझ सके लोग, क्योंकि महावीर किसी को गलत ही न और जिस काल में न तो इंद्रियों के भोगों में आसक्त होता कहेंगे। वे कहेंगे कि वह भी ठीक है; वह भी एक घाट है। है तथा न कमों में ही आसक्त होता है, उस काल में ठीक विपरीत कहने वाले को, जो कहता है कि मैं तुम्हारे तो सर्वसंकल्पों का त्यागी पुरुष योगारूढ़ कहा जाता है। बिलकुल विपरीत खड़ा हूं; तुम इस तरफ घाट बनाए हो, मैंने उस तरफ घाट बनाया है, हम दोनों एक कैसे हो सकते हैं? महावीर 33 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 न इंद्रियों में आसक्ति है जिसकी, न कर्मों में; ऐसे क्षण UI में, जहां ये दो आसक्तियां शेष नहीं हैं—ऐसे क्षण में ऐसा पुरुष योगारूढ़ कहा जाता है। दो बातों को थोड़ा-सा समझ लेना उपयोगी है, इंद्रियों में आसक्ति नहीं है जिसकी और न कर्मों में। दोनों संयुक्त हैं। इंद्रियों में आसक्ति हो, तो ही कर्मों में आसक्ति होती है। इंद्रियों में आसक्ति न हो, तो कर्मों में आसक्ति का कोई उपाय नहीं है। इसलिए कृष्ण जब भी कुछ कहते हैं, तो उसमें एक वैज्ञानिक प्रक्रिया की सीढ़ी होती है। पहले कहते हैं, इंद्रियों में आसक्ति नहीं जिसकी। इंद्रियों में आसक्ति नहीं, तो कर्म में आसक्ति हो ही नहीं सकती। कर्म की सारी आसक्ति, इंद्रिय की आसक्ति का फेलाव है। आप अगर धन इकट्ठा कर रहे हैं और धन को इकट्ठा करने में जो कर्म करना पड़ता है, उसमें बड़े आसक्त हैं, तो ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है जो सिर्फ कर्म करने के लिए आसक्त हो। धन इंद्रियों के लिए जो दे सकता है, उसका आश्वासन ही आसक्ति का कारण है। धन इंद्रियों के लिए जो दे सकता है, उसका आश्वासन ही कर्म का आकर्षण है। अगर कल पता चल जाए कि धन अब कछ भी नहीं खरीद सकता, तो सारा आकर्षण क्षीण हो जाएगा। तब दुकान पर बैठकर आप दो पैसे ज्यादा छीन लें ग्राहक से. इसकी उत्सकता में न रह जाएंगे। कभी भी न थे। दो पैसे छीनने को कोई भी उत्सुक न था। दो पैसे में कुछ मूल्य है! मूल्य क्या है? मूल्य इंद्रियों की तृप्ति है। धन का ठीक-ठीक जो मूल्य है, वैल्यू है, वह इकॉनामिक नहीं है, वह आर्थिक नहीं है। धन की गहरी मूल्यवत्ता मानसिक है। धन का वास्तविक मूल्य अर्थशास्त्री तय नहीं करते राजधानियों में बैठकर। धन का वास्तविक मूल्य मन की वासनाएं तय करती हैं, इंद्रियां तय करती हैं। इसलिए महावीर जैसा व्यक्ति अगर धन नहीं साथ रखता, तो उसका कारण धन का त्याग नहीं है। उसका गहरा कारण इंद्रियों के लिए तृप्ति के आयोजन की जो आकांक्षा है, उसका विसर्जन है। फिर धन को रखने का कोई कारण नहीं रह जाता। फिर वह सिर्फ बोझ हो जाएगा। उसको ढोने की नासमझी महावीर नहीं करेंगे। धन के लिए आदमी इतना आकल-व्याकल श्रम करता है। इतना दौड़ता है। वह इंद्रियों के लिए दौड़ रहा है। धन में भरोसा है, विश्वास है। धन खरीद सकता है सब कुछ। धन सेक्स खरीद सकता है। धन भोजन खरीद सकता है। धन वस्त्र खरीद सकता है। धन मकान खरीद सकता है। धन सुविधा खरीद सकता है। धन जो खरीद सकता है, उसमें ही धन का मूल्य है। धन सब कुछ खरीद सकता है। सिर्फ सुख को छोड़कर, धन सब कुछ खरीद सकता है। - लेकिन अगर यह आपको पता चल जाए कि धन सुख नहीं खरीद सकता, तो धन की दौड़ बंद हो जाए। इसलिए धन आश्वासन देता है कि मैं सुख खरीद सकता हूं। मैं ही सुख खरीद सकता हूं! खरीदता है दुख, लेकिन आश्वासन सुख का है। - सभी नर्कों के द्वार पर जो तख्ती लगी है, वह स्वर्गों की लगी है। | इसलिए जरा सम्हलकर भीतर प्रवेश करना। तख्ती तो स्वर्ग की लगी | है। नर्क वाले लोग इतने तो होशियार हैं ही कि बाहर जो दरवाजे पर नेम-प्लेट लगाएं, वह स्वर्ग की लगाएं। नहीं तो कौन प्रवेश करेगा? लिखा हो साफ कि यहां नर्क है, कोई प्रवेश नहीं करेगा। तो आप इस भ्रम में मत रहना कि नर्क के द्वार पर दो हड्डियों का क्रास बनाकर और एक मुर्दे का चेहरा लगा होगा और लिखा होगा, डेंजर, इनफिनिट वोल्टेज! ऐसा कुछ नहीं लिखा होगा। लिखा है, स्वर्ग। आओ, कल्पवृक्ष यहीं है! तभी तो कोई नर्क के द्वार में प्रवेश करेगा। द्वार तो सब स्वर्ग के ही प्रवेश करते हैं लोग, पहुंच जाते हैं नर्क में, यह बात दूसरी है। द्वार तो सभी स्वर्ग के मालम होते हैं। इंद्रियां तृप्ति चाहती हैं। धन तृप्ति को दिलाने का आश्वासन दिलाता है। जीवन कर्म में रत हो जाता है। कर्म की आसक्ति, मल में इंद्रियों की ही तृप्ति के लिए दौड़ है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, इंद्रियों में जिसकी आसक्ति न रही। किसकी न रहेगी इंद्रियों में आसक्ति? हम तो जानते ही नहीं कि इंद्रियों के जोड़ के अलावा भी हममें कुछ और है। है कुछ और? अगर आंख फूट जाए मेरी-आपकी नहीं कह रहा–अगर मेरी आंख फूट जाए, मेरे कान टूट जाएं, मेरे हाथ कट जाएं, मेरी जीभ न हो, मेरी नाक न हो, तो मैं क्या हूं? कुछ भी न रहा। इन पांच इंद्रियों के जोड़ से अगर मेरी एक-एक इंद्रिय निकाल ली जाए, तो पीछे क्या बचेगा? कुछ भी बचता हुआ मालूम नहीं पड़ता। आदमी की आंख चली जाती है, तो आधा आदमी चला जाता है। कान चले जाते हैं, तो और गया। हाथ चले जाते हैं, तो और गया। अगर हमारी पांचों इंद्रियां छीनी जा सकें और हमें किसी तरह जिंदा रखा जा सके, तो हममें क्या बचेगा? कछ क्योंकि हमारा सारा अनुभव इंद्रियों के अनुभव का जोड़ है। अगर हमें लगता है कि मैं कुछ हूं, तो वह मेरी इंद्रियों का जोड़ है। तो जिसको ऐसा लगता है कि मैं इंद्रियों का जोड़ हूं, वह पुरुष Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आसक्ति का सम्मोहन - कहीं इंद्रियों की आसक्ति से मुक्त हो सकेगा? अगर मैं इंद्रियों का सिर्फ पता चलता है कि शरीर को भूख लगी है। लेकिन इतनी लंबी जोड़ हूं, तो इंद्रियों की आसक्ति से मुक्त होना तो सिर्फ आत्मघात | | प्रक्रिया में आप नहीं जाते। सीधी छलांग लगा देते हैं कि मुझे भूख है; और कुछ भी नहीं। मैं मर जाऊंगा, और क्या होगा! लगी है। भूख शरीर को लगती है, आप सिर्फ कांशस होते हैं कि __ लेकिन कृष्ण तो कहते हैं कि इंद्रियों की आसक्ति से जो पार हो | शरीर को भूख लगी है। आप सिर्फ होश से भरते हैं कि शरीर को गया, वह योगारूढ़ हो गया। वे कहते हैं, मर नहीं जाएगा, बल्कि | भूख लगी है। लेकिन चूंकि शरीर को आपने माना मैं, इसलिए आप वही पूरे अर्थों में जीवन को पाएगा। कहते हैं कि मुझे भूख लगी है। पर हमें उस जीवन का कोई भी पता नहीं है। हमें तो इंद्रियों का अब जब भूख लगे, तो आप गौर से देखें कि आपकी चेतना, जोड़ ही हमारा जीवन है। अगर हमारी इंद्रियों के अनुभव एक-एक जिसे पता चलता है कि भूख लगी है और आपका शरीर जहां भूख करके हटा दिए जाएं, तो पीछे जीरो, शून्य बचेगा, कुछ भी नहीं लगती है, ये एक चीजें नहीं हैं; दो चीजें हैं। जब पैर में चोट लगती बचेगा। हाथ कुछ भी नहीं लगेगा। सब जोड़ कट जाएगा। तो हम है, तो आपको चोट नहीं लगती। आपको पता चलता है कि शरीर कैसे इंद्रियों से, इंद्रियों की आसक्ति से मुक्त हो जाएं? इंद्रियों की को चोट लगी है। लेकिन भाषा ने बड़ी भ्रांतियां खड़ी कर दी हैं। आसक्ति से मुक्त होने के लिए पहला सूत्र खयाल में रखें, तभी भाषा में संक्षिप्त, हम कहते हैं, मुझे चोट लगी है। अगर सिर्फ भाषा हो सकेंगे। की भल हो. तब तो ठीक है। लेकिन गहरे में चेतना की भल हो जब कोई इंद्रिय मांग करे, जब कोई इंद्रिय चुनाव करे, जब कोई जाती है। इंद्रिय भोग करे, जब कोई इंद्रिय तृप्ति के लिए आतुर होकर दौड़े, जब आप जवान होते हैं, तो कहते हैं, मैं जवान हो गया। जब तब आपको कुछ करना पड़ेगा इस सत्य को पहचानने के लिए कि आप बूढ़े होते हैं, तो कहते हैं, मैं बूढ़ा हो गया। वही भूल है। वह मैं इंद्रिय नहीं हूं। जो भूख वाली भूल है, वह फैलती चली जाती है। आप जरा भी जब आप भोजन करते हैं, तो आप भोजन की इंद्रिय ही हो जाते बूढ़े नहीं हुए। आंख बंद करके पता लगाएं कि चेतना बूढ़ी हो गई? हैं। उस समय थोड़ा स्मरण रखना जरूरी है, सच में मैं भोजन कर चेतना पर कहीं भी बुढ़ापे की झुर्रियां न दिखाई पड़ेंगी। और चेतना रहा हूं? भोजन करते वक्त चौंककर एक बार देखना जरूरी है, मैं | पर कहीं भी बुढ़ापे का कोई झुकाव नहीं आया होगा। चेतना वैसी भोजन कर रहा हूं? कहीं भी भीतर खोजें, मैं भोजन कर रहा हूं? | | की वैसी है, जैसे बच्चे में थी। जन्म के वक्त जितनी ताजी थी, मरते ___ तो आपको एक फर्क दिखाई पड़ेगा। आप भोजन कर ही नहीं रहे - वक्त भी उतनी ही ताजी होती है। हैं; आप तो भोजन से बहुत दूर हैं। शरीर भोजन कर रहा है। भोजन चेतना बासी होती ही नहीं। लेकिन शरीर बासा होता चला जाता आपको छूता भी नहीं कहीं। आपकी कांशसनेस को, आपकी चेतना | है। शरीर जीर्ण-जर्जर होता चला जाता है। और हम चौबीस घंटे को कहीं स्पर्श भी नहीं करता है। कर भी नहीं सकता है। की पुरानी भ्रांति को दोहराए चले जाते हैं कि मैं शरीर हूं, इसलिए चेतना को कोई पदार्थ कैसे स्पर्श करेगा! लेकिन चेतना चाहे, आदमी रोता है कि मैं बूढ़ा हो गया। तो पदार्थ के प्रति आसक्त हो सकती है। पदार्थ स्पर्श नहीं करता; चेतना कभी बूढ़ी नहीं होती। और इसीलिए, अगर आपकी लेकिन चेतना चाहे, तो आकर्षित हो सकती है। चेतना चाहे, तो आंख बंद रखी जाएं, और आपको आपके शरीर का पता न चलने पदार्थ के साथ अपने को बंधन में अनुभव कर सकती है, बंधा हुआ दिया जाए, और सालभर बीत जाए, दस साल बीत जाएं; आपको मान सकती है। भोजन दे दिया जाए, लेकिन कभी दर्पण न देखने दिया जाए, तो जब आप भोजन करते हैं, तो कहते हैं, मैं भोजन कर रहा हूं। | क्या दस साल बाद आप सिर्फ भीतर चेतना के अनुभव से कह भूल जरा और गहरी है; जब आपको भूख लगती है, तभी से शुरू सकेंगे कि मैं दस साल बूढ़ा हो गया? आप न कह सकेंगे। आपको हो जाती है। तब आप कहते हैं, मुझे भूख लगी है। थोड़ा गौर से | पता ही नहीं चलेगा। देखें, आपको कभी भी भूख लगी है? आप कहेंगे, निश्चित ही, । इसीलिए कई दफे बड़ी भूलें हो जाती हैं। कई दफे भूलें हो जाती रोज लगती है। फिर भी मैं आपसे कहता हूं, आपको भूख कभी भी | । हैं। कई दफे किन्हीं गहरे क्षणों में बूढ़े भी बच्चों के जैसा व्यवहार नहीं लगी; भ्रांति हुई है। भूख तो शरीर को ही लगती है। आपको कर जाते हैं। वह इसीलिए कर जाते हैं, और कोई कारण नहीं है। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 भीतर चेतना तो कभी बूढ़ी होती नहीं, कपर की खोल ही बूढ़ी होती | इसका यह मतलब है कि फिर भूख लगेगी, तो आप भोजन नहीं है। इसलिए कभी-कभी बूढ़े भी जवानों जैसा व्यवहार कर जाते हैं, | | करेंगे? नहीं। उसका कारण वही है। भीतर चेतना कभी बूढ़ी नहीं होती। हां, इसका यह मतलब जरूर है कि फिर भूख लगेगी, तो ही और वैज्ञानिक हार्मोन्स खोज ही लिए हैं. आज नहीं कल वे| आप भोजन करेंगे। और इसका यह मतलब जरूर है कि जब भूख इंजेक्शन तैयार कर ही लेंगे कि एक बढ़े आदमी को इंजेक्शन दे | | समाप्त हो जाएगी, तब आप तत्काल भोजन बंद कर देंगे। इसका दिया, उसकी दस साल उम्र कम हो गई! एक इंजेक्शन दिया, यह मतलब भी जरूर है कि तब आप ज्यादा भोजन न कर सकेंगे। उसकी बीस साल उम्र कम हो गई! शरीर के हार्मोन बदले जाएं, तो और इसका यह मतलब भी जरूर है कि तब आप गलत भोजन भी साठ साल का आदमी अपने को तीस साल का अनुभव जिस दिन | न कर सकेंगे। करने लगेगा, उस दिन बड़ी मुश्किल होगी उसको। शरीर तो साठ गलत, और ज्यादा, और व्यर्थ का भोजन जो हम लादे चले जाते साल का ही मालूम पड़ेगा। लेकिन हार्मोन के बदल जाने से उसकी | हैं, वह हमारी इंद्रियों की आसक्ति से पैदा होता है, शरीर की भूख आइडेंटिटी फिर बदलेगी। वह तीस साल जैसा व्यवहार करना शुरू से नहीं। मांसाहार किए चले जाते हैं, शराब पीए चले जाते हैं, कुछ कर देगा। भी खाए चले जाते हैं, उसका कारण भूख नहीं है। उसका कारण चेतना की कोई उम्र नहीं है। शरीर की जैसी उम्र हो जाए, चेतना | | इंद्रियों की आसक्ति है। अपने को वैसा ही मान लेती है। चेतना को सिर्फ होश है। और होश हां, इंद्रियों की आसक्ति चली जाए, तो भूख तो लगेगी; और मैं का हम दुरुपयोग कर रहे हैं। होश से हम दो काम कर सकते हैं। आपसे कहूं कि और भी शुद्धतर भूख की प्रतीति होगी। और भी होश से हम चाहें तो शरीर के साथ अपने को एक मान सकते हैं; | शुद्धतर! लेकिन तब आप भोजन तभी कर सकेंगे, जब भूख यह अज्ञान है। होश से हम चाहें तो शरीर से अपने को भिन्न मान लगेगी। अभी तो जब भोजन दिख जाए, तभी भूख लग जाती है। सकते हैं; यही ज्ञान है। भोजन न भी दिखे, तो मन में ही भोजन की कल्पना चलती है और इंद्रियों की आसक्ति से वही मुक्त होगा, जो शरीर से अपने को | भूख लग जाती है। अभी तो हमारी अधिक भूख फैलेसियस है, भिन्न मानने में समर्थ हो जाए। धोखे की है। तो उपाय करें, जिनसे आपके और शरीर के भिन्नता का बोध | जो लोग शरीरशास्त्र का अध्ययन करते हैं, वे कहते हैं कि तीखा और प्रखर होता चला जाए। जब भूख लगे, तो कहें जोर से | | अधिक लोग, भूख नहीं लगती है, तब खा लेते हैं; और उसी की कि मेरे शरीर को भूख लगी है। और जब भोजन से तृप्ति हो जाए, | वजह से हजारों बीमारियां पैदा होती हैं। समय से खा लेते हैं, कि तो कहें जोर से कि मेरा शरीर तृप्त हुआ। जब नींद आए, तो कहें | | बस हो गया वक्त भोजन का, तो भोजन कर लेते हैं। फिर स्वाद से कि मेरे शरीर को नींद आती है। और जब बीमार पड़ जाएं, तो कहें| | खा लेते हैं, क्योंकि अच्छा लग रहा है, स्वादिष्ट लग रहा है, तो कि मेरा शरीर बीमार पड़ा। इसे जोर से कहें, ताकि आप भी इसे | | और डाले चले जाते हैं। और कभी इस बात की फिक्र नहीं करते गौर से सुन सकें और इस अनुभव को गहरा करते चले जाएं। ज्यादा | | कि भूख का क्या हाल है! देर नहीं होगी कि आपको यह प्रतीति सघन होने लगेगी। भूख से कोई संबंध हमारे भोजन का नहीं रह गया है। भोजन ये सारी प्रतीतियां सजेशंस हैं हमारे। हम कहते हैं, मैं शरीर हूं एक मानसिक विलास बन गया है। भूख एक शारीरिक जरूरत है, बार-बार, तो यह सजेशन बन जाता है, यह मंत्र बन जाता है। हम भूख एक आवश्यकता है। भोजन एक वासना बन गई है। हमने हिप्नोटाइज्ड हो जाते हैं। मानने लगते हैं, शरीर हो गए। कहें जोर भूख के अतिरिक्त भी भोजन में रस पैदा कर लिए हैं, वे जो इंद्रियों से, तो हिप्नोटिज्म टूट जाएगा, सम्मोहन टूट जाएगा; डिहिप्नोटाइज्ड की आसक्ति से आते हैं। हो जाएंगे। और जान पाएंगे कि मैं शरीर नहीं हूं। । सभी तरफ ऐसा हुआ है। कामवासना के संबंध में भी ऐसा हुआ जिस दिन जान पाएंगे, मैं शरीर नहीं हूं, उसी दिन इंद्रियों की है। पशु भी हमसे ज्यादा संयत व्यवहार करते हैं कामवासना में। आसक्ति विदा हो जाएगी। और जिस दिन इंद्रियों की आसक्ति पीरियाडिकल है। एक अवधि होती है, तब पशु कामातुर होता है। विदा होती है, उसी दिन कर्म में कोई आसक्ति नहीं रह जाती। क्या लेकिन मनुष्य अकेला पशु है पृथ्वी पर, जो चौबीस घंटे, सालभर 36 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसक्ति का सम्मोहन → कामातुर होता है। चौबीस घंटे! पशु जब कामातुर होता है, तब की धारा मर जाएगी। सेक्स जो है, बायोलाजिकल है। आपकी मादा नर को या नर मादा को खोजता है। मनुष्य अलग है। उसको आवश्यकता नहीं है उतनी, जितनी प्रकृति आपसे किसी को पैदा नारी दिख जाए, पुरुष दिख जाए, कामातुर हो जाता है। उलटा है। करवा लेगी, इसके पहले कि आप मरें। वह प्रकृति की जरूरत है। कामातुरता पहले आ जाती है पशु में, तब खोज शुरू होती है। और जो व्यक्ति यह जान लेता है कि मैं इंद्रियों के पार हूं, वह मनुष्य को पहले आब्जेक्ट दिखाई पड़ जाए, विषय दिखाई पड़ यह भी जान लेता है कि मैं प्रकृति के पार हूं। वह प्रकृति के चंगुल जाए, और कामातुरता पैदा हो जाती है। और जाल के बाहर हो जाता है। __ मेरे एक मित्र बड़े शिकारी हैं, बहुत सिंहों और बहुत शेरों का तो जैसे भोजन तो जारी रहेगा, लेकिन काम तिरोहित हो जाएगा। शिकार किया है। उनके घर मैं मेहमान था। उनसे मैं पूछने लगा कि यह मैंने फर्क करने को कहा कि हमारी आवश्यकताओं में भी भेद कभी आपने किसी शेर को या सिंह को भोजन कर लेने के बाद | हैं। जिस व्यक्ति की इंद्रिय-आसक्ति मिट गई, उसकी भूख शुद्ध भोजन में उत्सुक पाया? उन्होंने कहा, कभी नहीं। भोजन पर हम | होकर सीमित, स्वाभाविक हो जाएगी। उसका काम शुद्ध होकर बैठे थे। उनके भोजन को देखकर ही मैंने उनसे यह पूछा था। मित्र | राम की ओर गतिमान हो जाएगा। उसकी कामवासना विलीन हो के भोजन को देखकर! वे खाए ही चले जा रहे थे। उनको देखकर जाएगी। क्योंकि वह व्यक्ति की जरूरत ही नहीं है, वह प्रकृति की ही मैंने पूछा था। उनको फिर भी खयाल नहीं आया। | जरूरत है। आप मर जाएं, इसके पहले प्रकृति आपसे इतना काम उन्होंने कहा, आप यह क्यों पूछते हैं? मैंने कहा, मैं इसलिए | | ले लेना चाहती है कि अपनी जगह किसी को छोड़ जाएं। बस, पूछता हूं कि मैं देख रहा हूं कि भोजन की जरूरत बहुत देर पहले | | उससे आपका कोई प्रयोजन नहीं है। वह आपकी जरूरत नहीं है पूरी हो गई है। वैसे भी आपके शरीर में इतना इकट्ठा है कि महीने | गहरे में। दो महीने भोजन न करें, तो कोई भूख नहीं लगेगी। लेकिन आप लेकिन इंद्रिय से भरा हुआ मन उलटा सोचेगा। वह सोचेगा, एक खाए चले जा रहे हैं! इसलिए मैं आपसे पूछता हूं कि किसी शेर को | बार भूखा रह जाए, राजी हो जाएगा, लेकिन कामवासना से रुकने आपने भोजन करने के बाद उत्सुक देखा? उन्होंने कहा कि नहीं | | को राजी नहीं रहेगा। भूख छोड़ देगा, धन छोड़ देगा, स्वास्थ्य छोड़ देखा। भोजन करने के बाद तो शेर के पास बकरी भी खड़ी रहे, तो | | देगा, लेकिन कामवासना के पीछे पड़ा रहेगा। वे विकृत हो गई वह देखता भी नहीं। लेकिन आदमी के पास मिठाई रखी रहे, तो न | | इंद्रियां हैं। भी देखे फिर भी देखता रहता है। न देखे फिर भी देखता रहता है! __ जैसे ही इंद्रियां प्रकृतिस्थ होंगी, सुकृत होंगी, सहज होंगी, वैसे इंद्रियासक्ति शरीर को विकृत व्यवस्था दे जाती है। ऐसा व्यक्ति, | ही जो व्यक्ति की आवश्यकता है, वह सरल हो जाएगी। और जो जिसकी इंद्रिय की आसक्ति नहीं है, उसको भी भूख लगेगी। व्यक्ति की आवश्यकता नहीं है, वह तिरोहित हो जाएगी। लेकिन भूख शुद्ध होगी। और भूख वहीं तक होगी, जहां तक ऐसे व्यक्ति के कर्म का क्या होगा? आवश्यकता है। और आवश्यकताएं बहुत कम हैं। वासनाएं अनंत कर्म के प्रति उसकी आसक्ति खो जाएगी, लेकिन कर्म बंद नहीं हैं; आवश्यकताएं बड़ी सीमित हैं। स्वाद का कोई अंत नहीं। भोजन | होगा। और जब कर्म के प्रति आसक्ति खोती है, तो जो गलत कर्म तो बहुत थोड़ा काफी है। हैं, वे विदा हो जाते हैं; और जो सही कर्म हैं, वे और भी बड़ी ऊर्जा और जीवन की समस्त दिशाओं में ऐसा ही परिणाम होगा। सब से सक्रिय हो जाते हैं। धीरे-धीरे व्यक्ति के जीवन में शुभ कर्म रह तरफ शुद्धतम आवश्यकताएं रह जाएंगी। कुछ आवश्यकताएं ऐसी | जाते हैं, अशुभ कर्म तिरोहित हो जाते हैं। हैं, जो व्यक्ति की आवश्यकताएं ही नहीं हैं। उनसे व्यक्ति मुक्त हो आज इतना ही। जाएगा। जैसे सेक्स। यह बहुत मजे की बात है कि भोजन आपके लेकिन पांच मिनट रुकेंगे। पांच मिनट और। फिर हम रात बात शरीर की आवश्यकता है, लेकिन आपने कभी सोचा न होगा कि करेंगे आगे सूत्रों पर। पांच मिनट संन्यासी कीर्तन करेंगे। आपमें से कामवासना आपकी आवश्यकता नहीं है। कामवासना समाज की भी जो सम्मिलित होना चाहें, वे सम्मिलित हो सकते हैं। जो बैठे आवश्यकता है। अगर आप भोजन न करें, तो आप मर जाएंगे। और हैं, वे भी इतना तो साथ दें कि तालियां बजाएं, उनका गीत दोहराएं। अगर आप में कामवासना न रहे, तो संतति मर जाएगी, आगे समाज पांच मिनट उनके भजन का प्रसाद ले लें, फिर हम विदा हो जाएंगे। 37 Page #64 --------------------------------------------------------------------------  Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 6 तीसरा प्रवचन मालकियत की घोषणा Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 गीता दर्शन भाग-3 उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत् । और चाहे वही मनुष्य, ठीक वही मनुष्य, जो अंतिम नर्क को छूने आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।। ५।। में समर्थ है-चाहे तो मोक्ष के अंतिम सोपान तक भी यात्रा कर और यह योगारूढ़ता कल्याण में हेतु कही है। इसलिए सकता है। मनुष्य को चाहिए कि अपने द्वारा आपका संसार समुद्र से । ये दोनों दिशाएं खली हैं। और इसीलिए मनुष्य अपना मित्र भी उद्धार करे और अपने आत्मा को अधोगति में न पहुंचावे।। हो सकता है और अपना शत्रु भी। हम में से बहुत कम लोग हैं जो क्योंकि यह जीवात्मा आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपने मित्र होते हैं, अधिक तो अपने शत्रु ही सिद्ध होते हैं। क्योंकि अपना शत्रु है अर्थात और कोई दूसरा शत्रु या मित्र नहीं है। हम जो भी करते हैं, उससे अपना ही आत्मघात होता है, और कुछ भी नहीं। किसे हम कहें कि अपना मित्र है? और किसे हम कहें कि अपना जो ग परम मंगल है। परम मंगल इस अर्थ में कि केवल | योग के ही माध्यम से जीवन के सत्य की और जीवन । एक छोटी-सी परिभाषा निर्मित की जा सकती है। हम ऐसा कुछ के आनंद की उपलब्धि है। परम मंगल इस अर्थ में भी भी करते हों, जिससे दुख फलित होता है, तो हम अपने मित्र नहीं कि योग की दिशा में गति करता व्यक्ति अपना मित्र बन जाता है। | कहे जा सकते। स्वयं के लिए दुख के बीज बोने वाला व्यक्ति और योग के विपरीत दिशा में गति करने वाला व्यक्ति अपना ही | अपना शत्रु है। और हम सब स्वयं के लिए दुख के बीज बोते हैं। शत्रु सिद्ध होता है। निश्चित ही, बीज बोने में और फसल काटने में बहुतं वक्त लग कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से, उचित है, समझदारी है, बुद्धिमत्ता है| जाता है। इसलिए हमें याद भी नहीं रहता कि हम अपने ही बीजों के इसी में कि व्यक्ति अपनी आत्मा का अधोगमन न करे, ऊर्ध्वगमन साथ की गई मेहनत की फसल काट रहे हैं। अक्सर फासला इतना करे। | हो जाता है कि हम सोचते हैं, बीज तो हमने बोए थे अमृत के, न और ये दोनों बातें संभव हैं। इस बात को ठीक से समझ लेना मालूम कैसा दुर्भाग्य कि फल जहर के और विष के उपलब्ध हुए हैं। जरूरी है। लेकिन इस जगत में जो हम बोते हैं, उसके अतिरिक्त हमें कुछ व्यक्ति की आत्मा स्वतंत्र है नीचे यात्रा करने के लिए भी, ऊपर भी न मिलता है, न मिलने का कोई उपाय है। यात्रा करने के लिए भी। स्वतंत्रता में सदा ही खतरा भी है। स्वतंत्रता ___ हम वही पाते हैं, जो हम अपने को निर्मित करते हैं। हम वही का अर्थ ही होता है, अपने अहित की भी स्वतंत्रता। अगर कोई पाते हैं, जिसकी हम तैयारी करते हैं। हम वहीं पहंचते हैं, जहां की आपसे कहे कि आप सिर्फ वही करने में स्वतंत्र हैं. जो आपके हित हम यात्रा करते हैं। हम वहां नहीं पहुंच सकते. जहां की हमने यात्रा में है; वह करने में आप स्वतंत्र नहीं हैं, जो आपके हित में नहीं ही न की हो। यद्यपि हो सकता है, यात्रा करते समय हमने अपने है तो आपकी स्वतंत्रता का कोई भी अर्थ नहीं होगा। कोई अगर मन में कल्पना की मंजिल कोई और बनाई हो। रास्तों को इससे कोई मुझसे कहे कि मैं स्वतंत्र हूं सिर्फ धर्म करने में और अधर्म करने के प्रयोजन नहीं है। लिए स्वतंत्र नहीं हूं, तो उस स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं होगा; वह मैं नदी की तरफ जा रहा हूं। मन में सोचता हूं कि नदी की तरफ परतंत्रता का ही एक रूप है। जा रहा हूं। लेकिन अगर बाजार की तरफ चलने वाले रास्ते पर मनुष्य की आत्मा स्वतंत्र है। और जब भी हम कहते हैं, कोई चलूंगा, तो मैं कितना ही सोचूं कि मैं नदी की तरफ जा रहा हूं, मैं स्वतंत्र है, तो दोनों दिशाओं की स्वतंत्रता उपलब्ध हो जाती पहुंचूंगा बाजार। सोचने से नहीं पहुंचता है आदमी; किन रास्तों पर है-बुरा करने की भी, भला करने की भी। दूसरे के साथ बुरा करने चलता है, उनसे पहुंचता है। मंजिलें मन में तय नहीं होतीं, रास्तों की स्वतंत्रता, अपने साथ बुरा करने की स्वतंत्रता बन जाती है। और से तय होती हैं। दूसरे के साथ भला करने की स्वतंत्रता, अपने साथ भला करने की आप कोई भी सपना देखते रहें। अगर आपने बीज नीम के बो स्वतंत्रता बन जाती है। दिए हैं, तो सपने आप शायद ले रहे हों कि कोई स्वादिष्ट मधुर फल मनुष्य चाहे तो अंतिम नर्क के दुख तक यात्रा कर सकता है; लगेंगे। आपके सपनों से फल नहीं निकलते। फल आपके बोए गए Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालकियत की घोषणा > बीजों से निकलते हैं। इसलिए आखिर में जब नीम के कड़वे फल हाथ में आते हैं, शायद आप दुखी होते हैं और पछताते हैं । सोचते हैं, मैंने तो बीज बोए थे अमृत के, फल कड़वे कैसे आए? ध्यान रहे, फल ही कसौटी है, परीक्षा है बीज की । फल ही बताता है कि बीज आपने कैसे बोए थे। आपने कल्पना क्या की थी, उससे बीजों को कोई प्रयोजन नहीं है। हम सभी आनंद लाना चाहते हैं जीवन में, लेकिन आता कहां है आनंद! हम सभी शांति चाहते हैं जीवन में, लेकिन मिलती कहां है शांति ! हम सभी चाहते हैं कि सुख, महासुख बरसे, पर बरसता कभी नहीं है। तो इस संबंध में एक बात इस सूत्र से समझ लेनी जरूरी है कि हमारी चाह से नहीं आते फल; हम जो बोते हैं, उससे आते हैं। हम चाहते कुछ हैं, बोते कुछ हैं। हम बोते जहर हैं और चाहते अमृत हैं! फिर जब फल आते हैं, तो जहर के ही आते हैं, दुख और पीड़ा के ही आते हैं, नर्क ही फलित होता है। हम सब अपने जीवन को देखें, तो खयाल में आ सकता है। जीवनभर चलकर हम सिवाय दुख के गड्ढों के और कहीं भी नहीं पहुंचते मालूम पड़ते हैं। रोज दुख घना होता चला जाता है। रोज रात कटती नहीं, और बड़ी होती चली जाती है। रोज मन पर और संताप के कांटे फैलते चले जाते हैं। फूल आनंद के कहीं खिलते हुए मालूम नहीं पड़ते। पैरों में पत्थर बंध जाते हैं दुख के | पैर नृत्य नहीं कर पाते हैं उस खुशी में, जिस खुशी की हम तलाश में हैं। फिर कहीं न कहीं हम - हम ही — क्योंकि और कोई नहीं है; हम ही कुछ गलत बो लेते हैं । उस गलत बोने में ही हम अपने शत्रु सिद्ध होते हैं। बीज बोते वक्त खयाल रखना, क्या बो रहे हैं। बहुत हैरानी की बात है, एक आदमी क्रोध के बीज बोए, और शांति पाना चाहे! और एक आदमी घृणा के बीज बोए, और प्रेम की फसल काटना चाहे ! और एक आदमी चारों तरफ शत्रुता फैलाए, और चाहे कि सारे लोग उसके मित्र हो जाएं! और एक आदमी सब की तरफ गालियां फेंके, और चाहे कि शुभाशीष सारे आकाश से उसके ऊपर बरसने लगें ! पर आदमी ऐसी ही असंभव चाह करता है, दि इंपासिबल डिजायर ! मैं गाली दूं और दूसरा मुझे आदर दे जाए, ऐसी ही असंभव कामना हमारे मन में बैठी चलती है। मैं दूसरे को घृणा करूं और दूसरे मुझे प्रेम कर जाएं। मैं किसी पर भरोसा न करूं, और सब मुझ पर भरोसा कर लें। मैं सबको धोखा दूं, और मुझे कोई धोखा न दे। मैं 41 सबको दुख पहुंचाऊं, लेकिन मुझे कोई दुख न पहुंचाए। यह असंभव है । जो हम बोएंगे, वह हम पर लौटने लगेगा। और जीवन का सूत्र है कि जो हम फेंकते हैं, वही हम पर वापस लौट आता है। चारों ओर से हमारी ही फेंकी गई ध्वनियां प्रतिध्वनित | होकर हमें मिल जाती हैं। देर लगती है । जाती है ध्वनि; टकराती है बाहर की दिशाओं से वापस लौटती है। वक्त लग जाता है। जब तक लौटती है, तब तक हमें खयाल भी नहीं रह जाता कि हमने जो गाली फेंकी थी, वही वापस लौट रही है। बुद्ध का एक शिष्य मौग्गलायन एक रास्ते से गुजर रहा है। उसके साथ दस-पंद्रह संन्यासी और हैं। जोर से पैर में पत्थर लग जाता है रास्ते पर, खून बहने लगता है। मौग्गलायन आकाश की तरफ हाथ जोड़कर किसी आनंद-भाव में लीन हो जाता है। उसके चारों तरफ वे पंद्रह भिक्षु हैरानी में खड़े रह जाते हैं। मौग्गलायन जब अपने ध्यान से वापस लौटता है, तो वे उससे पूछते हैं, आप क्या कर रहे थे ? पैर में चोट लगी, पत्थर लगा, खून बहा, और आप कुछ ऐसे हाथ जोड़े थे, जैसे किसी को धन्यवाद दे | रहे हों ! मौग्गलायन ने कहा, बस, यह एक ही मेरा विष का बीज और बाकी रह गया था। मारा था किसी को पत्थर कभी, आज उससे छुटकारा हो गया। आज नमस्कार करके धन्यवाद दे दिया है प्रभु को कि अब मेरे कुछ भी बोए हुए बीज न बचे। यह आखिरी फसल समाप्त हो I लेकिन अगर आपको रास्ते पर चलते वक्त पत्थर पैर में लग जाए, तो इसकी बहुत कम संभावना है कि आप ऐसा सोचें कि किसी बोए हुए बीज का फल हो सकता है। ऐसा नहीं सोच पाएंगे। | संभावना यही है कि गली या रास्ते पर पड़े हुए पत्थर को भी आप एक गाली जरूर देंगे। पत्थर को भी और कभी खयाल भी न करेंगे कि पत्थर को दी गई गाली भी फिर बीज बो रहे हैं आप | पत्थर को दी गई गाली भी बीज बनेगी। सवाल यह नहीं है, किसको गाली दी । सवाल यह है कि आपने गाली दी । वह वापस लौटेगी। यह बहुत महत्वपूर्ण नहीं है कि किसको गाली दी । वह गाली वापस लौटेगी। सुना है मैंने कि जीसस के पास एक आदमी आया। गांव का साधारण ग्रामीण किसान है। बैलों को गाली देने में बहुत ही कुशल है अपनी बैलगाड़ी में जोतकर। जीसस निकलते हैं गांव के रास्ते से । वह आदमी अपने बैलों को बेहूदी गालियां दे रहा है। बड़े आंतरिक संबंध बना रहा है गालियों से। जीसस उसे रोकते हैं और कहते हैं कि पागल, तू यह क्या कर रहा है ! तो वह आदमी कहता है कि कोई Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ← गीता दर्शन भाग - 3 > बैल मुझे गाली वापस तो नहीं लौटा देंगे। तो क्या मेरा बिगड़ेगा? वह आदमी ठीक कहता है। हमारा गणित बिलकुल ऐसा ही है। जो आदमी गाली वापस नहीं लौटा सकता, उसे गाली देने में हर्ज क्या है? इसलिए अपने से कमजोर को देखकर हम सब गाली देते हैं। कभी तो हम बेवक्त भी गाली देते हैं, जब कि कोई जरूरत भी न हो । कमजोर दिखा, कि हमारा दिल मचल आता है कि थोड़ा इसको सता लो। जीसस ने कहा कि बैलों को गाली तू दे रहा है, अगर वे गाली लौटा सकते, तो कम खतरा था, क्योंकि निपटारा अभी हो जाता। लेकिन चूंकि वे गाली नहीं लौटा सकते, लेकिन गाली तो लौटेगी। तू महंगे सौदे में पड़ेगा। यह गाली देना छोड़ । जीसस की तरफ उस आदमी ने देखा ; जीसस की आंखों को देखा, उनके आनंद को, उनकी शांति को। उसने उनके पैर छुए और कहा कि मैं कसम लेता हूं कि अब मैं इन बैलों को गाली नहीं दूंगा । जीसस दूसरे गांव चले गए। दो-चार दिन उस आदमी ने बड़ी मेहनत से अपने को रोका। लेकिन कसमों से दुनिया कोई रुकावटें नहीं होतीं। कसम से कहीं कोई रुकावट होती है ? समझ से रुकावट होती है। दो-चार दिन रोका अपने को, जबरदस्ती । खा ली थी कसम ईसा के प्रभाव में। दो-चार दिन में प्रभाव क्षीण हुआ, आदमी अपनी जगह वापस लौट आया। उसने कहा कि छोड़ो भी, ऐसे तो हम मुसीबत में पड़ जाएंगे। बैलगाड़ी चलाना मुश्किल हो गया है। हिसाब बैलगाड़ी चलाने का रखें कि गाली न देने का रखें ! बैलों को जोतें कि अपने को जोते रहें! बैलों को सम्हालें कि खुद सम्हालें! यह तो एक बहुत मुसीबत हो गई। गाली उसने वापस देनी शुरू कर दी। चार दिन जितनी रोकी थी, उतनी एक दिन में निकाल ली। रफा-दफा हुआ। मामला हल्का हुआ। मन उसका शांत हुआ। कोई तीन-चार महीने बाद जीसस उस गांव से वापस निकल रहे हैं । उसको तो पता भी नहीं था कि यह आदमी फिर मिल जाएगा रास्ते पर। वह धुआंधार गालियां दे रहा है बैलों को। जीसस ने खड़े होकर राह के किनारे से कहा, मेरे भाई ! उसने देखा जीसस को, उसने कहा बैलों से, देखो बैल, ये मैंने तुम्हें गालियां बताईं जैसी कि मैं तुम्हें पहले दिया करता था। बैलों से बोला, ये मैंने तुम्हें गालियां दीं जैसी कि मैं तुम्हें पहले दिया करता था। अब मेरे प्यारे बेटो, जरा तेजी से चलो। जीसस ने कहा कि तू बैलों को ही धोखा नहीं दे रहा है, तू मुझे भी धोखा दे रहा है। और तू मुझे धोखा दे, इससे कुछ बहुत हर्जा | नहीं है; तू अपने को धोखा दे रहा है। अंतिम धोखा तो खुद पर ही गिर जाता है। जीसस ने कहा, हो सकता है, मैं दुबारा इस गांव फिर कभी न आऊं । मैं माने लेता हूं कि तू बैलों को गालियां नहीं दे रहा था, सिर्फ बैलों को पुरानी याद दिला रहा था। लेकिन किसलिए | याद दिला रहा था ! तू मुझे धोखा दे कि तू बैलों को धोखा दे, इसका बहुत अर्थ नहीं है। लेकिन तू अपने को ही धोखा दे रहा है। जीवन में जब भी हम कुछ बुरा कर रहे हैं, तो हम किसी दूसरे के साथ कर रहे हैं, यह भ्रांति है आपकी । प्राथमिक रूप से हम | अपने ही साथ कर रहे हैं। क्योंकि अंतिम फल हमें भोगने हैं। वह जो भी हम बो रहे हैं, उसकी फसल हमें काटनी है। इंच-इंच का हिसाब है। इस जगत में कुछ भी बेहिसाब नहीं जाता है। अपने ही शत्रु हो जाते हैं हम, कृष्ण कहते हैं। उस क्षण में हम अपने शत्रु हो जाते हैं, जब हम कुछ ऐसा करते हैं, जिससे हम अपने को ही दुख में डालते हैं; अपने ही दुख में उतरने की सीढ़ियां निर्मित करते हैं। तो ठीक से देख लेना, जो आदमी अपना शत्रु है, वही आदमी अधार्मिक है। अधार्मिक वह है, जो अपना शत्रु है। और जो अपना शत्रु है, वह किसी का मित्र तो कैसे हो सकेगा? जो अपना भी मित्र नहीं, वह किसका मित्र हो सकेगा ! जो अपने लिए ही दुख के | आधार बना रहा है, वह सबके लिए दुख के आधार बना देगा | पहला पाप अपने साथ शत्रुता है। फिर उसका फैलाव होता है। फिर अपने निकटतम लोगों के साथ शत्रुता बनती है, फिर दूरतम लोगों के साथ। फिर जहर फैलता चला जाता है। पता भी नहीं | चलता। जैसे कि झील में कोई, शांत झील में, एक पत्थर फेंक दे। पड़ती है चोट, पत्थर तो नीचे बैठ जाता है क्षणभर में, लेकिन झील की सतह पर उठी हुई लहरें दूर-दूर तक यात्रा पर निकल जाती हैं। पत्थर तो बैठ जाता है कभी का, लेकिन लहरें चलती चली जाती हैं। अनंत तक। ऐसे ही हम जो करते हैं, हम तो करके चुक भी जाते हैं। आपने | एक गाली दे दी। बात खत्म हो गई। फिर आप गीता पढ़ने लगे। लेकिन वह गाली की जो रिपल्स, जो तरंगें पैदा हुईं, वे चल पड़ीं। | वे न मालूम कितने दूर के छोरों को छुएंगी। और जितना अहित उस गाली से होगा, उतने सारे अहित के लिए आप जिम्मेवार हो गए। आप कहेंगे, कितना अहित हो सकता है एक गाली से ? अकल्पनीय अहित हो सकता है। और जितना अहित हो जाएगा इस 42 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालकियत की घोषणा विश्व के तंत्र में, उतने के लिए आप जिम्मेवार हो जाएंगे। और कौन गुजरना। राहगीर दिख जाए अनजान, तो मंगल की कामना करके जिम्मेवार होगा? आपने ही उठाईं वे लहरें। आपने ही पैदा किया वह | उसके पास से गुजरना। सब। आपने ही बोया बीज। अब वह चल पडा। अब वह दर-दर एक भिक्षु ने पूछा, इससे क्या फायदा? तक फैल जाएगा। एक छोटी-सी दी गई गाली से क्या-क्या हो। बुद्ध ने कहा कि इसके दो फायदे हैं। पहला तो यह कि तुम्हें गाली सकता है। अगर आपने अकेले में दी हो और किसी ने न सुनी हो, | देने का अवसर न मिलेगा: तम्हें बरा खयाल करने का अवसर न तब तो शायद आप सोचेंगे कि कुछ भी नहीं होगा इसका परिणाम। | मिलेगा। तुम्हारी शक्ति नियोजित हो जाएगी मंगल की दिशा में। और लेकिन इस जगत में कोई भी घटना निष्परिणामी नहीं है। उसके | दूसरा फायदा यह कि जब तुम किसी के लिए मंगल की कामना करते परिणाम होंगे ही। कठिन मालूम पड़ेगा। किसी को गाली दी हो,। | हो, तो तुम उसके भीतर भी रिजोनेंस, प्रतिध्वनि पैदा करते हो। वह उसका दिल दुखाया हो, तब तो हमने कोई शत्रुता खड़ी की है। | भी तुम्हारे लिए मंगल की कामना से भर जाता है। लेकिन अंधेरे में गाली दे दी हो, तो उससे कोई शत्रुता पैदा हो । अगर इस मुल्क ने राह पर चलते हुए अनजान आदमी को भी सकती है? उससे भी पैदा होती है। | राम-राम करने की प्रक्रिया बनाई थी-वह शायद दुनिया में कहीं __ आप बहुत सूक्ष्म तरंगें पैदा करते हैं अपने चारों ओर। वे तरंगें नहीं बनाई जा सकी। अंग्रेजी में या पश्चिम के मुल्कों में अगर वे फैलती हैं। उन तरंगों के प्रभाव में जो लोग भी आएंगे, वे गलत कहते हैं गुड मार्निंग, तो वह शब्द बहुत साधारण है, सेकुलर है। रास्ते पर धक्का खाएंगे। उन तरंगों के प्रभाव में गलत रास्ते पर | | उसका कोई बहुत मतलब नहीं है, सुबह अच्छी है। लेकिन इस धक्का खाएंगे। मुल्क ने हजारों साल के अनुभव के बाद एक शब्द खोजा था अभी इस पर बहुत काम चलता है, सूक्ष्मतम तरंगों पर। और | नमस्कार के लिए, वह था, राम। राह पर कोई मिला है और हमने खयाल में आता है कि अगर गलत लोग एक जगह इकट्ठे हों, सिर्फ | कहा, जय राम! उस आदमी से कोई मतलब नहीं है, जय राम जी चुपचाप बैठे हों, कुछ न कर रहे हों, सिर्फ गलत हों, और आप | का कोई मतलब नहीं है। यह राम का स्मरण है। उस आदमी को उनके पास से गुजर जाएं, तो आपके भीतर जो गलत हिस्सा है, वह | | देखकर हमने प्रभु का स्मरण किया। ऊपर आ जाता है। और जो ठीक हिस्सा है, वह नीचे दब जाता है। ___ जो ठीक से नमस्कार करना जानते हैं, वे सिर्फ उच्चारण नहीं दोनों हिस्से आपके भीतर हैं। अगर कुछ अच्छे लोग बैठे हों एक | करेंगे, वे उस आदमी में राम की प्रतिमा को भी देखकर गुजर जगह, प्रभु का स्मरण करते हों, कि प्रभु का गीत गाते हों, कि जाएंगे। उन्होंने उस आदमी को देखकर प्रभु को स्मरण किया। उस किन्हीं सदभावों के फूलों की सुगंध में जीते हों, कि सिर्फ मौन ही | आदमी की मौजूदगी प्रभु के स्मरण की घटना बन गई। इस मौके बैठे हों। जब आप उनके पास से गुजरते हैं-वही आप, जो गलत | को छोड़ा नहीं; इस मौके पर एक शुभ कामना पैदा की गई, प्रभु के लोगों के पास से गुजरे थे, और आपका गलत हिस्सा ऊपर आ स्मरण की घड़ी पैदा की गई। गया था—जब आप इन लोगों के पास से गुजरते हैं, तो दूसरी और हो सकता है, वह आदमी शायद राम को मानता भी न हो, घटना घटती है। आपका गलत हिस्सा नीचे दब जाता है; आपका | जानता भी न हो, लेकिन उत्तर में वह भी कहेगा, जय राम। उसके श्रेष्ठ हिस्सा ऊपर आ जाता है। भीतर भी कुछ ऊपर आएगा। और अगर राह से, पुराने गांव की राह आपकी संभावनाओं में इतने सूक्ष्मतम अंतर होते हैं। और हम | | से गुजरते हैं, तो राह पर पच्चीस दफा जय राम कर लेना पड़ता है। चौबीस घंटे जो कर रहे हैं, उसका कोई हिसाब नहीं रखता कि हम | | जीवन बहुत छोटी-छोटी घटनाओं से निर्मित होता है। क्या कर रहे हैं। एक छोटा-सा गलत बोला गया शब्द कितने दूर ___ मंगल की कामना या प्रभु का स्मरण, आपके भीतर जो श्रेष्ठ है, तक कांटों को बो जाएगा, हमें कुछ पता नहीं है। उसको ऊपर लाता है; और दूसरे के भीतर जो श्रेष्ठ है, उसे भी बुद्ध अपने भिक्षुओं से कहते थे कि तुम चौबीस घंटे, राह पर ऊपर लाता है। जब आप किसी के सामने दोनों हाथ जोड़कर सिर तुम्हें कोई दिखे, तो उसके मंगल की कामना करना। वृक्ष भी मिल झुका देते हैं, तो आप उसको भी झुकने का एक अवसर देते हैं। जाए, तो उसके मंगल की कामना करके उसके पास से गुजरना। और झुकने से बड़ा अवसर इस जगत में दूसरा नहीं है, क्योंकि पहाड़ भी दिख जाए, तो मंगल की कामना करके उसके निकट से | झुका हुआ सिर कुछ भी बुरा नहीं सोच पाता। झुका हुआ सिर गाली 43 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग - 3 > नहीं दे पाता । गाली देने के लिए अकड़ा हुआ सिर चाहिए। और कभी आपने खयाल किया हो या न किया हो, लेकिन अब आप खयाल करना। जब किसी को हृदयपूर्वक नमस्कार करके सिर झुकाएं और कल्पना भी कर सकें अगर कि परमात्मा दूसरी तरफ है, तो आप अपने में भी फर्क पाएंगे और उस आदमी में भी फर्क पाएंगे। वह आदमी आपके पास से गुजरा, तो आपने उसको पारस का काम किया, उसके भीतर कुछ आपने सोना बना दिया। और जब आप किसी के लिए पारस का काम करते हैं, तो दूसरा भी आपके लिए पारस बन जाता है। जीवन संबंध है, रिलेशनशिप है। हम संबंधों में जीते हैं। हम अपने चारों तरफ अगर पारस का काम करते हैं, तो यह असंभव है कि बाकी लोग हमारे लिए पारस न हो जाएं। वे भी हो जाते हैं। अपना मित्र वही है, जो अपने चारों ओर मंगल का फैलाव करता है, जो अपने चारों ओर शुभ की कामना करता है, जो अपने चारों ओर नमन से भरा हुआ है, जो अपने चारों ओर कृतज्ञता का ज्ञापन करता चलता है। और जो व्यक्ति दूसरों के लिए मंगल से भरा हो, वह अपने लिए अमंगल से कैसे भर सकता है ! जो दूसरों के लिए भी सुख की कामना से भरा हो, वह अपने लिए दुख की कामना से नहीं भर सकता। अपना मित्र हो जाता है। और अपना मित्र हो जाना बहुत बड़ी घटना है। जो अपना मित्र हो गया, वह धार्मिक हो गया। अब वह ऐसा कोई भी काम नहीं कर सकता, जिससे स्वयं को दुख मिले। तो अपना हिसाब रख लेना चाहिए कि मैं ऐसे कौन-कौन से काम करता हूं, जिससे मैं ही दुख पाता हूं। दिन में हम हजार काम कर रहे हैं; जिनसे हम दुख पाते हैं, हजार बार पा चुके हैं। लेकिन कभी हम ठीक से तर्क नहीं समझ पाते हैं जीवन का कि हम इन कामों को करके दुख पाते हैं। वही बात, जो आपको हजार बार मुश्किल में डाल चुकी है, आप फिर कह देते हैं। वही व्यवहार, जो आपको हजार बार पीड़ा में धक्के दे चुका है, आप फिर कर गुजरते हैं। वही सब दोहराए चले जाते हैं यंत्र की भांति । जिंदगी एक पुनरुक्ति से ज्यादा नहीं मालूम पड़ती, जैसा हम जीते हैं, एक मैकेनिकल रिपीटीशन । वही भूलें, वही चूकें। नई भूल करने वाले आविष्कारी आदमी भी बहुत कम हैं। बस, पुरानी भूलें ही हम किए चले जाते हैं। इतनी बुद्धि भी नहीं कि एकाध नई भूल करें। पुराना; कल किया था वही; परसों भी किया था वही ! आज फिर वही करेंगे। कल फिर वही करेंगे। इसके प्रति सजग होंगे, अपनी शत्रुता के प्रति सजग होंगे, तो अपनी मित्रता का आधार बनना शुरू होगा। कृष्ण या बुद्ध या महावीर या क्राइस्ट जैसे लोग अपने लिए, अपने लिए ही इतने आनंद का रास्ता बनाते हैं, जिसका कोई हिसाब नहीं है। ऊपर से लगता है कि ये लोग बिलकुल त्यागी हैं; | लेकिन मैं आपसे कहता हूं, इनसे ज्यादा परम स्वार्थी और कोई भी नहीं है। 44 हम त्यागी कहे जा सकते हैं, क्योंकि हमसे ज्यादा मूढ़ कोई भी | नहीं है। हम, जो भी महत्वपूर्ण है, उसका त्याग कर देते हैं; और जो व्यर्थ है, उस कचरे को इकट्ठा कर लेते हैं। और ये बहुत होशियार लोग हैं। ये, जो व्यर्थ है, उस सबको छोड़ देते हैं; जो सार्थक है, उसको बचा लेते हैं। जीसस एक गांव के बाहर ठहरे हुए हैं। सांझ का वक्त है। उस गांव के पंडित-पुरोहितों बड़ी तकलीफ है जीसस के आने से । | सदा होती है। जब भी कोई जानने वाला पैदा हो जाता है, तो झूठे जानने वालों को तकलीफ शुरू हो जाती है। जो स्वाभाविक है। उसमें कुछ आश्चर्य नहीं है। पंडित तो जानते हैं किताबों से। जीसस जानते हैं जीवन से। तो किताबों से जानने वाला आदमी, जीवन से जानने वाले आदमी के सामने फीका पड़ जाता है, कठिनाई में पड़ | जाता है, मुश्किल में पड़ जाता है। गांव के पंडित परेशान हैं। उन्होंने कहा कि जीसस को फंसाने का कोई उपाय खोजना जरूरी है। उन्होंने बड़ा इंतजाम किया और | उपाय खोज लिया । उपाय की कोई कमी नहीं है। वे गांव से एक स्त्री को पकड़ लाए, जो कि व्यभिचार में पकड़ी गई थी । यहूदियों | की पुरानी धर्म की किताब में लिखा है कि जो स्त्री व्यभिचार में पकड़ी जाए, उसको पत्थर मारकर मार डालना चाहिए। तो उस स्त्री को वे ले आए जीसस के पास और उन्होंने कहा कि यह किताब है हमारी पुरानी, धर्मग्रंथ की। इसमें लिखा है कि जो स्त्री व्यभिचार करे, उसे पत्थर मारकर मार डालना चाहिए। आप क्या कहते हैं ? इस स्त्री ने व्यभिचार किया है। यह पूरा गांव गवाह है। यह जीसस को दिक्कत में डालने के लिए बड़ा सीधा उपाय था । अगर जीसस कहें कि ठीक है, पुरानी किताब को मानकर पत्थरों से | मार डालो इसे; तो जीसस के उस वचन का क्या होगा, जिसमें जीसस ने कहा है कि जो तुम्हें एक चांटा मारे, तुम उसके सामने | दूसरा गाल कर दो। और जो तुम्हारा कोट छीने, उसे कमीज भी दे दो। और अपने शत्रुओं को भी प्रेम करो। उन सब वचनों का क्या . Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालकियत की घोषणा होगा ? तो जीसस को कठिनाई खड़ी हो जाएगी। और अगर जीसस कहें कि नहीं, पत्थर मार नहीं सकते इसे । माफ कर दो, क्षमा कर दो। तो हम कहेंगे, तुम हमारी धर्म- पुस्तक के विपरीत बात कहते हो तो तुम धर्म के दुश्मन हो । लेकिन उन्हें पता नहीं था कि जीसस जैसे आदमी को मुट्ठियों में बांधना आसान नहीं होता । की तरह होते हैं ऐसे लोग। मुट्ठी बांधी कि बाहर निकल जाते हैं। जीसस ने कहा कि बिलकुल ठीक कहती है पुरानी किताब ! पत्थर हाथ में उठा लो और इस स्त्री को पत्थरों से मार डालो। वे तो बड़े हैरान हुए। उन्होंने तो सोचा भी न था कि यह होगा । पर जीसस ने कहा, खयाल रखें, पहला आदमी वह हो पत्थर मारने वाला, जिसने व्यभिचार न किया हो और व्यभिचार का विचार न किया हो । कोई आदमी नहीं था उस गांव में, जिसने व्यभिचार का विचार न किया हो। किस गांव में ऐसा आदमी है ! जो लोग आगे खड़े थे साफे-पगड़ियां बगैरह बांधकर, पत्थर हाथ में लिए, वे धीरे-धीरे भीड़ में पीछे सरकने लगे। यह तो उपद्रव की बात है। जो पीछे खड़े थे, वे तो भाग खड़े हुए। उन्होंने कहा कि यहां ठहरना ठीक नहीं है। थोड़ी देर में वह नदी का तट खाली हो गया था। वह स्त्री थी और जीसस थे। जब सारे लोग जा चुके, तो उस स्त्री ने जीसस से पूछा कि आप मुझे जो सजा दें, मैं लेने को तैयार हूं; मैं व्यभिचारी हूं। मुझ पर कृपा करें और मुझे सजा दें। जीसस ने कहा, मुझे माफ कर । परमात्मा न करे कि मैं किसी का निर्णायक बनूं, क्योंकि मैं किसी को अपना निर्णायक नहीं बनाना चाहता हूं। जीसस ने कहा, परमात्मा न करे कि मैं किसी का निर्णायक बनूं। क्योंकि मैं किसी को अपना निर्णायक नहीं बनाना चाहता हूं। जीसस का वचन है, जज यी नाट, दैट यी शुड नाट बी जज्ड । तुम किसी के निर्णायक मत बनो, ताकि कोई तुम्हारा कभी निर्णायक न बने। मैं कौन हूं। मैं इतना अहंकार कैसे करूं कि तेरा निर्णय करूं ! मैं हूं कौन! तू जान तेरा परमात्मा जाने। मैं कौन हूं। मैं तेरे बीच में खड़ा होने वाला कौन हूं। मैं अगर तुझे जरा ऊंची जगह पर खड़े होकर भी देखूं, तो पापी हो गया। मैं कौन हूं। मैं कोई भी नहीं हूं। और फिर तूने खुद स्वीकार किया कि तू व्यभिचारिणी है, तो तू पाप से मुक्त हो गई, बात समाप्त हो गई। स्वीकृति मुक्ति है । अस्वीकृति में पाप छिपता है, स्वीकृति में विसर्जित हो जाता है। जीसस ने कहा कि मुझे मत उलझा । मैं तेरा निर्णायक नहीं बनूंगा, क्योंकि मैं नहीं चाहता कि कोई मेरा निर्णय करे । आप नहीं चाहते कि दूसरे आपके साथ करें, कृपा करके वह आप दूसरों के साथ न करें। जीसस की पूरी नई बाइबिल का सार एक ही वचन है, दूसरों के साथ वह मत करें, जो आप नहीं चाहते कि दूसरे आपके साथ करें। और अगर इस वाक्य को ठीक से समझ लें, तो कृष्ण का सूत्र समझ में आ जाए। और कई बार ऐसा मजेदार होता है कि कृष्ण के किसी वाक्य की व्याख्या बाइबिल में होती है। और बाइबिल के किसी वाक्य की व्याख्या गीता में होती है। कभी कुरान के किसी सूत्र की व्याख्या वेद में होती है। कभी वेद के किसी सूत्र की व्याख्या कोई यहूदी फकीर करता । कभी बुद्ध का वचन चीन में समझा जाता है। और कभी चीन में लाओत्से का कहा गया वचन हिंदुस्तान का कोई समझता है। लेकिन धर्मों ने इतनी दीवालें खड़ी कर दी हैं इन सबके बीच कि इनके बीच जो बहुत आंतरिक संबंध के सूत्र दौड़ते हैं, उनका हमें कोई स्मरण नहीं रहा। नहीं तो हर मंदिर और मस्जिद के नीचे सुरंग होनी चाहिए, जिसमें से कोई भी मंदिर से मस्जिद में जा सके। और हर गुरुद्वारे के नीचे से मंदिर को जोड़ने वाली सुरंग होनी चाहिए, कि कभी भी किसी की मौज आ जाए, तो तत्काल गुरुद्वारे से मंदिर या मस्जिद या चर्च में जा सके। लेकिन सुरंगों की तो बात दूर, ऊपर के रास्ते भी बंद हैं, सब रास्ते बंद हैं। अपना मित्र दूसरों के साथ वही करेगा, जो वह चाहता है कि दूसरे उसके साथ करें। अपना शत्रु दूसरों के साथ वही करेगा, जो वह चाहता है कि दूसरे कभी उसके साथ न करें। और जो अपना मित्र हो गया, वह योग की यात्रा पर निकल पड़ा है। और आत्मा अपनी मित्र भी हो सकती है, शत्रु भी हो सकती है। ध्यान रखना, शत्रु होना सदा आसान है। शत्रु होने के लिए क्या | करना पड़ता है, कभी आपने खयाल किया है! अगर आपको किसी का शत्रु होना है, तो एक सेकेंड में हो सकते हैं। और अगर मित्र होना है, तो पूरा जन्म भी ना काफी है। अगर आपको किसी का शत्रु होना है, तो क्षण की भी तो जरूरत नहीं है, क्षण भी काफी है। एक | जरा-सा शब्द और शत्रुता की पूरी की पूरी व्यवस्था हो जाएगी। | लेकिन अगर आपको किसी का मित्र होना है, तो पूरा जीवन भी ना काफी है, नाट इनफ । पूरी जिंदगी श्रम करने के बाद भी कहीं कोई 45 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < गीता दर्शन भाग-3> चीज, अभी दरार बाकी रह जाएगी, जो पूरी नहीं हो पाती। अंडरस्टैंडिंग ही सिर्फ सेतु बनेगी। उतनी समझ हममें नहीं है। मित्रता बड़ी साधना है, शत्रुता बच्चों का खेल है। इसलिए हम हम सब नासमझी में जीते हैं। लेकिन नासमझी में इतनी अकड़ शत्रुता में आसानी से उतर जाते हैं। और खुद के साथ मित्रता तो से जीते हैं कि समझ को आने का दरवाजा भी खुला नहीं छोड़ते। बहुत ही कठिन है। दूसरे के साथ इतनी कठिन है, खुद के साथ तो | | असल में नासमझ लोगों से ज्यादा स्वयं को समझदार समझने वाले और भी कठिन है। लोग नहीं होते। और जिसने अपने को समझा कि बहुत समझदार आप कहेंगे, क्यों? दूसरे के साथ इतनी कठिन है, तो खुद के | हैं, समझना कि उसने द्वार बंद कर लिए। अगर समझदारी उसके साथ और भी कठिन क्यों होगी? खुद के साथ तो आसान होनी | दरवाजे पर दस्तक भी दे, तो वह दरवाजा खोलने वाला नहीं है। चाहिए। हम तो सब समझते हैं कि हम सब अपने को प्रेम करते | वह खुद ही समझदार है! ही हैं। ___ हमारी समझदारी का सबसे गलत जो आधार है, वह यह है कि भ्रांति है वह बात, फैलेसी है, झूठ है। हममें से ऐसा आदमी हम अपने को प्रेम करते ही हैं। यह बिलकुल झूठ है। अगर हम बहुत मुश्किल है, जो अपने को प्रेम करता हो। क्योंकि जो अपने | अपने को प्रेम करते होते, तो दुनिया की यह हालत नहीं हो सकती को प्रेम कर ले, उसकी जिंदगी में बुराई टिक नहीं सकती; असंभव | थी, जैसी हालत है। अगर हम अपने को प्रेम करते होते, तो आदमी है। अपने को प्रेम करने वाला शराब पी सकता है? अपने को प्रेम | पागल न होते, आत्महत्याएं न करते। अगर हम अपने को प्रेम करते करने वाला क्रोध कर सकता है? होते, तो दुनिया में इतना मानसिक रोग न होता। बुद्ध निकलते हैं एक रास्ते से और एक आदमी बुद्ध को गालियां चिकित्सक कहते हैं कि इस समय कोई सत्तर प्रतिशत रोग देता है। तो बुद्ध के साथ एक भिक्षु है आनंद, वह कहता है कि आप मानसिक हैं। वे अपने को घृणा करने से पैदा हुए रोग हैं। हम सब मुझे आज्ञा दें, तो मैं इस आदमी को ठीक कर दूं। तो बुद्ध बहुत | अपने को घृणा करते हैं। हजार तरह से अपने को सताते हैं। सताने हंसते हैं। तो आनंद पूछता है, आप हंसते क्यों हैं? वह आदमी भी | | के नए-नए ढंग ईजाद करते हैं। अपने को दुख और पीड़ा देने की पूछता है, आप हंसते क्यों हैं? तो बुद्ध कहते हैं, मैं आनंद की बात | | भी नई-नई व्यवस्थाएं खोजते हैं। यद्यपि हम सबके पीछे बहुत तर्क सुनकर हंसता हूं। यह भी बड़ा पागल है। दूसरे की गलती के लिए | | इंतजाम कर लेते हैं। खुद को सजा देना चाहता है। बुद्ध कहते हैं, दूसरे की गलती के यह तो चिकित्सक कहते हैं कि सत्तर प्रतिशत बीमारियां आदमी लिए खुद को सजा देना चाहता है। आनंद ने कहा, मैं समझा नहीं! अपने को सजा देने के लिए विकसित कर रहा है। लेकिन बद्ध ने कहा. गाली उसने दी, क्रोध त करना चाहता है। सजा त मनस-चिकित्सक कहते हैं कि यह आंकड़ा छोटा है अभी; भोगेगा। क्रोध तो अपने में आग लगाना है। अंडरएस्टिमेशन है। असली आंकड़ा और बड़ा है। और अगर हम सब क्रोध को भलीभांति जानते हैं। क्रोध से बड़ी सजा क्या आंकड़ा किसी दिन ठीक गया, तो निन्यानबे प्रतिशत बीमारियां हो सकती है? लेकिन दूसरा गाली देता है, हम क्रोध करते हैं। बुद्ध मनुष्य अपने को सजा देने के लिए ईजाद करता है। कहते हैं, दूसरे की गलती के लिए खुद को सजा! ___ इतनी घृणा है खुद के साथ! वह हमारे हर कृत्य में प्रकट होती हम सब वही कर रहे हैं। मित्रता अपने साथ कोई भी नहीं है। है। हर कृत्य में! जो भी हम करते हैं-एक बात ध्यान में रख लेना, और अपने साथ मित्रता इसलिए भी कठिन है कि दूसरा तो तो कसौटी आपके पास हो जाएगी-जो भी आप करते हैं, करते विजिबल है, दूसरा तो दिखाई पड़ता है; हाथ फैलाया जा सकता है | | वक्त सोच लेना, इससे मुझे सुख मिलेगा या दुख? अगर आपको दोस्ती का। लेकिन खुद तो बहुत इनविजिबल, अदृश्य सत्ता है; | | दिखता हो, दुख मिलेगा और फिर भी आप करने को तैयार हैं, तो वहां तो हाथ फैलाने का भी उपाय नहीं है। दूसरे मित्र को तो कुछ | फिर आप समझ लेना कि अपने को घृणा करते हैं। और क्या भेंट दी जा सकती है, कुछ प्रशंसा की जा सकती है, कुछ दोस्ती के कसौटी हो सकती है? रास्ते बनाए जा सकते हैं, कुछ सेवा की जा सकती है। खुद के साथ मुंह से गाली निकलने के लिए तैयार हो गई है; पंख फड़फड़ाकर तो कोई भी रास्ते नहीं हैं। खुद के साथ तो शुद्ध मैत्री का भाव ही! | खड़ी हो गई है जबान पर; उड़ने की तैयारी है। सोच लेना एक क्षण और कोई रास्ता नहीं है, और कोई सेतु नहीं है। अगर हो समझ, कि इससे अपने को दुख मिलेगा या सुख! दूसरे की मत सोचना, Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समालकियत की घोषणा → क्योंकि दूसरे की सोचने में धोखा हो जाता है। आदमी सोचता है, अगर एक मित्र को संन्यास लेना है, तो वह पूछता है कि एक दूसरे को दुख मिलेगा या सुख! यह मत सोचना। पहले तो अपना साल और रुक जाऊं! उसको जुआ खेलना है, तो वह नहीं पूछता। ही सोच लेना कि इससे मुझे दुख मिलेगा या सुख! और अगर अगर उसे संन्यास लेना है, तो वह पूछता है कि एक साल रुक आपको पता चले कि दुख मिलेगा, और फिर भी आप गाली दो, जाएं, तो कोई हर्ज है? लेकिन उसे क्रोध करना होता है, तब वह तो फिर क्या कहा जाए, आप अपने को प्रेम करते हैं! एक सेकेंड नहीं रुकता। बहत आश्चर्यजनक है। अच्छा काम करना नहीं, हम सोचने का मौका भी नहीं देते। नहीं तो डर यह है कि हो, तो आप पूछते हैं, थोड़ा स्थगित कर दें तो कोई हर्ज है? और कहीं ऐसा न हो कि गाली न दे पाएं। बुरा काम करना हो तो! तो तत्काल कर लेते हैं। तत्काल। एक गुरजिएफ एक बहुत अदभुत फकीर हुआ। उसने अपने सेकेंड नहीं चूकते! क्यों? संस्मरणों में लिखा है कि मेरा बाप मरा, तो उसके पास मुझे देने को वह बुरा काम अगर एक सेकेंड चूके, किया नहीं जा सकेगा। कुछ भी न था। लेकिन वह मुझे इतनी बड़ी संपदा दे गया है जिसका | और उसे करना है, इसलिए एक सेकेंड स्थगित करना ठीक नहीं कोई हिसाब नहीं है। जब भी वह किसी से यह कहता, तो वह | है। और अच्छे काम को करना नहीं है, इसलिए जितना स्थगित कर चौंकता। क्योंकि वह पूछता कि तुम कहते हो, तुम्हारे बाप के पास | सकें, उतना अच्छा है। जितना टाल सकें, उतना अच्छा है। कछ भी न था. फिर वह क्या संपदा दे गया? ___ हम अच्छे कामों को टालते चले जाते हैं कल पर और बुरे काम तो गुरजिएफ कहता कि मैं ज्यादा से ज्यादा नौ-दस साल का था, करते चले जाते हैं आज। और एक दिन आता है कि मौत कल को जब मेरे बाप की मृत्यु हुई। मैं सबसे छोटा बेटा था। सभी को | छीन लेती है। बुरे कामों का ढेर लग जाता है; अच्छे काम का कोई बुलाकर मेरे बाप ने कान में कुछ कहा। मुझे भी बुलाया और मेरे | हाथ में हिसाब ही नहीं होता। कान में कहा कि तू अभी ज्यादा नहीं समझ सकता, लेकिन तू जो मैंने सुना है, एक आदमी मरा, एक बहुत करोड़पति। जैसी समझ सकता है, उतनी बात मैं तुझसे कह देता हूं। और ध्यान रख, | उसकी आदत थी, गवर्नर के घर में भी जाता था, तो संतरी उसको अगर इतनी बात तूने समझ ली, तो जिंदगी में और कुछ समझने की | रोक नहीं सकता था। प्रधानमंत्री के घर में जाता था, तो संतरी जरूरत न पड़ेगी। छोटी-सी बात, जो तेरी समझ में आ जाए, वह मैं हटकर खड़ा हो जाता था। उसने तो सोचा ही नहीं कि नर्क की तरफ तुझसे यह कहे जाता हूं। मरते हुए बाप का खयाल रखना, इतनी-सी जाने का कोई सवाल है। सीधा स्वर्ग के दरवाजे पर पहुंच गया। बात को मान लेना। मेरे पास देने को और कुछ भी नहीं है। जोर से जाकर दरवाजा खटखटाया। दरवाजा खुला न देखकर तो गुरजिएफ, उस छोटे-से बच्चे ने कहा कि आप कहें, भरसक नाराज हो गया। मैं चेष्टा करूंगा। उसके बाप ने कहा, बहुत कठिन काम तुझे नहीं द्वारपाल ने झांककर देखा और कहा कि महाशय, इतने जोर से दूंगा, क्योंकि तेरी उम्र ही कितनी है! इतना ही कहता हूं तुझसे कि दरवाजा मत खटखटाइए। पर उस आदमी ने कहा कि मुझे भीतर जब भी कोई ऐसा काम करने का खयाल आए, जिससे तुझे या आने दो। द्वारपाल उसे भीतर ले गया। पूछा द्वारपाल ने कि ऐसा कौन दूसरे को दुख होगा, तो चौबीस घंटे रुक जाना, फिर तू करना। उस सा काम किया है, जिसकी वजह से स्वर्ग में इतनी तेजी से आ रहे लड़के ने पूछा, फिर मैं कर सकता हूं? उसके बाप ने कहा कि तू | हैं! द्वारपाल ने जाकर दफ्तर में कहा कि जरा इन महाशय के नाम का पूरी ताकत से करना। और बाप हंसा और मर गया। पता लगाएं, क्योंकि अभी तो हमें कोई खबर भी नहीं है कि इस तरह गुरजिएफ अपने संस्मरणों में लिखता है, मैं जिंदगी में कोई बुरा का आदमी स्वर्ग में आने को है! इनके हिसाब में कुछ है? काम नहीं कर पाया। मेरे बाप ने मुझे धोखा दे दिया। उसने कहा, बड़ा लंबा हिसाब था। पोथे के पोथे थे। दफ्तर का क्लर्क थक चौबीस घंटे बाद कर लेना। लेकिन चौबीस घंटा तो बहुत वक्त है, | गया उलट-उलटकर। पर उसने कहा कि कहीं कोई ऐसी चीज चौबीस सेकेंड भी कोई बुरा काम करते वक्त रुक जाए, तो नहीं कर | दिखाई नहीं पड़ती। हां, कई जगह इस आदमी ने अच्छे संकल्प सकता। चौबीस सेकेंड भी! क्योंकि उतने में ही होश आ जाएगा करने की योजना बनाई; लेकिन पीछे लिखा है, स्थगित, पोस्टपोंड! कि मैं अपनी दुश्मनी कर रहा हूं। इसलिए बुरा काम हम बहुत | यह कई दफे स्वर्ग मिलते-मिलते चूक गया। कई दफे इसने योजना शीघ्रता से करते हैं; देर नहीं लगाते। | बनाई कि ऐसा कर दूं, फिर इसने स्थगित कर दिया। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3> फिर भी, उस द्वारपाल ने कहा कि बेचारा इतनी मेहनत करके आ जाएगा। गया है, थोड़ा खोज लो, शायद कोई थोड़ी-बहुत जगह, इसने कुछ । लेकिन जो व्यक्ति अपना मित्र बन जाता है, वह ऊपर की न कुछ किया हो। बड़ा खोजकर पता चला कि इस आदमी ने एक ऊर्ध्व-यात्रा पर निकल जाता है। उसकी यात्रा दीए की ज्योति की नया पैसा किसी भिखारी को कभी दान दिया था। लेकिन कोष्ठक तरह आकाश की तरफ होने लगती है। वह फिर पानी की तरह गड्ढों में यह भी लिखा है कि भिखारी को नहीं दिया था, इसके साथ में नहीं उतरता, अग्नि की तरह आकाश की तरफ उठने लगता है। दो-तीन आदमी खड़े थे, वे क्या कहेंगे अगर एक पैसे के लिए भी | । यह जो ऊपर उठती हुई चेतना है, यही योग है। अपना मित्र होना इनकार करेगा, इसलिए दिया था। मगर दिया था। इसने एक पैसा | ही योग है। अपना शत्रु होना ही अयोग है। ऊपर की तरफ बढ़ते दिया था, वह स्थगित नहीं किया था। कारण दूसरा था, लेकिन | चले जाना ही आनंद है। भिखारी को एक पैसा इसने दिया था। कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि योग है मंगल अर्जुन; और सार उस करोड़पति के चेहरे पर थोड़ी रौनक आई। लगा कि कुछ सूत्र है कि आत्मा स्वतंत्र है। अपना अहित भी कर सकती है, हित आसार स्वर्ग में प्रवेश के बनते हैं। उस क्लर्क ने कहा, लेकिन इतने | भी। अहित करना आसान, क्योंकि गड्ढे में उतरना आसान। हित । से आधार पर! और वह भी धोखे का आधार, क्योंकि इसने | | करना कठिन, क्योंकि पर्वत शिखर की ऊंची चढ़ाई है। लेकिन जो भिखारी को दिया ही नहीं, इसने अपने मित्रों को दिया है। दिखाई | अपना मित्र बन जाए, वह जीवन में मुक्ति को अनुभव कर पाता पड़ा कि भिखारी को दिया है। है। और जो अपना शत्रु बन जाए, वह जीवन में रोज बंधनों, इसलिए तो भिखारी, आप अकेले हों, तो आपसे भीख नहीं कारागृहों में गिरता चला जाता है। मांगते। दो-चार मित्र हों, तो पकड़ लेते हैं। जानते हैं तरकीब, कि इस सूत्र को अपने जीवन में कहीं-कहीं रुककर उपयोग करके भिखारी को कौन देता है! वह दो-चार जो आदमी पास खड़े हैं, देखना, तो खयाल में आ सकेगा। कुछ चीजें हैं, जिन्हें समझ लेना उनकी शर्मिंदगी में, कि क्या कहेंगे कि यह आदमी एक पैसा नहीं | | काफी नहीं, जिन्हें प्रयोग करना जरूरी है। ये सब के सब लेबोरेटरी दे पा रहा है, आप भी दे देते हैं। और आप दे देते हैं, तो उनको भी | मेथड्स हैं, यह जो भी कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से। देना पड़ता है कि अब यह आदमी क्या कहेगा! मगर यह आपसी कृष्ण उन लोगों में से नहीं हैं, जो एक शब्द भी व्यर्थ कहें। वे लेन-देन है, इसका भिखारी से कोई भी संबंध नहीं है। उन लोगों में से नहीं हैं, जो शब्दों का आडंबर रचें। वे उन लोगों में फिर भी इसने दिया था, तो क्या करें? तो उस क्लर्क ने कहा, | से नहीं हैं, जिन्हें कुछ भी नहीं कहना है और फिर भी कहे चले जा एक ही उपाय है। वह एक पैसा इसे वापस कर दिया जाए और नर्क रहे हैं। वे कोई राजनीतिक नेता नहीं हैं। की तरफ वापस भेज दिया जाए। इस आदमी ने बड़ी टेक्निकल कृष्ण उतना ही कह रहे हैं, जितना अत्यंत आवश्यक है, और गड़बड़ खड़ी कर दी है। एक दफा और स्थगित कर देता, तो इसका जितने के बिना नहीं चल सकेगा। प्रयोगात्मक हैं उनके सारे क्या बिगड़ता था! टेक्निकल भूल हो गई है। वक्तव्य। एक-एक सूत्र एक-एक जीवन के लिए प्रयोग बन हम स्थगित किए चले जाते हैं, जो भी शुभ है उसे। शायद मौत | सकता है। के बाद हम करेंगे। और जो अशुभ है, उसे हम आज कर लेते हैं, और एक सूत्र पर भी प्रयोग कर लें, तो धीरे-धीरे पूरी गीता, कि पता नहीं, कल वक्त मिला कि न मिला। | बिना पढ़े, आपके सामने खुल जाएगी। और पूरी गीता पढ़ जाएं ___ मित्र वह है अपना, जो अशुभ को स्थगित कर दे और शुभ को और प्रयोग कभी न करें, तो गीता बंद किताब रहेगी। वह कभी खुल कर ले। और शत्रु वह है अपना, जो शुभ को स्थगित कर दे और नहीं सकती। उसे खोलने की चाबी कहीं से प्रयोग करना है। अशुभ को कर ले। एक क्षण रुककर देख लेना कि जिस चीज से | ___ इस सूत्र को समझें, जांचें, अपने मित्र हैं कि शत्रु! बस इस दुख आता हो, उसे आप कर रहे हैं? तो फिर अपने शत्रु हैं। | छोटे-से सूत्र को जांचते चलें और थोड़े ही दिन में आप पाएंगे कि और जो अपना शत्रु है, उसकी अधोयात्रा जारी है। वह नीचे | आपको अपनी शत्रुता इंच-इंच पर दिखाई पड़ने लगी है। गिरेगा, गिरता चला जाएगा-अंधकार और महा अंधकार, पीड़ा कदम-कदम पर आप अपने दुश्मन हैं। और अब तक की पूरी और पीड़ा। वह अपने ही हाथ से अपने को नर्क में धकाता चला जिंदगी आपने अपनी दुश्मनी में बिताई है। और फिर रोकर चिल्लाते 48 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समालकियत की घोषणा हैं कि मैं अभागा हूं; दुख में मरा जा रहा हूं। अपने ही हाथ से कोड़े है; और स्वयं की जिसकी कोई आवाज नहीं है। कभी इंद्रियों की मारते हैं अपनी ही पीठ पर, लहूलुहान कर लेते हैं। और दूसरे हाथ मान लेता है, कभी शरीर की मान लेता है, कभी मन की मान लेता से लहू पोंछते हैं और कहते हैं कि मेरा भाग्य! अपने ही हाथ से है, लेकिन खुद की अपनी कोई भी समझ नहीं है। वह ठीक दुख निर्मित करते हैं और फिर चिल्लाते हैं, मेरी नियति! | स्वभावतः वैसी ही स्थिति में हो जाएगा. जैसे कोई रथ चलता हो। नहीं, कोई नियति नहीं है, आप ही हैं। और अगर कोई नियति | सारथी सोया हो। लगामें टूटी पड़ी हों। सब घोड़े अपनी-अपनी है, तो वह आपके द्वारा ही काम करती है। और आप उस नियति दिशाओं में जाते हों, जिसे जहां जाना हो! घोड़ों को बांधने का, को मार्ग देने में परम स्वतंत्र हैं, क्योंकि आप परमात्मा के हिस्से हैं। | निकट लेने का, एक-सूत्र रखने का, एक दिशा पर चलाने की कोई आपकी स्वतंत्रता में रत्तीभर कमी नहीं है। आप इतने स्वतंत्र हैं। व्यवस्था न हो। सारथी सोया हो। लगामें टूटी पड़ी हों। घोड़े कि नर्क जा सकते हैं; आप इतने स्वतंत्र हैं कि स्वर्ग निर्मित कर | अपनी-अपनी जगह जाते हों। कोई बाएं चलता हो, कोई दाएं सकते हैं। आप इतने स्वतंत्र हैं कि आपके एक-एक पैर पर चलता हो। कोई चलता ही न हो। कोई दौड़ता हो, कोई बैठा हो। एक-एक स्वर्ग बस जाए। और आप इतने स्वतंत्र भी हैं कि आपके | | तो जैसी स्थिति उस रथ की हो जाए, और जैसी स्थिति उस रथ में एक-एक पैर पर एक-एक नर्क निर्मित हो जाए। और सब आप पर | बैठे हुए मालिक की हो जाए, वैसी स्थिति हमारी हो जाती है। निर्भर है। आपके अतिरिक्त कोई भी जिम्मेवार नहीं है। ___ कभी आपने खयाल न किया होगा कि आपकी इंद्रियां एक-दूसरे तो अपने मित्र हैं या शत्र, इसे थोड़ा सोचना, देखना। और के विपरीत मांग करती हैं, और आप दोनों की मान लेते हैं। आपका धीरे-धीरे आप पाएंगे कि शत्रु होना मुश्किल होने लगेगा, मित्र | शरीर और मन विपरीत मांग करते हैं, और आप दोनों की मान लेते होना आसान होने लगेगा। और तब इस सूत्र को पढ़ना। तब इस | हैं। शरीर कहता है, रुक जाओ, अब खाना मत डालो, क्योंकि पेट सूत्र के अर्थ, अभिप्राय प्रकट होते हैं। में तकलीफ शुरू हो गई। और मन कहता है, स्वाद बहुत अच्छा आ रहा है; थोड़ा डाले चले जाओ। आप दोनों की माने चले जाते | हैं। आप देखते नहीं कि आप क्या कर रहे हैं! एक कदम बाएं चलते बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।। हैं, साथ ही एक कदम दाएं भी चल लेते हैं। एक कदम आगे जाते अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ।। ६ ।। हैं, एक कदम पीछे भी आ जाते हैं! उस जीवात्मा का तो वह आप ही मित्र है, कि जिस जीवात्मा ___ एक ही साथ विपरीत काम किए चले जाते हैं, क्योंकि विपरीत द्वारा मन और इंद्रियों सहित शरीर जीता हुआ है, और जिसके | | इंद्रियों और विपरीत वासनाओं की साथ ही स्वीकृति दे देते हैं। एक द्वारा मन और इंद्रियों सहित शरीर नहीं जीता गया है, उसका | हाथ बढ़ाते हैं किसी से दोस्ती का, दूसरे हाथ में छुरा दिखा देते वह आप ही शत्रु के सदृश, शत्रुता में बर्तता है। हैं-एक साथ! किसी को हाथ जोड़कर नमस्कार करते हैं, और भीतर से उसको गाली दिए चले जाते हैं कि इस दुष्ट की शकल सुबह-सुबह कहां दिखाई पड़ गई! और हाथ जोड़कर उससे ऊपर द्रियों और शरीर को जिसने जीता है, वह अपना मित्र कह रहे हैं कि बड़े शुभ दर्शन हुए। आज का दिन बड़ा शुभ है। र . हो पाता है। और जिसे अपनी इंद्रियों और अपने शरीर | और भीतर कहते हैं कि मरे; आज पता नहीं धंधे में नुकसान लगेगा, पर कोई भी वश, कोई भी काबू नहीं, वह अपना शत्रु | | कि पत्नी से कलह होगी, कि क्या होगा! यह सुबह-सुबह कहां से सिद्ध होता है। यह शकल दिखाई पड़ गई है! और इसके साथ हाथ भी जोड़ रहे मित्रता और शत्रुता को दूसरे आयाम से समझें। इस सूत्र में दूसरे | | हैं, नमस्कार भी कर रहे हैं; मन में यह भी चलता जाता है। आयाम से, दूसरी दिशा से मित्रता और शत्रुता के सूत्र को समझाने मन खंड-खंड है। एक-एक इंद्रिय अपने-अपने खंड को पकड़े की कोशिश है। हुए है। सभी इंद्रियों के खंड भीतर अखंड होकर एक नहीं हैं। कोई शरीर और इंद्रियां जिसके परतंत्र नहीं हैं; जिसकी इंद्रियां कुछ | | भीतर मालिक नहीं है। कहती हैं, जिसका शरीर कुछ कहता है; जिसका मन कुछ कहता गुरजिएफ कहा करता था, हम उस मकान की तरह हैं, जिसका Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 गीता दर्शन भाग-3 मालिक बाहर गया है। और जिसमें बहुत बड़ा महल है और बहुत करा लेती हैं। कई बार आपको अनुभव हुआ होगा। कई बार आप नौकर-चाकर हैं। और जब भी रास्ते से कोई गुजरता है और बड़े लोगों से कहते हैं कि मेरे बावजूद, इंस्पाइट आफ मी, यह मैंने कर महल को देखता है, सीढ़ियों पर कोई मिल जाता है घर का नौकर, दिया! मैं नहीं करना चाहता था, फिर कर दिया। जब आप नहीं तो उससे पूछता है, किसका है मकान? तो वह कहता है, मेरा। करना चाहते थे, तो कैसे कर दिया? आप कहते हैं, मेरी बिलकुल मकान का मालिक बाहर गया है। कभी वह राहगीर वहां से गुजरता इच्छा नहीं थी कि चांटा मार दूं आपको; लेकिन क्या करूं! सोचा है, दूसरा नौकर सीढ़ियों पर मिल जाता है, वह पूछता है, किसका भी नहीं था, मारने का इरादा भी नहीं था, भाव भी नहीं था ऐसा। है यह मकान? वह कहता है, मेरा। लेकिन मारा है, यह तो पक्का है। फिर यह किसने मारा? अब यह ___ हर नौकर मालिक है। मालिक घर में मौजूद नहीं है। बड़ी कलह जो पीछे कह रहा है कि नहीं कोई इच्छा थी, नहीं कोई भाव था, नहीं होती है उस मकान में। मकान जीर्ण-जर्जर हुआ जाता है। क्योंकि | कोई खयाल था, बात क्या है? मालिक कोई भी नहीं है, इसलिए मकान को कोई सुधारने की फिक्र | नहीं, भीतर कोई मालिक तो है नहीं। एक नौकर दरवाजे पर था, नहीं करता है, न कोई रंग-रोगन करता है, न कोई साफ करता है। | तो उसने एक चांटा मार दिया। अब दूसरा नौकर क्षमा मांग रहा है। सब नौकर हैं; सब एक-दूसरे से चाहते हैं कि तुम नौकर का यह भी मालिक नहीं है। इसलिए आप यह मत सोचना कि अब यह व्यवहार करो, मैं मालिक का व्यवहार करूं! लेकिन सब जानते हैं आदमी कल चांटा नहीं मारेगा। कल फिर मार सकता है। कि तुम भी नौकर हो, तुम कोई मालिक नहीं हो; तुम मुझ पर हुक्मयह जो हमारी इंद्रियों की स्थिति है, खंड-खंड, डिसइंटिग्रेटेड। नहीं चला सकते। वह घर गिरता जाता है, उसकी दीवालें गिरती और एक-एक इंद्रिय इस तरह करवाए चली जाती है जिसका कोई जाती हैं, उसकी ईंटें गिरती जाती हैं। कोई जोड़ने वाला नहीं। कोई हिसाब नहीं है। और कभी-कभी ऐसे काम करवा लेती है कि कचरा साफ करता नहीं। सब कचरा इकट्ठा करते हैं। सब मालिक | जिनका दांव भारी है। बहुत भारी दांव लगवा देती है। इतना बड़ा होने के दावेदार हैं। दांव लगवा देती है कि इतनी-सी, छोटी-सी चीज के लिए इतना भीतर करीब-करीब हमारी आत्मा ऐसी ही सोई रहती है, जैसे | बड़ा दांव आप लगाते न। कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि दो पैसे मौजूद ही न हो। आपने कभी अपनी आत्मा की आवाज भी सुनी है? | की चीज के लिए लोग एक-दूसरे की जान ले लेते हैं। दो पैसे की हां, अगर राजनीतिज्ञ होंगे, तो सुनी होगी! अभी पिछले | भी नहीं होती कई बार तो चीज। कई बार कुछ होता ही नहीं बीच इलेक्शन में बहुत-से राजनीतिज्ञ एकदम आत्मा की आवाज सुनते में, सिर्फ एक शब्द होता है कोरा और जान चली जाती है। पीछे थे। और जिस दिन राजनीतिज्ञ की आत्मा में आवाज आने लगेगी. अगर कोई बैठकर सोचे...। उस दिन इस दुनिया में कोई पापी नहीं रह जाएगा। जिनके पास | मैंने सुना है कि एक स्कूल में इतिहास का एक शिक्षक अपने आत्मा नाम-मात्र को नहीं होती, उनको आवाजें आ रही हैं! और बच्चों से पूछ रहा है, तुम कोई बड़ी से बड़ी लड़ाई के संबंध में आवाजें भी बदल जाती हैं! सुबह आवाज कुछ आती है, सांझ कुछ बताओ। तो एक लड़का खड़े होकर कहता है कि मैं बता तो सकता आती है। आत्मा भी बड़ी पोलिटिकल स्टंट करती है! | हूं, लेकिन मेरे घर आप खबर मत करना। उसने कहा, कौन सी __ आपने कभी आत्मा की आवाज सुनी है? अगर राजनीतिज्ञ नहीं लड़ाई? तो उसने कहा कि लड़ाई तो बड़ी से बड़ी मैं एक ही जानता हैं, तो कभी नहीं सुनी होगी! इंद्रियों की आवाजें ही हम सुनते हैं। हूं, मेरी मां और मेरे बाप की! उस शिक्षक ने कहा कि नासमझ, तुझे कभी एक इंद्रिय कहती है, यह चाहिए; कभी दूसरी इंद्रिय कहती इतनी भी अक्ल नहीं है कि यह भी कोई लड़ाई है! वह लड़का घर है, यह चाहिए। कभी तीसरी इंद्रिय कहती है, यह नहीं मिला, तो वापस आया, उसने अपने पिता से कहा कि आपकी बड़ी से बड़ी जीवन व्यर्थ है। कभी चौथी इंद्रिय कहती है, लगा दो सब दांव पर; लड़ाई की मैंने चर्चा की, तो मेरे इतिहास के शिक्षक ने कहा, यह भी यही है सब कुछ। लेकिन कभी उसकी भी आवाज सुनी है, जो | | कोई लड़ाई है! उसके बाप ने एक चिट्ठी लिखकर शिक्षक को पूछा भीतर छिपा जीवन है? उसकी कोई आवाज नहीं है। कि तुम मुझे कोई ऐसी लड़ाई बताओ, जो इससे बड़ी रही हो! कृष्ण कहते हैं, ऐसी दशा अपनी ही शत्रुता की दशा है। बड़ी से बड़ी लड़ाइयों के पीछे भी कारण तो सब छोटे ही छोटे और गुलामी भयंकर है, जो नहीं करना चाहती इंद्रियां, वह भी होते हैं। बड़े छोटे-छोटे कारण होते हैं। चाहे वह राम और रावण Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालकियत की घोषणा - की लड़ाई हो, तो कारण बड़ा छोटा-सा होता है; बड़ा छोटा-सा | | हमें पशु कहते हैं। पशु का मतलब, पाश में बंधे हुए। पशु का कारण! चाहे वह महाभारत का इतना बड़ा युद्ध हो, जिसमें इस | | मतलब होता है, जिसके गले में रस्सी बंधी है। तंत्र के ग्रंथ कहते गीता को फलित होने का मौका आया, कारण बड़ा छोटा-सा था। हैं, दो तरह के लोग हैं, पशु और पशुपति। पशु वे, जिनकी इंद्रियां इस बड़े महाभारत के युद्ध में पता है आपको, कारण कितना छोटा उनको गले में बांधकर खींचती रहती हैं; और पशुपति वे, जो इंद्रियों था! बहुत छोटा-सा कारण, द्रौपदी की छोटी-सी हंसी इस पूरे युद्ध के मालिक हो गए, पति हो गए। का कारण। कृष्ण भी वही कह रहे हैं! एक बड़े गहरे तांत्रिक सूत्र की व्याख्या कौरव निमंत्रित हुए हैं पांडवों के घर। और पांडवों ने एक घर | | है, इस शब्द में। कहते हैं, जो अपनी इंद्रियों और अपने शरीर का बनाया है आलीशान। और इस तरह की कलात्मक उसमें व्यवस्था | मालिक है, वही अपना मित्र है। वही भरोसा कर सकता है अपनी की है कि घर कई जगह धोखा दे देता है। जहां पानी नहीं है, वहां मित्रता का। लेकिन जिसे अपनी इंद्रियों पर कोई काबू नहीं है, और मालूम पड़ता है पानी है, इस तरह के दर्पण लगाए हैं। जहां दरवाजा | जिसकी इंद्रियां जिसे कहीं भी दौड़ा सकती हैं, और जिसका शरीर नहीं है, वहां मालूम पड़ता है दरवाजा है, इस तरह के दर्पण लगाए। जिसे किन्हीं भी अंधे रास्तों पर ले जा सकता है, वह अपनी मित्रता हैं। जहां दरवाजा है, वहां मालूम पड़ती है दीवाल है, इस तरह के का भरोसा न करे। अच्छा है कि वह जाने कि मैं अपना शत्रु हूं। कांच लगाए हैं। रथ में बंधे हुए घोड़े मित्र हो सकते हैं, अगर लगाम हो और एक मजाक थी, इनोसेंट। किसी ने सोचा भी न होगा कि इतना | सारथी होशियार हो। नहीं तो रथ में घोड़े न बंधे हों, तो ही रथ की बड़ा युद्ध इसके पीछे फैलेगा! कौन सोचता है ? बहुत छोटी-सी | कुशलता है। घोड़े ही न हों, तो भी रथ सुरक्षित है। लेकिन घोड़े मजाक थी, जो क्ति देवर-भाभी में हो सकती है, इसमें कोई ऐसी | बंधे हों और लगाम न हो और सारथी कुशल न हो या सोया हो, झगड़े की बात नहीं थी बड़ी। और जब दुर्योधन टकराने लगा और तो रथ के दुश्मन हैं घोड़े, मित्र नहीं। घोड़ों का कोई कसूर नहीं है दीवाल से निकलने की कोशिश करने लगा, जहां दरवाजा न था; | लेकिन, ध्यान रखना, नहीं तो आप सोचें कि घोड़ों की गलती है। और दरवाजे से निकलने लगा, और सिर टकरा गया दीवाल से। ___ अभी मैं पढ़ रहा था कहीं कि एक आदमी पर अमेरिका में तो द्रौपदी खिलखिलाकर हंसी। निश्चित ही...। और उसने मजाक मुकदमे चले बहुत-से। और आखिरी मुकदमा चल रहा था। और में पीछे से किसी से कहा कि अंधे के ही तो बेटे ठहरे! अंधे के बेटे मजिस्ट्रेट ने उससे कहा कि मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि तुम्हारे हैं, कुछ भूल तो हो नहीं गई। | सब अपराधों का एक ही कारण है, अल्कोहल, अल्कोहल, जब दुर्योधन को यह पता चला कि कहा गया है, अंधे के बेटे अल्कोहल; शराब, शराब, शराब! उस आदमी ने कहा कि कोई हैं! बस बीज बो गया। छोटी-सी मजाक, अंधे के बेटे, ऐसा फिक्र नहीं है। आप मुझे लंबी सजा दे रहे हैं, लेकिन मैं धन्यवाद छोटा-सा शब्द! इतना बड़ा युद्ध! सब निर्मित हआ, फैला! फिर देता हं आपको। आप अकेले आदमी हैं जिसने मुझे जिम्मेवार नहीं इसके बदले लिए जाने जरूरी हो गए। फिर द्रौपदी को नग्न किया ठहराया। नहीं तो हर कोई कहता है, तुम्ही जिम्मेवार हो। जो देखो जाना इस हंसी का, मजाक का उत्तर था। वही कहता है, तुम्ही जिम्मेवार हो। आप एक समझदार आदमी __बड़े से बड़े युद्ध के पीछे भी बड़े छोटे-छोटे कारण रहे हैं। जिंदगी में मिले, जो कहता है, शराब जिम्मेवार है मेरे सब अपराधों लेकिन एक बार इंद्रियां पकड़ लें, तो फिर वे आपको अंत तक ले के लिए, मैं जिम्मेवार नहीं हूं। जाती हैं। उनका अपना लाजिकल कनक्लूजन है। वे फिर आपको बड़े मजे की बात है। आप भी किसी दिन पकड़े जाएंगे, तो यह छोड़ती नहीं बीच में कि आप कहें कि अब बस छोड़ो; अब तो | मत सोचना कि कह देंगे कि इंद्रियों ने करवा दिया, मैं क्या करूं! मजाक बहुत हो गई; बात बहुत आगे बढ़ गई। फिर रुक नहीं उस दिन आपकी हालत इसी आदमी जैसी हो जाएगी। इंद्रियां सकते, फिर वे धक्का देती हैं। कहती हैं, जब यहां तक बात खींची, आपसे कुछ नहीं करवा सकतीं। करवा सकती हैं, क्योंकि आपने तो अब डटे रहो। फिर आपको आगे बढ़ाए चली जाती हैं। | कभी मालकियत घोषित नहीं की। आपने कभी घोषणा नहीं की कि इंद्रियां इस तरह आदमी को खींचती हैं जैसे कि जानवरों के गले | | मैं मालिक हूं। में रस्सी बांधकर कोई उनको खींचता हो। इसलिए तंत्र के शास्त्र तो। | और ध्यान रहे, मालकियत की घोषणा करनी पड़ती है। और Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-3 ध्यान रहे, मालकियत मुफ्त में नहीं मिलती, मालकियत के लिए | थका-मांदा आदमी घर में और लड़ाई नहीं करना चाहता; किसी श्रम करना पड़ता है। और ध्यान रहे, बिना श्रम के जो मालकियत तरह निपटारा कर लेना चाहता है। पत्नी दिनभर लड़ी-करी नहीं, मिल जाए, वह इंपोटेंट होती है, उसमें कोई बल नहीं होता। जो श्रम | तैयार रहती है, पूरी शक्तियां हाथ में रहती हैं। वह आदमी से मिलती है, उसकी शान ही और होती है। थका-मांदा लौट रहा है, अब लड़ने की हिम्मत भी नहीं। युद्ध के ध्यान रहे, रथ में सबसे शानदार घोड़ा वही है, जिस पर लगाम स्थल से वापस आ रहे हैं, कुरुक्षेत्र से! अब वे और दूसरा कुरुक्षेत्र न हो, तो जो रथ को खतरे में डाल दे। सबसे शानदार घोड़ा वही खड़ा करना नहीं चाहते। है। जिस पर लगाम ही न हो, तो आप कोई टट्ट या खच्चर बांधे, । पत्नी पहले दिन से ही आकर कब्जा कर ली थी उस आदमी पर; और खतरे में भी न डाले, आपका रथ भी चला जा रहा है। जो घोड़ा बड़ी मुश्किल में डाल दिया था। और पत्नी इसकी चर्चा भी करती लगाम के न होने पर गड्ढे में गिरा दे, वही शानदार घोड़ा है; लगाम थी। और एक दिन तो और स्त्रियों ने कहा कि हम मान नहीं सकते। होने पर वही चलाएगा भी। ध्यान रखना, वही चलाएगा। यह हां, यह तो हम सब जानते हैं कि पति डरते हैं। लेकिन इतना हम खच्चर नहीं चलाएगा, जो कि खतरे में भी नहीं डालता। लगाम नहीं नहीं मान सकते. जितना त बताती है कि डरते हैं। तो उसने कहा कि है, तो विश्राम करता है। वह लगाम होने पर भी बहुत मुश्किल है आज तुम दोपहर को घर आ जाओ। आज छुट्टी का दिन है और कि आप उसको थोड़ा-बहुत सरका लें। पति घर पर होंगे। आज तुम आ जाओ। आज मैं तुम्हें दिखा दूं। जो इंद्रियां आपको गड्ढों में डालती हैं, वे आपकी सबल शक्तियां __पंद्रह-बीस स्त्रियां मुहल्ले की इकट्ठी हो गईं। जब सब स्त्रियां हैं। लेकिन मालकियत आपकी होनी चाहिए, तो शुभ हो जाएगा | इकट्ठी हो गईं, तो उस स्त्री ने अपने पति से कहा कि उठ और बिस्तर फलित। अगर मालकियत नहीं है, तो अशुभ हो जाएगा फलित। के नीचे सरक! वह बेचारा जल्दी से उठा और बिस्तर के नीचे सरक सबसे ज्यादा कौन-सी इंद्रियां हमें गड्ढे में डाल देती हैं? गया। फिर उसने और रौब दिखाने के लिए कहा कि अब दूसरी जननेंद्रिय, सेक्स सबसे ज्यादा गड्ढे में डालती है। सबसे | | तरफ से बाहर निकल! उस आदमी ने कहा कि अब मैं बाहर नहीं शक्तिशाली है इसलिए। और सबसे ज्यादा पोटेंशियल है, | निकल सकता। मैं दिखाना चाहता है, इस घर में असली मालिक ऊर्जावान है। और ध्यान रहे, जिस व्यक्ति ने अपनी काम-ऊर्जा पर | | कौन है! उसने कहा कि अब मैं बाहर नहीं निकल सकता। अब मैं मालकियत पा ली, उसके पास इतना अदभुत, उसके पास इतना | | दिखाना चाहता हूं, इस घर का असली मालिक कौन है! बलशाली घोड़ा होता है कि वही घोड़ा उसे स्वर्ग के द्वार तक पहुंचा | बिस्तर के नीचे तो घुस गया, क्योंकि बाहर रहता तो मार-पीट, देता है। काम की ऊर्जा ही, जब आप गुलाम होते हैं उसके, तो झंझट-झगड़ा हो सकता था। उसने कहा कि अब अच्छा मौका है। वेश्यालयों में पटक देती है आपको-डबरों में, गड्ढों में, | अब बिस्तर के नीचे से ही उसने कहा कि अब तू समझ ले। अब कीड़े-मकोड़ों में। और जब काम की ऊर्जा पर आपका वश होता मैं बाहर नहीं निकलता; आज्ञा नहीं मानता। अब मैं बताना चाहता है, तो वही काम-ऊर्जा ब्रह्मचर्य बन जाती है और ईश्वर के द्वार तक हूं कि हू इज़ दि रियल ओनर। ले जाने में सहयोगी हो जाती है। . हम भी कभी अगर इंद्रियों पर कोई मालकियत करते हैं, तो वह सभी इंद्रियां—उदाहरण के लिए काम मैंने कहा, वह सबसे ऐसे ही, बिस्तर के नीचे घुसकर! और कोई मालकियत हमने कभी सबल है इसलिए सभी इंद्रियां, अगर उनकी मालकियत हो, तो इंद्रियों पर नहीं की है। कभी बहुत कमजोर हालत में, ऐसा मौका मित्र बन जाती हैं; और मालकियत न हो, तो शत्रु बन जाती हैं। | पाकर कभी हम घोषणा करते हैं। मगर ठीक सामने इंद्रिय के, मालकियत की आप कभी घोषणा ही नहीं करते। और अगर उसकी शक्तिशाली इंद्रिय के सामने हम कभी घोषणा नहीं करते। कभी करते भी हैं, तो उसी तरह की करते हैं, जैसा मैंने सुना है कि जैसे कि आदमी बूढ़ा हो गया, तो वह कहता है, मैंने अब तो एक आदमी था दब्बू, जैसे कि अधिक आदमी होते हैं। सड़क पर काम-इंद्रिय पर विजय पा ली। वह पागलपन की बातें कर रहा है। तो बहुत अकड़ में रहता था, लेकिन घर में पत्नी से बहुत डरता था, ये बिस्तर के नीचे घुसकर बातें हो रही हैं। तो जब जवान है व्यक्ति जैसा कि सभी डरते हैं। कभी-कभी कोई अपवाद होता है, उसको और जब इंद्रिय सबल है, तभी मौका है घोषणा का। छोड़ा जा सकता है। उसके कुछ कारण हैं। दिनभर लड़ा हुआ, अब आपका पेट खराब हो गया है, लीवर के मरीज हो गए हैं, Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 मालकियत की घोषणा - खाया नहीं जाता। आपने कहा, अब तो हमने भोजन पर बिलकुल गया था? कल मैंने नमस्कार भी किया, आपको रोका भी, हिलाया विजय पा ली। दांत न रहे, दांत गिर गए, अब चबाते नहीं बनता। | भी। आप एकदम छूटकर भागे। आपने मुझे देखा भी नहीं! आपको अब आप कहने लगे कि हम तो लिक्विड आहार लेते हैं; कुछ रस | खयाल है? वह आदमी कहेगा, मुझे कुछ खयाल नहीं है। कल मेरे न रहा! ये बिस्तर के नीचे घुसकर आप घोषणाएं कर रहे हैं। घर में आग लग गई थी। इससे नहीं होगा। इससे अपने को आप फिर धोखा दे रहे हैं। तो जब घर में आग लगी हो, तो सारी चेतना उस तरफ केंद्रित हो इंद्रियों का एनकाउंटर करना पड़ेगा, जब वे सबल हैं। और तब जाती है। आंख की खिड़की से चेतना हट जाती है, कान की खिड़की उनको जीता, तो उसका रहस्य और राज है, उसकी शक्ति है। और | से हट जाती है। फिर आंख में दिखाई पड़ता रहे, फिर भी दिखाई नहीं जब इंद्रियां निर्बल हो गईं और कोई शक्ति न रही, हारने का भी | पड़ता। सुनाई पड़ता रहे कान में, फिर भी सुनाई नहीं पड़ता। उपाय न रहा जब, तब जीतने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। अगर अटेंशन हट गई हो इंद्रिय से, ध्यान हट गया हो, तो इंद्रिय कृष्ण कहते हैं, इंद्रियों का जो मालिक है! | बिलकुल बेकार हो जाती है। जिस इंद्रिय से ध्यान जुड़ा होता है, वही और इंद्रियों का मालिक कब होता है कोई? इंद्रियों की मालकियत इंद्रिय सार्थक, सफल होती है. सक्रिय होती है. सशक्त होती है। के दो सूत्र आपसे कहूं, तो यह सूत्र आपको पूरा स्पष्ट हो सके। ध्यान किसका है? ध्यान मालिक का है। इंद्रिय तो सिर्फ गुलाम __ पहली बात, इंद्रियों का मालिक वही हो सकता है, जो इंद्रियों से है, इंस्ट्रमेंट है, उपकरण है। अपने को पृथक जाने। अन्यथा मालिक होगा कैसे? हम उसके ही | लेकिन इसे थोड़ा देखना पड़े। जब आप किसी को देखें, मालिक हो सकते हैं, जिससे हम भिन्न हैं। जिससे हम भिन्न नहीं हैं, | | फिलहाल जैसे मुझे देख रहे हैं, तो थोड़ा खयाल करें, आंख देख उसके हम मालिक कैसे होंगे? पर हम अपने को इंद्रियों से अलग रही है या आप देख रहे हैं? तब आंख सिर्फ बीच का द्वार रह मानते ही नहीं। हम तो अपनी इंद्रियों से इतनी आइडेंटिटी, इतना | जाएगी। उस पार आप हैं; और जिसको आप देख रहे हैं, वह भी तादात्म्य किए हैं कि लगता है, हम इंद्रियां ही हैं, और कुछ भी नहीं। | मैं नहीं हूं; वे भी मेरे द्वार हैं, जिनको आप देख रहे हैं; इस पार मैं तो जिसे भी इंद्रियों की मालकियत की तरफ जाना हो, उसे हूँ। जब दो आदमी मिलते हैं, तो दो तरफ दो आत्माएं होती है और अपनी इंद्रियों और अपने बीच में थोडा फासला. गैप खडा करना दोनों के बीच में उपकरणों के दो जाल होते हैं। जब मैं हाथ फैलाकर चाहिए। उसे जानना चाहिए कि मैं आंख नहीं हूं; आंख के पीछे | आपके हाथ को अपने हाथ में लेता हं. तो हाथ के द्वारा मैं अपनी कोई हैं। आंख से देखता हं जरूर, लेकिन आंख नहीं देखती. आत्मा से आपको स्पर्श करने की कोशि रहा है। हाथ तो देखता है कोई और। आंख बिलकुल नहीं देख सकती। आंख में सिर्फ उपकरण है। देखने की कोई क्षमता नहीं है। आंख तो सिर्फ झरोखा है। आंख तो उपकरणों को हम अपनी आत्मा समझ लें, तो फिर यह सिर्फ पैसेज है, मार्ग है, जहां से देखने की सुविधा बनती है। जैसे मालकियत जो कृष्ण चाहते हैं, कभी भी पूरी नहीं होने वाली है। आप खिड़की पर खड़े हों और धीरे-धीरे यह कहने लगे कि खिड़की उपकरणों को समझें उपकरण, अपने को देखें पृथक। चलते आकाश देख रही है, वैसा ही पागलपन है। आंख सिर्फ खिड़की है समय रास्ते पर खयाल रखें कि शरीर चल रहा है, आप नहीं चल आपके शरीर की, जहां से आप बाहर की दुनिया में झांकते हैं। मन | रहे हैं। आप कभी चले ही नहीं; आप चल ही नहीं सकते। आप जो भीतर है, चेतना जो और भीतर है, वही असली देखने वाला है; शरीर के भीतर ऐसे ही बैठे हैं, जैसे चलती हुई कार के भीतर कोई आंख भी नहीं देखती। आदमी बैठा हो। कार चल रही है और आदमी बैठा हुआ है। यद्यपि कभी आपको अनुभव हुआ होगा ऐसा। रास्ते से भागा चला जा आदमी की भी यात्रा हो जाएगी, लेकिन चलेगा नहीं। ऐसे ही आप रहा है एक आदमी। उसके घर में आग लग गई है। उसको नमस्कार अपने शरीर के भीतर बैठे ही रहे हैं, कभी चले नहीं। यात्रा आपकी करें, उसको कुछ दिखाई नहीं पड़ता। उससे कहें, कहिए कैसे हैं? बहुत हो जाती है, लेकिन चलता शरीर है, आप सदा बैठे हैं। वह कोई जबाब नहीं देता। वह सुनाई भी नहीं पड़ता उसको। वह | वह जो भीतर बैठा है, उसे जरा खयाल करें चलते वक्त; वह भागा जा रहा है। | तो नहीं चल रहा है, वह कभी नहीं चलता। भोजन करते वक्त दूसरे दिन उसको मिलिए और उससे कहिए, आपको क्या हो खयाल करें कि भोजन शरीर में ही जा रहा है, उसमें नहीं जा रहा 53 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 गीता दर्शन भाग-3 -- --- गानालिटर है, जो आप हैं। इसे स्मरण रखें। लगते हैं कि अब कामातुर हो जाओ। चौदह साल के पहले कोई यह स्मरण, रिमेंबरेंस जितनी घनी हो जाएगी, उतना ही आप कामवासना उठती हुई मालूम नहीं पड़ती। चौदह साल हुए, ग्लैंड पाएंगे, आप अलग हैं। जिस दिन आप पाएंगे, आप अलग हैं, उसी परिपक्व हो जाती है, सक्रिय हो जाती है। सक्रिय हुई ग्लैंड कि उसने दिन आपकी मालकियत की घोषणा संभव हो पाएगी। और कठिन | - आपको धक्के देने शुरू किए कि कामवासना में उतरो, भागो, नहीं है फिर यह घोषणा कर देना कि मैं मालिक हूं। लेकिन एक दफे दौड़ो। जाओ, नंगी तस्वीरें देखो, फिल्म देखो, कहानी पढ़ो; कुछ पृथकता को अनुभव करना कठिन है; मालकियत की घोषणा करो। कुछ न मिले, तो रास्ते पर किसी को धक्का दे दो, गाली दे आसान है। | दो, कुछ न कुछ करो। और जो व्यक्ति इंद्रिय और शरीर का मालिक हो जाता है, वह अब यह आप कर रहे हैं, इस भ्रांति में मत पड़ना, क्योंकि आप अपना मित्र हो जाता है। मित्र इसलिए हो जाता है कि उसकी इंद्रियां तो चौदह साल पहले भी थे। लेकिन एक ग्लैंड सक्रिय नहीं थी; वही करती हैं, जो उसके हित में है। एक इंद्रिय सोई हुई थी। अब वह जग गई है। वह इंद्रिय ही आपसे अन्यथा इंद्रियों के हाथ में चलाना बड़ा खतरनाक है। शरीर हमें करा रही है। अगर इतना होश पैदा कर सकें कि यह इंद्रिय मुझसे चला रहा है, जिसके पास कोई भी होश नहीं, समझ नहीं, चेतना | करा रही है; और मैं पृथक हूं; जिस दिन आपको पृथकता का नहीं। इंद्रियां हमें दौड़ा रही हैं, लेकिन हमें खयाल में नहीं है कि दौड़ अनुभव हो जाए, उसी दिन आप अपनी मालकियत की घोषणा कर किस तरह की है। सकते हैं। अभी रूस में एक मनोवैज्ञानिक कुछ समय पहले चल बसा, और मजा ऐसा है कि आपने घोषणा की कि मैं मालिक हूं, कि पावलव। उसने मनुष्य की ग्रंथियों पर बहुत से काम किए हैं। उसमें सारी इंद्रियां सिर झुकाकर पैर पर पड़ जाती हैं। आपकी घोषणा की एक काम आपको खयाल में ले लेने जैसा है। उसका यह कहना है | सामर्थ्य चाहिए बस। कि अगर आदमी की कोई ग्रंथि, विशेष ग्रंथि काट दी जाए, कोई | मैंने आपसे कहानी कही ग्लैंड अलग कर दी जाए, तो उसमें से कुछ चीजें तत्काल नदारद | | बाहर है, या सोया है, या बेहोश है, या मौजूद नहीं है। नौकर सब हो जाती हैं। मालिक हो गए हैं। उस कहानी को हम थोड़ा और आगे बढ़ा ले जैसे आप में क्रोध है। आप सोचते हैं, मैं क्रोध करता हूं, तो आप सकते हैं कि मालिक वापस लौट आया। उसका रथ द्वार पर आकर गलती में हैं। आपकी इंद्रियों में क्रोध की ग्रंथियां हैं और जहर इकट्ठा रुका। जो नौकर दरवाजे पर था, उसने चिल्लाकर यह नहीं कहा कि है। वह आपने जन्मों-जन्मों के संस्कारों से इकट्ठा किया है। वही मैं मालिक हूं। कैसे कहता! वह जल्दी से उठा और उसके पैर छुए। आपसे क्रोध करवा लेता है-वह जहर। उसने कहा कि बहुत देर लगाई। हम बड़ी प्रतीक्षा कर रहे थे! वह पावलव ने सैकड़ों प्रयोग किए कि वह जहर की गांठ काटकर | मालिक घर के भीतर आया। सारे नौकरों में खबर पहुंच गई। वे फेंक दी, अलग कर दी। फिर उस आदमी को आप कितनी ही सब प्रसन्न हैं; नाराज भी नहीं हैं; मालिक वापस लौट आया। अब गालियां दें, वह क्रोध नहीं कर सकता; क्योंकि क्रोध करने वाला | घर में कोई घोषणा नहीं करता कि मैं मालिक हूं। मालिक की उपकरण न रहा। ऐसे ही, जैसे मेरा हाथ आप काट दें। और फिर | मौजूदगी ही घोषणा बन गई। मुझसे कोई कितना ही कहे कि हाथ बढ़ाओ और मुझसे हाथ ठीक ऐसी ही घटना इंद्रियों के जगत में घटती है। एक दफे आप मिलाओ, मैं हाथ न मिला सकूँ। कितना ही चाहूं, तो भी न मिला | जान लें कि मैं पृथक हूं, और एक बार खड़े होकर कह दें कि मैं सकू। क्योंकि हाथ तो नहीं है, चाह रह जाएगी नपुंसक पीछे। हाथ | | पृथक हूं, आप अचानक पाएंगे कि जो इंद्रियां कल तक आपको तो मिलेगा नहीं, उपकरण नहीं मिलेगा। खींचती थीं, वे आपके पीछे छाया की तरह खड़ी हो गई हैं। वह इंद्रियों के पास अपने-अपने संग्रह हैं हार्मोस के, और प्रत्येक आपकी आज्ञा मानना उन्होंने शुरू कर दिया है। इंद्रिय आपसे कुछ काम करवाती रहती है और आप उसके धक्के आप आज्ञा ही न दें, तो इंद्रियों का कसूर क्या है ? आप मौजूद में काम करते रहते हैं। जब आपकी कामेंद्रिय पर जाकर वीर्य इकट्ठा ही न हों, तो आज्ञा कौन दे? और इंद्रियों को गाली मत देना, जैसा हो जाता है, केमिकल्स इकट्ठे हो जाते हैं, वे आपको धक्का देने कि अधिक लोग देते रहते हैं। कई लोग यही गालियां देते रहते हैं 54 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समालकियत की घोषणा - कि इंद्रियां बड़ी दुश्मन हैं। इंद्रियां दुश्मन नहीं हैं। इंद्रियां दुश्मन हैं, अगर आप मालिक नहीं हैं। ध्यान रखना, यह फर्क है। इंद्रियां मित्र हो जाती हैं, अगर आप मालिक हैं। इसलिए भूलकर इंद्रियों को गाली मत देना। कई बैठे-बैठे यही गालियां देते रहते हैं कि इंद्रियां बड़ी शत्रु हैं, बड़े गड्ढों में गिरा देती हैं! कोई इंद्रिय गड्ढे में नहीं गिराती। आप गड्ढे में गिरते हैं, तो इंद्रियां बेचारी साथ देती हैं। आप स्वर्ग की तरफ जाने लगें, इंद्रियां वहां भी साथ देती हैं; वे उपकरण हैं।। मगर आपने कभी मालकियत की घोषणा न की। आप अपने नौकरों के पीछे चल रहे हैं। कसूर किसका है? और नौकरों के पीछे चलकर फिर गालियां दे रहे हैं कि नौकर हमको भटका रहे हैं, वे हमको गलत जगह ले जा रहे हैं! कम से कम कहीं तो ले जा रहे हैं! चला तो रहे हैं किसी तरह। आप तो मौजूद ही नहीं हैं। आप तो मरे की भांति हैं; जिंदा ही नहीं हैं। आप हैं या नहीं, इसका भी पता नहीं चलता। कृष्ण इसलिए बहुत ठीक डिस्टिंक्शन करते हैं। वे इंद्रियों को नहीं कहते कि इंद्रियां शत्रु हैं। और जो आदमी आपसे कहे, इंद्रियां शत्रु हैं, समझना कि उसे कुछ भी पता नहीं है। कृष्ण कहते हैं, मालिक न होना शत्रुता बन जाती है अपनी। मालिक हो गए कि मित्र हो गए। आज के लिए इतना ही। लेकिन उठेंगे नहीं। पांच मिनट कीर्तन के लिए रुकेंगे। शरीर तो कहेगा कि उठो। जरा काबू रखना। इंद्रियां तो कहेंगी कि भागो। मगर जरा काबू रखना। एक पांच मिनट जरा मालिक होने की कोशिश करना। जो भागा, हम समझेंगे, गुलाम है। तो हम पांच मिनट थोड़ा कीर्तन में डूबेंगे, उसमें जरा डूबे। कम से कम बैठकर वहीं से कीर्तन में साथ दें, आवाज दें, ताली बजाएं, आनंदित हों। 55 Page #82 --------------------------------------------------------------------------  Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 6 चौथा प्रवचन ज्ञान विजय है Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग - 3 > जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः । शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः ।। ७ ।। और हे अर्जुन, सर्दी-गर्मी और सुख-दुखादिकों में तथा मान और अपमान में जिसके अंतःकरण की वृत्तियां अच्छी प्रकार शांत हैं अर्थात विकाररहित हैं, ऐसे स्वाधीन आत्मा वाले पुरुष के ज्ञान में सच्चिदानंदघन परमात्मा सम्यक प्रकार से स्थित है अर्थात उसके ज्ञान में परमात्मा के सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं । सु ख-दुख में, प्रीतिकर - अप्रीतिकर में, सफलताअसफलता में, जीवन के समस्त द्वंद्वों में जिसकी आंतरिक स्थिति डांवाडोल नहीं होती है; कितने ही तूफान बहते हों, जिसकी अंतस चेतना की ज्योति कंपती नहीं है; जो निर्विकार भाव से भीतर शांत ही बना रहता है-अनुद्विग्न, अनुत्तेजित - ऐसी चेतना के मंदिर में, परम सत्ता सदा ही विराजमान है, ऐसा कृष्ण ने अर्जुन से कहा। तीन बातें खयाल में ले लेनी जरूरी हैं। एक, द्वंद्व में जो थिर है, विपरीत अवस्थाओं में जो समान है। सफलता हो कि असफलता, मान हो कि अपमान, जैसे उसके भीतर कोई अंतर ही नहीं पड़ता है, जैसे भीतर कोई स्पर्श ही नहीं होता है । घटनाएं बाहर घट जाती हैं और व्यक्ति भीतर अछूता छूट जाता है। पहले तो इस बात को ठीक से खयाल में ले लेना जरूरी है कि इसका क्या अर्थ है, क्या अभिप्राय है? क्या प्रक्रिया इस तक पहुंचने की है ? क्या मार्ग है ? पहले तो यह ठीक से समझ लें कि हम उद्विग्न कैसे हो जाते हैं? जब दुख आता है तब भी और जब सुख आता है तब भी, तब भीतर चेतना की ज्योति को कंपने का अवसर क्यों बन जाता है ? क्या है कारण? क्या दुख ही कारण है? यदि दुख ही कारण है, तब तो कृष्ण जो कहते हैं, वह कभी संभव नहीं हो पाएगा, क्योंकि कृष्ण पर भी दुख आएंगे। जब भीतर की चेतना समतुलता खो देती है सुख में, उत्तेजित हो जाती है, क्या सुख ही कारण है? यदि सुख ही कारण है, तब तो फिर इस पृथ्वी पर कोई भी कभी उस स्थिति को नहीं पा सकेगा, जिसकी कृष्ण बात करते हैं। स्वयं कृष्ण भी नहीं पा सकेंगे। हम सब ऐसा ही सोचते हैं कि उद्विग्न हो गए दुख के कारण; उत्तेजित हो गए सुख के कारण नहीं, सुख और दुख कारण नहीं हैं। जब तक आप सुख और दुख को कारण समझेंगे, तब तक उत्तेजित होते ही रहेंगे। आपने कारण ही गलत समझा है, आपका निदान ही भ्रांत है। 58 सुख से उत्तेजित नहीं होता है कोई । सुख के साथ अपने को एक | समझ लेता है, इससे उत्तेजित होता है। दुख से कोई उत्तेजित नहीं होता । दुख में अपने को खो देता है, इसलिए उत्तेजित होता है। दुख और सुख के बाहर खड़े रहने में हम समर्थ नहीं हैं; भीतर प्रवेश कर जाते हैं। एक आइडेंटिटी हो जाती है, एक तादात्म्य हो जाता है। जब आप पर दुख आता है, तो ऐसा नहीं लगता है, मुझ पर दुख आया। ऐसा लगता है, मैं दुख हो गया। जब सुख आपको घेर लेता है, तो ऐसा नहीं लगता है कि सुख आपके चारों ओर आपको घेरकर खड़ा है; ऐसा लगता है कि आप ही सुख हो गए; सुख की एक लहर मात्र । यह तादात्म्य, यह सुख और दुख के साथ बंध जाने की वृत्ति ही उत्तेजना का कारण है। और यह वृत्ति तोड़ी जा सकती है। सुख-दुख आते रहेंगे। सुख-दुख बंद नहीं होते। बुद्ध के पैरों में भी कांटे चुभ जाते हैं। बुद्ध भी बीमार पड़ते हैं । बुद्ध को भी मृत्यु आती है। लेकिन हमसे कुछ भिन्न ढंग से आती है । मृत्यु तो ढंग नहीं बदलेगी। मृत्यु तो अपने ही ढंग से आएगी। लेकिन बुद्ध अपने को इतना बदल लेते हैं कि मृत्यु के आने का ढंग पूरा का पूरा बदल जाता है। बुद्ध मरने के करीब हैं। जीवन का दीया बुझने के करीब है। शरीर छूटने को है । और एक भिक्षु बुद्ध से पूछता है, बहुत पीड़ा हो रही है। भिक्षु कहता है, बहुत मन दुखी हो रहा है। थोड़े ही क्षणों | बाद आप नहीं होंगे! बुद्ध कहते हैं, जो नहीं था, वही नहीं हो जाएगा। था, वह रहेगा। मृत्यु आ रही है । बुद्ध कहते हैं, जो नहीं था, वही नहीं हो जाएगा। इसलिए तुम व्यर्थ दुखी मत हो जाओ। क्योंकि मृत्यु उसे ही मिटा सकती है, जो नहीं था; जिसे हमने सोचा भर था कि है । स्वप्न था जो हमारी धारणा मात्र थी, अस्तित्व नहीं था जिसका। विचार मात्र था, वस्तु जगत में जिसकी कोई संभावना भी न थी, वही मिट जाएगा। जो नहीं था, वही मिट जाएगा; वह था ही नहीं। और जो था, उसके मिटने का कोई उपाय नहीं है। जो है, वह रहेगा । मृत्यु तो आ रही है, लेकिन बुद्ध मृत्यु को और तरह से देखते हैं। मैं मरूंगा, ऐसा बुद्ध नहीं देखते। बुद्ध देखते हैं, जो मर सकता Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ << ज्ञान विजय है - है, जो मरा ही हुआ है, वह मरेगा। स्वयं को दूर खड़ा कर पाते हैं, | मौजूद नहीं है। हम उससे विपरीत देखे चले जाते हैं। हम जो हैं, तटस्थ हो पाते हैं। मृत्यु की नदी बह जाएगी, बुद्ध तट पर खड़े रह उससे हम अपना तादात्म्य नहीं करते; और जो हम नहीं हैं, उससे जाएंगे-अछूते, बाहर। हम अपने को एक समझ लेते हैं! क्यों हो जाती है ऐसी भूल? पीड़ा भी आती है, दुख भी आता है। सब आता रहेगा। रात भी भूल इतनी बड़ी है कि उसे भूल कहना शायद ठीक नहीं। क्योंकि आएगी, सुबह भी होगी। इस पृथ्वी पर आप ज्ञान को उपलब्ध हो भूल उसे ही कहना चाहिए, जिसे कोई कभी करता हो। जिसे सभी जाएंगे, तो रात उजाली नहीं हो जाएगी। आप ज्ञान को उपलब्ध हो | निरंतर करते हैं, उसे भूल कहना एकदम ठीक नहीं मालूम पड़ता। जाएंगे, तो दुख सुख नहीं बन जाएगा। आप ज्ञान को उपलब्ध हो ___ भूल का मतलब ही यह होता है कि सौ में कभी एक कर लेता जाएंगे, तो कांटा गड़ेगा तो फूल जैसा मालूम नहीं पड़ेगा, कांटे | हो, तो हम हकदार हैं कहने के कि कहें, भूल। सौ में सौ ही करते जैसा ही मालूम पड़ेगा। फिर अंतर कहां होगा? हैं। कभी करोड़ दो करोड़ में एक आदमी नहीं करता है। तो भूल भीतर की चेतना कब डांवाडोल होती है ? पैर में कांटा चुभता है एकदम सिर्फ भूल नहीं है; मैथमेटिकल इरर जैसी भूल नहीं है कि तब? नहीं; जब भीतर की चेतना ऐसा मानती है कि मुझे काटा चुभ दो और दो जोड़े और पांच हो गए, ऐसी भूल नहीं है। वह कोई कभी गया, तब। अगर भीतर की चेतना कांटे के पार रह जाए, तो करता है। सिर्फ भूल कहने से नहीं चलेगा; भ्रांति है।। अनुद्विग्न रह जाती है। तो फिर चेतना अस्पर्शित, अनटच्ड, बाहर भूल और भ्रांति में थोड़ा फर्क है। और भूल और भ्रांति के फर्क रह जाती है। को खयाल में ले लेना, दूसरी बात है। तो इस सूत्र को समझा जा यह बाहर रह जाने की कला ही योग है। इस बाहर रह जाने की | सकेगा। कला के संबंध में ही कृष्ण कह रहे हैं। और ऐसी थिर हो गई | भूल वह है, जिसमें व्यक्ति जिम्मेवार होता है, खुद की ही कुछ चेतना में, ऐसी जैसी ज्योति को हवा के झोंकों में कोई अंतर न | गलती से कर जाता है। भ्रांति वह है, जिसमें जाति, मनुष्य जैसा है, पड़ता हो; ऐसी चेतना में ही परम सत्ता विराजमान हो जाती है। | वही जिम्मेवार होती है। मनुष्य के होने का ढंग ही जिम्मेवार होता है। द्वार खुल जाते हैं उसके मंदिर के। वह विराजमान है ही। हमें | | रास्ते से आप गुजर रहे हैं और एक रस्सी को आपने सांप समझ उसका पता नहीं चलता। | लिया, तो वह आपकी भूल है। सब गुजरने वाले सांप नहीं चेतना दो में से एक चीज का ही पता चला सकती है। या तो समझेंगे। वह सांप से डरने वाला चित्त, सांप से भयभीत चित्त, सांप तादात्म्य की दुनिया में संयुक्त रहे, तो संसार का पता चलता रहता के अनुभवों से भरा हुआ चित्त, रस्सी से भी सांप का अनुमान कर है। या तादात्म्य की दुनिया से हट जाए, तटस्थ हो जाए, तो लेगा। वह इनफरेंस है उसका कि कहीं सांप न हो। लेकिन सभी को परमात्मा का पता चलना शुरू हो जाता है। सांप नहीं दिखाई पड़ेगा। वह भूल है, इसलिए बहुत कठिनाई नहीं ऐसा समझें कि हम बीच में खड़े हैं। इस ओर संसार है, उस ओर है। टार्च जला ली जाए, दीया जला लिया जाए और भूल मिट परमात्मा है। जब तक हमारी नजर संसार के साथ जोर से चिपटी जाएगी। वह व्यक्तिगत है। वह मनुष्य के चित्त से पैदा नहीं होती; रहती है, तब तक पीछे नजर उठाने का मौका नहीं आता। जब व्यक्तिगत चित्त से पैदा होती है। वह इंडिविजुअल है, कलेक्टिव संसार से नजर थोड़ी ढीली होती है, पृथक होती है, अलग होती है, नहीं है। तो अनायास ही-अनायास ही-परमात्मा पर नजर जानी शुरू हो | लेकिन जिस भूल की मैं बात कर रहा हूं या कृष्ण इस सूत्र में जाती है। बात कर रहे हैं, वह कलेक्टिव है। ऐसा नहीं है कि किसी को रस्सी दृष्टि तो कहीं जाएगी ही। दृष्टि का कहीं जाना धर्म है। लेकिन सांप दिखाई पड़ती है। जो भी गुजरता है, उसी को दिखाई पड़ती है। दो तरफ जा सकती है, पदार्थ की तरफ जा सकती है, परमात्मा की बल्कि किनारे बुद्ध और महावीर और कृष्ण जैसे लोग खड़े होकर तरफ जा सकती है। और परमात्मा की तरफ जाने का एक ही सुगम चिल्लाते रहें कि यह सांप नहीं, रस्सी है, फिर भी सांप ही दिखाई उपाय है कि वह पदार्थ की तरफ तादात्म्य को उपलब्ध न हो। बस, | पड़ता है। तो इसको भूल कहना आसान नहीं है। परमात्मा की तरफ बहनी शुरू हो जाती है। दीए जला लो, रोशनी कर दो, चिल्ला-चिल्लाकर कहते रहो कि वह परमात्मा सदा मौजूद ही है। लेकिन हमारी दृष्टि उस पर । यह रस्सी है, सांप नहीं! फिर भी जो गुजरता है, सुनकर भी उसे Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-3 - । सांप ही दिखाई पड़ता है, रस्सी दिखाई नहीं पड़ती। तो यह भूल कांटा गड़ता है, वह मुझे नहीं गड़ता। यह तो कोई भी मानने को कलेक्टिव माइंड की है, इसलिए भ्रांति है। | राजी हो जाएगा। बीमारी आती है. वह मझे नहीं आती। मौत आती यह उस तरह की है, जैसे हम एक लकड़ी को पानी में डाल दें| है, वह मुझे नहीं आती। यह तो कोई भी मानने को राजी हो जाएगा। और वह तिरछी हो जाए। तिरछी होती नहीं, दिखाई पड़ती है। नहीं, कठिनाई दुख से नहीं है; कठिनाई सुख से है। सुख मैं नहीं लकड़ी को बाहर खींच लें, वह फिर सीधी मालूम होती है। फिर हूं, यह मानने को हम स्वयं ही राजी नहीं होते। इसलिए दुख सवाल पानी में डालें, वह फिर तिरछी मालूम होती है। अंदर लकड़ी को | नहीं है, सवाल सुख है। जब आप कहते हैं कि मैं जिंदा हूं, तो फिर पानी में हाथ डालकर टटोलें, वह सीधी मालूम पड़ती है। लेकिन | आपको कहना पड़ेगा कि मैं मरूंगा। आंख को फिर भी तिरछी दिखाई पड़ती है! वह भूल नहीं है, भ्रांति __ ध्यान रखें, भूल मरने से नहीं आती, जिंदगी के साथ आती है। है। आप हजार दफे जान लिए हैं भलीभांति कि लकड़ी तिरछी नहीं जिंदगी-मैं जिंदा हूं! और अगर भूल तोड़नी है, तो जिंदगी से होती पानी में, फिर भी जब लकड़ी पानी में दिखाई पड़ेगी. तो तिरछी तोड़नी पड़ेगी, मौत से नहीं। लेकिन लोग मौत से तोड़ने का उपाय ही दिखाई पड़ेगी। करते हैं। बैठ-बैठकर याद करते रहते हैं कि आत्मा अमर है। मैं भ्रांति वह है, जो समूहगत मन से पैदा होती है। कभी नहीं मरूंगा। इसे मैं भ्रांति कहता हूं, हमारे तादात्म्य को। दुख और सुख के | लेकिन उनको खयाल नहीं है कि जब आप अपने को जीवित साथ हम अपने को एकदम एक कर लेते हैं। यह समूहगत मन, | | समझ रहे हैं, तो एक दिन आपको, मरता हूं, यह भी समझना कलेक्टिव माइंड से पैदा होने वाली भ्रांति है। जैसे पानी में लकड़ी | पड़ेगा। यह उसका दूसरा हिस्सा है। लेकिन कोई भी बैठकर यह डाल दी और वह तिरछी मालूम हुई। यह सांप दिखाई पड़ने लगे स्मरण नहीं करता कि मैं जीवित कहां हूं! यह बहुत घबड़ाने वाली रस्सी में, वैसी भूल नहीं है। इसलिए हजार दफे समझने के बाद, | | बात होगी। अगर तोड़ना है, तो यहां से तोड़ना पड़ेगा। फिर, फिर वही भूल हो जाती है। । जब सख आए. तब तो मन तत्काल राजी हो जाता है कि मैं सख अचेतन से आती है यह भ्रांति। आप कम जिम्मेवार हैं, अभी। हूं। जब कोई गले में फूलमाला डाले, तब तो ऐसा लगता है, मेरे आप अनंत जन्मों में जिस ढंग से जीए हैं, उसकी जिम्मेवारी ज्यादा ही गले में डाली है। मुझ में कुछ गुण हैं। और जब कोई जूतों की है। गहरे में बैठ गई है यह बात। क्यों बैठ गई है? बैठ जाने का | माला गले में डाल दे, तो हम समझते हैं, वह आदमी शैतान था, सूत्र भी समझ लेना चाहिए। दुष्ट था; मेरे गले में नहीं डाली। इतने गहरे में जब भ्रांति बैठी हो, तो उसका कोई सूत्र बहुत गहरा जब कोई सम्मान करे, तब तो तादात्म्य करने के लिए बड़ी तैयारी होता है। और इसीलिए तोड़ने में इतनी मुश्किल पड़ती है। गीता | होती है। लेकिन जब कोई अपमान करे, तब तो हम खुद ही चिल्लाती रहती है, पढ़ते रहते हैं। कोई तोड़ता नहीं। बहत मुश्किल तादात्म्य तोड़ना चाहते हैं। दुख से तो कोई तादात्म्य बनाना चाहता मालूम पड़ता है। क्योंकि गीता तो आप पढ़ते हैं बुद्धि से, जो बहुत नहीं। बनता है। बनता इसलिए है कि सुख से सब तादात्म्य बनाना ऊपर है। और भ्रांति आती है बहुत गहरे से आपके। उन दोनों का चाहते हैं। कोई मेल नहीं हो पाता। सुख से हम क्यों तादात्म्य बनाना चाहते हैं? और जब तक सुख पढ़ लेते हैं, सुख-दुख में समबुद्धि रखनी चाहिए। फिर जरा-सा | से न टूटे, तब तक दुख से कभी न टूटेगा। जब तक सम्मान से न पैर में कांटा गड़ा, और सब सूत्र खो जाते हैं। गीता भूल जाती है, टूटे, तब तक अपमान से न टूटेगा। जब तक प्रशंसा से न टूटे, तब पैर पकड़ लेते हैं। और कहते हैं, मुझे कांटा गड़ गया! वह जो बुद्धि तक निंदा से न टूटेगा। जब तक जीवन से न टूटे, तब तक मृत्यु से ने सोचा था, वह काम नहीं पड़ता। बुद्धि से भी ज्यादा गहरी भ्रांति | न टूटेगा। है कहीं। भ्रांति अचेतन में है। और क्यों है? इसलिए साधक को शुरू करना है सुख से। दुख से तो सभी दुख के कारण नहीं है भ्रांति; भ्रांति सुख के कारण है। भ्रांति दुख शुरू करते हैं, कभी नहीं टूटता। सुख से शुरू करना है। सुख में के कारण नहीं है, इस बात को तो कोई भी मानने को राजी हो अपने को बाहर रखने की चेष्टा! जब सुख आए, तब दूर खड़े करने जाएगा। यह बड़ी सुखद है बात कि यह पता चल जाए कि पैर में की कोशिश अपने को! | 60 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < ज्ञान विजय है > और यह बड़े मजे की बात है कि सुख से कोई शुरू नहीं करता। | विज्ञान सुख से तोड़ने का विज्ञान है। यद्यपि जो सुख से टूट जाता यद्यपि सुख से कोई शुरू करे, तो बहुत सरल है। यह दूसरी बात | है, वह आनंद से जुड़ जाता है। वह बिलकुल दूसरी बात है। आपसे कहना चाहता हूं। सुख से कोई शुरू नहीं करता। सुख से । कभी भूलकर भी आप यह मत समझना कि जिसे आप सुख कोई शुरू करे, तो बहुत सरल है। दुख से लोग शुरू करते हैं। दुख | | कहते हैं, उससे आनंद का कोई भी संबंध है। इतना ही संबंध हो से शुरू किया नहीं जा सकता। दुख से शुरू करना असंभव है। । | सकता है-है-कि सुख के कारण आनंद कभी नहीं आ पाता। हमारे संबंध सुख से हैं, दुख तो सुख के पीछे आता है। बस इतना ही संबंध है। सुख के कारण ही अटकाव खड़ा रहता है इनडायरेक्ट हैं उससे हमारे संबंध, डायरेक्ट नहीं हैं; परोक्ष हैं, | और आनंद के द्वार तक आप नहीं पहुंच पाते। प्रत्यक्ष नहीं हैं। जिससे हमारे प्रत्यक्ष संबंध हैं, उससे ही संबंध तोड़े | फिर जैसा होता है, उनकी पत्नी चल बसी: दख आ गया। फिर जा सकते हैं। और सरलता से तोड़े जा सकते हैं। | उनके मित्र उन्हें ले आए। कहने लगे कि पत्नी चल बसी है; मैं बहुत लेकिन सुख से कोई शुरू नहीं करता, और वहीं सरलता से टूट | दुखी हो गया हूं। चित्त बहुत उद्विग्न है। कुछ रास्ता बताएं। तो मैंने सकते हैं। दुख से सभी लोग शुरू करते हैं, वहां कभी टूट नहीं | | उन्हें कहा कि अब ठीक से दुखी ही हो लो। ठीक से दुखी हो लो। सकते। इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि दुखी लोग धर्म की तलाश | रोओ, छाती पीटो, सिर पटको। वे बहुत चौंके। उन्होंने कहा कि में निकल जाते हैं। सुखी आदमी धर्म की तलाश में कभी नहीं जाता। आपसे ऐसी आशा लेकर नहीं आया। कुछ कंसोलेशन, कुछ एक मित्र अपने किसी मित्र को मेरे पास लाए थे। कई बार मुझे सांत्वना चाहिए। तो मैंने कहा कि फिर तुम मेरे पास भी सुख की ही कहा था कि उन्हें आपके पास लाना है। लेकिन वे आने को राजी तलाश में आए, कि किसी तरह तुम्हारे दुख को हलका करूं और नहीं होते, वे कहते हैं, मैं सब भांति सुखी हूं। अभी उनके पास जाने तुम्हें थोड़ा सुख मिल जाए! इसके पहले कि तुम नई पत्नी खोजो, की क्या जरूरत! मैंने कहा, तो थोड़ा ठहरो। क्योंकि सब भांति थोड़ा मैं तुमको सुव्यवस्थित कर दूं। इस शक्ल को लेकर नई पत्नी सुखी रहना संदा नहीं हो सकता। थोड़ा रुको। थोड़ा ठहरो। थोड़ा | खोजने में बहुत मुश्किल होगी। धीरज रखो। जल्दी दुख आ जाएगा। और जो आदमी कहता है कि वे कहने लगे, आप कैसी बातें कर रहे हैं? मेरी पत्नी मर गई है! मैं सब भांति सुखी हूं, अभी मैं क्यों जाऊं; वह दुख में आने को मैंने उनसे कहा कि ईमान से पूछो अपने मन से, नई पत्नी की तलाश राजी हो जाएगा, हालांकि तब आना बेकार होगा। अभी आने में | शुरू नहीं हो गई है? वे कहने लगे, आपको कैसे पता चल गया? कुछ हो सकता है। क्योंकि सुख बीज है, दुख फल है। सुख के मैंने कहा, मुझे कुछ पता नहीं चल गया। आदमी के मन को मैं बीज को नष्ट करना बहुत आसान है; दुख के बड़े विराट वृक्ष को | जानता हूं; तुम्हारे बाबत मैं कुछ नहीं कह रहा हूं। जल्दी ही तुम नई नष्ट करना बहुत मुश्किल हो जाएगा। पत्नी खोज लोगे। फिर तुम कहोगे, मैं सब सुख में हूं; अब धर्म की . और जैसे एक बीज को बोने से वृक्ष एक और करोड़ बीज हो | | क्या जरूरत है! जाते हैं, ऐसे ही एक सुख की आकांक्षा करने से बड़े दुख का वृक्ष __धर्म तुम्हारा उपकरण नहीं बन सकता। धर्म कोई इमरजेंसी मेजर फलित होता है। लेकिन उस दुख के वृक्ष में करोड़ सुखों की नहीं है कि तुम तकलीफ में हो, तो जल्दी से इमरजेंसी दरवाजा खोल आकांक्षाएं फिर लग जाती हैं। लिया धर्म का और चले गए। धर्म तुम्हारे दुख से छुटकारे का उपाय __ मैंने कहा, लेकिन रुको। यही नियम है कि लोग दुख में धर्म की | | नहीं है। अगर ठीक से समझें, तो धर्म सुख से छुटकारे का उपाय तलाश करते हैं, जब कि तलाश नहीं की जा सकती। और लोग है। उसके लिए तो मन कभी तैयार नहीं होता है, इसलिए कभी धर्म सुख में कहते हैं कि हम तो सुखी हैं; तलाश की क्या जरूरत है? जीवन में आता नहीं। ऐसा क्यों होता है? ऐसा इसलिए होता है कि लोग धर्म को भी । और ध्यान रहे, जो सुख से छूट जाता है, वह दुख से तत्काल सुख के लिए तलाश करते हैं। धर्म को भी सुख के लिए तलाश छूट जाता है। और जो दुख से छूटना चाहता है और सुख पाना करते हैं। इसलिए दुख में कहते हैं कि ठीक है, अभी चित्त दुखी है, चाहता है, वह कभी दुख से छूट ही नहीं सकता, क्योंकि वह सुख तो हम धर्म की तलाश करें। से नहीं छूट सकता। और धर्म का सुख से कोई भी संबंध नहीं है। धर्म का तो पूरा दुख सुख का ही दूसरा पहलू है, अनिवार्य। और दुख को छोड़ने Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < गीता दर्शन भाग-3 - समझे तेकेपति जाग pom S प्रलोभन है की हमारी तैयारी है, उससे हम छूट नहीं सकते। सुख को छोड़ने। लेकिन हम प्रारंभ में सोना चाहते हैं। लोग कहते हैं, सुख की की हमारी तैयारी नहीं है। नींद। सुख एक नींद ही है। सुख में बहुत मुश्किल से कोई जागता मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि सुख की पीड़ा को समझें। सुख के पूरे रूप को समझें। हर सुख के पीछे छिपे हुए दुख को __दूसरा सूत्र स्मरण रखें कि जरूर जल्दी, आजकल में सुख | आएगा. तब सजग रहें कि दख पीछे खडा है. प्रतीक्षा कर रहा है। आपको फिर एक नए दख में गिरा देने का। जब तक सख के प्रति जरूर आजकल में सम्मान आएगा. तब चौंककर खडे हो जाएं: इतना होश न हो, तब तक आप किनारे पर खड़े न हो पाएंगे। लाओत्से को स्मरण करें कि अब यह आदमी अपमान का इंतजाम लाओत्से कहता था, जब भी कोई मेरा सम्मान करने आया, तो | किए दे रहा है। जल्दी कोई सिंहासन पर बैठने का मौका आएगा, मैंने कहा, मुझे माफ करो, क्योंकि मैं अपमान नहीं चाहता हूं। उस | | तब भाग खड़े हों। फिर दुख से आपकी कभी कोई मुलाकात न होगी। आदमी ने कहा, लेकिन हम सम्मान देने आए हैं! लाओत्से ने कहा, - और एक बार यह सूत्र आपकी समझ में आ गया कि सुख से तुम सम्मान देने आए हो, और अगर मैं सम्मान लेने को राजी हुआ, बचने की सामर्थ्य दुख से बचने की पात्रता है; और जिस दिन आप तो आस-पास गांव के कहीं अपमान निकट ही होगा। वह अपनी सख से बचने की सामर्थ्य जटा लेते हैं. दख से बचने की पात्रता यात्रा शुरू कर देगा। क्योंकि मैंने कभी सुना नहीं कि ये दोनों मिल जाती है, उसी दिन आनंद का द्वार खुल जाता है। जैसे ही अलग-अलग जीते हैं। ये पेयर है, जोड़ा है। ये साथ ही चलते हैं। सुख से कोई अपने को दूर खड़ा कर ले, वैसे ही चित्त की डोलती इनमें कभी डायवोर्स हुआ नहीं है। इनमें कभी कोई तलाक नहीं हुआ | | हुई लौ थिर हो जाती है। और जो सुख में नहीं डोला, वह दुख में है। ये सदा साथ ही खड़े रहते हैं। यह अनिवार्य जोड़ा है। तुम मुझ | कभी नहीं डोलेगा। पर कृपा करो। तुम मेरे अपमान को निमंत्रण मत दिलवाओ। तुम । ध्यान रखें, सुख में डोल गए, तो दुख में डोलना ही पड़ेगा। वह अपने सम्मान को वापस ले जाओ। अनिवार्य कंपन है, जो सुख के पैदा हुए कंपनों की परिपूर्ति करते लाओत्से को उस मुल्क के सम्राट ने धन-धान्य से भेंट देनी | हैं, कांप्लिमेंट्री हैं। जैसे घड़ी का पेंडुलम बाएं आपने घुमा दिया, चाही। लोगों ने कहा कि इतना बड़ा अदभुत फकीर तुम्हारे देश में तो वह दाएं जाएगा, जाना ही पड़ेगा। कोई उपाय नहीं है बचने का। और भीख मांगे, तुम्हारे लिए शोभा नहीं है। सम्राट खुद उपस्थित | सुख में कंपित हो गए, तो दुख में कंपित होना पड़ेगा। हुआ लाओत्से के झोपड़े पर, बहुत रथों में धन-धान्य, वस्त्र, । लेकिन हम सुख में कंपित होना चाहते हैं और दुख में कंपित आभूषण, सब लेकर, करोड़ों का सामान लेकर। लाओत्से ने कहा नहीं होना चाहते। इससे उलटा करना पड़े। सुख में कंपित न होना कि अभी मैं मेरा मालिक हूं, तुम मुझे नाहक भिखारी बना दोगे। चाहें, फिर आपको दुख छू भी नहीं सकेगा। सुख की खोज में रहें तुम अपना यह सब साज-सामान ले जाओ। और अगर तुम्हें मेरी | कि जब सुख मिले, तब होश से भर जाएं और देखें कि सुख मालकियत से कोई एतराज हो, तो मैं तुम्हारे राज्य की भूमि छोड़कर आपको कंपित तो नहीं कर रहा है। चला जाऊं। लेकिन तुम मुझे परेशान मत करो। राजा ने कहा कि कठिन नहीं है। बस, स्मरण करने की बात है। कठिन जरा भी क्या कहते हैं आप? मैं तो सुख देने आया था! लाओत्से ने कहा, | नहीं है। हमें खयाल ही नहीं है, बस इतनी ही बात है। हमें स्मृति अनंत जन्मों का अनुभव यह कहता है कि जो भी सुख देने आया, ही नहीं है इस बात की कि सुख ही हमारा दुख है। दुख को हम दुख वह दुख के अतिरिक्त कुछ दे नहीं गया। अब और धोखा नहीं। | समझते हैं, सुख को हम सुख समझते हैं; बस, वहीं भ्रांति है। और लेकिन जागना पड़े सुख में; जागना पड़े सम्मान में; जागना पड़े। | वह भ्रांति समूहगत है। व्यक्तिगत नहीं है, समूहगत है। वहां, जहां अहंकार को तृप्ति मिलती है; अहंकार के चारों तरफ जब आपका बेटा स्कूल से प्रथम कक्षा में उत्तीर्ण होकर घर फूल सज जाते हैं, वहां जागना पड़े। और वहां जागना सरल है, नाचता हुआ आए, तब आप जानना कि वह दुख की तैयारी कर रहा क्योंकि शुरुआत है वहां; अभी यात्रा शुरू होती है। दुख तो अंत | है। काश, मां-बाप बुद्धिमान हों, तो उसे कहें कि इतने सुखी होने है, सुख प्रारंभ है। और सदा जो प्रारंभ में सजग हो जाए, वह बाहर की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि जितना तू सुखी होगा, उतना ही हो सकता है। बीच में सजग होना बहुत मुश्किल हो जाता है। दुख दूसरे पलड़े पर रख दिया जाएगा, जो आजकल में लौट Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान विजय है आएगा। उस बच्चे में समूहगत मन पैदा हो रहा है, और हम | | ही नहीं चलता, कब हम डोलने लगे। जब कोई आपकी प्रशंसा के सहयोग दे रहे हैं। हम भी घर में बैंड-बाजा बजाकर, फूल-मिठाई दो शब्द कहता है, तब आपको पता ही नहीं चलता कि मन सुनने बांट देंगे। हमने उसके सुख के साथ तादात्म्य होने की, जोड़ बांधने | | के साथ ही, बल्कि शायद सुनने के थोड़ी देर पहले ही डोल गया। की चेष्टा शुरू कर दी। हमने उसके मन को एक दिशा दे दी, जो | | उस आदमी का चेहरा देखा। लगा कि कुछ प्रशंसा में कहेगा, और उसे दुख में ले जाएगी। भीतर कुछ डोल गया। यह भी जानकर डोल जाएगा कि प्रशंसा __हम सब बच्चों को अपनी शक्ल में ढाल देते हैं। हमारे मां-बाप | झूठी है, तो भी डोल जाएगा। क्योंकि आप भी जानते हैं कि आप हमें ढाल गए थे, उनके मां-बाप उन्हें ढाल गए थे! बीमारियां | भी दूसरों की झूठी प्रशंसाएं कर रहे हैं और उनको डुला रहे हैं! और बीमारियों को ढालती चली जाती हैं। रोग रोग को जन्म देते चले कोई आपकी भी प्रशंसा कर रहा है और आपको डोला रहा है! जाते हैं। बिना आपको कंपित किए, आपका उपयोग नहीं किया जा उस बच्चे के भी अतीत के अनुभव हैं, उस बच्चे के भी पिछले सकता। आपको कंपाकर ही उपयोग किया जा सकता है। इसलिए जन्मों के अनुभव हैं। उनमें भी उसने इसी भूल को दोहराया था। | इतनी खुशामद दुनिया में चलती है। इतनी खुशामद चलती है, इस जन्म में फिर हम बचपन से उसके दिमाग को, उसके मस्तिष्क क्योंकि पहले आपको थोडा डांवाडोल किया जाए. तभी आपका को फिर कंडीशन करते हैं, फिर संस्कारित करते हैं। सुख में सुखी | | उपयोग किया जा सकता है। डांवाडोल होते ही आप कमजोर हो होने की तैयारी दिखलाते हैं। फिर दुख में वह दुखी होता है। | जाते हैं। जन्म होता है, तो बैंड-बाजा बजाकर हम बड़ी खुशी मनाते हैं। । ध्यान रखें, जैसे ही आपकी चेतना कंपी कि आप कमजोर हो हमने कंडीशनिंग शुरू कर दी। आप कहेंगे, छोटे बच्चे को तो पता जाते हैं। फिर आपका कुछ भी उपयोग किया जा सकता है। जो भी नहीं चलेगा, पहले दिन के बच्चे को कि बैंड-बाजा खुशी में | | आपकी खुशामद कर रहा है, वह आपको कमजोर कर रहा है, वह बज रहा है। आपको भीतर से तोड़ रहा है। लेकिन अभी जो लोग, जो वैज्ञानिक मनुष्य के शरीर की स्मृति | ।। इसलिए कृष्ण ने इसमें एक शब्द उपयोग किया है कि जो पर काम करते हैं, बाडी मेमोरी पर, उनका कहना है कि वे | सुख-दुख में अनडोल रह जाए, वही स्वाधीन है। इसमें एक शब्द बैंड-बाजे भी बच्चे के अचेतन मन में प्रवेश करते हैं। वे बैंड-बाजे | | उपयोग किया है कि वही स्वाधीन है, जो सुख और दुख में सम रह ही नहीं, मां के पेट में जब बच्चा होता है, तब भी जो घटनाएं घटती | जाए। उसे दुनिया में कोई पराधीन नहीं बना सकता। हैं, वे भी बच्चे की अचेतन स्मृति का हिस्सा हो जाती हैं; वे भी | - हमें तो कोई भी पराधीन बना सकता है, क्योंकि हमें कोई भी बच्चे को निर्मित करती हैं। कंपा सकता है। और जैसे ही हम कंपे कि जमीन हमारे पैर के नीचे ये बैंड-बाजे, यह खुशी की लहर, यह चारों तरफ जो सुख के | की गई। कोई भी कंपा सकता है। कोई भी आपसे कह सकता है साथ एक होने की भावना प्रकट की जा रही है, इसकी तरंगें भी बच्चे | कि ऐसी सुंदर शक्ल कभी देखी नहीं, बहुत सुंदर चेहरा है आपका! में प्रवेश कर जाती हैं। फिर यही तरंगें मृत्यु के वक्त दुख लाएंगी। | कंप गए आप। अब आपका उपयोग किया जा सकता है। अब अगर मृत्यु के वक्त दुख न लाना हो, तो जन्म के वक्त सुख के | आपसे गुलामी करवाई जा सकती है। साथ तादात्म्य पैदा करने की व्यवस्था को हटाएं। सुख जहां से शुरू ___ कोई भी आपसे कह देता है कि आपकी बुद्धिमत्ता का कोई होता है, वहां से तोड़ना शुरू करें। मुकाबला नहीं; बेजोड़ हैं आप! कंप गए आप। और उस आदमी योग सख में जागने का नाम है। जागकर देखें कि मैं अलग हं। | ने आपको बुद्धिमान कहकर बुद्ध बना दिया! अब आपसे कम और फिर आप अपने दुख में भी जागकर देख सकेंगे कि अलग हैं; | बुद्धि का आदमी भी आपसे गुलामी करवा सकता है। कंप गए कोई अड़चन न आएगी, कोई कठिनाई न पड़ेगी। तटस्थ होते रहें। आप। कंपे कि कमजोर हो गए। कंपे कि पराधीन हुए। समय लगेगा। समय लगने का आंतरिक कारण नहीं है; समय | | जो आदमी भीतर कंपित होता है सुख-दुख में, वह कभी भी लगने का कुल कारण इतना है कि हमारी आदतें मजबूत हैं और गुलाम हो जाएगा। उसकी पराधीनता सुनिश्चित है। वह पराधीन है पुरानी हैं। डोलने की आदत मजबूत है, बहुत पुरानी है। हमें पता ही। एक छोटा-सा शब्द, और उसको गुलाम बनाया जा सकता है। 63 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 सिर्फ उस आदमी को पराधीन नहीं बनाया जा सकता, जिसको सुख | | लगाकर देखें कि आपको कैसी-कैसी बातें डांवाडोल कर जाती हैं! और दुख नहीं कंपाते। उसको अब इस दुनिया में कोई पराधीन नहीं कैसी क्षुद्र बातें डांवाडोल कर जाती हैं! रास्ते से गुजर रहे हैं, दो बना सकता। कोई उपाय न रहा। उस आदमी को हिलाने का उपाय | आदमी जरा जोर से हंस देते हैं; आप डांवाडोल हो जाते हैं। न रहा। अब तलवारें उसके शरीर को काट सकती हैं, लेकिन वह | एक मित्र को संन्यास लेना है। वे मुझसे रोज कहते हैं, लेना है, अडिग रह जाएगा। अब सोने की वर्षा उसके चरणों में हो सकती लेकिन मैं तो इन्हीं कपड़ों में संन्यासी हूं। अनेक लोग आकर मुझसे है, लेकिन मिट्टी की वर्षा से ज्यादा कोई परिणाम नहीं होगा। अब | यही कहते हैं कि हममें कमी ही क्या है? हम तो इन्हीं कपड़ों में सारी पृथ्वी का सिंहासन उसे मिल सकता है, वह उस पर ऐसे ही | संन्यासी हैं! तो मैं कहता हूं, फिर डर क्या है ? डाल लो गेरुए वस्त्र। चढ़ जाएगा, जैसे मिट्टी के ढेर पर चढ़ता है; और ऐसे ही उतर | तब कंप जाते हैं। बड़ा शक्तिशाली संन्यास है। वह गेरुआ वस्त्र जाएगा, जैसे मिट्टी के ढेर से उतरता है। डालने से कंपता है। क्यों कंपता है? भीतरी शक्ति अकंपन से आती है। भीतरी शक्ति, आंतरिक - वह दूसरों की आंखों का कंपन है। रास्ते से गुजरेंगे, लोग क्या ऊर्जा, परम शक्ति उस व्यक्ति को उपलब्ध होती है, जो अकंप को कहेंगे? दफ्तर में जाएंगे, लोग क्या कहेंगे? दफ्तर में गए, कहीं उपलब्ध हो जाता है। और अकंप वही हो सकता है, जो सुख-दुख चपरासी ने हंस दिया ऐसा मुंह करके, मुस्कराकर, तो फिर क्या में कंपित न हो। होगा? कोई क्या कहेगा? इतना भयभीत कर देती है बात। इतने योगारूढ़ होने के पहले यह अकंप, यह निष्कंप दशा उपलब्ध | कमजोर चित्त में बहुत बड़ी घटनाएं नहीं घट सकतीं। होनी जरूरी है। और इस निष्कंप दशा में ही आदमी के पास इतनी | गेरुए कपड़े पहनने से कोई बड़ी घटना नहीं घट जाएंगी। लेकिन ऊर्जा, इतनी शक्ति, इतनी स्वतंत्रता और इतनी स्वाधीनता होती है, | गेरुआ कपड़ा पहनने से एक सूचना हो जाती है कि अब दूसरे क्या कहना चाहिए, आदमी स्व होता है, स्वयं होता है कि इस पात्रता में | कहते हैं, इसकी फिक्र छोड़ी। यह बड़ी घटना है। गेरुए कपड़े में ही परमात्मा से मिलन है; इसके पहले कोई मिलन नहीं है। | कुछ भी नहीं है, लेकिन इस घटना में बहुत कुछ है। जो सुख-दुख से कंप जाता है, वह इतना कमजोर है कि | लोग क्या कहेंगे! लोगों के कहे हुए शब्द कितना कंपा जाते हैं। परमात्मा को सह भी न पाएगा। इतना कमजोर है। एक चांदी के शब्द। जिनमें कछ भी नहीं होता है: हवा के बबले। एक आदमी ने सिक्के से जिसके प्राण डांवाडोल हो जाते हैं। एक जरा-सा कांटा | होंठ हिलाए। एक आवाज पैदा हुई हवा में। आपके कान से जिसकी आत्मा तक छिद जाता है। एक जरा-सी तिरछी आंख टकराई। आप कंप गए। इतनी कमजोर आत्मा! नहीं; फिर बड़ी किसी की जिसकी रातभर की नींद को खराब कर जाती है। वह घटनाओं की पात्रता पैदा नहीं हो सकती। आदमी इतना कमजोर है कि कृपा है परमात्मा की कि उस आदमी | | कृष्ण कहते हैं कि सुख-दुख में जो अडोल रह जाए, अकंप, को न मिले। नहीं तो आदमी टूटकर, फूटकर, एक्सप्लोड ही हो | उसकी चेतना थिर होती है। और वैसी चेतना परमात्मा के भीतर जाएगा, बिलकुल नष्ट ही हो जाएगा। विराजमान है और वैसी चेतना में परमात्मा विराजमान है। इतनी बड़ी घटना उस आदमी की जिंदगी में घटेगी, जो एक रुपए चलें निष्कंप चेतना की तरफ! बढ़ें! सुख से शुरू करें, दुख से से कंप जाता है, जिसका एक रुपया रास्ते पर खो जाए, तो मुश्किल | कभी शुरू मत करना। सुख से शुरू करें, दुख तक पहुंच जाएगी में पड़ जाता है। इतनी बड़ी घटना को झेलने की उसकी सामर्थ्य नहीं बात। दुख से कभी शुरू मत करना। दुख से कभी शुरू नहीं होती होगी। वह इतना क्रिस्टलाइज्ड नहीं है, इतना संगठित नहीं है भीतर, बात। इतना सत्तावान नहीं है कि परमात्मा को झेल सके। वह पात्रता सुख को ठीक से देखें और पाएंगे कि सुख दुख का ही रूप है। उसकी नहीं है। सुख में ही तलाश करें और पाएंगे कि सुख में ही दुख के सारे के नियम से सब घटता है। जिस दिन आप पात्र हो जाएंगे स्वाधीन | सारे बीज, सारी संभावना छिपी है। और सुख से अपने को न होने के, उसी दिन परम सत्ता आप पर अवतरित हो जाती है। वह कंपने दें। सदा उतरने को तैयार है, सिर्फ आपकी प्रतीक्षा है। और आप इतनी | न कंपने देने के लिए क्या करना पड़ेगा? क्या आंख बंद करके क्षुद्र बातों में डोल रहे हैं कि जिसका कोई हिसाब नहीं। कभी हिसाब खड़े हो जाएंगे कि सुख न कंपाए? अगर बहुत ताकत लगाकर खड़े 64 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान विजय है - हो गए, तो आप कंप गए! | था और दुख पर पूरा हुआ! दो-चार-दस सुखों के बीच से गुजरिए अगर एक आदमी कहे कि मैं तो अंधेरे में से निकल जाता हूं। समझते हुए। और आप पाएंगे कि आपकी समझ में वह जगह आ आंख बंद कर लेता हूं; हाथ पकड़कर जोर से ताकत लगाता हूं; | गई, वह मैच्योरिटी, वह प्रौढ़ता आपकी समझ में आ गई कि अब बिलकुल निकल जाता हूं बिना डरे। यह हाथ और यह ताकत, ये | ताकत लगाने की जरूरत नहीं है। आप, बस अब सुख आता है और सब डर के लक्षण हैं। इस आदमी का यह कहना कि मैं अंधेरे में | | जानते हैं कि वह दुख है। इतनी सरलता से जिस दिन आप रहेंगे, उस बिना डरे निकल जाता हूं, यह भी डरे हुए आदमी का वक्तव्य है।। | दिन निष्कंप चित्त पैदा होगा; ताकत से नहीं पैदा होगा। नहीं तो अंधेरे का पता ही नहीं चलता; यह निकल जाता। उजाले । इसलिए बहुत से हठवादी धर्म को ताकत से छीनना चाहते हैं। में तो नहीं कहता यह आदमी कि मैं उजाले में बिना डरे निकल जाता | | वे कभी धर्म को नहीं उपलब्ध हो पाते, सिर्फ अहंकार को उपलब्ध हूं! अंधेरे की कहता है कि अंधेरे में बिना डरे निकल जाता हूं। होते हैं। ताकत से अहंकार मिल सकता है। समझ से अहंकार नहीं; अगर आपने बहुत ताकत लगाई, तो समझ लेना कि आप | गलता है। कंप गए, वह ताकत कंपन ही है। नहीं; ताकत लगाने की कोई _अगर ताकत लगाकर आपने कहा कि ठीक, अब हम सुख को जरूरत नहीं है। सुख नहीं मानते, दुख को दुख नहीं मानते; और खड़े हो गए आंख __इस बात को, तीसरे सूत्र को, ठीक से खयाल में ले लें। इससे | बद करके ताकत लगाकर, तो सिर्फ अहंकार मजबूत होगा। और साधक को बड़ी कठिनाई होती है। कुछ भी होने वाला नहीं है। और यह अहंकार अपने तरह के सुख ताकत लगाई अगर आपने और कहा कि ठीक है, अब सुख | | देने लगेगा; और यह अहंकार अपने तरह के दुख लाने लगेगा; आएगा, तुम डालना मेरे गले में माला और मैं बिलकुल छाती को खेल शुरू हो जाएगा। अकड़ाकर और सांस को रोककर बिलकुल अकंप रह जाऊंगा! | | समझ, अंडरस्टैंडिंग पर खयाल रखिए। जितनी समझ बढ़ती है, आप कंप गए। बुरी तरह कंप गए। यह इतनी ताकत लगाई माला | जितनी प्रज्ञा बढ़ती है, उतना ही...। के लिए! चार आने में बाजार में मिल जाती है। चार आने के लिए बुद्ध ने तीन शब्द उपयोग किए हैं—प्रज्ञा, शील, समाधि। बुद्ध इतनी ताकत लगानी पड़ी आत्मा की, तब तो कंपन काफी हो गया। | कहते हैं, जितनी प्रज्ञा बढ़े, जितनी समझ बढ़े, उतना शील और कितनी देर मुट्ठी बांधकर रखिएगा? थोड़ी देर में मुट्ठी ढीली | | रूपांतरित होता है, चरित्र बदलता है। जितना चरित्र रूपांतरित हो, करनी पड़ेगी। सांस कितनी देर रोकिएगा? थोड़ी देर में सांस लेंगे। उतनी समाधि निकट आती है। तो जो डर था, वह थोड़ी देर बाद शुरू हो जाएगा। __ लेकिन शुरुआत करनी पड़ती है प्रज्ञा से, समझ से। समझ बनती नहीं; समझ की जरूरत है, शक्ति की जरूरत नहीं है। समझ की है शील बाहर की दुनिया में, और भीतर की दुनिया में समाधि। यहां . जरूरत है। जब सुख आए, तो समझने की कोशिश करिए; ताकत समझ बढ़ती है, तो बाहर की दुनिया में चरित्र पैदा होता है। और लगाकर दुश्मन बनकर मत खड़े हो जाइए। क्योंकि जिसके | | चरित्र का अगर ठीक-ठीक अर्थ समझें, तो चरित्र केवल उसी के खिलाफ आप दुश्मन बनकर खड़े हुए, उसकी ताकत आपने मान | | पास होता है, जो अकंप है। जो जरा-जरा सी बात में कंप जाता है, ली। ताकत मत लगाइए, समझ। | उसके पास कोई चरित्र नहीं होता। और ध्यान रखिए, जितनी समझ कम हो, लोग उतनी ज्यादा | सुना है मैंने कि इमेनुअल कांट, जर्मनी का एक बहुत प्रज्ञावान ताकत लगाते हैं। सोचते हैं, ताकत से समझ का काम पूरा कर | पुरुष, रात दस बजे सो जाता था, सुबह चार बजे उठता था। नौकर लेंगे। कभी नहीं पूरा होता। रत्तीभर समझ, पहाड़भर ताकत से | | से कह रखा था, जो उसकी सेवा करता था, कि दस और चार के ज्यादा ताकतवर है। समझ का काम कभी ताकत से पूरा नहीं होगा। | बीच कुछ भी हो जाए, भूकंप भी आ जाए, तो मुझे मत उठाना। समझ को ही विकसित करिए। लेकिन फिर ऐसा हुआ कि इमेनुअल कांट जिस विश्वविद्यालय जब सुख आए, तो उसको देखिए गौर से, भोगिए, समझने की में शिक्षक था, अध्यापक था, उस विश्वविद्यालय ने तय किया कि कोशिश करिए। और देखिए कि रोज कैसे सुख दुख में बदलता जा | | उसे चांसलर. कलपति बना दिया जाए। रात बारह बजे तार आया: रहा है। और अंत तक यात्रा करिए और देखिए कि सुख से शुरू हुआ | | नौकर को तार मिला। इतनी खुशी की बात थी। गरीब इमेनुअल Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 कांट, साधारण प्रोफेसर था, चांसलर होने का निर्णय किया प्रश्नः भगवान श्री, इस श्लोक में एक शब्द आया है, विश्वविद्यालय की एकेडेमिक कौंसिल ने! तो नौकर भूल गया जितात्मनः, जिस पुरुष ने अपनी आत्मा जीत ली। यह। सोचा था कि भूकंप के लिए मना किया है। मगर यह तो बात आत्मा के साथ जीतना शब्द का कैसा अर्थ होगा, इसे इतनी खुशी की, इतने सुख की है, इसकी तो खबर दे देनी चाहिए। स्पष्ट करें। गया और जाकर इमेनुअल कांट को हिलाया और उठाया, कहा कि शुभकामनाएं करता हूं! आपको विश्वविद्यालय ने कुलपति चुना। इमेनुअल कांट ने आंख खोली, एक चांटा नौकर को मारा सने स्वयं को जीता, स्वयं की आत्मा जीती, इसका और वापस चादर ओढ़कर सो गया। IUI क्या अर्थ होगा? नौकर तो बहुत हैरान हुआ। बड़ा हैरान हुआ! यह क्या हुआ? दो अर्थ खयाल में लेने जैसे हैं। एक तो, हम स्वयं को भूकंप को मना किया था; यह तो बात ही कुछ और है! भी नहीं जीत पाए हैं और सब जीतने की योजनाएं बनाते हैं। स्वयं सुबह इमेनुअल कांट ने उठकर पहला तार यूनिवर्सिटी आफिस | को भी नहीं जीत पाए! और जो व्यक्ति स्वयं को जीते बिना और सारी . को किया कि मुझे क्षमा करें, इस पद को मैं स्वीकार न कर सकूँगा, | जीत की योजना बनाता है, उससे ज्यादा विक्षिप्त और कौन होगा! क्योंकि इस पद के कारण मेरे नौकर को भी भ्रांति हुई और कहीं मुझे | अगर जीत की ही यात्रा करनी है, तो पहले स्वयं की कर लेनी न हो जाए। इसमें मैं नहीं पडूंगा। इस पद के कारण मेरी कल की | चाहिए। स्वयं को न जीतने का क्या अर्थ है? नींद खराब हुई, अब और आगे की नींद मैं खराब न करूंगा। इससे अगर मैं आपसे कहूं कि आज आप क्रोध मत करना, तो क्य झंझटें आएंगी। इससे झंझटों की शुरुआत हो गई। वर्षों से मैं कभी | | आपकी स्वयं पर इतनी शक्ति है कि आज आप क्रोध न करें? यह दस और चार के बीच उठा नहीं! तो बड़ी बात हो गई। अगर मैं आपसे इतना ही कहूं कि पांच मिनट सुबह नौकर से कहा कि तू बिलकुल पागल है! नौकर ने कहा, | | आंख बंद करके बैठ जाएं और राम शब्द को भीतर न आने दें, तब लेकिन आपने तो कहा था, भूकंप आए तो नहीं उठाना है! कांट ने | | आपको पता चल जाएगा कि अपने ऊपर कितनी मालकियत है! उसे कहा कि दुख के भी भूकंप होते हैं, सुख के भी भूकंप होते हैं। __आंख बंद कर लें और मैं कहता हूं, पांच मिनट राम शब्द आपके और जो सुख के भूकंप स्वीकार कर लेता है, उसी के घर दुख के भीतर न आने पाए। तो इतनी भी ताकत नहीं है कि राम शब्द को भूकंप आते हैं; अन्यथा कोई कारण नहीं है। शुरुआत हो गई थी। | आप भीतर आने से रोक सकें। इस पांच मिनट में इतना आएगा, अगर मैं कल खुश होकर तुझे धन्यवाद दे देता, तो मैं गया था। जितना जिंदगी में कभी नहीं आया था! एकदम राम-जप शुरू हो बस, मैंने फिर निमंत्रण दे दिया, दरवाजे खोल दिए दुख के लिए। जाएगा! राम-जप का जो फायदा होगा, वह होगा। लेकिन स्वयं उस नौकर ने कहा, लेकिन मुझे आपने चांटा क्यों मारा? कांट की हार सिद्ध हो जाएगी। स्वयं पर हमारा रत्तीभर भी वश नहीं है। ने कहा कि तू समझता होगा, मिठाई बांदूंगा! तो मैंने तुझे खबर दी तो जिसने स्वयं की आत्मा जीती! यहां आत्मा से एक अर्थ तो कि जिसे तू सुख समझकर आ रहा है, उससे भी आखिर में दुख ही स्वयं की सत्ता; स्वयं के होने पर जिसकी मालकियत है। आने वाला है, इसलिए मैंने कहा, चांटा अभी ही मार दूं। तुझे भी जांच करें, तो अपनी गुलामी पता चलेगी कि हम कैसे कमजोर पता होना चाहिए कि सुख सदा दुख को ही लाता है पीछे, हैं! कैसे कमजोर हैं! हमारी कमजोरी सब तरफ लिखी हुई है। हर देर-अबेर। द्वार-दरवाजे पर, हर इंद्रिय पर, हर वृत्ति पर, हर वासना पर, हर जागें। सुख को समझने की कोशिश करें। वह जैसे-जैसे समझ विचार पर हमारी कमजोरी और गुलामी लिखी हुई है। अपने को बढ़ती जाएगी, वैसे-वैसे संतुलन, तटस्थता, उपेक्षा आती जाएगी। धोखा देने से कुछ न होगा। . आप पार खड़े हो जाएंगे। उस पार खड़े व्यक्ति को कह सकते हैं | । तो एक तो स्वयं को जीतने का स्मरण दिलाया है। आत्मा का हम कि वह मंदिर बन गया परम सत्ता का। परम सत्ता उसके भीतर एक अर्थ तो है, स्वयं। और आत्मा जीती जिसने, इसका दूसरा प्रतिष्ठित ही है। अर्थ है, और भी गहरा, और वह है, जिसने जाना स्वयं को। क्योंकि जानना जीतना बन जाता है। ज्ञान विजय है। आत्मज्ञान Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ << ज्ञान विजय है - आत्म-विजय है। तुम कहते हो कि सभी के भीतर आत्मा नहीं है! तो गुरजिएफ कहता तो एक तो अर्थ है कि हमारा जो व्यक्तित्व है, वह इतना स्वाधीन था कि जिसे पता ही नहीं है, उसके भीतर होना और न होना बराबर हो कि मैं कह सकूँ कि मेरा बल, मेरा वश मेरे ऊपर है। आप मुझ | है। यानी एक आदमी कहे कि मेरे घर में खजाना है। उससे पूछो, पर भरोसा कर सकते हैं। मैं अपने पर भरोसा कर सकता हूं। कहां है? वह कहे कि यह मुझे पता नहीं। तो न होने और होने में क्या लेकिन कर सकते हैं? अगर सोचेंगे, तो पाएंगे, क्या भरोसा कर फर्क है? कोई भी तो फर्क नहीं है; वर्चुअली कोई भी फर्क नहीं है। सकते हैं। एक व्यक्ति को आप कहते हैं कि कल भी तुझे मैं प्रेम | तो गुरजिएफ कहता था, मैं नहीं मानता कि सबके भीतर आत्मा करूंगा। कभी सोचा है आपने कि एक गुलाम आदमी यह वादा कर है। और मैं कहता हूं कि वह ठीक कहता था। आत्मा उसी के भीतर रहा है। कल? कल भी प्रेम कर सकेंगे? थोड़ा एक बार और सोचें। है. जो जानता है। और कल अगर प्रेम कपूर की तरह तिरोहित हो गया आकाश में, | एक आदमी के बाबत मैंने सुना है, बड़ी हड़बड़ी में एक सड़क तो क्या होगा उपाय उसको वापस लाने का? के किनारे खड़े होकर वह अपने सब खीसे देख रहा है। दो-चार इसे ऐसा देखें, आज प्रेम में पड़ गए हैं किसी के, अगर मैं आपसे लोग भी इकट्ठे खड़े हो गए हैं उसकी हड़बड़ी देखकर। फिर इस कहं कि एक घंटा इस व्यक्ति को अब प्रेम मत करें। अगर आप खीसे में हाथ डालता है, फिर उस खीसे में हाथ डालता है। सिर्फ समर्थ हों कि कहें कि ठीक, यह एक घंटा मेरी जिंदगी में इससे प्रेम | एक खीसा कोट का ऊपर का छोड़ देता है। का घंटा नहीं रहेगा। तो भरोसा किया जा सकता है कि कल जब प्रेम | फिर आखिर किसी ने पूछा कि महाशय, आप कई बार खीसों उड़ जाए, तब भी आप, प्रेम करने का जो वचन दिया है, वह पूरा में हाथ डालकर देख चुके और बड़े परेशान हैं; पसीने की बूंदें आ कर सकें। अन्यथा भरोसा नहीं किया जा सकता है। अभी आप | | गईं; मामला क्या है ? उस आदमी ने कहा कि मेरा बटुआ खो गया कहेंगे, यह कैसे हो सकता है कि मैं प्रेम न करूं? कल आप कहेंगे है। मैंने सब खीसे देख लिए हैं, सिर्फ एक को छोड़कर। तो उन्होंने कि यह कैसे हो सकता है कि मैं प्रेम करूं? विवश, बंधे हुए हैं। पूछा कि महाशय, उसको भी देख क्यों नहीं लेते? उस आदमी ने __एक तो पहला, प्राथमिक और बहिर अर्थ है, स्वयं को इस अर्थ कहा कि उसे देखने में बड़ा डर लगता है कि अगर उसमें भी न हुआ में जीत लेने का कि मैं अपने पर भरोसा कर सकूँ। दूसरा अर्थ है, तो? इसलिए मैं उसको छोड़कर बाकी में देख रहा हूं! स्वयं को जान लेने का। भीतर जाने में भी हम डरते हैं कि कहीं आत्मा न हुई तो? इधर महावीर ने कहा है, जिसने जाना स्वयं को, उसने जीता भी। | बाहर से किताब पढ़कर बैठ जाते हैं; बड़ी चैन मिलती है कि भीतर इसलिए महावीर के साथ जिन जुड़ गया। जिन का अर्थ है, जिसने | | आत्मा है, परमात्मा है। अमृत के झरने फूट रहे हैं। आनंद की जीता। लेकिन जाना, तो जीता। क्योंकि जिसे हम जानते ही नहीं, धाराएं बह रही हैं। बाहर किताब में पढ़कर बड़े निश्चित हो जाते • उसे हम जीतेंगे कैसे? जिसे जीतना है, उसे जाने बिना जीतने का हैं। लेकिन कभी खीसे में हाथ नहीं डालते भीतर। कहीं न हुई तो? कोई उपाय नहीं है। ज्ञान विजय है। जिसे भी हम जान लेते हैं, उसके | | तो एक भरोसा और टूट जाए, एक आशा और विखंडित हो जाए। हम मालिक हो जाते हैं। एक आश्वासन, जिसके सहारे सब दुख झेले जा सकते थे; सब तो दूसरे अर्थ में हम आत्म-अज्ञानी हैं। हमें कुछ पता ही नहीं | खीसे टटोले जा सकते थे जिसके सहारे कि अगर यहां न मिला तो कि मैं कौन हूं! नाम-धाम पता है, उससे कुछ होने का हमारा संबंध ठीक है, कोई हर्ज नहीं, वहां तो खोज ही लेंगे; तो वहां तो मिल ही नहीं है। पता ही नहीं, मैं कौन हूं! इसकी कोई खबर ही नहीं। जिसे जाएगा। कहीं वह भी न टूट जाए, उस भय से भीतर झांककर भी यह भी पता नहीं कि मैं कौन हूं, उसे आत्मवान कहना भी सिर्फ नहीं देखते। शब्दों के साथ खिलवाड़ है। __ आत्मजयी का अर्थ है, वह व्यक्ति, जो अपने भीतर पूरी आंखों अभी एक फकीर था, गुरजिएफ। वह कहता था, सभी के भीतर | से देख सकता है। वह जानता है कि वहां है. उसने देखा है कि वहां आत्मा नहीं है। और जब उसने पहली दफा यह कहा. तो बहत | है; उसने पाया है कि वहां है। अब वह निर्भय है। अब उसकी छाती हड़बड़ी मची। क्योंकि लोगों ने कहा कि यह तो किसी शास्त्र में नहीं | में छुरा भोंक दो, तो भी निर्भय है; क्योंकि वह जानता है, यह छुरा लिखा है। सभी शास्त्रों में लिखा है, सबके भीतर आत्मा है। और उसमें प्रवेश नहीं कर सकेगा, जिसे उसने जान लिया है। अब मौत Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 उसके दरवाजे पर खड़ी हो जाए, तो आलिंगन कर लेगा; क्योंकि वह जानता है कि जिसे उसने अपने भीतर जाना है, उसको मौत छू पाए, इसका कोई उपाय नहीं है। अब आप उसको गालियां और अपमानित करें, तो वह हंसेगा, क्योंकि वह जानता है, तुम्हारी गालियां उस तक नहीं पहुंच सकतीं; तुम्हारे अपमान उस तक नहीं पहुंच सकते, जो वह है । अब वह विजयी हुआ, अब वह जिन हो गया । तो एक तो बाहर के अर्थों में कि हम अपनी किसी भी चीज के लिए अपने पर भी भरोसा नहीं कर सकते; हमारी वृत्तियां हमें जहां जाती हैं, हमें जाना पड़ता है; परवश, पराधीन । और एक इस अर्थों में कि हमें स्वयं का भी कोई पता नहीं है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, आत्मजयी, आत्मा को जीत लिया है जिसने, उसमें परमात्मा सदा प्रतिष्ठित है। ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः । युक्त इच्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।। ८ ।। और ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है अंतःकरण जिसका, विकाररहित है स्थिति जिसकी और अच्छी प्रकार जीती हुई हैं इंद्रियां जिसकी तथा समान है मिट्टी, पत्थर और सुवर्ण जिसको, वह योगी युक्त अर्थात भगवत की प्राप्ति वाला है, ऐसा कहा जाता है। इ स श्लोक में पिछले सूत्र में कुछ और नई दिशाएं | संयुक्त की गई हैं। ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है जो ! ज्ञान कहते हैं स्वयं को जान लेने को । विज्ञान कहते हैं पर को जान लेने को । विज्ञान का अर्थ है, दूसरे को जानने की जो व्यवस्था है। ज्ञान का अर्थ है, स्वयं को जान लेने की जो व्यवस्था है। कृष्ण कहते हैं, तृप्त है जो ज्ञान-विज्ञान से । इसका क्या अर्थ होगा? इसका क्या यह अर्थ होगा कि जो व्यक्ति आत्मज्ञानी है, योगारूढ़ है, योग को उपलब्ध है, क्या वह समस्त विज्ञान को जानकर तृप्त हो गया है? ऐसा अर्थ लेने की कोशिश की गई है, जो गलत है। क्योंकि अगर ऐसा होता, तो इस हमारे भारत में, जहां हमने बहुत योगारूढ़ व्यक्ति पैदा किए, हमने समस्त विज्ञानों का सार खोज लिया होता। वह हमने नहीं खोजा। तब तो हमारा एक योगी समस्त आइंस्टीनों और समस्त न्यूटनों और समस्त प्लांकों का काम पूरा कर देता । तब तो कोई बात ही न थी । तब तो अणु का रहस्य हम खोज लिए होते। तब तो समस्त विराट ऊर्जा का जो भी रहस्य है, हमने खोज लिया होता। इसलिए जो इसका ऐसा अर्थ लेता हो, वह गलत लेता है। ऐसा इसका अर्थ नहीं है । इसका अर्थ और गहरा है। यह बहुत ऊपरी अर्थ भी है, यह बहुत गहरा अर्थ भी नहीं है। समस्त ज्ञान-विज्ञान से आत्मा है तृप्त जिसकी ! विज्ञान से तृप्ति का अर्थ है, जिसके जीवन से कुतूहल विदा हो गया | कुतूहल, क्यूरिसिटी विदा हो गई। असल में क्यूरिआसिटी बहुत बचकाने मन का लक्षण है। यह बहुत सोचने जैसी बात है। जितनी छोटी उम्र, उतना कुतूहल होता है - यह कैसा है, वह कैसा है ? यह क्यों हुआ, यह क्यों नहीं हुआ ? जितना छोटा मन, जितनी कम बुद्धि, उतना कुतूहल होता है। इसलिए एक और बड़े मजे की बात है कि जिस तरह बच्चे कुतूहल से भरे होते हैं, इसी तरह जो सभ्यताएं बचकानी होती हैं,. | वे विज्ञान को जन्म देती हैं। बहुत हैरानी होगी! जो सभ्यताएं जितनी चाइल्डिश होती हैं, उतनी साइंटिफिक हो जाती हैं।' योरोप या अमेरिका एक अर्थों में बहुत बचकाने हैं, बहुत | बालपन में हैं, इसलिए वैज्ञानिक हैं। कुतूहल भारी है। चांद पर क्या है, जानना है! कुतूहल भारी है। मंगल पर क्या है, जानना है! जानते | ही चले जाना है | कुतूहल का तो कोई अंत नहीं । क्योंकि संसार का कोई अंत नहीं है। 68 इसलिए कोई सोचता हो कि जब मैं सब जान लूंगा, तब तृप्त | होऊंगा, तो वह पागल है। वह सिर्फ पागल हो जाएगा। ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है जिसका मन, इसका अर्थ ? इसका अर्थ है, जिसका कुतूहल चला गया। जो इतना प्रौढ़ हो गया कि अब वह यह नहीं पूछता कि ऐसा क्यों है, वैसा क्यों है? प्रौढ़ व्यक्ति कहता है, ऐसा है। फर्क समझें। बच्चे पूछते हैं, ऐसा क्यों है? वृक्ष के पत्ते हरे क्यों हैं ? गुलाब का फूल लाल क्यों है? आकाश में तारे क्यों हैं? प्रौढ़ | व्यक्ति कहता है, ऐसा है, दिस इज़ सो। वह कहता है, ऐसा है । | क्योंकि अगर पत्ते वृक्ष के पीले होते, तो भी तुम पूछते कि पीले क्यों हैं? अगर वृक्ष पर पत्ते न होते, तो तुम पूछते कि पत्ते क्यों नहीं हैं? Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ << ज्ञान विजय है - एक नव-संन्यास में दीक्षित संन्यासिनी ने—वह अमेरिका से | प्रौढ़ व्यक्ति जानता है कि सब उत्तर मनुष्य के द्वारा निर्मित हैं आई है-उसने मुझसे पूछा चार-छः दिन पहले कि व्हाय आई हैव | | और अस्तित्व निरुत्तर है। अस्तित्व निरुत्तर है, इसीलिए अस्तित्व कम टु यू-मैं तुम्हारे पास क्यों आ गई? मैंने कहा कि तू मेरे पास | | रहस्य है। न आती, तो पूछ सकती थी, व्हाय आई हैव नाट कम टु यू? इसका रहस्य का मतलब होता है, निरुत्तर। जहां से कोई उत्तर कभी नहीं क्या मतलब है! किसी और के पास पहुंचती, तो तू पूछती कि आएगा। अल्टिमेट आंसर कोई भी नहीं है. कोई चरम उत्तर नहीं है। व्हाय? आपके पास क्यों आ गई? यह प्रश्न तो कहीं भी सार्थक | कोई नहीं कह सकता कि बस, यह उत्तर हो गया, दिस इज़ दि हो सकता था-कहीं भी–इसलिए व्यर्थ है। आंसर। कोई ऐसा नहीं है। देयर आर आंसर्स, बट नो आंसर। उत्तर समझें। यह प्रश्न कहीं भी सार्थक हो सकता था, इसलिए व्यर्थ | | हैं, लेकिन कोई उत्तर नहीं है, जो कह दे कि बस, यह उत्तर हो गया; है। जो प्रश्न किसी जगह सार्थक होता है, सब कहीं नहीं, वही | अब कोई सवाल उठने का सवाल न रहा। कुतूहल पैदा होता ही सार्थक है। जो प्रश्न सभी जगह लग सकता है, उसका कोई अर्थ | | चला जाएगा। और हर नया उत्तर नए प्रश्नों के कुतूहल पैदा कर नहीं रह जाता। उसका कोई भी अर्थ नहीं रह जाता। जाता है। प्रौढ़ व्यक्ति जानता है, जगत ऐसा है। इसलिए प्रौढ़ सभ्यताओं ___ जब कोई व्यक्ति इस रहस्य को समझ लेता है कि किसी प्रश्न ने विज्ञान को जन्म नहीं दिया, प्रौढ़ सभ्यताओं ने धर्म को जन्म का कोई अंतिम उत्तर नहीं है, तब वह प्रश्न ही छोड़ देता है। उस दिया। जब भी सभ्यता अपने प्राथमिक चरण में होती है, तो विज्ञान प्रश्न-गिरी हुई स्थिति का नाम, विज्ञान-ज्ञान से तृप्त हो जाना है। को जन्म देती है; और जब सभ्यता अपने शिखर पर पहुंचती है, तो वह व्यक्ति प्रौढ़ हुआ। उस व्यक्ति का अब कोई कुतूहल न रहा। धर्म को जन्म देती है। धर्म उस प्रौढ़ मस्तिष्क की खबर है, जो अब वह राह से गुजर जाता है बिना पूछे, क्योंकि वह जानता है कि कहता है, चीजें ऐसी हैं—थिंग्स आर सच। पूछ-पूछकर भी कुछ नहीं पाया जा सकता है। और सब उत्तर सिर्फ कुतूहल व्यर्थ है, बचकाना है। बच्चे करें, ठीक। कुतूहल | नए प्रश्नों को जन्म देने वाले सिद्ध होते हैं। न वह अब यह पूछता बचपन है। है कि मैं कौन हूं? न वह अब यह पूछता है कि तू कौन है? वह तो जब कृष्ण कहते हैं, ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है जो, जिसके अब पूछता ही नहीं। कोई प्रश्न न रहे। उसका यह मतलब नहीं है कि जिसको सब उत्तर क्या होगा? जब कोई नहीं पूछता है, तब कौन-सी घटना मिल गए। सब उत्तर कभी किसी को मिलने वाले नहीं हैं। और घटेगी? जब चित्त कोई भी प्रश्न नहीं पछता. तब बडे रहस्य की अगर किसी दिन सब उत्तर मिल गए, तो उससे खतरनाक कोई | | बात है। जब कोई भी प्रश्न नहीं होता चित्त में, सब प्रश्न गिर जाते स्थिति न होगी। जिस दिन सब उत्तर मिल जाएंगे, उस दिन मरने के | | हैं, तब चित्त इतना मौन होता है, इतना शांत होता है कि किसी दूसरे सिवाय कोई उपाय नहीं रह जाएगा। और जिस दिन सब उत्तर मिल मार्ग से जीवन के रहस्य के साथ एक हो जाता है। उत्तर नहीं जाएंगे, उसका यही अर्थ होगा कि परमात्मा सीमित है, अनंत नहीं मिलता, लेकिन जीवन मिल जाता है। उत्तर नहीं मिलता, लेकिन है, असीम नहीं है। जो असीम है सत्य, उसके बाबत सब उत्तर कभी | | अस्तित्व मिल जाता है। वही उत्तर है। रहस्य के साथ आत्मसात हो नहीं मिल सकते। जाता है। और सब उत्तर टेंटेटिव हैं, सब उत्तर कामचलाऊ हैं। कल नए एक ढंग है, पूछकर जानने का; और एक ढंग है, न पूछकर प्रश्न खड़े हो जाएंगे और सब उत्तर बिखर जाते हैं। जब न्यूटन एक | जानने का। न पूछकर जानने का ढंग, धर्म का ढंग है। पूछकर उत्तर देता है, तो बिलकुल सही मालूम पड़ता है। बीस-पच्चीस | | जानने का ढंग, विज्ञान का ढंग है। साल बीत नहीं पाते हैं कि दूसरा आदमी नए सवाल खड़े कर देता | लेकिन कृष्ण कहते हैं, ज्ञान-विज्ञान दोनों से जो तृप्त हो गया। है और न्यूटन के सब उत्तर बिखर जाते हैं। फिर आइंस्टीन उत्तर देता | प्रौढ़ हो गया, मैच्योर हुआ, अब पूछता ही नहीं। क्योंकि कहता है, है, पुराने उत्तर बिखर जाते हैं। अब तो हर दो साल में उत्तर बिखर सब पूछना बच्चों का पूछना है। और सब उत्तर थोड़े ज्यादा उम्र के जाते हैं, नए सवाल खड़े हो जाते हैं। सब पुराने उत्तर एकदम गिर | बच्चों के द्वारा दिए गए उत्तर हैं। और कोई फर्क नहीं है। थोड़ी छोटी जाते हैं। उम्र के बच्चे सवाल पूछते हैं; थोड़ी बड़ी उम्र के बच्चे सवालों का 169 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग - 3 > जवाब दे देते हैं। कभी आपने घर में खयाल किया कि अगर आपके घर में दो बच्चे हैं, एक छोटा है, एक थोड़ा बड़ा है। आपसे सवाल पूछते हैं; आप जवाब देते हैं। आप जरा घर के बाहर चले जाएं। छोटा बच्चा बड़े बच्चे से सवाल पूछने लगता है, बड़ा बच्चा छोटे बच्चे को जवाब देने लगता । वही काम जो आप कर रहे थे, वह करने लगता है! ये सब सवाल-जवाब बच्चों के बीच हुई चर्चाएं हैं। प्रौढ़ता उस क्षण घटित होती है, जहां कोई सवाल नहीं है, जहां कोई जवाब नहीं है, जहां इतना परम मौन है कि पूछने का भी कोई-कोई पूछने का भी विघ्न नहीं है। तो कृष्ण कहते हैं, ज्ञान-विज्ञान से जो तृप्त है। नहीं, ऐसा नहीं कि सब ज्ञान-विज्ञान जान लिया। बल्कि ऐसा कि सब जानने की चेष्टा को ही व्यर्थ जाना । सब जानने की चेष्टा को ही व्यर्थ जाना। सब कुतूहल व्यर्थ जाने । सब पूछना व्यर्थ जाना। । फ्यूटिलिटी जाहिर हो गई कि कुछ पूछने से कभी कुछ मिला नहीं। यही अंतर है फिलासफी और धर्म का । यही अंतर है दर्शन और धर्म का दार्शनिक पूछे चले जाते हैं। वे बूढ़े हो गए बच्चे हैं, जिनका बचपन हटा नहीं। वे पूछे चले जाते हैं। वे पूछते हैं, जगत किसने बनाया? और पूछते हैं कि फिर उस बनाने वाले को किसने बनाया? और फिर पूछते हैं कि उस बनाने वाले को किसने बनाया? और पूछते चले जाते हैं। और उन्हें कभी खयाल भी नहीं आता कि वे क्या पागलपन कर रहे हैं। इसका कोई अंत होगा? इसका कोई भी तो अंत नहीं होने वाला है। अज्ञान अपनी जगह रहेगा। ये सारे उत्तर अज्ञान से दिए गए उत्तर कुछ नहीं होगा। प्रश्न फिर खड़ा हो जाएगा। पूछते हैं, जगत किसने बनाया? कहते हैं, ईश्वर ने बनाया। अज्ञान में दिया गया उत्तर है। सच तो यह है कि अज्ञानी ही पूछते रहते हैं, अज्ञानी ही उत्तर देते रहते हैं ! उत्तर और प्रश्नों में जगत की पहेली हल होने वाली नहीं है। तो कहते हैं कि जैसे कुम्हार घड़ा बनाता है, ऐसे भगवान ने यह संसार बना दिया। भगवान को भी कुम्हार बनाने से नहीं चूकते। उसको कुम्हार बना दिया। घड़ा कैसे बनेगा बिना कुम्हार के ? तो जगत कैसे बनेगा बिना भगवान के? तो एक महा कुम्हार, उसने घड़े की तरह जगत को बना दिया। लेकिन कोई बच्चा जरूर पूछेगा कि यह तो हम समझ गए कि | जगत उसने बना दिया, लेकिन उसको किसने बनाया? तो जो जरा धैर्यवान हैं, वे फिर कुछ और उत्तर खोजेंगे। कोई अधैर्यवान हैं, तो डंडा उठा लेंगे। वे कहेंगे, बस, अतिप्रश्न हो गया! अब आगे मत पूछो, नहीं सिर खोल देंगे ! जब अतिप्रश्न ही कहना था, तो पहले प्रश्न पर ही कह देना था कि व्यर्थ मत पूछो। क्योंकि फर्क क्या पड़ा! बात तो वहीं की वहीं खड़ी है। राज वहीं का वहीं खड़ा है। सिर्फ प्रश्न पहले जगत के साथ लगा था कि किसने बनाया, अब वही प्रश्न परमात्मा के साथ लग गया कि किसने बनाया । अल्टिमेट के साथ जुड़ा है वह, अल्टिमेट के साथ ही जुड़ा हुआ है। पहले जगत आखिरी था, अब परमात्मा आखिरी है। हम पूछते हैं, उसको किसने बनाया? और अगर आप कहते हैं कि वह बिना बनाया, स्वयंभू है, तो फिर पहले जगत को ही स्वयंभू मान लेने में कौन-सी अड़चन आती थी ? दार्शनिक बच्चों के कुतूहल में पड़े हुए लोग हैं। इसलिए सब फिलासफी चाइल्डिश होती है। कितने ही बड़े दार्शनिक हों, कितने ही गुरु-गंभीर उन्होंने ग्रंथ लिखे हों, चाहे हीगल हों और चाहे बड़े मीमांसक हों, कितने ही उन्होंने गुरु-गंभीर ग्रंथ लिखे हों और कितने ही बड़े-बड़े शब्दों का उपयोग किया हो और कितना ही जाल बुना हो, अगर बहुत गहरे में उतरकर देखेंगे, तो छिपा हुआ बच्चा पाएंगे, जो कुतूहल कर रहा है, क्युरिअस है कि यह क्यों है, वह क्यों है ! फिर अपने ही उत्तर दे लेता है। खुद के ही सवाल हैं और खुद के ही जवाब हैं और खुद का ही खेल है। कृष्ण कहते हैं, जो तृप्त हुआ इस सब बचकानेपन से। जो प्रौढ़ हुआ, जो कहता है, पूछना ही व्यर्थ है, क्योंकि उत्तर कौन देगा! जो | इतना प्रौढ़ हुआ कि कहता है कि चीजों का स्वभाव ऐसा है। कोई सवाल नहीं है। आग जलाती है और पानी ठंडा है। ऐसा है। ऐसा वस्तुओं का स्वभाव है। महावीर का एक वचन है बहुत कीमती, जिसमें उन्होंने कहा है, वत्थूस्वभावो धम्म, वस्तु के स्वभाव को जान लेना ही धर्म है। ऐसा जान लेना कि ऐसा वस्तुओं का स्वभाव है; इसका यह स्वभाव है, उसका वह स्वभाव है, बस, इतना ही जान लेना धर्म है। मगर ऐसा जानना तभी संभव हो सकता है, जब ज्ञान-विज्ञान की वह | जिज्ञासा है - अनंत जिज्ञासा है, दौड़ाती ही रहती है कि और जानूं, और जानूं - वह शांत हो जाए, तृप्त हो जाए। तो कृष्ण कहते हैं, जिसकी जिज्ञासा, जिसका कुतूहल क्षीण 70 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान विजय है - | भी गीत गाएं और साथ दें। पांच मिनट लीन होकर देखें। सब प्रश्न, सब जिज्ञासा, सब गीता, वेद छोड़कर वहां उतर जाएं जहां से गीता | जन्मती है और वेद आविर्भूत होते हैं। डूबें थोड़ा अपने भीतर! हुआ, जो प्रौढ़ हुआ। जिसने अस्तित्व को स्वीकार किया और पूछना बंद किया। और जिसने जाना कि मैं एक लहर हूं इस विराट सागर में, क्या पूर्वी ? किससे पूछू ? कौन देगा जवाब? मैं खुद ही जवाब हूं। चुप हो जाऊं, मौन हो जाऊं, उतरूं गहरे में। जानूं कि अस्तित्व क्या है। पछं न. उत्तर की तलाश न करूं. अनभव की तलाश करूं। उस अनुभव में जो फलित होता है, उस अनुभव में व्यक्ति परमात्मा को उपलब्ध हो जाता है, ऐसा जानने वालों ने कहा है। कृष्ण कहते हैं, ऐसा जानने वालों ने कहा है। ऐसा कहा जाता है। ऐसा क्यों कहते हैं? यह आखिरी बात, फिर हम सांझ बात करेंगे। कृष्ण ऐसा क्यों कहते हैं कि ऐसा कहा जाता है? ऐसा कृष्ण इसलिए कहते हैं कि मेरा कोई दावा नहीं है कि ऐसा मैं कहता हूं। जिन्होंने भी जाना है, उन्होंने ऐसा ही कहा है। मैं कोई दावेदार नहीं हूं। कृष्ण ऐसा नहीं कहते कि ऐसा मैं ही कह रहा हूं। ऐसा उन्होंने भी कहा है, जो जानते हैं। ज्ञान ऐसा कहता है। इससे व्यक्ति को विदा करने की कोशिश है। और ध्यान रहे, ज्ञानी में व्यक्ति नहीं रह जाता। बोले, तो भी नहीं रह जाता। मैं कहे, तो भी नहीं रह जाता। ये सिर्फ कामचलाऊ बातें रह जाती हैं। ___ इसलिए कृष्ण कहते हैं, ऐसा कहा जाता है। ऐसा मैं भी कहता हूं। ऐसा और भी कहते हैं। ऐसा जो भी जानते हैं, वे कहते हैं। ऐसा ज्ञान का कथन है। ऐसा ज्ञान कहता है। समस्त द्वंद्वों से पार, कुतूहल से पार, व्यर्थ जानने की दौड़ और जिज्ञासा से पार, प्रौढ़ हुआ चित्त, समतुल हुआ चित्त, निद्वंद्व हुआ चित्त, समबुद्धि में ठहरा हुआ चित्त, अकंप हुआ चित्त, परमात्मा को उपलब्ध हो जाता है। पांच मिनट और बैठे रहेंगे। अभी इतनी बात सुनी; प्रश्न हैं, जवाब हैं, पांच मिनट थोड़ा अनुभव में उतरने की कोशिश करेंगे। हालांकि मन यह करता है कि सुन तो सकते हैं दो घंटे, लेकिन अनुभव में पांच मिनट उतरने में भी कठिनाई होती है। तो पांच मिनट अनुभव में उतरेंगे। और मैं चाहूंगा कि साथ दें। यहां कीर्तन करेंगे संन्यासी, तो वे आनंद में मग्न हो रहे हैं, आप भी उनके आनंद में भागीदार हों। ताली बजाएं, उनके साथ गीत गाएं। संकोच न करें, पड़ोसी क्या कहेगा! वह वैसे ही काफी कह रहा है। आप उसकी कोई बहुत फिक्र न करें। जिनको नाच में सम्मिलित होना हो, वे भी ऊपर आ जाएं या सामने आ जाएं। जिनको बैठकर ताली देनी हो, गीत गाने हों, वे Page #98 --------------------------------------------------------------------------  Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 6 पांचवां प्रवचन हृदय की अंतर-गुफा Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 सुहृन्मित्रायुदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु । का भी कोई मूल्य न हो, लेकिन मित्रता और शत्रुता का भारी मूल्य साधुष्वपि व पापेषु समबुद्धिविशिष्यते।।९।। | हो। एक व्यक्ति ऐसा हो सकता है कि मित्र के लिए हजार तरह के और जो पुरुष सुहृद, मित्र, बैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेषी और यश खोने को राजी हो जाए; और एक व्यक्ति ऐसा भी हो सकता बंधुगणों में तथा धर्मात्माओं में और पापियों में भी समान है कि यश के लिए हजार मित्रों को खोने के लिए राजी हो जाए। तो भाव वाला है, वह अति श्रेष्ठ है। | जिस व्यक्ति के लिए मित्र और शत्रु महत्वपूर्ण बात है, उसे न यश महत्वपूर्ण है, न सुख; न दुख महत्वपूर्ण है, न अपयश। उसके लिए | मित्रता और शत्रुता के बीच ही समत्व को साधना होगा। कष्ण के लिए समत्वबुद्धि समस्त योग का सार है। | जो आपके लिए महत्वपूर्ण है द्वंद्व, वही द्वंद्व आपके लिए मार्ग पा इसके पूर्व के सूत्रों में भी अलग-अलग द्वारों से | | बनेगा। दूसरे का द्वंद्व आपके लिए मार्ग नहीं बनेगा। समत्वबुद्धि के मंदिर में ही प्रवेश की योजना कृष्ण ने एक व्यक्ति हो सकता है, जिसे सौंदर्य का कोई बोध ही न हो। कही है। इस सूत्र में भी पुनः किसी और दिशा से वे समत्वबुद्धि की बहुत लोग हैं, जिन्हें सौंदर्य का कोई बोध ही नहीं है। वे भी . घोषणा करते हैं। बहुत-बहुत रूपों में समत्वबुद्धि की बात करने का दिखलाते हैं कि उन्हें सौंदर्य का बोध है। और अगर उनके पास थोड़े प्रयोजन है। | पैसे की सुविधा है, तो वे भी अपने घर में वानगाग के चित्र लटका प्रयोजन है, भिन्न-भिन्न, भांति-भांति प्रवृत्ति और प्रकृतियों के सकते हैं और पिकासो की पेंटिंग्स लटका सकते हैं, लेकिन फिर लोग हैं। समत्वबुद्धि का परिणाम तो एक ही होगा, लेकिन यात्रा भी सौंदर्य का बोध और बात है। जिसे सौंदर्य का बोध है, उसके भिन्न-भिन्न होगी। हो सकता है, कोई सुख और दुख के बीच लिए द्वंद्व, कुरूपता और सौंदर्य के बीच संतुलन का होगा। सभी समबुद्धि को साधे। लेकिन ऐसा भी हो सकता है कि सुख और दुख को वह बोध नहीं है। के प्रति किसी व्यक्ति की संवेदनशीलता ही बहुत कम हो। हम सौंदर्य का बोध रवींद्रनाथ जैसे किसी व्यक्ति को होता है। तो सबकी संवेदनशीलताएं, सेंसिटिविटीज अलग-अलग हैं। हो उस बोध के परिणाम ये होते हैं कि छोटा-सा असौंदर्य भी सहना सकता है, किसी व्यक्ति के लिए सुख और दुख उतने महत्वपूर्ण कठिन हो जाता है। छोटा-सा, बहुत छोटा-सा, जिस पर हमारी द्वार ही न हों; यश और अपयश ज्यादा महत्वपूर्ण हों। दृष्टि भी न जाए, वह भी रवींद्रनाथ को असह्य हो जाएगा। अगर आप कहेंगे कि यश तो सुख ही है और अपयश दुख ही है! नहीं; | कोई व्यक्ति थोड़ा इरछा-तिरछा भी रवींद्रनाथ के पास आकर बैठ थोड़ा बारीकी से देखेंगे, तो फर्क खयाल में आ जाएगा। गया, तो वे बेचैन हो जाएंगे। जरा-सा अनुपात अगर ठीक नहीं है, ऐसा हो सकता है कि एक व्यक्ति यश पाने के लिए कितना ही तो उन्हें बड़ी कठिनाई शुरू हो जाएगी। एक व्यक्ति अगर जोर की दुख झेलने को राजी हो जाए; और ऐसा भी हो सकता है कि कोई आवाज में बोल दे और सौंदर्य खो जाए आवाज का, संगीत खो व्यक्ति, अपयश न मिले, इसलिए कितना ही दुख झेलने को राजी जाए, तो रवींद्रनाथ को पीड़ा हो जाएगी। और हो सकता है, आपको हो जाए। इससे उलटा भी हो सकता है। ऐसा व्यक्ति हो सकता है, जोर से बोलना महज आदत हो। आपको कोई बोध ही न हो। जो अपने सुख के लिए कितना ही अपयश झेलने को राजी हो जाए। | प्रत्येक व्यक्ति के बोध-तंतु भिन्न-भिन्न हैं। हम सभी के पास ऐसा व्यक्ति हो सकता है, जो दुख से बचने के लिए कितना ही यश अपना-अपना द्वंद्व है। तो समझें कि अपना द्वंद्व ही अपना द्वार खोने को राजी हो जाए। बनेगा। इसलिए कृष्ण हर द्वंद्व की बात करते हैं। तो जिसके लिए अपयश और यश ज्यादा महत्वपूर्ण हैं, उसके | इस सूत्र में वे कहते हैं, मित्र और शत्रु के बीच जो सम है। लिए सुख और दुख का द्वार काम नहीं करेगा। उसके लिए यश और ___ अर्जुन के लिए यह सूत्र उपयोगी हो सकता है। अर्जुन के लिए अपयश में समबुद्धि को साधना पड़ेगा। | मित्रता और शत्रुता कीमत की बात है। क्षत्रिय के लिए सदा से रही वही साधना पड़ेगा हमें, जो हमारा चुनाव है, जो हमारा द्वंद्व है। है। बहुत संवेदनशील क्षत्रिय अपनी जान दे दे, वचन न छोड़े। हम सबके द्वंद्व अलग अलग हैं। मित्र को दिया गया वायदा पूरा करे, चाहे प्राण चले जाएं। अगर यह भी हो सकता है कि किसी व्यक्ति के लिए अपयश, यश वणिक बुद्धि का व्यक्ति हो, तो एक पैसा बचा ले, चाहे हजार 74] Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हृदय की अंतर- गुफा वचन चले जाएं, हजार मित्र खो जाएं। बुरे भले की बात नहीं है, अपना-अपना द्वंद्व है। सुना है मैंने, राजस्थान में एक लोक-कथा है। एक गांव में गांव राजपूत सरदार ने गांवभर में खबर रख छोड़ी है कि कोई मूंछ बड़ी न करे। खुद मूंछ बड़ी कर रखी है। और अपने दरवाजे पर तख्त डालकर बैठा रहता है। और गांव में खबर कर रखी है कि कोई मूंछ ऊंची करके सामने से न निकले। अगर मूंछ भी हो, तो नीची कर ले। गांव में एक नया वणिक आया है, नया वैश्य आया है। उसने नई दुकान खोली है। उसको भी मूंछ रखने का शौक है। पहली बार राजपूत के सामने से निकल रहा है। राजपूत ने कहा, वणिक - पुत्र, मूंछ नीची कर लो ! शायद तुम्हें पता नहीं, मेरे दरवाजे के सामने मूंछ ऊंची नहीं जा सकती। वणिक-पुत्र ने कहा, मूंछ तो ऊंची ही जाएगी! तलवारें खिंच गईं। राजपूत दो तलवारें लेकर बाहर आ गया। राजपूत था इसलिए दो लाया। एक वणिक-पुत्र के लिए, एक अपने लिए। वणिक-पुत्र ने तलवार देखी। कभी पकड़ी तो न थी। सिर्फ मूंछ ऊंची रखने का शौक था । सोचा, यह झंझट हो गई। वणिक - पुत्र ने कहा, ठीक है। खुशी से इस युद्ध में मैं उतरूंगा। लेकिन एक प्रार्थना कि जरा मैं घर होकर लौट आऊं । उस राजपूत ने कहा, किसलिए? वणिक - पुत्र ने कहा, आपको भी ठीक जंचे, तो आप भी यही करें। हो सकता है, मैं मर जाऊं, तो मेरे पीछे मेरी पत्नी और बच्चे दुखी न हों, उनकी मैं गर्दन काटकर आता हूं। अगर आपको भी जंचती हो बात, हो सकता है, आप मर जाएं, तो आप अपनी पत्नी और बच्चों की गर्दन काट दें; फिर हम लड़ें मौज से । राजपूत ने कहा, बात ठीक है। वणिक-पुत्र अपने घर गया। राजपूत ने भीतर जाकर गर्दनें साफ कर दीं। बाहर आकर बैठ गया। थोड़ी देर में वणिक-पुत्र मूंछ नीची करके लौट आया। उसने कहा, मैंने सोचा नाहक झंझट क्यों करनी ! जरा-सी मूंछ को नीची करने के लिए उपद्रव क्यों करना ! यह तुम्हारी तलवार सम्हालो ! उस राजपूत ने कहा, तुम आदमी कैसे हो? मैंने अपनी पत्नी और बच्चे साफ कर दिए ! उस -पुत्र ने कहा कि फिर तुम जानते ही नहीं कि वणिक का अपना गणित होता है | हमारा अपना हिसाब है ! प्रत्येक व्यक्ति का टाइप है, और प्रत्येक व्यक्ति के रुझान हैं, और प्रत्येक व्यक्ति की संवेदनशीलताएं हैं, और प्रत्येक व्यक्ति 75 के लिए उसके जीवन का महत्वपूर्ण द्वंद्व है । और हर एक को अपना द्वंद्व देख लेना चाहिए कि मेरा द्वंद्व क्या है? प्रेम और घृणा | मेरा द्वंद्व है ? मित्रता - शत्रुता मेरा द्वंद्व है ? धन-निर्धनता मेरा द्वंद्व है ? यश - अपयश मेरा द्वंद्व है? सुख-दुख, ज्ञान- अज्ञान, शांति - अशांति, मेरा द्वंद्व क्या है ? और जो भी आपका द्वंद्व हो, कृष्ण कहते हैं, उस द्वंद्व में समबुद्धि को उपलब्ध होना मार्ग है। ध्यान रहे, दूसरे के द्वंद्व में आप समबुद्धि को बड़ी आसानी से उपलब्ध हो सकते हैं। अपने ही द्वंद्व का सवाल है। दूसरे के द्वंद्व में आपको समबुद्धि लाने में जरा भी कठिनाई नहीं पड़ेगी। आप कहेंगे कि बिलकुल ठीक है । अगर आपकी जिंदगी में कभी यश का | खयाल नहीं पकड़ा, अगर आपको कभी राजनीति का प्रेत सवार नहीं हुआ, यश का, तो आप कहेंगे कि ठीक है, इलेक्शन जीते कि हारे। इसमें तो हम सम ही रहते हैं, इसमें कोई हमें कठिनाई नहीं है। आपको कभी वह भूत नहीं पकड़ा हो, तो आप बिलकुल समबुद्धि बता सकते हैं। लेकिन असली सवाल यह नहीं है कि आप बताएं; असली सवाल वह है कि जिसे भूत पकड़ा हो। आपका अपना भूत | क्या है, आपका अपना प्रेत क्या है, जो आपका पीछा कर रहा है? उसकी ठीक पहचान जरूरी है। इसलिए कृष्ण अलग-अलग सूत्र में अलग-अलग प्रेतों की चर्चा कर रहे हैं। वे यहां कहते हैं कि मित्र और शत्रु के बीच समभाव । बड़ी कठिनाई है। एक बार धन और निर्धनता के बीच समभाव आसान है, क्योंकि धन निर्जीव वस्तु है। इसे थोड़ा ठीक से समझ लेंगे। एक बार यश और अपयश के बीच समभाव आसान है, क्योंकि यश और अपयश आपकी निजी बात है। लेकिन मित्र और शत्रु के | बीच समभाव रखना बहुत कठिन है। क्योंकि एक तो निजी बात नहीं रही; कोई और भी सम्मिलित हो गया; मित्र और शत्रु भी सम्मिलित हो गए। आप अकेले न रहे, दूसरा भी मौजूद हो गया। | और इसलिए भी महत्वपूर्ण और कठिन है कि धन जैसी निर्जीव वस्तु नहीं है सामने। आप सोने को और मिट्टी को समान समझ लें एक बार, तो बहुत कठिनाई नहीं है, क्योंकि दोनों जड़ हैं। लेकिन मित्र और शत्रु दोनों जीवंत हैं, चेतन हैं, उतने ही जितने आप। • आपके ही तल पर खड़े हुए लोग हैं; आप जैसे ही लोग हैं। | कठिनाई, जटिलता ज्यादा है। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 गीता दर्शन भाग-3 इसलिए मित्र और शत्रु के बीच समभाव रखने की क्या प्रक्रिया करता ही रहूंगा, लेकिन यह जिद्द, यह अहंकार मेरे भीतर न हो कि होगी? कौन रख सकेगा मित्र और शत्रु के बीच समभाव ? उसको | | यह काम मुझे करके ही रहना है। तो फिर ठीक है। जो काम में साथ ही कृष्ण योगी कहते हैं। कौन रख सकेगा? तो इसके थोड़े से सूत्र | दे देता है, उसका धन्यवाद; और जो काम में बाधा दे देता है, उसका खयाल में ले लें। भी धन्यवाद। जो रास्ते से पत्थर हटा देता है. उसका भी धन्यवाद: एक, जो व्यक्ति अपने लिए किसी का भी शोषण नहीं करता, और रास्ते पर जो पत्थर बिछा देता है, उसका भी धन्यवाद। जो व्यक्ति अपने लिए किसी का भी शोषण नहीं करता. वही व्यक्ति | न मुझे कहीं पहुंचना है, न मुझे कुछ कर लेना है। जीता हूं; मित्र और शत्रु के बीच समभाव रखने में सफल हो पाएगा। | परमात्मा जो काम मुझसे लेना चाहे, ले ले। जितना मुझसे बन आप मित्र कहते ही उसे हैं, जो आपके काम पड़ता है। कहावत | सकेगा, कर दूंगा। कोई ऐसी जिद्द नहीं है कि यह लक्ष्य पूरा होना है कि मित्र की कसौटी तब होती है, जब मुसीबत पड़े। जो आपके ही चाहिए। तो फिर मित्र और शत्रु के बीच कोई बाधा नहीं रह काम पड़ जाए, उसे आप मित्र कहते हैं। जो आपके काम में बाधा जाती। फिर समान हो जाती है बात। बन जाए, उसे आप शत्रु कहते हैं। और तो कोई फर्क नहीं है। ___ तो पहली बात तो आपसे यह कहना चाहूं कि जिस व्यक्ति को भी इसलिए मित्र कभी भी शत्रु हो सकता है, अगर काम में बाधा | जीवन को एक काम समझ लेने की नासमझी आ गई हो, और जिसे डाले। और शत्रु कभी भी मित्र हो सकता है, अगर काम में ऐसा खयाल हो कि उसे जिंदगी में कुछ करके जाना है, वह शत्रु और सहयोगी बन जाए। मित्र निर्मित करेगा ही। और वह समभाव भी न रख सकेगा। अगर आपका कोई भी काम है, तो आप समभाव न रख सकेंगे। __ दूसरी बात आपसे यह कहना चाहता हूं कि शत्रु और मित्र के मित्र और शत्रु के बीच वही समभाव रख सकता है, जो कहता है, | बीच समभाव रखना तभी संभव है, जब आपके भीतर वह जो प्रेम मेरा कोई काम ही नहीं है, जिसमें कोई सहयोगी बन सके और | पाने की आकांक्षा है, वह विदा हो गई हो। दूसरी बात भी ठीक से जिसमें कोई विरोधी बन सके। जो कहता है, इस जिंदगी को मैं | समझ लें। नाटक समझता हूं, काम नहीं। जो कहता है, यह जिंदगी मेरे लिए हम सबके मन में मरते क्षण तक भी प्रेम पाने की आकांक्षा विदा सपने जैसी है, सत्य नहीं। जो कहता है, यह जिंदगी मेरे लिए | नहीं होती। पहले दिन बच्चा पैदा होता है तब भी वह प्रेम पाने के रंगमंच है; यहां मैं खेल रहा हूं, कोई काम नहीं कर रहा हूं। लिए आतुर होता है, उतना ही जितना बूढ़ा मरते वक्त आखिरी श्वास जो थोड़ा भी गंभीर है जीवन के प्रति और कहता है कि यह काम | | लेते वक्त होता है। प्रेम पाने की आतुरता बनी रहती है; ढंग बदल मुझे करना है, वह शत्रुओं और मित्रों के बीच कभी भी समभाव को | जाते हैं। लेकिन प्रेम कोई करे मुझे! कोई मुझे प्रेम दे! प्रेम का भोजन उपलब्ध नहीं हो सकता। क्योंकि काम ही कहेगा कि मित्रों के प्रति | न मिलेगा, तो मैं भूखा होकर मर जाऊंगा, मुश्किल में पड़ जाऊंगा। भिन्न भाव रखो, शत्रुओं के प्रति भिन्न भाव रखो। अगर मुझे कुछ | एक बार शरीर को भोजन न मिले, तो हम सह पाते हैं। लेकिन भी करना है इस जमीन पर, अगर मुझे कोई भी खयाल है कि मैं | अगर चित्त को भोजन न मिले-प्रेम चित्त का भोजन है। चित्त को कुछ करना चाहता हूं, तो फिर मैं मित्र और शत्रु के बीच समभाव प्राण मिलते हैं प्रेम से। न रख सकूँगा। मित्र और शत्रु के बीच समभाव तभी हो सकता है, - तो जब तक जरूरत है प्रेम की, तब तक मित्र और शत्रु को एक जब मेरा कोई काम ही नहीं है इस पृथ्वी पर। मुझे कहीं पहुंचना नहीं कैसे समझिएगा! सम कैसे हो जाइएगा! तटस्थ कैसे होंगे! मित्र है। मुझे कुछ करके नहीं दिखा देना है। वह है, जो प्रेम देता है। शत्रु वह है, जो प्रेम नहीं देता है। तो जब इसका यह भी मतलब नहीं है कि मैं बिलकुल निठल्ला और | तक आपकी प्रेम की आकांक्षा शेष है कि कोई मुझे प्रेम दे...। निष्क्रिय बैठ जाऊं, तो मित्र और शत्रु के बीच समभाव हो जाएगा। ___ और यह बड़े मजे की बात है कि दुनिया में सारे लोग चाहते हैं अगर मैंने निठल्ला बैठना भी अपनी जिंदगी का काम बना लिया. कि कोई उन्हें प्रेम दे। शायद ही कोई चाहता है कि मैं किसी को प्रेम तो कुछ मेरे मित्र होंगे जो निठल्ले बैठने में सहायता देंगे और कुछ | दं! इसको थोड़ा बारीकी से समझ लेना उचित होगा। मेरे शत्रु हो जाएंगे जो बाधा डालेंगे। हम सबको यह भ्रम होता है कि हम प्रेम देते हैं। लेकिन अगर इसका यह अर्थ नहीं है। इसका इतना ही अर्थ है कि काम तो मैं | आप प्रेम सिर्फ इसीलिए देते हैं, ताकि आपको लौटते में प्रेम मिल Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < हृदय की अंतर-गुफा - पड़ता है। जाए, तो आप सिर्फ इनवेस्टमेंट करते हैं, देते नहीं हैं। आप सिर्फ बेटा भी अगर बाप का प्रेम चुपचाप ले ले और उत्तर न दे, तो व्यवसाय में संलग्न होते हैं। बाप दुखी और पीड़ित लौटता है। बेटा अगर मां का प्रेम वापस न मैं अगर आपको प्रेम देता हूं सिर्फ इसलिए कि मैं प्रेम चाहता हूं लौटाए, तो मां भी चिंतित और परेशान और पीड़ित हो जाती है। और बिना प्रेम दिए.प्रेम नहीं मिलेगा, तो मैं सिर्फ सौदा कर रहा हूं। बूढ़े से बूढ़ा आदमी भी प्रेम वापस मांग रहा है। आदमियों से मेरी चेष्टा तो प्रेम पाने की है। देता हूं इसलिए कि बिना दिए प्रेम | नहीं मिलता, तो लोग कुत्ते पाल लेते हैं। दरवाजे पर आते हैं, कुत्ता नहीं मिलेगा। | पूंछ हिला देता है। क्योंकि अब पत्नियां पंछ हिलाएं, जरूरी नहीं यह मेरा दिया हुआ प्रेम वैसा ही है, जैसा कि कोई मछली को | है। बच्चे पूंछ हिलाएं, जरूरी नहीं है। सब गड़बड़ हो गई है पुरानी मारने वाला कांटे पर आटा लगा देता है। आटा लगाकर कांटे पर | व्यवस्था पूंछ हिलाने की। और लटकाकर बैठ जाता है अपनी बंसी को। मछलियां सोचती __ जिन-जिन मुल्कों में आदमी पूंछ हिलाना बंद कर रहे हैं, होंगी कि आटा खिलाने के लिए कोई बड़ी कृपा करके आया है! वहां-वहां कुत्ते का फैशन बढ़ता जाता है। वह सब्स्टीटयूट है। पर आटा सिर्फ ऊपर है, भीतर कांटा है। मछली आटा ही खाने को | दरवाजे पर खड़ा रहता है; आप आए, वह पूंछ हिला देता है। आप आएगी और तब पाएगी कि कांटा उसके प्राणों तक चुभ गया है। बड़े खुश हो जाते हैं। आश्चर्यजनक है! कुत्ते की हिलती पूंछ भी अगर किसी में कांटा भी डालना हो, तो आटा लगाकर ही डालना आपको तृप्ति देती है। कम से कम कुत्ता तो प्रेम दे रहा है। हालांकि कुत्ते का भी प्रयोजन वही है। वह भी पूंछ हिलाकर आटा डाल रहा अगर मुझे किसी से प्रेम लेना है और किसी के ऊपर प्रेम की | | है। उसके भी अपने कांटे हैं। वह भी जानता है कि बिना पूंछ हिलाए मालकियत कायम करनी है, तो पहले घुटने टेककर प्रेम निवेदन यह आदमी टिकने नहीं देगा। यह भोजन मिलता है, घर में विश्राम करना पड़ता है। वह आटा है। मिलता है, यह पूंछ हिलाकर वह आपसे खरीद रहा है। वह भी तो दूसरा सूत्र आप खयाल में ले लें, जब तक प्रेम की आकांक्षा | इनवेस्ट कर रहा है। सारी दुनिया इनवेस्टमेंट में है। है कि कोई मुझे प्रेम दे...। जो आदमी प्रेम मांग रहा है, वह मित्र और शत्रु के बीच समबुद्धि और ध्यान रहे, जब तक यह आकांक्षा है, तब तक आप बच्चे को उपलब्ध नहीं हो सकता। सिर्फ वही आदमी समबुद्धि को हैं, जुवेनाइल हैं, आप विकसित नहीं हुए। विकसित मनुष्य वह है, उपलब्ध हो सकता है, वह तीसरा सूत्र आपसे कहता हूं, जो प्रेम प्रेम पाने का कोई सवाल जिसे नहीं रह गया। जो बिना प्रेम के जी मांगने के पार चला गया और जो प्रेम देने में समर्थ हो गया। जिसे सकता है। प्रौढ़ मनुष्य वह है, जो प्रेम नहीं मांगता। प्रेम देना है और लेना नहीं है, वह मित्र को भी दे सकता है, शत्रु और यह बड़े मजे की बात है, और इसी से तीसरा सूत्र निकलता को भी दे सकता है। क्योंकि लेने का तो कोई सवाल नहीं है, है। जो आदमी प्रेम नहीं मांगता. वह आदमी प्रेम देने में समर्थ हो। इसलिए फर्क करने की कोई आवश्यकता नहीं है। जाता है। और जो आदमी प्रेम मांगता चला जाता है. वह कभी प्रेम सना है मैंने. जीसस एक कहानी कहा करते थे। वह कहानी देने में समर्थ नहीं होता। आपको इस बात को समझाने में सहयोगी होगी। जीसस कहा करते मगर बड़ा उलटा है। हम सबको लगता है, हम प्रेम देने में समर्थ थे प्रेम को ही समझाने के लिए। कभी-कभी जीसस के शिष्य हैं। बाप सोचता है, मैं बेटे को प्रेम दे रहा हूं। लेकिन मनोवैज्ञानिक सवाल उठा देते थे कि मैं तो आपकी इतनी सेवा करता हूं, फिर भी से पूछे, मनसविद से पूछे। वह कहता है, बाप भी बेटे को आप मुझे इतना ही प्रेम करते हैं, जितना कि उस आदमी को करते थपथपाकर आशा करता है कि बेटा भी बाप को थपथपाए। हां, | हैं, जिसने आपकी कभी कोई सेवा नहीं की! मैं आपके साथ बरसों थपथपाने के ढंग अलग होते हैं। बेटा और ढंग से थपथपाएगा, | से परेशान होता हूं, दर-दर भटकता हूं। मुझे भी आप उतना ही प्रेम बाप और ढंग से थपथपाएगा। बेटा कहेगा, डैडी, आप जैसा | देते हैं, उस अजनबी आदमी को भी उतना ही प्रेम दे देते हैं, जो रास्ते ताकतवर डैडी इस दुनिया में कोई भी नहीं है! डैडी, जिनकी छाती पर आपको पहली बार मिलता है! में हड्डियां भी नहीं हैं, उनकी छाती फूलकर आकाश जैसी हो तो जीसस एक कहानी कहा करते थे। वे कहते थे कि एक बहुत जाएगी। बेटा भी थपथपा रहा है। | बड़ा धनपति था—बहुत बड़ा। उसके पास बहुत धन था, जिसका Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-31 कोई हिसाब भी न था। मगर इस वजह से बहुत बड़ा धनपति था, | नहीं, सिर्फ बांटते चले जाते हैं। ऐसा व्यक्ति शत्रु को भी दे देगा इसलिए नहीं। ईसा कहते थे, वह इसलिए बड़ा धनपति था कि धन और मित्र को भी दे देगा, क्योंकि कोई कमी पड़ने वाली नहीं है। पर उसकी पकड़ खो गई थी और धन की उसकी आकांक्षा खो गई और मित्र और शत्रु में फर्क क्यों करें? जब दोनों को देना ही है, तो थी। उसकी अब कोई और आकांक्षा न थी कि मुझे और धन मिल | फर्क का क्या सवाल है! लेना हो, तो फर्क का सवाल है, क्योंकि जाए। इसलिए वह बड़ा धनपति था। और वह धन बांट सकता था। | मित्र देगा और शत्रु नहीं देगा। लेकिन देना ही हो, तो फर्क का क्या क्योंकि जिसकी आकांक्षा शेष है कि मुझे और धन मिल जाए, वह । सवाल है! बांट नहीं सकता, वह दान नहीं कर सकता। वह बांट सकता था। ___ तो तीसरा सूत्र खयाल रख लें कि जो प्रेम के मालिक हुए, वे ही अब पाने की कोई आकांक्षा न थी। | केवल मित्र और शत्रु के बीच समबुद्धि को उपलब्ध हो सकते हैं। एक दिन सुबह उसके अंगूर के खेत पर उसने अपने मजदूर भेजे। मैंने कहा कि धन और निर्धनता के बीच समबुद्धि लानी बहुत और कहा कि गांव से कुछ मजदूर बुला लाओ। सुबह सूरज उगने कठिन नहीं है, क्योंकि धन बड़ी बाहरी घटना है। और यश-अपयश के वक्त कुछ मजदूर खेत पर काम करने आए। लेकिन मजदूर कम | के बीच भी समबुद्धि लानी बहुत बड़ी बात नहीं है, क्योंकि थे। फिर उसने आदमी भेजा; फिर बाजार से कुछ मजदूर आए। | यश-अपयश भी लोगों की आंखों का खेल है। लेकिन मित्र और लेकिन तब सूरज काफी चढ़ चुका था; दोपहर होने के करीब थी। शत्रु के बीच समभाव लाना बहुत गहरी घटना है। क्योंकि आप और लेकिन फिर भी मजदूर कम थे, काम ज्यादा था। फिर उसने और आपका प्रेम और आपका पूरा व्यक्तित्व समाहित है। आप पूरे आदमी भेजे। ऐसा हुआ कि दोपहर के बाद भी कुछ लोग आए। | रूपांतरित हों, तो ही मित्र और शत्रु को समभाव से देख पाएंगे। और ऐसा हुआ कि सांझ ढलते हुए भी कुछ लोग आए। और फिर । ये तीन तो आधारभूत सूत्र आपको खयाल में रखने चाहिए। और सूरज ढलने लगा। और मजदूरी बंटने का समय आ गया। उसने | जब भी, जब भी मन कहे कि यह आदमी मित्र है, तब पूछना सब मजदूरों को बराबर पैसे दिए। चाहिए, क्यों? यह सवाल, जब भी मन कहे, फलां आदमी शत्रु सुबह से जो मजदुर आए थे, उनकी तेवर चढ़ गईं। उन्होंने कहा. | है, तो पूछना चाहिए, क्यों? क्या इसलिए कि उससे मुझे प्रेम नहीं यह अन्याय है। हम सुबह से आए हैं। दिनभर सूरज के चढ़ते और मिलेगा? क्या इसलिए कि वह मेरे किसी काम में बाधा डालेगा? उतरते हमने काम किया। और कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो अभी आए | किसलिए वह मेरा शत्रु है? और किसलिए कोई मेरा मित्र है ? क्या हैं, जिन्होंने काम हाथ में लिया ही था कि सूरज ढल गया और सांझ | | इसलिए कि वह मुझे प्रेम देगा, मैं भरोसा कर सकता हूं? मेरे वक्त हो गई और अंधेरा उतर आया। और हम सबको तुम बराबर देते हो! पर काम पड़ेगा? मेरे काम में सहयोगी होगा, बाधा नहीं बनेगा? उस धनपति ने कहा, मैं तुमसे यह पूछता हूं कि तुमने जितना अगर यही सवाल आपको उठते हों, तो फिर एक बार सोचना काम किया, उतना काम के योग्य तम्हें मिल गया या उससे कम है? कि आप जिंदगी में कोई काम करने के पागलपन से भरे हैं। अहंका उन्होंने कहा, नहीं, हमें उससे ज्यादा ही मिल गया है। तो उस सदा कहता है कि कुछ करने को आप हैं। आदमी ने कहा. फिर तम इनकी चिंता मत करो। इन्हें मैं इनके काम जो भी करने को है, वह परमात्मा कर लेता है। आप नाहक के के कारण नहीं देता; मेरे पास बहुत है, इसलिए देता हूं। तुम्हें तुम्हारे | बोझ से न भरें। आप व्यर्थ विक्षिप्त न हों। उससे कुछ काम तो न काम से ज्यादा मिल गया हो, तुम निश्चित चले जाओ। और इन्हें होगा, उससे सिर्फ आप परेशान हो लेंगे। उससे कुछ भी न होगा। मैं इनके काम के कारण नहीं देता: मेरे पास देने को बहत है, इस दनिया में कितने लोग आते हैं. जो सोचते हैं. कछ करना है इसलिए देता हूं। | उनको। आप जरूर कुछ करते रहें, लेकिन इस खयाल से मत करें जिसके पास देने को प्रेम है और उसी के पास है, जिसको कि आपको कुछ करना है। इस खयाल से करते रहें कि परमात्मा अब मांगने की इच्छा न रही, जो अब प्रेम का भिखारी न रहा, जो की मर्जी; वह आपसे कुछ कराता है, आप करते हैं। सम्राट हुआ। बहुत मुश्किल से कभी कोई बुद्ध, कभी कोई कृष्ण अगर ऐसा आपने देखा, तो शत्रु भी आपको परमात्मा का ही इस हालत में आते हैं, जब कि वे प्रेम के मालिक होते हैं, जब वे काम करता हुआ दिखाई पड़ेगा, क्योंकि परमात्मा के अतिरिक्त सिर्फ देते हैं और लेते नहीं। मांगते नहीं, मांगने का कोई सवाल ही और कोई है नहीं। तब आप समझेंगे कि परमात्मा का कोई हिसाब Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < हृदय की अंतर-गुफा > होगा; वह शत्रु से भी काम ले रहा है, मुझसे भी काम ले रहा है। खिलाफ लड़ने को तत्पर थे। उसके अनंत हाथ हैं; वह हजार ढंग से काम ले रहा है। तब आपको सारा बंटवारा प्रियजनों का था। मजबूरी में कोई इस तरफ खड़ा शत्रु और मित्र बनाने की कोई जरूरत न रह जाएगी। हो गया था, कोई उस तरफ। लेकिन सभी बेचैन थे। फिर भी अर्जुन इसका यह मतलब नहीं है कि आपके शत्रु और मित्र नहीं बनेंगे। सर्वाधिक बेचैन था। क्योंकि कहा जा सकता है कि अर्जुन उस युद्ध वे बनेंगे; वह उनकी मर्जी। आपको बनाने की कोई जरूरत न रह | में सर्वाधिक शुद्ध क्षत्रिय था। वह सर्वाधिक बेचैन हो उठा था। जाएगी। और आप दोनों के बीच समभाव रख सकेंगे। भीम उतना बेचैन नहीं है। उसे मित्र दिखाई ही पड़ नहीं रहे हैं। शत्रु यह समता अ तो भी मनुष्य योग में प्रतिष्ठित हो जाता है। इतने साफ दिखाई पड़ रहे हैं कि पहले इनको मिटा डालना उचित इतने साफ दिखाई समत्व कहीं से आए: वही सार है। है, फिर सोचा जाएगा। अर्जुन चिंता और संताप में पड़ा है। तो कृष्ण इस सूत्र में कहते हैं शत्रु और मित्र के बीच ठहर जाने __ कृष्ण का यह सूत्र अर्जुन के लिए विशेष है, मित्र और शत्रु के को। अर्जुन के लिए यह सूत्र काम का हो सकता है। उसकी सारी बीच समभाव। इसका मतलब है कि कोई फिक्र न करो, कौन मित्र तकलीफ गीता में यही है। उसको कष्ट यही हो रहा है कि उस तरफ है, कौन शत्रु है। दोनों के बीच तटस्थ हो जाओ। कौन अपना है, बहुत-से मित्र हैं, जिनको मारना पड़ेगा। शत्रु हैं, उनको मारना पड़े, कौन पराया है, इस भाषा में मत सोचो। यह भाषा ही गलत है। उसमें तो उसे अड़चन नहीं है; अर्जुन को अड़चन नहीं है। अगर योगी के लिए निश्चित ही गलत है। विभाजन साफ-साफ होता, तो बड़ी आसानी होती। मगर विभाजन __ और बड़े मजे की बात यही है कि अर्जुन तो केवल युद्ध से बचने बड़ा उलटा था। युद्ध बहुत अनूठा था। और इसीलिए गीता उस का उपाय चाहता था। उसकी सारी जिज्ञासा निगेटिव, नकारात्मक युद्ध के मंथन से निकल सकी; नहीं तो नहीं निकल पाती। | थी। किसी तरह युद्ध से बचने का उपाय मिल जाए! लेकिन कृष्ण युद्ध इसलिए अनूठा था कि उस तरफ भी मित्र खड़े थे, | जैसा शिक्षक ऐसा अवसर चूक नहीं सकता था। सगे-साथी खड़े थे, प्रियजन खड़े थे, परिवार के लोग थे। कोई भाई | ___ कृष्ण की सारी शिक्षा पाजिटिव है। कृष्ण की सारी चेष्टा अर्जुन था, कोई भाई का संबंधी था, कोई पत्नी का भाई था, कोई मित्र का के भीतर योग को उत्पन्न कर देने की है। अर्जुन तो सिर्फ इतना ही मित्र था। सब गुंथे हुए थे। उस तरफ, इस तरफ एक ही परिवार चाहता था, किसी तरह से यह जो संताप पैदा हो गया है मेरे मन में, खड़ा था। साफ नहीं था कि कौन है शत्रु, कौन है मित्र! सब धुंधला यह जो चिंता हो गई है, इससे मैं बच जाऊं। कृष्ण ने इसका पूरा था। उसी से अर्जुन चिंतित हो आया। उसे लगा, अपने ही इन मित्रों उपयोग किया, अर्जुन के इस चिंता के क्षण का, इस अवसर का। को, प्रियजनों को मारकर अगर यह इतना बड़ा राज्य मिलता हो, तो कृष्ण इसके लिए उत्सुक नहीं हैं कि वह चिंता से कैसे बच जाए। हे कृष्ण, छोडूं इस राज्य को, भाग जाऊं जंगल। इससे तो मर जाना कृष्ण इसके लिए उत्सुक हैं कि वह निश्चित कैसे हो जाए। बेहतर। आत्महत्या कर लूं, वह अच्छा। इतने सब मित्रों की, इतने इस फर्क को आप समझ लेना। चिंता से बच जाना एक बात है। प्रियजनों की हत्या करके राज्य पाकर क्या करूंगा? वह क्षत्रिय वह तो रात में ट्रैक्वेलाइजर लेकर भी आप चिंता से बच जाते हैं। बोला। वह क्षत्रिय का मन है। राज्य दो कौड़ी का है, लेकिन शराब पी लें, तो भी चिंता से बच जाते हैं। शराब कई तरह की हैं। प्रियजनों को, मित्रों को मारने का क्या प्रयोजन है? | अर्जन को भी शराब पिलाई जा सकती थी। भल-भाल जाता नशे वह क्षत्रिय का ही मन बोल रहा है, जो मित्र और शत्रु की कीमत में; टूट पड़ता युद्ध में। आंकता है। उस तरफ भी अपने ही लोग खड़े हैं। दुर्भाग्य, अभाग्य __ शराब कई तरह की हैं–कुल की, यश की, धन की, राज्य की, का क्षण कि बंटवारा ऐसा हुआ है। ऐसा ही होने वाला था। क्योंकि प्रतिष्ठा की, अहंकार की। वह कुछ भी उसे पिलाई जा सकती थी। जो अर्जुन के मित्र थे, वे ही दुर्योधन के भी मित्र थे। खुद कृष्ण बड़ी | | भूल जाता। दीवाना हो जाता। उसके घाव छुए जा सकते थे। कृष्ण मुश्किल में बंटकर खड़े थे। कृष्ण इस तरफ खड़े थे, कृष्ण की सारी | | उसके घाव छू सकते थे कि अर्जुन, तू जानता है कि तेरी द्रौपदी के फौजें कौरवों की तरफ खड़ी थीं। अजीब थी लड़ाई! अपनी ही साथ दुर्योधन ने क्या किया! नशा शुरू हो जाता। फौजों के खिलाफ, अपने ही सेनापतियों के खिलाफ कृष्ण को उसके घाव छुए जा सकते थे। घाव बहुत गहरे थे और हरे थे। लड़ना था। और उस तरफ से कृष्ण के ही सेनापति कृष्ण के कृष्ण के लिए कठिनाई न पड़ती। इतनी लंबी गीता कहने की कोई Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3> भी जरूरत न थी। जरा से घाव उकसाने की जरूरत थी। जहर फैल चित्त की लौ जरा भी कंपित न हो। तू निष्कंप हो जा। जाता उसके भीतर। कहना था कि याद आता है वह दिन, जब - युद्ध के क्षण में किसी को योगी बनाने की यह चेष्टा बड़ी द्रौपदी को नग्न किया था! भूल गया वह क्षण, जब द्रौपदी को नग्न इंपासिबल है, बड़ी असंभव है। करने की चेष्टा के बीच तू सिर झुकाए बैठा था और तेरे ही सामने ये कृष्ण जैसे लोग सदा ही असंभव प्रयास में लगे रहते हैं। दुर्योधन अपनी जांघ को उघाड़कर थपथपा रहा था और द्रौपदी से उनकी वजह से ही जिंदगी में थोड़ी रौनक है; उनकी वजह से ही, कह रहा था, आ मेरी जांघ पर बैठ जा! वह क्षण तुझे याद है? | ऐसे असंभव प्रयास में लगे हुए लोगों की वजह से ही, जिंदगी में बस, इतना काफी होता। गीता कहने की कोई जरूरत न थी। कहीं-कहीं कांटों के बीच एकाध फूल खिलता है; और जिंदगी के अर्जुन कूद पड़ा होता। उपद्रव के बीच कभी कोई गीत जन्मता है। असंभव प्रयास, दि लेकिन कृष्ण ने वह नहीं किया। उसको सिर्फ नशा देकर लड़ा | इंपासिबल रेवोल्यूशन, एक असंभव क्रांति की आकांक्षा है कि देने की बात न थी; सिर्फ चिंता से बचा देने की बात न थी; निश्चित अर्जन योगी होकर यद्ध में चला जाए। बनाने की, विधायक प्रक्रिया की बात थी। दो बातें आसान हैं। अर्जुन को योगी मत बनाओ, बेहोश करो, . तो कृष्ण पूरी मेहनत यह कर रहे हैं कि वह चिंता के बाहर हो और भी भोगी बना दो-युद्ध में चला जाएगा। दूसरी भी बात जाए, इतना काफी नहीं; युद्ध में उतर जाए, इतना काफी नहीं; काफी संभव है, अर्जुन को योगी बनाओ-युद्ध को छोड़कर जंगल यह है कि वह योगारूढ़ हो जाए। जरूरी यह है कि वह योगस्थ हो चला जाएगा। ये दो बातें बिलकुल आसान और संभव हैं। ये जाए, वह योगी हो जाए। और योगी होकर ही युद्ध में उतरे, तो युद्ध बिलकुल पासिबल के भीतर हैं। दो में से कुछ भी करो। अर्जुन को धर्मयुद्ध बन सकेगा, अन्यथा युद्ध धर्मयुद्ध नहीं होगा। और भोग की लालच दो-युद्ध में लगा दो। अर्जुन को योगी दुनिया में जब भी दो लोग लड़ते हैं, तो कभी ऐसा हो सकता है, बनाओ-जंगल चला जाए। थोड़ी-बहुत मात्रा का भेद होता है। कोई थोड़ा ज्यादा अधार्मिक, कृष्ण एक असंभव चेष्टा में संलग्न हैं। और इसीलिए गीता कोई थोड़ा कम अधार्मिक। लेकिन ऐसा मुश्किल से होता है कि एक बहुत ही असंभव प्रयास है। असंभव होने की वजह से ही एक धार्मिक हो और दसरा अधार्मिक। अधार्मिक होने में ही अदभतः असंभव होने की वजह से ही इतना ऊंचा. इतना मात्रा-भेद होता है। कोई नब्बे प्रतिशत अधार्मिक होता है, कोई | | ऊर्ध्वगामी है। वह असंभव प्रयास यह है कि अर्जुन, तू योगी भी पंचानबे प्रतिशत अधार्मिक होता है। लेकिन युद्ध हमेशा अधर्म बन और युद्ध में भी खड़ा रह। तू हो जा बुद्ध जैसा, फिर भी तेरे और अधर्म के बीच ही चलता है। हाथ से धनुष-बाण न छूटे। कृष्ण एक अनूठा प्रयोग करना चाह रहे हैं; शायद विश्व के बुद्ध जैसा होकर बोधिवृक्ष के नीचे बैठ जाने में अड़चन नहीं है; इतिहास में पहला, और अभी तक उसके समानांतर कोई दूसरा कोई अड़चन नहीं है। लेकिन बुद्ध जैसा होकर युद्ध के क्षण में युद्ध प्रयोग हो नहीं सका। वह प्रयोग यह करना चाह रहे हैं, युद्ध को के मैदान पर खड़े रहने में बड़ी अड़चन है। और इसलिए वे सब द्वार एक धर्मयुद्ध बनाने की कीमिया अर्जुन को देना चाह रहे हैं। खटखटा रहे हैं। कहीं से भी अर्जुन को प्रकाश दिखाई पड़ जाए। वे अर्जुन से कह रहे हैं, तू योगी होकर लड़; तू समत्वबुद्धि को इस सूत्र में वे कहते हैं, मित्र और शत्रु के बीच समबुद्धि, तो तू उपलब्ध होकर लड़; तू शत्रु और मित्र के बीच बिलकुल तटस्थ योग को उपलब्ध हो जाता है। होकर लड़; अपने और पराए के बीच फासला छोड़ दे। क्या होगा फल, इसकी चिंता न कर। इसकी ही चिंता कर कि क्या है तेरा चित्त! कौन मरेगा, कौन बचेगा, इसकी फिक्र मत कर। इसकी ही योगी युजीत सततमात्मानं रहसि स्थितः। फिक्र कर कि चाहे कोई मरे, चाहे कोई बचे, चाहे तू मरे या तू बचे, एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ।। १० ।। लेकिन मृत्यु और जन्म के बीच तुझे कोई फर्क न हो; तू समत्व को इसलिए उचित है कि जिसका मन और इंद्रियों सहित शरीर उपलब्ध हो जा। चाहे सफलता आए चाहे असफलता, चाहे विजय | जीता हुआ है, ऐसा वासनारहित और संग्रहरहित योगी आए और चाहे पराजय, तू दोनों को समभाव से झेल सके। तेरे |अकेला ही एकांत स्थान में स्थित हुआ निरंतर आत्मा को Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - हृदय की अंतर-गुफा - परमेश्वर के ध्यान में लगाए। एकांत में नहीं हैं। एकांत का तो अर्थ है कि भीतर एक ही स्वर बजे, कोई दूसरे की मौजूदगी न रह जाए भीतर। तो इससे उलटा भी हो सकता है। जिस म हां दो-तीन बातें कृष्ण कहते हैं, जो बड़ी विपरीत जाती आदमी को एकांत का रहस्य पता चल गया हो, वह भीड़ में खड़े 4 हुई मालूम पड़ेंगी। और ऐसे सूत्रों की बड़ी गलत | होकर भी एकांत में होता है। भीड़ कोई बाधा नहीं डालती। भीड़ व्याख्या की गई है। प्रकट व्याख्या मालूम पड़ती है, सदा बाहर है। कौन आपके भीतर प्रवेश कर सकता है? इसलिए गलती करने में आसानी भी हो जाती है। आप यहां बैठे हैं, इतनी भीड़ में बैठे हैं। आप अकेले हो सकते कहते हैं वह, वासना से रहित हुआ, संग्रह से मुक्त हुआ, हैं। भीड़ अपनी जगह बैठी है। कोई आपकी जगह पर नहीं चढ़ा समत्व को पाया हुआ, ऐसा जो योगी-चित्त है, वह एकांत में हुआ है। अपनी-अपनी जगह पर लोग बैठे हुए हैं। कोई चाहे, तो परमात्मा का स्मरण करे, परमात्मा को ध्याये, परमात्मा का ध्यान | भी आपकी जगह पर नहीं बैठ सकता है। अपनी-अपनी जगह पर करे; परम सत्ता की दिशा में गति करे। लोग हैं। अगर उनका हाथ भी आपको छू रहा है चारों तरफ से, तो एकांत में! तो इस सूत्र के गलत अर्थ बहुत आसान हो गए। तो | हाथ ही छू रहा है। हाथ का स्पर्श भीतर प्रवेश नहीं करता। भीतर यही तो अर्जुन कह रहा है कि मुझे जाने दो महाराज इस युद्ध से।। । | आप बिलकुल एकांत में हो सकते हैं। एकांत में जाऊं, चिंतन-मनन करूं, प्रभु का स्मरण करूं। जाने दो | एक ही स्वर हो भीतर, स्वयं के होने का; एक ही स्वाद हो भीतर, मुझे। कृष्ण फिर उसे रोक क्यों रहे हैं? फिर युद्धोन्मुख क्यों कर | | स्वयं के होने का; एक ही संगीत हो भीतर, स्वयं के होने का। दूसरे रहे हैं? फिर कर्मोन्मुख क्यों कर रहे हैं? फिर क्यों कह रहे हैं कि का कोई भी पता नहीं। कोसों तक नहीं, अनंत तक कोई भी पता नहीं। कर्म में रत रहकर तू जी? सम होकर, समत्व को पाकर, पर कर्म | भीतर कोई है ही नहीं दूसरा। आप बिलकुल अकेले हैं। में रत होकर। इस एकांत, इस आंतरिक, इनर एकांत का अर्थ और है, और एकांत! तो एकांत से कृष्ण का जो अर्थ है, वह समझ लेना बाह्य अकेलेपन का अर्थ और है। भीड़ से भाग जाना बड़ी सरल चाहिए। बात है, लेकिन स्वयं के भीतर से भीड़ को बाहर निकाल देना बहुत एकांत से अर्थ अकेलापन नहीं है। एकांत से अर्थ अकेलापन कठिन बात है। नहीं है, आइसोलेशन नहीं है। एकांत से अर्थ लोनलीनेस नहीं है। भीड़ से निकल जाने में कौन-सी कठिनाई है? दो पैर आपके एकांत से अर्थ है, अलोननेस। एकांत से अर्थ है, स्वयं होना, पास हैं, निकल भागिए! दो पैर काफी हैं भीड़ से बाहर निकलने के पर-निर्भर न होना। एकांत से अर्थ, दूसरे की अनुपस्थिति नहीं है। लिए, कोई कठिन बात है? दो पैर आपके पास हैं, निकल भागिए! .एकांत से अर्थ है, दूसरे की उपस्थिति की कोई जरूरत नहीं है। | मत रुकिए तब तक, जब तक कि भीड़न छंट जाए। एकांत में पहुंच इस फर्क को ठीक से समझ लें। जाएंगे? अकेलेपन वाले एकांत में पहुंच जाएंगे। आप जंगल में बैठे हैं। बिलकुल एकांत है। कोई नहीं चारों लेकिन भीड़ को भीतर से बाहर निकाल फेंकना अति कठिन तरफ। दूर कोसों तक कोई नहीं। फिर भी मैं नहीं मानता कि आप मामला है। पैर साथ न देंगे; कितना ही भागिए, भीतर की भीड़ एकांत में हो सकेंगे। आपके होने का ढंग भीड़ में होने का ढंग है। भीतर मौजूद रहेगी। जहां भी जाइएगा, साथ खड़ी हो जाएगी। जहां आप अकेले हो सकेंगे; एकांत में नहीं हो सकेंगे। अकेले तो प्रकट | भी वृक्ष के नीचे विश्राम करने बैठेंगे, भीतर के मित्र बात-चीत शुरू हैं। अकेले बैठे हैं। कोई नहीं दिखाई पड़ता आस-पास। लेकिन | कर देंगे कि कहिए, क्या हाल है! मौसम कैसा है? सब शुरू हो एकांत नहीं हो सकता। भीतर झांककर देखेंगे, तो उन सबको मौजूद जाएगा! बैठकखाना वापस आपके साथ भीतर मौजूद हो जाएगा। पाएंगे, जिनको गांव में, घर छोड़ आए हैं। मित्र भी वहां होंगे, शत्रु और कई बार तो ऐसा होगा कि जिनकी मौजूदगी में जिनका कोई भी वहां होंगे; प्रियजन भी वहां होंगे, परिवार भी वहां होगा; । पता नहीं चलता, उनकी गैर-मौजूदगी में उनका पता और भी ज्यादा दुकान-बाजार, काम-धंधा, सब वहां होगा। भीतर सब मौजूद चलता है! होंगे। पूरी भीड़ मौजूद होगी। तो अकेले में तो आप हैं, लेकिन | अपनी पत्नी के पास बैठे हैं घंटेभर, तो भूल भी जा सकते हैं कि 81 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < गीता दर्शन भाग-3 पत्नी है। भूल भी जा सकते हैं। अक्सर भूल ही जाते हैं। पत्नी नहीं है, तब उसकी खाली जगह उसका ज्यादा स्मरण दिलाती है। आदमी जिंदा है, तो पता नहीं चलता; मर जाता है, तो घाव छोड़ जाता है; ज्यादा याद आता है। जगह खाली हो जाती है। किसी की मौजूदगी की वजह से आपके भीतर भीड़ नहीं होती; आपके भीतरी रसों की वजह से ही भीड़ होती है। आंतरिक रस है । दूसरे में हम रस लेते हैं। इसलिए जब कोई मौजूद होता है, तो उतनी जल्दी नहीं रहती है। जानते हैं कि कभी भी रस ले लेंगे; मौजूद तो है। लेकिन पता चल जाए कि मौजूद नहीं है, तो रस ज्यादा आने लगता है। क्योंकि पता नहीं, अभी रस लेना चाहें, तो दूसरा मौजूद मिले, न मिले। तो गैर-मौजूदगी और भी ज्यादा पकड़ लेती है, जोर से पकड़ लेती है। रवींद्रनाथ ने कहीं मजाक में लिखा है कि जिन पति-पत्नियों को अपना प्रेम जिंदा रखना हो, उन्हें बीच-बीच में एक-दूसरे से छुट्टी, हॉलीडे लेते रहना चाहिए। रवींद्रनाथ के एक पात्र ने तो अपनी प्रेयसी से कहा है – बहुत पीछे पड़ी है वह स्त्री, जो उसने कहा कि ठीक है कि हम राजी हो जाएं, विवाह कर लें। उस पात्र ने कहा, मैं राजी हूं विवाह करने को। लेकिन तेरी दूसरी शर्त मेरी समझ में नहीं आती! क्योंकि उस स्त्री की दूसरी शर्त यह है कि हम विवाह तो कर लें, लेकिन झील के एक तरफ मैं रहूंगी और झील के दूसरी तरफ तुम रहना । कभी-कभी निमंत्रण पर हम एक-दूसरे से मिल लिया करेंगे। या कभी-कभी अनायास, झील में नाव खेते या नदी के तट पर टहलते मुलाकात हो जाएगी, तो किसी झाड़ के नीचे बैठकर बात कर लेंगे! तो वह आदमी कहता है, इससे बेहतर है, हम विवाह ही न करें । विवाह किस लिए? पर वह स्त्री कहती है, विवाह तो हम कर लें, लेकिन रहें फासले पर; ताकि एक-दूसरे की याद आती रहे; ताकि एक-दूसरे को भूल न जाएं। कहीं ऐसा न हो कि एक-दूसरे के पास इतने आ जाएं कि भूल ही जाएं। भूल ही जाते । अनुपस्थिति याद को जगा जाती है। तो इस खयाल में मत रहना आप कि भीड़ के बीच में हैं, तो भीड़ हैं। भीड़ में होने का अर्थ है कि भीड़ आपके भीतर है, तो आप भीड़ में हैं। भीड़ आपके भीतर नहीं है, तो आप बिलकुल अकेले हैं। कृष्ण जैसा आदमी कहीं भी खड़ा हो - कैसी भी भीड़ में, कैसे भी बाजार में – अरण्य ही चलता है, जंगल ही है। हम जैसा आदमी कहीं भी खड़ा हो जाए, जंगल में भी, तो भीड़ ही चलती है, बाजार है । हमारे होने के ढंग पर निर्भर है। तो जब अर्जुन से कहा कृष्ण ने कि ऐसा व्यक्ति समत्व को उपलब्ध हुआ, थिर हुआ, शांत हुआ, एकांत में प्रभु को ध्याता है, प्रभु का ध्यान करता है, तो क्या अर्थ होगा? किसी जंगल में, किसी पहाड़ पर, किसी गुफा में ? 82 नहीं, एक और गुफा है, अंतर - हृदय की, वहां । एक और अरण्य है स्वयं के भीतर ही, शून्य का, वहां एक इनर स्पेस है, एक भीतरी आकाश है। इस बाहर के आकाश से भी विराट और | | बड़ा, वहां । हृदय की गुफा में। वहां एकांत में वह प्रभु को ध्याता है | और वहीं प्रभु का ध्यान किया जा सकता है; बाहर के जंगलों में कोई प्रभु का ध्यान नहीं किया जा सकता। इसे भी थोड़ा-सा समझ लें। साधक के लिए विशेष ध्यान में ले लेने जैसी बात है कि प्रभु का ध्यान अंतर- गुफा में किया जाता है, हृदय की गुफा में नकल में हम कितनी ही गुफाएं बाहर बना लें पत्थरों को खोदकर, उनसे हल | नहीं होता । पत्थर बहुत कमजोर है। हृदय को खोदना पत्थर से भी | जटिल चीज को तोड़ना है; ज्यादा कठिन है। हीरे की छेनियां भी टूट जाएंगी। 1 हृदय में गुफा है। सबके भीतर एक अंतर-आकाश है। एक आंग्ल-भारतीय विचारक आबरी मेनन ने एक छोटी-सी किताब लिखी है। उसके पिता तो भारतीय थे, उसकी मां अंग्रेज थी। आब मेनन ने एक छोटी-सी किताब लिखी है, दि स्पेस आफ दि. इनर हार्ट, अंतर- हृदय का आकाश । किताब बहुत मधुर संस्मरण से शुरू की है। वेटिकन के पोप से मिलने गया था मेनन; तो वेटिकन के पोप के चरणों में सिर झुकाकर आशीर्वाद लेने को झुका। तभी वेटिकन के पोप ने अपने साथ खड़े हुए महासचिव को पूछा, किस जाति का व्यक्ति है यह, कौन है? किस जाति का व्यक्ति है यह, कौन | है ? साथ खड़े हुए सेक्रेटरी ने वेटिकन के पोप को कहा, अंग्रेज है, आंग्ल वेटिकन के पोप ने मेनन के चेहरे पर हाथ फेरा और कहा, नहीं। इसके चेहरे का ढंग भारतीय है। झुका हुआ मेनन अपने मन में सोचने लगा, सच में मैं कौन हूं? उसको एक सवाल उठा कि मैं भारतीय हूं या अंग्रेज हूं ? लेकिन अंग्रेज होना और भारतीय होना चमड़ी से ज्यादा गहरी बात नहीं है। भीतर मैं कौन हूं ? चमड़ी तो मेरी दोनों की है। अंग्रेज की भी है थोड़ी चमड़ी मेरे पास और एक भारतीय की भी चमड़ी है थोड़ी मेरे पास । खून भी मेरे पास भारतीय का है और अंग्रेज का भी है। फिर मैं कौन Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हृदय की अंतर - गुफा > हूं? क्या यही चमड़ी और खून का जोड़ मैं हूं? या मैं कुछ और भी हूं? वह झुका हुआ मेनन नीचे सोचने लगा। उठकर खड़ा हुआ, वेटिकन के पोप ने फिर पूछा कि कहो, कौन तुम? तो उसके मन में हुआ कि वेटिकन के पोप के संबंध में कहा जाता है कि वह इनफालिबल है, वह कभी भूल नहीं करता। ईसाई मानते हैं कि उनका जो बड़ा पुरोहित है, वह कभी भूल नहीं करता। मधुर मान्यता है। मेनन को खयाल आया कि अगर मैं कहूं कि आंग्ल-भारतीय हूं, आधा भारतीय आधा अंग्रेज हूं, तो कहीं | पोप को दुख न हो। वह यह न सोचे कि मैंने उसे फालिबल सिद्ध किया, मैंने कहा कि वह भी गलती कर सकता है। तो मेनन ने कहा कि हां, आप ठीक कहते हैं महानुभाव ! मैं भारतीय हूं। पोप बहुत खुश हुआ। मेनन ने अपनी किताब में लिखा है कि इसलिए नहीं खुश हुआ कि मैं भारतीय था और भारतीय से मिलकर उसे खुशी हुई। इसलिए भी खुश नहीं हुआ कि मैं कोई खास आदमी था और मुझसे मिलकर खुशी हुई। खुश इसलिए हुआ कि पोप इनफालिबल है, उससे कभी भूल नहीं होती । पर मेनन ने लिखा है कि मेरे चित्त में एक चक्कर चल पड़ा उस दिन से कि मैं कौन हूं? क्या मैं यह हड्डी और मांस और चमड़ी का जोड़ मैं हूं? मैं कौन हूं? अगर सच में यह पोप मेरी आंखों में झांककर कहता और कहता कि ठीक है, मैं समझ गया; तुम्हारा शरीर तो भारतीय है या अंग्रेज, पर तुम कौन हो ? क्या तुम शरीर ही हो ? तो वह बड़ी खोज में लग गया कि मैं कहां पाऊं कि मैं कौन हूं? उसने बहुत खोजा, बहुत खोजा, और आखिर में हम सोच भी नहीं सकते कि उसे अपना उत्तर छांदोग्य उपनिषद से मिला । . छांदोग्य उपनिषद पढ़ते वक्त उसे यह शब्द सुनाई पड़ा, खयाल | आया, हृदय की गुफा, दि इनर स्पेस आफ दि हार्ट, वह अंतर-हृदय का आकाश। उसने कहा कि अगर मैं कोई भी हूं, तो मेरे हृदय की गुफा में ही भीतर प्रवेश करूं तो जान पाऊंगा, अन्यथा नहीं जान पाऊंगा। फिर उसने एक कमरे में अपने को बंद कर लिया महीनों के लिए। रोटी सरका जाता कोई समय पर, वह रोटी खा लेता । पानी सरका जाता, वह पानी पी लेता । और वह आंख बंद करके बस एक ही चिंतन में लग गया, एक ही ध्यान में कि मैं कौन हूं? शरीर मैं नहीं हूं। उसने एक महीने तक इसका ही निरंतर ध्यान किया कि शरीर मैं नहीं हूं, शरीर मैं नहीं हूं। एक महीने तक इस एक शब्द के सिवा उसने कोई उपयोग न किया कि शरीर मैं नहीं हूं। 83 सोते-जागते, उठते-बैठते, होश में, बेहोशी में, जानता रहा, दोहराता रहा, समझता रहा, स्मरण करता रहा-शरीर मैं नहीं हूं। एक महीने के बाद उसने आंख खोलकर अपने शरीर को देखा और पाया कि निश्चित ही शरीर मैं नहीं हूं। एक यात्रा का पड़ाव पूरा हो गया। और उसने लिखा है कि जिस दिन मैंने पाया कि मैं शरीर नहीं हूं, फिर मैंने आंख बंद की और मैंने कहा कि अब मैं जानने चलूं कि मैं कौन हूं! एक बात तो पूरी हुई कि क्या मैं नहीं हूं। अब मैं जानूं कि मैं कौन हूं! और जब मैंने भीतर झांका, तो मुझे छांदोग्य की बात समझ में आई कि भीतर एक अंतर- गुफा है हृदय की, जहां मैं हूं, जो मैं हूं। और जैसे-जैसे उस अंतर - गुफा में मैंने प्रवेश किया, तो मैंने पाया, आश्चर्य ! इतना बड़ा आकाश भी नहीं है, जितनी बड़ी वह अंतर- गुफा है। और जैसे-जैसे मैं उसमें भीतर गया, वैसे-वैसे एक रहस्य उदघाटित हुआ कि जैसे-जैसे चला भीतर, वैसे-वैसे मैं मिटता गया । खाली, शून्य ही रह गया। एकांत ही रह गया। सिर्फ | एकांत, मैं भी न रहा। मेरी मौजूदगी भी तो एकांत में बाधा है। तो आपको एकांत का अंतिम अर्थ कहता हूं, जिससे कृष्ण का प्रयोजन है। अगर आप भी बच रहे, तो भी एकांत नहीं है। एक क्षण ऐसा आता है, जब आप भी नहीं हैं; सिर्फ चैतन्य रह जाता है, आप भी नहीं होते हैं। आपको पता भी नहीं होता कि मैं भी हूं, सिर्फ होना रह जाता है। उस शुद्ध होने में एकांत है। उस एकांत में प्रभु को ध्याया जाता है। ध्याया क्या जाता है, उस एकांत में प्रभु को जान लिया जाता है। उस एकांत में प्रभु से मिलन ही हो जाता है। कृष्ण कहते हैं, ऐसा पुरुष एकांत में प्रभु को ध्याता है। यह ध्याता शब्द बहुत अदभुत है। प्रभु का ध्यान करता है। क्या आप किसी ऐसी चीज का ध्यान कर सकते हैं, जिसका आपको पता न हो ? क्या यह संभव है कि जिसको आप जानते न हों, उसका आप ध्यान कर सकें? यह कैसे संभव है? जिसे जानते नहीं, उसका ध्यान कैसे करिएगा ? ध्यान के लिए तो जानना जरूरी है। लेकिन हम सब प्रभु का ध्यान करते हैं । और हमें प्रभु का कोई भी पता नहीं है ! ध्यान हो कैसे सकता है, जिसका हमें पता नहीं है। जिसे हमने जाना ही नहीं, यह भी नहीं जाना कि जो है भी या नहीं है ! यह भी नहीं जाना कि है, तो कैसा है ! कुछ भी जिसकी हमें खबर नहीं है, उसका ध्यान कर रहे हैं लोग बैठकर ! आंख बंद करके लोग कहते हैं कि हम प्रभु का ध्यान कर रहे हैं! अगर उनकी खोपड़ी थोड़ी चीरी जा सके और उनकी खोपड़ी में Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग - 3 > झांका जा सके, तो आपको पता चल जाएगा, वे किसका ध्यान कर रहे हैं! किसका ध्यान कर रहे हैं, पता चल जाएगा। नानक एक गांव में ठहरे हैं। और नानक कहते हैं, न कोई हिंदू है, न कोई मुसलमान है। तो गांव का मुसलमान नवाब नाराज हो गया। उसने कहा, बुला लाओ उस फकीर को कैसे कहता है ? किस हिम्मत से कहता है कि न कोई हिंदू है, न कोई मुसलमान है? नानक आए। उस नवाब ने पूछा कि मैंने सुना है, तुम कहते हो, न कोई हिंदू है, न कोई मुसलमान? नानक ने कहा, हां, न कोई हिंदू है, न कोई मुसलमान। तो तुम कौन हो ? तो नानक ने कहा कि मैंने बहुत खोजा, बहुत खोजा । चमड़ी, हड्डी, मांस, मज्जा, वहां तक तो मुझे लगा कि हां, हिंदू भी हो सकता है, मुसलमान भी हो सकता है। लेकिन वहां तक मैं नहीं था । और जब उसके पार मैं गया, तो मैंने पाया कि वहां तो कोई हिंदू-मुसलमान नहीं है! तो उस नवाब ने कहा कि फिर तुम हमारे साथ मस्जिद में नमाज पढ़ने चलोगे? क्योंकि जब कोई हिंदू-मुसलमान नहीं, तो मस्जिद में जाने में एतराज नहीं कर सकते हो। नानक ने कहा, एतराज ! मैं तो यह पूछने ही आया था कि मस्जिद में ठहरूं, तो आपको कोई एतराज तो नहीं है? नवाब थोड़ा चिंतित हुआ, एक हिंदू कहे ! पर उसने कहा कि देखें, परीक्षा कर लेनी जरूरी है। मस्जिद में नमाज पढ़ने के लिए ले गया नानक को । नवाब तो मस्जिद में नमाज पढ़ने लगा, नानक पीछे खड़े होकर हंसने लगे। तो नवाब को बड़ा क्रोध आया। हालांकि नमाज पढ़ने वाले को क्रोध आना नहीं चाहिए। लेकिन ना कोई पढ़े तब न! बड़ा क्रोध आया और जैसे क्रोध बढ़ने लगा, नानक की हंसी बढ़ने लगी। अब नमाज पूरी करनी बड़ी मुश्किल पड़ गई। तबियत तो होने लगी, गर्दन दबा दो इस फकीर की। लेकिन नमाज पूरी करनी जरूरी थी। बीच में तोड़ा नहीं जा सकता नमाज को । तो जल्दी पूरी की, जैसा कि अधिक लोग करते हैं। पूजा अधिक लोग जल्दी करते हैं । इतने जल्दी करते हैं कि कोई भी शार्ट कट मिल जाए, तो जल्दी छलांग लगाकर वे पूजा निपटा देते हैं। लांग रूट से पूजा में शायद ही कोई जाता हो । शार्ट कट सबने अपने-अपने बनाए हुए हैं, उनसे वे निकल जाते हैं, तत्काल ! बाई पास! पूजा को निपटाकर वे भागे, तो फिर लौटकर नहीं देखते पूजा की तरफ। एक मजबूरी, एक काम, उसे निपटा देना है ! नवाब ने जल्दी-जल्दी नमाज पूरी की और आकर नानक से कहा | 84 कि बेईमान निकले, धोखेबाज निकले। तुमने कहा था, नमाज में साथ दूंगा। साथ न दिया । नानक ने कहा, मैंने कहा था नमाज में साथ दूंगा, लेकिन तुमने नमाज ही न पढ़ी, साथ किसका देता? तुम तो न मालूम क्या-क्या कर रहे थे। कभी मेरी तरफ देखते थे। कभी नाराज होते थे। कभी मुट्ठियां बांधते थे। कभी दांत पीसते थे। यह कैसी नमाज पढ़ रहे थे? मैंने कहा कि ऐसी नमाज तो मैं नहीं जानता। साथ भी कैसे दूं ! और सच, भीतर तुमने एक भी बार अल्लाह का नाम लिया? क्योंकि जहां तक मैं देख पाया, मैंने देखा कि तुम काबुल के बाजार में घोड़े खरीद रहे हो! नवाब तो मुश्किल में पड़ गया। उसने कहा, क्या कहते हो ! काबुल के बाजार में घोड़े ! बात तो सच ही कहते हो। कई दिन से सोच रहा हूं कि अच्छे घोड़े पास में नहीं हैं। तो नमाज के वक्त फुरसत का समय मिल जाता है। और तो काम में लगा रहता हूं। | तो अक्सर ये काबुल के घोड़े मुझे नमाज के वक्त जरूर सताते हैं। मैं खरीद रहा था। तुम ठीक कहते हो। मुझे माफ करो। मैंने नमाज नहीं पढ़ी, सिर्फ काबुल के बाजार में घोड़े खरीदे । आप जब प्रभु का स्मरण कर रहे हैं, तो ध्यान रखना, प्रभु को छोड़कर और सब कुछ कर रहे होंगे। प्रभु को तो आप जानते नहीं, | स्मरण कैसे करिएगा? ध्यान कैसे करिएगा ? कृष्ण कहते हैं, ऐसा पुरुष – यह शर्त है ध्यान की, इतनी शर्त पूरी हो, तो ही प्रभु का ध्यान होता है, नहीं तो ध्यान नहीं होता। हां, और चीजों का ध्यान हो सकता है। प्रभु का ध्यान, उसकी शर्त-समत्व जो उपलब्ध हुआ, निष्कंप जिसका चित्त हुआ, ऐसा व्यक्ति फिर एकांत में, अंतर - गुहा में प्रभु को ध्याता है। फिर | प्रभु ही प्रभु चारों तरफ दिखाई पड़ता है। खुद तो खोजे से नहीं | मिलता, प्रभु ही प्रभु दिखाई पड़ता है। उसकी ही स्मृति रोम-रोम में गूंजने लगती है। उसका ही स्वाद प्राणों के कोने-कोने तक तिर जाता है। उसकी ही धुन बजने लगती है रोएं रोएं में। श्वास- श्वास में वही । तब ध्यान है ध्यान का अर्थ है, जिसके साथ हम आत्मसात होकर एक हो जाएं। नहीं तो ध्यान नहीं है। अगर आप बच रहे, तो ध्यान नहीं है। ध्यान का अर्थ है, जिसके साथ हम एक हो जाएं। ध्यान का अर्थ है कि कोई आपको काटे, तो आपके मुंह से निकले कि प्रभु को | क्यों काट रहे हो ! ध्यान का अर्थ है कि कोई आपके चरणों में सिर रख दे, तो आप जानें कि प्रभु को नमस्कार किया गया है । सोचें नहीं, जानें। आपका रोआं- रोआं प्रभु से एक हो जाए। लेकिन यह . Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < हृदय की अंतर-गुफा - लग होकर घटना तो एकांत में घटती है। इनर अलोननेस, वह जो भीतरी एकांत है। वे उनके लक्षण हैं। अगर आप घडीभर एकांत में रह जाएं, तो गुहा है, जहां सब दुनिया खो जाती, बाहर समाप्त हो जाता। मित्र, | | आपका रो-रोआं आनंद की पुलक से भर जाएगा। और आप प्रियजन, शत्रु सब छूट जाते। धन, दौलत, मकान सब खो जाते। घडीभर अकेलेपन में रह जाएं, तो आपका रो-रोआं थका और और आखिरी पड़ाव पर स्वयं भी खो जाते हैं आप। क्योंकि उस | | उदास, और कुम्हलाए हुए पत्तों की तरह आप झुक जाएंगे। स्वयं की भीतर कोई जरूरत नहीं है, बाहर जरूरत है। अकेलेपन में उदासी पकड़ती है, क्योंकि अकेलेपन में दूसरों की अगर ठीक से समझें, तो वह जिसको आप कहते हैं मैं, वह याद आती है। और एकांत में आनंद आ जाता है, क्योंकि एकांत में साइनबोर्ड है, जो घर के बाहर लगाने के लिए दूसरों के काम पड़ता प्रभु से मिलन होता है। वही आनंद है, और कोई आनंद नहीं है। है। आपने कभी खयाल किया कि जब आप अपने दरवाजे के भीतर तो अगर आपको अकेले बैठे हुए उदासी मालूम होने लगे, तो घुसते हैं, तो साइनबोर्ड को अपनी छाती पर लटकाकर मकान के आप समझना कि यह एकांत नहीं है; यह दूसरों की याद आ रही है भीतर नहीं जाते। क्यों? आपका ही घर है, यहां साइनबोर्ड को ले | | आपको। और एकांत की खोज करना। और एकांत खोजा जा जाने की क्या जरूरत है? साइनबोर्ड तो दरवाजे की चौखट पर लगा| सकता है। देते हैं। बाहर से जाने वाले, राह से गुजरने वाले, औरों को पता ध्यान कहें, स्मरण कहें, सुरति कहें, नाम कहें, कोई भी, सब चले कि कौन यहां रहता है। आप अपना साइनबोर्ड अपनी छाती | एकांत की खोज है। इस बात की खोज है कि मैं उस जगह पहुंच पर लटकाकर घर के भीतर नहीं जाते। जाऊं, जहां कोई रूप-रेखा न रह जाए दूसरे की। और जहां दूसरे वह जिसको हम कहते हैं, मैं, नाम-धाम, पता-ठिकाना, वह भी | की कोई रूप-रेखा नहीं रह जाती, वहां स्वयं की भी रूप-रेखा के एक साइनबोर्ड है बहुत सूक्ष्म, जो हमने दूसरों के लिए लगाया है। बचने का कोई कारण नहीं रह जाता। सब हो जाता है निराकार। जब भीतर के एकांत में कोई प्रवेश करता है, तो उसे ले जाने की उस निराकार क्षण में ईश्वर को ध्याया जाता है, जाना जाता है, कोई भी जरूरत नहीं पड़ती। वहां आपकी भी कोई जरूरत नहीं है।। खते उसे। वह परिचय आप भी वहां शून्यवत हो जाते हैं। उस शून्यवत एकाकार स्थिति में | नहीं है। हम उसके साथ एकमेक होकर जानते हैं। वह पहचान नहीं प्रभु को ध्याया जाता है। है दूर से, बाहर से, अलग से। वह एक होकर ही जान लेना है। यह एकांत जंगल में, अरण्य में भाग जाने वाला एकांत नहीं, यह | हम वही होकर जानते हैं। स्वयं के भीतर प्रविष्ट हो जाने वाला एकांत है। और जिस दिन कोई अपनी अंतर-गुहा में पहुंच जाता है, वह और कृष्ण ने यहां अर्जुन को जो कहा है, वह योग की परम स्वयं ही भगवान हो जाता है। उपलब्धि है। समस्त योग इसलिए है कि हम अंतर-गुफा में कैसे भगवान हो जाने का अर्थ सिर्फ इतना ही है कि वहां उसके और • प्रवेश करें। योग विधि है अंतर-गुफा में प्रवेश की। और अंतर-गुफा | भगवान के बीच कोई फासला नहीं रह जाता। और प्रत्येक व्यक्ति में प्रवेश के बाद जो प्रभु का ध्यान है, वह अनुभव है, वह प्रतीति की मंजिल यही है कि वह भगवान हो जाए। भगवान के होने के है, वह साक्षात्कार है। पहले कोई पड़ाव मंजिल मत समझ लेना। सबके भीतर है वह गुफा। लेकिन सब अपनी गुफा के बाहर | निराकार हो जाने के पहले, कहीं रुक मत जाना। सब पड़ाव हैं। घूमते रहते हैं, कोई भीतर जाता नहीं। शायद हमें स्मरण ही नहीं रहा रुकना तो वहीं है, जहां स्वयं भी मिट जाए, सब मिट जाए; शून्य, है, क्योंकि न मालूम कितने जन्मों से हम बाहर घूमते हैं। और जब निराकार रह जाए। वही है परम आनंद। उस परम आनंद की दिशा भी एकांत होता है, तो हम अकेलेपन को एकांत समझ लेते हैं। और में ही कृष्ण अर्जुन को इस सूत्र में इशारा करते हैं। तब हम तत्काल अपने अकेलेपन को भरने के लिए कोई उपाय कर आज के लिए इतना ही। लेते हैं। पिक्चर देखने चले जाते हैं, कि रेडियो खोल लेते हैं, कि लेकिन उठेंगे नहीं। पांच मिनट उस अंतर-गुहा की तलाश में अखबार पढ़ने लगते हैं। कुछ नहीं सूझता, तो सो जाते हैं, सपने | | कीर्तन करेंगे, आप भी साथ दें। जो सुना, उसे भूल जाएं। जो देखने लगते हैं। मगर अपने अकेलेपन को जल्दी से भर लेते हैं। समझा, उसे थोड़ा पांच मिनट जीएं। ध्यान रहे, अकेलापन सदा उदासी लाता है, एकांत आनंद लाता कोई उठेगा नहीं, कोई यहां-वहां हिलेगा नहीं। जिन मित्रों को भी 85 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 सम्मिलित होना हो, वे भी सम्मिलित हो सकते हैं। और अपनी जगह बैठकर भी सम्मिलित हों। ये पांच मिनट इस आनंद में डूबने की कोशिश करें। अपनी जगह बैठकर ही ताली बजाएं, गीत भी गाएं, संन्यासियों को साथ दें। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 6 छठवां प्रवचन अंतर्यात्रा का विज्ञान Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः। पाते हैं। क्योंकि जहां आप खड़े हैं, वहां से वह बात शुरू नहीं हो नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ।। ११ ।। रही है। वह बात वहां से शुरू हो रही है, जहां करने वाला खड़ा है। तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः। | और यात्रा तो वहां से शुरू होगी, जहां आप खड़े हैं। उपविश्यासने युज्याद्योगमात्मविशुद्धये ।। १२ ।। । मैं अगर मंदिर के भीतर खड़ा हूं, तो मैं आपसे कह सकता हूं शुद्ध भूमि में कुशा, मृगछाला और वस्त्र है उपरोपरि जिसके, कि मंदिर के भीतर आ जाओ। और सीढ़ियों की चर्चा छोड़ सकता ऐसे अपने आसन को न अति ऊंचा और न अति नीचा स्थिर | हूं। क्योंकि जहां मैं खड़ा हूं, वहां सीढ़ियों का कोई भी प्रयोजन नहीं स्थापन करके, और उस आसन पर बैठकर है। द्वार-दरवाजों की बात न करूं, हो सकता है। क्योंकि जहां मैं तथा मन को एकाग्र करके, चित्त और इंद्रियों की क्रियाओं खड़ा हूं, अब वहां कोई द्वार-दरवाजा नहीं है। लेकिन आपको को वश में किया हुआ, अंतःकरण की शुद्धि के लिए। द्वार-दरवाजा भी चाहिए होगा, सीढ़ियां भी चाहिए होंगी, तभी योग का अभ्यास करे। मंदिर के भीतर प्रवेश हो सकता है। जो आत्यंतिक वक्तव्य हैं, अंतिम वक्तव्य हैं, वे सही होते हुए । भी उपयोगी नहीं होते हैं। of तर-गुहा में प्रवेश के लिए, वह जो हृदय का अंतर- कृष्ण ऐसी बात कह रहे हैं, जो कि पूरी सही नहीं है, लेकिन फिर 1 आकाश है, उसमें प्रवेश के लिए कृष्ण ने कुछ विधियों | | भी उपयोगी है। और बहुत बार कृष्ण जैसे शिक्षकों को ऐसी बातें का संकेत अर्जुन को किया है। | कहनी पड़ी हैं, जो कि उन्होंने मजबूरी में कही होंगी-आपको योग की समस्त विधियां बाहर से प्रारंभ होती हैं और भीतर | देखकर, आपकी कमजोरी को देखकर। वे वक्तव्य आप पर निर्भर समाप्त होती हैं। यही स्वाभाविक भी है। क्योंकि मनुष्य जहां है, | | हैं, आपकी कमजोरी और सीमाओं पर निर्भर हैं। वहीं से प्रारंभ करना पड़ेगा। मनुष्य की जो स्थिति है, वही पहला | - अब जैसे कृष्ण कह रहे हैं आसन की बात कि आसन न बहुत कदम बनेगी। और मनुष्य बाहर है। इसलिए योग की कोई भी ऊंचा हो, न बहुत नीचा हो। शुरुआत स्वभावतः बाहर से होगी। हम जहां हैं, वहीं से यात्रा पर जो भीतर पहुंच गया, वहां ऊपर-नीचा आसन, न-आसन, कुछ निकल सकते हैं। जहां हम नहीं हैं, वहां से यात्रा शुरू नहीं की जा | भी शेष नहीं रह जाते। वैसा भीतर पहुंचा हुआ आदमी कह सकता सकती है। है, जैसा कबीर ने बहुत जगह कहा है कि क्या होगा आसन लगाने इस संबंध में दो-तीन अनिवार्य बातें समझ लेनी चाहिए, फिर से? सब व्यर्थ है! कबीर गलत नहीं कहते। कबीर एकदम ठीक ही कृष्ण की विधि पर हम विचार करें। कहते हैं। लेकिन कबीर जो कहते हैं उसमें और आप में इतना बड़ा - बहुत बार ऐसा हुआ है। जो जानते हैं, उनका मन होता है आपसे अंतराल, इतना बड़ा गैप है कि वह कभी पूरा नहीं होगा। कहें, वहीं से शुरू करो, जहां वे हैं। उनकी बात इंच-इंच सही होती कबीर कहते हैं, क्या होगा मृगछाल बिछा लेने से? ठीक ही है, फिर भी बेकार हो जाती है। कहते हैं, गलत नहीं कहते हैं। मृग की चमड़ी भी बिछा ली, उस मैं जहां हूं, अगर मैं किसी दूसरे को कहूं कि वहां से शुरू करो, पर बैठ भी गए, तो क्या होगा? आत्यंतिक दृष्टि से, आखिरी दृष्टि तो भला बात कितनी ही सही हो, वह दूसरे के लिए व्यर्थ हो | से कबीर ठीक ही कहते हैं कि क्या होगा? कितने ही मृगचर्म जाएगी। उचित और सार्थक तो यही होगा कि दूसरा जहां है, वहां | बिछाकर बैठ जाएं, तो होना क्या है? से मैं कहूं कि यहां से शुरू करो। फिर भी जब कृष्ण कहते हैं, तो कबीर से ज्यादा करुणा है उनके बहुत बार जानने वाले लोगों ने भी अपनी स्थिति से वक्तव्य दे | | मन में। जब वे अर्जुन से कहते हैं कि मृगचर्म पर बैठकर, न अति दिए हैं, जो कि किसी के काम नहीं पड़ते हैं। और उन वक्तव्यों से | | ऊंचा हो आसन, न अति नीचा हो, सम हो, ऐसे आसन में बैठकर, बहुत बार हानि भी हो भी हो जाती है। क्योंकि वहां से आप कभी शरू ही चित्त को एकाग्र करे. इंद्रियों के व्यापार को समेट ले. इंद्रियों का नहीं कर सकते हैं। सुनेंगे, समझेंगे, सारी बात खयाल में आ जाएगी मलिक हो जाए तो ही योग में प्रवेश होता है। और फिर भी पाएंगे कि अपनी जगह ही खड़े हैं; इंचभर हट नहीं कृष्ण और कबीर के इन वक्तव्यों में इतना फासला क्यों है? Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ अंतर्यात्रा का विज्ञान > देखकर लगेगा कि या तो कृष्ण गलत होने चाहिए, अगर कबीर आसन? और बिलकुल ठीक कहते हैं। बात बिलकुल ठीक लगती सही हैं। या कबीर गलत होने चाहिए, अगर कृष्ण सही हैं, जैसा है। लेकिन फिर भी जहां हम हैं, वहां बिलकुल ठीक नहीं है। कि सारी दुनिया में चलता है। और सारे वक्तव्य इस जगत में रिलेटिव हैं, सापेक्ष हैं। और जो हम सदा ऐसा सोचते हैं, इन दोनों में से दोनों तो सही नहीं हो | लोग भी एब्सोल्यूट, निरपेक्ष वक्तव्य देने की आदत से भर जाते सकते। हां, दोनों गलत हो सकते हैं। लेकिन दोनों सही नहीं हो | | हैं, वे हमारे किसी काम के सिद्ध नहीं होते। सकते। ___ जैसे कृष्णमूर्ति हैं। उनके सारे वक्तव्य निरपेक्ष हैं, एब्सोल्यूट हैं, कबीर तो कहते हैं, फेंक दो यह सब। इस सबसे कुछ न होगा। और इसलिए बिलकुल बेकार हैं। सही होते हुए भी बिलकुल बेकार और कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि इस सबसे यात्रा शुरू होगी! हैं। वर्षों कोई सुनता रहे; वहीं खड़ा रहेगा जहां खड़ा था, इंचभर क्या कारण है? और मैं कहता हूं, दोनों सही हैं। कारण सिर्फ इतना यात्रा नहीं होगी। क्योंकि जिन चीजों से हम यात्रा कर सकते हैं, उन है कि कबीर वहां से बोल रहे हैं, जहां वे खड़े हैं। और कृष्ण वहां सबका निषेध है। और बात बिलकुल सही है, इसलिए समझ में से बोल रहे हैं, जहां अर्जुन खड़ा है। कबीर वह बोल रहे हैं, जो | | आ जाएगी कि बात बिलकुल सही है। समझ में आ जाएगी और उनके लिए सत्य है। कृष्ण वह बोल रहे हैं, जो कि अर्जुन के लिए | अनुभव में कुछ भी न आएगा। और समझ और अनुभव के बीच सत्य हो सके। | इतना फासला बना रहेगा कि उसकी पूर्ति कभी होनी संभव नहीं है। गहरे अर्थों में क्या फर्क पड़ता है ? आत्मा का कोई आसन होता | और कृष्णमूर्ति को सुनने वाले, चालीस साल से सुनने वाले है? गड्ढे में बैठ गए, तो आत्मा न मिलेगी? ऊंची जमीन पर बैठ लोग कभी मेरे पास आते हैं। वे कहते हैं कि हम चालीस साल से गए, तो आत्मा न मिलेगी? अगर ऐसी छोटी शर्तों से आत्मा का | सुन रहे हैं। हम सब समझते हैं कि वे क्या कहते हैं। बिलकुल ठीक मिलना बंधा हो, तो बड़ा सस्ता खेल हो गया! समझते हैं। इंटलेक्चुअल अंडरस्टैंडिंग हमारी बिलकुल पूरी है। नहीं; आत्मा तो मिल जाएगी कहीं से भी। फिर भी, जहां हम लेकिन पता नहीं, कुछ होता क्यों नहीं है! खड़े हैं, वहां इतनी ही छोटी चीजों से फर्क पड़ेगा, क्योंकि हम इतने अगर उनसे कहो कि आसन ऐसा लगाना, तो वे कहेंगे, आप ही छोटे हैं। जहां हम खड़े हैं, इतनी क्षुद्र बातों से भी भेद पड़ेगा। भी क्या बात कर रहे हैं। आत्मा का आसन से क्या लेना-देना? .. कभी ध्यान करने बैठे हों, तो खयाल में आएगा। अगर जरा अगर उनसे कहो कि दृष्टि इस बिंदु पर रखना, वे कहेंगे कि इससे तिरछी जमीन है, तो पता चलेगा कि उस जमीन ने ही सारा वक्त ले क्या होगा? अगर उनसे कहो, इस विधि का उपयोग करना, तो वे लिया। अगर पैर में एक जरा-सा कंकड़ गड़ रहा है, तो पता चलेगा | | कहते हैं, कृष्णमूर्ति कहते हैं, कोई मेथड नहीं है। कि परमात्मा पर ध्यान नहीं जा सका, कंकड़ पर ही ध्यान रह गया! वे बिलकुल ठीक कहते हैं, मगर आप गलत आदमी हैं। और एक जरा-सी चींटी काट रही है, तो पता चलेगा कि चींटी परमात्मा | | आपको नहीं सुनना चाहिए था उन्हें। बिना विधि के आपने जिंदगी से ज्यादा बड़ी है! परमात्मा की तरफ इतनी चेष्टा करके ध्यान नहीं में कुछ भी नहीं किया है, बिना मेथड के कुछ भी नहीं किया है। जाता और चींटी की तरफ रोकते हैं, तो भी ध्यान जाता है! | आपके मन की सारी समझ, आपके चित्त की सारी व्यवस्था मेथड जहां हम खड़े हैं अति सीमाओं में घिरे, अति क्षुद्रताओं में घिरे; और विधि से चलती है। जहां हमारे. ध्यान ने सिवाय क्षुद्र विषयों के और कुछ भी नहीं जाना एक बहुत बड़ा वक्तव्य आपने सुना कि किसी मेथड की कोई है, वहां फर्क पड़ेगा। वहां इस बात से फर्क पड़ेगा कि कैसे आसन | जरूरत नहीं है। आपका वह जो आलसी मन है, वह कहेगा कि बात में बैठे। इस बात से फर्क पड़ेगा कि कैसी भूमि चुनी। इस बात से | तो बिलकुल ठीक है, मेथड की क्या जरूरत है! झंझट से भी बच फर्क पड़ेगा कि किस चीज पर बैठे। क्यों फर्क पड़ जाएंगे? हमारे | गए। अब कोई विधि भी नहीं लगानी है। कोई आसन भी नहीं लगाना कारण से फर्क पड़ेगा। हमें इतनी छोटी चीजें परिवर्तित करती हैं, | है। कोई मंत्र नहीं पढ़ना है। कोई स्मरण नहीं करना है। कुछ नहीं जिसका कोई हिसाब नहीं है! करना है। मगर कुछ नहीं तो आप पहले से ही कर रहे हैं। अगर तो कबीर जैसे लोगों के वक्तव्य हमारे लिए खतरनाक सिद्ध भी | पहुंचना होता, तो बहुत पहले पहुंच गए होते। और अब आपको और हो जाते हैं। क्योंकि हम कहते हैं, ठीक है। कबीर कहते हैं कि क्या एक पक्का मजबूत खयाल मिल गया कि कुछ भी नहीं करना है। 89 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < गीता दर्शन भाग-3 ध्यान रहे, कुछ भी नहीं करना इस पृथ्वी पर सबसे कठिन करने | हैं, पद्मासन कहते हैं, वे न्यूनतम गुरुत्वाकर्षण के आसन हैं। और वाली बात है। इसलिए आप जिसको समझते हैं, कुछ भी न करना, | आज तो वैज्ञानिक भी स्वीकार करता है कि अगर सिद्धासन में वह कुछ भी न करना नहीं है। आदमी बहुत दिन तक, बहुत समय तक रह सके, तो उसकी उम्र तो कृष्ण का यह वक्तव्य ऐसा लगेगा कि बड़ा साधारण है, | बढ़ जाएगी। बढ़ जाएगी सिर्फ इसलिए कि उसके शरीर और जमीन लेकिन साधारण नहीं है। अगर समतुल आसन हो और आपके | | के आकर्षण के बीच जो संघर्ष है, वह कम से कम होगा और शरीर शरीर के दोनों हिस्से बिलकुल समान स्थिति में भूमि पर हों, कोई कम से कम जरा-जीर्ण होगा। हिस्सा नीचा-ऊपर न हो, आपके शरीर को झुकना न पड़े, तो उसके । अगर कृष्ण कहते हैं कि ऐसी भूमि चुनना ध्यान के लिए, जो बहुत वैज्ञानिक कारण हैं। नीची-ऊंची न हो; बहुत ऊंची भी न हो, बहुत नीची भी न हो। जमीन चौबीस घंटे प्रतिपल अपने ग्रेविटेशन से हमारे शरीर को | उसके भी कारण हैं। एक आदमी गड्ढे में भी बैठ सकता है। एक प्रभावित करती है। उसका गुरुत्वाकर्षण पूरे समय काम कर रहा है। आदमी एक मचान बांधकर भी बैठ सकता है। खतरे क्या हैं? अगर जब आप बिलकुल समतुल होते हैं, तो गुरुत्वाकर्षण न्यूनतम होता| आप गड्ढे में बैठ जाते हैं, जमीन के नीचे बैठ जाते हैं, तो एक दूसरे है, मिनिमम होता है। जब आप जरा भी तिरछे होते हैं, तो नियम पर ध्यान दे देना जरूरी है। गरुत्वाकर्षण बढ जाता है. क्योंकि गरुत्वाकर्षण का और आपके | मैं यहां बोल रहा हूं, इस माइक को थोड़ा मैं नीचे कर लूं, अपने शरीर का संबंध बढ़ जाता है। अगर मैं बिलकुल सीधे आसन में हाथ के तल पर ले आऊं, तो मेरी आवाज इस माइक के ऊपर से बैठा हुआ हूं, तो गुरुत्वाकर्षण बिलकुल सीधी रेखा में, सिर्फ रीढ़ निकल जाएगी। मेरी ध्वनि तरंगें इसके ऊपर से निकल जाएंगी। यह को ही प्रभावित करता है। अगर मैं जरा झुक गया, तो जितना मैं आवाज मेरी ठीक से नहीं पकड़ पाएगा। इसे मैं बहुत ऊंचा कर दूं, झुक गया, पृथ्वी उतने ही हिस्से में कोण बनाकर गुरुत्वाकर्षण से तो भी मेरी ध्वनि तरंगें नीचे से निकल जाएंगी। यह माइक उन्हें शरीर को प्रभावित करने लगती है। पकड़ नहीं पाएगा। यह माइक मेरी ध्वनि तरंगों को तभी ठीक से तिरछे खड़े होकर आप जल्दी थक जाएंगे, सीधे पकडेगा, जब यह ठीक समानांतर. वाणी की तरंगों के समानांतर बैठकर आप कम थकेंगे। तिरछे बैठकर आप जल्दी थक जाएंगे। | होगा। मेरे होंठों के जितने समानांतर होगा, उतनी ही सुविधा होगी जमीन आपको ज्यादा खींचेगी। इसलिए लेटकर आप विश्राम पा | | इसे मेरी ध्वनि पकड़ लेने के लिए। जाते हैं, क्योंकि लेटकर आप जरा भी तिरछे नहीं होते, पूरी जमीन __पूरी पृथ्वी पूरे समय अनंत तरह की तरंगों से प्रवाहित है। अनंत का गुरुत्वाकर्षण आपके शरीर पर समान होता है। तरंगें चारों ओर फैल रही हैं। इन तरंगों में कई वजन की तरंगें, कई समान गरुत्वाकर्षण आधार है कष्ण के इस वक्तव्य का। जरूरी भार की तरंगें हैं। और यह बडे आश्चर्य की बात है कि जितने बरे नहीं है कि कृष्ण को गुरुत्वाकर्षण का कोई पता हो; आवश्यक भी | विचारों की तरंगें हैं, वे उतनी ही भारी हैं, उतनी ही हैवी हैं। जितने नहीं है। कोई न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण को पैदा नहीं किया है। न्यूटन शुभ विचारों की तरंगें हैं, उतनी हलकी हैं, निर्भार हैं। नहीं था, तो भी गुरुत्वाकर्षण था। शब्द नहीं था हमारे पास कि क्या अगर आप एक गड्ढे में बैठकर ध्यान करते हैं, कुएं में बैठकर है। लेकिन इतना पता था कि जमीन खींचती है, और शरीर को | ध्यान करते हैं, तो आपके संपर्क में इस पृथ्वी पर उठने वाली जितनी चौबीस घंटे प्रतिपल खींचती है। निम्नतम तरंगें हैं, उनसे ही आपका संपर्क हो पाएगा। वे तो कुएं में शरीर को हम ऐसी स्थिति में रख सकते हैं कि जमीन का उतर जाएंगी. श्रेष्ठ तरंगें कएं के ऊपर से ही प्रवाहित होती रहेंगी। अधिकतम आकर्षण शरीर पर हो। और जहां शरीर पर अधिकतम | इसलिए पहाड़ों पर लोगों ने यात्रा की। पहाड़ों पर यात्रा का आकर्षण होगा, वहां शरीर जल्दी थकेगा, बेचैन होगा, परेशान | | कारण था। कारण थी ऊंचाई, और ऊंचाई से तरंगों का भेद। होगा और चित्त को थिर करने में आपके लिए कठिनाई | तरंगों की अपनी पूरी स्थितियां हैं। हर तल पर विभिन्न प्रकार की होगी-कृष्ण के लिए नहीं। | तरंगें यात्रा कर रही हैं। और एक तरह की तरंग एक सतह पर यात्रा शरीर ऐसी स्थिति में हो सकता है, जहां गुरुत्वाकर्षण न्यूनतम करती है। तो गड्ढे के लिए इनकार किया है। है, मिनिमम है। जिसको हम सिद्धासन कहते हैं, सुखासन कहते। लेकिन आप पूछेगे कि फिर बहुत ऊंची जगह के लिए क्यों Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ << अंतर्यात्रा का विज्ञान > इनकार किया है? क्योंकि ऊंचे जितने हम होंगे, उतनी श्रेष्ठतर तरंगें| | मृगचर्म की बात कही है। उसके भी कारण हैं। और कारण ऐसे मिल जाएंगी! | हैं, जो आज ज्यादा स्पष्ट हो सके हैं। इतने स्पष्ट कृष्ण के समय ___ तो वह भी आप ध्यान रख लें। ऊंचे पर श्रेष्ठतर तरंगें मिलेंगी, | | में भी नहीं थे। प्रतीति थी, प्रतीति थी कि कुछ फर्क पड़ता है। लेकिन लेकिन अगर आपकी पात्रता न हो, तो श्रेष्ठतर तरंगें भी सिर्फ | | किस कारण से पड़ता है, उसकी वैज्ञानिक स्थिति का कोई स्पष्ट आपके भीतर उत्पात पैदा करेंगी। आपकी पात्रता के साथ ही | बोध नहीं था। श्रेष्ठतर तरंगों को झेलने की क्षमता पैदा होती है। संन्यासी इस देश में हजारों, लाखों वर्षों से कहना चाहिए, आप कितना झेल सकते हैं? हम जहां जीते हैं, वही तल अभी लकड़ी की खड़ाऊं का उपयोग करता रहा है, अकारण नहीं। हमारे झेलने का तल है। जहां बैठकर आप दुकान करते हैं, भोजन मृगचर्म का उपयोग करता रहा है, अकारण नहीं। सिंहचर्म का करते हैं, बात करते हैं, जीते हैं जहां, प्रेम करते हैं, झगड़ते हैं जहां, । उपयोग करता रहा है, अकारण नहीं। लकड़ी के तख्त पर बैठकर वही आपके जीवन का तल है। उस तल से ही शुरू करना उचित | ध्यान करता रहा है, अकारण नहीं। कुछ प्रतीतियां खयाल में आनी है; न बहुत नीचे, न बहुत ऊपर। शुरू हो गई थीं कि भेद पड़ता है। ___ जहां आप हैं, वहीं आपकी ट्यूनिंग है। अभी आप वहीं से शुरू जो चीजें भी विद्युत के लिए नान-कंडक्टिव हैं, वे सभी ध्यान में करें। और जैसे-जैसे आपकी क्षमता बढ़े वैसे-वैसे ऊपर की यात्रा सहयोगी होती हैं। लेकिन अब इसके वैज्ञानिक कारण स्पष्ट हो हो सकती है। और जैसे-जैसे आपकी क्षमता बढ़े, तो आप गड्ढे में | सके हैं। आज विज्ञान कहता है कि जिन चीजों से भी विद्युत प्रवाहित बैठकर भी ध्यान कर सकते हैं। क्षमता बढ़े, तो ऊपर जा सकते हैं, होती है, उन पर बैठकर ध्यान करना खतरे से खाली नहीं है। क्यों? पर्वत शिखरों की यात्रा कर सकते हैं। क्योंकि जब आप गहरे ध्यान में लीन होते हैं, तो आपका शरीर एक पुराने तीर्थ इस हिसाब से बनाए गए थे कि जो श्रेष्ठतम तीर्थ हो, | बहुत अनूठे रूप से एक बहुत नए तरह की अंतर्विद्युत पैदा करता वह सबसे ऊपर हो। और धीरे-धीरे साधक यात्रा करे; धीरे-धीरे है, एक इनर इलेक्ट्रिसिटी पैदा करता है। जब आप पूरे ध्यान में होते यात्रा करे। वह आखिरी यात्रा कैलाश पर हो उसकी पूरी। वहां | | हैं, तो आपके शरीर की बाडी इलेक्ट्रिसिटी सक्रिय होती है। जाकर वह समाधि में लीन हो। वहां शुद्धतम तरंगें उसे उपलब्ध | | और सबके शरीर में विद्युत का बड़ा आगार है। हम सबके शरीर होंगी। लेकिन उसकी क्षमता भी निरंतर ऊंची उठती जानी चाहिए, | में विद्युत का बड़ा आगार है। उसी विद्युत से हम जीते हैं, चलते हैं, ताकि उतनी शुद्ध तरंगों को वह झेलने में समर्थ हो सके। अन्यथा | | उठते हैं, बैठते हैं। यह जो श्वास आप ले रहे हैं, वह सिर्फ आपके शुद्धतम को झेलना भी उत्पात का कारण हो सकता है। जितनी शरीर की विद्युत को आक्सीजन पहुंचाकर जीवित रखती है, और आपकी पात्रता नहीं है, उससे ज्यादा आपके ऊपर गिर पड़े, तो वह | | कुछ नहीं करती। वह आक्सीडाइजेशन करती है। आपको प्रतिपल • आपको हानि ही पहुंचाता है, लाभ नहीं। आपके शरीर की विद्युत को चलाए रखने के लिए आक्सीजन की सूफी फकीरों में गड्ढे में जाकर ध्यान करने की प्रक्रिया है, कुएं | जरूरत है, इसलिए श्वास के बिना आप जी नहीं सकते। और शरीर में जाकर ध्यान करने की प्रक्रिया है, नीचे जमीन में उतरकर ध्यान | | विद्युत का, कहना चाहिए, एक जेनेरेटर है। वहां पूरे समय विद्युत करने की प्रक्रिया है। लेकिन इस प्रक्रिया के लिए तभी आज्ञा दी पैदा हो रही है। इस विद्युत को ध्यान के समय में कंजरवेशन मिलता जाती है, जब कोई श्रेष्ठतम पर्वत शिखर पर ध्यान करने में समर्थ | है, संरक्षण मिलता है। हो जाता है-तब। यह क्यों? यह तब आज्ञा दी जाती है, जब वह । साधारणतः आप विद्युत को फेंक रहे हैं। मैंने इतना हाथ हिलाया, व्यक्ति इस स्थिति में पहुंच जाता है कि उसके आस-पास सब तरह तो भी मैंने विद्युत की एक मात्रा हाथ से बाहर फेंक दी। मैं एक शब्द की गलत तरंगें मौजद रहें. लेकिन वह अप्रभावित रह सके. तब बोला. तो उस शब्द को गति देने के लिए मेरे शरीर की विद्यत की उसे गड्ढे में बैठकर साधना करने की आज्ञा दी जाती है। एक मात्रा विनष्ट हुई। रास्ते पर आप चले, उठे, हिले, आपने कुछ कृष्ण ने अर्जुन को देखकर कहा है कि तू ऐसा आसन चुन, जो | भी किया कि शरीर की विद्युत की एक मात्रा उपयोग में आई। बहुत नीचा न हो, ऊंचा न हो, तिरछा-आड़ा न हो। वहां तू सरलता ___ लेकिन ध्यान में तो सब हिलन-डुलन बंद हो जाएगा। वाणी से शांत होने में सुगमता पाएगा। शांत होगी, विचार शून्य होंगे, शरीर निष्कंप होगा, चित्त मौन होगा, Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3> इंद्रियां शिथिल होकर निष्क्रिय हो जाएंगी। तो वह जो चौबीस घंटे | है। एक घड़ी ऐसी आ जाती है कि शरीर की विद्युत का अंतर-वर्तुल विद्युत बाहर फिकती है, वह सब कंजर्व होगी, वह सब भीतर | निर्मित हो जाता है। और जो लोग भी परम शांति को उपलब्ध होते इकट्ठी होगी। हैं, उनके हृदय में अंतर-वर्तुल निर्मित हो जाता है। विद्युत अगर आप ऐसी जगह बैठे हैं, जहां से विद्युत आपके शरीर के | अंतर-वर्तुल बना लेती है। फिर वे जमीन पर बैठ जाएं, तो उन्हें बाहर जा सके. तो आपको ठीक वैसा ही शॉक अनभव होगा. | कोई शॉक नहीं लगने वाला है। जैसा बिजली के तार को छूकर अनुभव होता है। और जो लोग | | लेकिन वह घटना अभी आपको नहीं घट गई है। आपके भीतर ध्यान में थोड़े गहरे गए हैं, उनमें से अनेकों का यह अनुभव है। कोई अंतर-वर्तुल नहीं है, कोई इनर सर्किट नहीं है। आपको तो मेरे पास सैकड़ों लोग हैं, जिनका यह अनुभव है कि अगर वे | अभी बाह्य-वर्तुल पर निर्भर रहना पड़ेगा। वह मजबूरी है; उससे गलत जगह बैठकर ध्यान किए हैं, तो उनको शॉक लगा है, उनको बचने का उपाय नहीं है; उससे पार होने का उपाय है। जो बचने की धक्का लगा है। कोशिश करेगा, कि इसे बाई-पास कर जाएं, वह दिक्कत में जब आप बिजली का तार छूते हैं, अगर लकड़ी की खड़ाऊं पड़ेगा। उसके पार हो जाना ही उचित है। क्योंकि पार होकर ही . पहनकर छ लें, तो शॉक नहीं लगेगा। क्यों? शॉक बिजली की पात्रता निर्मित होती है। वजह से नहीं लगता, बिजली के तार को छूने से नहीं लगता शॉक। ___ तो कृष्ण कहते हैं, ऐसी आसनी पर बैठे, ऐसा आसन लगाए, शॉक लगता है, बिजली के तार से आपके भीतर बिजली आ जाती | ऐसी जमीन पर हो, ऊंचा न हो, नीचा न हो और तब, तब इंद्रियों है और झटके के साथ जमीन उसको खींच लेती है। वह जो जमीन | को सिकोड़ ले। खींचती है झटके के साथ, उसकी वजह से शॉक लगता है। अगर | और इंद्रियों को सिकोड़ना ऐसी स्थिति में आसान होता है। बाह्य आप खड़ाऊं पहने खड़े हैं, तो शॉक नहीं लगेगा। बिजली का तार विघ्न और बाधाओं को निषेध करने की व्यवस्था कर लेने पर आपने छू लिया है। वह नहीं लगेगा इसलिए कि जमीन उसे झटके इंद्रियों को सिकोड़ लेना आसान होता है। से खींच नहीं सकी और लकड़ी की खड़ाऊं ने बिजली को वापस कभी आपने खयाल न किया होगा, योग ने ऐसे आसन खोजे वर्तुल बनाकर लौटा दिया। हैं, जो आपकी इंद्रियों को अंतर्मुखी करने में अदभुत रूप से शॉक लगता है वर्तुल के टूटने से, सर्किट टूटने से शॉक लगता | सहयोगी हो सकते हैं। इस तरह की मुद्राएं खोजी हैं, जो आपकी है। अगर बिजली एक वर्तुल बना ले, तो आपको कभी धक्का नहीं | | इंद्रियों को अंतर्मुखी करने में सहयोगी हो सकती हैं। बैठने के ऐसे लगता। और वर्तुल बनाने का एक ही उपाय है कि आप | | ढंग खोजे हैं, जो आपके शरीर के विशेष केंद्रों पर दबाव डालते हैं नान-कंडक्टर पर बैठे हों। और उस दबाव का परिणाम आपकी विशेष इंद्रियों को शिथिल कर मृगचर्म नान-कंडक्टर है, सिंहचर्म नान-कंडक्टर है। बिजली जाना होता है। उसके पार नहीं जा सकती, वह बिजली को वापस लौटाता है। अभी अमेरिका में एक बहत बड़ा विचारक और वैज्ञानिक था. लकड़ी नान-कंडक्टर है, वह बिजली को वापस लौटा देती है। थियोडर रेक। उसने मनुष्य के शरीर के बाबत जितनी जानकारी की, खड़ाऊं नान-कंडक्टर है, वह बिजली को वापस लौटा देती है। कम लोगों ने की है। वह कहता था कि शरीर में ऐसे बिंदु हैं मनुष्य तो जो ध्यान कर रहा है, उसके लिए खड़ाऊं उपयोगी है। जो के, जिन बिंदुओं को दबाने से मनुष्य की वृत्तियों में बुनियादी अंतर पर बैठना उपयोगी है। जो | पड़ता है। और यह कोई योगी नहीं था रेक। रेक तो एक मनसविद ध्यान कर रहा है, उसे मृगचर्म का उपयोग सहयोगी है। | था। फ्रायड के शिष्यों में से, बड़े शिष्यों में से एक था। और उसने फिजूल लगेगा। अगर कबीर से पूछने जाएंगे, कृष्णमूर्ति से, वे हजारों लोगों को सहायता पहुंचाई। उसे कुछ पता नहीं था। काश, कहेंगे, बकवास है। लेकिन अगर वैज्ञानिक से पूछने जाएंगे, वह उसे पता होता तिब्बत और भारत में खोजे गए योगासनों का, तो कहेगा, सार्थक है बात। और सार्थक है। | उसकी समझ बहुत गहरी हो जाती। एक घड़ी ऐसी आ जाती है, जहां बिलकुल बेकार है। लेकिन वह बिलकुल अंधेरे में टटोल रहा था, लेकिन उसने ठीक जगह वह घड़ी अभी आ नहीं गई है। वह घड़ी आ जाए, तब तक उपयोगी टटोल ली। उसने कुछ स्थान शरीर में खोज लिए, जिनको दबाने से ध्यान कर Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अंतर्यात्रा का विज्ञान - परिणाम होते हैं। जैसे उसने दांतों के आस-पास ऐसी जगह खोज आदमी के दांतों की बीमारियों में नब्बे प्रतिशत कारण दांतों के ली जबड़ों में, जिनमें आदमी की हिंसा संगृहीत है। आपको खयाल आस-पास बने हिंसा के पाकेट हैं। इसलिए जानवरों के दांत जैसे में भी नहीं आ सकता। और अगर कोई आदमी बहुत वायलेंट है, स्वस्थ हैं! जरा कुत्ते के दांत खोलकर देख लेना, तो खुद शर्म बहत हिंसक है. तो थियोडर रेक उसकी जो चिकित्सा करेगा. वह | आएगी किन कभी दतोन करता. न कभी मंजन करता. न कोई बहुत अनूठी है। वह यह है कि उसको लिटाकर वह सिर्फ उसके टुथपेस्ट का, किसी मार्क के टुथपेस्ट का कोई उपयोग करता। ऐसी जबड़ों के विशेष स्थानों को दबाएगा, इतने जोर से कि वह आदमी चमक, ऐसी रौनक, ऐसी सफेदी! बात क्या है? बात गहरे में चीखेगा, चिल्लाएगा, मारने-पीटने लगेगा। और अक्सर यह होता | शारीरिक कम और मनस से ज्यादा जडी हई है। था कि थियोडर रेक को उसके मरीज बुरी तरह पीटकर जाते थे, हिंसा के पाकेट्स कुत्ते के दांत में नहीं हैं। और अगर कुत्तों के दांतों मारकर जाते थे। लेकिन दूसरे दिन से ही उनमें अंतर होना शुरू हो में कभी हिंसा के पाकेट्स हो जाते हैं, तो वे खेलकर उसको रिलीज जाता। उनकी हिंसा में जैसे बुनियादी फर्क हो गया। कर लेते हैं। आपने कुत्तों को देखा होगा, खेलने में काटेंगे। काटते रेक का कहना था, और कहना ठीक है, कि हिंसा का जो नहीं हैं, सिर्फ भरेंगे मुंह, छोड़ देंगे। वे रिलीज कर रहे हैं। खेलकर बुनियादी केंद्र है, वे दांत हैं—समस्त जानवरों में, आदमियों में भी। हिंसा को मुक्त कर लेंगे। तो जानवरों के दांत जैसे स्वस्थ हैं, आदमी क्योंकि आदमी सिर्फ एक जानवरों की श्रृंखला में आगे आ गया सपने में भी नहीं सोच सकता कि उतने स्वस्थ दांत पा जाए। जानवर है, उससे ज्यादा नहीं। आपकी अंगुलियों के आस-पास भी हिंसा के पाकेट्स इकट्ठे समस्त जानवर दांत से ही हिंसा करते हैं। दांत या नाखून, बस दो | | होते हैं। वहां भी हिंसा है। वह भी हमने बंद कर दी है। अब हम ही हिस्से हैं। आदमी ने हिंसा की ऐसी तरकीबें खोज ली हैं, जिनमें | अंगुलियों से किसी को चीरते-फाड़ते नहीं। कभी-कभी गुस्से में हो नाखून की भी जरूरत नहीं है, दांत की भी जरूरत नहीं है। लेकिन | जाता है, किसी का कपड़ा फाड़ देते हैं, नाखून चुभा देते हैं, अलग शरीर का जो मैकेनिज्म है, शरीर का जो यंत्र है, उसे कुछ भी पता | बात है। लेकिन सामान्यतया, हम आमतौर से दूसरी चीजों का नहीं कि आपने छुरी बना ली है। उसे कुछ भी पता नहीं कि आपने | उपयोग करते हैं, सब्स्टीटयूट। हमने बुनियादी प्रकृति की चीजों का दांतों की जगह औजार बना लिए हैं, जिनसे आप आदमी को ज्यादा उपयोग बंद कर दिया है। तो हमारी अंगुलियों के आस-पास हिंसा सुविधा से काट सकते हैं। शरीर को कोई पता नहीं है। शरीर के अंग इकट्ठी हो जाएगी। तो, सेल तो, पुराने ढंग से ही काम करते चले जाते हैं। आदमी की अंगुलियों को देखकर कहा जा सकता है कि उसके ___ इसलिए जब भी आप हिंसा से भरते हैं, खयाल करना, आपके चित्त में कितनी हिंसा है। उसकी अंगुलियों के मोड़ बता देंगे कि दांतों में कंपन शुरू हो जाता है। आपके दांतों में विशेष विद्युत उसके भीतर कितनी हिंसा है। क्योंकि अंगुलियां अकारण नहीं दौड़नी शुरू हो जाती है। दांत पीसने लगते हैं। आप कहते हैं, क्रोध मुड़ती हैं। में इतना आ गया कि दांत पीसने लगा। दांत पीसने का क्रोध से क्या तो बुद्ध की अंगुलियों का मोड़ अलग होगा। अलग होगा ही। लेना-देना! आप मजे से क्रोध में आइए, दांत मत पीसिए! लेकिन कोई हिंसा भीतर नहीं है। हाथ एक फूल की तरह खिल जाएगा। दांत पीसे बिना आप न बच सकेंगे, क्योंकि दांत में विद्युत दौड़नी | | अंगुलियों के भीतर कोई पाकेट्स नहीं हैं। शुरू हो गई। और ठीक ऐसे ही हमारे पूरे शरीर में पाकेट्स हैं। ऐसे बिंदु हैं, लेकिन दांत का उपयोग सभ्य आदमी करता नहीं। कभी-कभी | | जहां बहुत कुछ इकट्ठा है। अगर उन बिंदुओं को दबाया जा सके, असभ्य लोग कर लेते हैं कि क्रोध में आ जाएं, तो काट लें आपको। उन बिंदुओं को मुक्त किया जा सके, तो भेद पड़ेगा। सभ्य आदमी काटता नहीं। लेकिन दांतों को कुछ पता नहीं कि आप | | इस मुल्क ने जो योगासन खोजे, विशेष पद्धतियां बैठने की सभ्य हो गए हैं। जब आप नहीं काटते, तो दांतों में जो विद्युत पैदा खोजी...। अगर आपने बुद्ध या महावीर की मूर्ति देखी है, हो गई, जो काटने से रिलीज हो जाती, वह रिलीज नहीं हो पाएगी। | करीब-करीब सभी ने देखी होगी, गौर से नहीं देखी होगी। उन्होंने भी वह दांतों के मसूढ़ों के आस-पास संगृहीत होती चली जाएगी, गौर से नहीं देखी, जो रोज महावीर को नमस्कार करने मंदिर में जाते उसके पाकेट्स बन जाएंगे। हैं! लेकिन असली राज उस मूर्ति की व्यवस्था में छिपा हुआ है। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 करती है। अगर महावीर की मूर्ति को गौर से देखेंगे, तो आपको क्या दिखाई | की एक दीवाल खड़ी हो जाती है, जिसको पार नहीं किया जा पड़ेगा कि महावीर का पूरा शरीर एक विद्युत सर्किट है। दोनों पैर जुड़े | सकता। इस क्षण में अंतर-आकाश में यात्रा आसान हो जाती है। हुए हैं। दोनों पैरों की गद्दियां घुटनों के पास जुड़ी हुई हैं। | अति आसान हो जाती है। विद्यत के रिलीज के जो बिंदु हैं, वह हमेशा नुकीली चीजों से इसलिए कृष्णमूर्ति कितना ही कहें या कबीर कितना ही कहें, विद्युत बाहर गिरती है। गोल चीजों से कभी विद्युत बाहर नहीं थोड़ी सावधानी से उनकी बात सुनना। उनकी बात खतरे में ले जा गिरती, सिर्फ नुकीली चीजों से विद्युत बाहर यात्रा करती है। जितनी सकती है। वे कह दें, आसन से क्या होगा? वे कह दें कि इससे नुकीली चीज हो, उतनी ज्यादा विद्युत बाहर यात्रा करती है। क्या होगा, उससे क्या होगा? मेथडॉलाजी से क्या होगा? अपनी जननेंद्रिय से सर्वाधिक विद्युत बाहर जाती है। और इसीलिए तरफ से वे ठीक कह रहे हैं। उनका अंतर-आकाश और उनकी संभोग के बाद आप इतने थके हुए और इतने बेचैन और उद्विग्न हो अंतर्विद्युत की यात्रा शुरू हो गई है। शायद उन्हें पता भी नहीं हो। गए होते हैं। क्योंकि आपका शरीर बहुत-सी विद्युत खो दिया होता | - कृष्णमूर्ति के साथ तो निश्चित ही यह बात है कि कृष्णमूर्ति के है। संभोग के बाद आपका ब्लड-प्रेशर बहुत ज्यादा बढ़ गया होता साथ जो प्रयोग उनके बचपन में किए गए, वे करीब-करीब उनको है। हृदय की धड़कन बढ़ गई होती है। आपकी नाड़ी की गति बढ़ | बेहोश करके किए गए। इसलिए उनको कुछ भी पता नहीं है कि वे गई होती है। और पीछे निपट थकान हाथ लगती है। उसका | | किन प्रयोगों से गुजरे हैं। कांशसली उन्हें कुछ भी पता नहीं है, कारण? उसका कारण सिर्फ वीर्य का स्खलन नहीं है। वीर्य के सचेतन रूप से, कि वे किन प्रयोगों से गुजरे हैं; और जहां पहुंचे स्खलन के साथ-साथ जननेंद्रिय बहत बड़ी मात्रा में विद्यत को हैं, किस मार्ग से गुजरकर पहुंचे हैं। शरीर के बाहर फेंक रही है। उस विद्युत के भी पाकेट्स हैं। उनकी हालत करीब-करीब वैसी है, जैसे हम किसी आदमी को इसलिए सिद्धासन या पद्मासन में जो बैठने का ढंग है, एड़ियां | | सोया हुआ उसके घर से उठा लाएं और बगीचे में उसकी खाट रख उन बिंदुओं को दबा देती हैं, जहां से जननेंद्रिय तक विद्युत पहुंचती | | दें। और बगीचे में उसकी आंख खुले और वह कहे कि ठीक। और है। और उसका पहुंचना बंद हो जाता है। दोनों पैर शरीर के साथ कोई पूछे उससे कि बगीचे में कैसे आऊं? तो वह कहे, कोई रास्ता जुड़ जाते हैं और दोनों पैर से जो विद्युत निकलती है, वह शरीर नहीं है; बस आ जाओ। कोई मार्ग नहीं है, बस आ जाओ। जागो, वापस एब्जा कर लेता है, फिर पुनः अपने भीतर ले लेता है। दोनों और बगीचे में पाओगे कि तुम हो। वे ठीक कह रहे हैं। वे गलत हाथ जुड़े होते हैं, इसलिए दोनों हाथों की विद्युत बाहर नहीं फिकती, नहीं कह रहे हैं। एक हाथ से दूसरे हाथ में यात्रा कर जाती है। पूरा शरीर एक सर्किट लेकिन कृष्णमूर्ति को बगीचे में ले आने वाले कुछ लोग थे, में है। एनीबीसेंट थी, लीडबीटर था। उन लोगों ने कृष्णमूर्ति के बचपन में, महावीर की या बुद्ध की मूर्ति आप देखेंगे, तो खयाल में आएगा | जब करीब-करीब कोई होश उनके पास नहीं था...। इसलिए कि पूरा शरीर एक विद्युत चक्र में है। इस बने हुए विद्युत वर्तुल के कृष्णमूर्ति को बचपन की कोई याद नहीं है, बचपन की कोई भीतर इंद्रियों को सिकोड़ लेना अत्यंत आसान है। अत्यंत आसान | याददाश्त नहीं है। बचपन और उनके बीच में एक भारी बैरियर है, है, बहुत सरल है। एक भारी दीवाल खड़ी हो गई है। यह विद्युत का जो वर्तुल निर्मित हो जाता है, यह आपके और कृष्णमूर्ति को अपनी मातृभाषा का कोई भी स्मरण नहीं है। आपकी इंद्रियों के बीच एक प्रोटेक्शन, एक दीवाल बन जाता है। यद्यपि नौ साल का.या दस साल का बच्चा अपनी मातृभाषा को आप अलग कट जाते हैं, इंद्रियां अलग पड़ी रह जाती हैं। कभी नहीं भूलता। दस साल का बच्चा अपनी मातृभाषा काफी ध्यान रहे, विद्युत का स्रोत आपके भीतर है। इंद्रियां केवल | सीख चुका होता है—काफी, करीब-करीब पूरी। लेकिन कृष्णमूर्ति विद्युत का उपयोग करती हैं। और अगर बीच में वर्तुल बन को उसकी कोई याददाश्त नहीं है। जाए-जो कि बिलकुल एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है, एक साइंटिफिक | कृष्णमूर्ति के नाम से एक किताब है, एट दि फीट आफ दि प्रोसेस है-बीच में वर्तुल बन जाए, तो इंद्रियां बाहर रह जाती हैं, मास्टर-श्री गुरु चरणों में। नाम उस पर कृष्णमूर्ति का है। वह तब आप भीतर रह जाते हैं। और आपके और इंद्रियों के बीच में विद्युत लिखी गई। लेकिन वे कहते हैं कि मुझे कुछ याद नहीं, मैंने कब Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतर्यात्रा का विज्ञान लिखी ! वह उनसे लिखवाई गई। सिर्फ मीडियम की तरह उन्होंने उसमें काम किया। उन्हें कुछ स्मरण नहीं कि उन्होंने कब लिखी। वे यह भी नहीं कहते कि मैं उसका लेखक हूं या नहीं। लीडबीटर, एनीबीसेंट और थियोसाफिस्टों ने कृष्णमूर्ति को बहुत ही अचेतन मार्गों से वहां पहुंचाया, जहां पहुंचकर, जहां जागकर उन्होंने पाया कि किसी मार्ग की कोई जरूरत नहीं है । लेकिन वे भी मार्गों से पहुंचे हैं। आज जब वे लोगों से कह देते हैं, कोई मार्ग नहीं है, कोई विधि, कोई व्यवस्था नहीं है, तो सुनने वालों का इतना अहित हो जाता है। कि जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है। कृष्णमूर्ति के सत्यों ने न मालूम कितने लोगों को भयंकर हानियां पहुंचाई हैं। और उसके कारण हैं। उनका कोई कसूर नहीं है। उन्होंने आंख खोली और पाया कि वे बगीचे में हैं। वे आपसे भी कहते हैं, आंख खोलो और पाओगे कि तुम बगीचे में हो ! T नहीं! कई बार ऐसा होता है कि अतीत जन्मों में कोई साधक यात्रा कर चुका होता है, परिपक्व हो गई होती है यात्रा । जैसे निन्यानबे डिग्री पर पानी खौल रहा हो गर्म । अभी भाप नहीं बना है, एक डिग्री की कमी रह गई है। पिछले जन्म से वह निन्यानबे डिग्री की हालत लेकर आया है। और इस जन्म में कुछ छोटी-सी घटना हो जाए कि एक डिग्री गर्मी पूरी हो जाए कि वह भाप बनना शुरू हो जाए। और आप उससे कहें कि मैं कैसे गर्म होऊं ? तो वह कहे, कुछ खांस करने की जरूरत नहीं है। जरा आकर धूप में, खुले आकाश में खड़े हो जाओ; भाप बन जाओगे । और आप जमे हुए बरफ के पत्थर हैं। आप खड़े हो जाना धूप में, कुछ न होगा। बरफ तो कुछ सिकुड़ा हुआ था, एक जगह में सीमित था; और पानी बनकर और फैल जाएंगे; ज्यादा जमीन घेर लेंगे; और मुसीबत खड़ी हो जाएगी। आपके लिए तो भयंकर आग की भट्ठियां चाहिए। एटामिक भट्ठियां ! तब, तब शायद आप भाप बन पाएं उतनी ही तीव्रता से । इसलिए कई बार पिछले जन्म से आया हुआ साधक, अगर बहुत यात्रा पूरी कर चुका है; इंच, आधा इंच बाकी रह गया है; जरा-सा झटका, जरा-सी बात, कोई भी जरा-सी बात, जो हमें लगेगा कि कैसे इससे हो सकता है...! रिझाई ने कहा है, एक फकीर ने, जो कि जरा-सी बात से जाग गया। सोया है एक रात एक वृक्ष के तले। पतझड़ के दिन हैं और वृक्ष से पके पत्ते नीचे गिर रहे हैं। वह खड़ा होकर नाचने लगा और गांव-गांव कहता फिरा कि अगर किसी को भी ज्ञान चाहिए हो, तो पतझड़ के समय में वृक्ष के नीचे सो जाए। और जब पके पत्ते नीचे गिरते हैं, तो ज्ञान घटित हो जाता है ! उसे हुआ। पका पत्ता टूटते देखकर उसके लिए सारी जिंदगी पके पत्ते की तरह टूट गई। मगर वह यात्रा कर चुका है निन्यानबे | दशमलव नौ डिग्री तक। नाइनटी नाइन प्वाइंट नाइन डिग्री पर वह जी रहा होगा। एक सूखा पत्ता गिरा और सौ डिग्री पूरी हो गई बात, वह भाप बनकर उड़ गया। 95 उसका कोई कसूर नहीं है कि वह लोगों से कहता है, ज्ञान | चाहिए? पतझड़ में सूखे वृक्ष के नीचे बैठ जाओ, ध्यान करो। जब | सूखा पत्ता गिरे, मेडिटेट आन इट; उस पर ध्यान करो, ज्ञान हो जाएगा। जिन्होंने सुना, उन्होंने कई ने पतझड़ के पत्तों के नीचे बैठकर | कोशिश की। क्योंकि जब रिझाई जैसा आदमी कहता है, तो ठीक ही कहता है । और रिझाई की आंखें गवाही देती हैं कि वह ठीक कहता है। झूठ कहने का कोई कारण भी तो नहीं है। उसका आनंद कहता है कि उसे घटना घटी है। और सारा गांव जानता है उसका कि पतझड़ में घटी है और सूखे पत्ते गिरते थे रात में, तब घटी है। सुबह हमने इसे नाचते हुए पाया। सांझ उदास था, सुबह आनंद से | भरा था। रात कुछ हुआ है; एक्सप्लोजन हुआ है। झूठ तो कहता नहीं। वह आदमी गवाह है; उसकी जिंदगी गवाह है; उसकी रोशनी, उसकी सुगंध गवाह है। लेकिन फिर अनेक लोगों ने पत्तों | के नीचे रात-रात गुजारी; बहुत ध्यान किया। कुछ न हुआ। सिर्फ | सूखे पत्ते गिरते रहे ! सुबह वे और उदास होकर घर लौट आए। रातभर की नींद और खराब हो गई । . लोगों के स्थान हैं उनकी यात्राओं के। कृष्ण जो कह रहे हैं, वह अर्जुन के लिए कह रहे हैं । अर्जुन जहां खड़ा है वहां से वहां से यात्रा शुरू करनी है। आसन उपयोगी होगा। स्थान, समय उपयोगी होगा। दोपहर में | बैठकर ध्यान करें, बहुत कठिनाई हो जाएगी। कोई कारण नहीं है। क्योंकि दोपहर कोई ध्यान का दुश्मन नहीं है। लेकिन बहुत कठिनाई हो जाएगी। सूर्य जब पूरा उत्तप्त है और सिर के ऊपर आ जाता है, तब सिर को शांत करना बहुत कठिन है। सूर्य जब जाग रहा है सुबह, बालक है अभी अभी गर्मी भी नहीं है उसमें। और जब उसकी किरणें आप पर सीधी नहीं पड़तीं, आड़ी पड़ती हैं; आपके शरीर के आर-पार Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3> जाती हैं, सिर से नीचे की तरफ नहीं आतीं। त्राटक का गहन अभ्यास किया है, तो वह ठीक दोपहर बारह बजे ठीक दोपहर में जब सूर्य सिर के ऊपर है, तब सूर्य की सारी भी ध्यान में ऊपर यात्रा कर सकता है; क्योंकि उसने सूर्य की किरणें आपके शीर्ष से, जिसे सहस्रार कहते हैं योगी, उससे प्रवेश किरणों के साथ सीधा संघर्ष करके तैरने की व्यवस्था कर ली है। करती हैं और आपके सेक्स सेंटर तक चोट पहुंचाती हैं। उस वक्त अन्यथा नहीं। पूरी धारा आपके सिर से यौन केंद्र तक बह रही है। | तो अगर पूछे कि किस समय ध्यान करें? तो जो परम ज्ञानी है, और ध्यान की यात्रा उलटी है। ध्यान की यात्रा यौन केंद्र से वह कहेगा, समय का कोई सवाल नहीं है। ध्यान तो टाइमलेसनेस सहस्रार की तरफ है। और सूर्य की किरणें दोपहर के क्षण में सहस्रार है। आप समय के बाहर चले जाएंगे। समय का कोई सवाल ही से यौन केंद्र की तरफ आ रही हैं। नदी जैसे उलटी जा रही हो और नहीं है। सुबह हो, कि दोपहर हो, कि सांझ हो। आप उलटे तैर रहे हों, ऐसी तकलीफ होगी। ऐसी तकलीफ होगी! | वह ठीक कह रहा है। ध्यान की जो परम स्थिति है. वह समय के सुबह यह तकलीफ नहीं होगी। सूर्य की किरणें आर-पार जा रही बाहर है, कालातीत है। लेकिन ध्यान का प्रारंभ समय के भीतर है, हैं आपके। आपको सूर्य की किरणों से नहीं लड़ना पड़ेगा। संध्या | इन दि टाइम। ध्यान का अंत समय के बाहर है। ध्यान का प्रारंभ . भी यह तकलीफ नहीं होगी। फिर किरणें आर-पार जा रही हैं। समय के भीतर है। और जो समय की व्यवस्था को ठीक से न समझे, इसलिए प्रार्थना का नाम ही धीरे-धीरे संध्या हो गया। संध्या का वह ध्यान में व्यर्थ की तकलीफें पाएगा, व्यर्थ के कष्ट पाएगा। मतलब ही इतना है, वह क्षण, जब सूर्य की किरणें आर-पार जा अकारण मुसीबतें खड़ी कर लेगा; व्यर्थ ही अपने हारने का इंतजाम रही हैं। चाहे सुबह हो, चाहे सांझ हो, बीच का गैप-जब सूरज | करेगा। जीतने की सुविधाएं जो मिल सकती थीं, वह खो देगा। आपके ऊपर से सीधा प्रभाव नहीं डालता। __ करीब-करीब ऐसा है, जैसे कि नदी में नाव चलाते हैं पाल लेकिन रात के बारह बजे, आधी रात फायदा हो सकता है। बांधकर। जब हवाओं का रुख एक तरफ होता है, तो यात्रा करते उसका उपयोग योगियों ने किया है, अर्धरात्रि का। क्योंकि तब | | हैं। पाल को खुला छोड़ देते हैं, फिर मांझी को, नाविक को पतवार सूरज आपके ठीक नीचे पहुंच गया। और सूरज की किरणें आपके | नहीं चलानी पड़ती। हवाएं पाल में भर जाती हैं और नाव यात्रा करने यौन केंद्र से सहस्रार की तरफ जाने लगी हैं। दिखाई नहीं पड रही लगती है। हैं, पर अंतरिक्ष में उनकी यात्रा जारी है। उस वक्त नदी सीधी बह | ___ ध्यान की नाव के भी क्षण हैं, स्थितियां हैं। जब हवाएं अनुकूल रही है। आप उसमें बह जाएं, तो सरलता से तैर जाएंगे। तैरने की | होती हैं और ध्यान की हवाएं सूर्य की किरणें हैं-जब हवाएं भी शायद जरूरत न पड़े; बह जाएं, जस्ट फ्लोट, और आप ऊपर अनुकूल होती हैं, जब ग्रेविटेशन अनुकूल होता है, जब तरंगें की तरफ निकल जाएंगे। | अनुकूल होती हैं, जब चारों तरफ ठीक अनुकूल स्थिति होती है, लेकिन दोपहर के क्षण में जब सूरज आपके ऊपर से नीचे की तब पाल खुला छोड़ दें; बहुत कम श्रम में यात्रा हो जाएगी। तरफ यात्रा कर रहा है, तब आप फ्लोट न कर सकेंगे, बहन और जब सब चीजें प्रतिकूल होती हैं, तो फिर बहुत मेहनत सकेंगे। तैरना भी मुश्किल पड़ेगा; क्योंकि सूर्य की किरणें आपके | करनी पड़ती है। तब भी जरूरी नहीं है कि दूसरा किनारा मिल जाए। जीवन का आधार हैं ! सूर्य जीवन है, उससे लड़ना बहुत मुश्किल | | हवाएं बहुत तेज हैं, नदी की धार बहुत प्रगाढ़ है। आप बहुत मामला है। कमजोर हैं। बहुत संभावना तो यही है कि थककर अपने किनारे पर इसलिए सूर्य पर त्राटक शुरू हुआ। वह अभ्यास है सूर्य से वापस लग जाएं। हाथ जोड़ लें कि यह अपने से न हो सकेगा। लड़ने का। वह आपके खयाल में नहीं होगा। त्राटक करने वाले के यही होता है। ध्यान में जो लोग भी लगते हैं, ठीक व्यवस्था न खयाल में भी नहीं होता; क्योंकि किताब में कहीं कोई पढ़ लेता है जानने से, राइट ट्यूनिंग न जानने से व्यर्थ परेशान होते हैं और और करना शुरू कर देता है। परेशान होकर फिर यह सोच लेते हैं कि शायद अपने भाग्य में नहीं सूर्य की किरणों पर जो त्राटक है, घंटों लंबा अभ्यास है खुली है, अपनी नियति में नहीं है, अपने कर्म ठीक नहीं हैं, अपनी पात्रता आंखों से, वह इस बात की चेष्टा है कि हम सूर्य की किरणों के नहीं है। ऐसा अपने को समझाकर, वह जो दुनिया है व्यर्थ की, उसमें विपरीत लड़ने के लिए अपने को तैयार कर रहे हैं! अगर किसी ने फिर वापस लौटकर लग जाते हैं, अपने किनारे पर लग जाते हैं। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतर्यात्रा का विज्ञान ऐसा न हो, इसलिए कृष्ण अर्जुन को ठीक प्राथमिक बातें कह | | ध्यान के ही माध्यम से खोजी गई थी कि सहयोगी हो सकती है। रहे हैं। उसकी अपनी पूरी वैज्ञानिक प्रक्रिया है। लुकमान के जीवन में उल्लेख है कि लुकमान पौधों के पास जाता, उनके पास आंख बंद करके, ध्यान करके बैठ जाता और उन प्रश्नः भगवान श्री, इस श्लोक में दो और छोटी बातें || | पौधों से पूछता कि तुम किस काम में आ सकते हो, मुझे बता दो! साफ करें, तो अच्छा हो। पहली बात कुशा, मृगचर्म | | तुम किस काम में आ सकते हो? तुम्हारे पत्ते किस काम में आएंगे, और वस्त्र, यह क्रम दिया है, उपरोपरि। और दूसरी | किस बीमारी के काम आएंगे? तुम्हारी जड़ किस काम में आएगी? बात, शुद्ध भूमि। इस पर कुछ कहें। | तुम्हारी छाल किस काम में आएगी? ___ कहानी अजीब-सी मालूम पड़ती है, लेकिन लुकमान ने लाखों पौधों के पत्ते, जड़ों और उन सबका विवरण दिया है कि वे किस क श का बहुत उपयोग ध्यान के लिए किया गया है, कई काम में आएंगे। पा कारणों से। एक तो. जिन दिनों ध्यान की प्रक्रिया असंभव मालम पडता है कि पौधे बता दें। लेकिन जबलकमान विकसित हो रही थी इस पृथ्वी पर, जिन क्षणों में ध्यान | की किताब हाथ में लगी वैज्ञानिकों के, तो कठिनाई यह हुई कि का उदघाटन हो रहा था, आविष्कार हो रहा था, उन क्षणों से बहुत | दूसरी बात और भी असंभव है कि लुकमान के पास कोई संबंध कुश का है। प्रयोगशाला रही हो, जिसमें लाखों पौधों की करोड़ों प्रकार की हमारे पास शब्द है उस समय का, कुशल। वह कुश से ही बना | | चीजों का वह पता लगा पाए। वह और भी असंभव है। क्योंकि हुआ शब्द है। आपने कभी सोचा न होगा कि हम एक आदमी को | | लेबोरेटरी मेथड्स तो अब विकसित हुए हैं; और केमिकल कहते हैं कि बहुत कुशल ड्राइवर है; कहते हैं, बहुत कुशल | | एनालिसिस तो अब विकसित हुई है, लुकमान के वक्त में तो थी अध्यापक है; लेकिन कुशल का मतलब आपको पता है। | ही नहीं। लेकिन आपकी केमिकल एनालिसिस, रासायनिक कुशल का कुल मतलब इतना ही है, ठीक कुश को ढूंढ़ लेने प्रक्रिया से और रासायनिक विश्लेषण से आप जो पता लगा पाते वाला। सभी घास कुश नहीं है। तो जिन दिनों ध्यान इस पृथ्वी पर हैं, वह गरीब लुकमान बहुत पहले अपनी किताबों में लिख गया बड़ा व्यापक था, विशेषकर इस देश में, और जिस दिन ध्यान के है, सुश्रुत अपनी किताबों में लिख गया है, धनवंतरि ने उसकी बात प्राथमिक चरण हमने उदघाटित किए थे, उस दिन कुशल उस कर दी है। और इनके पास कोई प्रयोगशाला नहीं थी, कोई आदमी को कहते थे, जो हजारों तरह की घास में से उस घास को प्रयोगशाला की विधियां नहीं थीं। इनके पास जानने का जरूर कोई खोज लाए, जो ध्यान में सहयोगी होती है, उस कुश को खोज लाए। | और विधि, कोई और मेथड था, कोई और उपाय था। एक विशेष तरह की घास अपने साथ एक विशेष तरह का वह ध्यान का उपाय है। ध्यान के गहरे क्षण में आप किसी भी वातावरण, एक विशेष तरह की ताजगी ले आती है। वस्तु के साथ तादात्म्य स्थापित कर सकते हैं। हमें अनुभव होता है कई बार कि कुछ चीजों की मौजूदगी । मनोवैज्ञानिक उसे एक खास नाम देते हैं, पार्टिसिपेशन कैटेलिटिक का काम करती है—कुछ चीजों की मौजूदगी। आपने मिस्टीक। एक बहुत रहस्यमय ढंग से आप किसी के साथ एकात्म अपने चारों तरफ फूल रख लिए हैं, आपने अपने चारों तरफ एक हो सकते हैं। सुगंध छिड़क रखी है, आपने अपने चारों तरफ धूप जला रखी है, | | ध्यान के क्षण में, गहरी शांति और मौन के क्षण में, अगर आप तो आप एक विशेष मौजूदगी के भीतर घिर गए हैं। इस मौजूदगी | | गुलाब के फूल को सामने रख लें और इतने एकात्म हो जाएं कि में कुछ बातें सोचनी मुश्किल, कुछ बातें सोचनी आसान हो | | उस गुलाब से पूछ सकें कि बोल, तू किस काम में आ सकता है ? जाएंगी। जब चारों तरफ आपके सुगंध हो, तो दुर्गंध के खयाल | तो गलाब नहीं बोलेगा, लेकिन आपके प्राण ही. आपकी अंतर्प्रज्ञा आने मुश्किल हो जाएंगे। ही कहेगी, इस काम में। कुछ विशेष प्रकार की घास, कुछ विशेष प्रकार की धूप, जो कि तो कुशल उस व्यक्ति को कहते थे, जो अनंत तरह की घासों के Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < गीता दर्शन भाग-3> बीच से उस कुश घास को खोज लाता था, जो ध्यान में सहयोगी के कपड़े भी अलग रख दें, तो आप ही रखेंगे, आप ही उठाएंगे; होने का वातावरण निर्मित करती है। कहीं तो रखेंगे। और अब हमारे घरों में ऐसी कोई जगह नहीं है, इसलिए कृष्ण ने कहा सबसे पहले, कुश। | जिसे हम समस्त प्रभावों के बाहर रख सकें। वस्त्र! विशेष वस्त्र। सभी वस्त्र सहयोगी नहीं होते। जिन वस्त्रों अगर आप अपने घर में एक छोटा-सा कोना समस्त प्रभावों के में आपने भोजन किया है, उन्हीं वस्त्रों में ध्यान करना कठिन होगा। बाहर रख सकते हैं, तो वह मंदिर हो गया। मंदिर का उतना ही जिन वस्त्रों में आपने संभोग किया है, उन्हीं वस्त्रों में ध्यान करना मतलब है। गांव में अगर एक घर आप ऐसा रख सकते हैं, जो तो महा कठिन होगा। जिस बिस्तर पर लेटकर आपने कामवासना समस्त प्रभावों के बाहर है, तो वह मंदिर है। मंदिर का उतना ही के विचार किए हैं, उसी बिस्तर पर बैठकर ध्यान करना बहुत अर्थ है। लेकिन कुछ भी अब बाहर रखना बहुत मुश्किल है। एक मुश्किल होगा। क्योंकि प्रत्येक वृत्ति और प्रत्येक वासना अपने कोना...। चारों तरफ की चीजों को इनफेक्ट कर जाती है। इसलिए वे कह रहे हैं, शुद्ध स्थान। ऐसे लोग आज भी पृथ्वी पर हैं और ऐसी प्रक्रियाएं भी हैं कि शुद्ध स्थान से मतलब है, अप्रभावित स्थान। जो जीवन की . मेरा रूमाल उन्हें दे दिया जाए, तो वे मेरे बाबत सब कुछ बता देंगे, निम्नतर वासनाएं हैं, उनसे बिलकुल अप्रभावित स्थान। और इस हालांकि वे कुछ भी नहीं जानते कि मैं कौन हूं और यह रूमाल | तरह के अप्रभावित स्थान का परिणाम गहरा है। और वह घर बहुत किसका है। क्योंकि यह रूमाल मेरे साथ रहकर मेरी सब तरह की | गरीब है, चाहे वह कितना ही अमीर का घर हो, जिस घर में ऐसी संवेदनाओं को, मेरी सब तरह की तरंगों को, मेरे सब तरह के | थोड़ी-सी जगह नहीं, जिसे शुद्ध कहा जा सके। किस जगह को प्रभाव को आत्मसात कर जाता है, पी जाता है। शुद्ध कहें? सूती कपड़े बहुत तीव्रता से पीते हैं, रेशमी कपड़े बहुत मुश्किल जिस जगह बैठकर आपने कभी कोई दुष्विचार नहीं सोचा; जिस से पीते हैं। रेशमी कपड़े बहुत रेसिस्टेंट हैं। इसलिए ध्यान के लिए जगह बैठकर आपने कोई दुष्कर्म नहीं किया; जिस जगह बैठकर रेशमी कपड़ों का बहुत दिन उपयोग किया जाता रहा है। वे | आपने सिवाय परमात्मा के स्मरण के और कुछ भी नहीं किया; बिलकुल रेसिस्टेंट न के बराबर हैं। कम से कम दूसरी चीजों के | जिस जगह बैठकर आपने ध्यान, प्रार्थना, पूजा के और कुछ भी प्रभावों को पीते हैं, इंप्रेसिव नहीं हैं, उन पर इंप्रेशन नहीं पड़ता। कम | नहीं किया; जिस जगह प्रवेश करने के पहले आप अपनी सारी पड़ता है, फिसल जाता है, बिखर जाता है, टूट जाता है। क्षुद्रताओं को बाहर छोड़ गए—ऐसा एक छोटा-सा कोना! सूती कपड़ा एकदम पी जाता है। तो सूती कपड़े की खूबी भी है, और निश्चित ही ऐसा कोना निर्मित हो जाता है। और अगर इस खतरा भी है। अगर ध्यान के वक्त सूती कपड़े का उपयोग करें, तो कोने पर सैकड़ों लोगों ने प्रयोग किया हो, तो वह धीरे-धीरे घनीभूत वह ध्यान को पी जाएगा। लेकिन फिर उसकी सुरक्षा करनी पड़ेगी, होता चला जाता है, क्रिस्टलाइज हो जाता है। वह आपकी इस उसको बचाना पड़ेगा। क्योंकि वह दूसरे प्रभावों को भी इसी तरह दुनिया के बीच एक अलग दुनिया बस जाती है। वह एक अलग पी जाएगा। और चौबीस घंटे में तो ध्यान का मुश्किल से कभी एक | कोना हो जाता है। जिसके भीतर प्रवेश करते से ही परिणाम शुरू क्षण आएगा, बाकी तो क्षण बहुत होंगे; वह सब पी जाएगा। हो जाएंगे। जिसके भीतर कोई अजनबी आदमी भी आएगा, तो इसलिए रेशमी कपड़े का उपयोग किया जाता रहा। वह प्रभावों परिणाम शुरू हो जाएंगे। को नहीं पीता है। और आपके चारों तरफ एक निष्प्रभाव की धारा । कई बार आपको अनुभव में आया होगा, इससे उलटा आया बना देता है। स्वच्छतम हों. कोरे हों. रेशमी हों। होगा, लेकिन बात तो समझ में आ जाएगी। कई बार आपको और फिर जिन्होंने पाया कि कपड़े का किसी भी तरह उपयोग | अनुभव में आया होगा, किसी घर में प्रवेश करते, किसी स्थान पर करो, कुछ न कुछ कठिनाई होती है, तो महावीर ने दिगंबर होकर बैठते, मन बहुत दुष्विचारों से भर जाता है। किसी व्यक्ति के पास प्रयोग किया। उसके कारण थे। ऐसे ही नग्न नहीं हो गए। ऐसा कोई | | जाते, मन बहुत दुष्कर्मों की वासनाओं से भर जाता है। इससे उलटा दिमाग खराब नहीं था। कारण थे। कैसे ही कपड़े का उपयोग करो, | | बहुत कम खयाल में आया होगा। क्योंकि इससे उलटे आदमी बहुत कुछ न कुछ प्रभाव संक्रमित हो जाते हैं। आप अगर अपने ध्यान | कम हैं, इससे उलटी जगह बहुत कम हैं कि किसी के पास जाकर Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतर्यात्रा का विज्ञान मन उड़ान लेने लगता है आकाश की, जमीन को छोड़ देता है। क्षुद्र से हट जाता है, विराट की यात्रा करने लगता है— किसी के पास । इस तरह किसी के पास होने का पुराना नाम सत्संग था। सत्संग का मतलब किसी को सुनना नहीं था । सत्संग का मतलब कोई व्याख्यान नहीं था। सत्संग का मतलब, सन्निधि; ऐसे व्यक्ति की सन्निधि, जहां पहुंचकर आपकी अंतर्यात्रा को सुगमता मिलती है। इसलिए इस मुल्क में दर्शन का बड़ा मूल्य हो गया। पश्चिम के लोग बहुत हैरान होते हैं कि दर्शन से क्या होगा? किसी के पास जाकर आप नमस्कार कर आए, उससे क्या होगा? पश्चिम के लोगों को पता नहीं कि कोई गहरा वैज्ञानिक कारण दर्शन के पीछे है। अगर किसी पवित्र व्यक्ति के पास जाकर आप दो क्षण खड़े भी हुए हैं, दो क्षण सिर भी झुकाया है, तो परिणाम होगा। सिर झुकाने का भी विज्ञान तो है ही। क्योंकि जैसे ही आप सिर झुकाते हैं, उस पवित्र व्यक्ति की तरंगें आप में प्रवेश करने के लिए सुविधा पाती हैं, आप रिसेप्टिव होते हैं। किसी के चरणों में सिर रखने का कुल कारण इतना था कि आप अपने को पूरा का पूरा सरेंडर करते हैं उसकी किरणों के लिए, उसके रेडिएशन के लिए, वह आप में प्रवेश कर जाए। एक क्षण का भी वैसा स्पर्श, एक आंतरिक स्नान करा जाता है। शुद्ध स्थान के लिए कृष्ण कह रहे हैं। शुद्ध स्थान हो, ऐसी वस्तुएं आस-पास मौजूद हों, जो ध्यान में यात्रा करवाती हैं। इस तरह की बहुत-सी चीजें खोज ली जा सकीं। ऐसी सुगंधें खोज ली गईं, जो ध्यान में सहयोगी हो जाती हैं। ऐसी वस्तुएं खोज ली गईं, जो ध्यान में सहयोगी हो जाती हैं। ऐसे चार्ज्ड आब्जेक्ट्स खोज लिए गए, जो ध्यान में सहयोगी हो जाते हैं। आज भी, आज भी बचाने की कोशिश चलती है, लेकिन पता नहीं रहता। पता नहीं है, इसलिए बचाना बहुत मुश्किल होता जा रहा है। आज भी कोशिश चलती है अंधेरे में टटोलती हुई, लेकिन उसके साइंटिफिक, उसके वैज्ञानिक कारण खो जाने की वजह से जो बचाने की कोशिश में लगा है, वह बुद्धिहीन मालूम पड़ता है। जो तोड़ने की कोशिश में लगा है, बुद्धिमान मालूम पड़ता है। और उस व्यक्ति को बहुत कठिनाई हो जाती है, जो जानता है कि बहुत-सी चीजें तोड़ देने जैसी हैं, क्योंकि उनके पीछे कोई वैज्ञानिक कारण नहीं, वे सिर्फ समय की धारा में जुड़ गई हैं। और बहुत-सी चीजें बचा लेने जैसी हैं, क्योंकि उनके पीछे कोई वैज्ञानिक कारण हैं । यद्यपि समय की धारा में वैज्ञानिक कारण भूल गए हैं और खो गए हैं। यह बाह्य परिस्थिति का निर्माण करना है एक मनःस्थिति के जन्माने के लिए। और निश्चित ही बाहर की परिस्थिति में सहारे खोजे जा सकते हैं, क्योंकि बाहर की परिस्थिति में विरोध और अड़चन भी होती है। समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः । संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ।। १३ ।। प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः । मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ।। १४ । उसकी विधि इस प्रकार है कि काया, सिर और ग्रीवा को समान और अचल धारण किए हुए दृढ़ होकर, अपने नासिका के अग्रभाग को देखकर, अन्य दिशाओं को न देखता हुआ और ब्रह्मचर्य के व्रत में स्थित रहता हुआ, भयरहित तथा अच्छी प्रकार शांत अंतःकरण वाला और सावधान होकर मन को वश में करके, मेरे में लगे हुए चित्त वाला और मेरे परायण हुआ स्थित होवे । स विधि के और अगले कदम। एक, शरीर बिलकुल सीधा हो, स्ट्रेट, जमीन से नब्बे का कोण बनाए। वह जो आपकी रीढ़ है, वह जमीन से नब्बे का कोण बनाए, तो सिर सीध में आ जाएगा। और जब आपकी बैक बोन, आपकी रीढ़ जमीन से नब्बे का कोण बनाती है | और बिलकुल स्ट्रेट होती है, तो आप करीब-करीब पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के बाहर हो जाते हैं— करीब-करीब, एप्रोक्सिमेटली । और पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के बाहर हो जाना ऊर्ध्वगमन के लिए मार्ग बन जाता है, एक। | 99 उ दूसरी बात, दृष्टि नासाग्र हो । पलक झुक जाएगी, अगर नासाग्र | दृष्टि करनी है। नाक का अग्र भाग देखना है, तो पूरी आंख खोले रखने की जरूरत न रह जाएगी। आंख झुक जाएगी। अगर आप बैठे हैं, तो मुश्किल से दो फीट जमीन आपको दिखाई पड़ेगी । अगर खड़े हैं, तो चार फीट दिखाई पड़ेगी। लेकिन वह भी ठीक से दिखाई | नहीं पड़ेगी और धुंधली हो जाएगी, धीमी हो जाएगी। दो कारण हैं। एक, अगर बहुत देर तक नासाग्र दृष्टि रखी जाए, तो पूरा संसार Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 गीता दर्शन भाग-3 आपको, आपके चारों तरफ फैला हुआ संसार, वास्तविक कम, | में ठहर गया। स्वप्नवत ज्यादा प्रतीत होगा। जो कि बहत गहरा उपयोग है। अगर और जब आंख नासाग्र होती है. जब दष्टि नासाग्र होती है. तो आप ऐसी अर्धखली आंख रखकर नासाग्र देखेंगे, तो चारों तरफ आपको एक और अदभत अनभव होगा, जो उसका दसरा हिस्सा जो जगत आपको बहुत वास्तविक, ठोस मालूम पड़ता है, वह | है। जब दृष्टि नासाग्र होगी, तो आपको आज्ञा चक्र पर जोर पड़ता स्वप्नवत प्रतीत होगा। हुआ मालूम पड़ेगा। दोनों आंखों के मध्य में, दोनों आंखों के मध्य इस जगत के ठोसवत प्रतीत होने में आपके देखने का ढंग ही | | बिंदु पर, इम्फेटिकली, आपको जोर पड़ता हुआ मालूम पड़ेगा। कारण है। इसलिए जिसे ध्यान में जाना है, उसे जगत वास्तविक न जब आंख आधी खुली होगी और आप नासाग्र देख रहे होंगे, तो मालूम पड़े, तो अंतर्यात्रा आसान होगी। जगत धुंधला और नासाग्र तो आप देखेंगे, लेकिन नासांत पर जोर पड़ेगा। देखेंगे नाक ड्रीमलैंड मालूम पड़ने लगेगा। के अग्र भाग को और नाक के अंतिम भाग, पीछे के भाग पर जोर कभी देखना आप, बैठकर सिर्फ नासाग्र दृष्टि रखकर, तो बाहर पड़ना शुरू होगा। वह जोर बड़े कीमत का है। क्योंकि वहीं वह बिंदु की चीजें धीरे-धीरे धुंधली होकर स्वप्नवत हो जाएंगी। उनका है, वह द्वार है, जो खुले तो ऊर्ध्वगमन शुरू होता है। ठोसपन कम हो जाएगा, उनकी वास्तविकता क्षीण हो जाएगी। | आज्ञा चक्र के नीचे संसार है, अगर हम चक्रों की भाषा में उनका यथार्थ छिन जाएगा, और ऐसा लगेगा जैसे कोई एक बड़ा | समझें। आज्ञा चक्र के ऊपर परमात्मा है, आज्ञा चक्र के नीचे संसार स्वप्न चारों तरफ चल रहा है। है। अगर हम चक्रों से विभाजन करें, तो आज्ञा चक्र के नीचे, दोनों यह एक कारण, बाहरी। बहुत कीमती है। क्योंकि संसार स्वप्न आंखों के मध्य बिंदु के नीचे जो शरीर की दुनिया है, वह संसार से मालूम पड़ने लगे, तो ही परमात्मा सत्य मालूम पड़ सकता है। जब जुड़ी है। और आज्ञा चक्र के ऊपर का जो मस्तिष्क का भाग है, वह तक संसार सत्य मालूम पड़ता है, तब तक परमात्मा सत्य मालूम | परमात्मा से जुड़ा है। उस पर जोर पड़ने से वह जोर पड़ना एक नहीं पड़ सकता। इस जगत में दो सत्यों के होने का उपाय नहीं है। तरह की चाबी है, जिससे बंद द्वार खोलने के लिए चेष्टा की जा इसमें एक तरफ से सत्य टूटे, तो दूसरी तरफ सत्य का बोध होगा। रही है। वह सीक्रेट लाक है। कहें कि उसको खोलने की कुंजी यह आपसे आंख बंद कर लेने को कहा जा सकता था। लेकिन आंख है। जैसा कि आपने कई ताले देखे होंगे, जिनकी चाबी नहीं होती, बंद कर लेने से संसार स्वप्नवत मालूम नहीं पड़ेगा। बल्कि डर यह नंबर होते हैं। नंबर का एक खास जोड़ बिठा दें, तो ताला खुल है कि आंख बंद हो जाए, तो आप भीतर सपने देखने लगेंगे, जो कि जाएगा। नंबर का खास जोड़ न बिठा पाएं, तो ताला नहीं खुलेगा। सत्य मालूम पड़ें। अगर आंख पूरी बंद है, तो डर यह है कि आप यह जो आज्ञा चक्र है, इसके खोलने की एक सीक्रेट की है, एक रेवरी में चले जाएंगे, आप दिवास्वप्न में चले जाएंगे। | गुप्त कुंजी है। और वह गुप्त कुंजी यह है कि जो शक्ति, जो विद्युत पश्चिम में एक विचारक है, रान हुबार्ड। वह ध्यान को भूल से हमारी आंखों से बाहर जाती है, उसी विद्युत को एक विशेष कोण दिवास्वप्न से एक समझ बैठा। आंख बंद करके स्वप्न में खो जाने | पर रोक देने से उस विद्युत का पिछला हिस्सा आज्ञा चक्र पर चोट को ध्यान समझ बैठा। जानकर भारत में-आंख न तो पूरी खुली | | करने लगता है। वह चोट उस दरवाजे को धीरे-धीरे खोल देती है। रहे, क्योंकि पूरी खुली रही तो बाहर की दुनिया बहुत यथार्थ है; न | | वह दरवाजा खुल जाए, तो आप एक दूसरी दुनिया में, ठीक दूसरी पूरी बंद हो जाए, नहीं तो भीतर के स्वप्नों की दुनिया बहुत यथार्थ दुनिया में छलांग लगा जाते हैं। नीचे की दुनिया बंद हो गई। हो जाएगी। दोनों के बीच में छोड़ देना है। वह भी एक संतुलन है, इसमें तीसरी बात कृष्ण ने कही है, ब्रह्मचर्य व्रत में ठहरा हुआ। वह भी एक समता है, वह भी दो द्वंद्वों के बीच में एक ठहराव है। ध्यान के इस क्षण में जब आधी आंख खुली हो, नासाग्र हो दृष्टि न खुली पूरी, न बंद पूरी-अर्धखुली, नीमखुली, आधी खुली। | और आज्ञा चक्र पर चोट पड़ रही हो, अगर आपके चित्त में जरा वह जो आधी खुली आंख है, उसका बड़ा राज है। भीतर आधी | भी कामवासना का विचार आ गया, तो वह जो द्वार खोलने की खुली आंख से सपने पैदा करना मुश्किल है और बाहर की दुनिया कोशिश चल रही थी, वह समाप्त हो गई; और आपकी समस्त को यथार्थ मानना मुश्किल है। जैसे कोई अपने मकान की देहलीज जीवन ऊर्जा नीचे की तरफ बह जाएगी। क्योंकि जीवन ऊर्जा उसी पर खड़ा हो गया; न अभी भीतर गया, न अभी बाहर गया, बीच केंद्र की तरफ बहती है, जिसका स्मरण आ जाता है। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अंतर्यात्रा का विज्ञान - कभी आपने सोचा है कि जैसे ही कामवासना का विचार आता | बेहोशी में सोचें, तभी ठीक है। होश में सोचेंगे, तो कहेंगे, क्या है, जननेंद्रिय के पास का केंद्र फौरन सक्रिय हो जाता है। विचार तो मूढ़ता की बातें सोच रहा हूं! खोपड़ी में चलता है, लेकिन केंद्र जननेंद्रिय के पास, सेक्स सेंटर इसलिए कामुक व्यक्ति को शराब बड़ी सहयोगी हो जाती है। के पास सक्रिय हो जाता है। बल्कि कई दफा तो ऐसा होता है कि | उन व्यक्तियों को, जिनकी काम-शक्ति क्षीण हो गई हो, उनको भी आपको भीतर कामवासना का विचार चल रहा है, इसका पता ही शराब बड़ी सहयोगी हो जाती है। क्योंकि वे फिर बेहोशी से इतने तब चलता है, जब सेक्स सेंटर सक्रिय हो जाता है। वह पीछे भर जाते हैं कि फिर काम-चिंतन में लीन हो पाते हैं। धीरे-धीरे सरकता रहता है। लेकिन विचार तो मस्तिष्क में चलता तो ध्यान करने के पहले अगर आप घंटेभर आंख बंद कर लें। है और केंद्र बहुत दूर है, वह सक्रिय हो जाता है! उसकी भी कुंजी आधी आंख नहीं, आंख बंद कर लें। और सचेत रूप से मेडिटेट है वही। अगर विचार कामवासना का चलेगा, तो आपकी जीवन आन सेक्स-सचेत रूप से, अचेत रूप से नहीं—जानकर ही कि ऊर्जा कामवासना के केंद्र की तरफ प्रवाहित हो जाएगी। अब मैं कामवासना पर चिंतन शुरू करता हूं। और शुरू करें। पांच ध्यान के क्षण में अगर कामवासना का विचार चला, तो आप | | मिनट से ज्यादा आप न कर पाएंगे। और जैसे ही आप पाएं कि अब ऊपर तो यात्रा कम करेंगे, बल्कि इतनी नीचे की यात्रा कर जाएंगे. | करना मुश्किल हुआ जा रहा है, अब कर ही नहीं सकता, तब ध्यान जितनी आपने कभी भी न की होगी। इसलिए सचेत किया है। में प्रवेश करें। तो शायद पंद्रह मिनट, आधा घंटा आपके चित्त में साधारणतः भी आप कामवासना में इतने नीचे नहीं जा सकते, कोई काम का विचार नहीं होगा। क्योंकि अर्जुन कोई ब्रह्मचारी नहीं जितना आधी आंख खुली हो, नासाग्र हो दृष्टि और उस वक्त अगर है। पूर्ण ब्रह्मचारी हो, तब तो यह कोई सवाल नहीं उठता। तब तो काम-विचार चल जाए, तो आप इतनी तीव्रता से कामवासना में | ब्रह्मचर्य की याद दिलाने की भी जरूरत नहीं है। गिरेंगे, जिसका हिसाब नहीं। एक बहुत मजे की घटना आपसे कहूं। इसलिए बहुत लोगों को ध्यान की प्रक्रिया शुरू करने पर महावीर के पहले जैनों के तेईस तीर्थंकरों ने ब्रह्मचर्य की कभी कामवासना के बढ़ने का अनुभव होता है। उसका कारण है। बहुत | बात नहीं की, नेवर। महावीर के पहले तेईस तीर्थंकरों ने जैनों के लोगों को...न मालूम कितने लोग मुझे आकर कहते हैं कि यह क्या कभी नहीं कहा, ब्रह्मचर्य। वे चार धर्मों की बात करते उलटा हुआ? हमने ध्यान शुरू किया है, तो कामवासना और ज्यादा थे-अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, अचौर्य। इसलिए पार्श्वनाथ तक मालूम पड़ती है! उसके ज्यादा मालूम पड़ने का कारण है। के धर्म का नाम चतुर्याम धर्म है। ___ अगर ध्यान के क्षण में कामवासना पकड़ गई, तो कामवासना महावीर को ब्रह्मचर्य जोड़ना पड़ा, पांच महाव्रत बनाने पड़े; एक को ध्यान की जो ऊर्जा पैदा हो रही है, वह भी मिल जाएगी। और जोड़ना पड़ा। जो लोग खोज-बीन करते हैं इतिहास की, उन्हें . इसलिए ब्रह्मचर्य व्रत में थिर होकर। उस क्षण तो कम से कम कोई | बड़ी हैरानी होती है कि क्या महावीर को ब्रह्मचर्य का खयाल आया! काम-विचार न चलता हो। बाकी तेईस तीर्थंकरों ने क्यों ब्रह्मचर्य की बात नहीं की? तो अगर आपको चलाना ही हो, तो एक सरल तरकीब आपको ये तेईस तीर्थंकर जिन लोगों से बात कर रहे थे, वे निष्णात कहता हूं। ध्यान करने के पहले घंटेभर काम-चिंतन कर लें। पक्का ब्रह्मचारी थे। ये उपदेश जिनको दिए गए थे, उनके लिए ब्रह्मचर्य ही कर लें कि परमात्मा को स्मरण करने के पहले घंटेभर बैठकर | सहज था। यह लोक-चर्चा नहीं थी। यह आम जनता से कही गई काम का चिंतन करेंगे, यौन-चिंतन करेंगे। बात नहीं थी, जो कि ब्रह्मचारी नहीं हैं। और यह बड़े मजे की बात है कि अगर कांशसली यौन-चिंतन | ___महावीर ने पहली दफा तीर्थंकरों के आकल्ट मैसेज को, जो बहुत करें, तो घंटाभर बहुत दूर है, पांच मिनट करना मुश्किल हो गुप्त मैसेज थी, बहुत छिपी मैसेज थी, जो कि बहुत गुप्त राज था जाएगा-चेतन होकर अगर करें, सावधानी से अगर करें। | और केवल निष्णात साधकों को दिया जाता था, उसको मासेस का काम-चिंतन की एक दूसरी कुंजी है कि वह अचेतन चलता है, बनाया। और इसीलिए दूसरी घटना घटी कि तेईस तीर्थकर फीके चेतन नहीं। अगर आप होशपूर्वक करेंगे, तो आप खुद ही अपने पड़ गए और ऐसा लगने लगा कि महावीर जैन धर्म के स्थापक हैं। पर हंसेंगे कि यह मैं क्या-क्या मूढ़ता की बातें सोच रहा हूं! वह तो क्योंकि वे पहले, पहले पापुलाइजर हैं, पापुलाइज करने वाले हैं, | 101] Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 गीता दर्शन भाग-3 लोकप्रिय करने वाले पहले व्यक्ति हैं। पहली दफा जनता में उन्होंने वह बात कही, जो कि सदा थोड़े साधकों के बीच, थोड़े गहन साधकों के बीच कही गई थी। इसलिए तेईस तीर्थंकरों को ब्रह्मचर्य की कोई बात नहीं करनी पड़ी। महावीर को बहुत जोर से करनी पड़ी। सबसे ज्यादा जोर ब्रह्मचर्य पर देना पड़ा, क्योंकि अब्रह्मचारियों के बीच चर्चा की जा रही थी। कृष्ण जब अर्जुन से कह रहे हैं कि ब्रह्मचर्य व्रत में ठहरा हुआ! इसका यह मतलब नहीं है कि ब्रह्मचारी, इसका इतना ही मतलब है कि ध्यान के क्षण में ब्रह्मचर्य व्रत में ठहरा हुआ। हां, यह बड़े मजे की बात है कि अगर कोई ध्यान के क्षण में ब्रह्मचर्य में ठहर जाए, क्षणभर को भी ठहर जाए, तो फिर अब्रह्मचर्य में जाना रोज-रोज मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि जब एक दफे ऊर्जा ऊपर चढ़ जाए, तो इतना आनंद लाती है, जितना नीचे सेक्स में गिराई गई ऊर्जा में सपने में भी नहीं मिल सकता है। सोचने में भी नहीं मिल सकता है। उससे कोई तुलना ही नहीं की जा सकती है। एक बार यह ऊपर का अनुभव हो जाए, तो ऊर्जा नीचे जाने की यात्रा बंद कर देगी। इसलिए तीन बातें कहीं। थिर आसन में, सीधी रीढ़ के साथ बैठा हुआ, अर्धखुली आंख, नासाग्र दृष्टि, आज्ञा चक्र पर पड़ती रहे चोट, ब्रह्मचर्य व्रत में ठहरा हुआ, तो ऐसा व्यक्ति, कृष्ण कहते हैं, मुझे उपलब्ध हो जाता है, मुझमें प्रवेश कर जाता है, मुझसे एक हो जाता है। और जब भी कृष्ण कहते हैं मुझसे, तब वे कहते हैं परमात्मा से। अर्जुन से वे कह सके सीधी-सीधी बात, मुझसे। क्योंकि जिसने जाना परमात्मा को, वह परमात्मा हो गया। इसमें कोई अस्मिता की घोषणा नहीं है कि कृष्ण कह रहे हैं, मैं परमात्मा हूं। इसमें सीधे तथ्य का उदघोषण है। वे हैं; हैं ही। और जो भी जान लेता है परमात्मा को वह परमात्मा ही है। वह कहने का हकदार है कि कहे कि मुझमें। लेकिन वहां मैं जैसी कोई चीज बची नहीं है, तभी वह हकदार है। जिसका मैं समाप्त हुआ, वह कह सकता है, मैं परमात्मा हूं। कृष्ण कहते हैं, वह मुझे जान लेता है। और शेष बात हम रात करेंगे। लेकिन अभी उठेंगे नहीं। पांच मिनट कीर्तन में भाग लें, फिर विदा हों। 102 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 6 सातवां प्रवचन अपरिग्रही चित्त Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < गीता दर्शन भाग-3 युञ्जनेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः । नहीं; लेकिन निराश होने का कोई भी कारण नहीं है। इससे शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ।। १५ ।। | केवल इतना ही सिद्ध होता है कि हमें स्मरण की प्रक्रिया ही ज्ञात इस प्रकार आत्मा को निरंतर परमेश्वर के स्वरूप में लगाता नहीं है। इससे कुछ और सिद्ध नहीं होता। और यह आपसे कहूं कि हुआ, स्वाधीन मन वाला योगी मेरे में स्थितरूप परमानंद जो व्यक्ति एक क्षण भी ठीक से स्मरण कर ले, उसकी निरंतर की पराकाष्ठा वाली शांति को प्राप्त होता है। स्मरण-व्यवस्था अपने आप नियत और निश्चित हो जाती है। क्यों? क्योंकि हमारे हाथ में एक क्षण से ज्यादा कभी भी होता नहीं। कोई उपाय नहीं कि दो क्षण हमारे हाथ में एक साथ हो जाएं। एक नरंतर परमात्मा में चेतना को लगाता हुआ योगी! ही क्षण होता है हमारे हाथ में। जब भी होता है, एक ही क्षण होता IOI सुबह जिन सूत्रों पर हमने बात की है, उन्हीं सूत्रों की है। एक जब रिक्त हो जाता है, तब दूसरा हाथ में आता है। एक निष्पत्ति के रूप में यह सूत्र है। समझने जैसी बात इसमें जब जा चुका होता है, तब दूसरे का आगमन होता है। लेकिन हमारे निरंतर है। निरंतर शब्द को समझ लेने जैसा है। निरंतर का अर्थ है, हाथ में जब भी होता है, एक ही क्षण होता है। इससे ज्यादा क्षण : एक भी क्षण व्यवधान न हो। हमारे पास नहीं होते। निरंतर का अर्थ है, एक भी क्षण विस्मरण न हो। जागते ही नहीं, इसलिए अगर एक क्षण में भी प्रभु-स्मरण की प्रक्रिया में प्रवेश निद्रा में भी भीतर एक अंतर-धारा प्रभु की ओर बहती ही हो जाए, तो निरंतर में प्रवेश होने में कोई भी बाधा नहीं है। क्योंकि रहे-सतत, कंटिन्यूड, जरा भी व्यवधान न हो-तो निरंतर ध्यान | एक क्षण में जो प्रवेश को जान गया, वह हर क्षण में उस प्रवेश को हुआ, तो निरंतर स्मरण हुआ। उपलब्ध हो सकेगा। और एक ही क्षण हमारे पास होता है। इसलिए __ जैसे श्वास चलती है। चाहे काम करते हों, तो चलती है; चाहे | बहुत अड़चन नहीं है। कुंजी पास नहीं है, यही अड़चन है। विश्राम करते हों, तो चलती है। याद रखें, तो चलती है; न याद | निरंतर स्मरण करने का एक ही अर्थ है कि जिसे क्षण में भी रखें, तो भी चलती है। जागते रहें, तो चलती है; सो जाएं, तो भी स्मरण करने की क्षमता आ गई, वह निरंतर स्मरण करने की पात्रता चलती रहती है। श्वास की भांति ही जब प्रभु की ओर स्मरण, प्रभु | पा ही जाता है। लेकिन क्षण में भी स्मरण की पात्रता नहीं है। की प्यास, प्रभु की लगन भीतर चलने लगे, तो अर्थ होगा पूरा और ईश्वर को हम अक्सर उधार लेकर जीते हैं। यह शब्द भी निरंतर का; तो निरंतर का अर्थ खयाल में आएगा। हमने किसी से सुन लिया होता है। यह प्रतिमा भी हमने किसी से लेकिन हमें तो एक क्षण भी प्रभु को स्मरण करना कठिन है। सीख ली होती है। यह परमात्मा का रूप, लक्षण भी हमने किसी निरंतर तो असंभव मालूम होगा। एक क्षण भी जब स्मरण करते हैं, । से सीख लिया होता है। सब उधार है। यह हमारे प्राणों का तब भी प्राणों की कोई अकुलाहट भीतर नहीं होती। एक क्षण भी | आथेंटिक, प्रामाणिक कोई अनुभव नहीं होता है पीछे। यह कहीं जब स्मरण करते हैं, तब भी प्राणों की परिपूर्णता उसमें संलग्न नहीं हमारे प्राणों की अपनी प्रतीति और साक्षात नहीं होता है। इसीलिए होती। एक क्षण भी जब पुकारते हैं, तो ऐसे ही ऊपर से, सतह से | क्षण में भी पूरा नहीं हो पाता, सतत और निरंतर तो पूरे होने का कोई पुकारते हैं। वह प्राणों की अंतर-गहराइयों तक उसका कोई प्रभाव, सवाल नहीं है। कोई संस्पर्श नहीं होता। इसलिए पहले सूत्र में कृष्ण ने कहा है कि जो अंतर-गुफा में और कृष्ण तो कहते हैं कि ऐसा निरंतर प्रभु की ओर बहता हुआ | प्रवेश कर जाए, एकांत को उपलब्ध हो जाए। और उसमें एक शब्द व्यक्ति ही मुझे उपलब्ध होता है, प्रभु को उपलब्ध होता है, प्रभु में छूट गया, मुझे अभी याद दिलाया कि जो अपरिग्रह चित्त का हो। प्रतिष्ठा पाता है। तो इसका तो यह अर्थ हुआ कि शेष सब जन निराश उसकी मैं कल बात नहीं कर पाया, उसकी भी थोड़ी आपसे बात हो जाएं। एक क्षण भी नहीं हो पाती है पुकार, तो निरंतर तो कैसे हो | कर लूं। पाएगी! साफ है, सीधी बात है कि सब निराश हो जाएं। और जो भी | एकांत का मैंने अर्थ आपको कहा। जिसके भीतर भीड़ न रह निरंतर के इस अर्थ को समझेंगे, प्राथमिक रूप से निराशा अनुभव | जाए। जिसके भीतर दूसरे के प्रतिबिंबों का आकर्षण न रह जाए। होगी, कि फिर हमारे लिए कोई द्वार नहीं, मार्ग नहीं। | जिसके भीतर दूसरों के प्रतिबिंब जैसे आईने से हमने धूल साफ कर [104] Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अपरिग्रही चित्त - दी हो, ऐसे साफ कर दिए गए हों। ऐसा एकांत जिसके मन में हो, समय घड़ी तुम्हें भेंट कर दूंगा। तो उस दिन उसकी नींद हराम हो वह अंतर-गुहा में प्रवेश कर जाता है। जाएगी। घड़ी से एक रागात्मक संबंध निर्मित हुआ। नहीं थी घड़ी, एक शब्द और कृष्ण ने कहा है, अपरिग्रही चित्त वाला, उससे हो गया! इतने दिन तक घड़ी थी, घड़ी का उपयोग किया था, अपरिग्रही चित्त। | कोई रागात्मक संबंध न था। आज घड़ी टूटकर चूर-चूर हो गई है। क्या अर्थ होता है अपरिग्रह का? सीधा-सादा अर्थ शब्दकोश | | लेकिन मालिक ने कहा कि दुख, दुर्भाग्य तुम्हारा, क्योंकि सोचता में जो लिखा होता है, वह यह है कि जो वस्तुओं का संग्रह न करे। | था मैं कि आज संध्या यह घड़ी तुम्हें भेंट कर दूंगा। अब घड़ी है लेकिन कृष्ण का यह अर्थ नहीं हो सकता। नहीं हो सकता इसलिए | नहीं, जो भेंट की जा सके। लेकिन नौकर अब चिंतित और दुखी कि कृष्ण, व्यक्ति जीवन और संसार को छोड़ जाए, इसके पक्ष में | | और पीड़ित होने वाला है। होगा इसलिए पीड़ित और दुखी कि अब नहीं हैं। अगर सारी वस्तुओं को छोड़ दे, तो संसार और जीवन | | जो घड़ी नहीं है, उससे भी एक रागात्मक संबंध स्थापित हुआ। वह छूट ही जाता है। कृष्ण इस पक्ष में भी नहीं हैं कि कर्म को छोड़कर | मिल सकती थी, मेरी हो सकती थी। अब भीतर उसने जगह बनाई। चला जाए। अगर सारी वस्तुओं को कोई छोड़कर चला जाए, तो | अब तक वह बाहर दीवाल पर लटकी थी, अब वह हृदय के किसी कर्म भी अपने आप छूट जाता है। तो कृष्ण का अर्थ अपरिग्रह से कोने में लटकी है। कुछ और होगा। जब वस्तुएं बाहर होती हैं और भीतर नहीं, जब उनका उपयोग कृष्ण का अर्थ है अपरिग्रही चित्त से, ऐसा चित्त जो वस्तुओं का | चलता हो, लेकिन आसक्ति निर्मित न होती हो, तब कृष्ण का उपयोग तो करता है, लेकिन वस्तुओं को अपनी मालकियत नहीं दे | | अपरिग्रह फलित होता है। जीवन को जीना है उसकी समग्रता में, देता है। जो वस्तुओं का उपयोग तो करता है, लेकिन वस्तुओं का | | लेकिन ऐसे, जैसे कि जीवन छू न पाए। गुजरना है वस्तुओं के बीच मालिक ही बना रहता है। कोई वस्तु उसकी मालिक नहीं हो जाती।। से, व्यक्तियों के बीच से, लेकिन अस्पर्शित। वस्तुओं का उपयोग करता है, लेकिन वस्तुओं के साथ कोई राग | । इसलिए और जो अपरिग्रह की व्याख्याएं हैं, वे सरल हैं। कृष्ण का, कोई आसक्ति का संबंध निर्मित नहीं करता। | की व्याख्या कठिन है। और जो व्याख्याएं हैं, साधारण हैं। ठीक है, ' ऐसा समझें कि जैसे आपका नौकर आपके घर में वस्तुओं का | | जिन वस्तुओं से मोह निर्मित हो जाता है, उनको छोड़कर चले उपयोग करता है। सम्हालकर रखता है चीजों को, सम्हालकर जाओ, थोड़े दिन में मन भूल जाता है। बड़ी से बड़ी चीज को मन उठाता है। उनका उपयोग भी करता है, काम में भी लाता है। लेकिन | | भूल जाता है। छोड़ दो, हट जाओ, तो मन की स्मृति कमजोर है, आपकी कोई बहुमूल्य चीज खो जाए, तो उसे कोई पीड़ा नहीं होती। कितने दिन तक याद रखेगा! भूल जाएगा, विस्मरण हो जाएगा। यद्यपि आपसे ज्यादा उस वस्तु के संपर्क में नौकर को आने का नए राग बना लेगा, पुराने राग विस्मृत हो जाएंगे। मौका मिला था। शायद आपको इतना मौका भी न मिला हो। __ आदमी मर भी जाए जिसे हमने बहुत प्रेम किया था, तो कितने आपसे ज्यादा उसने उपयोग किया था। लेकिन खो जाए, टूट जाए, | | दिन, कितने दिन स्मरण रह जाता है ? रोते हैं, दुखी-पीड़ित होते हैं। नष्ट हो जाए, चोरी चली जाए, तो नौकर को जरा भी चिंता पैदा नहीं | फिर सब विस्मरण हो जाता है, फिर सब घाव भर जाते हैं। फिर नए होती। वह रात शांति से घर जाकर सो जाता है। क्या, बात क्या है? | | राग, नए संबंध निर्मित हो जाते हैं। यात्रा पुनः शुरू हो जाती है। वस्तु का उपयोग तो कर रहा था, लेकिन वस्त से किसी तरह किसके मरने से यात्रा रुकती है। किस चीज के खोने से यात्रा का रागात्मक कोई संबंध न था। लेकिन अगर चीज टूट गई | | रुकती है! कुछ रुकता नहीं; सब फिर चलने लगता है पुनः। जैसे हो-समझें कि एक घड़ी फूट गई हो, जिसे वह रोज साफ करता थोड़ा-सा बीच में भटकाव आ जाता है; रास्ते से जैसे गाड़ी का था और चाबी देता था, वह आज गिरकर टूट गई हो। नौकर को चाक उतर गया; फिर उठाते हैं चाक को, वापस रख लेते हैं; गाड़ी कुछ भी भीतर नहीं टूटेगा, क्योंकि घड़ी ने भीतर कोई स्थान नहीं फिर चलने लगती है। बनाया था। तो अगर कोई वस्तुओं को छोड़कर भाग जाए, तो थोड़े दिन में लेकिन टूटी हुई घड़ी के बाद अगर आप नौकर से कहें कि यह उन्हें भूल जाता है। लेकिन भूल जाना, मुक्त हो जाना नहीं है। भाग तो बहुत बुरा हो गया। आज तो मैं सोच रहा था कि संध्या जाते जाना, मुक्त हो जाना नहीं है। सच तो यह है, भागता वही है, जो | 105 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 > जानता है कि मैं साथ रहकर मुक्त न हो सकूंगा। अन्यथा भागने का कोई प्रयोजन नहीं है। भागता वही है, जो अपने को कमजोर पाता है। हीरे-जवाहरात का ढेर लगा हो। मैं आंख बंद कर लेता हूं, इसलिए कि अगर दिखाई पड़ेगा, तो बहुत मुश्किल है कि मैं अपने पर काबू रख पाऊं। आंख बंद करके मैं यह नहीं बताता हूं कि मैं हीरे-जवाहरात के प्रति अनासक्त हूं; केवल इतना ही बताता हूं कि बहुत दीन हूं, बहुत कमजोर हूं। आंख खुली कि आसक्ति निर्मित हो जानी सुनिश्चित है। इसलिए आंख बंद करके बैठा हूं। लेकिन आंख बंद करने से आसक्तियां अगर मिटती होतीं, तो हम सब अपनी आंखें फोड़ डालते और मुक्त हो जाते। तब तो अंधे परम गति को उपलब्ध हो जाते ! इतना सरल नहीं है। ऐसे अपने को धोखा तो दिया जा सकता है, लेकिन मुक्ति का क्षण करीब नहीं आता है। भाग जाऊं छोड़कर; यहां हीरे-जवाहरात रखे हैं; दूर निकल जाऊं। ठीक है, दूर निकल जाऊंगा। मौजूद नहीं होगी चीज, मन कहीं और उलझ जाएगा। किसी वृक्ष के नीचे बैठकर किसी अरण्य में कंकड़-पत्थर बीनने लगूंगा, उन्हीं का ढेर सम्हालकर रख लूंगा। लेकिन इससे छुटकारा नहीं है। कृष्ण का अपरिग्रह एक डीपर मीनिंग, एक गहरे अर्थ को सूचित करता है। वह अर्थ है, वस्तुएं जहां हैं, वहीं रहने दो; तुम जहां हो, वहीं रहो; दोनों के बीच सेतु निर्मित मत होने दो। दोनों के बीच कोई सेतु न बन जाए, दोनों के बीच आवागमन न हो। तुम तुम रहो; वस्तुओं को वस्तुएं रहने दो । न तुम वस्तुओं के हो जाओ, न वस्तुओं को समझो कि वे तुम्हारी हो गई हैं। और ये दोनों एक ही चीज के दो पहलू हैं। जिस दिन आपने समझा, वस्तु मेरी हो गई; आप वस्तु के हो गए। जिस दिन आपने कहा कि यह वस्तु मेरी है, उस दिन आप पक्का जानना कि आप वस्तु के हो गए। भी मालकियत म्यूचुअल होती है, पारस्परिक होती है। आप किसी को गुलाम नहीं बना सकते बिना उसके गुलाम बने। यह असंभव है। जब भी आप किसी को गुलाम बनाते हैं, तो आपको पता हो, न पता हो, आप उसके गुलाम बन जाते हैं। गुलामी पारस्परिक है। हां, यह दूसरी बात है कि एक गुलाम कुर्सी पर ऊपर बैठा है, दूसरा गुलाम कुर्सी के नीचे बैठा है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । कई बार तो नीचे बैठा हुआ ज्यादा मुक्त होता है, ऊपर बैठे हुए से। क्योंकि वह जो नीचे बैठा है, उसका काम शायद कुर्सी पर ऊपर बैठने वाले आदमी के बिना भी चल जाए। लेकिन वह जो कुर्सी के ऊपर बैठा है, उसका काम नीचे बैठे वाले के बिना नहीं चलने वाला है । उसकी डिपेंडेंस गहरी है, उसकी पराधीनता भारी है। अगर हम एक सम्राट के सब गुलामों को मुक्त कर दें, तो गुलाम सम्राट की कोई खास याद न करेंगे। कहेंगे, बहुत अच्छा हुआ। लेकिन सम्राट ! सम्राट दिन-रात बेचैन और चिंतित होगा; क्योंकि | गुलामों के बिना वह ना कुछ हो जाता है। कुछ भी नहीं है ! और गुलाम तो सम्राट के बिना कुछ ज्यादा हो जाएंगे; लेकिन सम्राट गुलामों के बिना बहुत कम हो जाएगा । उसकी गुलामी भारी है। दिखाई नहीं पड़ती। दिखाई न पड़ने का उसने इंतजाम कर रखा है। वह गुलामों की गर्दन दबाए हुए है ऊपर से, बिना इस बात को | समझे हुए कि उसकी गर्दन भी गुलामों के हाथ में है। | सब गुलामियां पारस्परिक होती हैं। सब बंधन पारस्परिक होते हैं। देखा है, रास्ते से एक सिपाही एक आदमी को हथकड़ियां डालकर ले जा रहा है। तो दिखाई तो ऐसा ही पड़ता है कि सिपाही मालिक है, हथकड़ियों में बंधा हुआ गुलाम गुलाम है, कैदी है। लेकिन अगर सिपाही उस कैदी को छोड़कर भाग खड़ा हो, तो कैदी उसका पीछा नहीं करेगा। लेकिन अगर कैदी भाग खड़ा हो, तो | सिपाही उसका पीछा करेगा; जान की आ जाएगी उसके ऊपर । | हथकड़ी तो पड़ी थी कैदी के हाथ में, लेकिन साथ ही वह सिपाही | के हाथ में भी पड़ी थी। महंगा पड़ जाएगा कैदी का भागना । दोनों बंधे हैं पारस्परिक। हां, एक जरा कुर्सी पर बैठा है, एक जरा कुर्सी के नीचे बैठा है। दोनों बंधे हैं। 106 जिस चीज से भी हम संबंध निर्मित करते हैं, सेतु बन जाता है, और सेतु बनाने के लिए दो की जरूरत पड़ती है। जैसे नदी पर हम सेतु बनाते हैं, ब्रिज बनाते हैं। एक किनारे पर पाया रखकर ब्रिज न बनेगा। दूसरे किनारे पर भी रखना ही होगा। दोनों किनारों पर पाए रखे जाएंगे, तो सेतु बनेगा। तो जब हम किसी वस्तु या किसी व्यक्ति से संबंध निर्मित करते हैं, तो एक सेतु निर्मित होता है। एक किनारा हम होते हैं, एक किनारा वह होता है। कृष्ण ने एक सेतु तोड़ने के लिए एकांत का प्रयोग किया, वह सेतु है व्यक्ति और व्यक्ति के बीच | दूसरा सेतु तोड़ने के लिए वह अपरिग्रह का प्रयोग करते हैं, वह सेतु है व्यक्ति और वस्तु के बीच। और ध्यान रहे, व्यक्ति और व्यक्ति के बीच सेतु रोज-रोज कम होते चले जाते हैं। अपने आप ही कम होते चले जाते हैं। और Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ <अपरिग्रही चित्त > व्यक्ति और वस्तु के बीच सेतु बढ़ते चले जाते हैं। उसका कुछ | जाता हुआ दिखाई भी नहीं पड़ता है! जिंदा आदमी अनप्रेडिक्टेबल कारण है, वह मैं आपको खयाल दिला दूं। है। कल क्या होगा, नहीं कहा जा सकता। जिंदा आदमी एक यह बात थोड़ी-सी अजीब लगेगी, लेकिन ऐसा हुआ है; ऐसा स्वतंत्रता है। हो रहा है। उसके होने के बुनियादी कारण हैं। व्यक्ति और व्यक्ति तो व्यक्तियों के साथ तो बड़ी कठिनाई हो जाती है, इसलिए के बीच सेतु रोज कम होते चले जाते हैं, क्योंकि व्यक्तियों के साथ आदमी धीरे-धीरे व्यक्तियों की मालकियत छोड़कर वस्तुओं की सेतु बनाने में बड़ी झंझटें और कांप्लेक्सिटीज हैं, बड़ा उपद्रव है। | मालकियत पर हटता चला जाता है। तिजोड़ी में एक करोड़ रुपया सबसे बड़ा उपद्रव तो यही है कि दूसरा भी जीवित व्यक्ति है। बंद है, तो उनकी मालकियत ज्यादा सुरक्षित मालूम होती है। और जब आप उसको गुलाम बनाने की कोशिश करते हैं, तब वह भी | आप एक करोड़ लोगों का वोट लेकर प्रधान मंत्री बन गए हैं, तो बैठा नहीं रहता। वह भी जोर से अपना जाल फेंकता है। पति अपने पक्का मत समझना कि अगले इलेक्शन में वे साथ देने वाले हैं। को कितना ही कहता हो कि मैं स्वामी हूं, मालिक हूं, बहुत गहरे में | अनप्रेडिक्टेबल हैं। वह एक करोड़ लोगों की मालकियत भरोसे की जानता है कि जिस दिन मालिक बना है किसी स्त्री का, उसी दिन | नहीं है। वह एक करोड़ रुपए जो तिजोड़ी में बंद हैं, भरोसे के हैं। इस वह स्त्री मालिक बन गई है, या उसी दिन से चेष्टा में लगी है। सतत | | अर्थ में भरोसे के हैं कि मुर्दा जड़ चीज है; मालकियत आपकी है। संघर्ष चल रहा है मालकियत की घोषणा का कि कौन मालिक है! ___ व्यक्तियों के ऊपर मालकियत खतरे का सौदा है। इसलिए वह लड़ाई जिंदगीभर जारी रहेगी। जैसे-जैसे आदमी के पास समझ बढ़ती जाती है—नासमझी से भरी व्यक्तियों के साथ संघर्ष स्वाभाविक है, क्योंकि सभी स्वाधीन | समझ-वैसे-वैसे वह व्यक्तियों से संबंध कम और वस्तुओं से होना चाहते हैं। लेकिन नासमझी के कारण किसी को पराधीन करके संबंध बढ़ाए चला जाता है। स्वाधीन होना चाहते हैं, जो कि कभी नहीं हो सकता। जिसने दूसरे इसलिए बड़े परिवार टूट गए। क्योंकि बड़े परिवारों में बड़े को पराधीन किया, वह स्वयं भी पराधीन हो जाएगा। स्वाधीन तो व्यक्तियों का जाल था। लोगों ने कहा, इतने बड़े परिवार में नहीं केवल वही हो सकता है, जिसने किसी को पराधीन करने की चलेगा। व्यक्तिगत परिवार निर्मित हुए। पति-पत्नी, एक-दो योजना ही नहीं बनाई। बच्चे-पर्याप्त। लेकिन अब वे भी बिखर रहे हैं। वे भी बच नहीं व्यक्ति के साथ जटिलताएं बढ़ती चली जाती हैं, वस्तु के साथ सकते। क्योंकि पति और पत्नी के बीच भी संबंध बहुत जटिल होता जटिल मामला नहीं है। आपने एक कुर्सी घर में लाकर रख दी है चला जाता है। आने वाले भविष्य में शादी बचेगी, यह कहना बहुत एक कोने में, तो वहीं रखी रहेगी। आप ताला लगाकर वर्षों बाद भी मुश्किल है। सिर्फ वे ही लोग कह सकते हैं, जिन्हें भविष्य का कोई लौटें, तो कुर्सी वहीं मिलेगी। बहुत आज्ञाकारी है। लेकिन एक पत्नी भी बोध नहीं होता। बच नहीं सकती है। खतरे भारी पैदा हो गए हैं। . को उस तरह बिठा जाएंगे, या पति को या बेटे को या बेटी को, तो डर यही है कि वह बिखर जाएगी। यह असंभव है। जब तक आप लौटेंगे, तब तक सब दुनिया बदल लेकिन इसकी जगह वस्तुओं का परिग्रह बढ़ता चला जाता है। चुकी होगी। वहीं तो नहीं मिलने वाला है कोई भी। | एक आदमी दो मकान बना लेता है, दस गाड़ियां रख लेता है, हजार जीवित व्यक्तित्व की अपनी आंतरिक स्वतंत्रता है, वह काम | रंग-ढंग के कपड़े पहन लेता है। घर में समा लेता है। चीजें इकट्ठी करेगी। चेतना है, वह काम करेगी। वस्तु से हम अपेक्षा कर सकते करता चला जाता है। चीजों पर मालकियत सुगम मालूम पड़ती है। हैं; व्यक्ति से अपेक्षा करनी बहुत कठिन है। क्योंकि कल व्यक्ति | | कोई झगड़ा नहीं, कोई झंझट नहीं। चीजें जैसी हैं, वैसी रहती हैं। क्या करेगा, नहीं कहा जा सकता। व्यक्ति अनप्रेडिक्टेबल है। जो कहो, वैसा मानती हैं। वस्तुओं की भविष्यवाणी हो सकती है; व्यक्तियों की भविष्यवाणी | तो धीरे-धीरे आदमी चीजों की मालकियत पर ज्यादा उतरता नहीं हो सकती। चला जाता है। जितनी पुरानी दुनिया में जाएंगे, उतना ही व्यक्तियों इसलिए जितना मरा हुआ आदमी होता है, उतना ज्योतिषी उसके | | के संबंध ज्यादा मालूम पड़ेंगे। जितनी आज की दुनिया में आएंगे, बाबत सफल हो जाता है बताने में। जिंदा आदमी हो, तो बहुत उतने व्यक्तियों के संबंध कम, और व्यक्तियों और वस्तुओं के मुश्किल होती है। और मुर्दो के सिवाय ज्योतिषियों के पास कोई | संबंध ज्यादा हो जाएंगे। इसलिए भविष्य के लिए अपरिग्रह का सूत्र 107 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 गीता दर्शन भाग-3 बहुत सोचने जैसा है। भविष्य में परिग्रह भारी होता जाएगा, होता | |घर लौटता है, तो सोच लेता है कि आज क्या रिश्वत ले चलनी है। जा रहा है, रोज बढ़ता जा रहा है। क्योंकि बच्चा दरवाजे पर खड़ा होगा। छोटा-सा बच्चा, जिसकी __ आज योरोप में तो लोग, आम प्रचलित कहावत हो गई है कि अभी जीवन की कोई ताकत नहीं, कुछ नहीं। उससे भी बाप डरता पति-पत्नी एक बच्चे को पैदा करें या न करें, तो सोचते हैं कि एक है घर लौटते वक्त। छोटे-छोटे बच्चों से भी बाप और मां को झूठ बच्चा पैदा करें कि एक फ्रिज खरीद लें? एक बच्चा पैदा करें कि | | बोलना पड़ता है। पिक्चर देखने जाते हैं, तो कहते हैं, गीता ज्ञान एक और नया माडल कार का निकला है, वह खरीद लें? एक सत्र में जा रहे हैं! बच्चा पैदा करें कि टी.वी. का एक सेट खरीद लें? यह विकल्प ___ व्यक्ति के साथ संबंध बनाना जटिल बात है। छोटा-सा जीवित है! क्योंकि एक बच्चा इतना खर्चा लाएगा, उससे तो कार का नया | | व्यक्ति और जटिलताएं शुरू हो जाती हैं। तो हम फिर व्यक्तियों को माडल खरीदा जा सकता है। और कार ज्यादा भरोसे की है। ज्यादा | हटाना शुरू कर देते हैं। हटा दो व्यक्ति को, वस्तुओं से संबंध बना भरोसे की है। जहां चाहो, वहां खड़ा करो; जहां चाहो, मत खड़ा | लो। घर में जाओ, जहां भी नजर डालो, आप ही मालिक हो। करो। जो व्यवहार करना चाहो, करो। रिटेलिएट नहीं करती, उत्तर | कुर्सियां रखी हैं, फर्नीचर रखा है, फ्रिज रखा है, कार रखी है, . भी नहीं देती, झंझट भी नहीं करती। गुस्सा आ आए, गाली दो, | | रेडिओ रखे हैं। आप बिलकुल मालिक की तरह हैं। जहां भी नजर लात मार दो; चुपचाप सह लेती है। डालो, मालिक हैं। तो वस्तुएं बढ़ती जाती हैं, व्यक्ति से संबंध क्षीण तो वस्तुओं पर हमारा आग्रह बढ़ता चला जाता है। आदमी अपने होते चले जाते हैं। सभ्यता जब विकसित होती है, तो वस्तुओं से चारों तरफ वस्तुओं का एक जाल इकट्ठा करके सम्राट होकर बैठ संबंध रह जाते हैं आदमियों के और आदमियों से खो जाते हैं। जाता है बीच में कि मैं मालिक हूं। व्यक्तियों को इकट्ठा करके ऐसी | | इसलिए दूसरे सूत्र को जानकर मैंने फिर से कह देना चाहा, वह मालकियत बड़ी कठिन है! प्रौढ़ व्यक्तियों को इकट्ठा करके, तो छूट गया था, कि अपरिग्रह। बहुत कठिन है। प्राइमरी स्कूल के शिक्षक से पूछो कि तीस छोटे-से अपरिग्रही चित्त वह है, जो वस्तुओं की मालकियत में किसी तरह बच्चे इकट्ठे हो जाते हैं चारों तरफ, तो कैसी मुसीबत पैदा हो जाती का रस नहीं लेता। उपयोगिता अलग बात है, रस अलग बात है। है। जरा-जरा से बच्चे, लेकिन शिक्षक की जान ऐसी अटकी रहती| वस्तुओं में जो रस नहीं लेता, वस्तुओं के साथ जो किसी तरह की है कि वह घंटे की राह देखता रहता है कि कब घंटा बजे और वह गुलामी के संबंध निर्मित नहीं करता, वस्तुओं के साथ जिसका कोई । भागे! क्योंकि तीस जीवित बच्चे! जरा सिर मोड़कर तख्ते पर कुछ इनफैचुएशन, वस्तुओं के साथ जिसका कोई रोमांस नहीं चलता। लिखना शुरू करता है कि यहां बगावत फैल जाती है। | रोमांस चलता है वस्तुओं के साथ। जब आप कभी नई कार वैसे मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि तख्ते को इसीलिए ऐसा बनाया है खरीदने का सोचते हैं, तो बहुत फर्क नहीं पड़ता। स्थिति कि शिक्षक बीच-बीच में पीठ कर पाए। क्योंकि अगर छः-सात घंटे | करीब-करीब वैसे हो जाती है, जैसे कोई नया व्यक्ति किसी नई वह पीठ ही न करे, तो बच्चों को इतना सप्रेस करना पड़े अपने | लड़की के प्रेम में पड़ जाता है और रात सपने देखता है। कार उसी आपको कि वे बीमार पड़ जाएं। तो रिलीफ के लिए मौका मिल जाता तरह सपनों में आने लगती है! वस्तुओं का भी इनफैचुएशन है। है। पीठ करके तख्ते पर लिखता है, तब तक कोई मजाक में कुछ | उनके साथ भी रोमांस चल पड़ता है। यह वस्तुओं में रस न हो, कह देता है, कोई पत्थर उछाल देता है, कोई चोट कर देता है, कोई | वस्तुओं का उपयोग हो। आंख मिचका देता है, बच्चे रिलैक्स हो जाते हैं। तब तक शिक्षक | और ध्यान रहे, वस्तुओं में जितना ज्यादा रस होगा, आप उतना वापस लौटता है; फिर पढ़ाई शुरू हो जाती है। वह बच्चों के लिए ही कम उपयोग कर पाएंगे। जितना कम रस होगा वस्तु का, उतना बड़ा सहयोगी है तख्ता, जिसकी वजह से शिक्षक को बीच-बीच में पूरा उपयोग कर पाएंगे। क्योंकि उपयोग के लिए एक डिटैचमेंट, मुड़ना पड़ता है। लेकिन ये जिंदा बच्चे हैं, इन पर मालकियत! एक अनासक्त दूरी जरूरी है। छोटे-से बच्चे पर भी मालकियत करनी बहुत मुश्किल बात है। मैं एक मित्र को जानता हूं। दस साल से मैं उनके बरांडे में एक मां-बाप भी छोटे-छोटे बच्चों को फुसलाते हैं और रिश्वत खिलाते स्कूटर को रखा हुआ देखता हूं। दो-चार बार पहले पहल मैंने पूछा हैं। हां, रिश्वत बच्चों जैसी होती है, चाकलेट है, टाफी है। बाप कि क्या स्कूटर बिगड़ गया है? उन्होंने कहा, ऐसा दुश्मन का न 108 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < अपरिग्रही चित्त - बिगड़े! स्कूटर बिगड़ा नहीं है। फिर मैं चुप रह गया। कई बार चलेगा, पति तो सालभर बाद वापस आ जाएगा; ऐसी क्या उनको देखा कि बरांडे में ही खडे स्कटर को स्टार्ट करके. फिर बंद अडचन है। लेकिन हीरे की अंगठी। वस्तुओं से इतना गहरा संबंध, करके, भीतर चले जाते हैं। मैंने पूछा कि बात क्या है? कभी | | उसका कारण भी वही है। व्यक्तियों से संबंध बनाने का उपाय न निकालते नहीं! . होने से सारी की सारी चेतना वस्तुओं से संबंध निर्मित करने में लग इनफैचुएशन है भारी उनका। स्कूटर क्या है, उनकी प्रेयसी है। गई है। उसको ऐसा सम्हालकर, पोंछ-तांछकर रख देते हैं, निकालते नहीं। __अपरिग्रह का अर्थ है, वस्तुओं में रस नहीं है, इनफैचुएशन नहीं निकलते तो अपनी फटी साइकिल पर ही हैं। जब निकलते हैं, उसी है। वस्तुएं हैं, उनका उपयोग ठीक है। हीरे की अंगूठी है, तो पहन पर! मैंने कई दफा देखा। मैंने कहा, यह स्कूटर किसलिए है? वे| लें; और नहीं है, तो नहीं। हीरे की अंगूठी है, तो ठीक; नहीं है, तो बोले कि कभी समय-बेसमय! लेकिन आज तो वर्षा हो रही है, तो न होना ठीक। जिस दिन ये दोनों बातें एक-सी हो जाएं और नाहक रंग खराब हो जाएगा। कभी धूप तेजी होती है, तो नाहक रंग खिलवाड़ हो जाए कि हीरे की अंगूठी हो, तो खेल है; और न हो, खराब हो जाएगा। मैंने उनका स्कूटर निकलते नहीं देखा है। तो घास की अंगूठी भी बनाकर पहनी जा सकती है; और बिलकुल सभी के पास ऐसी स्कूटर जैसी थोड़ी-बहुत चीजें होंगी। सभी न हो, तो नंगी अंगुली का अपना सौंदर्य है। इतनी सरलता से चित्त के पास। वह आप रखे हुए हैं सम्हालकर। स्त्रियों के पास बहुत हैं। चलता हो वस्तुओं के बीच में, तो अपरिग्रही चित्त है। भागा हुआ उसका कारण है। क्योंकि पुरुष तो बाहर के जगत में व्यक्तियों से नहीं, वस्तुओं के बीच जीता हुआ। लेकिन रसमुक्त। उपयोग करता बहुत तरह के संबंध बना लेते हैं। स्त्रियों के हमने पुरुषों से सब | है, लेकिन आसक्त नहीं, विक्षिप्त नहीं, पागल नहीं है। तरह के संबंध तुड़वा दिए हैं। उनको घर के भीतर बंद कर दिया है। ___ और वही व्यक्ति उपयोग कर पाता है, जो विक्षिप्त नहीं है। जो ___ तो पुरुषों के जगत में तो बहुत तरह के संबंध हो पाते हैं-दल | विक्षिप्त है, वह तो उपयोग कर ही नहीं पाता। उसका उपयोग तो है, क्लब है, पार्टी है, संघ है, मित्र है, फलां हैं, ढिकां हैं, हजार | वस्तु कर लेती है। वस्तु को सम्हालकर रखता है, सेवा करता है, उपाय हैं। और पुरुष बाहर की दुनिया में घूमकर बहुत तरह के संबंध | | झाड़ता-पोंछता है। और सपने देखता रहता है कि कभी पहनूंगा, निर्मित करता रहता है। लेकिन स्त्री को हमने घर में बंद कर दिया। कभी पहनूंगा। वह कभी कभी नहीं आता। और वह वस्तु हंसती तो उसके हम किसी तरह के बाहर जगत से संबंध निर्मित नहीं होने होगी. अगर हंस सकती होगी। देते। तो उसकी जो संबंध बनाने की जो प्यास है, अतृप्ति है, वह ___ अपरिग्रही चित्त, एकांत में जीने वाला चित्त ही प्रभु के सतत वस्तुओं पर निकलती है। इसलिए स्त्रियां वस्तुओं के लिए स्मरण में उतर सकता है। और सतत स्मरण में उतरने का अर्थ है, बिलकुल इनफैचुएटेड हो जाती हैं। एक क्षण भी अगर पूर्ण स्मरण में उतर जाए, तो सतत स्मरण बन मेरे पास कई स्त्रियां आती हैं, वे कहती हैं, संन्यास हमें लेना है, | | जाता है। भूला नहीं जा सकता; भूलने का उपाय नहीं है। लेकिन दिक्कत सिर्फ एक है कि तीन सौ साड़ियां! और कोई प्रभ की एक झलक मिल जाए, तो भलने का उपाय नहीं है। एक दिक्कत नहीं है; और हमें कोई कष्ट ही नहीं है संन्यास में। सिर्फ क्षण भी द्वार खुल जाए और हम देख लें कि वह है, फिर कोई हर्ज कठिनाई यह है कि इन तीन सौ साड़ियों का क्या होगा! एक का नहीं है। हम कभी न देख पाएं, तो भी भीतर उसकी धुन बजती ही मामला नहीं है, न मालूम कितनी स्त्रियों ने मुझे आकर कहा कि रहेगी। श्वास-श्वास जानती ही रहेगी, रो-रोआं पहचानता ही संन्यास की बात बिलकुल जमती है मन को, सब ठीक है, | | रहेगा कि वही है, वही है, वही है। पूरे जीवन की यह धुन बन लेकिन...! तब उनका कमजोर हिस्सा आ जाता है, साफ्ट-कार्नर, | | जाएगी कि वही है। लेकिन एक क्षण भी! वे साड़ियां! वह इनफैचुएशन है। कृष्ण कहते हैं, सतत, प्रतिक्षण, निरंतर, व्यवधान न हो जरा भी, उसका कारण है कि पुरुषों ने जो जगत बनाया है, उसमें स्त्रियों | तब मुझमें प्रतिष्ठा है। को व्यक्तियों से संबंध बनाने के सब दरवाजे बंद कर दिए, तो | | एक क्षण भी हो जाए, तो निरंतर हो जाएगा। एक क्षण कैसे हो उसने वस्तुओं से अपना संबंध बना लिया। वह वस्तुओं के लिए जाए? कहां जाएं हम उस क्षण को पाने के लिए? वह मोमेंट, वह दीवानी है। पति को सजा हो जाए, उनको हीरे की अंगूठी चाहिए। क्षण कहां मिले कि एक बार दरस-परस हो जाए, एक बार आंख 109 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सगीता दर्शन भाग-3 के सामने आ जाए उसकी छवि? एक बार हम स्वाद ले लें उसके कि मुझे भी वह मार्ग बताएं, जिससे मैं ध्यान को उपलब्ध हो सकूँ। आलिंगन का, एक क्षण के लिए-कहां जाएं? कहां खोजें? । उस गुरु ने बहुत बड़े-बड़े साधकों को मार्ग बताया था, इस छोटे स्वयं के ही अंदर। उसके अतिरिक्त कहीं कोई और उससे मिलन बच्चे को क्या मार्ग बताए! लेकिन विधि उसने पूरी कर दी थी, न होगा। अपने ही भीतर। और अपने भीतर जाना हो, तो जो-जो | इनकार किया नहीं जा सकता था। ठीक व्यवस्था से घंटा बजाया बाहर है. उसके इलीमिनेशन के अतिरिक्त और कोई विधि नहीं है। था। हाथ जोडकर नमस्कार किया था। चरणों में फल रखे थे। जो-जो बाहर है, यह मैं नहीं हूं, यह मैं नहीं हूं, इस बोध के विनम्र भाव से बैठकर प्रार्थना की थी कि आज्ञा दें, मैं क्या करूं कि अतिरिक्त भीतर जाने का कोई उपाय नहीं है। ध्यान को उपलब्ध हो जाऊं, प्रभु का स्मरण आ जाए। उस छोटे-से सुनी है मैंने एक छोटी-सी कहानी, वह मैं आपसे कहूं, फिर मैं बच्चे के लिए कौन-सी विधि बताई जाए! दूसरा सूत्र लूं। उस गुरु ने कहा, तू एक काम कर, दोनों हाथ जोर से बजा। एक झेन फकीर हुआ। उसके पास, उसके मंदिर में जहां वह लड़के ने दोनों हाथ की ताली बजाई। गुरु ने कहा कि ठीक। आवाज ठहरता है, उसके वृक्ष के नीचे जहां वह विश्राम करता है, दूर-दूर बिलकुल ठीक बजी। ताली तू बजा लेता है। अब एक हाथ नीचे से साधक आते हैं। दूर-दूर से साधक आते हैं, उससे पूछते हैं, | रख ले। अब एक ही हाथ से ताली बजा। उस बच्चे ने कहा, बहुत ध्यान की कोई विधि। वह उन्हें ध्यान की विधियां बताता है। वह कठिन मालूम पड़ता है। एक हाथ से ताली कैसे बजाऊं? तो उस उन्हें कोई सूत्र देता है कि जाकर इस पर ध्यान करो। गुरु ने कहा, यही तेरे लिए मंत्र हुआ। अब इस पर तू ध्यान कर। एक छोटा-सा बच्चा भी कभी-कभी उस वक्ष के नीचे आकर और जब तुझे पता चल जाए कि एक हाथ से ताली कैसे बजेगी, बैठ जाता है। कभी उसके मंदिर में आ जाता है। बारह साल उसकी तब तू आकर मुझे बता देना। उम्र होगी। वह भी सुनता है बड़े ध्यान से बैठकर। बड़ी बातें! बच्चा गया। उस दिन उसने खाना भी नहीं खाया। वह वृक्ष के उसकी समझ में नहीं भी पड़ती हैं, पड़ती भी हैं। क्योंकि कुछ नहीं नीचे बैठकर सोचने लगा, एक हाथ की ताली कैसे बजेगी? बहुत कहा जा सकता। सोचा, बहुत सोचा। कई बार जिनको लगता है कि समझ में पड़ रहा है, उन्हें कुछ भी आप कहेंगे, कहां के पागलपन के सवाल को उसे दे दिया। सभी समझ नहीं पड़ता। और कई बार जिन्हें लगता है कि कुछ समझ में सवाल पागलपन के हैं। कोई भी सवाल कभी सोचा होगा, इससे नहीं पड़ रहा है, उन्हें भी कुछ समझ में पड़ जाता है। बहुत बार ऐसा कम पागलपन का नहीं रहा होगा। ही होता है कि जिसे लगता है, कुछ समझ में नहीं पड़ रहा कोई सोच रहा है, जगत को किसने बनाया? क्या एक हाथ से है-इतना भी समझ में पड़ जाना कोई छोटी समझ नहीं है। ताली बजाने वाले सवाल से कोई बहुत बेहतर सवाल है! कोई सोच वह छोटा बच्चा आकर बैठता है। कोई साधक, कोई संन्यासी, रहा है कि आत्मा कहां से आई ? एक हाथ से ताली बजाने के कोई योगी आकर झेन फकीर से ध्यान के लिए कोई विषय, कोई सवाल से कोई ज्यादा अर्थपूर्ण सवाल है! आब्जेक्ट मांगता है। वह देखता रहता है। उसने देखा कि जब भी लेकिन उस बच्चे ने बड़े सदभाव से सोचा। सोचा, रात उसे कोई साधक आता है, तो मंदिर का घंटा बजाता है, झुककर तीन । खयाल आया कि ठीक। मेंढक आवाज करते थे। उसने भी मेंढक बार नमस्कार करता है, झुककर विनम्र भाव से बैठता है; आदर से की आवाज मुंह से की। और उसने कहा कि ठीक। यही आवाज प्रश्न पूछता है, मंत्र लेता है, विदा होता है। फिर साधना करके, | होनी चाहिए एक हाथ की। वापस लौटकर खबर देता है। आकर सुबह घंटा बजाया। विनम्र भाव से बैठकर उसने आवाज एक दिन सुबह वह बच्चा भी उठा, स्नान किया, फूल लिए हाथ | की मुंह से, जैसे मेंढक टर्राते हों। और गुरु से कहा, देखिए, यही है में, आकर जोर से मंदिर का घंटा बजाया। झेन फकीर ने ऊपर आंख | न आवाज, जिसकी आप बात करते थे? गुरु ने कहा कि नहीं, यह उठाकर देखा कि शायद कोई साधक आया। लेकिन देखा, वह | तो पागल मेंढक की आवाज है। एक हाथ की ताली की आवाज! छोटा बच्चा है, जो कभी-कभी आ जाता है। आकर तीन बार दूसरे दिन फिर सोचकर आया; तीसरे दिन फिर सोचकर आया। झुककर नमस्कार किया। फूल चरणों में रखे। हाथ जोड़कर कहा कुछ-कुछ लाया, रोज-रोज लाया। यह है आवाज, यह है आवाज। 1100 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्रही चित्त गुरु रोज कहता गया, यह भी नहीं, यह भी नहीं, यह भी नहीं । वर्ष बीतने को पूरा हो गया। वह रोज खोजकर लाता रहा। कभी कहता कि झींगुर की आवाज, कभी कहता कि वृक्षों के बीच से गुजरती हुई हवा की आवाज। कभी कहता कि वृक्षों से गिरते हुए पत्तों की आवाज। कभी कहता कि वर्षा में पानी की आवाज छप्पर पर। बहुत आवाजें लाया, लेकिन सब आवाजें गुरु इनकार करता गया। कहा कि नहीं, यह भी नहीं, यह भी नहीं । फिर उसने आना बंद कर दिया। फिर बहुत दिन गए वापस लौटा। घंटा बजाया। पैरों में फिर फूल रखे। हाथ जोड़कर चुपचाप पास बैठ गया। गुरु ने कहा, लाए कोई उत्तर? आवाज खोजी कोई? उसने सिर्फ आंखें उठाकर गुरु की तरफ देखा - मौन, चुप । कहा, ठीक है। यही है आवाज – मौन, चुप । गुरु ने कहा, यही है आवाज । । तुझे पता चल गया, एक हाथ की आवाज कैसी होती है। अब तुझे और भी कुछ आगे खोज करना है ? उसने कहा, लेकिन अब आगे खोज करने को कुछ भी न बचा। एक-एक आवाज को, खोज को, आप इनकार करते गए, इनकार करते गए, इनकार करते गए। सब आवाजें गिरती गईं। फिर सिवाय मौन के कुछ भी न बचा। पिछले महीनेभर से मैं बिलकुल मौन ही बैठा हूं। कोई आवाज ही नहीं सूझती; कोई शब्द ही नहीं आता; मौन ही मौन ! और अब मुझे कुछ भी नहीं चाहिए। एक हाथ की आवाज जान पाया, नहीं जान पाया, मुझे पता नहीं। लेकिन इस मौन में मैंने जो देखा, जो जाना, शायद लोग उसी को परमात्मा कहते हैं। एक-एक चीज को इनकार करते चले जाना पड़ेगा। किसी से भी शुरू करें। शरीर से शुरू करें, तो जानना पड़ेगा कि शरीर नहीं है। भीतर जाएं, श्वास मिलेगी। जानना पड़ेगा, श्वास भी वह नहीं है। और भीतर जाएं, विचार मिलेंगे। जानना पड़ेगा, विचार भी वह नहीं है । और भीतर जाएं, वृत्तियां मिलेंगी। जानना पड़ेगा, वृत्तियां भी वह नहीं है। और उतरते जाएं, और उतरते जाएं। भाव मिलेंगे, जानें कि भाव भी वह नहीं है । उतरते जाएं गहरे - गहरे कुएं में ! न एक घड़ी ऐसी आ जाएगी कि इनकार करने को कुछ बचेगा, सन्नाटा और शून्य रह जाएगा। आ गई अंतर - गुफा, जहां अब यह भी कहने को नहीं बचा कि यह भी नहीं है। वहीं, उसी क्षण, उसी क्षण वह विस्फोट हो जाता है, जिसमें प्रभु का अनुभव होता है। बस, वह अनुभव एक क्षण को हो जाए, फिर निरंतर श्वास-श्वास, रोएं-रोएं, उठते-बैठते, सोते-जागते वह गूंजने लगता है। तब है स्मरण निरंतर । > 111 और कृष्ण कहते हैं, ऐसे निरंतर स्मरण को उपलब्ध व्यक्ति ही मुझमें प्रतिष्ठित होता है, प्रभु में प्रतिष्ठित होता है। या उलटा कहें तो भी ठीक कि ऐसे व्यक्ति में, ऐसे निराकार, शून्य हो गए व्यक्ति में, ऐसे सतत सुरति से भर गए व्यक्ति में प्रभु प्रतिष्ठित हो जाता है। प्रश्नः भगवान श्री पिछले दो श्लोकों में एक छोटी-सी पर विशेष बात रह गई है। उसमें कहा गया है ध्यान के साधक के लिए - विशेष आसन, शुद्ध भूमि, सीधा शरीर, और नासिकाग्र दृष्टि और ब्रह्मचर्य व्रत। उसके बाद कहा गया है, भयरहित और अच्छी प्रकार शांत अंतःकरण वाला । भयरहित का साधक के लिए क्या अर्थ होगा, कृपया इसे स्पष्ट करें। यरहित और अच्छी प्रकार शांत चित्त वाला! महत्वपूर्ण है यह, काफी महत्वपूर्ण है। क्योंकि भय जिसे है, वह परमात्मा में प्रवेश न कर पाएगा। क्यों ? तो भय को थोड़ा समझ लेना पड़ेगा। भय है क्या ? वस्तुतः भय का मूल आधार क्या है? भयभीत क्यों हैं हम ? क्या है मूल कारण जिससे सारे भय का जन्म होता है ? बीमारी का भय है । दिवालिया हो जाने का भय है। इज्जत मिट जाने का भय है । हजार-हजार भय हैं। लेकिन भय तो गहरे में एक ही है, वह मृत्यु का भय है। बीमारी भी भयभीत करती है, क्योंकि | बीमारी में मृत्यु का आंशिक दर्शन शुरू हो जाता है। गरीबी भयभीत करती है, क्योंकि गरीबी में भी मृत्यु का आंशिक दर्शन शुरू जाता है । अप्रतिष्ठा भयभीत करती है, क्योंकि अप्रतिष्ठा में भी मृत्यु का आंशिक अंश दिखाई पड़ने लगता है। जहां-जहां भय है, वहां-वहां मृत्यु का कोई अंश दिखाई पड़ता है। प्रत्यक्ष न भी दिखाई पड़े, थोड़ा खोज करेंगे, तो दिखाई पड़ | जाएगा कि मैं भयभीत क्यों हूं। कहीं न कहीं कुछ मुझमें मरता है, तो मैं भयभीत होता हूं। चाहे मेरा धन छूटता हो, तो धन के कारण जो सुरक्षा थी भविष्य में कि कल भी भोजन मिलेगा, मकान मिलेगा, मर नहीं जाऊंगा। धन छिनता है, तो कल खतरा खड़ा हो | जाता है कि कल अगर भोजन न मिला तो ? प्रतिष्ठा है; धन न हो पास में, तो भी आशा कर सकता हूं कि कल कोई साथ देगा, कल Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 गीता दर्शन भाग - 3 > कोई सहयोग देगा। लेकिन प्रतिष्ठा भी खो जाए, तो डर लगता है कि कल इस बड़े जगत में कोई साथी-संगी न होगा, तो क्या होगा ? जहां भी भय है, वहां थोड़ी-सी भी खोज करेंगे, थोड़ा-सा खोजेंगे, तो स्किन डीप कुछ और कारण भला हो, लेकिन जरा-सी खरोंच के बाद गहरे में मृत्यु खड़ी हुई दिखाई पड़ेगी। मृत्यु ही भय है | और सब भय उसके ही हलके डोज हैं। उसकी ही हलकी मात्राएं हैं। मृत्यु का भय एकमात्र भय है। कृष्ण कहते हैं कि अभय को उपलब्ध हो कोई, भयरहित हो कोई, तो ही ध्यान में गति है, तो ही समाधि में चरण पड़ेंगे। तो क्या बात है ? यहां समाधि और ध्यान में भय को लाने की क्या जरूरत ? यहां मौत का सवाल कहां है? यहां है। मौत का सवाल है, महामृत्यु का सवाल है। क्योंकि साधारण मृत्यु में तो सिर्फ शरीर मिटता है, आप नहीं मिटतें । सिर्फ वस्त्र बदलते हैं, आप नहीं बदलते। आप तो फिर, पुनः, पुनः-पुनः नए शरीर, नए वस्त्र धारण करते चले जाते हैं। तो साधारण मृत्यु, जो जानते हैं, उनकी दृष्टि में मृत्यु नहीं, केवल शरीर का परिवर्तन है। गृह परिवर्तन है, नए घर में प्रवेश है, पुराने घर का त्याग है। लेकिन ध्यान में महामृत्यु घटित होती है। आप भी मरते हैं, शरीर ही नहीं मरता। आप भी मरते हैं, मैं भी मरता है । वह अहंकार और ईगो भी मरती है, मन मरता है। स्वभावतः, जब शरीर के ही मरने में इतना भय लगता है, तो मन के मरने में कितना भय न लगता होगा ! और इसलिए अभय हुए बिना कोई ध्यान में प्रवेश न कर सकेगा। जैसा कृष्ण ने कहा भयरहित, ऐसा ही महावीर ने अभय को पहला सूत्र कहा है। अभय हुए बिना कोई ध्यान में न जा सकेगा। क्योंकि थोड़ी ही देर, थोड़ी ही भीतर गति होगी और पता चलेगा, यह तो मृत्यु घटने लगी। ध्यान के अनुभव में मृत्यु का अनुभव आता ही है, अनिवार्य है। उससे कोई बचकर नहीं निकल सकता। जब आप ध्यान में गहरे उतरेंगे, तो वह घड़ी आ जाएगी जहां लगेगा, कहीं ऐसा तो न होगा कि मैं मर जाऊं। लौट चलूं वापस, यह किस उपद्रव में पड़ गया ! वापस लौटो। ध्यान से न मालूम कितने लोग वापस लौट आते हैं। सिर्फ भीतर वह जो मृत्यु का भय पकड़ता है, उसकी वजह से वापस लौट आते हैं । और मजा यह है कि वही क्षण है पार होने का । उसी क्षण में अगर आप निर्भय प्रवेश कर गए, तो आप समाधि में पहुंच जाएंगे। 112 और अगर उससे आप वापस लौट आए, तो जहां आप थे, वहीं आ जाएंगे। और एक खतरा और ले आएंगे। वह यह कि अब ध्यान में जाने की हिम्मत भी न कर सकेंगे, क्योंकि वह मृत्यु का डर अब |और गहरा और साफ हो जाएगा। जब ध्यान में मृत्यु की प्रतीति होती है, तब आप अमृत के द्वार पर खड़े हैं। अगर भयभीत हो गए, तो द्वार से वापस लौट आए। और अगर प्रवेश कर गए, तो अमृत में प्रवेश कर गए। फिर कोई मृत्यु नहीं है। मृत्यु में प्रवेश करके ही अमृत का अनुभव होता है। मिटकर ही जानना पड़ता है उसे, जो है । स्वयं को खोकर ही पाना पड़ता है उसे, सर्व इसलिए ठीक है कृष्ण अगर कहें कि भयरहित चित्त से ही प्रवेश संभव है। इधर मेरा रोज का अनुभव है। सैकड़ों व्यक्ति कितनी आतुरता और कितनी प्यास से ध्यान में प्रवेश करते हैं, लेकिन शीघ्र ही...। ज्यादा श्रम नहीं करते, उनको तो अड़चन नहीं आती, क्योंकि वे उस बिंदु तक भी नहीं पहुंचते, जहां मृत्यु का अनुभव हो। लेकिन जो जरा ज्यादा श्रम करते हैं, वे उस बिंदु पर पहुंच जाते हैं, जहां मृत्यु दिखाई पड़ने लगती है कि मैं मरा, मैं गया। अब अगर एक कदम आगे बढ़ता हूं भीतर, तो अब मैं नहीं बचूंगा। सब टूट-फूटकर बिखर जाएगा। फिर लौट नहीं सकूंगा। यह प्रतीति इतनी प्रगाढ़ होती है, यह पूरे प्राणों को इस भांति पकड़ लेती है कि साधक भागकर बाहर आ जाता है। यह रोज घटता है। इसलिए ध्यान में जाने वाले साधक को, जो उसे ध्यान में जाने का मार्ग-निर्देश कर रहा है, उचित है कि कहता रहे कि भय को छोड़ देना; मृत्यु घटित होगी। वह क्षण आएगा, जब भय पकड़ेगा। वह क्षण आएगा, जब सब भीतर ऐसा लगेगा कि खो गया; सब खो रहा है। डूब रहा हूं सागर में, अतल गहराई में; लौटने का अब शायद कोई उपाय न होगा। वह क्षण आएगा ही। यह अगर पूर्व-सूचना दे दी गई हो, तो साधक जब पहुंचता है उस क्षण में, तो निर्भय हो, साहस बांध, छलांग लगा पता है । अगर यह पूर्व सूचना न दी गई हो, तो बहुत संभावना यही है कि साधक वापस लौट आए, घबड़ा जाए। लौट आए साधक को बड़ी तकलीफ हो जाती है। तकलीफ तो यह हो जाती है बड़ी कि अब वह ध्यान की तरफ जाने की हिम्मत अब न जुटा पाएगा। अब यह स्मरण उसका सदा पीछा करेगा। अब Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < अपरिग्रही चित्त - वह ध्यान की बात न सोच पाएगा। ऐसी बहुत-सी विधियां प्रचलित हैं, जिनसे आपको शांति का और भी एक खतरा है, वह भी मैं आपसे कह दूं, कि जो साधक | भ्रम पैदा हो सकता है। वह गलत रूप की शांति है। जैसे इस तरह इस भांति मृत्यु से भयभीत होकर लौट आता है, बहुत संभावना है, की हिप्नोटिज्म, सम्मोहन की विधियां हैं, जिनसे आपको प्रतीति हो सौ में कम से कम तीस प्रतिशत लोगों को, कि वे थोड़े-से विक्षिप्त सकती है कि आप शांत हैं। हो जाएं। क्योंकि जो उन्होंने देखा है, मिटने का जो अनुभव उनके __अगर आप कुवे से पूछे, एमाइल कुवे से। वे पश्चिम के एक निकट आया, वह उनके सारे स्नायुओं को कंपा जाता है; उनके बड़े हिप्नोटिस्ट विचारक हैं। तो वे कहते हैं, शांत होने के लिए और हाथ-पैर कंपने लगेंगे, उनका चित्त भय से सदा घबड़ाया हुआ रहने | कुछ करना जरूरी नहीं है। सिर्फ अपने मन में यह दोहराते रहें कि लगेगा। वे नींद लेने तक में डरने लगेंगे। उनका डर बढ़ जाएगा। मैं शांत हो रहा हूं, मैं शांत हो रहा हूं, मैं शांत हो रहा हूं, मैं शांत ___ इसलिए ध्यान में कोई भी जाए, तो यह जानकर जाए, ठीक से | हो रहा हूं। इसे दोहराते रहें। गो आन रिपीटिंग इट। रात सोते वक्त परिचित होकर जाए कि मृत्यु की प्रतीति होगी। भय कुछ भी नहीं है। दोहराते रहें, मैं शांत हो रहा हूं, मैं शांत हो रहा हूं, शांत हो रहा हूं। क्योंकि वह मृत्यु की प्रतीति सौभाग्य है। वह उसको ही होती है, जो | | दोहराते-दोहराते सो जाएं। कब नींद आ जाए, पता न चले; आप ध्यान के बिलकुल मंदिर के द्वार पर चढ़कर पहुंच जाता है—उसको दोहराते रहें, मैं शांत हो रहा हूं। आप मत रुकें। नींद आ जाए, रोक ही. उसके पहले नहीं होती। वह आखिरी प्रतीति है मन की। दे, बात अलग। आप दोहराते चले जाएं। मन मरने के पहले आखिरी बार आपको घबड़ाता है कि मर अगर रात सोते वक्त आप दोहराते रहें, मैं शांत हो रहा है, मैं जाओगे, लौट चलो। अगर आप न घबड़ाए, तो मन मर जाता है, | | शांत हो रहा हूं, तो नींद का क्षण जब आएगा, तो आपका चेतन मन आप बच जाते हैं। आपके मरने का कोई उपाय नहीं है। आप नहीं | | तो सो जाएगा, वह जो दोहरा रहा था, मैं शांत हो रहा हूं, मैं शांत मरं सकते। हो रहा हूं। लेकिन मैं शांत हो रहा हूं, इसकी प्रतिध्वनि अचेतन में लेकिन अभी तक आपने समझा है कि मैं मन हूं। इसलिए जब | गूंजती रह जाएगी। वह रातभर आपके भीतर गूंजती रहेगी-मैं मन कहता है, मर जाऊंगा! तो आप समझते हैं, मैं मर जाऊंगा। शांत हो रहा हूं, मैं शांत हो रहा हूं। वह आपकी भ्रांति स्वाभाविक है। स्वाभाविक, लेकिन सही नहीं। कुवे कहते हैं, सुबह जब नींद खुले, तो पहली बात मन में स्वाभावि क, लेकिन सत्य नहीं। इसलिए जो भी ध्यान का निर्देश दोहराना, मैं शांत हो रहा है, मैं शांत हो रहा है, मैं शांत हो रहा हूं। करेगा, जैसा कृष्ण अर्जुन को निर्देश कर रहे हैं, तो वे उन सारी बातों जब भी स्मरण आ जाए, दोहराना, मैं शांत हो रहा हूं। का निर्देश करेंगे ही, जिन-जिन की जरूरत पड़ेगी। इस भांति अगर आप दोहराते रहें, तो आप अपने को तो एक, निर्भय। और ठीक रूप से शांत हुए मन वाला। ठीक आटो-हिप्नोटाइज कर लेंगे। आपको अशांति रहेगी, लेकिन पता रूप से शांत हुए मन वाले का क्या अर्थ है? इस ठीक से शांत मन नहीं चलेगी। आपको लगेगा, मैं शांत हो गया हूं। यह स्वयं को वाला, इस शब्द से, इन शब्दों के समूह से बहुत-सी गलत | दिया गया धोखा है। यह शांति झूठी है। यह शांति केवल भ्रम है। व्याख्याएं प्रचलित हुई हैं। लेकिन यह हो जाता है। मन की यह क्षमता है कि मन अपने को एक तो, जब कृष्ण कहते हैं, ठीक से शांत हुए मन वाला, तो | धोखा दे सकता है। मन की बड़ी क्षमता सेल्फ डिसेप्शन है। खुद इसके दो मतलब साफ हो गए कि ऐसी शांति भी हो सकती है, जो को धोखा देना मन की बड़ी क्षमता है। अगर आप दोहराए चले ठीक से शांति न हो। गलत किस्म की शांति भी हो सकती है। जाएं, तो यह हो जाता है। . इसका मतलब साफ है। अशांति तो गलत होती ही है; ऐसी शांतियां | अब तो मनोवैज्ञानिक इसको बहुत ठीक से स्वीकार करते हैं कि भी हैं, जो गलत होती हैं। इसलिए तो ठीक से शांत, इस शर्त को | यह हो जाता है। जिन बच्चों को स्कूल का शिक्षक कहता चला लगाना पड़ा है। जाता है, तुम गधे हो, तुम गधे हो। और एक शिक्षक ने कहा, तो ___ इसलिए आप सब तरह के शांत हुए लोग ध्यान में प्रवेश कर दूसरा शिक्षक दूसरी क्लास में फिर धारा को पकड़ लेता है कि तुम जाएंगे, इस भ्रांति में मत पड़ना। गलत ढंग से शांत हुए लोग भी हो गधे हो। और एक बच्चा सुनता है। वह भी मन में दोहराता है, मैं सकते हैं। कौन से ढंग से आदमी गलत रूप से शांत हो जाता है? गधा हूं। दूसरे लड़के भी उसकी तरफ देखते हैं कि तुम गधे हो। घर 113 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 गीता दर्शन भाग-3> जाता है, बाप भी कहता है कि तुम गधे हो। जहां जाता है, वहां पता गए, पानी वाले भी तीन ठीक हो गए! अब दवा को क्या कहें? यह चलता है कि सिर्फ कान की कमी है, बाकी मैं गधा हूं! और जब दवा थी नहीं; यह सिर्फ पानी था। लेकिन दवा वाले भी, पांच में से इतने सब लोग कहते हैं, तो इन सबको गलत करना भी ठीक नहीं तीन ठीक हो गए हैं और ये भी पांच में से तीन ठीक हो गए हैं, पानी मालूम पड़ता। मन फिर इनको सही करने के उपाय खोजने लगता | वाले! अब क्या कहें? है कि सब लोग सही ही कहते होंगे। इतने लोग जब कहते हैं, तो मनोविज्ञान तो कहता है कि अब तक की जितनी दवाएं हैं दुनिया इनको गलत कहना भी तो ठीक नहीं है। | में, वे सिर्फ सजेशन का काम करती हैं। असली परिणाम सजेशन मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि आज दुनिया में जितने अप्रौढ़ चित्त | का है, सुझाव का है। असली परिणाम दवा के तत्व का नहीं है। दिखाई पड़ते हैं, उनका जिम्मेवार शिक्षक, शिक्षा की व्यवस्था है, इसीलिए तो इतनी पैथी चलती हैं। इतनी पैथी चल सकती हैं? जहां इनको हिप्नोटाइज किया जा रहा है कि तुम ऐसे हो, तुम ऐसे पागलपन की बात है। बीमारी अगर होगी, तो इतनी पैथी चल हो, तुम ऐसे हो। कहा जा रहा है; सर्टिफिकेट दिए जा रहे हैं; सकती हैं वैज्ञानिक अर्थों में? अखबारों में नाम दिए जा रहे हैं; सिद्ध हो जाता है कि वह आदमी होम्योपैथी भी चलती है! और होम्योपैथी के नाम पर ऐसा है। करीब-करीब शक्कर की गोलियां चलती हैं। कम से कम हिंदुस्तान आपने कभी खयाल किया है, बीमार पड़े हों बिस्तर पर सभी | में बनी तो बिलकुल शक्कर की गोली ही होती हैं। शक्कर भी शुद्ध कभी न कभी पड़ते हैं आपने कभी खयाल किया है कि बीमार | | होगी, इसमें संदेह है। बायो-केमिस्ट्री चलती है। आठ तरह की पड़े हों, बड़ी तकलीफ मालूम पड़ती है, बड़ी बेचैनी है, बड़ी भारी | | दवाओं से सब बीमारियां ठीक हो जाती हैं! नेचरोपैथी चलती है; बीमारी है। डाक्टर आया। डाक्टर के बूट बजे, उसकी शक्ल दवा वगैरह की कोई जरूरत नहीं है। पेट पर पानी की पट्टी या मिट्टी दिखाई दी। उसका स्टेथस्कोप! थोड़ी बीमारी एकदम उसको की पट्टी से भी बीमार ठीक होते हैं! जंत्र, मंत्र, तंत्र-सब चलता देखकर कम हो गई! अभी उसने दवा नहीं दी है। डाक्टर ने थोड़ा है। जादू-टोना चलता है। सब चलता है। क्या, मामला क्या है ? ठकठकाया, इधर-उधर ठोंका-पीटा। उसने अपना स्पेशलाइजेशन | और आदमी सबसे ठीक होता है! दिखाया कि हां! फिर उसने कहा कि कोई बात नहीं, बहुत साधारण | आदमी के ठीक होने के ढंग बड़े अजीब हैं। शक इस बात का है, कुछ खास नहीं है। दो दिन की दवा में ठीक हो जाएंगे। फिर | है कि आदमी की अधिक बीमारियां भी उसके सुझाव होती हैं, कि उसने जितनी बड़ी फीस ली, उतना ही अर्थ मालूम पड़ा कि यह बात | | उसने माना है कि वह बीमार हुआ है। और आदमी का अधिकतर ठीक होगी ही। | स्वास्थ्य भी उसका सुझाव होता है कि उसने माना है कि वह ठीक आपने खयाल किया है, डाक्टर की दवा और उसका प्रिस्क्रिप्शन हुआ है। बीमारियां भी बहुत मायनों में झूठी होती हैं, मन का खेल। आने में तो थोड़ी देर लगती है, लेकिन मरीज ठीक होना शुरू हो और उसके स्वास्थ्य के परिणाम भी झूठे होते हैं, मन का खेल। जाता है। मन ने अपने को सुझाव दिया कि जब इतना बड़ा डाक्टर | | लेकिन मन आटो-सजेस्टिबल है, अपने को सुझाव दे सकता है। कहता है, तो ठीक हैं ही। अगर आप बीमार पड़े हैं और आपको उस तरह की शांति झूठी है, जो कुवे की पद्धति से आती है। जो पता चला कि डाक्टर ने ऐसा कहा है कि बिलकुल ठीक हैं, कोई कहती है कि तुम शांत हो रहे हो। इसको माने चले जाओ, कहे चले खास बीमारी नहीं है, तो तत्काल आपके भीतर बीमारी क्षीण होने | जाओ, दोहराए चले जाओ-शांत हो जाओगे। का अनभव आपको हआ होगा तत्काल। एक ताजगी आ गई है। जरूर शांत हो जाएंगे। लेकिन वैसी शांति सिर्फ सतह पर दिया बुखार कम हो गया है। बीमारी ठीक होती मालूम पड़ती है। अभी गया धोखा है। वह शांति वैसी है, जैसे नाली के ऊपर हमने फूलों कोई दवा नहीं दी गई है, तो यह परिणाम कैसे हुआ है? को बिछा दिया हो, तो क्षणभर को धोखा हो जाए। हां, किसी नेता पश्चिम में डाक्टर एक नई दवा पर काम करते हैं, उस दवा को | की पालकी निकलती हो सड़क से, तो काफी है। चलेगा। क्षणभर कहते हैं, धोखे की दवा, प्लेसबो। बड़े हैरान हुए हैं। दस मरीज हैं, | को धोखा हो जाए, कोई नाली नहीं है, फूल बिछे हैं। लेकिन दसों एक बीमारी के मरीज हैं। पांच को दवा दी है और पांच को | घडीभर बाद फूल कुम्हला जाएंगे, नाली की दुर्गंध फूलों के पार सिर्फ पानी दिया है। बड़ी मुश्किल है। दवा वाले भी तीन ठीक हो | आकर फैलने लगेगी। थोड़ी देर में नाली फूलों को डुबा लेगी। [114 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < अपरिग्रही चित्त - झूठी शांति हो सकती है—सुझाव से, सम्मोहन से। और | में नहीं ले जाने वाली है। फिर ठीक ढंग की शांति का अर्थ हुआ, सम्मोहन की हजार तरह की विधियां दुनिया में प्रचलित हैं, जिनसे | | जो व्यक्ति अपने भीतर के अशांति के कारणों को समझता है। आदमी अपने को मान ले सकता है कि मैं शांत हूं। और भी रास्ते | ___ ध्यान रहे, ठीक ढंग की शांति शांति लाने से आती ही नहीं। ठीक हैं। और भी रास्ते हैं, जिनसे आदमी अपने को शांत करने के | ढंग की शांति अशांति के कारणों को समझकर, अशांति को निमंत्रण खयाल में डाल सकता है। लेकिन उन रास्तों से शांत हुआ आदमी | देने के हमने जो इंतजाम किए हैं, उनको समझकर आती है। भीतर नहीं जा सकेगा। जबर्दस्ती भी अपने को शांत कर सकते हैं। आप अशांत क्यों हैं, इसे समझें। यही बुनियादी बात है। शांत जबर्दस्ती भी अपने को शांत कर सकते हैं! अगर अपने से लड़े ही कैसे हों, इसे मत समझें। यह बुनियादी बात नहीं है। अशांत क्यों चले जाएं, और जबर्दस्ती अपने ऊपर किए चले जाएं सब तरह की, | तो अपने को शांत कर सकते हैं। ___ अशांति के कारण दिखाई पड़ेंगे; हैं ही। हम ही अपने को अशांत लेकिन वह शांति होगी बस, जबर्दस्ती की शांति। भीतर उबलता | | करते हैं। कारण हैं भीतर हमारे। अशांति के कारणों को समझें। और हुआ तूफान होगा। भीतर जलती हुई आग होगी। ठीक ज्वालामुखी | | जब अशांति के कारण बहुत स्पष्ट दिखाई पड़ेंगे, तो आपके हाथ भीतर उबलता रहेगा और ऊपर सब शांत मालूम पड़ेगा। | में है। अब आप अशांत होना चाहें, तो मजे से हों, कुशलता से हों, ऐसे शांत बहुत लोग हैं, जो ऊपर से शांत दिखाई पड़ते हैं। ढंग से हों, पूरी व्यवस्था से हों; न होना चाहें, तो कोई दूसरा लेकिन इनके भीतर बहुत ज्वालामुखी है, उबलते रहते हैं। हां, ऊपर आपको कह नहीं रहा है कि आप अशांत हों। से उन्होंने एक व्यवस्था कर ली है। जबर्दस्ती की एक डिसिप्लिन, | अशांति के कारण हैं। लेकिन हम ऐसे लोग हैं कि एक तरफ एक आउटर डिसिप्लिन, एक बाह्य अनुशासन अपने ऊपर थोप | | शांत होने की व्यवस्था करते हैं, दूसरी तरफ अशांति के बीजों को लिया है। ठीक समय पर सोकर उठते हैं। ठीक भोजन लेते हैं। ठीक पानी डालते चले जाते हैं! बात जो बोलनी चाहिए, बोलते हैं। ठीक शब्द जो पढ़ने चाहिए, अब एक आदमी कहता है कि मझे शांत होना है. लेकिन पढ़ते हैं। ठीक समय सो जाते हैं। यंत्रवत घूमते हैं। गलत का प्रभाव | अहंकार का पोषण किए चला जाता है। अब उसको कोई कहे कि न पड़ जाए, उससे बचते हैं। जिस प्रभाव में उनको जीना है, शांति वह शांत होगा कैसे! एक तरफ कहता है, शांत होना है, दूसरी तरफ में जीना है, उसका धुआं अपने चारों तरफ पैदा रखते हैं। तो फिर परिग्रह के लिए पागल हुआ चला जाता है कि एक चीज और बढ़ एक-एक सतह ऊपर की पर्त शांत दिखाई पड़ने लगती है और | जाए घर में तो स्वर्ग उतर आएगा। अब वह एक तरफ शांत होना भीतर सब अशांत बना रहता है। चाहता है। शायद वह इसीलिए शांत होना चाहता है कि जो फर्नीचर कृष्ण कहते हैं सशर्त बात, ठीक रूप से हो गया है मन शांत | अभी नहीं उपलब्ध कर पाता है, शायद शांत होकर उपलब्ध कर जिसका। ले। जो दुकान अभी ठीक से नहीं चलती, शायद शांत होने से ठीक किसका होता है ठीक रूप से फिर शांत मन ? ठीक रूप से शांत चलने लगे। शांत भी वह इसीलिए शायद होना चाहता है कि उसका होता है. जो शांति की चेष्टा ही नहीं करता. वरन ठीक इसके अशांति का जो इंतजाम कर रहा है. उसमें जरा और कशलता और विपरीत अशांति को समझने की चेष्टा करता है। इसको फर्क समझ व्यवस्था आ जाए। लें आप। झूठे ढंग से शांत होता है वह मन, जो अशांति के कारणों __ अभी एक युवक मेरे पास आया। उसने कहा कि मन बहुत की तो फिक्र ही नहीं करता कि मैं अशांत क्यों हूं, शांत करने की अशांत है, परीक्षा पास है। मेडिकल कालेज का विद्यार्थी है। परीक्षा फिक्र करता चला जाता है। भीतर अशांति के कारण बने रहते हैं पास है, मन बहुत अशांत है। कोई रास्ता बताएं कि मेरा मन शांत पूर्ववत, भीतर अशांति का सब कुछ जाल, व्यवस्था मौजूद रहती | | हो जाए। मैंने कहा, शांत करना किसलिए चाहते हो? करोगे क्या है पूर्ववत, और वह ऊपर से शांत करने का इंतजाम करता चला शांत करके? उसने कहा, करना किसलिए चाहता हूं? आप भी जाता है। क्या बात पूछते हैं। मुझे गोल्ड मेडल लाना है परीक्षा में। तो शांत जो व्यक्ति अपने भीतर की अशांति के ऊपर शांति को आरोपित हुए बिना बहुत मुश्किल है। करता है, वह गलत ढंग की शांति को उपलब्ध होता है। वह ध्यान मैंने कहा कि तू मुझे माफ कर, नहीं पीछे मुझे बदनाम करेगा कि 115 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 मुझसे पूछा, मैंने रास्ता बताया और तू शांत नहीं हो पाया! क्योंकि | पकड़े खड़ा हूं कि जब मुझे ठीक विधि मिल जाए, तो इसकी जगह गोल्ड मेडल जिसे लाना है, वह अशांति का तो सब आरोपण किए | इसको पहुंचाकर अपने घर जाऊ! चला जा रहा है; अशांति का कारण थोपता चला जा रहा है। मेरा ___ वह आदमी ठीक कहता मालूम पड़ता है। वह कहता है कि मैं अहंकार दूसरों के अहंकार के सामने स्वर्ण-मंडित दिखाई पड़े। मैं | | इसीलिए पकड़े खड़ा हूं कि कहीं शाखा भटक न जाए इधर-उधर। सबके आगे खड़ा हो जाऊं। यही तो अशांति की जड़ है। और तू तो जब मुझे कोई ठीक विधि बताने वाला आदमी मिल जाएगा, कोई शांत होना चाहता है इसीलिए, ताकि सबके पहले खड़ा हो जाए! | सदगुरु, तो मैं इसे इसकी जगह पहुंचाकर अपने घर चला जाऊंगा! तू उलटी बातें कर रहा है। अगर तुझे शांत होना है, तो पहले तो तू | कपा करें. उससे कहें कि त हाथ छोड दे इस शाखा का. यह यह समझ, अशांत तू कब से हुआ है! अपनी जगह पहुंच जाएगी। यह तेरी वजह से परेशानी में है और उसने कहा कि आप ठीक ही कहते हैं, जब से यह गोल्ड मेडल अटकी है। तू छोड़! यह अपने आप चली जाएगी। मेरे दिमाग में चढ़ा है, तभी से मैं अशांत हूं। पहले मैं ऐसा अशांत आपने कभी देखा है, शाखा जब छोड़ दें आप हाथ से, तो नहीं था। पिछले वर्ष बड़ी मुश्किल हो गई कि मैं फर्स्ट क्लास आ | एकदम अपनी जगह पर नहीं चली जाती। कई बार डोलती है। पहले . गया। उसके पहले तो मैं कभी फर्स्ट क्लास आया नहीं था। गोल्ड | लंबा डोल लेती है, फिर छोटा, फिर और छोटा, फिर और छोटा, मेडल कभी मेरे सिर ने न पकड़ा था। पिछले साल गड़बड़ हो गई। | फिर और छोटा। फिर कंपती रहती है। फिर कंपते-कंपते शांत हो तब से मैं बिलकुल अशांत हूं। न नींद है, न चैन है। गोल्ड मेडल | जाती है। क्यों? क्योंकि आपने खींचकर उसके साथ जो कशमकश दिखाई पड़ता है। वह नहीं आया, तो क्या होगा! कोई शांति की | की, और आपने जो इतनी शक्ति खींचकर लगाई, उसको उसे तरकीब बता दें कि मैं शांत हो जाऊं, तो यह गोल्ड मेडल-कम | | फेंकना पड़ता है, थ्रोइंग आउट। उस शक्ति को वह बाहर फेंकती से कम इस सालभर शांत रह जाऊं, बस! है, छिड़कती है। नहीं तो वह अपनी जगह नहीं पहुंच पाएगी, जब ___ अब यह आदमी जो पूछ रहा है, यह हम सब का यही पूछना | तक आपके हाथ से दी गई शक्ति को फेंक न दे। उसे फेंकने के है। हम शांत इसीलिए होना चाहते हैं, ताकि अशांति की बगिया को लिए वह कंपती है, डोलती है, उसे बाहर निकालती है, फिर अपनी ठीक से पल्लवित कर सकें। बहुत मजेदार है आदमी का मन। तो जगह वापस पहुंच जाती है। फिर शांति झूठी ही होगी। फिर ऊपर से छिड़कने वाली शांति होगी। ठीक ऐसे ही चित्त अशांति के कारणों से अटका है। आप कहते भीतर तो कुछ होने वाला नहीं है। हैं, शांत कैसे हो जाएं ? तो गलत पूछते हैं। आप इतना ही पूछे कि इसलिए कृष्ण जब कहते हैं, ठीक रूप से शांत हो गया मन अशांत कैसे हो गए? और कृपा करके जहां-जहां अशांति दिखाई जिसका, तो वे कहते हैं कि जिसने अशांत होने के कारण छोड़ | पड़े, उस-उस कारण को छोड़ दें। चित्त अपने आप थोड़ा कंपेगा, दिए हैं। डोलेगा। कम डोलेगा, कम डोलेगा, वापस अपनी जगह शांत हो और अशांत होने के कारण आपने छोड़े कि मन ऐसे ही शांत हो जाएगा। और जब चित्त सब अशांति के कारणों से छूटकर अपनी जाता है. जैसे कोई वक्ष की शाखा को खींचकर खड़ा हो जाए हाथ जगह पहुंच जाता है, तो अपनी जगह पहुंच गए चित्त का नाम ही से, और रास्ते से आप गुजरें और आपसे पूछे कि मुझे इस वृक्ष की | शांति है। स्व-स्थान पर पहुंच गया चित्त शांति है। शाखा को इसकी जगह वापस पहुंचाना है, क्या करूं? तो आप कहां-कहां आपने अटकाया है चित्त को, वहां-वहां से हटा दें। कहें कि कृपा करके वृक्ष की शाखा को उसकी जगह पहुंचाने का हटा दें, अर्थात न अटकाएं, बस। हटाने के लिए कुछ और आपको आप कोई इंतजाम न करें, सिर्फ इसे पकड़कर मत खड़े रहें, इसे अलग से करने की जरूरत नहीं है, सिर्फ न अटकाएं। व्यक्तियों से छोड़ दें। यह अपने से अपनी जगह पहुंच जाएगी। वृक्ष काफी समर्थ अटकाया है, वस्तुओं से अटकाया है, अहंकार से बांधा है, यश, है। आप कृपा करके इसे छोड़ें। आप पहुंचाने का कोई उपाय न सम्मान–किससे बांधा है? कहां से अशांति पकड़ रही है? उसे करें। वृक्ष को आपकी सहायता की कोई भी जरूरत नहीं है। आप वहां से हट जाने दें। चित्त शांत हो जाएगा। और तब कृष्ण जो कहते सिर्फ छोड़ें। लेकिन वह आदमी कहे कि अगर मैं छोड़ दूं और यह | हैं, वह समझ में आएगा-ठीक रूप से शांत हुआ चित्त। अपना जगह न पहुच पाए, तो बड़ी कठिनाई होगी। मैं इसीलिए ठीक रूप से शांत हुआ चित्त वह है, जिसके भीतर अशांति के 1116 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < अपरिग्रही चित्त > कोई कारण न रहे—तब। अन्यथा आप जो भी करेंगे, वह सब गैर-ठीक रूप से हुई शांति होगी। और उस शांति से कोई द्वार समाधि का नहीं खुलता। वह अंतर-गुहा के द्वार ठीक शांति से ही गुजरते हैं। ये दो बातें खयाल में रखेंगे, तो अंतर-गुहा के पास पहुंचने में निरंतर आसानी होती चली जाती है। एक पांच मिनट और रुकेंगे। संन्यासी कीर्तन करेंगे, उसमें साथ दें। शब्द सुने, बुद्धि की थोड़ी बात की। अब थोड़ी अबुद्धि की, बुद्धिहीन थोड़ी बात कर लें। Page #144 --------------------------------------------------------------------------  Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 6 आठवां प्रवचन योगाभ्यास-गलत को काटने के लिए Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः। पुरुष का अर्थ है, एक बहुत बड़ी पुरी के बीच रहते हैं आप, एक न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन । । १६ ।। बहुत बड़े नगर के बीच। आप खुद एक बड़े नगर हैं, एक बड़ा पुर। - युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु । उसके बीच आप जो हैं, उसको पुरुष कहा है। इसीलिए कहा है युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा । । १७ ।। पुरुष कि आप छोटी-मोटी घटना नहीं हैं; एक महानगरी आपके परंतु हे अर्जुन, यह योग न तो बहुत खाने वाले का सिद्ध भीतर जी रही है। होता है और न बिलकुल न खाने वाले का तथा न अति | एक छोटे-से मस्तिष्क में कोई तीन अरब स्नायु तंतु हैं। एक शयन करने के स्वभाव वाले का और न अत्यंत जागने वाले छोटा-सा जीवकोश भी कोई सरल घटना नहीं है: अति जटिल का ही सिद्ध होता है। घटना है। ये जो सात करोड़ जीवकोश शरीर में हैं, उनमें एक यह दुखों का नाश करने वाला योग तो यथायोग्य आहार जीवकोश भी अति कठिन घटना है। अभी तक वैज्ञानिक-अभी और विहार करने वाले का तथा कर्मों में यथायोग्य चेष्टा तक-उसे समझने में समर्थ नहीं थे। अब जाकर उसकी मौलिक करने वाले का और यथायोग्य शयन करने तथा जागने वाले रचना को समझने में समर्थ हो पाए हैं। अब जाकर पता चला है कि का ही सिद्ध होता है। उस छोटे से जीवकोश, जिसके सात करोड़ संबंधियों से आप निर्मित होते हैं, उसकी रासायनिक प्रक्रिया क्या है। यह सारा का सारा जो इतना बड़ा व्यवस्था का जाल है आपका, 1 मत्व-योग की और एक दिशा का विवेचन कृष्ण करते इस व्यवस्था में एक संगीत, एक लयबद्धता, एकतानता, एक हार्मनी रा हैं। कहते हैं वे, अति–चाहे निद्रा में, चाहे भोजन में, | अगर न हो, तो आप भीतर प्रवेश न कर पाएंगे। अगर यह पूरा का चाहे जागरण में समता लाने में बाधा है। किसी भी | पूरा आपका जो पुर है, आपकी जो महानगरी है शरीर की, मन की, बात की अति, व्यक्तित्व को असंतुलित कर जाती है, अनबैलेंस्ड | | अगर यह अव्यवस्थित, केआटिक, अराजक है, अगर यह पूरी की कर जाती है। पूरी नगरी विक्षिप्त है, तो आप भीतर प्रवेश न कर पाएंगे। प्रत्येक वस्तु का एक अनुपात है; उस अनुपात से कम या ज्यादा आपके भीतर प्रवेश के लिए जरूरी है कि यह पूरा नगर हो, तो व्यक्ति को नुकसान पहुंचने शुरू हो जाते हैं। दो-तीन बातें संगीतबद्ध, लयबद्ध, शांत, मौन, प्रफुल्लित, आनंदित हो, तो . खयाल में ले लेनी चाहिए। आप इसमें भीतर आसानी से प्रवेश कर पाएंगे। अन्यथा बहुत एक, आधारभूत। व्यक्ति एक बहुत जटिल व्यवस्था है, बहुत छोटी-सी चीज आपको बाहर अटका देगी-बहुत छोटी-सी कांप्लेक्स युनिटी है। व्यक्ति का व्यक्तित्व कितना जटिल है, चीज। और अटका देती है इसलिए भी कि चेतना का स्वभाव ही इसका हमें खयाल भी नहीं होता। इसीलिए प्रकृति खयाल भी नहीं यही है कि वह आपके शरीर में कहां कोई दुर्घटना हो रही है, उसकी देती, क्योंकि उतनी जटिलता को जानकर जीना कठिन हो जाएगा। खबर देती रहे। एक छोटा-सा व्यक्ति उतना ही जटिल है, जितना यह पूरा - तो अगर आपके शरीर में कहीं भी कोई दुर्घटना हो रही है, तो ब्रह्मांड। उसकी जटिलता में कोई कमी नहीं है। और एक लिहाज चेतना उस दुर्घटना में उलझी रहेगी। वह इमरजेंसी, तात्कालिक से ब्रह्मांड से भी ज्यादा जटिल हो जाता है, क्योंकि विस्तार बहुत | | जरूरत है उसकी, आपातकालीन जरूरत है कि सारे शरीर को भूल कम है व्यक्ति का और जटिलता ब्रह्मांड जैसी है। एक साधारण से | जाएगी और जहां पीड़ा है, अराजकता है, लय टूट गई है, वहां शरीर में सात करोड़ जीवाणु हैं। आप एक बड़ी बस्ती हैं, जितनी ध्यान अटक जाएगा। बड़ी कोई बस्ती पृथ्वी पर नहीं है। टोकियो की आबादी एक करोड़ | छोटा-सा कांटा पैर में गड़ गया, तो सारी चेतना कांटे की तरफ है। अगर टोकियो सात गुना हो जाए, तो जितने मनुष्य टोकियो में दौड़ने लगती है। छोटा-सा कांटा! बड़ी ताकत उसकी नहीं है, होंगे, उतने जीवकोश एक-एक व्यक्ति में हैं। | लेकिन उस छोटे-से कांटे की बहुत छोटी-सी नोक भी आपके ___ सात करोड़ जीवकोशों की एक बड़ी बस्ती हैं आप। इसीलिए भीतर सैकड़ों जीवकोशों को पीड़ा में डाल देती है और तब चेतना सांख्य ने, योग ने आपको जो नाम दिया है, वह दिया है, पुरुष। उस तरफ दौड़ने लगती है। शरीर का कोई भी हिस्सा अगर जरा-सा [120/ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -योगाभ्यास-गलत को काटने के लिए भी रुग्ण है, तो चेतना का अंतर्गमन कठिन हो जाएगा। चेतना उस से कम भोजन किया, तो भी भूख की खबर पेट देता रहेगा कि और, रुग्ण हिस्से पर अटक जाएगी। और; और जरूरत है। और अगर ज्यादा ले लिया, तो पेट कहेगा, __ अगर ठीक से समझें, तो हम ऐसा कह सकते हैं कि स्वास्थ्य का | | ज्यादा ले लिया; इतने की जरूरत न थी। और पेट पीड़ा का स्थल अर्थ ही यही होता है कि आपकी चेतना को शरीर में कहीं भी बन जाएगा। और तब आपकी चेतना पेट से अटक जाएगी। गहरे अटकने की जरूरत न हो। नहीं जा सकेगी। आपको सिर का तभी पता चलता है, जब सिर में भार हो, पीड़ा कृष्ण कहते हैं, भोजन ऐसा कि न कम, न ज्यादा। हो, दर्द हो। अन्यथा पता नहीं चलता। आप बिना सिर के जीते हैं, तो एक ऐसा बिंदु है भोजन का, जहां न कम है, न ज्यादा है। जब तक दर्द न हो। अगर ठीक से समझें, तो हेडेक ही हेड है। | जिस दिन आप उस अनुपात में भोजन करना सीख जाएंगे, उस दिन उसके बिना आपको पता नहीं चलता सिर का। सिरदर्द हो, तो ही पेट को चेतना मांगने की कोई जरूरत नहीं पड़ती। उस दिन चेतना पता चलता है। पेट में तकलीफ हो, तो पेट का पता चलता है। हाथ कहीं भी यात्रा कर सकती है। में पीड़ा हो, तो हाथ का पता चलता है। अगर आप कम सोए, तो शरीर का रो-रोआं, अणु-अणु ___ अगर आपका शरीर पूर्ण स्वस्थ है, तो आपको शरीर का पता | पुकार करता रहेगा कि विश्राम नहीं मिला, थकान हो गई है। शरीर नहीं चलता; आप विदेह हो जाते हैं। आपको देह का स्मरण रखने | | का अणु-अणु आपसे पूरे दिन कहता रहेगा कि सो जाओ, सो की जरूरत नहीं रह जाती। जरूरत ही स्मरण रखने की तब पड़ती जाओ; थकान मालूम होती हैं; जम्हाई आती रहेगी। चेतना आपकी है, जब देह किसी आपातकालीन व्यवस्था से गुजर रही हो, | शरीर के विश्राम के लिए आतुर रहेगी। तकलीफ में पड़ी हो, तो फिर ध्यान रखना पड़ता है। और उस समय | ___ अगर आप ज्यादा सोने की आदत बना लिए हैं, तो शरीर जरूरत सारे शरीर का ध्यान छोड़कर, आत्मा का ध्यान छोड़कर उस से ज्यादा अगर सो जाए या जरूरत से ज्यादा उसे सुला दिया जाए, छोटे-से अंग पर सारी चेतना दौड़ने लगती है, जहां पीड़ा है! तो सुस्त हो जाएगा; आलस्य से, प्रमाद से भर जाएगा। और चेतना कृष्ण का यह समत्व-योग शरीर के संबंध में यह सूचना आपको दिनभर उसके प्रमाद से पीड़ित रहेगी। नींद का भी एक अनुपात है, देता है। अर्जुन को कृष्ण कहते हैं कि यदि ज्यादा आहार लिया, तो | गणित है। और उतनी ही नींद, जहां न तो शरीर कहे कि कम सोए, भी योग में प्रवेश न हो सकेगा। क्योंकि ज्यादा आहार लेते ही सारी | न शरीर कहे ज्यादा सोए, ध्यानी के लिए सहयोगी है। चेतना पेट की तरफ दौड़नी शुरू हो जाती है। इसलिए कृष्ण एक बहुत वैज्ञानिक तथ्य की बात कर रहे हैं। इसलिए आपको खयाल होगा, भोजन के बाद नींद मालूम होने सानुपात व्यक्तित्व चाहिए, अनुपातहीन नहीं। अनुपातहीन व्यक्तित्व लगती है। नींद का और कोई वैज्ञानिक कारण नहीं है। नींद का अराजक, केआटिक हो जाएगा। उसके भीतर की जो लयबद्धता है, वैज्ञानिक कारण यही है कि जैसे ही आपने भोजन लिया. चेतना पेट वह विशंखल हो जाएगी. टट जाएगी। और टटी हई विश्रंखल की तरफ प्रवाहित हो जाती है। और मस्तिष्क चेतना से खाली होने | | स्थिति में, ध्यान में प्रवेश आसान नहीं होगा। आपने अपने ही हाथ लगता है। इसलिए मस्तिष्क धुंधला, निद्रित, तंद्रा से भरने लगता | से उपद्रव पैदा कर लिए हैं और उन उपद्रवों के कारण आप भीतर है। ज्यादा भोजन ले लिया, तो ज्यादा नींद मालूम होने लगेगी, न जा सकेंगे। और हम सब ऐसे उपद्रव पैदा करते हैं, अनेक कारणों क्योंकि पेट को इतनी चेतना की जरूरत है कि अब मस्तिष्क काम | से; वे कारण खयाल में ले लेने चाहिए। नहीं कर सकता। इसलिए भोजन के बाद मस्तिष्क का कोई काम | - पहला तो इसलिए उपद्रव पैदा हो जाता है कि हम इस सत्य को करना कठिन है। और अगर आप जबर्दस्ती करें, तो पेट को पचने | | अब तक भी ठीक से नहीं समझ पाए हैं कि अनुपात प्रत्येक व्यक्ति में तकलीफ पड़ जाएगी, क्योंकि उतनी चेतना जितनी पचाने के लिए के लिए भिन्न होगा। इसलिए हो सकता है कि पिता की नींद खुल जरूरी है, पेट को उपलब्ध नहीं होगी। जाती है चार बजे, तो घर के सारे बच्चों को उठा दे कि ब्रह्ममुहूर्त तो अगर अति भोजन किया, तो चेतना पेट की तरफ जाएगी; हो गया, उठो। नहीं उठते हो, तो आलसी हो। और अगर कम भोजन किया या भूखे रहे, तो भी चेतना पेट की लेकिन पिता को पता होना चाहिए, उम्र बढ़ते-बढ़ते नींद की तरफ जाएगी। दो स्थितियों में चेतना पेट की तरफ दौड़ेगी। जरूरत जरूरत शरीर के लिए रोज कम होती चली जाती है। तो बाप जब [12]] Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < गीता दर्शन भाग-3> बहुत ज्ञान दिखला रहा है बेटे को, तब उसे पता नहीं कि बेटे की होता। अब शरीर विसर्जित होने की तैयारी कर रहा है। नींद की कोई और उसकी उम्र में कितना फासला है! बेटे को ज्यादा नींद की जरूरत नहीं है। नींद निर्माणकारी तत्व है। उसकी जरूरत तभी तक जरूरत है। है, जब तक शरीर में कुछ नया बनता है। जब शरीर में सब नया मां के पेट में बच्चा नौ महीने तक चौबीस घंटे सोता है; जरा भी बनना बंद हो गया, तो बूढ़े आदमी को ठीक से कहें तो नींद नहीं नहीं जगता। क्योंकि शरीर निर्मित हो रहा होता है, बच्चे का जगना आती; वह सिर्फ विश्राम करता है; वह थकान है। बच्चे ही सोते हैं खतरनाक है। बच्चे को चौबीस घंटे निद्रा रहती है। इतना प्रकृति | । ठीक से; बूढ़े तो सिर्फ थककर विश्राम करते हैं। क्योंकि अब मौत भीतर काम कर रही है कि बच्चे की चेतना उसमें बाधा बन जाएगी: करीब आ रही है। अब शरीर को कोई नया निर्माण नहीं करना है। उसे बिलकुल बेहोश रखती है। डाक्टरों ने तो बहुत बाद में आपरेशन | | लेकिन दुनिया के सभी शिक्षक–स्वभावतः, बूढ़े आदमी करने के लिए बेहोशी, अनेस्थेसिया खोजा; प्रकृति सदा से | | शिक्षक होते हैं वे खबरें दे जाते हैं, चार बजे उठो, तीन बजे उठो। अनेस्थेसिया का प्रयोग कर रही है। जब भी कोई बड़ा आपरेशन चल | कठिनाई खड़ी होती है। बूढ़े शिक्षक होते हैं; बच्चों को मानकर रहा है, कोई बड़ी घटना घट रही है, तब प्रकृति बेहोश रखती है। । चलना पड़ता है। अनुपात टूट जाते हैं। चौबीस घंटे बच्चा सोया रहता है। मांस बन रहा है, मज्जा बन | | भोजन के संबंध में भी वैसा ही होता है। बचपन से ही. बच्चों को रही है, तंतु बन रहे हैं। उसका चेतन होना बाधा डाल सकता है। | कितना भोजन चाहिए, यह बच्चे की प्रकृति को हम तय नहीं करने फिर बच्चा पैदा होने के बाद तेईस घंटे सोता है, बाईस घंटे सोता | | देते। यह मां अपने आग्रह से निर्णय लेती है कि कितना भोजन। बच्चे है, बीस घंटे सोता है, अठारह घंटे सोता है। उम्र जैसे-जैसे बड़ी अक्सर इनकार करते देखे जाते हैं घर-घर में कि नहीं खाना है। और होती है, नींद कम होती चली जाती है। मां-बाप मोहवश ज्यादा खिलाने की कोशिश में संलग्न हैं! और एक इसलिए बूढ़े कभी भूलकर बच्चों को अपनी नींद से शिक्षा न दें। | बार प्रकृति ने संतुलन छोड़ दिया, तो विपरीत अति पर जा सकती है, अन्यथा उनको नुकसान पहुंचाएंगे, उनके अनुपात को तोड़ेंगे। लेकिन संतुलन पर लौटना मुश्किल हो जाता है। लेकिन बूढ़ों को शिक्षा देने का शौक होता है। बुढ़ापे का खास शौक | हम सब बच्चों की सोने की, खाने की सारी आदतें नष्ट करते शिक्षा देना है, बिना इस बात की समझ के। हैं। और फिर जिंदगीभर परेशान रहते हैं। वह जिंदगीभर के लिए इसलिए हम बच्चों के अनुपात को पहले से ही बिगाड़ना शुरू | | परेशानी हो जाती है। कर देते हैं। और अनुपात जब बिगड़ता है, तो खतरा क्या है? इजरायल में एक चिकित्सक ने एक बहुत अनूठा प्रयोग किया अगर आपने बच्चे को कम सोने दिया, जबर्दस्ती उठा लिया, तो | | है। प्रयोग यह है, हैरान करने वाला प्रयोग है। उसे यह खयाल इसकी प्रतिक्रिया में वह किसी दिन ज्यादा सोने का बदला लेगा। और पकड़ा बच्चों का इलाज करते-करते कि बच्चों की आ तब उसके सब अनपात असंतलित हो जाएंगे। अगर आप जीते. तो बीमारियां मां-बाप की भोजन खिलाने की आग्रहपर्ण वत्ति से पैदा वह कम सोने वाला बन जाएगा। और अगर खुद जीत गया, तो | | होती हैं। बच्चों का चिकित्सक है, तो उसने कुछ बच्चों पर प्रयोग ज्यादा सोने वाला बन जाएगा। लेकिन अनुपात खो जाएगा। | करना शुरू किया। और सिर्फ भोजन रख दिया टेबल पर सब तरह अगर मां-बाप बलशाली हुए, पुराने ढांचे और ढर्रे के हुए, तो | का और बच्चों को छोड़ दिया। उन्हें जो खाना है, वे खा लें। नहीं उसकी नींद को कम करवा देंगे। और अगर बच्चा नए ढंग का, नई | खाना है, न खाएं। जितना खाना है, खा लें। नहीं खाना है, पीढ़ी का हुआ, उपद्रवी हुआ, बगावती हुआ, तो ज्यादा सोना शुरू | | बिलकुल न खाएं। फेंकना है, फेंक दें। खेलना है, खेल लें। जो कर देगा। लेकिन एक बात पक्की है कि दो में से कोई भी जीते, | करना है! और विदा हो जाएं। प्रकृति हार जाएगी; और वह जो बीच का अनुपात है, वह सदा के वह इस प्रयोग से एक अजीब निष्कर्ष पर पहुंचा। वह निष्कर्ष लिए अस्तव्यस्त हो जाएगा। | यह था कि बच्चे को अगर कोई खास बीमारी है, तो उस बीमारी में बूढ़े आदमी को जब मौत करीब आने लगती है, तो तीन-चार | जो भोजन नहीं किया जा सकता, वह बच्चा छोड़ देगा टेबल पर, घंटे से ज्यादा की नींद की कोई जरूरत नहीं रहती। उसका कारण है | | चाहे कितना ही स्वादिष्ट उसे बनाया गया हो। उस बीमारी में उस कि शरीर में अब कोई निर्माण नहीं होता, शरीर अब निर्मित नहीं| बच्चे को जो भोजन नहीं करना चाहिए, वह नहीं ही करेगा। और 122 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -योगाभ्यास-गलत को काटने के लिए एक बच्चे पर नहीं, ऐसा सैकड़ों बच्चों पर प्रयोग करके उसने हम संख्या गिन लें और सारे आदमियों के नींद के घंटे गिनकर नतीजे लिए हैं। और उस बच्चे को उस समय जिस भोजन की | उसमें भाग दे दें, तो सात आता है; यह एवरेज है। एवरेज से ज्यादा जरूरत है, वह उसको चुन लेगा, उस टेबल पर। इसको वह कहता असत्य कोई चीज नहीं होती। है, यह इंस्टिक्टिव है; यह बच्चे की प्रकृति का ही हिस्सा है। जैसे अहमदाबाद में एवरेज हाइट क्या है आदमियों की? ऊंचाई यह प्रत्येक पशु की प्रकृति का हिस्सा है। सिर्फ आदमी ने अपनी | क्या है औसत? तो सब आदमियों की ऊंचाई नाप लें। उसमें छोटे प्रकृति को विकृत किया हुआ है। संस्कृति के नाम पर विकृति ही बच्चे भी होंगे, जवान भी होंगे, बूढ़े भी होंगे, स्त्रियां भी होंगी, पुरुष हाथ लगती है। प्रकृति भी खो जाती मालूम पड़ती है। कोई जानवर | भी होंगे। सबकी ऊंचाई नापकर, फिर सबकी संख्या का भाग दे दें। गलत भोजन करने को राजी नहीं होता, जब तक कि आदमी उसको | | तो जो ऊंचाई आएगी, उस ऊंचाई का शायद ही एकाध आदमी मजबूर न कर दे। जो उसका भोजन है, वह वही भोजन करता है। अहमदाबाद में खोजने से मिले—उस ऊंचाई का! वह औसत ऊंचाई और बड़े मजे की बात है कि कोई भी जानवर अगर जरा ही | है। उस ऊंचाई का आदमी खोजने आप मत जाना। वह नहीं मिलेगा। बीमार हो जाए, तो भोजन बंद कर देता है। बल्कि अधिक जानवर | ___ सब नियम औसत से निर्मित होते हैं। औसत कामचलाऊ है, जैसे ही बीमार हो जाएं, भोजन ही बंद नहीं करते, बल्कि सब | सत्य नहीं है। किसी को पांच घंटे सोना जरूरी है। किसी को छ: जानवरों की अपनी व्यवस्था है, वॉमिट करने की। वह जो पेट में घंटे, किसी को सात घंटे। कोई दूसरा आदमी तय नहीं कर सकता भोजन है, उसे भी बाहर फेंक देते हैं। अगर आपके कुत्ते को जरा | | कि कितना जरूरी है। आपको ही अपना तय करना पड़ता है। प्रयोग पेट में तकलीफ मालूम हुई, वह जाकर घास चबा लेगा और उल्टी से ही तय करना पड़ता है। और कठिन नहीं है। करके सारे पेट को खाली कर लेगा। और तब तक भोजन न लेगा, अगर आप ईमानदारी से प्रयोग करें, तो आप तय कर लेंगे, जंब तक पेट वापस सुव्यवस्थित न हो जाए। आपको कितनी नींद जरूरी है। जितनी नींद के बाद आपको पुनः नींद सिर्फ आदमी एक ऐसा जानवर है, जो प्रकृति की कोई आवाज | का खयाल न आता हो, और जितनी नींद के बाद आलस्य न पकड़ता नहीं सुनता। लेकिन हम बचपन से बिगाड़ना शुरू करते हैं। | हो, ताजगी आ जाती हो, वह बिंदु आपकी नींद का बिंदु है। इसलिए इस चिकित्सक का कहना है कि सब बच्चे इंस्टिक्टिवली समय भी तय नहीं किया जा सकता कि छः बजे शाम सो जाएं, जो ठीक है, वही करते हैं। लेकिन बड़े उन्हें बिगाड़ने में इस बुरी | कि आठ बजे, कि बारह बजे रात; कि सुबह छः बजे उठे, कि चार तरह से लगे रहते हैं कि जिसका कोई हिसाब नहीं है! जब उन्हें भूख बजे, कि सात बजे! वह भी तय नहीं किया जा सकता। वह भी नहीं है. तब उनको मां दध पिलाए जा रही है। जब उनको भख लगी प्रत्येक व्यक्ति के शरीर की आंतरिक जरूरत भिन्न है। और उस है, तब मां श्रृंगार में लगी है; उनको दूध नहीं पिला सकती! सब | भिन्न जरूरत के अनुसार प्रत्येक को अपना तय करना चाहिए। अस्तव्यस्त लेकिन हमारी व्यवस्था गड़बड़ है। हमारी व्यवस्था ऐसी है कि इसलिए भी हमारा भोजन, हमारी निद्रा, हमारा जागरण, हमारे | सबको एक वक्त पर भोजन करना है। सबको एक वक्त पर दफ्तर जीवन की सारी चर्या अतियों में डोल जाती है, समन्वय को खो | | जाना है। सबको एक समय स्कूल पहुंचना है। सबको एक समय देती है। घर लौटना है। हमारी पूरी की पूरी व्यवस्था व्यक्तियों को ध्यान में दूसरी बात, प्रत्येक व्यक्ति की जरूरत अलग है। उम्र की ही | रखकर नहीं है। हमारी पूरी व्यवस्था नियमों को ध्यान में रखकर है। नहीं, एक ही उम्र के दस बच्चों की जरूरत भी अलग है। एक ही हालांकि इससे कोई फायदा नहीं होता, भयंकर नुकसान होता है। उम्र के दस वृद्धों की भी जरूरत अलग है। एक ही उम्र के दस | और अगर हम फायदे और नुकसान का हिसाब लगाएं, तो नुकसान युवाओं की भी जरूरत अलग है। जो भी नियम बनाए जाते हैं, वे | | भारी होता है। एवरेज पर बनते हैं-जो भी नियम बनाए जाते हैं। ते हैं जो भी नियम बनाए जाते हैं। अभी अमेरिका के एक विचारक बक मिलर ने एक बहत कीमती जैसे कि कहा जाता है कि हर आदमी को कम से कम सात घंटे | | सुझाव दिया है जीवनभर के विचार और अनुसंधान के बाद। और की नींद जरूरी है। लेकिन किस आदमी को? यह किसी आदमी के | | वह यह है कि सभी स्कूल एक समय नहीं खुलने चाहिए। यह तो लिए नहीं कहा गया है। यह सारी दुनिया के आदमियों की अगर | स्कूल में भर्ती होने वाले बच्चों पर निर्भर करना चाहिए कि वे कितने [123] Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 बजे उठते हैं; उस हिसाब से उनके स्कूल में भर्ती हो जाए। कई तरह | | इसलिए उपद्रव शुरू होते हैं-उपद्रव का कुल कारण इतना है कि के स्कूल गांव में होने चाहिए। सभी होटलों में एक ही समय, खाने | आपकी सब आदतें पैंतीस साल के पहले के आदमी की हैं और के समय पर लोग पहुंच जाएं, यह उचित नहीं है। सब लोगों के | उन्हीं आदतों को आप पैंतीस साल के बाद भी जारी रखना चाहते खाने का समय उनकी आंतरिक जरूरत से तय होना चाहिए। | हैं, जब कि सब जरूरतें बदल गई हैं। और इससे फायदे भी बहुत होंगे। आप उतना ही खाते हैं, जितना पैंतीस साल के पहले खाते थे। सभी दफ्तर एक समय खोलने की कोई भी तो जरूरत नहीं है। उतना कतई नहीं खाया जा सकता। शरीर को उतने भोजन की सभी दूकानें भी एक समय खोलने की कोई जरूरत नहीं है। इसके | जरूरत नहीं है। उतना ही सोने की कोशिश करते हैं, जितना पैंतीस बड़े फायदे तो ये होंगे कि अभी हम एक ही रास्ते पर ग्यारह बजे साल के पहले सोते थे। अगर नींद नहीं आती, तो परेशान होते हैं ट्रैफिक जाम कर देते हैं; वह जाम नहीं होगा। अभी जितनी बसों कि मेरी नींद खराब हो गई। अनिद्रा आ रही है। कोई गड़बड़ हो रही की जरूरत है, उससे तीन गुनी कम बसों की जरूरत होगी। अभी है। तो ट्रैक्वेलाइजर चाहिए, कि कोई दवाई चाहिए, कि थोड़ी शराब एक मकान में एक ही दफ्तर चलता है छः घंटे और बाकी वक्त पूरा पी लूं, कि क्या करूं! लेकिन यह भूल जाते हैं कि अब आपकी मकान बेकार पड़ा रहता है। तब एक ही मकान में दिनभर में चार जरूरत बदल गई है। अब आप उतना नहीं सो सकेंगे। दफ्तर चल सकेंगे। दुनिया की चौगुनी आबादी इतनी ही व्यवस्था रोज जरूरत बदलती है, इसलिए रोज सजग होकर आदमी को में नियोजित हो सकती है, चौगुनी आबादी! अभी जितनी आबादी तय करना चाहिए, मेरे लिए सुखद क्या है। है उससे। यही रास्ता अहमदाबाद का इससे चार गुने लोगों को | | और ध्यान रखें, दुख सूचना देता है कि आप कुछ गलत कर रहे चला सकता है। हैं। सिर्फ दुख सूचक है। और सुख सूचना देता है कि आप कुछ लेकिन गड़बड़ क्या है? ग्यारह बजे सभी दफ्तर जा रहे हैं! ठीक कर रहे हैं। समायोजित हैं, संतुलित हैं, तो भीतर एक सुख इसलिए रास्ते पर तकलीफ मालूम हो रही है। रास्ता भी परेशानी में की भावना बनी रहती है। यह सुख बहुत और तरह का सुख है। है और आप भी परेशानी में हैं. क्योंकि ग्यारह बजे सबको दफ्तर यह वह सख नहीं है, जो ज्यादा भोजन कर लेने से मिल जाता है। जाना है, तो ग्यारह बजे सबको खाना भी ले लेना है। फिर सबको ज्यादा भोजन करने से सिर्फ दुख मिल सकता है। यह वह सुख नहीं समय पर उठ भी आना है। ऐसा लगता है कि नियम के लिए है, जो रात देर तक जागकर सिनेमा देखने से मिल जाता है। ज्यादा आदमी है, आदमी के लिए नियम नहीं है। | जागकर सिर्फ दुख ही मिल सकता है। यह सुख संतुलन का है। हम एक बच्चे को कहते हैं कि उठो, स्कूल जाने का वक्त हो ठीक समय पर अपनी जरूरत के अनुकूल भोजन; ठीक समय गया। स्कूल को कहना चाहिए कि बच्चा हमारा नहीं उठता, यह पर अपनी जरूरत के अनुकूल निद्रा; ठीक समय पर अपनी जरूरत आने का वक्त नहीं है। स्कूल थोड़ी देर से खोलो! जिस दिन हम | के अनुकूल स्नान। ठीक चर्या, सम्यक चर्या से एक आंतरिक सुख वैज्ञानिक चिंतन करेंगे, यही होगा। और उससे हानि नहीं होगी, | की भाव-दशा बनती है। अनंत गुने लाभ होंगे। वह बहुत अलग बात है। वह सुख है बहुत और अर्थों में। वह यह जो कृष्ण कह रहे हैं, यह आप अपने-अपने, एक-एक | उत्तेजना की अवस्था नहीं है। वह सिर्फ भीतर की शांति की अवस्था व्यक्ति अपने लिए खोज ले कि उसके लिए कितनी नींद आवश्यक है। उस शांति की अवस्था में व्यक्ति ध्यान में सरलता से प्रवेश कर है। और यह भी रोज बदलता रहेगा। आज का खोजा हुआ सदा सकता है। और योग के लिए अनिवार्य है वह। काम नहीं पड़ेगा। पांच साल बाद बदल जाएगा, पांच साल बाद तो अपनी चर्या की सब तरफ से जांच-परख कर लेनी चाहिए। जरूरत बदल जाएगी। | किसी नियम के अनुसार नहीं, अपनी जरूरत के नियम के सारी तकलीफें पैंतीस साल के बाद शुरू होती हैं आदमी के | अनुसार। किसी शास्त्र के अनुसार नहीं, अपनी स्वयं की प्रकृति के शरीर में बीमारियां, तकलीफें, परेशानियां। अगर साधारण | अनुसार। और दुनिया में कोई कुछ भी कहे, उसकी फिक्र नहीं स्वस्थ आदमी है, तो पैंतीस साल के बाद उपद्रव शुरू होते हैं। और करना चाहिए। एक ही बात की फिक्र करनी चाहिए कि आपका उपद्रव का कुल कारण इतना है-यह नहीं कि आप बूढ़े हो रहे हैं, शरीर सुख की खबर देता है, तो आप ठीक जी रहे हैं। और आपका 124 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगाभ्यास-गलत को काटने के लिए - शरीर दुख की खबर देता है, तो आप गलत जी रहे हैं। ये सुख और करना पड़ेगा। और जो व्यक्ति भी इस संतुलन से चूक जाएगा, दुख मापदंड बना लेने चाहिए। | ध्यान तो बहुत दूर की बात है, वह जीवन के साधारण सुख से भी अति श्रम कोई कर ले, तो भी नुकसान होता है। श्रम बिलकुल चूक जाएगा। ध्यान का आनंद तो बहुत दूर है, वह जीवन के न करे, तो भी नुकसान हो जाता है। फिर उम्र के साथ बदलाहट | | साधारण जो सुख मिल सकते हैं, उनसे भी वंचित रह जाएगा। होती है। बच्चे को जितना श्रम जरूरी है, बूढ़े को उतना जरूरी नहीं __ ध्यान और योग के प्रवेश के लिए एक संतुलित शरीर, अति है। बुद्धि से जो काम कर रहा है और शरीर से जो काम कर रहा है, | संतुलित शरीर चाहिए। एक ही अति माफ की जा सकती है, उनकी जरूरतें बदल जाएंगी। बुद्धि से जो काम कर रहा है, उसे | संतुलन की अति, बस। और कोई एक्सट्रीम माफ नहीं की जा ज्यादा भोजन जरूरी नहीं है। शरीर से जो काम कर रहा है, उसे सकती। अति संतुलित! बस, यह एक शब्द माफ किया जा सकता थोड़ा ज्यादा भोजन जरूरी होगा। वह ज्यादा, जो बुद्धि से काम कर | है। बाकी और कोई अति, कोई एक्सट्रीम, कोई एक्सेस माफ नहीं रहा है, उसको मालूम पड़ेगा। उसके लिए वह ठीक है। की जा सकती। अति मध्य, एक्सट्रीम मिडिल, माफ किया जा जो शरीर से काम कर रहा है, उसे और किसी श्रम की अब सकता है, और कुछ माफ नहीं किया जा सकता। जरूरत नहीं है, कि वह शाम को जाकर टेनिस खेले। वह पागल बुद्ध ऐसा कहते थे। बुद्ध कहते थे, अति से बचो। मध्य में है। लेकिन जो बुद्धि से काम कर रहा है, उसके लिए शरीर के किसी चलो। सदा मध्य में चलो। हमेशा मध्य में रहो, बीच में। खोज लो श्रम की जरूरत है। उसे किसी खेल का, तैरने का, दौड़ने का, कुछ हर चीज का बीच बिंदु, वहीं रहो। न कुछ उपाय करना पड़ेगा। एक दिन सारिपुत्र ने बुद्ध को कहा कि भगवन! आप इतना प्रकृति संतुलन मांगती है। ज्यादा जोर देते हैं मध्य पर कि मुझे लगता है कि यह भी एक अति " हेनरी फोर्ड ने अपने संस्मरण में लिखवाया है कि मैं भी एक हो गई! हर चीज में मध्य, मध्य! यह तो एक अति हो गई! पागल हूं। क्योंकि जब एयरकंडीशनिंग आई, तो मैंने अपने सब बुद्ध ने कहा, एक अति माफ करता हूं। मध्य की अति, दि भवन एयरकंडीशन कर दिए। कार भी एयरकंडीशन हो गई। अपने | एक्सेस आफ बीइंग इन दि मिडिल, उसको माफ करता हूं। बाकी एयरकंडीशन भवन से निकलकर मैं अपनी पोर्च में अपनी कोई अति नहीं चलेगी। एक अति को चलाए रहना—मध्य, मध्य, एयरकंडीशन कार में बैठ जाता है। फिर तो बाद में उसने अपना मध्य-सब चीजों में मध्य। तो ध्यान में बड़ी सुगमता हो जाए। पोर्च भी एयरकंडीशन करवा लिया। कार निकलेगी. तब मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं. ध्यान में बडी कठिनाई है। आटोमेटिक दरवाजा खुल जाएगा। कार जाएगी, दरवाजा बंद हो | | ध्यान में बड़ी कठिनाई नहीं है। आप उपद्रव में हैं और आपके जाएगा। फिर इसी तरह वह अपने एयरकंडीशंड पोर्च में दफ्तर के | | उपद्रव की सारी की सारी व्यवस्था आप ही कर रहे हैं, कोई नहीं पहुंच जाएगा। फिर उतरकर एयरकंडीशंड दफ्तर में चला जाएगा। करवा रहा है! जो नहीं खाना चाहिए, वह खा रहे हैं! जो नहीं फिर उसको तकलीफ शुरू हुई। तो डाक्टरों से उसने पूछा कि पहनना चाहिए, वह पहन रहे हैं! जैसे नहीं बैठना चाहिए, वैसे बैठ क्या करें? तो उन्होंने कहा कि आप रोज सुबह एक घंटा और रोज रहे हैं। जैसे नहीं चलना चाहिए, वैसे चल रहे हैं! जैसे नहीं सोना शाम एक घंटा काफी गरम पानी के टब में पड़े रहें। चाहिए, वैसे सो रहे हैं। सब अव्यवस्थित किया हुआ है। फिर गरम पानी के टब में पड़े रहने से हेनरी फोर्ड ने लिखा है कि मेरा पूछते हैं एक दिन कि ध्यान में कोई गति नहीं होती है, बड़ी तकलीफ स्वास्थ्य बिलकुल ठीक हो गया। क्योंकि एक घंटे सुबह मुझे होती है। क्या मेरे पिछले जन्मों का कोई कर्म बाधा बन रहा है? पसीना-पसीना हो जाता, शाम को भी पसीना-पसीना हो जाता। ध्यान में कोई गति नहीं होती। बहुत मेहनत करता हूं, कुछ सार हाथ लेकिन तब मुझे पता चला कि मैं यह कर क्या रहा हं! दिनभर | नहीं आता है। पसीना बचाता हूं, तो फिर दो घंटे में इंटेंसली पसीने को निकालना कभी नहीं आएगा, क्योंकि मेहनत करने वाला इस स्थिति में पडता है, तब संतलन हो पाता है। नहीं है कि भीतर प्रवेश हो सके। आपको अपनी पूरी स्थिति बदल प्रकृति पूरे वक्त संतुलन मांगेगी। तो जो लोग बहुत विश्राम में | लेनी पड़ेगी। हैं, उन्हें श्रम करना पड़ेगा। जो लोग बहुत श्रम में हैं, उन्हें विश्राम | ___ ध्यान एक महान घटना है, एक बहुत बड़ी हैपनिंग है। उसकी | 125 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 गीता दर्शन भाग-3> पूर्व-तैयारी चाहिए। उसकी पूर्व-तैयारी के लिए यह सूत्र बहुत गिर जाता है। तो वह व्यक्ति चार बजे उठ आएगा बिलकुल ताजा। कीमती है। और इसीलिए कृष्ण कोई सीधे, डायरेक्ट सुझाव नहीं दे उसे दिनभर कोई अड़चन न होगी। किसी व्यक्ति का सुबह पांच रहे हैं। सिर्फ नियम बता रहे हैं। न अति भोजन, न अति अल्प और सात के बीच में तापमान गिरता है। तब वह अगर सात बजे भोजन। न अति निद्रा, न अति जागरण। न अति श्रम, न अति के पहले उठ आएगा, तो अड़चन में पड़ेगा। विश्राम। कोई सीधा नहीं कह रहे हैं, कितना। वह कितना आप पर पुरुषों और स्त्रियों के बीच अनेक प्रयोग के बाद दो घंटे का छोड़ दिया गया है। वह अर्जुन पर छोड़ दिया गया है। वह आपकी फासला खयाल में आया है। तो अधिक पुरुष पांच बजे उठ सकते जरूरत और आपकी बुद्धि खोजे। और प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन । | हैं, लेकिन अधिक स्त्रियां पांच बजे नहीं उठ सकती हैं। वे शरीर के का नियंता बन जाए। कोई किसी दूसरे से मर्यादा न ले, नहीं तो | फर्क हैं, वे बायोलाजिकल फर्क हैं। कठिनाई में पड़ेगा। जैसे-जैसे समझ बढ़ती है, लेकिन एक बात साफ होती जाती है जैसे आमतौर से घरों में पति पहले उठ आते हैं। थोड़ा चाय-वाय | | कि शरीर की अपनी नियमावली है। और शरीर के नियम, सिर्फ बनाकर तैयार करते हैं। मगर बड़ा संकोच अनुभव करते हैं कि कोई आपके शरीर के नियम नहीं हैं, बल्कि बड़े कास्मास से जुड़े हुए देख न ले कि पत्नी अभी उठी नहीं है और वे चाय वगैरह बना रहे | | हैं। देखा है हमने, चांद के साथ समुद्र में अंतर पड़ते हैं। कभी हैं। लेकिन यह बिलकुल उचित है, वैज्ञानिक है। आपने खयाल किया कि स्त्रियों का मासिक-धर्म भी चांद के साथ स्त्रियों के सोने की जितनी जांच-पड़ताल हुई है, वह पुरुषों से संबंधित है और जुड़ा हुआ है! अट्ठाइस दिन इसीलिए हैं, चांद के दो घंटा पीछे है-सारी जांच-पड़ताल से। आज अमेरिका में कोई चार सप्ताह। ठीक चांद के साथ जैसे समुद्र में अंतर पड़ता है, ऐसे दस स्लीप लेबोरेटरीज हैं, जो सिर्फ नींद पर काम करती हैं। वे स्त्री के शरीर में अंतर पड़ता है। कहती हैं कि पुरुषों और स्त्रियों के बीच नींद का दो घंटे का फासला लेकिन अभी जैसे-जैसे सभ्यता विकसित होती है, स्त्रियों का है। अगर पुरुष पांच बजे सुबह स्वस्थ उठ सकता है, तो स्त्री सात मासिक-धर्म अस्तव्यस्त होता चला जाता है सभ्यता के साथ। क्या बजे के पहले स्वस्थ नहीं उठ सकती है। लेकिन अगर स्त्री ने शास्त्र | हो गया? कहीं कोई संतुलन टूट रहा है। वह जो विराट के साथ पढे हैं. तो पति के पहले उठना चाहिए। पति अगर पांच बजे उठे. हमारे शरीर के तंत् जुड़े हैं, उनमें कहीं-कहीं विकृतियां हम अपने तो स्त्री को कम से कम साढ़े चार बजे तो उठ आना चाहिए। तब हाथ से पैदा कर रहे हैं। कहीं कोई गड़बड़ हो रही है। नुकसान होगा! आज जमीन पर, मैं मानता हूं, करीब-करीब पचास प्रतिशत से निद्रा का जो अध्ययन हुआ है वैज्ञानिक, उससे पता चला है कि ज्यादा स्त्रियां मासिक-धर्म से अति परेशान हैं। अनेक तरह की रात में दो घंटे के लिए, चौबीस घंटे में, प्रत्येक व्यक्ति के शरीर का परेशानियां उनके मैंसेस से पैदा होती हैं। और वह मैंसेस इसलिए तापमान नीचे गिर जाता है। सुबह जो आपको ठंड लगती है, वह परेशानी में पड़ा है कि स्त्री के व्यक्तित्व में जो प्रकृति के साथ इसलिए नहीं लगती कि बाहर ठंडक है! उसका असली कारण अनुकूलता होनी चाहिए, जो संतुलन होना चाहिए, वह खो गया आपके शरीर के तापमान का दो डिग्री नीचे गिर जाना है। बाहर की है। वह कोई संबंध नहीं रह गया है। ठंडक असली कारण नहीं है। हमने अपने ढंग से जीना शुरू कर दिया है, बिना इसकी फिक्र __ हर व्यक्ति का चौबीस घंटे में दो घंटे के लिए तापमान दो डिग्री किए कि हम बड़ी प्रकृति के एक हिस्से हैं। और हमें उस बड़ी प्रकृति नीचे गिर जाता है। वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि वे ही दो को समझकर उसके सहयोग में ही जीने के अतिरिक्त शांत होने का घंटे उस व्यक्ति के लिए गहरी निद्रा के घंटे हैं। अगर उन दो घंटों | कोई उपाय नहीं है। में वह व्यक्ति ठीक से सो ले, तो वह दिनभर ताजा रहेगा। और | लेकिन आदमी ने अपने को कुछ ज्यादा समझदार समझकर अगर उन दो घंटों में वह ठीक से न सो पाए, तो वह चाहे आठ घंटे | बहुत-सी नासमझियां कर ली हैं। ज्यादा समझदारी आदमी के सो लिया हो, तो भी ताजगी न मिलेगी। | खयाल में आ गई है और वह सारे संतुलन भीतर से तोड़ता चला और वे दो घंटे प्रत्येक व्यक्ति के थोड़े-थोड़े अलग होते हैं। जा रहा है। किसी व्यक्ति का रात दो बजे और चार बजे के बीच में तापमान | - जब तक हमारे पास रोशनी नहीं थी, तब तक पृथ्वी पर नींद की 126 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगाभ्यास - गलत को काटने के लिए मारी किसी आदमी को भी न थी। अभी भी आदिवासियों को नींद की कोई बीमारी नहीं है। आदिवासी भरोसा ही नहीं कर सकता कि इन्सोमनिया क्या होता है ! आदिवासी से कहिए कि ऐसे लोग भी हैं, जिनको नींद नहीं आती, तो वह बहुत हैरान हो जाता है कि कैसे? क्या हो गया? आदिवासी से पूछिए कि तुम कैसे सो जाते ? वह कहता है, सोने के लिए कुछ करना पड़ता है! बस, हम सिर रखते हैं और सो जाते हैं। जानकर आप हैरान होंगे कि जो आदिवासी सभ्यता के और भी कम संपर्क में आए हैं, उनको स्वप्न भी न के बराबर आते हैं-न के बराबर ! इसलिए जिस आदिवासी को स्वप्न आ जाता है, वह विशेष हो जाता है – विशेष ! वह साधारण आदमी नहीं समझा जाता, विजनरी, मिस्टिक, कुछ खास आदमी! बड़ी घटना घट रही है ! आज भी जमीन पर ऐसी आदिवासी कौमें हैं; जैसे एस्कीमो हैं, जो कि दूर ध्रुव पर रहते हैं । उनको अब भी भरोसा नहीं आता कि सब लोगों को सपने आते हैं। लेकिन अमेरिका के वैज्ञानिक कहते हैं कि ऐसा आदमी ही नहीं है, जिसको सपना न आता हो ! वे अमेरिका के आदमी के बाबत बिलकुल ठीक कह रहे हैं। उनके अनुभव में जितने आदमी आते हैं, सबको सपने आते हैं। वे तो कहते हैं, जो आदमी कहता है, मुझे सपना नहीं आता, उसकी सिर्फ मेमोरी कमजोर है। और कोई मामला नहीं है । उसको याद नहीं रहता। आता तो है ही। और अब तो उन्होंने यंत्र बना लिए हैं, जो बता देते हैं कि सपना आ रहा है कि नहीं आ रहा है। इसलिए अब आप धोखा भी नहीं दे सकते। सुबह यह भी नहीं कह सकते कि मुझे याद ही नहीं, तो कैसे आया? अब तो यंत्र है, जो आपकी खोपड़ी पर लगा रहता है और रातभर ग्राफ बनाता रहता है, कब सपना चल रहा है, कब नहीं चल रहा है। और अब तो धीरे-धीरे ग्राफ इतना विकसित हुआ है कि आपके भीतर सेक्सुअल ड्रीम चल रहा है, तो भी ग्राफ खबर देगा। रंग बदल जाएगा स्याही का। क्योंकि आपके मस्तिष्क में जब तंतु कामोत्तेजना से भर जाते हैं, तो उनके कंपन, उनकी वेव्स बदल जाती हैं। वह ग्राफ पकड़ लेगा। अब आपके तथाकथित ब्रह्मचारियों को बड़ी कठिनाई होगी। क्योंकि दिनभर ब्रह्मचर्य साधना बहुत आसान है, सवाल रात का है, नींद का है, सपने का है। वह भी पकड़ लिया जाएगा। वह पकड़ा जाएगा, उसमें कोई अड़चन नहीं है। क्योंकि स्वप्न की क्वालिटी | अलग-अलग होती है। और प्रत्येक स्वप्न की जो कंपन विधि है, वह अलग-अलग होती है। जब आपके भीतर कोई कामोत्तेजक स्वप्न चलता है, तो स्वप्न बिलकुल विक्षिप्त हो जाता है और ग्राफ | बिलकुल पागल की तरह लकीरें खींचने लगता है। जब आपके भीतर गहरी नींद होती है, तो स्वप्न बिलकुल बंद हो जाता है; ग्राफ सीधी लकीर खींचने लगता है; उसमें कंपन खो जाते हैं। लेकिन बड़ी हैरानी की बात है कि सभ्य आदमी, सुशिक्षित आदमी रातभर में मुश्किल से दस मिनट गहरी नींद में होता है, जब स्वप्न नहीं होता। सिर्फ दस मिनट पूरी रात स्वप्न चलता रहता है। लेकिन आदिवासी अभी भी हैं, जिनको सपना नहीं चलता; | जिनकी नींद प्रगाढ़ है । स्वभावतः, सुबह उनकी आंखों में जो निर्दोष भाव दिखाई पड़ता है, वह उस आदमी की आंख में नहीं दिखाई पड़ सकता जिसको रातभर सपना चला है। सुबह आदिवासी की आंख वैसे ही होती है, जैसे गाय की उतनी ही सरल, उतनी ही भोली, उतनी ही निष्कपट। रात वह इतनी गहराई में गया है कि हम कह सकते हैं कि बेहोशी में ठीक परमात्मा में उतर गया है। सुषुप्ति समाधि ही है। सिर्फ बेहोश समाधि है, इतना ही फर्क है। उपनिषद तो कहते हैं, सुषुप्ति जैसी ही है समाधि । एक ही उदाहरण उपनिषद देते हैं। समाधि कैसी ? सुषुप्ति जैसी। फर्क ? फर्क इतना, कि समाधि में आपको होश रहता है और सुषुप्ति में आपको होश नहीं रहता । 127 आप परमात्मा की गोद में सुषुप्ति में भी पहुंच जाते हैं, लेकिन | आपको पता नहीं रहता । समाधि में भी पहुंचते हैं, लेकिन जागते हुए पहुंचते हैं। लेकिन फायदा दोनों में बराबर मिल जाता है। लेकिन सभ्य आदमी की नींद ही खो गई है, सुषुप्ति बहुत दूर की | बात है। स्वप्न ही हमारा कुल जमा हाथ में रह गया है। जैसे कि लहरों में सागर के ऊपर ही ऊपर रहते हों, गहरे कभी न जा पाते हों, ऐसे ही नींद में भी गहरे नहीं जा पाते । स्वयं के भीतर पहुंचने के लिए कम से कम गहरी नींद तो जरूरी ही है। लेकिन गहरी नींद उसे ही आएगी जिसका श्रम और विश्राम संतुलित है; जिसका भोजन और भूख संतुलित है; जिसकी वाणी और मौन संतुलित है; उसके लिए ही गहरी नींद उपलब्ध होगी। वह गहरी नींद का फल और पुरस्कार उसको मिलता है, जिसका जीवन संतुलित है। नींद में ही जाना मुश्किल हो गया है, ध्यान में जाना तो बहुत मुश्किल है। क्योंकि ध्यान तो और आगे की बात हो गई, जागते Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 हुए जाने की बात हो गई। जरूरी है, किस कर्म के लिए कितना श्रम; किस कर्म के लिए कृष्ण ठीक कहते हैं, अपने-अपने आहार को, विहार को | कितनी शक्ति। संतुलित कर लेना जरूरी है; किसी नियम से नहीं, स्वयं की | और नहीं तो कई दफे ऐसा हो जाता है कि मैंने सुना है, एक जरूरत से। | आदमी एक सांझ-रात उतर रही है एक गांव के ऊपर-सड़क पर तेजी से कुछ खोज रहा है। और लोग भी खड़े हो गए और कहा कि हम भी सहायता दे दें, क्या खोज रहे हो? तब तक वह आदमी प्रश्नः भगवान श्री, इस श्लोक में अंत में, कर्मों में थक गया था, तो हाथ जोड़कर परमात्मा से प्रार्थना कर रहा है कि सम्यक चेष्टा, ऐसा कहा गया है। कृपया कर्मों में | मैं एक नारियल चढ़ा दूंगा; मेरी खोई चीज मिल जाए। तो लोगों ने सम्यक चेष्टा, इसका अर्थ भी स्पष्ट करें। कहा, भई, तेरी चीज क्या है, वह तो तू बता दे! | उसका एक पैसा खो गया है। पांच आने का नारियल। पराने जमाने की कहानी है। पांच आने का नारियल, एक पैसा खो गया है, क र्मों में सम्यक चेष्टा। वही बात है, कर्म के लिए। कर्मों उसको चढ़ाने के लिए सोच रहा है! उन लोगों ने कहा, तू बड़ा पागल पा में असम्यक चेष्टा का क्या अर्थ है, खयाल में आ है। एक पैसा खो गया, उसके लिए पांच आने का नारियल चढ़ाने जाए, तो सम्यक चेष्टा का खयाल आ जाएगा। की सोच रहा है! उस आदमी ने कहा, पहले पैसा तो मिल जाए, फिर कभी किसी स्कूल में परीक्षा चल रही हो, तब आप भीतर चले सोचेंगे कि चढ़ाना है कि नहीं। नहीं मिला तो अपना निर्णय पक्का जाएं। देखें बच्चों को। कलम पकड़कर वे लिख रहे हैं। स्वाभाविक है। मिल गया तो पुनर्विचार के लिए कौन रोक रहा है! है कि अंगुली पर जोर पड़े। लेकिन उनके पैर देखें, तो पैर भी अकड़े हमारे पूरे जीवन की व्यवस्था ऐसी ही है, जिसमें हम कभी भी हुए हैं। उनकी गर्दन देखें, तो गर्दन भी अकड़ी हुई है। उनकी आंखें | यह नहीं देख रहे हैं कि जो हम पाने चले हैं, उस पर हम कितना देखें, तो आंखें भी तनाव से भरी हैं। लिख रहे हैं हाथ से, लेकिन दांव लगा रहे हैं। वह इतना लगाने योग्य है? जो मिलेगा, उसके जैसे पूरा शरीर कलम पकड़े हुए है! लिए किया गया श्रम योग्य है? इज़ इट वर्थ? कभी कोई नहीं ___ असम्यक चेष्टा हो गई; जरूरत से ज्यादा चेष्टा हो गई। यह तो सोचता। कभी कोई नहीं सोचता कि जितना हम लगा रहे हैं, उतना सिर्फ अंगुली चलाने से काम हो जाता, इसके लिए इतने शरीर को उससे जो मिल भी जाएगा–अगर सफल भी हो जाएं, तो जो लगाना, बिलकुल व्यर्थ हो गया। यह तो ऐसा हुआ कि जहां सुई मिलेगा-वह इसके योग्य है? एक पैसे पर कहीं हम पांच आने की जरूरत थी, वहां तलवार लगा दी। और सुई जो काम कर . का नारियल तो चढ़ाने नहीं चल पड़े! सकती है, वह तलवार नहीं कर सकती, ध्यान रखना आप। इतना और फिर इस तरह की जो आदत बढ़ती चली जाए, तो इसकी तना हुआ बच्चा जो उत्तर देगा, वे गलत हो जाएंगे। क्योंकि चेष्टा दूसरी अति, इसका दूसरा रिएक्शन और प्रतिक्रिया भी होती है कि असम्यक है, अतिरिक्त श्रम ले रही है, व्यर्थ तनाव दे रही है। कभी-कभी जब कि सचमुच लगाने का वक्त आता है दांव, तब __ आप भी खयाल करना, जब आप लिखते हैं, तो सिर्फ अंगुली | हमारे पास लगाने को ताकत ही नहीं होती। पर भार हो, इससे ज्यादा भार असम्यक है। एक आदमी साइकिल | संयत श्रम, कर्मों में सम्यक चेष्टा। जीवन को एक विचार देने चला रहा है, तो पैर की अंगुलियां पैडिल को चलाने के लिए पर्याप्त की जरूरत है; एक अविचार में, विचारहीनता में जीने की जरूरत हैं। लेकिन छाती भी लगी है; आंखें भी लगी हैं; हाथ भी अकड़े नहीं है। हैं। सब अकड़ा हुआ है! असम्यक चेष्टा हो रही है। अननेसेसरी, एक आदमी धन कमाने चल पड़ा है। चले तो सोच ले कि धन व्यर्थ ही अपने को परेशान कर रहा है। लेकिन आदत की वजह से | मिलकर जो मिलेगा, उसके लिए इतना सब गंवा देने की जरूरत है? परेशान है। इतना सब, आत्मा भी बेच डालने की जरूरत है? सब कुछ गंवा देने हमारी सारी चेष्टाएं असम्यक हैं। या तो हम जरूरत से कम | की जरूरत है धन पाने के लिए? असम्यक चेष्टा हो रही है। करते हैं; और या हम जरूरत से ज्यादा कर देते हैं। ध्यान रखना कृष्ण मना नहीं करते कि धन मत कमाओ। कहते हैं, सम्यक [128 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगाभ्यास-गलत को काटने के लिए चेष्टा करो। थोड़ा सोचो भी कि गंवाओगे क्या? कमाओगे क्या? रिश्वत का इंतजाम फैलाकर भागने की योजना बना रहा है। उससे थोड़ा हिसाब भी रखो। थोड़ी व्यवहार बुद्धि का भी उपयोग करो। मिले, तो वह कोई उदास न था। कहा कि उदास नहीं हो! आजीवन नहीं है बिलकुल वैसी बुद्धि। वैसी संयत बुद्धि का हमारे पास सजा हो गई। उसने कहा कि छोड़ो भी। जिस दुनिया में सब कुछ हो कोई खयाल नहीं है। कारण इतना ही है कि हमने कभी उस तरह रहा है, उसमें हम कोई सदा जेल में रहेंगे! निकल जाएंगे। जहां सब सोचा नहीं। कुछ संभव हो रहा है, वहां कोई हम सदा जेल में रहेंगे! तुम दो-चार सोचना शुरू करें। एक-एक कर्म में सोचना शुरू करें कि | दिन में देखना कि हम बाहर हैं। और तुम पंद्रह-बीस दिन के बाद कितनी शक्ति लगा रहा हूं; इतना उचित है? तत्काल आप पाएंगे देखोगे कि हम दरबार में हैं। तुम चिंता मत करो; हम जल्दी लौट कि व्यर्थ लगा रहे हैं। थोड़े कम में हो जाएगा, थोड़े और कम में | आएंगे। और वैसे भी बहुत थक गए थे, पंद्रह-बीस दिन का विश्राम हो जाएगा। मिल गया! हैरान हुए कि उसको जीवनभर की सजा मिली है, वह सुना है मैंने कि अकबर ने एक दफा चार लोगों को सजाएं दीं। | आदमी यह कह रहा है। और जिससे सिर्फ इतना कहा है कि तुझसे चारों का एक ही कसूर था। चारों ने मिलकर राज्य के खजाने से इतनी अपेक्षा, ऐसी आशा न थी, वह फांसी लगाकर मर गया! गबन किया था। और बराबर गबन किया था। असल में चारों ___ अकबर ने ठीक-जिसको कहें कर्म में सम्यक चेष्टा, कितना साझीदार थे। सबने बराबर अशर्फियां ले ली थीं। कहां जरूरी है उतना ही: उससे रत्तीभर ज्यादा नहीं। चारों को बुलाया अकबर ने। और पहले को कहा, तुमसे ऐसी | | योगी को तो ध्यान में रखना ही पड़ेगा कि कर्म में सम्यक चेष्टा आशा न थी! जाओ। वह आदमी चला गया। दूसरे आदमी से कहा हो। बुद्ध ने तो सम्यक चेष्टा पर बहुत बड़ी व्यवस्था दी है। सारी कि तुम्हें सिर्फ इतनी सजा देता हूं कि झुककर सारे दरबारियों के पैर चीजों पर सम्यक होने की व्यवस्था दी है। बुद्ध जिसे अष्टांगिक मार्ग छू लो, और जाओ। तीसरे को कहा कि तुम्हें एक वर्ष के लिए कहते हैं, सब सम्यक पर आधारित है। उसमें सम्यक व्यायाम, राज्य-निष्कासन देता हूं। राज्य के बाहर चले जाओ। चौथे को कहा | | सम्यक श्रम, सम्यक स्मृति, सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान-सब कि तुम्हें आजीवन कैदखाने में भेज देता हूं। चीजें सम्यक हों। कोई भी चीज असम न हो जाए। उसी सम्यक की ___ कैदी जा चुके, दरबारियों ने पूछा कि बड़ा अजीब-सा न्याय | तरफ कृष्ण इशारा कर रहे हैं। वे कह रहे हैं, तुम्हारे कर्मों में तुम सदा किया है आपने! दंड इतने भिन्न, जुर्म इतना एक समान; यह कुछ ही संयत रहना। उतनी ही चेष्टा करना, जितनी जरूरी है; न कम, न न्याय नहीं मालूम पड़ता है! एक आदमी को सिर्फ इतना ही कहा ज्यादा। और फिर तुम पाओगे कि कर्म तुम्हें नहीं बांध पाएंगे। कि तुमसे ऐसी आशा न थी और एक आदमी को आजीवन कैद में सम्यक जिसने चेष्टा की है, वह कर्म के बाहर हो जाता है। जो भेज दिया! ज्यादा करता है, वह भी पछताता है, क्योंकि अंत में फल बहुत ___ अकबर हंसा और उसने कहा कि मैं उनको जानता हूं। अगर तुम्हें कम आता है। जो कम करता है, वह भी पछताता है, क्योंकि फल भरोसा न हो, तो जाओ, पता लगाओ, वे चारों क्या कर रहे हैं! गए। आता ही नहीं। लेकिन जो सम्यक कर लेता है, वह कभी भी नहीं सबसे पहले तो उस आदमी के पास गए, जिस आदमी से कहा था पछताता। फल आए, या न आए। जो सम्यक कर लेता है, वह कि तुमसे ऐसी आशा न थी। उसके घर पहुंचे। पता चला, वह फांसी | कभी नहीं पछताता। क्योंकि वह जानता है, जितना जरूरी था, वह लगाकर मर गया। हैरान हो गए। लौटकर अकबर से कहा। | किया गया। जो जरूरी था, वह मिल गया है। जो नहीं मिलना था, अकबर ने कहा, देखते हैं, वहां सूई भी काफी थी। उतना कहना वह नहीं मिला है। जो मिलना था, वह मिल गया है। मैंने अपनी भी ज्यादा पड़ गया। उतना कहना भी ज्यादा पड़ गया; वह आदमी | तरफ से जितना जरूरी था, वह किया था; बात समाप्त हो गई। ऐसा था। इतना काफी सजा थी, कि तुमसे ऐसी आशा न थी। बहुत ___ एक मित्र अभी मेरे पास आए। उनकी पत्नी चल बसी है। बहुत सजा हो गई! जिसको थोड़ा भी अपने व्यक्तित्व का बोध है, उसके रो रहे थे, बहुत परेशान थे। मैंने उनसे कहा कि पत्नी के साथ तुम्हें लिए बहुत सजा हो गई। अब जाकर देखो उस आदमी को जिसको कभी इतना खुश नहीं देखा था कि सोचूं कि मरने पर इतना रोओगे! कि सजा दी है जीवनभर की। | मैंने कहा, असम्यक चेष्टा कर रहे हो। उस वक्त थोड़ा ज्यादा खुश वे वहां गए, तो जेलर ने बताया कि वह आदमी जेलखाने में हो लिए होते, तो इस वक्त थोड़ा कम रोना पड़ता। [129] Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < गीता दर्शन भाग-3 वे थोड़े हैरान हुए। उन्होंने कहा, क्या मतलब? मैंने कहा, थोड़ा | छाती पीटकर रो रहा है। यह असंतुलन है जीवन का। बैलेंसिंग हो जाता। मैंने उनसे पूछा, सच बताओ मुझे, पत्नी के | ___ अगर इसने पिता की सम्यक सेवा कर ली होती! यह तो पक्का मरने से रो रहे हो या बात कुछ और है? क्योंकि बातें अक्सर और ही है कि पिता जाएगा। मौत से कोई बचेगा? वह जाने वाला है। होती हैं, बहाने और होते हैं। आदमी की बेईमानी का कोई अंत नहीं | अगर इसने थोड़ा खयाल रखा होता कि पिता जाने ही वाला है, है। उन्होंने कहा, क्या मतलब आपका? मेरी पत्नी मर गई और जाएगा ही; थोड़ी सेवा कर ली होती, थोड़ा प्रेम दिया होता, थोड़ा आप कहते हैं, बहाने और बेईमानी। यहां बहाने! मेरी पत्नी मर गई सम्मान किया होता—यह तो पता ही है कि वह जाएगा ही—इसने है, मैं दुखी हूं। मैंने कहा, मैं मानता हूं कि तुम दुखी हो। लेकिन मैं | अगर सम्यक चेष्टा कर ली होती जो जाने वाले व्यक्ति के साथ कर फिर से तुमसे पूछता हूं कि तुम सोचकर मुझे दो-चार दिन बाद | लेनी है, तो शायद पीछे यह घाव इस भांति का न लगता। यह घाव बताना कि सच में रोने का यही कारण है कि पत्नी मर गई है? दूसरे अर्थ में लग रहा है। यह न किया हुआ जो छूट गया है, और चार दिन बाद वे लौटे और उन्होंने कहा कि शायद आप ठीक | जिसके करने का अब कोई उपाय नहीं रह गया, यह उसकी पीड़ा कहते हैं। भीतर झांका, तो मुझे खयाल आया कि जितनी मुझे है, जो जिंदगीभर सालेगी, कांटे की तरह चुभती रहेगी। उसकी सेवा करनी चाहिए थी, वह मैंने नहीं की। जितना मुझे उस सम्यक कर्मों में! कर्मों में सम्यक चेष्टा का अर्थ है, समस्त पर ध्यान देना चाहिए था, वह भी मैंने नहीं दिया। सच तो यह है | कर्मों में जो किया जाने योग्य है, वह जरूर करना चाहिए। जितनी कि जितना प्रेम सहज उसके प्रति मझमें होना चाहिए था. वह भी मैं| शक्ति से किया जाने योग्य है, उतनी शक्ति लगानी चाहिए: न नहीं दे पाया। उस सब की पीड़ा है कि अब! अब माफी मांगने का | कम, न ज्यादा। भी कोई उपाय नहीं रहा। निर्णय कौन करेगा कि कितनी लगाई जानी चाहिए? आपके ध्यान रहे, अगर आपने किसी व्यक्ति को पूरा प्रेम कर लिया है, | | अतिरिक्त कोई निर्णय नहीं कर सकता है। आप ही सोचें। और बड़ा जितना संभव था, जो सम्यक था; पूरी सेवा कर ली है, जो सम्यक अनुभव होगा, अदभुत अनुभव होगा। जिस काम में आप संयत थी; सब ध्यान दिया, जो सम्यक था; तो मृत्यु के बाद जो दुख चेष्टा कर पाएंगे, उस काम के बाद आप बिलकुल निर्भार हो होगा, वह दुख बहुत भिन्न प्रकार का होगा। और वह दुख आपको | जाएंगे, मुक्त हो जाएंगे। काम कर लिया, बात समाप्त हो गई। तोड़ेगा नहीं, मांजेगा। वह पीड़ा आपको निखारेगी, नष्ट नहीं | अगर आप दफ्तर में पूरे पांच घंटे ठीक श्रम कर लिए हैं, करेगी। वह पीड़ा आपके जीवन में कुछ अनुभव और ज्ञान दे सम्यक, तो दफ्तर आपकी खोपड़ी में घर नहीं आएगा। नहीं तो घर जाएगी, सिर्फ जंग नहीं लगा जाएगी। क्योंकि जो हो सकता था, आएगा; आएगा ही; सस्पेंडेड; लटका रहेगा खोपड़ी पर। क्योंकि सम्यक था, जो ठीक था, वह कर लिया गया था। जो मेरे हाथ में | दफ्तर में तो बैठकर विश्राम किया! था, वह हो गया था। फिर शेष तो सदा परमात्मा के हाथ में है। | मैंने सुना है कि एक दिन दफ्तर के मैनेजर को उसके मालिक लेकिन हममें से कोई भी सम्यक कभी नहीं कर पाता। न पति ने...। अचानक मालिक अंदर आ गया। आने का वक्त नहीं था, पत्नी के लिए, न पत्नी पति के लिए। न बेटे बाप के लिए, न बाप नहीं तो मैनेजर तैयार रहता। वह अपने पैर फैलाए हुए कुर्सी पर सो बेटे के लिए। सब असम्यक होता है। जिस दिन छूट जाता है कोई, रहा था! घबड़ाकर चौंका। क्षमायाचना की और कहा कि माफ करें, उस दिन भारी पीड़ा का वज्राघात होता है। उस दिन लगता है कि कल रात घर नहीं सो पाया। तो मालिक ने कहा, अच्छा, तो तुम अब! अब तो कोई उपाय न रहा। अब तो कोई उपाय न रहा। | घर भी सोते हो! यह हम सोच भी नहीं सकते थे। घर भी सोते हो? इसलिए जो बेटे बाप के मरने की प्रतीक्षा करते हैं, वे भी बाप | यह हम सोच ही नहीं सकते थे, क्योंकि दिनभर तो यहां सोते हो। के मरने पर छाती पीटकर रोते हैं। जो बेटे न मालूम कितनी दफे तो घर सोते होगे, इसका हमें खयाल ही नहीं आया! सोच लेते हैं कि अब यह बूढ़ा चला ही जाए, तो बेहतर। न मालूम | अब यह आदमी जो दफ्तर में बेईमानी कर रहा है, दफ्तर इसके कितनी दफे! मन ऐसा है। मन ऐसा सोचता रहता है। हालांकि आप साथ बदला लेगा। वह घर चला जाएगा। यह घर से बेईमानी करके झिड़क देते हैं अपने मन को, कि कैसी गलत बात सोचते हो! ठीक | | दफ्तर चला आया है, घर दफ्तर चला आएगा। नहीं है यह। लेकिन मन फिर भी सोचता रहता है। फिर यह बेटा | जिस कर्म को आपने पूरा नहीं कर लिया है, सम्यक नहीं कर |1300 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगाभ्यास-गलत को काटने के लिए लिया है, वह आपके भीतर अटका रहेगा, वह आपका पीछा करेगा। आने का इकट्ठा बहुत पड़ेगा। एक-एक पैसे का तुम सब का रह इसलिए हम बड़ी अजीब हालत में हैं। जब आप चौके में बैठकर जाएगा। किसी रास्ते पर, किसी मार्ग पर अगर अनंत में कभी भोजन करते हैं, तब दफ्तर में होते हैं। जब दफ्तर में बैठे होते हैं, तो | | मिलना हो गया, तो मैं चुका दूंगा। बस, इतना ही बोझ है, बाकी अक्सर भोजन कर रहे होते हैं। यह सब चलता रहता है! सब निपटा हुआ है। यह सब इतना ज्यादा कनफ्यूजन मस्तिष्क में इसलिए पैदा होता आप मरते वक्त कितने आने के बोझ से भरे होंगे? कोई हिसाब है कि जब भोजन कर रहे हैं, तब सम्यक रूप से भोजन कर लें। लगाना मुश्किल हो जाएगा। न मालूम कितना अटका रह जाएगा सब छोड़ें उस वक्त। जितनी जरूरी चेष्टा है भोजन करने की, सब तरफ! किसी को गाली दी थी, माफी नहीं मांग पाए। किसी पर जितना ध्यान देना जरूरी है भोजन को, उतना ध्यान दे दें। जितना क्रोध किया था, क्षमा नहीं कर पाए। किसी को प्रेम करने के लिए चबाना है, उतना चबा लें। जितना स्वाद लेना है, उतना स्वाद ले कहा था, लेकिन कर नहीं पाए। किसी को सेवा का भरोसा दिया लें। जितना भोजन करना है, सम्यक चेष्टा पूरी भोजन की थाली पर था, लेकिन हो नहीं पाई। सब तरफ सब अधूरा अटका रह जाएगा। करके कृपा करके उठे, तो भोजन आपका पीछा नहीं करेगा; और | यह अटका, अधूरा ही आपको वापस नए जन्मों में लेता चला तृप्ति भी आएगी। जाएगा। ये असम्यक कर्म आपको वापस नए कर्मों में लेते चले जो भी काम करना है. उसे परा कर लें। परा किया गया काम. जाएंगे। और पिछला कर्म भी परा नहीं होता. इस जन्म का परा नहीं संयत किया गया काम, सस्पेंडेड, लटका हुआ नहीं रह जाता, और होता, और एडीशन, और भार बढ़ता चला जाता है। हल्के न हो व्यक्ति प्रतिपल बाहर हो जाता है—प्रत्येक कर्म के बाहर हो जाता पाएंगे फिर। है। और तब वैसा व्यक्ति कभी भी भार, बर्डन नहीं अनुभव करता कर्मों का विचार, कर्म के सिद्धांत के पीछे जो मूल आधार है, मस्तिष्क पर। निर्भार होता है, वेटलेस होता है, हल्का होता है। सब वह यही है कि वही व्यक्ति कर्म से मुक्त हो जाता है, जो सब कर्मों को संयत रूप से कर लेता है और उनके बाहर हो जाता है। फिर सुकरात मर रहा है, तो किसी मित्र ने पूछा कि कोई काम बाकी उसकी कोई मृत्यु नहीं है, उसका मोक्ष है; क्योंकि लौटने का कोई तो नहीं रह गया? सुकरात ने कहा, मेरी कोई आदत कभी किसी कारण नहीं है। काम को बाक़ी रखने की नहीं थी। मैं हमेशा ही तैयार था मरने को। कभी भी मौत आ जाए. मेरा काम परा. साफ था। सब जो करने योग्य था, मैंने कर लिया था। जो नहीं करने योग्य था, नहीं किया यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते । था। मेरा हिसाब सदा ही साफ रहा है। मेरे खाते-बही. कभी भी निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ।। १८।। मौत का इंस्पेक्टर आ जाए, देख ले, तो मैं वैसा नहीं डरूंगा, जैसा इस प्रकार योग के अभ्यास से अत्यंत वश में किया हुआ इनकम टैक्स के इंस्पेक्टर को देखकर कोई भी दुकानदार डरता है, चित्त जिस काल में परमात्मा में ही भली प्रकार स्थित हो ऐसा सुकरात ने कहा होगा। सिर्फ एक छोटी-सी बात रह गई, वह जाता है, उस काल में संपूर्ण कामनाओं से स्पृहारहित हुआ भी मुझे पता नहीं था, नहीं तो मैं सुबह उस आदमी को कहता। पुरुष योगयुक्त है, ऐसा कहा जाता है। एचीलियस नाम के आदमी ने एक मर्गी मझे उधार दी थी. छः | आने उसके बाकी रह गए हैं। बस इतना ही सस्पेंडेड है। बस, और कुछ भी नहीं है। वह भी मैं चुका देता, लेकिन जेल में पड़ा हूं और 'ग के अभ्यास से संयत, शांत, शुद्ध हुआ चित्त। इस छः आने कमाने का भी कोई उपाय मेरे पास नहीं है। अचानक मुझे बात को ठीक से समझ लें। जेल में ले आए, अन्यथा मैं उसके छः आने चुका देता। एक काम योग के अभ्यास से! भर इस पृथ्वी पर मेरा अधूरा पड़ा है, वे छः आने एचीलियस को | हमारा अशुद्ध होने का अभ्यास गहन है। हमारे जटिल होने की देने हैं। मेरे मरने के बाद तुम मेरे मित्र, एक-एक, दो-दो पैसा कुशलता अदभुत है। स्वयं को उलझाव में डालने में हम कुशल इकट्ठा करके उसे दे देना, ताकि बहुत भार मुझ पर न रह जाए। छः कारीगर हैं। हमने अपने कारागृह की एक-एक ईंट काफी मजबूत Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग - 3 > बनाकर रखी है। और हमने अपनी एक-एक हथकड़ी की जंजीर को बहुत ही मजबूत फौलाद से ढाला है। हमने सब तरह का इंतजाम किया है कि जिंदगी में आनंद का कोई आगमन न हो सके। हमने सब द्वार- दरवाजे बंद कर रखे हैं कि रोशनी कहीं भूल-चूक से प्रवेश न कर जाए। हमने सब तरफ से अपने नरक का आयोजन कर लिया है। इस आयोजन को काटने के लिए इतने ही आयोजन की विपरीत दिशा में जरूरत पड़ती है। उसी का नाम योग अभ्यास है। योगाभ्यास की कोई जरूरत नहीं है। जैसा कि कृष्णमूर्ति कहते हैं, कोई जरूरत नहीं है योगाभ्यास की। जैसा कि झेन फकीर कहते हैं जापान में कि किसी अभ्यास की कोई जरूरत नहीं है। अगर आपने नरक की तरफ कोई यात्रा न की हो, तो कोई भी जरूरत नहीं है। लेकिन अगर आपने नरक की तरफ तो भारी अभ्यास किया हो, और सोचते हों कृष्णमूर्ति को सुनकर कि स्वर्ग की तरफ जाने के लिए किसी अभ्यास की कोई जरूरत नहीं है, तो आप अपने नरक को मजबूत करने के लिए आखिरी सील लगा रहे हैं। अशांत होने के लिए कितना अभ्यास करते हैं, कुछ पता है आपको? एक आदमी को गाली देनी होती है, तो कितना रिहर्सल करना पड़ता है, कुछ पता है आपको? कितनी दफे मन में देते हैं पहले किस-किस रस से देते हैं। किस-किस कोने से, किस-किस एंगल से सोचकर देते हैं! किस-किस भांति जहर भरकर गाली को तैयार करके देते हैं! एक आदमी को गाली देने के लिए कितने बड़े रिहर्सल से, पूर्व-अभ्यास से गुजरना पड़ता है । उस पूर्व-अभ्यास के बिना गाली भी नहीं निकल सकती है। अशांत होने के लिए कितना श्रम उठाते हैं, कभी हिसाब रखा है ? सुबह से शाम तक कितनी तरकीबें खोजते हैं कि अशांत हो जाएं! अगर किसी दिन तरकीबें न मिलें, तो खुद भी ईजाद करते हैं। मेरे रे एक मित्र हैं। उनके बेटे ने मुझे कहा कि मैं बड़ी मुसीबत में हूं। मैं कोई रास्ता ही नहीं खोज पाता कि पिता को अशांत करने से कैसे बचूं ! मैंने कहा कि वे जिन बातों से अशांत होते हों, वह मत करो। उसने कहा, यही तो मजा है कि अगर मैं ठीक कपड़े पहनकर दफ्तर पहुंच जाऊं, तो वे कहते हैं, अच्छा! तो कोई फिल्म स्टार हो गए आप? अगर ठीक कपड़े पहनकर न पहुंचूं, तो वे कहते हैं, क्या मैं मर गया? जब मैं मर जाऊं, तब इस शक्ल में घूमना ! अभी मेरे रहते तो मजा कर लो। वह बेटा मुझसे पूछने आया कि मैं क्या करूं, जिससे पिता अशांत न हों ? क्योंकि मैं कुछ भी करूं, वे तरकीब खोज ही लेते हैं। ऐसा कोई काम मैं नहीं कर पाया, जिसमें उन्होंने तरकीब न खोज ली हो। वह सोचकर विपरीत करता हूं, उसमें भी निकाल लेते हैं। अच्छे कपड़े पहनता हूं, तो कहते हैं, अच्छा, फिल्म स्टार हो गए! क्या इरादे हैं ? हीरो बन गए? न पहनकर ठीक कपड़ा पहुंचूं, तो कहते हैं, यह तो मैं जब मर जाऊं, तब इस शक्ल में घूमना । अभी तो मैं जिंदा हूं; अभी तो मजे करो, गुलछर्रे कर | तो मैं क्या करूं? मैंने कहा, एकाध दफा दिगंबर पहुंचकर देखा कि नहीं देखा ! और तो कोई तीसरा रास्ता ही नहीं बचता ! दिगंबर पहुंचकर देख। उसने | कहा कि आप भी क्या कह रहे हैं! बिलकुल मेरी गर्दन काट देंगे! हम सब ऐसा खोजते रहते हैं, खूंटियां खोजते रहते हैं। खूंटियां खोजते रहते हैं! खूंटियां न मिलें, तो अपनी कीलें भी गाड़ लेते हैं। अशांत होने के लिए भारी अभ्यास चल रहा है। बड़ी योग-साधना करते हैं हम अशांत होने के लिए, क्रोधित होने के लिए, परेशान होने के लिए! कुछ ऐसा लगता है कि अगर आज परेशान न हुए, तो जैसे दिन बेकार गया। कई दफे ऐसा होता भी है। क्योंकि परेशानी से हमको पता चलता है कि हम भी हैं । नहीं तो और तो कोई पता चलने का कारण नहीं है। तो बड़ी-बड़ी परेशानियां करके दिखलाते रहते हैं। भारी | परेशानियां हैं। उससे पता चलता है कि हम भी कोई हैं, समबडी ! क्योंकि जितना बड़ा आदमी हो, उतनी बड़ी परेशानियां होती हैं ! तो हर छोटा-मोटा आदमी भी छोटी-मोटी परेशानियों को मैग्नीफाई करता रहता है। बड़ी करके खड़ा कर लेता है। उनके बीच में खड़ा | रहता है। यह सब अभ्यास चलता है। बिना अभ्यास के यह भी नहीं हो सकता। यह भी सब अभ्यास का फल है। तो कृष्ण जब अर्जुन से कहते हैं कि योगाभ्यास से शांत हुआ चित्त, तो इससे विपरीत अभ्यास करना पड़ेगा । विपरीत अभ्यास का क्या अर्थ है ? विपरीत अभ्यास का अर्थ है कि अब तक हम निगेटिव इमोशंस के लिए, नकारात्मक भावनाओं के लिए कारण खोज रहे हैं चौबीस घंटे; योगाभ्यास का अर्थ है, पाजिटिव इमोशंस के लिए चौबीस घंटे कारण खोजने में जो लगा है। और जिंदगी में दोनों मौजूद हैं। खड़े हो जाएं गुलाब के फूल के किनारे । वह जो अभ्यासी है अशांति का, वह कहेगा, व्यर्थ है, | बेकार है सब | कांटे ही कांटे हैं, एकाध फूल खिलता है कभी। वह जो योगाभ्यासी है, वह जो पाजिटिव को, विधायक को खोजने 132 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -योगाभ्यास-गलत को काटने के लिए निकला है, वह कहेगा, प्रभु तेरा धन्यवाद! आश्चर्य है, जहां इतने और जिस आदमी ने देखा कि कांटे ही कांटे हैं; कहीं एकाध कांटे हैं, वहां भी इतना कोमल फूल खिल सकता है! यह उनके | | फूल खिल जाता है भूल-चूक से, यह एक्सिडेंट मालूम होता है। देखने के ढंग का फर्क होगा। यह फूल एक्सिडेंट है, कांटे असलियत हैं। बात भी ठीक लगती जब आप किसी आदमी से मिलते हैं, तो उसमें बुरा अगर आप है। कांटे बहुत, फूल एक। वह आदमी बहुत दिन तक फूल में भी खोजते हैं तत्काल, तो आप अभ्यासी हैं अशांति के। उस आदमी | | फूल को नहीं देख पाएगा। बहुत जल्दी उसको फूल में भी कांटे में कुछ तो भला होगा ही, नहीं तो जीना मुश्किल था। बुरे से बुरे | दिखाई पड़ने लगेंगे। आदमी का भी जीना असंभव है, अगर वह एब्सोल्यूट बुरा हो हमारी दृष्टि धीरे-धीरे फैलकर निरपेक्षपूर्ण हो जाती है। लेकिन जाए। चोर भी किन्हीं के साथ तो ईमानदार होते हैं। और डाकू भी | अस्तित्व? अस्तित्व द्वंद्व है; वहां दोनों मौजूद हैं। किन्हीं के साथ वचन निभाते हैं। बेईमान भी बेईमान नहीं हो सकता ___ योगाभ्यासी का अर्थ है, ऐसा व्यक्ति, जो जीवन में शांति की सदा, चौबीस घंटे, किन्हीं के साथ ईमानदारी से जीता है। जो | | खूटियां खोजता है, आनंद की खूटियां खोजता है। फूल खोजता है। आपका दुश्मन है, वह भी किसी का मित्र है; वह भी मित्रता जानता | | आशा खोजता है। सौंदर्य खोजता है। आनंद खोजता है। जो जीवन है। जो आपकी छाती में छुरा भोंकने को तैयार है, वह किसी दिन | | में नृत्य खोजता है, उत्सव खोजता है। जीवन में उदासी बटोरने का किसी के लिए अपनी छाती में भी छुरा भोंकने की तैयारी रखता है। | जिसने ठेका नहीं लिया है। जो जगह-जगह जाकर कांटे और कंकड़ इस जमीन पर, इस अस्तित्व में कोई बिलकुल बुरा है, ऐसा नहीं | नहीं खोजता रहता है। और जिनको इकट्ठा करके छाती पर रखकर है। और कोई बिलकुल भला है, ऐसा भी नहीं है। लेकिन आपके चिल्लाता नहीं है कि जिंदगी बेकार है, अर्थहीन है। चुनाव पर निर्भर है कि आप क्या चुनते हैं। आपके अभ्यास पर योगाभ्यास का अर्थ है, जीवन को विधायक दृष्टि से देखने का निर्भर है कि आप क्या चुनते हैं। अगर आपने तय कर रखा है कि ढंग। योग जीवन की विधायक कीमिया है, पाजिटिव केमेस्ट्री है। बुरा ही चुनेंगे, तो आपको बुरा मिलता चला जाएगा। जिंदगी में और उसका अभ्यास करना पड़ेगा। क्योंकि आपने अभ्यास किया भरपूर बुरा है। अगर आपने तय कर लिया है कि अंधेरा ही चुनेंगे, हुआ है। अगर आप पुराने अभ्यास को ऐसे ही, बिना अभ्यास के तो दिनभर विश्राम करना आप आंख बंद करके. रात को निकल छोड़ने में समर्थ हों, तो छोड़ दें। तो फिर नए अभ्यास की कोई भी जाना खोजने; मिल जाएगा। मिलेगा वही-वही। जरूरत नहीं है। . बुरे को खोजना है, बुरा मिल जाएगा। दुख को खोजना है, दुख लेकिन वह पुराना अभ्यास जकड़ा हुआ है, भारी है; वह छूटेगा मिल जाएगा। पीड़ा खोजनी है, पीड़ा मिल जाएगी। शैतान खोजना | नहीं। उसे इंच-इंच जैसे बनाया, वैसे ही काटना भी पड़ेगा। जैसे है, शैतान मिल जाएगा। परमात्मा खोजना है, तो वह भी मौजूद है, | घर बनाया, वैसे अब एक-एक ईंट उसकी गिरानी भी पड़ेगी। भला जस्ट बाई दि कार्नर। वहीं, जहां शैतान खड़ा है। शायद इतना भी | वह ताश का ही घर क्यों न हो, लेकिन ताश के पत्ते भी उतारकर दूर नहीं है। शायद शैतान भी परमात्मा के चेहरे को गलत रूप से रखने पड़ेंगे। भला ही वह कितनी ही झूठी व्यवस्था क्यों न हो, देखने के कारण है। लेकिन झूठ की भी अपनी व्यवस्था है; उसको भी काटना और जिस आदमी को कांटों के बीच फूल खिला हुआ मालूम पड़ता मिटाना पड़ेगा। है और जो कहता है, धन्य है! लीला है, रहस्य है प्रभु का! इतने योगाभ्यास गलत अभ्यासों को काटने का अभ्यास है। ठीक कांटों के बीच फूल खिलता है! उस आदमी को बहुत दिन कांटे | | विपरीत यात्रा करनी पड़ेगी। जिस व्यक्ति में कल तक देखा था बुरा दिखाई नहीं पड़ेंगे। जो इतने कांटों के बीच फूल को देख लेता है, | | आदमी, उसमें देखना पड़ेगा भला आदमी। जिसमें देखा था शत्रु, वह थोड़े ही दिनों में कांटों को फूल के मित्र की तरह देख ही पाएगा। उसमें खोजना पड़ेगा मित्र। जहां देखा था जहर, वहां अमृत की भी वह, कांटे फूल की रक्षा के लिए हैं, यह भी देख पाएगा। अंततः तलाश करनी पड़ेगी। यह तो हुई एक बहिर्व्यवस्था। वह यह भी देख पाएगा कि कांटों के बिना फूल नहीं हो सकता है, और फिर अपने में भी यही करना पड़ेगा। अपने भीतर भी इसलिए कांटे हैं। और आखिर में कांटों का जो कांटापन है, खो जिन-जिन चीजों को बुरा देखा था, उन-उन में शुभ को खोजना जाएगा; और कांटे भी धीरे-धीरे फूल ही मालूम पड़ने लगेंगे। पड़ेगा। कामवासना में देखा था नरक का मार्ग, अब कामवासना 133 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 - में स्वर्ग का मार्ग भी देखना पड़ेगा। स्वर्ग का मार्ग कामवासना में लेकिन कीर्तन में भी कोई देखेगा कि अरे, इसमें क्या रखा है! देखते से ही, काम की वासना ऊर्ध्वगामी होकर स्वर्ग के मार्ग को कोई देखेगा कि चिल्लाने-नाचने से क्या होगा! भी लगा देती है। कल तक क्रोध में देखा था सिर्फ क्रोध, अब क्रोध | कांटे देख रहे हैं आप। फूल देखने की कोशिश करें, तो फूल में उस शक्ति को भी देखना पड़ेगा, जो क्षमा बन जाती है। क्रोध | | दिखाई पड़ने शुरू हो जाएंगे। और सिर्फ दिखाई पड़ने से नहीं दिखाई की शक्ति ही क्षमा बनती है। काम की शक्ति ही ब्रह्मचर्य बनती है। | पड़ेंगे; थोड़ा सम्मिलित हों, तो जल्दी खिलने शुरू हो जाएंगे। लोभ की शक्ति ही दान बन जाती है। तो ताली दें; उनके गीत में आवाज दें। डोलें अपनी जगह पर। देखना पड़ेगा; खोजना पड़ेगा। अब तक एक तरह से देखा था। एक पांच मिनट भूलें अपने को, खोएं। जीवन को, अब ठीक विपरीत तरह से देखना पड़ेगा। उस विपरीत तरह के देखने की क्या विधियां हैं, उनकी बात मैं संध्या करूंगा। इस सूत्र पर भी पूरी बात संध्या करेंगे। अभी इतना ही खयाल में लें कि अगर गलत का अभ्यास किया है, तो गलत को काटने का भी अभ्यास करना पड़ेगा। निश्चित ही, जब गलत कट जाता है. तो जो शेष रह जाता है | वह शुभ है। इसलिए एक अर्थ में कृष्णमूर्ति या झेन फकीर जो कहते हैं, ठीक कहते हैं। क्योंकि शुभ के पाने के लिए किसी अभ्यास की जरूरत नहीं है। लेकिन अशुभ को काटने के लिए अभ्यास की जरूरत है। इसलिए एक दृष्टि से वे बिलकुल गलत कहते हैं। फर्क समझें आप। शुभ को पाने के लिए किसी अभ्यास की जरूरत नहीं है। शुभ स्वभाव है। लेकिन अशुभ को काटने के लिए...। ऐसा समझ लें, तो ठीक होगा। मेरे हाथों में आपने जंजीरें डाल दी हैं, तो क्या मैं कहूं कि स्वतंत्रता पाने के लिए जंजीरें तोड़ने की जरूरत है? स्वतंत्रता पाने के लिए तो किसी जंजीर को तोड़ने की क्या जरूरत है! स्वतंत्रता पर कोई जंजीरें नहीं हैं। लेकिन फिर भी जंजीर तोड़नी पड़ेगी। परतंत्रता को तोड़ने के लिए जंजीर तोड़नी पड़ेगी। और जब जंजीर टूट जाएगी और परतंत्रता टूट जाएगी, तो जो शेष रह जाएगी, वह स्वतंत्रता है। स्वतंत्रता के लिए जंजीर नहीं तोड़नी पड़ती है। लेकिन परतंत्रता के लिए, परतंत्रता को तोड़ने के लिए जंजीर तोड़नी पड़ती है। शुभ तो स्वभाव है। सत्य तो स्वभाव है। धर्म तो स्वभाव है। परमात्मा तो स्वभाव है। परमात्मा को पाने के लिए कोई जरूरत नहीं है। लेकिन परमात्मा को खोने के लिए जो-जो उपाय आपने किए हैं, उन उपायों को काटने के लिए अभ्यास करना पड़ता है। वही अभ्यास योगाभ्यास है। उस संबंध में हम रात बात करेंगे। अभी तो पांच मिनट थोड़ा-सा योगाभ्यास करें। थोड़ा कीर्तन। थोड़ा कीर्तन में डूबें। 134 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 6 नौवां प्रवचन योग का अंतर्विज्ञान Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ← गीता दर्शन भाग - 3 > प्रश्नः भगवान श्री, योग के अभ्यास और उसकी आवश्यकता पर बात चल रही थी। आपने समझाया था कि धर्म और आत्मा तो हमारा स्वभाव ही है। उसे उपलब्ध नहीं करना है, वह मिला ही हुआ है। लेकिन योग का अभ्यास अशुद्धि को काटने के लिए करना पड़ता है। कृपया योगाभ्यास से अशुद्धि कैसे कटती है, इस पर कुछ कहें। भाव कहते हैं उसे, जो हमें मिला ही हुआ है। जिसे हम स्व चाहें तो भी खो नहीं सकते। जिसे खोने का कोई उपाय नहीं है। स्वभाव का अर्थ है, जो मेरा होना ही है, जो हमारा अस्तित्व ही है। जो जानते हैं, वे कहते हैं कि हमारा स्वभाव स्वयं परमात्मा होना है। ऐसा कोई एक नहीं कहता; इस पृथ्वी पर कोने-कोने में, अलग-अलग सदियों में, अलग-अलग स्थानों पर जब भी किसी ने जाना उसने यही कहा है। यह निरपवाद घोषणा है। ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं हुआ है मनुष्य के इतिहास में जिसने कहा हो कि मैंने जान लिया भीतर जाकर और मनुष्य के भीतर परमात्मा नहीं है। जिन्होंने कहा है, परमात्मा नहीं है, वे कभी भीतर नहीं गए। और भीतर गए हैं, उन्होंने सदा कहा है कि परमात्मा है। अगर कोई सत्य निरपवाद सत्य हो सकता है, तो वह एक सत्य यही है कि मनुष्य का स्वभाव परमात्मा ही है। लोग परमात्मा को खोजते हैं। कभी खोज न पाएंगे, क्योंकि खोजा उसे जा सकता है जिसे खोया हो। असल में जो खोजने निकला है, वह स्वयं ही परमात्मा है, इसलिए खोज कैसे पाएगा? हम अगर परमात्मा से अलग होते, तो कहीं न कहीं उसे खोज ही ad, कहीं न कहीं मुठभेड़ हो ही जाती, कहीं न कहीं आमने-सामने पड़ ही जाते। लेकिन हम स्वयं ही परमात्मा हैं। इसलिए परमात्मा को खोजने निकला है, उसे अभी पता ही नहीं कि वह जिसे खोज रहा है, वह उसका स्वयं का ही होना है। यह तो हमारा स्वभाव है, जिसे हम कभी खो नहीं सकते, लेकिन आश्चर्य कि इसे भी हम खोए हुए मालूम पड़ते हैं, अन्यथा खोजते ही क्यों! खो तो नहीं सकते, फिर कुछ और हो सकता है, जो खोने से मिलता-जुलता है। वह है विस्मरण, वह है फारगेटफुलनेस। स्वभाव को खोया नहीं जा सकता, लेकिन स्वभाव को भूला जा 136 सकता है। विस्मरण किया जा सकता है। यद्यपि विस्मरण के समय | में भी कुछ बदलाहट नहीं होगी; हम जो थे, वही होंगे। लेकिन फिर भी हम जो हैं, वह हम अपने को समझ नहीं पाएंगे। परमात्मा सिर्फ विस्मृत है। योग की क्या जरूरत है जब परमात्मा स्वभाव है? योग की जरूरत है इस विस्मरण को तोड़कर स्मरण को पुनर्स्थापित करने के लिए। यह जो फारगेटफुलनेस है, यह जो भूल जाना है; इस भूल जाने की व्यवस्था को तोड़ देने के लिए योग का प्रयोग है। ठीक से समझें, तो योग का समस्त प्रयोग निगेटिव है, नकारात्मक है। वह किसी चीज को पाने के लिए नहीं, कोई चीज | बीच में अटकाव बन गई है, उसे तोड़ने के लिए है। योग से कोई नई चीज निर्मित नहीं होगी ; योग से कोई नई उपलब्धि नहीं होगी ; योग से तो जो सदा-सदा से मिला ही हुआ है, वही पुनर्मरण होगा। बुद्ध को जब ज्ञान हुआ, तो किसी ने बुद्ध से पूछा है कि आपने पाया क्या? तो बुद्ध बहुत हंसने लगे और उन्होंने कहा कि मत पूछो। ऐसा मत पूछो। क्योंकि मैंने पाया कुछ भी नहीं। तो उस आदमी ने कहा कि फिर इतनी मेहनत व्यर्थ गई ? फिर लोग कहते हैं कि आपको मिल गया। तो मिला क्या है? आप कहते हैं, पाया नहीं ! बुद्ध ने कहा, अगर ठीक से कहूं, तो यही कह सकता हूं, मैंने कुछ खोया है, मैंने कुछ पाया नहीं। तब तो स्वभावतः पूछने वाला और भी चकित हुआ। और उसने कहा, खोने के लिए इतनी मेहनत तो फल क्या है? अभिप्राय क्या है ? और अब आप उपदेश क्यों देते हैं ? बुद्ध ने कहा, इसीलिए कि तुम भी कुछ खो सको। जो मैंने पाया है, अब मैं कह सकता हूं कि वह सदा ही मेरे भीतर था, सिर्फ मुझे पता नहीं था। इसलिए कैसे कहूं कि मैंने पाया ! था ही। इतना ही कह सकता हूं कि वह जो मेरे भीतर था, उसको भी जानने में कुछ बाधाएं मेरे भीतर थीं, उन बाधाओं को मैंने खोया । अज्ञान मैंने खोया है। और ज्ञान पाया है, ऐसा मैं नहीं कह सकूंगा, क्योंकि वह था ही। स्वयं को मैंने खोया है। लेकिन परमात्मा को मैंने पाया, ऐसा मैं न कह सकूंगा, क्योंकि वह था ही। लेकिन मेरी वजह से दिखाई नहीं पड़ता था। मेरे मैं की वजह से दिखाई नहीं पड़ता था । मेरी विस्मृति गहरी थी और दिखाई नहीं पड़ता था । योग है विस्मरण को काटने की विधि । विस्मरण क्यों है? विस्मरण के होने का भी कारण है। अकारण तो नहीं विस्मरण हो सकता । विस्मरण के होने का कारण है। तीन Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - योग का अंतर्विज्ञान - बातें खयाल में लें, तो स्मरण की प्रक्रिया समझ में आ सकेगी। न मिले, तो आपको मां की गोद का भर पता नहीं चलेगा, और सब विस्मरण का पहला बुनियादी कारण तो यह है कि जो भी हम | पता चलता रहेगा। मां की गोद छूट जाती है, तब ही पता चलता है हैं, उसे बिना एक बार भूले, हमें कभी पता नहीं चलेगा। जो भी हम कि वह गोद थी। उसका अर्थ और अभिप्राय है। हैं, उसे एक बार बिना करीब-करीब खोए, हमें पता नहीं चलेगा। ___ जीवन का यह सत्य स्वयं के स्वभाव को भूलने के लिए भी लागू असल में पता चलने के लिए विरोधी घटना घटनी चाहिए। पता होता है। भूलना ही पड़ता है, तो ही हमें बोध होता है। बोध के जन्म चलने का नियम है। की यह अनिवार्य प्रक्रिया है। अगर आप कभी बीमार नहीं पड़े, तो आप स्वस्थ हैं, ऐसा और भूलने का ढंग क्या होता है? भूलने का एक ही ढंग है। आपको कभी पता नहीं चलेगा। कभी भी आपको यह पता नहीं | | भूलने का एक ही ढंग है, अगर स्वयं को भूलना हो, तो स्वयं को चलेगा कि आप स्वस्थ हैं। बीमार पड़ेंगे, तो पता चलेगा कि स्वस्थ | गलत समझना पड़ेगा, तभी भूल सकते हैं; नहीं तो भूल नहीं थे। बीमार पड़ेंगे, तो पता चलेगा कि अब स्वस्थ हो गए। लेकिन सकते। स्वयं को कुछ और समझना पड़ेगा, तभी जो हैं, उसे भूल बीमारी के कंट्रास्ट के बिना, बीमारी के विरोध के बिना, आपको | सकते हैं, अन्यथा भूलेंगे कैसे? इसलिए चेतना अपने को शरीर अपने स्वास्थ्य का कोई स्मरण नहीं हो सकता है। समझ लेती है, पदार्थ समझ लेती है, मन समझ लेती है, विचार अगर इस पृथ्वी पर अंधेरा न हो, तो प्रकाश का किसी को भी समझ लेती है, भाव समझ लेती है, वृत्ति-वासना समझ लेती पता नहीं चलेगा। प्रकाश होगा, पता नहीं चलेगा। पता चलने के | | है-सिर्फ आत्मा नहीं समझती। दूसरे के साथ तादात्म्य हो जाता लिए विपरीत का होना जरूरी है। वह जो विपरीत है, वही पता | है। यह भूलने का ढंग है। चलवाता है। अगर बुढ़ापा न हो, तो जवानी तो होगी, लेकिन पता | __योग इस भूलने के ढंग से विपरीत यात्रा है, पुनः घर की ओर नहीं चलेगा। अगर मौत न हो, तो जिंदगी तो होगी, लेकिन पता न | वापसी; रिटर्निंग होम। बहुत दूर निकल गए हैं; फिर वापस चलेगा। जिंदगी का पता चलता है मौत के किनारे से। वह जो मौत पुनर्यात्रा। निश्चित ही, पुनः उसी जगह पहुंचेंगे, जहां से चले थे। की पष्ठभमि है. उस पर ही जीवन उभरकर दिखाई पड़ता है। अगर लेकिन आप वही नहीं होंगे। क्योंकि जब आप चले थे. तब आपको मौत कभी न हो, तो आपको जीवन का कभी भी पता नहीं चलेगा। उस जगह का कोई भी पता नहीं था। अब जब आप पहुंचेंगे, तो यह बहुत उलटी बात लगेगी, लेकिन ऐसा ही है। आपको पूरा पता होगा। वहीं पहुंचेंगे, जहां से चले थे। वहीं प्रभु स्कूल में शिक्षक लिखता है, काले ब्लैकबोर्ड पर सफेद खड़िया के मंदिर में प्रवेश हो जाएगा, जहां से बाहर निकले थे। लेकिन जब से। सफेद ब्लैकबोर्ड पर भी लिख सकता है। लिखावट तो बन दुबारा पहुंचेंगे, इस बीच के क्षण में प्रभु को भूलकर, तो प्रभु के जाएगी, लेकिन दिखाई नहीं पड़ेगी। लिखता है काले ब्लैकबोर्ड पर मिलन के आनंद और एक्सटैसी का, समाधि का, प्रभु के मिलन और तब सफेद खड़िया उभरकर दिखाई पड़ने लगती है। | के उत्सव का, प्रभु के मिलन की वह जो अपूर्व घटना घटेगी, वह जिंदगी के गहरे से गहरे नियमों में एक है कि उसी बात का पता | प्राणों में अमृत बरसा जाएगी। चलता है जिसका विरोधी मौजूद हो; अन्यथा पता नहीं चलता। | वहीं पहुंचेंगे, लेकिन वही नहीं होंगे, क्योंकि बीच में विस्मरण अगर हमारे भीतर परमात्मा है, सदा से है, तो भी उसका पता घट चुका। और अब जब स्मरण आएगा, तो यह काले तख्ते पर तभी चलेगा, जब एक बार विस्मरण हो। उसके बिना पता नहीं | सफेद रेखाओं की तरह उभरकर आएगा। पहली दफे, जो लिखा चल सकता। है, वह पढ़ा जा सकेगा। पहली दफे, जो स्वभाव है, वह प्रकट इसलिए विस्मरण स्मरण की प्रक्रिया का अनिवार्य अंग है। | होगा। पहली दफे, जो छिपा है, वह उघड़ेगा। पहली दफे, जो दबा ईश्वर से बिछुड़ना, ईश्वर से मिलन का प्राथमिक अंग है। ईश्वर है, वह अनावृत होगा। यह जीवन का अनिवार्य हिस्सा है। से दूर होना, उसके पास आने की यात्रा का पहला कदम है। केवल कोई पूछे, ऐसा क्यों है? तो वह बच्चों का सवाल पूछ रहा है। वे ही जान पाएंगे उसे, जो उससे दूर हुए हैं। जो उससे दूर नहीं हुए | । वैज्ञानिक से पूछे कि पृथ्वी गोल क्यों है? वह कहेगा, है। हम तथ्य हैं, वे उसे कभी भी नहीं जान पाएंगे। बता सकते हैं. क्यों नहीं बता सकते। पढ़ें कि सरज में रोशनी क्यों अगर आपको अपनी मां की गोद से कभी सिर हटाने का मौका है? वह कहेगा, है। या और अगर थोड़ी खोजबीन की, तो कहेगा, 137 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 गीता दर्शन भाग-3 हीलियम गैस की वजह से है, इसकी वजह से है, उसकी वजह से | | और जानो। योग कहता है, हम न बताएंगे, तुम्ही आंख खोलो और है; कि उदजन का अणु-विस्फोट हो रहा है, इस वजह से है। | देख लो। आंख खोलने का ढंग हम बताए देते हैं। लेकिन पूछे कि क्यों हो रहा है सूरज पर, जमीन पर क्यों नहीं हो। योग बिलकुल शुद्ध साइंस है, सीधा विज्ञान है। हां, फर्क है। रहा है? तो वैज्ञानिक कहेगा, इसको मत पूछे। ऐसा हो रहा है, वह साइंस आब्जेक्टिव है, पदार्थगत है। योग सब्जेक्टिव है, आत्मगत हम कह सकते हैं। व्हाई मत पूछे, क्यों मत पूछे। हाउ, कैसे; कैसे | है। विज्ञान खोजता है पदार्थ, योग खोजता है परमात्मा। हो रहा है, वह हम बता सकते हैं। यह पुनर्मरण, यह पुनर्वापसी की यात्रा योग कैसे करता है, उस धर्म भी विज्ञान है। वह भी यह नहीं कहेगा, नहीं कह सकता है, संबंध में भी कुछ बातें खयाल में ले लेनी चाहिए। क्योंकि कृष्ण ने कि क्यों। इतना ही कह सकता है, कैसे! | कहा, उसके ही सतत अभ्यास से परमात्मा में प्रतिष्ठा उपलब्ध होती आदमी विस्मरण करता है। कैसे विस्मरण करता है? पर के है। में कहंगा, पनप्रतिष्ठा उपलब्ध होती है। साथ तादात्म्य करके विस्मरण करता है। कैसे स्मरण करेगा? पर है क्या योग? योग करता क्या है? योग की कीमिया, केमेस्ट्री के साथ तादात्म्य तोड़ेगा, तो पुनः स्मरण हो जाएगा। बस, इस | क्या है? योग का सार-सूत्र, राज, मास्टर-की.क्या है? उसकी प्रक्रिया की बात की जा सकती है। क्यों इस प्रक्रिया की मैं आपसे | कुंजी क्या है? तो तीन चरण खयाल में लें। चर्चा कर रहा हूं? क्योंकि योग शुद्ध विज्ञान है। इसलिए बहुत मजे एक, मनुष्य के शरीर में जितनी शक्ति का हम उपयोग करते हैं, की घटना घटी है। इससे अनंत गुनी शक्ति को पैदा करने की सुविधा और व्यवस्था हिंदुस्तान में तीन बड़े धर्म पैदा हुए-जैन, हिंदू, बौद्ध। उनमें है। उदाहरण के लिए, आपको अभी लिटा दिया जाए जमीन पर, कितने ही झगड़े हों और उनमें कितने ही सैद्धांतिक विवाद हों, तो आपकी छाती पर से कार नहीं निकाली जा सकती, समाप्त हो लेकिन योग के संबंध में उनमें कोई भी विवाद नहीं उठा। योग के | जाएंगे। लेकिन राममूर्ति की छाती पर से कार निकाली जा सकती संबंध में कोई विवाद नहीं है। क्या बात है? है। यद्यपि राममूर्ति की छाती में और आपकी छाती में कोई बुनियादी योग है साइंस, सिद्धांत नहीं। दार्शनिक सिद्धांत नहीं, | | भेद नहीं है। और राममूर्ति की छाती की हड्डियों में जरा-सी भी किसी मेटाफिजिक्स नहीं, योग तो एक प्रक्रिया है, एक प्रयोग है, एक | तत्व की ज्यादा स्थिति नहीं है, जितनी आपकी हड्डियों में है। एक्सपेरिमेंट है। उसे कोई भी करे, अनुभव फलित होगा। | राममूर्ति का शरीर उन्हीं तत्वों से बना है, जिन तत्वों से आपका। इसलिए योग एक अर्थ में समस्त धर्मों का सार है। भारत में तो | राममूर्ति क्या कर रहा है फिर? तीन धर्म पैदा हुए, वे ठीक ही हैं। भारत के बाहर भी जो धर्म पैदा राममूर्ति, जिस शक्ति का आप कभी उपयोग नहीं करते-आप हुए–चाहे इस्लाम, और चाहे ईसाइयत, और चाहे यहूदी धर्म, | अपनी छाती का इतना ही उपयोग करते हैं, श्वास को लेने-छोड़ने चाहे पारसी धर्म-भारत के बाहर भी जो धर्म पैदा हुए, उनका भी | का। यह एक बहुत अल्प-सा कार्य है। इसके लायक छाती निर्मित योग से कभी भी कोई विरोध खड़ा नहीं होता है। | हो जाती है। राममूर्ति एक बड़ा काम इसी छाती से लेता है, कारों ___ अगर ठीक से समझें, तो योग समस्त धर्मों की प्रक्रिया को छाती पर से निकालने का, हाथी को छाती पर खड़ा करने का। है–समस्त धर्मों की वे कहीं पैदा हुए हों। अगर भविष्य में | । और जब राममूर्ति से किसी ने पूछा कि खूबी क्या है? राज क्या कभी किसी दुनिया में किसी समय में धर्म का विज्ञान स्थापित | है? उसने कहा, राज कुछ भी नहीं है। राज वही है जो कि कार के होगा, तो उसकी आधारशिला योग बनने वाली है। क्योंकि योग टायर और टयूब में होता है। साधारण सी रबर का टयूब होता है, सिर्फ प्रक्रिया है। लेकिन हवा भर जाए एक विशेष अनुपात में, तो बड़े से बड़े ट्रक योग यह नहीं कहता कि परमात्मा क्या है। योग कहता है, | को वह लिए चला जाता है। राममूर्ति ने कहा कि मैं अपने फेफड़े परमात्मा को कैसे पाया जा सकता है। योग यह नहीं कहता कि । से वही काम ले रहा हूं, जो आप टायर और टयूब से लेते हैं। हवा आत्मा क्या है। योग कहता है, आत्मा को कैसे जाना जा सकता को एक विशेष अनुपात में रोक लेता हूं, फिर छाती से हाथी गुजर है। हाउ। योग यह नहीं कहता कि किसने प्रकृति बनाई और नहीं | जाए, वह मेरे ऊपर नहीं पड़ता, भरी हुई हवा के ऊपर पड़ता है। बनाई। योग कहता है, अस्तित्व में उतरने की सीढ़ियां ये रहीं, उतरो पर एक प्रक्रिया होगी फिर उस अभ्यास की, जिससे छाती हाथी को | 138 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < योग का अंतर्विज्ञान > खड़ा कर लेती है। स्रोत-क्षेत्र हैं, उन पर दबाव डालने की प्रक्रिया है, ताकि उनमें छिपी हमारे शरीर की बहुत क्षमताएं हैं, जिनका हम हिसाब नहीं लगा हुई शक्ति सक्रिय हो जाए। सकते। वे सारी की सारी क्षमताएं अनुपयुक्त, अनयूटिलाइज्ड रह आपने ट्रेन को चलते देखा है। शक्ति तो बहुत साधारण-सी जाती हैं। क्योंकि जीवन के काम के लिए उनकी कोई जरूरत ही नहीं उपयोग में आती है, पानी और आग की, और दोनों से बनी हुई भाप है। जीवन के लिए जितनी जरूरत है, उतना शरीर काम करता है। की। लेकिन भाप के धक्के से इंजन का सिलेंडर धक्का खाकर अगर हम वैज्ञानिकों से पूछे, तो वैज्ञानिकों का खयाल है कि दस | चलना शुरू हो जाता है। फिर ट्रेन चल पड़ती है। इतनी बड़ी शक्ति, प्रतिशत से ज्यादा हम अपने शरीर का उपयोग नहीं करते। नब्बे इतने बड़े वजन की ट्रेन सिर्फ पानी की भाप, स्टीम चलाती है। प्रतिशत शरीर की शक्तियां अनुपयोगी रहकर ही समाप्त हो जाती आपके शरीर में भी बहुत-सी शक्तियां हैं, जिन शक्तियों को हैं। जीते हैं, जन्मते हैं, मर जाते हैं। वह नब्बे प्रतिशत शरीर जो कर दबाकर सक्रिय किया जाए, तो आपके भीतर न मालूम कितने सकता था, पड़ा रह जाता है। सिलेंडर चलने शुरू हो जाते हैं, जो कि अभी बिलकुल वैसे ही पड़े __ योग का पहला काम तो यह है कि उन नब्बे प्रतिशत शक्तियों हैं। इन शक्तियों के बिंदुओं को, जहां शक्ति छिपी है, योग चक्र में से जो सोई पड़ी हैं, उन शक्तियों को जगाना, जिनके माध्यम से कहता है। प्रत्येक चक्र पर छिपी हुई शक्तियां हैं। और प्रत्येक चक्र अंतर्यात्रा हो सके। क्योंकि बिना शक्ति के कोई यात्रा नहीं हो को दबाने के, गतिमान करने के, डायनेमिक करने के आसन हैं, सकती है। एनर्जी, ऊर्जा के बिना कोई यात्रा नहीं हो सकती है। प्राणायाम की विधियां हैं। अगर आप सोचते हैं कि हवाई जहाज किसी दिन बिना ऊर्जा के - हम भी साधारणतः उपयोग करते हैं, हमारे खयाल में नहीं होता चल सकेंगे, तो आप गलत सोचते हैं। कभी नहीं चल सकेंगे। है। आपने कभी खयाल किया है कि रात आप सिर के नीचे तकिया - हां, यह हो सकता है, हम सूक्ष्मतम ऊर्जा को खोजते चले जाएं। रखकर क्यों सो जाते हैं? कभी खयाल नहीं किया होगा। कहते हैं बैलगाड़ी चलती है, तो ऊर्जा से। पैदल आदमी चलता है, तो ऊर्जा | कि नींद नहीं आती है, इसलिए सो जाते हैं। तकिया रखकर आप से। सांस चलती है, तो ऊर्जा से। सब मूवमेंट, सब गति ऊर्जा की न सोएं, तो नींद क्यों नहीं आती? गति है, शक्ति की गति है। जब आप तकिया नहीं रखते, तो शरीर के खून की गति सिर की अगर आप सोचते हों कि परमात्मा तक बिना ऊर्जा के सहारे तरफ ज्यादा होती है। क्योंकि सिर भी शरीर की सतह में, बल्कि आप पहुंच जाएंगे, तो आप गलती में हैं। परमात्मा की यात्रा भी शरीर से थोड़ा नीचे ढल जाता है। तो सारे शरीर का खुन सिर की बडी गहन यात्रा है। उस यात्रा में भी आपके पास शक्ति चाहिए। तरफ बहता है। और जब खन सिर की तरफ बहता है. तो सिर के और जिस शक्ति का आप उपयोग करते हैं साधारणतः, वह शक्ति जो तंतु हैं, मस्तिष्क के, वे खून की गति से सजग बने रहते हैं। फिर आपके जीवन के दैनिक काम में चुक जाती है, उसमें से कुछ बचता नींद नहीं आ सकती। खून बहता रहता है, तो मस्तिष्क के तंतु सजग नहीं है। और अगर थोड़ा-बहुत बचता है-अगर थोड़ा-बहुत रहते हैं। तो फिर नींद नहीं आ सकती। तो आप तकिया रख लेते हैं। बचता है तो भी आपने उसको व्यर्थ फेंक देने के उपाय और और जैसे-जैसे आदमी सभ्य होता जाता है; तकिए बढ़ते चले व्यवस्था कर रखी है। कुछ बचता नहीं। आदमी करीब-करीब जाते हैं-एक, दो, तीन ! क्यों? क्योंकि उतना सिर ऊंचा चाहिए, बैंक्रप्ट, दिवालिया जीता है। जो शक्ति उसे मिलती है, दैनंदिन ताकि खून जरा भी भीतर न जाए। नहीं तो मस्तिष्क की दिनभर इतनी कार्यों में चुक जाती है। और जो शक्ति छिपी पड़ी है, उसे वह कभी चलने की आदत है कि जरा-सा खून का धक्का और सिलेंडर चालू जगा नहीं पाता। हो जाएगा; आपका मस्तिष्क काम करना शुरू कर देगा। तो योग का पहला तो आधार है, छिपी हुई पोटेंशियल ऊर्जा को | __ योगी शीर्षासन लगाकर खड़ा होता है। आप समझें कि दोनों का जगाना। सब तरह के उपाय योग ने खोजे हैं कि वह कैसे जगाई | नियम एक ही है, तकिया रखने का और शीर्षासन का आधारभूत जाए। इसलिए प्राणायाम खोजा। प्राणायाम आपके भीतर सोई हुई | | नियम एक ही है। उलटा काम कर रहा है वह। वह सारे शरीर के शक्तियों को हैमर करने की, चोट करने की एक विधि है। फिर योग खून को सिर में भेज रहा है। योगी जब शीर्षासन लगाकर खड़ा हो ने आसन खोजे। आसन आपके शरीर में छिपे हुए जो ऊर्जा के रहा है, तो वह कर क्या रहा है? वह इतना ही कर रहा है कि वह 139 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 गीता दर्शन भाग - 3 > सारे शरीर के खून की गति को सिर की तरफ भेज रहा है। अभी जितना आपका मस्तिष्क काम कर रहा है, वैज्ञानिक कहते हैं कि सिर्फ एक चौथाई मस्तिष्क काम करता है, तीन चौथाई बंद पड़ा हुआ है, स्टैगनेंट, वह कभी कोई काम नहीं करता। खून की तीव्र चोट से वह जो नहीं काम करने वाला मस्तिष्क का हिस्सा है, सक्रिय किया जा सकता है। क्योंकि यह हिस्सा भी खून की चोट से ही सक्रिय होता है। खून का धक्का आपके मस्तिष्क के बंद सिलेंडर को गतिमान कर देता है। मस्तिष्क के वे हिस्से सक्रिय हो जाएं, जो मौन चुपचाप पड़े हैं, तो आपकी समझ और आपके विवेक में आमूल अंतर पड़ जाते हैं- आमूल अंतर पड़ जाते हैं। आप नए ढंग से सोचना और नए ढंग से देखना शुरू कर देते हैं। नए ढंग से, एक नई दृष्टि, और एक नया द्वार, न्यू परसेप्शन, डोर्स आफ न्यू परसेप्शन, प्रत्यक्षीकरण के नए द्वार आपके भीतर खुलने शुरू हो जाते हैं। मैंने उदाहरण के लिए कहा। इस तरह के शरीर में बहुत-से चक्र हैं। इन प्रत्येक चक्र में छिपी हुई अपनी विशेष ऊर्जा है, जिसका विशेष उपयोग किया जा सकता है। योगासन उन सब चक्रों में सोई हुई शक्ति को जगाने का प्रयोग है। योग के द्वारा शरीर एक डायनेमिक फोर्स, एक बहुत जीवंत ऊर्जा की जीती-जागती, साकार प्रतिमा बन जाता है। इस शक्ति के पंखों पर चढ़कर अंतर्यात्रा हो सकती है। अन्यथा अंतर्यात्रा अत्यंत कठिन है। वह प्रभु का जो स्मरण है, तभी हो सकता है। तो पहला तो योग का विशेष अभ्यास है, वह है, शक्ति के सोए हुए स्रोतों को सजीव करना, जाग्रत करना, पुनर्जीवित करना । बहुत स्रोत हैं। कभी-कभी अचानक घटनाएं घटती हैं, तब लोगों को पता चलता है। अभी स्विटजरलैंड में एक आदमी एक ट्रेन से गिर पड़ा था। चोट लगी बहुत जोर से उसके कानों को। जब वह अस्पताल में भर्ती किया गया, तो पाया गया कि दस मील के भीतर जो भी रेडियो स्टेशन हैं, उसके कान ने, उन रेडियो स्टेशंस को पकड़ना शुरू कर दिया। बड़ी हैरानी हुई। कभी सोचा न था कि कान के पास यह क्षमता हो सकती है कि रेडियो स्टेशन को सीधा पकड़ ले, बीच में रेडियो की जरूरत न रहे ! लेकिन योग सदा से कहता है कि कान के पास ऐसी क्षमता छिपी पड़ी है, सिर्फ उसे सजग करने की बात है। यह भूल-चूक से हो गया, एक्सिडेंटल, कि आदमी ट्रेन से गिरा और उस केंद्र पर चोट लग गई और शक्ति सक्रिय हो गई। योग इसे व्यवस्थित रूप से सक्रिय करना जानता है। उसके कुछ दिन पहले स्वीडन में एक आदमी को आंख का कुछ आपरेशन किया, और अचानक उसे दिन में आकाश के तारे दिखाई पड़ने शुरू हो गए। दिन में! आकाश में तारे तो दिन में भी होते हैं, सिर्फ सूरज की रोशनी की वजह से आपको दिखाई नहीं पड़ते। अगर आप एक गहरे कुएं में चले जाएं, गहरे अंधेरे कुएं में, तो दिन में भी आपको गहरे कुएं में से आकाश में थोड़े-से तारे दिखाई पड़ सकते हैं। लेकिन उस आदमी को तो सूरज की रोशनी में खड़े होकर तारे दिखाई पड़ने लगे। क्या हो गया ? योग बहुत दिन से कहता है कि आंख की क्षमता बहुत है। | जितनी आप जानते हैं, उससे बहुत ज्यादा। लेकिन उसके सोए हुए शक्ति केंद्र हैं, उनको सजग करना जरूरी है। शरीर में ऐसे बहुत ऊर्जा स्रोत हैं, और योग ने सबको सक्रिय करने की प्रक्रियाएं खोजी हैं। उनका ही अभ्यास, उनका ही सतत अभ्यास व्यक्ति को परमात्मा की दिशा में सक्रिय कर पाता है, एक । दूसरी बात, जैसा हमारा मन है, साधारणतः हम सोचते हैं, साधारणतः हमारा खयाल है कि यह जो हमारा मन है, जैसा यह मन है, इसी मन को लेकर हम परमात्मा की तरफ चले जाएंगे, तो हम गलत सोचते हैं। इस मन को लेकर जाना असंभव है। इसी मन के कारण तो हम पदार्थ की तरफ आए हैं। यह मन हमारा पदार्थ से संबंध जोड़ने का इंतजाम है; यह परमात्मा से तोड़ने का कारण है; यह जोड़ने का कारण नहीं बन सकता है। यह जो मन है हमारे पास, यह मन पदार्थ से जोड़ने की व्यवस्था है। इसी मन को आप परमात्मा की तरफ नहीं ले जा सकते। आपको एक नए मन को करने की जरूरत है। और योग कहता है, वैसा नया मन पैदा किया जा सकता है। और उस नए मन को पैदा करने की भी पूरी कीमिया योग ने खोजी है कि वह नया मन कैसे पैदा हो। जैसे मैंने कहा कि शरीर की शक्ति जगाने के लिए आसन, प्राणायाम, मुद्राएं और इस तरह की सारी व्यवस्था है। हठयोग ने उस पर अपूर्व चेष्टा की है, और ऐसे राज खोज लिए हैं, जिनमें से बहुत-से राजों से अभी विज्ञान भी अपरिचित है। जैसे विज्ञान को अभी तक खयाल नहीं था कि शरीर में खून या खून की गति वालेंटरी हो सकती है, स्वेच्छा से हो सकती है। | विज्ञान समझता है कि खून की गति नान- वालेंटरी है, स्वेच्छा के बाहर है, आप कुछ कर नहीं सकते। लेकिन हठयोग बहुत हजारों 140 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < योग का अंतर्विज्ञान > साल से कह रहा है कि शरीर की कोई भी गति स्वेच्छा से चालित चलता है। ध्वनियों से! हो सकती है। खून भी हमारी इच्छा से चले और बंद हो सकता है। ओंकारनाथ ठाकुर इटली में मुसोलिनी के मेहमान थे-भारत शरीर का बुढ़ापा, युवावस्था भी हमारी इच्छा के अनुकूल निर्धारित के एक बड़े संगीतज्ञ। मुसोलिनी ने ऐसे ही मजाक में भोजन पर हो सकती है। शरीर की उम्र भी हम विशेष प्रक्रियाओं से लंबी और | | निमंत्रित किया था ठाकुर को-मजाक में, भोजन करते वक्त कम कर सकते हैं। मुसोलिनी ने कहा कि मैं सुनता हूं कि कृष्ण बांसुरी बजाते थे, तो एक आदमी इजिप्त में, एक सूफी योगी, अठारह सौ अस्सी में | जंगली जानवर आ जाते; गउएं नाचने लगतीं; मोर पंख फैला देते। समाधिस्थ हुआ, जीवित। और चालीस साल बाद उखाड़ा जाए, | यह कुछ मुझे समझ में नहीं आता कि संगीत से यह कैसे हो सकता इसकी घोषणा करके समाधि में, कब्र में चला गया, अठारह सौ | | है! ओंकारनाथ ठाकुर ने कहा कि कृष्ण जैसी मेरी सामर्थ्य नहीं। अस्सी में। चालीस साल बाद उन्नीस सौ बीस में कब्र खुदेगी। जो संगीत के संबंध में उतनी मेरी समझ नहीं। सच तो यह है कि संगीत बूढ़े उसको दफनाने आए थे उस चालीस साल के विश्राम के लिए, के संबंध में कृष्ण जैसी समझ पृथ्वी पर फिर दूसरे आदमी की नहीं उनमें से करीब-करीब सभी मर गए। उन्नीस सौ बीस में एक भी रही है। लेकिन थोड़ा-बहुत क ख ग, जो मैं जानता हूं, वह मैं नहीं था। जो जवान थे, उनमें से भी अनेक बूढ़े होकर मर चुके थे। आपको करके दिखा दूं कि समझाऊं! मुसोलिनी ने कहा, समझाने जो बच्चे थे, वे ही कुछ बचे थे। जो उस भीड़ में छोटे बच्चे खड़े | में तो कोई सार नहीं है। तुम कुछ करके ही दिखा दो। थे, वे ही बचे थे। कुछ न था हाथ में। खाना ले रहे थे, तो कांटा-चम्मच हाथ में उन्नीस सौ बीस तक करीब-करीब बात भूली जा चुकी थी। वह | थे। सामने चीनी के बर्तन, प्यालियां थीं। ओंकारनाथ ठाकुर ने वे तो सरकारी दफ्तरों के कागजातों में बात थी और किसी के हाथ पड़ | प्यालियां और बर्तन चम्मच-कांटे से बजाना शुरू कर दिया। पांच गई। किसी को भरोसा नहीं था कि वह आदमी अब जिंदा मिलेगा मिनट, सात मिनट और मुसोलिनी की आंख झप गई और जैसे वह उन्नीस सौ बीस में। लेकिन कतहलवश किसी को भरोसा नहीं नशे में आ गया। और उसका सिर टेबल से टकराने लगा। जोर से था कि वह जिंदा मिलने वाला है। चालीस साल! कुतूहलवश कब्र | बजने लगे बर्तन और मुसोलिनी का सिर और जोर से टकराने खोदी गई। वह आदमी जिंदा था। और बड़ा आश्चर्य जो घटित लगा। और जोर से बजने लगे बर्तन! और फिर मुसोलिनी हुआ वह यह कि इस चालीस साल में उसकी उम्र में कोई भी | चिल्लाया कि रोको, क्योंकि मैं सिर को नहीं रोक पा रहा हूं! रोका, फेर-बदल नहीं हुआ था। उसके जो चित्र छोड़े गए थे अठारह सौ | तो सिर लहूलुहान हो गया था। अस्सी में फाइलों के साथ, उससे उसके चेहरे में चालीस साल का ___ मुसोलिनी ने अपनी आत्मकथा में लिखवाया है कि मैंने जो कोई भी फर्क नहीं था। | वक्तव्य दिया था, उसके लिए मैं क्षमा चाहता हूं। जरूर कृष्ण की ___ उन्नीस सौ बीस में कब्र के बाहर आकर वह आदमी नौ महीने और बांसुरी से जंगली जानवर आ गए होंगे। जब कि एक सभ्य आदमी जिंदा रहा। और नौ महीने में उतना फर्क पड़ गया, जितना चालीस का सिर सारी कोशिश करके भी नहीं रुक सकता है। और सिर्फ साल में नहीं पड़ा था। और उस आदमी से पूछा गया कि तुमने किया | | कांटे-चम्मच बर्तन पर बजाए जा रहे हैं, कोई बड़ा वाद्य नहीं! क्या? उसने कहा कि मैं कुछ ज्यादा नहीं जानता हूं। सिर्फ प्राणायाम | चित्त की सूक्ष्मतम तरंगें ध्वनि की तरंगें हैं। ध्वनि से हम जीते हैं। का एक छोटा-सा प्रयोग जानता हूं। श्वास पर काबू करने का एक अभी पश्चिम में इस पर बहुत काम शुरू हुआ है, साउंड छोटा-सा प्रयोग जानता हूं, और कुछ भी नहीं जानता। | इलेक्ट्रानिक्स पर, ध्वनिशास्त्र पर। क्योंकि पश्चिम में पागलपन तो एक हिस्सा तो शरीर है ऊर्जा का, जिसके योग ने सूत्र खोजे। | रोज बढ़ता जा रहा है। और अब साउंड इलेक्ट्रानिक्स के समझने दूसरा हिस्सा नया मन, ए न्यू माइंड पैदा करने की प्रक्रियाएं हैं, जो | | वाले लोग कहते हैं कि उसके बढ़ने का कारण ट्रैफिक की ध्वनियां योग ने खोजीं। पहले प्रयोग के लिए योगासन हैं, प्राणायाम हैं, | | हैं। सड़क पर जो ध्वनियां हो रही हैं, हार्न बज रहे हैं, कारें निकल मुद्राएं हैं। दूसरे प्रयोग के लिए ध्वनि, शब्द और मंत्रों का प्रयोग | रही हैं, भोंपू बज रहे हैं, ट्रक निकल रहे हैं, हवाई जहाज उड़ रहे है। तो मंत्रयोग की पूरी लंबी व्यवस्था है। | हैं, सुपरसोनिक उड़ रहे हैं, जंबो जेट उड़ रहे हैं, वे सब जो आवाजें हमें खयाल में भी नहीं है कि हमारा चित्त जो है, वह ध्वनियों से पैदा कर रहे हैं, उन ध्वनियों को यह मन नहीं सह पा रहा है; Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग - 3 > विक्षिप्त हो रहा है। अगर किन्हीं ध्वनियों को सुनकर आदमी पागल हो सकता है, तो क्या यह मानने में बहुत कठिनाई है कि किन्हीं ध्वनियों को सुनकर आदमी शांत हो जाए? अगर किन्हीं ध्वनियों को सुनकर आदमी का मन विक्षिप्त हो सकता है, तो क्या यह मानने में बहुत अड़चन होगी कि किन्हीं और ध्वनियों को, विपरीत ध्वनियों को सुनकर मनुष्य का मन समाधिस्थ हो जाए ? मंत्रयोग उसकी चेष्टा है। और इस तरह की ध्वनियां मंत्रयोग ने खोजीं, जिन ध्वनियों का उच्चार, आंतरिक उच्चार, हृदयगत उच्चार, प्राणगत उच्चार मन को नई शक्ल देना शुरू कर देता है, नया पैटर्न। प्रत्येक ध्वनि का अपना पैटर्न है, अपना ढांचा है। आप कभी ऐसा करें कि एक पतले, झीने कागज पर रेत के दाने बिछा दें। फिर नीचे से जोर से कहें, राम और रेत के दाने हिलेंगे और कागज पर एक पैटर्न बन जाएगा। आप कितनी ही बार राम कहें, वही पैटर्न रेत के कणों पर बनेगा। कहें, अल्लाह ! दूसरा पैटर्न बनेगा। फिर कितनी ही बार अल्लाह कहें, उस कागज के ऊपर वही दूसरा पैटर्न दोहरेगा। फिर एकाध कोई गंदी गाली देकर भी देखें, उसका भी अपना पैटर्न बनेगा। और एक और मजे की बात है कि गंदी गाली का जो पैटर्न बनेगा उसके ऊपर, वह बहुत कुरूप होगा। और राम का जो पैटर्न बनेगा, बहुत समायोजित, संतुलित, सुंदर, अनुपात में होगा। अल्लाह का पैटर्न बनेगा, बहुत सुंदर, बहुत समायोजित होगा। आप एक-एक शब्द को उस कागज के नीचे दोहराकर देखें कि उसका पैटर्न कैसा बनता है। जो पैटर्न रेत के दानों पर बन रहा है, वही आपके चित्त में भी बनता है। आपका चित्त एक बहुत – रेत के दाने तो कुछ भी नहींआपका चित्त तो सबसे ज्यादा संवेदनशील वस्तु है इस पृथ्वी पर । छोटी-सी ध्वनि तरंग उसको रूप देती है। हम जो शब्द सुन रहे हैं, जो बातें सुन रहे हैं, जो गीत सुन रहे हैं, रास्ते पर आवाजें सुन रहे हैं, वे हमारे एक तरह के मन को निर्मित करते हैं। योग कहता है, एक नए तरह का मन चाहिए पड़ेगा, अगर परमात्मा की तरफ जाना है। तो उन ध्वनियों का उपयोग करो, जिन ध्वनियों से परमात्मा की तरफ जाने वाला लयबद्ध मन निर्मित हो जाए। । और इसीलिए एक शब्द को ही निरंतर दोहराने की प्रक्रियाएं ईजाद की गईं। उसका कारण है। ताकि वह पैटर्न, उस शब्द से बनने वाला पैटर्न थिर हो जाए मन पर, मन पर बैठ जाए; मन उसको इंबाइब कर ले, पी ले; मन उसके साथ एकाकार हो जाए। तो नया मन निर्मित होना शुरू हो जाएगा। ध्वनिशास्त्र चित्त के रूपांतरण की बड़ी अदभुत — बड़ी अदभुत - कुंजियां खोज लिया है। हजारों साल उस तरफ मेहनत गई है। तो दूसरा तत्व योग का है, ध्वनि। पहला तत्व है, ऊर्जा। दूसरा तत्व है, ध्वनि । और तीसरा तत्व है, ध्यान, अटेंशन, दिशा । चेतना उसी दिशा में बहती है, जिस तरफ चेतना को हम उन्मुख करते हैं। जहां उन्मुख करते हैं, वहीं चेतना बहती है । और जिस तरफ चेतना बहती है, उस तरफ बहती है और शेष तरफ बहना उसका बंद हो जाता है। परमात्मा की तरफ कैसे बहे ? क्योंकि परमात्मा की कोई दिशा नहीं है, खयाल रखना। बोल रहा हूं, तो आपका ध्यान मेरी तरफ बहेगा। लेकिन | शेष सब तरफ बंद हो जाएगा। अगर कोई पीछे से आवाज कर दे, तो आपका ध्यान चौंककर उस तरफ बहेगा, लेकिन तब तक आपके संबंध मुझसे टूट जाएंगे। लेकिन परमात्मा की तो कोई दिशा नहीं है, सब दिशाओं में वह व्याप्त है— दिशाहीन, दिशातीत । तो | परमात्मा को हम किस दिशा में खोजें? कहां ध्यान ले जाएं? इस | जगत में और कुछ भी खोजना हो, तो दिशा है। परमात्मा की तो कोई दिशा नहीं, उसे हम कैसे खोजें? तो ऐसी ध्वनियां पैदा की हैं योग ने, जो दिशाहीन हैं। जैसे ओम, यह दिशाहीन ध्वनि है। अगर आप ओम का पाठ करें, तो यह ध्वनि सर्कुलर है। इसलिए ओम का जो प्रतीक बनाया है, वह भी सर्कुलर है, वर्तुलाकार है। अगर आप भीतर ओम की ध्वनि करें, तो आपको ऐसा अनुभव होगा, जैसे मंदिर के ऊपर गुंबज होती है गोल। वह गोल गुंबज ओम की ध्वनि से जुड़कर बनाई गई है, वह जो मंदिर के ऊपर अर्ध गोलाकार छप्पर है। जब आप भीतर जोर से ओम का पाठ करेंगे, तो आपको अपने सिर और चारों तरफ एक | वर्तुलाकार स्थिति का बोध होगा, दिशाहीन । यह ओम कहीं से आता हुआ नहीं मालूम पड़ेगा। सब कहीं से आता हुआ और सब कहीं जाता हुआ मालूम पड़ेगा। यह एक अदभुत ध्वनि है, जो योग ने खोजी है। इस ध्वनि के | मुकाबले जगत में कोई दूसरी ध्वनि नहीं खोजी जा सकी। इसे | इसलिए मूल ध्वनि, बीज ध्वनि... । इस वर्तुलाकार स्थिति में आप परमात्मा की तरफ उन्मुख होंगे, 1421 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -योग का अंतर्विज्ञान > अन्यथा आप उन्मुख न हो सकेंगे। कोई न कोई चीज आपको बौद्धों ने उसे मंडल कहा है। ऐसा मंडल बन जाता है कि आप खोचती रहेगी अपनी तरफ; कोई न कोई दिशा आपको पुकारती अपने भीतर ही घूमते हैं, बाहर से कुछ आता नहीं, बाहर आप जाते रहेगी। दिशामुक्त होंगे, तो भीतर की तरफ यात्रा शुरू होगी। नहीं। न आपकी चेतना बाहर जाती है, न बाहर से कोई ध्वनि-तरंग योग के सतत अभ्यास से, कृष्ण कहते हैं अर्जुन को, परमात्मा आपके भीतर प्रवेश करती है। इस मंडल में ठहरी हुई चेतना में प्रतिष्ठा मिलती है। वायुरहित स्थान में दीए की लौ जैसी हो जाती है। इतनी अकंप फिर अभी योग पर और बहुत बात होगी, तो हम धीरे-धीरे चेतना ही प्रभु में प्रतिष्ठा पाती है, क्योंकि निष्कंप होना ही प्रभु में उसकी और बात करेंगे। प्रतिष्ठित हो जाना है-निष्कंप होना ही। ___ कंपना ही संसार में जाना है। निष्कंप हो जाना, प्रभु में पहुंच जाना है। कंपे, कंपित हुए, संसार में गए। अगर ठं झें. तो संसार यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता। एक कंपन, अनंत कंपन का समूह है। जैसे हवा में एक पत्ता कंप रहा योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः । । १९ ।। हो वृक्ष का। बाएं हवा आती है, बाएं कंप जाता है। दाएं आती है, और जिस प्रकार वायुरहित स्थान में स्थित दीपक नहीं दाएं कंप जाता है। हिलता-डुलता, कंपता रहता है; कभी थिर नहीं चलायमान होता है, वैसी ही उपमा परमात्मा के ध्यान में हो पाता। ठीक ऐसे ही वासना में, वृत्ति में, विचार में, सब में चित्त लगे हुए योगी के जीते हुए चित्त की कही गई है। कंपता रहता है, कंपित होता रहता है, डोलता रहता है। इस डोलते हुए चित्त को अवसर नहीं है कि यह जान सके उस | जगह को, जहां यह है। इस डोलती हुई लौ को पता भी नहीं चलेगा + से वायुरहित स्थान में दीए की ज्योति थिर हो, अकंप, | कि किस दीए के तेल से, किस स्रोत से इसे रोशनी मिल रही है, UI निष्कंप, जरा भी कंपित न हो, ऐसे ही योगी का चित्त, प्राण मिल रहे हैं। यह तो हवा के झोंकों में हवा को ही जान पाएगी चेतना थिर हो जाती है। यही उपमा योगी की चेतना के ज्योति, उस स्रोत को न जान पाएगी। उस स्रोत को जानने के लिए लिए कही गई है। ठहर जाना, थिर हो जाना, रुक जाना जरूरी है। ध्यान रहे, जब तक किसी दिशा में ध्यान जाएगा, तब तक चेतना __यह रुक जाना कैसे फलित हो? यह योगी की उपमा तो ठीक है, की लौ कंपित होगी। राह पर बजता है एक कार का हार्न, चेतना लेकिन यह योगी आदमी हो कैसे? ठहरे कैसे? रुके कैसे? कंपित होगी। कोई सज्जन पीछे ही व्याख्यान दिए जा रहे हैं, चेतना कभी-कभी बहुत कठिन दिखाई पड़ने वाली बातें बहुत छोटे-से कंपित होगी। सब ध्वनियां चेतना को कंपित करेंगी। तो निष्कंप प्रयोगों से हल हो जाती हैं। कठिन तभी तक दिखाई पड़ती हैं, जब चेतना कब हो पाएगी? तक हम कुछ करते नहीं हैं और सिर्फ सोचते चले जाते हैं। सरल जब इन समस्त ध्वनियों के पार हम अपने भीतर कोई मंदिर हो जाती हैं उसी क्षण, जब हम कुछ करते हैं! कोई अनुभव, बड़ी खोज पाएं, जहां ये कोई ध्वनियां प्रवेश न करें। हम अपने भीतर से बड़ी कठिनाई को कोई छोटा-सा अनुभव तोड़ जाता है। ऊर्जा का एक ऐसा वर्तुल बना पाएं, जहां चेतना अकंप ठहर जाए, सुना है मैंने, आज जहां रूस का बहुत बड़ा महानगर है, जैसे वायुरहित स्थान में दीया ठहर जाए। चित्त के लिए ध्वनि ही स्टैलिनग्राद, पुराना नाम था उस गांव का पैत्रोग्राद। पीटर महान ने वायु है। उसको बसाया था, रूस के एक सम्राट ने। और पीटर महान जब तो ध्वनि का एक विशेष आयोजन भीतर करना पड़े, तभी लौ | उसे बसा रहा था, तो उसने एक पहाड़ी के कोने को चुना था अपने ठहर पाएगी। योग उसका अभ्यास है। और निश्चित ही ऐसी | लिए कि इस जगह मैं अपना भवन बनाऊं। लेकिन उस पहाड़ी को संभावनाएं हैं। आपको भी उपलब्ध हो सकती हैं। कोई विशेषता | हटाना बड़ा भारी प्रश्न था। और पीटर महान चाहता था, समतल नहीं है कि किसी विशेष को उपलब्ध हों। जो भी श्रम करे उस दिशा | भूमि हो जाए। बहुत इंजीनियरों को कहा, लाखों रुपए देने की बात में सतत, उसे उपलब्ध हो जाएं; तो चित्त मंडलाकार अपने भीतर | | कही। इंजीनियर कहते थे, बहुत खर्च है। कई लाख खर्च होंगे, तो ही बंद हो जाता है। यह पत्थर हटेगा। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग - 3 एक दिन पीटर महान खुद गया देखने। सच में इतना बड़ा पत्थर था कि उसे काट-काटकर हटाने के सिवाय कोई उपाय उस समय नहीं था। एक बैलगाड़ी वाला किसान पास से गुजरता था, वह हंसने लगा। उसने कहा, लाखों रुपए ! हम सस्ते में जमीन सपाट कर दे सकते हैं। इंजीनियर हंसे, सम्राट हंसा, कहा कि भोला किसान है, क्यों पागलपन में पड़ता है! उसने कहा कि हम कर ही देंगे सस्ते में, इसमें कोई लाखों का सवाल नहीं है। और उसने कर दिया। तो उस महल के नीचे एक पत्थर लगाया था पीटर महान ने उस किसान की स्मृति में – उस किसान की स्मृति में । उस किसान ने बहुत कम, कुछ ही हजार रुपयों में वह पत्थर सपाट कर दिया। लेकिन उसने और ढंग से सोचा । सोचा कम, और किया कुछ ज्यादा । उसने पत्थर को काट-काटकर फेंकने का खयाल ही नहीं लाया। उसने तो पत्थर के चारों तरफ गड्ढा खोदना शुरू करवाया। चारों तरफ गड्ढा खोदा और उस पत्थर को गड्ढे में नीचे गिरा दिया, ऊपर से मिट्टी डलवा दी। जमीन सपाट हो गई। पीटर जब देखने आया, तो उसने कहा, वह पत्थर कहां गया ? उस किसान ने कहा, पत्थर से आपको क्या प्रयोजन! जमीन सपाट चाहिए, जमीन सपाट हो गई। लेकिन पीटर महान बोला कि मैं यह जानना चाहता हूं, वह पत्थर गया कहां ? उसको हटाना बहुत मुश्किल था। उस किसान ने कहा कि आप सदा उसको दूर हटाने की भाषा में सोचते थे, हमने उसको और गहराई में पहुंचा दिया। तो उसके नाम पर एक स्मरण का पत्थर पीटर ने लगवाया था कि बड़े इंजीनियर जिसे महीनों सोचते रहे और हल न कर पाए, एक छोटे-से ग्रामीण किसान ने उसे हल कर दिया। कई बार बड़े बुद्धिमान जिसे हल नहीं कर पाते, छोटे-से प्रयोगकर्ता उसे हल कर लेते हैं। और योग के संबंध में तो ऐसा ही मामला है - बिलकुल ऐसा ही मामला है। आप अगर सोच-सोचकर हल करना चाहें, तो जिंदगी में कोई प्रश्न हल नहीं होगा। अगर आप चाहते हों कि शांत हो जाएं और विचार कर-करके शांत होना चाहें, आप कभी शांत न हो पाएंगे। क्योंकि विचार करना सिर्फ एक और तरह की अशांति है, और कुछ भी नहीं। आप सोचते हों, विचार कर-करके शांत होंगे, तो आप और अशांत हो जाएंगे; क्योंकि विचार करना एक अशांति से ज्यादा नहीं है। इसलिए जो लोग शांत होना चाहते हैं, वे उन लोगों से भी ज्यादा अशांत हो जाते हैं, जो शांत होने की फिक्र नहीं करते। उनकी अशांति दोहरी हो जाती है। एक तो अशांति होती ही है और एक अशांति और पकड़ लेती है कि शांत कैसे हों ! लेकिन कोई छोटी-सी प्रक्रिया चित्त को एकदम शांत कर जाती | है । कोई बहुत छोटी-सी प्रक्रिया, कोई मेथड चित्त को ऐसे शांत कर जाता है, जैसे वह कभी अशांत ही न था। काटता करीब-करीब ऐसा है कि जैसे कोई किसी वृक्ष के रहे और सोचे कि वृक्ष को समाप्त करना है। वह पत्ते काट न पाए | और नए पत्ते आ जाएं। और वृक्ष की आदतें ऐसी हैं कि एक पत्ता | काटो, तो चार आ जाते हैं। वृक्ष समझता है, कलम की जा रही है। | जब तक जड़ न काटी जाए, तब तक वृक्ष के पत्ते काटने से वृक्ष का अंत नहीं होता। हम सब एक-एक विचार से लड़ते रहते हैं। कोई कहता है कि मुझे क्रोध बहुत आता है, तो मेरा क्रोध कैसे ठीक हो जाए? मेरे पास लोग आते हैं। कोई कहता है, क्रोध कैसे ठीक हो जाए? क्रोध, बस क्रोध ठीक हो जाए। वह समझता है कि क्रोध कोई अलग चीज है लोभ से । वह समझता है, लोभ कोई अलग चीज है मान से। वह समझता है, मान कोई अलग चीज है काम से। वह समझता है, ये सब अलग चीजें हैं। अलग चीजें नहीं हैं, सब पत्ते हैं। और एक | को काटिएगा, तो चार निकल आएंगे। योग कहता है, जड़ को काटिए, पत्तों को मत काटिए । जड़ कटं गई, तो पूरा वृक्ष गिर जाएगा। क्रोध नहीं गिर सकता उस आदमी का, जिसका काम बाकी है। | उस आदमी का लोभ नहीं गिर सकता, जिसका काम बाकी है। उस आदमी का मान नहीं गिर सकता, अहंकार नहीं गिर सकता, | जिसका काम बाकी है। और मजा यह है कि चार में से कोई एक भी बच जाए, तो बाकी तीन अनिवार्य रूप से मौजूद रहेंगे। वे जा नहीं सकते। हां, यह हो सकता है कि आपमें एक की मात्रा थोड़ी ज्यादा हो, दूसरे की थोड़ी कम हो। लेकिन अगर चारों का हिसाब जोड़ा जाए, तो सब आदमियों में बराबर मात्रा मिलेगी – चारों को जोड़ लिया जाए, तो लेकिन हम सब उस सर्कस के बंदरों जैसे हैं। मैंने सुना है कि एक सर्कस के मालिक के पास बंदर थे। वह सुबह उनको चार रोटी | देता, शाम को तीन रोटी। एक दिन उसने बंदरों से कहा कि कल से हम व्यवस्था बदल रहे हैं । तुम्हें सुबह तीन रोटी मिलेंगी, शाम चार रोटी। बंदर एकदम नाराज हो गए। रोज सुबह चार रोटी मिलती 144 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग का अंतर्विज्ञान थीं, शाम तीन रोटी। उसने कहा, कल से हम व्यवस्था बदलते हैं। कल सुबह से तुम्हें तीन रोटी सुबह मिलेंगी, चार रोटी शाम। बंदर बहुत नाराज हो गए। चीखने-चिल्लाने लगे, कि हम बरदाश्त नहीं कर सकते यह बात । बंदरों ने तीन रोटी लेने से इनकार कर दिया। वह मालिक बड़ा हैरान हुआ। उसने कहा कि पागलो, जोड़ो भी तो ! तो मैंने सुना है कि बंदरों ने कहा, जोड़ करता ही कौन है ! हमें सुबह चार चाहिए, जैसी हमें सदा मिलती रही हैं ! कोई रास्ता न देखकर उन्हें चार रोटियां दी गईं, बंदर राजी हो गए। शाम उनको तीन रोटी मिलतीं, सुबह चार मिलतीं। वे तृप्त। सुबह तीन मिलतीं, शाम चार मिलतीं, सात ही होती थीं, लेकिन जोड़ कौन करता है ! आदमी नहीं करते, तो बंदर क्यों करें? मैंने सुना है, उन बंदरों ने कहा, आदमी नहीं करते! हम बंदर क्यों जोड़ की झंझट में पड़ें! हमें चार सुबह मिलती थीं, चार चाहिए। शाम तीन मिलती थीं, तीन चाहिए। हम झंझट में नहीं पड़ते। एक आदमी में थोड़ा क्रोध ज्यादा होता है, थोड़ा लोभ कम होता है, दोनों का जोड़ बराबर सात होता है। इन चारों का जोड़ सब आदमियों में बराबर है। लेकिन जोड़ कोई करता नहीं। और एक-एक को, जिसको क्रोध ज्यादा लगता है, वह कहता है, क्रोध से किस तरह छूट जाऊं ? लोभ की तो झंझट नहीं है; क्रोध ही की झंझट है। उसे पता नहीं है कि अगर क्रोध काट दिया जाए, क्रोध की जितनी रोटियां हैं, कहीं और जुड़ जाएंगी। क्रोध कट नहीं सकता अकेला। चारों साथ रहते हैं, या चारों साथ जाते हैं। योग कहता है, ऊपर से मत लड़ो। जड़ पकड़ो। जड़ कहां है? जड़ कहां है? न तो क्रोध जड़ है, न लोभ जड़ है, न काम जड़ है, न अहंकार जड़ है। जड़ कहां है? योग कहता है, जड़ आपके मन की सिस्टम, मन की जो व्यवस्था है आपकी, उसमें जड़ है। ऐसे मन में लोभ, क्रोध होगा ही; काम, अहंकार होगा ही । यह मन का, जो आपके पास मन है, उसका स्वभाव है। इस मन को ही बदलो। इस मन की जगह नए मन को स्थापित करो। यह मन रहा और इस मन का यंत्र रहा, तो सब जारी रहेगा। इस यंत्र को नया करो, नया यंत्र स्थापित करो। तो तुम्हारे पास नया मन होगा, जिसमें क्रोध नहीं होगा, काम नहीं होगा, मोह नहीं होगा, लोभ नहीं होगा। लेकिन इस मन को बदलने का राज क्या है ? योग उसी राज का विस्तार है। और योग ने तीन प्रकार के राज कहे, तीन तरह के लोगों के लिए। क्योंकि तीन तरह के लोग हैं। वे लोग हैं, जो विचार प्रधान हैं जिनके भीतर, बुद्धि प्रधान है जिनके भीतर, उनके लिए अलग राज कहा। जिनके पीछे भाव प्रधान है, उनके लिए अलग राज कहा। जिनके पीछे कर्म प्रधान है, उनके लिए अलग राज कहा। योग की तीन शाखाएं हैं प्रमुख - फिर तो अनंत शाखाएं हो गईं— कर्म, भक्ति और ज्ञान और उन तीनों की तीन कुंजियां हैं। और एक-एक आदमी का जो टाइप है, उस आदमी को वह कुंजी लागू होती है। ताला खुलने पर एक ही मकान में प्रवेश होता है। लेकिन अलग-अलग आदमी, अलग-अलग दरवाजों पर, अलग-अलग ताले डालकर खड़े हैं। अब आदमी विचार से ही जीता है, उसके लिए प्रार्थना, कीर्तन, भजन बिलकुल अर्थपूर्ण नहीं मालूम पड़ेंगे। उसमें उसका | कसूर नहीं है, वैसा मन उसके पास है। वह सोचेगा, विचार करेगा। विचार करेगा, तो सोचेगा कि क्या होगा ! क्योंकि विचार प्रश्न उठाता है। और जहां प्रश्न उठते हैं विचार में, वहां भाव में प्रश्न नहीं उठते हैं। भाव कभी प्रश्न नहीं उठाते। भाव निष्प्रश्न हैं । भाव स्वीकार है, एक्सेप्टिबिलिटी है। भाव राजी हो जाता है, विचार संघर्ष करता है । तो विचार के लिए तो अलग ही रास्ता खोजना पड़े। योग ने उसके लिए रास्ता खोजा। ज्ञानयोग का अर्थ है, उस जगह पहुंच जाओ, जहां न ज्ञेय रह जाए और न ज्ञाता रह जाए, सिर्फ ज्ञान रह जाए। उसकी पूरी प्रक्रिया है । ज्ञेय को छोड़ो, आब्जेक्ट्स को छोड़ो। जिसे जानना हो, उसे छोड़ो, और जो जानने वाला है, उसे भी छोड़ो। वह जो जानने की क्षमता है, उसमें ही ठहरो, उसी में रमो। वह जो ज्ञान की क्षमता है, नोइंग फैकल्टी जो है, जानने की क्षमता, उसी में रमो । जैसे मैं फूल देख रहा हूं। तो तीन हैं वहां एक मैं हूं, | रहा है। एक फूल है, जिसे देख रहा हूं। और हम दोनों के बीच दौड़ती ज्ञान की धारा है। ज्ञानयोग कहता है, फूल को भी भूल | जाओ, स्वयं को भी भूल जाओ, यह जो दोनों के बीच में ज्ञान की | धारा बह रही है, इसी में ठहर जाओ, इसी में खड़े हो जाओ - ज्ञान की धारा में। मैं हूं, जो देख भाव वाले आदमी को यह बात समझ में न पड़ेगी कि ज्ञान की धारा में कैसे खड़े हो जाएं! नहीं पड़ेगी समझ में, क्योंकि भाव वाला आदमी समझ से जीता नहीं। भाव वाला आदमी भावना से जीता है, समझ से नहीं । भाव वाले आदमी से कहो कि नाचो, आनंदमग्न होकर नाचो, प्रभु-समर्पित होकर नाचो । वह नाचने लगेगा। वह 145 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < गीता दर्शन भाग-3 यह नहीं पूछेगा, नाचने से क्या होगा? वह नाचने लगेगा। और सम्राट ने आर्किमिडीज को कहा है...। सम्राट को किसी ने एक नाचने से सब हो जाएगा। | बहुत बहुमूल्य मुकुट भेंट किया है सोने का। लेकिन सम्राट को नाचने में वह क्षण आता है, कि नाचने वाला भी मिट जाता है, शक है कि उस बहुमूल्य सोने के मुकुट में भीतर तांबा मिलाया गया नाचने का खयाल भी मिट जाता है, नृत्य ही रह जाता है-नृत्य | | है। लेकिन तोड़कर मुकुट को देखे बिना कोई उपाय नहीं है। और ही। परमात्मा भी भूल जाता है, जिसके लिए नाच रहे हैं; जो नाचता तोड़ो तो इतना बहुमूल्य मुकुट है कि शायद दुबारा फिर न बन सके। था, वह भी भूल जाता है; सिर्फ नाचना ही रह जाता है—सिर्फ तो सम्राट ने आर्किमिडीज को कहा है कि तू बिना तोड़े पता नृत्य, जस्ट डांसिंग। जस्ट नोइंग की तरह घटना घट जाती है। जैसे लगा। इसको छूना भी नहीं; इसको जरा भी खरोंच भी नहीं लगनी सिर्फ जानना रह जाता है, बस द्वार खुल जाता है। सिर्फ नृत्य रह चाहिए। और पता लगाना है कि भीतर कहीं कोई और धातु तो नहीं जाता है, तो भी द्वार खल जाता है। डाल दी गई है। मीरा अगर गाएगी, तो गाने में कृष्ण भी खो जाएंगे, मीरा भी खो वह आर्किमिडीज बड़े प्रयोग कर रहा है। फिर वह उस दिन जाएगी, गीत ही रह जाएगा। ध्यान रहे, जब मीरा गाती है, मेरे तो | अपने बाथरूम में जाकर अपने टब में बैठा है। टब पूरा भरा था। गिरधर गोपाल, तो न तो गोपाल रह जाते, न मेरा कोई रह जाता। मेरे | | वह उसके अंदर बैठा है, तो बहुत-सा पानी टब के बाहर निकल तो गिरधर गोपाल, यह गीत ही रह जाता है—सिर्फ यह गीत। गिरधर | गया है उसके बैठने से। अचानक उसे, टब में बैठने से और पानी भी भूल जाते हैं, गायक भी भूल जाता है; मीरा भी खो जाती है, कृष्ण के निकलने से. एक अंतःप्रज्ञा, एक इनसाइट उसके मन में कौंध भी खो जाते हैं; बस, गीत रह जाता है। सिर्फ गीत जहां रह जाता है, गई कि मैं जरा इस पानी को तो तौल लूं कि यह कितना पानी निकल वहां वही घटना घट जाती है, जो सिर्फ ज्ञान रह जाता है। | गया बाहर! यह पानी उतना ही तो नहीं है, जितना मेरा वजन है! लेकिन महावीर गीत को पसंद नहीं कर पाएंगे। महावीर कहेंगे, | | अगर यह मेरे वजन के बराबर पानी बाहर निकल गया है, तो फिर केवल ज्ञान, जस्ट नोइंग, सिर्फ ज्ञान रह जाए, बस। वहीं द्वार | कोई रास्ता खोज लिया जाएगा। खुलेगा। वह महावीर का टाइप है। मीरा कहेगी, ज्ञान का क्या बस, उसको बात सूझ गई। वह चिल्लाया। नंगा था, दरवाजा करेंगे। गीत रह जाए। ज्ञान बड़ा रूखा-सखा है। ज्ञान का करेंगे भी खोलकर सडक पर भागा। चिल्लाया. यरेका। मित क्या! गीत बड़ा आर्द्र, बड़ा गीला, नहा जाता है आदमी। ज्ञान तो | के लोगों ने कहा कि क्या कर रहे हो यह? कहां भागे जा रहे हो? रेगिस्तान जैसा मालम पडेगा मीरा को। उसके चारों तरफ रेगिस्तान वह नंगा भाग रहा है महल की तरफ कि मिल गया। सम्राट ने भी था भी। वह परिचित भी थी अच्छी तरह। रेगिस्तान जैसा मालूम | | कहा कि रुको। कुछ होश तो लाओ! नंगे भाग रहे हो सड़क पर, पड़ेगा, रूखा-सूखा, जहां कभी कोई वर्षा नहीं होती। और गीत तो | लोग क्या कहेंगे! बड़ी हरियाली से भरा है। अमृत बरस जाता है। गीत बड़ा गीला | __ आर्किमिडीज वापस लौट आया। वह कर्म की एक समाधि में है-स्नान से। प्राणों के कोने-कोने तक गीत स्नान करा जाता है। | प्रवेश कर गया था। कर्मठ आदमी था। वह भूल गया स्वयं को, वह मीरा कहेगी, ज्ञान का क्या करिएगा? गीत काफी है। भूल गया सम्राट को, वह भूल गया सवाल को। रह गया सिर्फ एक लेकिन और लोग भी हैं, जिनको न गीत में कोई अर्थ होगा और बोध, मिल जाने का, एक उपलब्धि का। बस, वही रह गया शेष। न ज्ञान में कोई अर्थ होगा। जिनका अर्थ और जिनके जीवन का | आर्किमिडीज कहता था कि जिंदगी में जो आनंद उस क्षण में अभिप्राय तो कर्म से खुलेगा। कर्म ही! | जाना, कभी नहीं जाना। जो रहस्य उस दिन खुल गया, वह मिला आर्किमिडीज के बाबत आपने सुनी होगी कहानी कि सो मिला, वह तो कोई बड़ी कीमत की बात न थी। लेकिन नग्न आर्किमिडीज अपने स्नानगृह में टब में लेटा हुआ है। वैज्ञानिक है। | सड़क पर दौड़ना, और मुझे पता ही नहीं कि मैं हूं। मुझे यह भी पता कर्मठ है। कुछ करना ही उसकी जिंदगी है। कुछ करके खोजना ही न रहा, जब सड़क पर लोगों ने पूछा, क्या मिल गया? तो मुझे उसकी जिंदगी है। एक पहेली पर हल कर रहा है प्रयोगशाला में। | एकदम से यह भी पता न रहा कि क्या मिल गया? वह सवाल क्या बहुत मुश्किल में पड़ा है। कोई हल सूझता नहीं है। हजार तरह के | था, जो मिल गया है? सिर्फ मिल गया। बस, एक धुन रह गई मन प्रयोग कर लिए हैं। कोई रास्ता निकलता नहीं है। में कि मिल गया। 146 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग का अंतर्विज्ञान - वह जो मिलने का क्षण है, कर्मठ व्यक्ति को भी मिलता है, लेकिन उसे कर्म से ही मिलता है। अब जैसे अर्जुन जैसा आदमी है, जब तलवारें चमकेंगी और जब कर्म का पूर्ण क्षण होगा, जब अर्जुन भी नहीं बचेगा, दुश्मन भी नहीं बचेगा, सिर्फ कर्म रह जाएगा। तलवार मैं चला रहा हूं, ऐसा नहीं रहेगा; तलवार चल रही है, ऐसे क्षण की स्थिति आ जाएगी, तब अर्जुन जैसे आदमी को समाधि का अनुभव होगा। ये तीन खास प्रकार के लोग हैं। और योग ने इन तीनों पर, वैसे फिर इन तीनों के बहुत विभाजन हैं और योग ने बहुत-सी विधियां खोजी हैं, लेकिन इन तीन विधियों के द्वारा साधारणतः कोई भी व्यक्ति चेतना को उस थिर स्थान में ले आ सकता है। ___ ज्ञान रह जाए केवल; भाव रह जाए केवल; कर्म रह जाए केवल। तीन की जगह एक बचे, दो कोने मिट जाएं। द्रष्टा मिट जाए, दृश्य मिट जाए, दर्शन रह जाए। ज्ञाता मिट जाए, ज्ञेय मिट जाए. ज्ञान रह जाए। तीन की जगह एक रह जाए। बीच का रह जाए, दोनों छोर मिट जाएं, तो व्यक्ति की चेतना थिर हो जाती है, ऐसी जैसे कि जहां वायु न बहती हो, पवन न बहता हो, वहां दीए की ज्योति थिर हो जाती है। उस दीए की ज्योति के थिर होने को ही. कष्ण कहते हैं. योगी को उपमा दी गई है। योगी भी ऐसा ही ठहर जाता है। आज के लिए इतना ही। पांच मिनट लेकिन कोई उठेगा नहीं। पांच मिनट यहां वह भाव वाली प्रक्रिया...। पांच-सात मिनट ये संन्यासी नाचेंगे। इनके साथ आप भी मिट जाएं। और नाच ही रह जाए। गीत ही रह जाए। उठे . न! पांच मिनट बैठे रहें। कोई उठकर अस्तव्यस्त न हो। और यहां मंच पर कोई नहीं आएगा देखने के लिए। मंच पर तो जो नृत्य में सम्मिलित होते हैं, वही आएंगे। आप अपनी जगह बैठे। वहां से ताली बजाएं। आनंदित हों। गीत दोहराएं। 147 Page #174 --------------------------------------------------------------------------  Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 6 दसवां प्रवचन चित्त वृत्ति निरोध Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग - 3 > यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया । यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ।। २० ।। और हे अर्जुन, जिस अवस्था में योग के अभ्यास से निरुद्ध हुआ चित्त उपराम हो जाता है और जिस अवस्था में परमेश्वर के ध्यान से शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा परमात्मा को साक्षात करता हुआ सच्चिदानंदघन परमात्मा में ही संतुष्ट होता है। यो 'ग से उपराम हुआ चित्त ! इस सूत्र में, कैसे योग से चित्त उपराम हो जाता है और जब चित्त उपराम को उपलब्ध होता है, तो प्रभु में कैसी प्रतिष्ठा होती है, उसकी बात कही गई है। चित्त के संबंध में दो-तीन बातें स्मरणीय हैं। एक, चित्त तब तक उपराम नहीं होता, जब तक चित्त का विषयों की ओर दौड़ना सुखद है, ऐसी भ्रांति हमें बनी रहती है। तब तक चित्त उपराम, तब तक चित्त विश्रांति को नहीं पहुंच सकता है। जब तक हमें यह खयाल बना हुआ है कि विषयों की ओर दौड़ता हुआ चित्त सुखद प्रतीतियों में ले जाएगा, तब तक स्वाभाविक है कि चित्त दौड़ता रहे। चित्त के दौड़ने का नियम है। जहां सुख मालूम होता है, चित्त वहां दौड़ता है। जहां दुख मालूम होता है, चित्त वहां नहीं दौड़ता है। जहां भी सुख मालूम हो, चाहे भ्रांत ही सही, चित्त वहां दौड़ता है। जैसे पानी गड्ढों की तरफ दौड़ता है, ऐसा चित्त सुख की तरफ दौड़ता है। दुख के पहाड़ों पर चित्त नहीं चढ़ता, सुख की झीलों की तरफ भागता है। चाहे वे झील कितनी ही मृग मरीचिकाएं क्यों न हों; चाहे पहुंचकर झील पर पता चले कि वहां कुछ भी नहीं है— न झील है, न गड्ढा है, न पानी है। लेकिन जहां भी चित्त को दिखाई पड़ता है सुख, चित्त वहीं दौड़ता है । चित्त की दौड़ सुखोन्मुख है। और दौड़ जब तक है, तब तक चित्त विश्राम को उपलब्ध नहीं होता, तब तक तो वह श्रम में ही लगा रहता है। एक सुख से जैसे ही मुक्त हो पाता है— मुक्त होने का अर्थ ? अर्थ यह कि एक सुख को जान लेता है। जैसे ही पता चलता है कि यह सुख सुख सिद्ध नहीं हुआ, मन तत्काल दूसरे सुखों की ओर दौड़ना शुरू कर देता है। दौड़ जारी रहती है। मन अगर जी सकता है, तो दौड़ने में ही सकता है। अगर गहरी बात कहनी हो, तो कह सकते हैं कि दौड़ का नाम ही मन है। चेतना की दौड़ती हुई स्थिति का नाम मन है और चेतना की उपराम स्थिति का नाम आत्मा है। करीब-करीब चित्त की स्थिति वैसी है, जैसे साइकिल आप चलाते हैं रास्ते पर । जब तक पैडल चलाते हैं, साइकिल चलती है; पैडल बंद कर लेते हैं, थोड़ी ही देर में साइकिल रुक जाती है। साइकिल को चलाना जारी रखना हो, तो पैरों का चलते रहना जरूरी है । चित्त का चलना जारी रखना हो, तो सुखों की खोज जारी रखना जरूरी है। अगर एक क्षण को भी ऐसा लगा कि सुख कहीं भी नहीं है, तो चित्त विश्राम में आना शुरू हो जाता है। इसलिए बुद्ध ने चित्त के विश्राम और चित्त के उपराम अवस्था | के लिए चार आर्य सत्य कहे हैं। वह मैं आपको कहूं। वे योग की बहुत बुनियादी साधना में सहयोगी हैं। बुद्ध ने कहा है, जीवन दुख है, इसकी प्रतीति पहला आर्य- सत्य । जो भी हम चाहते हैं, सुख दिखाई पड़ता है, निकट पहुंचते ही दुख सिद्ध होता है। जो भी हम खोजते हैं, दूर से सुहावना, प्रीतिकर लगता है; निकट आते ही कुरूप, अप्रीतिकर हो जाता है। जीवन दुख है, ऐसा साक्षात्कार न हो, तो चित्त उपराम में नहीं जा सकेगा । ऐसा साक्षात्कार हुआ, कि चित्त की दौड़ अपने से ही खो जाती है। उसको पैडल मिलने बंद हो जाते हैं। फिर आपके पैर उसे. गति नहीं देते, ठहर जाते हैं। और चित्त चल नहीं सकता आपके बिना सहयोग के | आपके बिना कोआपरेशन के चित्त दौड़ नहीं सकता। इसलिए आप ऐसा कभी मत कहना कि मैं क्या करूं! यह चित्त भटका रहा है। ऐसा कभी भूलकर मत कहना। क्योंकि आपके सहयोग के बिना चित्त भटका नहीं सकता। आपका सहयोग अनिवार्य है। आपका सहयोग टूटा कि चित्त की गति टूटी। हां, थोड़ी देर मोमेंटम चल सकता है। साइकिल के पैडल बंद कर दिए, तो भी दस-बीस गज साइकिल चल सकती है। लेकिन | बंद करते ही पैर साइकिल के प्राण छूटने शुरू हो जाएंगे। पुरानी गति से दस-बीस कदम चल सकती है : लेकिन वह चलना सिर्फ मरना ही होगा। साइकिल की गति मरती चली जाएगी। 150 जीवन दुख है, इसकी प्रतीति । पूछेंगे हम कि कैसे इसकी प्रतीति हो ? बड़ा गलत सवाल पूछते हैं। इसकी प्रतीति प्रतिपल हो रही है। लेकिन उस प्रतीति से आप कभी कोई निर्णय नहीं लेते। प्रतीति की कोई कमी नहीं है। पूरा जीवन इसका ही अनुभव है कि जीवन दुख है, लेकिन निष्कर्ष नहीं लेते। और निष्कर्ष न लेने की तरकीब यह कि अगर एक सुख दुख सिद्ध होता है, तो आप कभी ऐसा नहीं Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < चित्त वृत्ति निरोध सोचते कि दूसरा सुख भी दुख सिद्ध होगा। नहीं; दूसरे का मोह कायम रहता है। वह भी दुख सिद्ध हो जाता है, तो तीसरे पर मन सरक जाता है; और तीसरे का मोह कायम रहता है। हजार बार अनुभव हो, फिर भी निष्पत्ति हम नहीं ले पाते कि जीवन दुख है। हां, ऐसा लगता है कि एक सुख दुख सिद्ध | हुआ, , लेकिन समस्त सुख दुख सिद्ध हो गया है, ऐसी निष्पत्ति हम नहीं ले पाते। यह निष्पत्ति कब लेंगे ? हर जन्म में वही अनुभव होता है। पीछे जन्मों को छोड़ भी दें, तो एक ही जन्म में लाख बार अनुभव होता है । ऐसा मालूम पड़ता है कि मनुष्य निष्पत्तियां लेने वाला प्राणी नहीं है; वह कनक्लूजन लेता ही नहीं है ! और निरंतर वही भूलें करता है, जो उसने कल की थीं। बल्कि कल की थीं, इसलिए आज और सुगमता से करता है। भूल से एक ही बात सीखता है, भूल को करने की कुशलता! भूल से कोई निष्पत्ति नहीं लेता, सिर्फ भूल को करने में और कुशल हो जाता है। एक बार क्रोध किया; पीड़ा पाई, दुख पाया, नर्क निर्मित हुआ; उससे यह निष्कर्ष नहीं लेता कि क्रोध दुख है। न, उससे सिर्फ अभ्यास मजबूत होता है। कल क्रोध करने की कुशलता और बढ़ जाती है। कल फिर दुख, पीड़ा। तब एक नतीजा फिर ले सकता है कि क्रोध दुख है। वह नहीं लेता, बल्कि दुबारा क्रोध करने से दुख का जो आघात है, मन उसके लिए तैयार हो जाता है, और कम दुख मालूम पड़ता है। तीसरी बार और कम, चौथी बार और कम । धीरे-धीरे दुख का अभ्यासी हो जाता है । और यह अभ्यास इतना गहरा हो सकता है कि दुख की प्रतीति ही क्षीण हो जाए; मन की संवेदना ही क्षीण हो जाए। अगर आप दुर्गंध के पास बैठे रहते हैं, बैठे रहते हैं - एक दफा, दो दफा, तीन दफा - धीरे-धीरे नाक की संवेदना क्षीण हो जाएगी, दुर्गंध की खबर देनी बंद हो जाएगी। अगर आप शोरगुल में जीते हैं, तो पहले खबर देगा मन कि बहुत शोरगुल है, बहुत उपद्रव है। फिर धीरे-धीरे - धीरे खबर देना बंद कर देगा, संवेदनशीलता कुंठित हो जाएगी। ऐसा भी हो सकता है कि फिर बिना शोरगुल के बैठना आपको मुश्किल हो जाए। जो लोग दिन-रात ट्रेन में सफर करते हैं, जब कभी विश्राम के दिन घर पर रुकते हैं, तो उनको नींद ठीक से नहीं आती! इतनी अधिक शांति की आदत नहीं रह जाती । उतना शोरगुल चाहिए। उसके बीच एट होम मालूम होता है; घर में ही हैं ! 151 > हम अपने मन से दो ही स्थितियां पैदा कर पाते हैं - अभ्यास गलत का। क्योंकि हम गलत करते हैं, उसका अभ्यास होता है। और दूसरा, कुशलता । और भी कुशल हो जाते हैं वही करने में। लेकिन जो निष्पत्ति लेनी चाहिए, वह हम कभी नहीं लेते। बुद्ध को दिखाई पड़ा है एक मुर्दा । और बुद्ध ने पूछा कि यह क्या हो गया ? बुद्ध के सारथी ने कहा कि यह आदमी मर गया है। तो बुद्ध ने तत्काल पूछा कि क्या मैं भी मर जाऊंगा! अगर आप होते बुद्ध की जगह, तो आप कहते, बेचारा ! बड़ा बुरा हुआ। इसके | बच्चों का क्या होगा? इसकी पत्नी का क्या होगा? अभी तो कोई उम्र भी न थी मरने की। लेकिन एक बात पक्की है कि बुद्ध ने जो पूछा, वह आप न पूछते। बुद्ध ने न तो यह कहा कि बेचारा; न कहा यह कि इसकी पत्नी का क्या होगा; कि इसके बच्चों का क्या होगा; अभी तो कोई उम्र न थी, अभी तो मरने का कोई समय न था । बुद्ध ने दूसरा सवाल सीधा जो पूछा, वह यह कि क्या मैं भी मर जाऊंगा ? यह आपने, कभी कोई रास्ते पर मरे हुए आदमी की अर्थी निकली, तब पूछा है कि क्या मैं भी मर जाऊंगा? जब किसी को बूढ़ा हुआ देखा है, तो पूछा है कि क्या मैं भी बूढ़ा हो जाऊंगा ? जब किसी को अपमानित होते देखा है, तो पूछा है कि क्या मैं भी अपमानित हो जाऊंगा? जब कोई स्वर्ण सिंहासन से उतरकर और धूल में गिर गया है, तब कभी पूछा है कि क्या मैं भी गिर जाऊंगा ? नहीं पूछा, तो फिर बुद्ध जैसे योग की प्रतिष्ठा को आप उपलब्ध होने वाले नहीं । आपने बुनियादी सवाल ही नहीं पूछा है कि जो यात्रा शुरू करे। बुद्ध ने पूछा, क्या मैं भी मर जाऊंगा ? सारथी भयभीत हुआ। कैसे कहे! पर बुद्ध की आंखों में देखा, तो और भी डरा । क्योंकि झूठ बोले, तो भी ठीक नहीं है। उसने कहा, क्षमा करें। कैसे अपने ...मुंह से कहूं कि आप भी मर जाएंगे ! लेकिन कोई भी अपवाद नहीं। मृत्यु तो होगी। बुद्ध ने यह नहीं पूछा कि कोई उपाय है कि मैं अपवाद हो जाऊं? यह नहीं पूछा कि मृत्यु आने ही वाली है, तो जल्दी से जीवन में जो भी भोगा जा सकता है, उसको भोग लूं। यह नहीं पूछा कि फिर समय खोना ठीक नहीं; फिर समय खोना ठीक नहीं। मौत करीब आती है, तो जीवन जितनी देर है, उसका पूरा रस निचोड़ लूं। बुद्ध ने कहा, कोई अपवाद नहीं है, तो फिर घर वापस लौट चलो। मैं मर ही गया। सारथी ने कहा, अभी आप नहीं मर गए हैं। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग - 3 मैंने यह नहीं कहा। अभी तो आप जिंदा हैं ! बुद्ध ने कहा, इससे क्या फर्क पड़ता है कि कल मौत होगी कि परसों मौत होगी। जब मौत निश्चित है, तो जीवन व्यर्थ हो गया। अब जितना भी समय मेरे पास है, मैं मौत की खोज में लगा दूं कि मौत क्या है ! क्योंकि जो निश्चित है, उसी की खोज उचित है। जीवन तो अनिश्चित हो गया कि समाप्त हो जाएगा। मौत, एक तुम कहते हो, निरपवाद है; होगी ही । निश्चित एक तथ्य दिखाई पड़ा है, मौत । अब मैं इसकी खोज कर लूं कि मौत क्या है! क्योंकि निश्चित की ही खोज करने कोई अर्थ है | अनिश्चित की, खो जाने वाले की खोज करना | व्यर्थ है। हैरानी होगी हमें। हम सुख की खोज करते हैं, बुद्ध दुख की खोज करते हैं। हम जीवन की खोज करते हैं, बुद्ध मृत्यु की खोज करते हैं। और बुद्ध मृत्यु की खोज करके परम जीवन को पा लेते हैं। और हम जीवन को खोजते खोजते सिवाय मृत्यु के और कुछ भी नहीं पाते ! और बुद्ध दुख की खोज करते हैं और परम आनंद को उपलब्ध हो जाते हैं। और हम सुख को खोजते खोजते सिवाय कचरे के हाथ में ढेर लग जाने के और छाती पर व्यर्थ का भार इकट्ठा हो जाने के, कहीं भी नहीं पहुंचते हैं।' उलटा दिखाई पड़ेगा, लेकिन यही सत्य है। जो मृत्यु को खोजता है, वह अमृत को खोज लेता है। जो दुख के प्रति सजग होकर दुख की खोज करता है, वह आनंद को उपलब्ध हो जाता है। इसलिए बुद्ध ने जब अपने भिक्षुओं को पहला उपदेश दिया, तो कहा कि तुम्हें मैं पहला आर्य सत्य कहता हूं। पहला महान सत्य, वह यह है कि जीवन दुख है । तुम इसकी खोज करो । योग का आधारभूत वही है कि जीवन दुख है। तभी चित्त उपराम होगा। यह तो पहली प्रतीति है कि जीवन दुख है। दूसरी बात आपसे कहूं। जैसे ही आपको यह स्पष्ट हो जाएगा कि जीवन दुख है, आप जीवन के अतिक्रमण की चेष्टा में संलग्न हो जाएंगे। क्योंकि दुख के बीच कोई भी विश्राम को उपलब्ध नहीं हो सकता। अगर यह प्रतीत हो कि पूरा जीवन है, तो आप इस जीवन से छलांग लगाने की कोशिश में लग जाएंगे। क्योंकि दुख के साथ ठहर जाना असंभव है। सुख के साथ हम ठहर सकते हैं, चाहे भ्रांत ही क्यों न हो। चाहे चेहरे पर ही क्यों न सिर्फ सुख मालूम पड़ता हो और भीतर सब दुख छिपा हो, लेकिन फिर भी हम रात ठहर सकते हैं, इस सुख को हम बिस्तर में सुला सकते हैं अपने साथ । चाहे चेहरा ही सुख का क्यों न हो, भीतर सब दुख ही क्यों न भरा हो, रात हम इस सुख के साथ सो सकते हैं। लेकिन अगर चौंककर रात में पता चल जाए कि दुख है, तो हम छलांग लगाकर बिस्तर के बाहर हो जाएंगे। दुख के साथ जीना असंभव है। तो पहला आर्य-सत्य, बुद्ध कहते हैं, जीवन दुख है। दूसरा आर्य सत्य, बुद्ध कहते हैं कि दुख से मुक्ति का उपाय है। जैसे ही प्रतीत हो, वैसे ही उपाय की खोज शुरू हो जाती है कि दुख से मुक्ति का उपाय क्या ! ध्यान रखें, हम सुख खोजते हैं, बुद्ध दुख से मुक्ति खोजते हैं। इन दोनों की दिशाएं बिलकुल अलग हैं। | सुख की खोज संसार है। दुख से मुक्ति की खोज योग है। सुख की खोज संसार है। दुख से मुक्ति की खोज, बहुत निगेटिव खोज है योग की । और संसारी की खोज बड़ी पाजिटिव मालूम पड़ती है। लगता है, हम सुख को खोज रहे हैं। योग कहता है, दुख से मुक्ति खोजी जा सकती है। और जब दुख से मुक्ति हो जाती है, तो जो शेष रह जाता है, वही आनंद है। क्योंकि वह स्वभाव है। सिर्फ व्यर्थ | को हटा देना है, जो स्वभाव है, वह प्रकट हो जाएगा। | बुद्ध कहते हैं, दूसरा आर्य सत्य भिक्षुओ, दुख से मुक्ति का उपाय है। लेकिन वह उपाय तुम्हारी समझ में तभी आएगा, जब दुख तुम्हारी प्रतीति, साक्षात्कार बन जाए। सच तो यह है, प्रतीति से ही उपाय निकलता है। आपके घर में आग लग गई है, तो आप उपाय खोजते हैं घर के बाहर निकलने का ? आप शास्त्र पढ़ते हैं, कि कोई किताब देखें, जिसमें घर में आग लगती हो, तो निकलने की विधियां लिखी हों ? कि किसी गुरु के चरणों में जाएं और उससे पूछें कि घर में आग लगी है, निकलने का उपाय क्या है? कि भगवान से प्रार्थना करें कि घर में आग लगी है, घुटने टेककर भगवान से कहें कि हे प्रभु, रास्ता बता, घर में आग लगी है ! घर में अगर आग लगी है और इसकी प्रतीति हो गई। हां, प्रतीति | न हो, तो बात अलग है। तब, लगी न लगी बराबर है। घर में आग | लगी है, इसकी प्रतीति उपाय बन जाती है। आप छलांग लगाकर बाहर हो जाएंगे। खिड़की से कूद सकते हैं, दरवाजे से निकल सकते हैं, छत से कूद सकते हैं। यह प्रतीति उपाय खोज लेगी। जैसे ही यह प्रतीति हुई कि घर में आग लगी है, आपकी पूरी चेतना संलग्न हो जाएगी और उपाय खोज लेगी। अगर ठीक समझा जाए, तो इस बात का साक्षात्कार कि घर जल 152 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < चित्त वृत्ति निरोध - रहा है, आपके निकलने का मार्ग बन जाता है। लेकिन हमें लगता | | योग उपाय है, विधि है, मेथड है। योग नाव है, साधन है, जिससे ही नहीं कि घर जल रहा है। हां, कोई बुद्ध, कोई कृष्ण कहते हैं, | | दुख-मुक्ति हो सकती है। सुख नहीं मिलेगा। घर जल रहा है। तो हम कहते हैं कि महाराज, आप ठीक कहते हैं। इसलिए जो व्यक्ति योग के पास सुख की खोज में आए हों, वे क्योंकि हम में इतनी भी हिम्मत नहीं कि हम बुद्ध और कृष्ण से कह गलत जगह आ गए हैं। योग से सुख नहीं मिलेगा। जब मैं ऐसा सकें कि आप गलत कहते हैं। किस मुंह से कहें कि गलत कहते | | कहता हूं, तो इसलिए कह रहा हूं कि आप सुख की तलाश में योग हैं? कहीं गहरे में तो हम भी जानते हैं कि ठीक ही कहते हैं। जीवन | | के पास न जाएं। योग से दुख-मुक्ति मिलेगी। इसलिए अगर में सिवाय दुख के कुछ हाथ तो लगा नहीं; सिवाय आग और राख | आपको जीवन दुख प्रतीत हो गया हो, तो योग आपके काम का हो के कुछ हाथ तो लगा नहीं। सिवाय लपटों में झुलसने के और कुछ | सकता है। हाथ तो लगा नहीं। लेकिन हममें से अधिक लोग योग के पास सुख की तलाश में इसलिए गहरे मन में हम जानते तो हैं कि ठीक कहते हैं। इसलिए अपने सांसारिक नि हिम्मत भी नहीं होती कि बद्ध को कह दें कि गलत कहते हैं। जीवन | एक साधन बनाना चाहते हैं! हम योग से भी चित्त की साइकिल को सुख है। किस चेहरे से कहें? चेहरे पर एक भी रेखा नहीं बताती | पैडल देना चाहते हैं! तब हम बड़ा कंट्राडिक्टरी, बड़ा व्यर्थ का, कि जीवन सुख है। अनुभव का एक टुकड़ा नहीं बताता कि जीवन | बड़ा स्वविरोधी काम कर रहे हैं। हम चाहते हैं, योग से धन मिल सुख है। और बुद्ध से किस मुंह से कहें, क्योंकि बुद्ध के रोएं-रोएं | | जाए। और ऐसे लोग मिल जाते हैं, जो कहेंगे, हां मिल जाएगा! से आनंद झलक रहा है। तो बुद्ध से किस मुंह से कहें कि जीवन | हम चाहते हैं, योग से शांति मिल जाए, ताकि शांति के द्वारा हम सुख है! . धन और यश और कामनाओं की दौड़ को ज्यादा आसानी से पूरा 'अगर जीवन सुख है, तो बुद्ध ही कहते, तो कह सकते थे। कर सकें! लेकिन बुद्ध तो कहते हैं कि जीवन दुख है। और हम, जो कि दुख | | हम योग को भी संसार का एक वाहन बनाना चाहते हैं। यह नहीं में डूबे खड़े हैं सराबोर, हम किस मुंह से कहें कि जीवन सुख है! होगा। क्योंकि योग दूसरा सूत्र है। पहला सूत्र तो है, दुख का तो बद्ध को इनकार भी नहीं कर सकते कि आप गलत कहते हैं। अनिवार्य बोध, तभी उपाय का बोध पैदा होता है। लेकिन हमारी प्रतीति भी नहीं होती कि जीवन दुख है। ___बुद्ध तीसरा आर्य-सत्य भी कहते हैं। यह दूसरे आर्य-सत्य को तो हम कहते हैं कि आप ठीक कहते हैं। समय पर, अनुकूल मैं और समझाना चाहूंगा। तीसरा आर्य-सत्य भी बुद्ध कहते हैं। समय पर मैं भी इस घर को छोड़ दूंगा। कृपा करके, जब तक अभी | | कहते हैं, दुख है। कहते हैं, दुख से मुक्ति का उपाय है। कहते हैं, इस घर में हूं, मुझे इतना बताएं कि कैसे इस घर में शांति से रहूं! दुख की मुक्ति के बाद की अवस्था है। और वह रास्ता भी बता दें, क्योंकि फिर दुबारा आप मिले न मिलें, ___ यह बुद्ध अपने अनुभव से कहते हैं कि दुख-मुक्ति के बाद की जब मझे प्रतीति हो कि घर में आग लगी है. तो मझे वह मेथड. वह अवस्था है। दख-मक्ति को उपलब्ध हए लोग हैं। बद्ध खद प्रमाण विधि भी बता दें कि घर के बाहर कैसे निकलूं! | हैं। कोई पूछे, क्या है प्रमाण? तो योग का प्रमाण बहिर्प्रमाण नहीं बुद्ध कहा करते थे कि जो आदमी पूछता है कि घर में आग लगी हो सकता है। योग का प्रमाण तो अंतर्साक्ष्य हो सकता है। बद्ध कह हो, तो मुझे रास्ता बता दें कि कैसे निकलूं, वह सिर्फ इतनी ही खबर सकते हैं, मैं हूं प्रमाण। देता है कि उसे पता नहीं है कि घर में आग लगी है। और कुछ पता __जब जीसस से कोई पूछता है कि क्या है मार्ग? तो जीसस कहते नहीं देता। क्योंकि जिसके घर में आग लगी है, वह विधि की बात हैं, आई एम दि वे—मैं हं मार्ग। देखो मेरी तरफ; प्रवेश कर जाओ नहीं पूछता। वह छलांग लगाकर बाहर निकल जाता है। बताने मेरी आंखों में। जब बुद्ध से कोई पूछता है, क्या है प्रमाण? तो बुद्ध वाला पीछे रह जाए; जिसको पता चला, घर में आग लगी है, वह कहते हैं, मैं हूं प्रमाण। देखो मुझे। दुख से उपराम पाया हुआ चित्त मकान के बाहर हो जाएगा। दूसरा सत्य बुद्ध कहते हैं, उपाय है। योग उपाय है। यह तीसरा सत्य तो केवल वे ही लोग उदघोषित कर सकते हैं, इसलिए कृष्ण कहते हैं, योग से उपराम को उपलब्ध हुआ चित्त। जो प्रमाण हैं। दो तक, पहला और दूसरा सत्य तो हम समझ सकते 153 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 बुद्धि से, लेकिन तीसरा सत्य बुद्धि का सवाल नहीं रह जाता, प्रमाण का सवाल है। लेकिन एक बात हम तीसरे सत्य के संबंध में भी समझ सकते हैं। और वह यह कि जब अशांत चित्त होता है जगत में, तो शांत हो सके, इसकी असंभावना नहीं है। जब कोई आदमी बीमार हो सकता है जगत में, तो स्वस्थ हो सके, इसकी असंभावना क्यों कर है? जब दुखी हो सकता है कोई, तो दुख के पार हो सके, इसकी असंभावना क्या है ? और अगर बुद्धि से ही केवल सोचें, तो भी यह साफ होता है कि दुख का बोध ही यह बताता है कि हम दुख के बोध के पार हैं। अन्यथा बोध किसे होगा? और बोध भी तभी होता है, जब विपरीत हो, नहीं तो बोध नहीं होता है। अगर आपके भीतर आनंद जैसी कोई चीज न हो, तो आपको दुख का कभी भी पता नहीं चल सकता। कैसे चलेगा? किसको चलेगा? कौन जानेगा कि यह दुख है ? जो जानता है, उसे दुख की चोट पड़नी चाहिए, उसे दुख में अपने से विपरीत कुछ दिखाई पड़ना चाहिए। इसीलिए तो दुख अप्रीतिकर है। एक अनुभव तो हमारा है कि जीवन अशांति से भरा हुआ है। । दूसरा अनुभव हमारा नहीं है कि जीवन एक शांति का झरना भी हो सकता है; कि जीवन के रोएं - रोएं में एक शांति की गूंज भी हो सकती है; कि प्राण एक झील बन सकते हैं, जहां एक तरंग न उठती हो अशांति की । बुद्ध कहते हैं, वह भी संभव है। उसका प्रमाण मैं हूं। और बुद्ध चौथी बात भी कहते हैं कि ऐसा नहीं है कि वह मुझे ही घट गया है, मैं कोई अपवाद नहीं हूं। सब को घट सकता है। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति गहरे में वही है। हमारे सब भेद, सब फासले ऊपरी हैं। भीतर अंतस में कोई फासला, कोई भेद नहीं है। भीतर वही है, एक ही। लेकिन उस भीतर तक कोई पहुंचे, तभी उसका पता चले, अन्यथा उसका पता चलना कठिन है। योग उसका मार्ग है। यह योग क्या है, जिससे चित्त उपराम को पहुंच जाए? तो तीन बातें आपसे कहूं, जिनसे योग की प्रक्रिया का आप उपयोग भी कर सकें और चित्त उपराम को पहुंच सके। एक, जब भी मन किसी चीज में कहे, सुख है, तो मन से एक बार और पूछना कि सच? पुराना अनुभव ऐसा कहता है ? किसी और व्यक्ति का अनुभव ऐसा कहता है? पृथ्वी पर कभी किसी ने कहा है कि इस बात से सुख मिल सकेगा ? अनंत अनंत लोगों का अनुभव क्या कहता है ? खुद के जीवन का अनुभव क्या कहता है ? बार-बार अनुभव किया है, उसका क्या निष्कर्ष है? एक बार प्रश्न | जरूर पूछ लेना। जब मन कहे, इसमें सुख है। ठिठककर, खड़े होकर पूछ लेना, सच सुख है? और जल्दी न करना; क्योंकि मन कहेगा कि कहां की बातों में पड़े हो; सुख का क्षण चूक जाएगा ! किन बातों में पड़े हो; अवसर खो जाएगा ! जल्दी न करना । मन इसीलिए जल्दी करता है कि अगर आप थोड़ी देर, एक क्षण के लिए भी सजग होकर रुक गए, तो सुख दिखाई नहीं पड़ेगा, दुख का दर्शन हो जाएगा। जब किसी हाथ में सुख मालूम पड़े और हाथ हाथ को लेने को उत्सुक हो जाए हाथ में, तक एक क्षण को सोचना कि बहुत हाथ हाथ में लिए, सुख पाया है? जब राह चलता कोई व्यक्ति सुंदर मालूम पड़े, तो एक क्षण रुककर अपने मन से पूछना कि सच में सौंदर्य पास आ जाए, तो कोई सुख पाया है ? जब किसी फूल को तोड़ लेने का मन हो जाए, तो पूछना कि बहुत बार फूल तोड़े, फिर उनका किया | क्या? थोड़ी देर में मसलकर रास्तों पर फेंक दिए ! जब भी नई कोई | गति मन में पैदा हो, तब एक क्षण ठिठककर खड़े होना । वह क्षण अवेयरनेस का, जागरूकता का, साक्षी का, जीवन दुख है, इसकी प्रतीति को गहरा करेगा। और जैसे-जैसे यह प्रतीति गहरी होगी, वैसे-वैसे उपराम अवस्था आएगी। दूसरा सूत्र, जब भी कोई दुख आए, तब गौर से खोजना क पहले जब इसे सोचा था, तो यह दुख था? जब भी कोई दुख आए, तो सोचना लौटकर पीछे कि जब पहली दफा इसे चाहा था, तो यह दुख था ? नहीं; तब यह सुख था । अगर यह दुख होता, तो हम चाहते ही न। जब पहली दफे आलिंगन को हाथ फैलाए थे, तो यह दुख था? अगर दुख होता, तो हम भाग गए होते; आलिंगन के लिए हाथ न फैलाए होते। यह तो अब आलिंगन में बंधकर पता चलता है कि दुख है। तो जब भी दुख आए, तो लौटकर देखना कि | जब इसे चाहा था, तब यह दुख था ? और तब पता चलेगा इस क्षण में, फिर जागरूकता के क्षण में पता चलेगा कि सब दुख सुखों की तरह प्रतीत होते हैं, सुखों की तरह निमंत्रण देते हैं; बाद में दुख की तरह सिद्ध होते हैं। और यह भी प्रतीत होगा कि सब दुख अपने बुलाए आते हैं, हम खुद ही उनको बुलाकर आते हैं। कोई दुख बिना बुलाए नहीं आता। और हम बुलाकर इसीलिए आते हैं कि हमने सोचा था, सुख है। एक क्षण जब दुख के साथ ऐसा खड़े होकर देखेंगे, तो फिर पुनः मालूम पड़ेगा, जीवन सब दुख है। और तीसरी बात - सुख के साथ सोचना, दुख के साथ सोचना 154 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - चित्त वृत्ति निरोध और अनुभव होगा दुख है-तब तीसरा सूत्र! जब भी अनुभव हो | पाएंगे कि बाकी कई घंटे बेकार गए, यही एक घंटा काम पड़ा है। कि जीवन दुख है-और ऐसे अनुभव कई बार होते हैं, हम फिर | | लेकिन लोग मुझे आकर कहते हैं कि नहीं, इतना समय कहां? उन्हें खो देते हैं, कई बार सूत्र हाथ में आता है और छूट जाता | और बहुत हैरानी मालूम पड़ती है कि जो लोग यह कहते हैं कि इतना है-जब ऐसा अनुभव हो गहरा कि सच में जीवन दुख है और कोई | समय कहां, वे ही लोग दूसरी दफे कहते हुए सुने जाते हैं कि समय सुख नहीं, तब पीछे लौटकर एक बार देखना कि यह कौन है, जिसे नहीं कटता है! वे ही लोग! समय नहीं कटता है, तो ताश खेलना पता चलता है कि जीवन दुख है, सुख नहीं? यह कौन है ? हू इज़ पड़ता है। समय नहीं कटता है, तो शतरंज बिछानी पड़ती है। समय दिस? यह कौन है, जो सुख चाहता है और दुख पाता है? यह कौन नहीं कटता है, तो उसी अखबार को, जिसे दिन में छः दफे पढ़ चुके है, जो दुखों में झांकता है तो पाता है, अपना ही निमंत्रण है सुख हैं, फिर सातवीं दफे पढ़ना पड़ता है। समय नहीं कटता है, तो वे को दिया गया? यह कौन है, जो सुख की कामना होती है, तो प्रश्न ही बातें, जो हजार दफे कर चुके लोगों से, फिर-फिर करनी पड़ती उठाता है कि क्या सच में ही सुख मिलेगा? | हैं। समय नहीं कटता है, तो उसी आदमी के पास चले जाना पड़ता जब किसी भी क्षण में, एक्यूट इंटेंसिटी के किसी क्षण में, तीव्रता है, जिससे आखिर में यह कहते लौटते हैं कि बहुत बोर करता है। के किसी क्षण में चेतना जागकर जाने कि सब दुख है, तब पीछे | फिर उसी के पास चले जाना पड़ता है! फिर वही फिल्म देख लेते लौटकर पूछना कि यह कौन है, जो जानता है कि सब दुख है? तब | हैं। फिर वही सब कर लेते हैं और कहते हैं, समय नहीं कटता! एक नया जानना शुरू होगा। तब एक नया अनुभव शुरू होगा; एक | और जब प्रभु-स्मरण की कोई बात कहे, तो तत्काल कहते हैं, नया संबंध बनेगा, एक नई पहचान, एक नया परिचय-उससे, समय कहां! जो भीतर है, जो सब जानता है और सबके पीछे खड़ा रहता है। ये दोनों बातें एक साथ चलती हैं। तो ऐसा मालूम होता है कि उससे परिचय हो जाए, तो तत्काल उपराम हो जाता है; चित्त एकदम मन धोखा दे रहा है। मन धोखा दे रहा है। जब भी प्रभु-स्मरण की विश्राम को उपलब्ध हो जाता है। बात चलती है, तो मन कहता है, समय कहां है! और जब इसलिए कृष्ण कहते हैं, योग से शांत हुआ चित्त प्रभु को, प्रभु-स्मरण की बात नहीं कहता, तो मन कहता है कि इतना समय परमात्मा को, परम सत्य को पा लेता है। है, कुछ काटने का उपाय करो। यह तो मैंने योग की आंतरिक विधि आपसे कही। शायद यह तो अपने मन को थोड़ा समझने की कोशिश करना कि मन एकदम कठिन मालूम पड़े। शायद थोड़ी जटिल मालूम पड़े कि कैसे प्रवंचक है, डिसेप्टिव है। कोई दूसरा आपको न समझा सकेगा; हो पाएगा? यह कब हो पाएगा? जिंदगी की धारा में इतनी व्यस्तता आप ही अपने मन को देखना कि किस तरह के धोखे देता है। है, चौबीस घंटे इतने उलझे हैं कि कहां रुककर सोचेंगे? कहां रुककर सच में ही समय नहीं है? इतना दरिद्र आदमी पृथ्वी पर नहीं है, खड़े होंगे? जिंदगी तो बहाए लिए जाती है, भीड़ चारों तरफ धक्का जिसके पास एक घंटा न हो, जो प्रभु को दिया जा सके। है ही नहीं दिए चली जाती है। कहां है वह क्षण, जहां हम सोचें कि दुख क्या ऐसा कोई आदमी। आठ घंटे हम नींद को दे देते हैं बिना कठिनाई है? सुख क्या है? मैं कौन हूं? इसकी फुरसत नहीं है। के, बिना अड़चन के। अगर सारा हिसाब लगाने जाएं, तो अगर जब ऐसा लगे, तो फिर फुरसत खोजनी पड़े। फिर आप जीवन साठ साल आदमी जीए, तो बीस साल सोता है। और अगर हिसाब की धारा में खड़े न हो पाएं, तो घर के एक कोने में घड़ीभर के लिए लगाएं, तो बाकी बीस साल दफ्तर जाना, घर आना, दाढ़ी बनाना, अलग ही वक्त निकाल लें। बाजार में न जाग पाएं, दुकान में न स्नान करना, भोजन करना, इनमें खो देता है। बाकी जो बीस साल जाग पाएं, तो घर में एक कोना खोज लें और घड़ीभर का वक्त बचते हैं, उनको समय काटने में लगाता है। समय काटने में, कि निकाल लें। तय ही कर लें कि चौबीस घंटे में एक घंटा इस चित्त समय कैसे कटे! के उपराम होने के लिए दे देंगे। तो आप कोई जिंदगी काटने के लिए आए हुए हैं, कि किस तरह और एक घंटा कुछ न करें। इन तीन बातों का चिंतन गहरे में ले | | काट दें! तो एकदम से ही काट डालिए। छलांग लगा जाइए किसी जाएं। जीवन दुख है। सब सुख दुखों को निमंत्रण हैं और वह कौन | । पहाड़ से, समय एकदम कट जाएगा। तो ये ग्रेजुअल स्युसाइड, ये है, जो इन्हें जानता है! एक घंटा रोज। और जीवन के अंत में आप धीरे-धीरे आत्महत्या को आप कहते हैं जीवन? यह रोज-रोज [155 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 धीरे-धीरे काटने को? को समझने की जरूरत है। और जब मन कहे, समय कहां है, तो समय काटने का अर्थ है, जीवन को काट रहे हैं। क्योंकि समय सच में चौबीस घंटे का ब्यौरा लगाकर देखना कि सच में समय नहीं जीवन है, और एक गया हुआ क्षण वापस नहीं लौटता। और आप है? समय बहुत है। कहते हैं, समय काटना है! होटल में बैठकर काटेंगे। मित्रों से और एक मजे की बात है समय के संबंध में कि सबके पास गपशप करके काटेंगे। और एक क्षण गया हुआ वापस नहीं बराबर है। कोई गरीब-अमीर नहीं है। सबके पास बराबर है। लौटता। एक क्षण कटा हआ पनः नहीं मिलेगा। और एक क्षण कटा यद्यपि सभी समय का बराबर उपयोग नहीं करते हैं। कि एक क्षण जीवन की रेत खिसक गई, जीवन कम हुआ। इमर्सन से कोई पूछता था, तुम्हारी उम्र कितनी है? तो इमर्सन ने · बड़ा मजेदार है आदमी। एक तरफ कहता है कि उम्र कैसे बढ़ | कहा कि तीन सौ साठ वर्ष! अब इमर्सन, ईमानदार और सच्चा जाए। सारे पश्चिम में चिकित्सक लगे हैं खोजने में, उम्र कैसे बढ़ | आदमी झूठ बोलेगा नहीं। जिसने पूछा, उसने समझा कि लगता है, जाए! उम्र बढ़ जाए, तो पूछता है, समय कैसे कटे! क्या, कर क्या | मेरे सुनने में कोई भूल हो गई। उसने कहा, माफ करें। मैं ठीक से रहे हैं? चिकित्सक उम्र बढ़ाते चले जाते हैं और आदमी मनोरंजन | सुन नहीं पाया। कान पास लाया। इमर्सन ने जोर से कहा कि तीन के साधन खोजता है कि समय कैसे कटे! सौ साठ वर्ष! उस आदमी ने कहा कि आप मजाक तो नहीं कर रहे! __ अब अमेरिका में बहुत चिंता है इस बात की। क्योंकि एक तरफ | | क्योंकि झूठ तो आप नहीं बोल सकते। मजाक तो नहीं कर रहे! तीन लोग मांग करते हैं कि काम के घंटे कम करो। घंटे कम हो गए हैं। सौ साठ! ज्यादा से ज्यादा आप साठ साल के मालूम पड़ते हैं। कभी बारह घंटे थे; आठ घंटे हुए, छः घंटे हुए, पांच घंटे हुए। पांच इमर्सन ने कहा कि अच्छा, तो तुम दूसरे हिसाब से नाप रहे हो। घंटे काम के हो गए हैं। आदमी कहता है, और घंटे कम करो। काम | | हमारा हिसाब और है। साठ साल में आदमी जितना जीता है, हम कम। संभावना है कि जैसे ही सब आटोमैटिक हो जाए, यंत्रचालित | उससे छः गुना ज्यादा जी चुके हैं। एक-एक क्षण का हमने छः गुना हो जाए, तो समय और भी कम हो जाए। शायद आधा घंटा, | | ज्यादा उपयोग किया है। हम उस हिसाब से कहते हैं, तीन सौ साठ घंटाभर एक आदमी काम कर आए, तो बहुत हो। | साल। अगर तुम भी साठ साल के हो, तो हम तीन सौ साठ साल अब उस स्थिति में हम आ गए कि जब हमारी हजारों साल की के हैं। क्योंकि तमने किया क्या है? जीए कहां हो?" आकांक्षा पूरी होती है कि हम काम से मुक्त होते हैं। करीब-करीब तो वह आदमी पूछने लगा कि समझ लें कि आप छ: गुना जी उस अवस्था में, जिसमें देवता अगर स्वर्ग में रहते होंगे, तो आदमी लिए। पा क्या लिया? और हम छः गुना कम जीए, तो क्या खो पहुंच गया। काम नहीं करना पड़ेगा। तो अब अमेरिका के सभी दिया? तो इमर्सन ने कहा, मेरी आंख में देखो, मुझे देखो, दो दिन चिंतक परेशान हैं कि समय कैसे कटे! समय को कैसे काटिएगा? मेरे पास रुक जाओ। काम तो काट दिया, अब समय को काटिए! वह आदमी दो दिन इमर्सन के पास था। फिर उसके पैर छूकर, और डर इस बात का है कि काम से इतना नुकसान कभी नहीं माफी मांगकर गया कि भूल हो गई कि मैंने आपसे पूछा कि क्या था, जितना खाली समय बच जाएगा, तो हो जाने वाला है। पा लिया। आज मैं पहली दफा जीवन में जानकर जा रहा हूं कि मैंने क्योंकि खाली आदमी क्या करेगा? वह खाली आदमी उपद्रव | साठ साल सिर्फ गंवाए हैं; कुछ पाया नहीं। करेगा। वह उपद्रव कर रहा है। इसलिए जितना समृद्ध समाज, दो दिन उसने देखी इमर्सन की शांति, देखी वह झील, जहां कोई उतना उपद्रवी, उतने हत्यारे, उतने डकैत, उतने चोर, उतने बेईमान | | एक रिपल, एक छोटी-सी तरंग भी नहीं उठती। देखा दो दिन पैदा कर देता है। उसका कारण है कि वे क्या करें? समय कहां | | इमर्सन के पास बैठकर कि उसके आस-पास शीतल विकिरण हो काटें? खाली बैठे रहें? रह्म है; उसके पास भी बैठकर जैसे स्नान हो जाता है। देखा इमर्सन लेकिन उन आदमियों से भी अगर कहो कि प्रभु-स्मरण एक | के कमरे में सोकर और पाया कि सिर्फ इमर्सन के कमरे में सोने से घंटा, तो वे भी तत्काल उत्तर देते हैं—बिना सोचे यह उत्तर आता | भी उसके सपनों का गुणात्मक रूप बदल गया है; उसकी नींद की है-समय कहां है! क्वालिटी बदल गई है। इमर्सन के साथ जंगल में चलकर देखा कि नहीं; ऐसा लगता है कि मन आत्मवंचक है। इस आत्मवंचना जंगल वही नहीं मालूम होता है। इस जंगल में वह पहले भी निकला [156 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ << चित्त वृत्ति निरोध - था, लेकिन वृक्ष इतने हरे न मालूम पड़े थे। और फूल इतने ताजे न क्रोध को दबाया कि क्रोध और बड़ा होगा। क्रोध को दबाना ऐसे मालूम पड़े थे। और फूल इतने खिले न दिखाई पड़े थे। और पक्षियों | ही है, जैसे बीज को जमीन के भीतर दबाना। उससे तो जमीन के का गीत इस तरह सुनाईं नहीं पड़ा था, जैसा इमर्सन के साथ सुनाई | ऊपर ही रहता, तो बेहतर था। जमीन के भीतर बीज अब फूटेगा पड़ने लगा। . और वृक्ष बनेगा। जड़ें फैलेंगी; आकाश को छू जाएगा। एक शांत आदमी पास है, तो वह दूसरे को भी शांत करने की करोड़-करोड़ बीज लगेंगे। क्रोध को दबाया, तो क्रोध के बीज को व्यवस्था जुटा देता है। दो दिन बाद वह क्षमा मांगकर लौटा। उसने | चित्त की अंतर्भूमि में डाल दिया। अब वह और बड़ा होगा। कहा, मेरे साठ साल तो बेकार चले गए। अब जो थोड़े-बहुत दिन | नहीं; दमन नहीं है निरोध। चित्त वृत्ति का निरोध, चित्त वृत्ति की बचे हैं, क्या मैं कुछ पा सकता हूं? समझ है। जैसे ही कोई चित्त की किसी वृत्ति को समझता है, वह इमर्सन ने कहा कि अगर छः क्षण भी बचे हों, और तुम अपने | वृत्ति निरुद्ध हो जाती है। समझ निरोध है। साथ ईमानदार हो, तो उतना पा सकते हो, जितना तीन सौ साठ ___ अगर कोई क्रोध को समझ ले कि क्रोध क्या है, तो सिवाय दुख साल में मैंने पाया। लेकिन अपने साथ ईमानदार, टु बी आनेस्ट | और आग के पाएगा क्या? अगर कोई क्रोध को पूरा देख ले, तो विद वनसेल्फ। | सिवाय जहर के और मिलेगा क्या? और अगर दिखाई पड़े कि जहर दूसरे के साथ ईमानदार होना बहुत कठिन नहीं है। क्यों? उसी | और आग, और अपने ही हाथ से अपने ऊपर, तो ऐसा पागल वजह से दूकानों पर लिखा हुआ है, आनेस्टी इज़ दि बेस्ट पालिसी।। | खोजना मुश्किल है, जो क्रोध की वृत्ति को सक्रिय रख सके। वृत्ति दूसरे के साथ ईमानदार होने में बहुत कठिनाई नहीं है। होशियार | | निरुद्ध हो जाएगी। जहर को जहर जानते ही जहर से छुटकारा हो आदमी दूसरे के साथ ईमानदार होते हैं, क्योंकि दैट इज़ दि बेस्ट | जाता है। पालिसी। वही सबसे अच्छी तरकीब है। लेकिन अपने साथ लेकिन हम सबको भ्रांति है कि हम सबको पता ही है कि क्रोध ईमानदार होना आईअस है, वह सिर्फ योगी ही हो पाता है। लेकिन बुरा है। फिर छुटकारा क्यों नहीं होता? हम सबको मालूम है कि मैं आपसे कहता हूं, जो अपने साथ ईमानदार हो सके, वह चित्त क्रोध बुरा है। ऐसा आदमी पा सकते हैं आप, जिसको मालूम न हो उपराम को पा सकता है। कि क्रोध बुरा है? सबको मालूम है कि क्रोध बरा है। तो फिर मेरी बात तो बड़ी उलटी मालूम पड़ती है। सबको मालूम है, तो फिर इतने लोग सुबह से सांझ तक क्रोध में जीए चले जाते हैं! प्रश्नः भगवान श्री, इस श्लोक में कहे गए चित्त वृत्ति | नहीं; मैं आपसे कहता हूं, आपको जरा भी मालूम नहीं है कि निरोध के बहुत-से अर्थ लोगों ने किए हैं। इसका | | क्रोध बुरा है। आपको भीतर से तो यही मालूम है कि क्रोध बहुत आप क्या अर्थ करते हैं? कृपया इसे भी स्पष्ट करें। अच्छा है। ऊपर से सुना हुआ है कि क्रोध बुरा है। यह आपका | अनुभव, आपकी प्रतीति, आपका अपना साक्षात्कार नहीं है कि क्रोध बुरा है। 'त वृत्ति निरोध। साधारणतः लोग चित्त वृत्ति निरोध का गुरजिएफ, अभी फ्रांस में एक फकीर था। शायद इस सदी में अर्थ करते रहे हैं, चित्त वृत्तियों का दमन। वह उसका | | थोड़े-से लोग थे, जिनकी इतनी गहरी समझ है। अगर उसके पास अर्थ नहीं है। निरोध शब्द दमन का सूचक नहीं है। कोई जाता और कहता कि मैं क्रोध से बहुत परेशान हूं, क्रोध इतना अगर दमन ही कहना होता, तो कहते, चित्त वृत्ति विरोध। चित्त | बुरा है, फिर भी मैं छूट नहीं पाता, तो गुरजिएफ कहता कि रुको। वृत्ति विरोध! पहली तो बात यह छोड़ दो कि क्रोध बुरा है। पहली बात यह छोड़ निरोध बहुत अदभुत शब्द है। चित्त वृत्ति निरोध का अर्थ है, चित्त | दो, क्योंकि यह बात तुम्हें कभी समझने न देगी। क्योंकि यह बात की इतनी गहरी समझ कि वृत्तियां निरोध को उपलब्ध हो जाएं। समझदारी का झूठा भ्रम पैदा करती है कि तुमको पता है। तुमको दमन नासमझी है और दमन सिवाय अज्ञानी के कोई भी करता नहीं। पता ही है कि क्रोध बुरा है! और दमन जिसने किया वृत्तियों का, वह मुश्किल में पड़ता है। तुम्हें बिलकुल पता नहीं है। पहले तुम यह छोड़ दो। क्रोध नहीं |157| Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-3 छूटता। क्रोध को रहने दो। कृपा करके यह छोड़ दो कि क्रोध बुरा है। रहा है! वह आदमी कहता कि क्रोध बुरा है, यह जानकर मैं इतना क्रोध | | दमन हम करवा रहे हैं। कभी बच्चा क्रोध को जान नहीं पाएगा कर रहा हूं! और अगर यह छोड़ दूं कि क्रोध बुरा है, तब तो बहुत कि क्रोध क्या है। बस, इतना ही जान पाएगा, क्रोध बुरा है। और मुसीबत हो जाएगी! कुनकुने क्रोध को जान पाएगा, जो बीच-बीच में फूटता रहेगा। गुरजिएफ कहता कि तुम रुको। हम मुसीबत को लेने को तैयार कुनकुने क्रोध से कभी पहचान नहीं हो सकती। कुनकुने पानी में हैं। मुसीबत होने दो। और गुरजिएफ ऐसे उपाय करता कि उस । हाथ डालने से कभी वह स्थिति न आएगी कि गरम पानी जलाता आदमी के क्रोध को जगाए। ऐसी सिचुएशंस, ऐसी स्थितियां पैदा । है, इसका पता चले। एक बार उबलते पानी में हाथ जाना जरूरी करता कि उस आदमी का क्रोध भभककर जले। और उस आदमी | है। फिर हाथ बाहर रहने लगेगा। फिर कोई कहेगा कि प्यारे आओ, से कहता कि पूरा करो। थोड़ा भी छोड़ना मत। पूरा ही कर डालो। बहुत अमृत उबल रहा है। हाथ डालो! कहोगे कि प्यारे बिलकुल उबल जाओ। रोआं-रोआं जल उठे। आग बन जाओ। पूरा कर नहीं आएंगे। अनुभव है! लो। और वह ऐसी स्थितियां पैदा करता-अपमान कर देता, गाली वृत्तियों का साक्षात्कार-उनकी शुद्धतम स्थिति में-निरोध . दे देता या किसी और से उस आदमी को फंसवा देता-उस आदमी | बनता है; कोई भी वृत्ति का शुद्धतम साक्षात्कार। लेकिन मनुष्य की के घाव को छू देता कि वह एकदम किसी क्षण में होश खो देता और | संस्कृति ने इतने जाल खड़े कर दिए हैं कि कोई भी आदमी किसी उबल पड़ता। और भयंकर रूप से। और वह उसको बढ़ावा दिए | वृत्ति का शुद्ध साक्षात्कार नहीं कर पाता। न तो कामवासना का शद्ध जाता, उसके क्रोध को, और घी डालता। साक्षात्कार कर पाता है; न क्रोध का, न लोभ का, न भय का। और जब वह पूरी आग में जल रहा होता, तब वह चिल्लाकर | किसी चीज का शुद्ध साक्षात्कार नहीं होता है। इसलिए किसी से कहता कि मित्र! इस वक्त देख लो कि क्रोध क्या है। यह है मौका। छुटकारा नहीं होता; कोई चीज निरुद्ध नहीं होती। अभी देख लो कि क्रोध क्या है। पहचान लो कि क्रोध क्या है। यह भय है। कोई भय का शुद्ध साक्षात्कार नहीं कर पाता। क्योंकि है। आंख बंद करो, एंड मेडिटेट आन इट। आंख बंद कर लो, और हर बच्चे को सिखाया जा रहा है कि निर्भीक रहो, डरना मत। डरे अब ध्यान करो इस क्रोध पर। रो-रोआं जल रहा है। खून का हुए आदमी से कह रहे हो, डरना मत! जटिलता और बढ़ गई। कण-कण आग हो गया है। हृदय फूट पड़ने को है। मस्तिष्क की | | भीतर डरेगा; ऊपर एक खोल तैयार कर लेगा कि मैं डरता नहीं हूं। शिरा-शिरा खून से भर गई है और पागल है। रुको भीतर। अब तुम | अंधेरी गली में से निकलेगा, सीटी बजाएगा, और सोचेगा, मैं डरता जरा ठीक से देख लो, क्रोध पूरा मौजूद है। और यह आश्चर्य की | नहीं हूं। सीटी इसीलिए बजा रहा है कि डर लग रहा है। अपनी ही बात है कि गरजिएफ जिसको भी ऐसा क्रोध दिखा देता, वह आदमी सीटी सुनकर ऐसा भ्रम पैदा होता है कि अकेला नहीं है। कहेगा दुबारा क्रोध करने में असमर्थ हो जाता-असमर्थ! यही कि मैं तो सीटी बजाकर निकल जाता हूं अंधेरे में से। लेकिन लेकिन हमारी पूरी व्यवस्था उलटी है। छोटे-से बच्चे को हम इसको उजाले में कभी किसी ने सीटी बजाते नहीं देखा! अंधेरे में दमन शुरू करवा देते हैं, क्रोध मत करना। क्रोध दबाना; क्रोध बहुत सीटी बजाता है, ताकि भूल जाए कि डर है। बुरा है। और बच्चा देखता है कि बाप क्रोध करता है; मां क्रोध दोहरा व्यक्तित्व हमारा हो जाता है, डबल बाइंड। ऊपर एक करती है। सब जारी है। वह बाप बच्चे को समझा रहा है कि क्रोध थोथी खोल चढ़ जाती है सिखाई हई, सिखावन की, कंडीशनिंग मत करना; क्रोध बुरा है। और बच्चा अगर न माने, तो बाप क्रोध की, और भीतर असली आदमी रहता है वृत्तियों का। वह वृत्तियों में आ जाता है उसी वक्त! वह बच्चा देखता है कि बड़ा मजा चल वाले आदमी को हम ऊपर के झूठे आदमी से दबाए चले जाते हैं। रहा है, बड़ा खेल चल रहा है! हां, जब जरूरत नहीं रहती, तब वह दबा रहता है। जब जरूरत और बच्चे बहुत एक्यूट आब्जर्वर्स हैं, बड़े गौर से देखते हैं। | आती है, वह इसको धक्का देकर बाहर आ जाता है। जब जरूरत क्योंकि अभी उनकी निरीक्षण की क्षमता बहुत शुद्ध है। वे बिलकुल | निकल जाती है, वह फिर भीतर चला जाता है। ठीक देखते हैं कि हद बेईमानी चल रही है! बाप कह रहा है, क्रोध । ___ हमारे भीतर दो आदमी हैं। एक आदमी वह, जो साधारण मत करना, और अगर हम क्रोध करते हैं, तो वह खुद ही क्रोध कर स्थितियों में काम करता है। रास्ते पर आप जा रहे हैं, बड़े भले 158] Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - चित्त वृत्ति निरोध - आदमी मालूम पड़ रहे हैं। वह आपका एक आदमी है। किसी | ऐसा मानकर चलते रहते हैं कि नहीं, सबके बेटों में जग रही होगी; आदमी ने एक धक्का दे दिया; वह जो बाहर आदमी था, भीतर | अपने बेटे में नहीं जग रही है। अपना बेटा बिलकुल सात्विक! चला गया; जो भीतर आदमी था, वह बाहर आ गया। यह दूसरा एक युवक ने संन्यास लिया है। उसने मुझे आकर बड़ी मजेदार आदमी है। यह असली आदमी है। यही असली आदमी है। वह जो | बात कही। वह लौटकर अपने पिता के पास गया, तो पिता ने कहा, नकली आदमी सड़क पर चला जा रहा था बिलकुल मुस्कुराता संन्यास लिया, यह तो बहुत ठीक है। विवाहित युवक है। पिता ने हुआ, एकदम सज्जन मालूम पड़ रहा था, वह असली आदमी नहीं उपदेश दिया कि अब संन्यास लिया है, यह तो बहुत ठीक है। है। वह तो बेकाम है। वह तो सिर्फ एक चेहरा है, जिसका उपयोग लेकिन असली चीज ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य की साधना करना। हम करते रहते हैं, एक मास्क, एक मुखौटा। असली आदमी भीतर वह बेटा मुझसे आकर कह रहा था कि मेरे मन में हुआ कि बैठा है। पिताजी, अगर आप भी ब्रह्मचर्य की साधना करते, तो मैं संन्यास वह असली आदमी तभी निकलता है, जब कोई जरूरत होती है, लेने को नहीं हो पाता! लेकिन डर के मारे नहीं कहा। लेकिन भीतर नहीं तो वह भीतर रहा आता है। जब जरूरत चली जाती है, वह | के मन ने तो कह ही दिया। अब यह पिता कह रहा है, बिना इस पुनः भीतर चला जाता है। यह नकली आदमी फिर ऊपर आकर बैठ बात को समझे कि संन्यास क्या है! ब्रह्मचर्य क्या है! कामवासना जाता है। असली आदमी क्रोध करता है, नकली आदमी माफी मांग क्या है! कुछ बिना समझे! उड़ते हुए शब्द पकड़ गए हैं दिमाग लेता है। असली आदमी क्रोध करता है, नकली आदमी कसमें में ब्रह्मचर्य! खाता है कि क्रोध नहीं करूंगा। असली आदमी क्रोध करता चला अगर बाप समझदार हो, तो बेटे से कहेगा, कामवासना का जाता है, नकली आदमी गीता पढ़ता चला जाता है; सोचता रहता | | इतना साक्षात कर लो, इतना साक्षात कि तुम उसे पूरा पहचान है, क्रोध का निरोध कैसे करें! असली आदमी गीता नहीं पढ़ता, जाओ। जिस दिन तुम पूरा पहचान जाओगे, ब्रह्मचर्य के कहने की वह जो भीतर बैठा है। यह नकली आदमी क्रोध नहीं करता। और जरूरत नहीं; वह फलित होगा। लेकिन कोई बाप यह नहीं कहेगा। नकली आदमी कसमें खाता है। बाप कहेगा, ब्रह्मचर्य साधो। न उसने साधा है; न उसके बाप ने ऐसे दोहरे तल पर, समानांतर रेखाओं की तरह दो आदमी हमारे | साधा है; न उसके बाप ने साधा है। क्योंकि साधा होता, तो यह भीतर हो जाते हैं। वे कहीं मिलते हुए मालूम नहीं पड़ते। रेल की | मौका नहीं आता कहने का। पटरियों की तरह दिखाई पड़ते हैं कि आगे मिलते हैं, मिलते कहीं। | कामवासना से भी प्रतीति नहीं है, साक्षात्कार नहीं है। भी नहीं—पैरेलल। बस, चलते चले जाते हैं। पूरी जिंदगी ऐसे ही | कामवासना भी आपके भीतर का आदमी आपकी छाती पर चढ़कर बीत जाती है। काम जब पड़ता है, असली आदमी निकल आता है। | पकड़ लेता है। क्षणभर बाद लौट जाता है भीतर। वह जो ऊपरी जब कोई काम नहीं रहता, नकली आदमी अपने बैठकखाने में बैठा | आदमी था, सतही आदमी, वह फिर पछताता है। वह कहता है, रहता है। | फिर वही गलती, फिर वही भूल! क्या नासमझी! इस स्थिति को तोड़ना पड़ेगा। इस स्थिति को तोड़ने का एक ही ___ वह करते रहो भूल, चौबीस घंटे तुम सोचते रहो, चौबीस घंटे उपाय है, वृत्तियों का शुद्ध साक्षात्कार। यह बड़े मजे की बात है कि बाद वह भीतर वाला आदमी फिर गर्दन दबाकर सवार हो जाएगा। किसी भी वृत्ति का शुद्ध साक्षात्कार आपको तत्काल निरोध में ले | उस भीतर वाले आदमी को ही समझना कि मैं हूं। इस थोथे चेहरे जाता है; क्योंकि शुद्ध वृत्ति का साक्षात्कार नरक का साक्षात्कार है। को मत समझना कि मैं हूं। वह जो भीतर बैठा है, वही मैं हूं। इसको कोई उपाय ही नहीं है; उसको जाना कि आप बाहर हुए। नहीं जाना, समझना। और वह जो भीतर है, उसकी एक-एक वृत्ति के पूरे के तो भीतर रहेंगे। और हमारी सारी व्यवस्था, उसको न जानने की पूरे शुद्ध प्रत्यक्षीकरण में उतर जाना। और एक बार भी एक वृत्ति व्यवस्था है, निग्लेक्ट करने की। का शुद्ध साक्षात्कार हो जाए, तो निरोध उपलब्ध होता है। मां जानती है, बाप जानता है कि बेटे की उम्र हो गई है; अब कृष्ण जब कहते हैं, चित्त वृत्ति निरोध, या पतंजलि जब कहते उसमें कामवासना जग रही है। लेकिन मां-बाप ऐसे चलते रहते हैं, हैं, चित्त वृत्ति निरोध, तो पतंजलि कोई फ्रायड से कम समझदार जैसे उन्हें कुछ भी पता नहीं कि बेटे में कामवासना जग रही है। वे आदमी नहीं हैं; ज्यादा ही समझदार हैं। और जब कृष्ण कहते हैं, 159 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 चित्त वृत्ति निरोध, तो फ्रायड से बहुत गहरा जानते हैं। | अपने बेटे को कि जब तुम मेरे अहंकार को चोट पहुंचाते हो, तो मन जो भी इसका अर्थ करता है दमन, वह नहीं समझता। उन्हीं अर्थ होता है, तुम्हारी गर्दन दबा दूं। ऐसा होता है। इसमें कुछ छिपाने जैसा करने वालों ने यह हमारा समाज पैदा किया है, जो निपट बेईमान | नहीं है। इतना ही भीतर होता है। इसे प्रकट करने जैसा है। है, हिपोक्रेट है, पाखंडी है; बिलकुल झूठ है। और सबको पता है । मित्र तो मैं उन्हें ही कहता हूं, जिनके सामने हमारे मुखौटे न हों। कि बिलकुल झूठ है। लेकिन ऐसे जीए चले जाते हैं कि जैसे | परिवार मैं उसे ही कहता हूं, जिनके सामने हमारे मुखौटे न हों। बिलकुल सच है। बस चेहरों से ही संबंध बनाते हैं। और भीतर एक समाज मैं उसे ही कहता हूं, जो हमें स्वतंत्रता देता हो कि हम अपने दूसरी दुनिया हमारे नीचे अंडर करेंट की तरह सरकती रहती है। मुखौटे उतारकर, जो सीधे-सच्चे हैं, हो सकें। वही सुसंस्कृति है, अगर कोई आदमी चांद से उतर आए, मंगल ग्रह से आकर हमें | जहां हमारे भीतर जो है, हम वही होने के लिए स्वतंत्र हैं। देखे, तो उसे कुछ बातों का पता ही नहीं चलेगा। हमारे चेहरों का और अगर यह हो सके, अगर यह आप कर पाएं, तो आपको ही पता चलेगा। उसे पता ही नहीं चलेगा कि भीतर एक और अपने भीतर के असली रूप में जीने का अवसर मिलेगा। और तब असली दुनिया है, वास्तविक, जो चल रही है। | आप पाएंगे, वह असली रूप नरक है। और वह असली रूप दुख ___ पति-पत्नी सड़क पर चलते हैं, तब वे एक दूसरी दुनिया में हैं, है। वह असली रूप बद्ध के पहले आर्य-सत्य को प्रकट कर चेहरे वाली दुनिया में। जब उनको घर उनके मुखौटे उतारकर और जाएगा। लड़ते-झगड़ते देखो, तब एक दूसरा चेहरा है। यह तो आईने-वाईने __ और वह पहला आर्य-सत्य प्रकट हो जाए, तो उपाय तत्काल में तैयार होकर जब सड़क पर निकलते हैं, तो दूसरे दंपतियों को मिल जाता है। मकान में आग लगी है और छलांग लगाकर कोई ईर्ष्या का कारण हो जाते हैं कि दांपत्य तो यह है! कैसा सुख है! बाहर निकल जाए, ऐसे ही आप अपनी तथाकथित वृत्तियों के जाल हालांकि वे भी यही सोच रहे हैं उनके चेहरे और मुखौटों को देखकर | से छलांग लगाकर बाहर हो जाएंगे। दुबारा लौटने का मन न रह कि दांपत्य तो यह है! कैसा सुख है! जाएगा। इतना जहर है वहां! इतनी पीड़ा है वहां! असली आदमी जो भीतर बैठे हैं, हिंसा से भरे, क्रोध से भरे, लेकिन हमें उसकी प्रतीति नहीं होती। क्योंकि हम अपने को वासना से भरे, लोभ से भरे, क्रूरता से भरे, उस असली आदमी को | मानते हैं कि नहीं, ये सब बातें हम में नहीं हैं। कभी-कभी क्रोध हो पहचानना पड़े; उस असली आदमी को जीना भी पड़े। उस असली जाता है, वह दूसरी बात है, परिस्थितिवश। लेकिन हम में कोई आदमी से भागने का सीधा कोई उपाय नहीं है; जीकर ही उससे क्रोध है नहीं। छुटकारा है। उसको जीना पड़े, उसकी पीड़ा को अनुभव करना लेकिन नहीं है, तो हो नहीं सकता। स्थिति बिलकुल उलटी है; पड़े, उसके पूरे संताप से गुजरना पड़े। और जो आदमी भी उसके चौबीस घंटे भीतर क्रोध चल रहा है। बिलकुल जैसे बिजली दौड़ पूरे संताप से गुजरने को राजी है, वह क्षण में बाहर हो सकता है। रही है तार में। जब हाथ लगाओ, तब शॉक मारती है। इसका भागें मत। एस्केप से कुछ होने वाला नहीं। अपने से भागकर मतलब यह नहीं कि जब हाथ लगाते हैं, तब दौड़ती है। दौड़ती तो कहीं जा नहीं सकते हैं। जो भी अपने भीतर है, उसे पूरी तरह जीएं। चौबीस घंटे रहती है; हाथ लगाओ, तब पता चलता है। और साधक मुखौटे को तोड़ डाले, हटा दे। कह दे कि जैसा हूं, तो क्रोध तो आपमें चौबीस घंटे दौड़ रहा है, कोई जरा हाथ बुरा-भला ऐसा हूं। आदमी बुरा हूं, बुरा हूं। इस बुरेपन के ऊपर मैं लगाए, तब शॉक निकलता है। बिजली का तार भी ऐसा ही सोचता कोई मुलम्मा नहीं करूंगा, कोई मलहम-पट्टी नहीं करूंगा। बुरा हूं, होगा, जैसा आप सोचते हैं कि हममें कोई बिजली नहीं दौड़ती। यह तो बुरा हूं, उसमें क्या किया जा सकता है! इसे जाहिर करूंगा कि तो जब कोई हाथ लगाता है, तब शॉक पैदा होता है। हाथ लगाने में बुरा हूं। वाले से शॉक पैदा नहीं होता। जब कोई मुझे गाली देता है, उससे उसे कह देना चाहिए अपनी पत्नी को कि जब सडक पर कोई संदर क्रोध नहीं पैदा होता; वह तो सिर्फ हाथ लगा रहा है। क्रोध की स्त्री दिखाई पड़ती है, तो मेरा मन डोलता है। उसे कह देना चाहिए, अंतर्धारा मुझमें बहती रहती है। गाली से जरा संबंध जुड़ा कि शॉक! ऐसा होता है। और जैसे ही वह इस मुखौटे को तोड़ना शुरू मैं विकराल हो उठता हूं, पागल हो उठता हूं। वह पागलपन हमारे करेगा...उसे कह देना चाहिए अपनी पत्नी को या अपने पति को या भीतर है, वह विक्षिप्तता हमारे भीतर है। 160/ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < चित्त वृत्ति निरोध - वृत्ति निरोध का अर्थ है, वृत्ति की इतनी गहरी समझ कि वृत्ति का जल, एक बर्तन में, एक कटोरे में शुद्ध जल रखा हो, नीलमणि को होना असंभव हो जाए। इतनी गहरी अंडरस्टैंडिंग, इतना गहरा उस जल में डाल दें, तो पूरा जल नीला मालूम होने लगता है। वह अनुभव, ऐसी गहरी अनुभूति कि वृत्ति असंभव हो जाए। और ज्ञान जो नीलमणि की आभा है, वह पूरे जल को घेर लेती है। के अतिरिक्त और कोई मुक्ति नहीं है। और ज्ञान के अतिरिक्त और अगर नीलमणि को होश आ जाए, तो नीलमणि क्या कहेगी कि कोई निरोध नहीं है। | मैं मणि हूं, जल से अलग? नहीं। क्योंकि जल भी तो नीला हो गया ___ इसलिए कृष्ण कहते हैं, उपराम, शांत हुआ चित्त, चित्त वृत्ति है। नीलमणि कैसे जान पाएगी कि कहां मणि समाप्त होती है और निरोध को उपलब्ध हुआ चित्त, उस निरोध के क्षण में प्रभु को | | कहां जल शुरू होता है! क्योंकि जल ने भी नीलापन ले लिया है। जानता है। अगर नीलमणि को होश आ जाए, तो नीलमणि जल की परिधि को ही अपनी परिधि मानेगी, क्योंकि वहां तक नील का विस्तार है। ठीक ऐसे ही, वह जो भीतर शुद्ध आत्मा है, वह जो चेतना है, सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् । उसकी आभा इंद्रियों को घेर लेती है; शरीर के कोने-कोने में व्याप्त वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ।। २१ । । हो जाती है। मेरी आत्मा मेरी अंगलियों के पोरों तक समा गई है। तथा इंद्रियों से अतीत केवल शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा ग्रहण | मेरी आत्मा मेरे रोएं-रोएं के कोने-कोने तक प्रवेश कर गई है। मेरी करने योग्य जो अनंत आनंद है. उसको जिस अवस्था में आत्मा ने मेरी पूरी इंद्रियों को, मेरे पूरे शरीर को आवृत कर लिया अनुभव करता है और जिस अवस्था में स्थित हुआ यह | है। मेरी चेतना की आभा में सब समा गया है। और यह आभा योगी भगवत्स्वरूप से नहीं चलायमान होता है। अनंत है। इसलिए चींटी के छोटे-से शरीर को भी घेर लेती है, हाथी के बड़े शरीर को भी घेर लेती है। अगर मैं पूरे ब्रह्मांड जैसा शरीर भी पा जाऊं, तो भी मेरी आभा इतने को घेर लेगी। यह आत्मा की 5 सी सूत्र का और भी गहरा रूप। भगवत्स्वरूप से नहीं आभा अनंत है। और यह आभा जहां पड़ती है. जिस सीमा को . चलायमान होता है। वह चित्त, वह व्यक्ति, वह योगी, घेरती है, उस सीमा के साथ लगता है कि मैं एक हो गया। जो इंद्रियों के पार हूं मैं, ऐसा जानता है, भगवत्स्वरूप | इसलिए पहला कदम उठ जाता है कि मैं इंद्रियां हूं, फिर दूसरा से चलायमान नहीं होता है। कदम उठना अनिवार्य हो जाता है। क्योंकि इंद्रियां कहती हैं, ___ भगवत्स्वरूप से चलायमान हम होते इसीलिए हैं कि मानते हैं | कामेंद्रिय कहती है कि काम-विषय खोजो। तो फिर काम-विषय कि इंद्रियां हूं मैं। इंद्रियां हूं मैं, तो यात्रा शुरू हो गई। हमने स्वयं से | की खोज में जाना पड़ता है। ऐसे हम अपने से बाहर जाते हैं, या दूर जाना शुरू कर दिया। और फिर इंद्रियां और दूर ले जाएंगी, | चलायमान होते हैं, गतिमान होते हैं। ऐसे हमारे भीतर वह जो क्योंकि प्रत्येक इंद्रिय कहेगी कि मुझे मेरा विषय चाहिए। तो उसकी अचलायमान है सदा, वह चलायमान होने की भ्रांति में पड़ता है। विषय की खोज होगी। और प्रत्येक विषय के बाद अनुभव होगा फिर वह खोजता निकलता चला जाता है-दूर, और दूर, और दूर। कि इससे तृप्ति नहीं होती, दूसरा विषय चाहिए, तो दूसरे की खोज और जितना खोजता है, उतना ही पाता है, नहीं मिलता, तो और दूर होगी। और फिर जीवन एक यात्रा बन जाएगा। जाता है! ऐसे जन्मों की लंबी यात्रा होती है। ___ यात्रा के दो चरण हैं। पहला चरण, मैं इंद्रियां हूं, ऐसा तादात्म्य कृष्ण कह रहे हैं, जिसने जाना कि मैं इंद्रियों के अतीत और पार बनाना जरूरी है। अगर संसार में जाना है, तो जानना जरूरी है कि हं. फिर चलायमान नहीं होता भगवत्स्वरूप से, फिर भगवान से मैं इंद्रियां हूं। और यह तादात्म्य बन जाता है। यह बन जाता है इसी चलायमान नहीं होता। फिर वह भगवान में एक हो जाता है, फिर तरह कि चेतना इतनी निर्मल और इतनी शुद्ध है कि जिस चीज के | वह भगवान ही हो जाता है। लेकिन सूत्र है, इंद्रियों के पार हूं मैं, भी पास जाती है, उसका प्रतिबिंब पकड़ लेती है। इसे जानना; ट्रांसेंडेंटल हूं, अतीत हूं, इंद्रियां नहीं हूं मैं, इसे जानना। पुराने योग के ग्रंथ उदाहरण देते हैं नीलमणि का। प्रीतिकर है| एक बहुत अजीब-सी घटना मुझे याद आती है। एक फकीर उदाहरण। पुराने योग के ग्रंथ कहते हैं कि नीलमणि को अगर शुद्ध हुआ है, लिंची, जापान में एक बहुत ज्ञानी फकीर हुआ। लिंची की Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 गीता दर्शन भाग-3> सदा आदत थी कि जब भी वह कुछ समझाता, तो एक अंगुली ऊपर | रेडीमेड। कह दिया कि मैं शरीर नहीं हूं। बस, व्यर्थ हो गया। नहीं; उठाकर समझाता। जब भी कुछ कहता, तो उसकी एक अंगुली सिर्फ पूछे। उत्तर को आने दें। आप जल्दी न करें। आपके उत्तर दो ऊपर उठ जाती। अद्वैत की खबर वह अंगुली से देने लगता। जो | कौड़ी के हैं। क्योंकि आपको उत्तर ही मालूम होता, तो पूछने की बोलने से नहीं कह पाता था, वह अंगुली से कहता। वह जब तक जरूरत क्या थी? उत्तर आपको मालूम नहीं है। उसकी अंगली कंपित होती रहती. ऊपर उठी रहती। लेकिन शास्त्र दश्मन हो गए हैं। पढ लिया है उनको। उनमें फकीरों में मजाक चलता था। उसके शिष्यों में भी कभी-कभी | लिखा है कि मैं शरीर नहीं हूं! जो मित्र हो सकते थे, उनको हमने मजाक चलता था; वे भी अंगुली उठाकर बात करते थे। उसके दुश्मन कर लिया है। कंठस्थ कर लिया, मैं शरीर नहीं हूं। बैठे, सामने तो हिम्मत नहीं पड़ती थी लेकिन पीठ पीछे उसके शिष्य | पूछते हैं, मैं शरीर हूं? पूछ भी नहीं पाते, हमको उत्तर पहले से ही कभी-कभी मजाक में अंगुली उठा लेते। | पता है। वह कहता है, क्या बेकार में! मैं शरीर नहीं हूं। उठकर एक दिन एक शिष्य अंगुली उठाकर कुछ गपशप कर रहा था। वापस वही के वही आदमी वापस हो गए। अचानक लिंची मंदिर के भीतर आ गया। वह घबड़ा गया। उसने | नहीं; पूछे, क्या मैं शरीर हूं? और चुप रह जाएं। जाने दें प्रश्न अंगुली अपनी बंद की। लिंची ने कहा कि नहीं, उठी रहने दो। लिंची को गहरा। उत्तर न दें स्मृति से। उतरने दें प्रश्न को गहरा। अनुभव ने खीसे से चाकू निकाला और अंगुली काटकर फेंक दी। तड़फड़ा | करें, क्या मैं शरीर हूं? गया। ल ।। लहलहान हो गया हाथ। लिंची ने कहा, सावधान। देख, शरीर के प्रति जागें, शरीर को भीतर से देखें कि यह रहा शरीर। अंगुली कटी है, तू तो नहीं कटा। बी अवेयर। मौका मत चूक। जैसे कि कोई आदमी अपने मकान के भीतर बैठा है और देखता है अंगुली कटी है, तू नहीं कटा। गौर से देख! कि चारों तरफ दीवाल है, ठीक ऐसे ही अपने शरीर के भीतर बैठकर चौंक गया। लिंची की आवाज! अंगुली के कटने में एक तो देखें, चारों तरफ शरीर की दीवाल है, हाथ हैं, पैर हैं। यह शरीर विचार वैसे ही बंद हो गए। एकदम घबड़ा गया। विचार का कंपन | रहा। क्या मैं शरीर हूं? उत्तर न दें। कृपा कर उत्तर से बचें। मैं शरीर चला गया। अंगुली कट जाएगी, अनएक्सपेक्टेड, कभी सोचा भी | हं? प्रश्न और प्रश्न को तीर की तरह भीतर उतर जाने दें। नहीं था। और लिंची जैसा दयावान आदमी, जो पत्ता न तोड़े, वह और जल्दी ही कोई चीज भीतर गिर जाएगी पर्दे की तरह, और अंगुली काट देगा, यह कोई सोच ही नहीं सकता था। और फिर अचानक प्रतीत होगा, कहां! शरीर तो वह रहा; मैं यह अलग हूं। लिंची की आवाज; और लिंची का खड़ा हुआ रूप; और लिंची की | | लेकिन यह उत्तर आप मत देना; यह उत्तर आने देना। और जब यह उठी हुई अंगुली! देख, तू नहीं कटा है, अंगुली कटी है। उस आएगा, तो आपके जीवन को बदल जाएगा। और जब आप देंगे, आदमी की आंख बंद हो गई, उसने भीतर देखा। वह लिंची के | | तो जीवन वही का वही बना रहेगा। यही कसौटी है। चरणों में गिर पड़ा और उसने कहा कि धन्यवाद! पहली दफा मुझे । अगर इस उत्तर के बाद जीवन दूसरा हो जाए, तो जानना कि उत्तर पता चला कि मैं अंगुली नहीं हूं। आया। और अगर जीवन वही रहे कि पूछ-पांछकर उठे और एक-एक इंद्रिय के प्रति ऐसे ही जागना पड़ता है कि यह मैं नहीं सिगरेट मुंह में लगाकर जला ली और फिर धुआं उड़ाने लगे। और हूं, यह मैं नहीं हूं, यह मैं नहीं हूं। और कठिन नहीं है। जरूरी नहीं जीवन वही का वही रहा, कोई अंतर न पड़ा, कोई ट्रांसफार्मेशन न है कि अंगुली काटकर ही जागें। जरूरी नहीं है कि अंगुली काटकर हुआ, तो जानना कि उत्तर आथेंटिक नहीं था; हमने ही दे दिया था। ही जागें, कभी बैठकर शांति से विचार ही करें अंगुली को उठाकर और मन की चालाकी अनंत है। वह उत्तर तैयार रखे है, ताकि कि क्या यह अंगुली मैं हूं? उठाए रहें अंगुली को; भीतर सोचें, क्या | | आपको नाहक भीतर न जाना पड़े। वह कहता है, कहां जा रहे हो? यह अंगुली मैं हूं? बहुत देर न लगेगी, अंगुली से कोई चीज भीतर | पहरेदार हूं, मैं ही बताए देता हूं। मालिक से मिलने की जरूरत क्या वापस गिर जाएगी। अंगुली अलग, आप अलग हो जाएंगे। | है? दरवाजे पर पहरेदार की तरह खड़ा है। आपसे कहता है, हम कभी आंख बंद करके सोचें, यह शरीर मैं हूँ? ध्यान रहे, प्रश्न ही बताए देते हैं, आप कहां जाते हो? बैठो यहीं। सब उत्तर हमें पूछे, उत्तर न दें! हम उत्तर देने में बड़े होशियार हैं। हम सबको मालूम हैं; नाहक भीतर जाने का कष्ट क्यों उठाते हो! मालूम है कि मैं शरीर नहीं हूं! पूछा भी नहीं कि उत्तर तैयार है, तो मन से कहना कि क्षमा करो। तुम्हारे उत्तर अपने पास रखो। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - चित्त वृत्ति निरोध - तुम्हारे उत्तर नहीं चाहिए। तुम्हारे शास्त्र, तुम्हारे सिद्धांत तुम्ही सम्हालो। मुझे कृपा कर भीतर जाने दो। मैं ही जानना चाहता हूं कि क्या है। मुझे कुछ भी पता नहीं है। पूछे। और तब भीतर एक पर्दा गिर जाएगा। एक झीना-सा पर्दा आभा का, सिर्फ आभा का पर्दा है, वह सिकुड़ जाएगा। शरीर अलग, आप अलग हो जाएंगे। और जिस क्षण यह अनुभव होता है कि शरीर अलग, मैं अलग; इंद्रियां अलग, मैं अलग; फिर चेतना चलायमान नहीं होती है। फिर प्रभु में रम जाती है। फिर प्रभु से एक हो जाती है। फिर कभी प्रभु के घर को छोड़कर जाती नहीं। फिर कहीं भी जाए, प्रभु के घर में ही रहती हुई जाती है। फिर मंदिर से चली जाए दुकान पर, तो मंदिर दुकान पर पहुंच जाता है। रास्ते से गुजरे, तो भी जानता है व्यक्ति कि मैं प्रभु में ठहरा हुआ हूं। चलेगा शरीर, मैं ठहरा हुआ हूं। कटेगा शरीर, मैं अनकटा हूं। छिदेगा शरीर, मैं अनछिदा हूं। मरेगा शरीर, मैं अमृत हूं। वह जानता ही रहता है; वह जानता ही रहता है। ऐसी प्रतीति प्रभु में थिर कर जाती है। और प्रभु में थिरता आनंद आज इतना ही। पांच मिनट संन्यासी कीर्तन करते हैं, उनका प्रसाद लेते जाएं। उनके पास देने को आपके लिए कुछ और नहीं है, इसलिए उठकर जाएंगे, तो उनको लगेगा कि उनका प्रसाद आप नहीं लेते हैं! बैठे रहें। और उनके साथ सम्मिलित हों, तो ही प्रसाद मिलेगा, अन्यथा प्रसाद मिलने का कोई और उपाय नहीं है। गाएं। उनके गीत में एक हो जाएं। ताली बजाएं। डोलें। आनंदित हों। पांच मिनट के लिए भूलें उस सब को जो हमारा चित्त है, और एक नए चित्त की यात्रा पर निकलें। 163 Page #190 --------------------------------------------------------------------------  Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 6 ग्यारहवां प्रवचन दुखों में अचलायमान Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 गीता दर्शन भाग-3> यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः। सामान्य रह जाएं; कुनकुने रह जाएं, उबलते हुए न हों। यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते । । २२ ।। ___ कुनकुने दुख धीरे-धीरे हमारी आदत बन जाते हैं। इसलिए उनसे और परमेश्वर की प्राप्तिरूप जिस लाभ को प्राप्त होकर, | हमें कोई ज्यादा पीड़ा और परेशानी नहीं होती। विशेष दुख आते हैं, उससे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता है, और तो हम पीड़ित होते हैं। इसलिए मैं कहता हूं कि भीतर हमें आनंद भगवत्प्राप्ति रूप जिस अवस्था में स्थित हुआ योगी बड़े का कोई अनुभव नहीं है, इसलिए विशेष दुख हमें पीड़ित करते हैं। भारी दुख से भी चलायमान नहीं होता है। फिर अगर विशेष दुख रोज-रोज आने लगें, तो वे भी हमें पीड़ित नहीं करते। हम उनके भी आदी हो जाते हैं। और जिसे विशेष दुख | नहीं आए हैं, उसे साधारण दुख भी आ जाए, तो भी पीड़ित करता 7 भुको पाने की कामना पूरी हो जाए, तो फिर और कोई | है। दुख के प्रति हमारी संवेदनशीलता, दुख के आने पर धीमी होती प्र कामना पूरी करने को शेष नहीं रह जाती है। प्रभु में चली जाती है। प्रतिष्ठा मिल जाए, तो फिर किसी और प्रतिष्ठा का युद्ध के मैदान पर जाता है सैनिक, तो जब तक नहीं पहुंचा है कोई प्रश्न नहीं है। मिल जाए प्रभु, तो फिर न मिलने को कुछ बचता | युद्ध के मैदान पर, तब तक बहुत पीड़ित, चिंतित और परेशान रहता है, न पाने को कुछ बचता है। है। लेकिन मनोवैज्ञानिक हैरान हैं कि युद्ध के मैदान पर पहुंचने के कृष्ण इस सूत्र में कहते हैं कि जिसने प्रभु को उपलब्ध करने का | एक-दो दिन के बाद उसकी सब पीड़ा, सब चिंता विदा हो जाती लाभ पा लिया, उसे परम लाभ मिल गया। वैसा परम लाभ को । है! क्या, हो क्या जाता है? उपलब्ध व्यक्ति, महान से महान दुख से अविचलित गुजर जाता है। - जब रोज गिरते देखता है बम को अपने किनारे, रोज अपने मित्रों इसे थोड़ा समझें। असल में हम दुख से विचलित ही इसीलिए को दफनाए जाते देखता है, रोज आदमियों को मरते देखता है, होते हैं कि हमें आनंद का कोई अनुभव नहीं है। हम दुख से । सड़क पर लाशों से गुजरता है-दो-चार दिन में संवेदनशीलता विचलित ही इसीलिए होते हैं कि हमें आनंद का कोई अनुभव नहीं | | क्षीण हो जाती है। फिर वह जो युद्ध पर जाने से डर रहा था, वह है। यदि हमें आनंद का अनुभव हो, तो दुख से हम विचलित होंगे वहीं बैठकर-पास में हवाई जहाज दुश्मन के उड़ते रहते हैं, ही नहीं। असल में जैसे हम जीते हैं, हम दुख में ही जीते हैं। बमबारी करते रहते हैं—वह नीचे बैठकर ताश खेलता रहता है। लेकिन एक तो साधारण दुख है, जिसके हम आदी हो गए हैं। अगर आपको निरंतर दुख में रखा जाए, तो आप उस दुख के जब हम पर कोई असाधारण दुख आता है, जिसके हम आदी नहीं लिए आदी हो जाते हैं; फिर उसका आपको पता नहीं चलता। हम हैं, तो हम विचलित होते हैं। एक खास स्तर पर दुख के आदी हो गए हैं, और इसीलिए बहुत ध्यान रहे, हम साधारणतः दुख में ही जीते हैं। लेकिन साधारण अड़चन होती है। दुख में जीते हैं, इसलिए कोई विचलित होने का कारण नहीं आता। ___ जब पहली दफा पश्चिम के लोगों को पता चलता है हमारी जब असाधारण दुख आता है, तो चित्त कंपित होता है और हम | गरीबी का, तो उन्हें भरोसा नहीं आता कि इतनी गरीबी को हम सह विचलित हो जाते हैं। कैसे लेते होंगे! बगावत क्यों नहीं कर देते! आग क्यों नहीं लगा फ्रायड ने कहा है अपने अंतिम दिनों के संस्मरणों में, कि जैसा डालते! दुनिया को मिटा क्यों नहीं डालते! उन्हें खयाल भी नहीं कि मैं समझता हूं, उससे ऐसा प्रतीत होता है कि आदमी को हम कभी हम गरीबी के लंबे आदी हैं! गरीबी से हमें कोई विशेष पीड़ा नहीं दख से मक्त न कर सकेंगे। ज्यादा से ज्यादा हम इतना ही कर सकते | होती। सच तो यह है कि गरीब को गरीबी से कभी पीड़ा नहीं होती, हैं कि अति दुख आदमी पर न आएं; साधारण दुख आते रहें। | पड़ोस में कोई अमीर हो जाता है, तो पीड़ा शुरू होती है। गरीबी की अगर विज्ञान पूरी तरह सफल हो गया—जो कि संभव नहीं | तो आदत होती है। लाखों वर्ष तक हमारा शूद्र बिलकुल ही पशु के दिखाई पड़ता—मान लें, अगर विज्ञान किसी दिन पूरी तरह सफल तल पर जीया है। आदी हो गया था। सपने भी छोड़ दिए थे उसने; हो गया, तो भी आपको दुख से छुटकारा नहीं दिला पाएगा। हां, | | वह दुख के लिए राजी हो गया था। इतना ही कर पाएगा कि आपके ऊपर अति दुख न आने पाएं। दुख | | हम सब दुखी हैं, लेकिन सब एक-एक दुख की सीमा तक राजी 166 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -दुखों में अचलायमान - हो गए हैं। तो वहां तक तो हमें कोई दुख चलायमान नहीं करता। हमारे भीतर वही प्रवेश करता है, जो हमारे भीतर पहले से मौजूद लेकिन विशेष दुख आ जाता है, जिसके लिए हम आदी नहीं हैं, तो | है। जीवन के इस नियम को बहुत गौर से समझ लेना जरूरी है। हम कंपित हो जाते हैं, तो हम पीड़ित हो जाते हैं, तो हमारे भीतर हमारे भीतर वही प्रवेश करता है, जो हमारे भीतर मौजूद है, अन्यथा कुछ टूटता है, बिखरता है। हमारे भीतर प्रवेश नहीं हो सकता। अगर आप दुखी हैं, तो दुख लेकिन जो व्यक्ति आनंद के अनुभव को उपलब्ध हो जाए, उसे प्रवेश कर सकता है। अगर आनंदित हैं, तो आनंद प्रवेश कर फिर बड़े से बड़ा दुख विचलित नहीं करता, क्योंकि भीतर गहरे में सकता है। अगर अज्ञानी हैं, तो अज्ञान प्रवेश कर सकता है। अगर वह आनंद में जीता ही है। दुख बाहर ही आते हैं फिर, भीतर तक ज्ञानी हैं, तो ज्ञान प्रवेश कर सकता है। समान ही समान को खींचता प्रवेश नहीं कर पाते। दुख बाहर घूमते हैं और चले जाते हैं, जैसे है, असमान को हटाता है। हवा के झोंके आए हों। या आप रास्ते से गुजरते हों और वर्षा पड़ ___ तो अगर आपको बार-बार दुख प्रवेश कर जाता हो, तो समझ गई हो, तो आप कोई मिट्टी के पुतले नहीं हैं, आप उस वर्षा को | | लेना कि आपके भीतर दुख की गहरी पर्त है, जो उसे बुला लेती है, झेलकर घर आ जाते हैं। आप भीतर जानते हैं, कुछ गल नहीं निमंत्रण दे देती है। अगर आप उदास आदमी हैं, तो आपको चारों जाएगा। लेकिन उसी रास्ते पर अगर मिट्टी के पुतले भी चल रहे | तरफ से उदासी पकड़ेगी और आपकी तरफ दौड़ेगी। आप गड्ढा बन हों, तो बड़ी मुश्किल में पड़ जाएंगे। जाएंगे, और उदासी आपकी तरफ नदियां बनकर यात्रा करने भीतर आनंद की वर्षा हो रही हो सतत, तो बाहर कितना ही बड़ा | लगेगी। अगर आप आनंदित हैं, तो चारों तरफ से आनंद की धाराएं दुख आ जाए, बाहर ही रहता है, भीतर प्रवेश नहीं कर पाता। ध्यान | आपके भीतर प्रवेश करने लगेंगी। रखें, दुख भीतर तभी प्रवेश करता है, जब भीतर दुख मौजूद हो। जो आपके भीतर प्रवेश करता है, वह खबर देता है कि कौन और समान समान को आकर्षित करता है। भीतर दुख मौजूद हो, आपके भीतर बैठा है, जो उसे आकर्षित कर रहा है। जिसने आनंद तो बाहर के दुख को भीतर खींचता है। भीतर आनंद मौजूद हो, तो को जाना प्रभु को पा लेने के, उसे कोई दुख विचलित नहीं करेगा। बाहर के दुख को वापस लौटा देता है, उसे निमंत्रण भी नहीं देता। - कितने दुख हैं जीवन में? कितने दुख हैं? हम उनकी थोड़ी-सी कृष्ण कहते हैं, जिसने पा लिया परम लाभ, प्रभु को अनुभव | | मोटी गिनती कर लें, तो खयाल में आ जाए। किया जिसने, फिर बड़े से बड़ा दुख उसे चलायमान नहीं करता है। __प्रिय के बिछुड़ने का दुख है। प्रियजन के बिछुड़ने का दुख है। फिर चलायमान होने की कोई वजह नहीं रह गई। फिर हालत | लेकिन जो प्रभु को मिल गया, वह प्रियतम को मिल गया। अब कोई ऐसी ही हो गई कि जिसे यह पता चल गया कि मेरे पास अनंत | | प्रियजन के बिछुड़ने का दुख नहीं रह जाता। अब मिलन शाश्वत है। खजाना है, उसकी अगर एक कौड़ी गिर जाए, तो क्या दुख, क्या | अब तो हम उस प्यारे को मिल गए, जिसकी झलक हमने सब पीड़ा! जिसे पता चल जाए, अनंत खजाना मेरे पास है, उसके प्रियजनों में देखी थी, लेकिन जिसे हम किसी में पा न सके थे। जिसे करोड़ रुपए भी खो जाएं, तो कौन-सी पीड़ा है, कौन-सा दुख है! हमने सब प्रियजनों में खोजना चाहा था, और खाली और रिक्त हाथ अनंत में कुछ कम नहीं होगा। | वापस लौट आए थे। जिसे हमने जब भी किसी को प्रेम किया था, जिसे पता चल जाए कि मेरे भीतर जो है, वह कभी नहीं मरता, | तो उसमें बहुत गहरे में हमने परमात्मा को ही तलाशा था। तो छोटी-मोटी बीमारी की तो बात अलग, मौत खुद भी द्वार पर । और इसीलिए तो सभी प्रेमी फ्रस्ट्रेट होते हैं, क्योंकि अंत में आकर खड़ी हो जाए, तो विचलित होने का कोई कारण नहीं है। मौत मिलता है आदमी, परमात्मा तो मिलता नहीं। खोजते परमात्मा को से हम विचलित होते हैं, क्योंकि हम जानते हैं, मैं मरूंगा। मौत से ही हैं। इसलिए जब भी कोई किसी के प्रेम में गिरता है, तो वह हम विचलित होते हैं, क्योंकि हम जानते हैं कि बीमारी इतनी उसके भीतर किसी दिव्यता की खोज है। लेकिन फिर हाथ में तो तकलीफ दे गई; मौत कितनी तकलीफ न दे जाएगी! मौत से हम हड्डी, मांस, चमड़ी के कुछ और आता नहीं, कोई दिव्यता तो हाथ विचलित होते हैं, क्योंकि भीतर अमृत का हमें कोई अनुभव नहीं है। में आती नहीं। फिर विषाद घेर लेता है। यदि अमृत का अनुभव है, तो मौत स्पर्श भी नहीं कर पाएगी। जो प्रभु को पा लिया, उसके लिए अब मिलन का कोई प्रश्न न वह बाहर ही बाहर घूम सकती है, भीतर प्रवेश नहीं कर सकती। रहा, परम मिलन हो गया। अब उसके हाथ किसी के आलिंगन को 11671 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 - नहीं फैलेंगे, और या फैलेंगे भी, तो सभी के आलिंगन में उसे | करते हैं, उस लहू को पानी की तरह हाथ पर फेरा। किसी ने पूछा, परमात्मा का ही आलिंगन होगा। और कोई अगर उससे बिछुड़कर | | मंसूर! यह तुम क्या कर रहे हो? तो मंसूर ने कहा कि मैं प्रभु से जा रहा है, तो उसका कुछ भी नहीं बिछुड़ेगा। क्योंकि जो परम | | मिलने के पहले, आखिरी मिलन हुआ जा रहा है, वजू कर रहा हूं। मिलन हो गया है, उस परम मिलन के आगे अब किसी बिछुड़न तो लोगों ने कहा कि खून से कहीं वजू की जाती है? मंसूर ने कहा, का कोई अर्थ नहीं है। पानी से भी कोई वजू हो सकती है? पानी से भी कहीं कोई वजू हो अपयश का दुख है जीवन में, अपमान का दुख है जीवन में। सकती है, मंसूर ने कहा। अब तक तो धोखा दिया वजू करने का कि लेकिन जिसे प्रभु ने सम्मानित कर दिया, अब उसे अपमान छू पानी से हाथ धो लेते थे, आज मौका मिला कि अपने जीवन से हाथ सकेगा? जिसे स्वयं प्रभु ने अपने मंदिर में प्रवेश दिया और जिसे | | धो रहे हैं। जीवन से हाथ धोकर प्रभु की यात्रा पर जा रहा हूं। स्वयं प्रभु ने अपने निकट बिठा लिया-यह सिर्फ मैं काव्य की | __ जिसे प्रभु की जरा-सी भी झलक मिल जाए, उसके जीवन में भाषा में बोल रहा हूं, प्रभु कोई व्यक्ति नहीं है जो प्रभु के अनुभव | | चलायमान होने का कोई भी कारण नहीं है। लेकिन हमें कोई झलक को उपलब्ध हुआ, अब कौन-सा अपमान उसके लिए अर्थपूर्ण रह | नहीं है, इसलिए छोटी-सी चीज चलायमान कर जाती है। सच तो . जाएगा? जो बड़े से बड़ा मान संभव था, वह हो गया। यह है कि हम चलायमान ही रहते हैं। जैसा मैंने कहा, हम दुखी ही तो जीसस जैसा आदमी सूली पर भी शांति से लटक सकता है। रहते हैं। सामान्य धक्के हम झेलते रहते हैं, आदी हो जाते हैं। मंसूर को जब लोगों ने सूली दी, तो मंसूर सिर उठाकर ऊपर असामान्य धक्के आते हैं, हम दिक्कत में पड़ जाते हैं। आकाश की तरफ देखकर हंसने लगा। और इसीलिए हम असामान्य धक्कों को अपने से रोके रखते हैं, मंसूर एक अदभुत फकीर था, जीसस की हैसियत का। | भुलाए रखते हैं। भुलाए रखते हैं कि मौत है। भुलाए रखते हैं कि मुसलमान फकीर था, सूफी था। जब मंसूर को लोग काटने लगे | | प्रिय बिछुड़ जाएगा। भुलाए रखते हैं कि सब सफलताएं अंत में और सूली देने लगे, तो मंसूर ने आकाश की तरफ देखा और | | असफलताओं की राख सिद्ध होती हैं। भुलाए रखते हैं कि सब मुस्कुराया। तो एक लाख लोगों की भीड़ थी, जो पत्थर फेंक रहे थे सिंहासन आखिर में कब्रों की सीढ़ियां बन जाते हैं। सबको भुलाए उस पर, गालियां दे रहे थे उसको। कोई उसका पैर काट रहा था, | रखते हैं। और इस तरह जीते हैं भुलावे में कि जैसे कहीं कोई दुख कोई उसका हाथ काट रहा था। कोई उसकी आंखें फोड़ने के लिए | नहीं है। छुरे लिए हुए खड़ा था। लेकिन हम कितनी देर अपने को भुलावा दे सकते हैं! दुख और जब मंसूर को लोगों ने हंसते देखा, तो किसी ने भीड़ में से | आएगा ही। दुख जीवन का स्वरूप है। अगर आप आनंद को नहीं पूछा कि मंसूर, किसको देखकर हंस रहे हो? मरने के करीब हो! | उपलब्ध कर लेते हैं, तो दुख आपको कंपाता ही रहेगा। तो मंसूर ने कहा कि तुम्हें मौत दिखाई पड़ती है, मुझे महामिलन कृष्ण ठीक कहते हैं, परम लाभ हो जाता है उसे। फिर बड़े से दिखाई पड़ रहा है। यहां से विदा हो जाऊंगा, वहां प्रभु से | बड़ा दुख चलायमान नहीं कर सकता है। महामिलन हो जाएगा। उसकी बांहें मुझे आकाश में फैली हुई। वही कसौटी है। वही कसौटी है कि जब बड़े से बड़ा दुख कंपन दिखाई पड़ रही हैं। तुम मुझे जल्दी विदा कर दो, ताकि उसे और न लाए, तो ही जानना कि वह आदमी प्रभु के दर्शन को उपलब्ध प्रतीक्षा न करनी पड़े! हुआ। अब यह जो आदमी है, इसको हम काट-काटकर भी दख नहीं बुद्ध के आखिरी छः महीने बहुत पीड़ा में बीते। पीड़ा में उनकी दे सकते। क्योंकि इसको हम काट ही नहीं सकते। यह जिस तल | | तरफ से, जिन्होंने देखा; बुद्ध की तरफ से नहीं। बुद्ध एक गांव में पर जी रहा है, वहां कोई हमारे अस्त्र-शस्त्र काम न करेंगे। जिस | ठहरे हैं। और उस गांव के एक शूद्र ने, एक गरीब आदमी ने बुद्ध जगह यह जी रहा है, उस तल पर, उस आयाम में, हम इसे दुख न | | को निमंत्रण दिया कि मेरे घर भोजन कर लें। तो वह पहला निमंत्रण पहुंचा पाएंगे। देने वाला था, सुबह-सुबह जल्दी आ गया था पांच बजे, ताकि . जब मंसूर के हाथ काटे, तो उसके हाथ से लहू बहने लगा। उसने गांव का कोई धनपति, गांव का सम्राट निमंत्रण न दे दे। बहुत बार दूसरे हाथ से लहू लेकर, जैसे कि मुसलमान नमाज के पहले वजू आया था, लेकिन कोई निमंत्रण दे चुका था। 1168 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुखों में अचलायमान - वह निमंत्रण दे ही रहा था कि तभी गांव के एक बड़े धनपति ने | किसी तरह समझाकर-बुझाकर लौटा दिया। आकर बुद्ध को कहा कि आज मेरे घर निमंत्रण स्वीकार करें। बुद्ध | | बुद्ध के शिष्य कहने लगे, आप यह क्या बातें कह रहे हैं। यह ने कहा, निमंत्रण आ गया। उस अमीर ने उस आदमी की तरफ देखा | आदमी हत्यारा है। बुद्ध ने कहा, भूलकर ऐसी बात मत कहना, और कहा, इस आदमी का निमंत्रण! इसके पास खिलाने को भी अन्यथा उस आदमी को नाहक लोग परेशान करेंगे! तुम जाओ; कुछ होगा? बुद्ध ने कहा, वह दूसरी बात है। बाकी निमंत्रण उसका गांव में डुंडी पीटकर खबर करो कि यह आदमी सौभाग्यशाली है, ही स्वीकार किया। उसके घर ही जाता हूं। क्योंकि इसने बुद्ध को अंतिम भोजन का दान दिया है। बद्ध गए। उस आदमी को भरोसा भी न था कि बद्ध कभी उसके | मरने के वक्त लोग उनसे कहते थे कि आप एक दफे भी तो रुक घर भोजन करने आएंगे। उसके पास कुछ भी न था खिलाने को जाते! कह देते कि कड़वा है, तो हम पर यह वज्रपात न गिरता! वस्तुतः। रूखी रोटियां थीं। सब्जी के नाम पर बिहार में गरीब लेकिन बुद्ध कहते थे कि यह वज्रपात रुकने वाला नहीं था। किस किसान, वह जो बरसात के दिनों में कुकुरमुत्ता पैदा हो जाता बहाने गिरेगा, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। और जहां तक मेरा है-लकड़ियों पर, गंदी जगह में-उस कुकुरमुत्ते को इकट्ठा कर संबंध है, मुझ पर कोई वज्रपात नहीं गिरा है, नहीं गिर सकता है। लेते हैं, सुखाकर रख लेते हैं और उसी की सब्जी बनाकर खाते हैं। क्योंकि मैंने उसे जान लिया है, जिसकी कोई मृत्यु नहीं है। कभी-कभी ऐसा होता है कि कुकुरमुत्ता पायजनस हो जाता है। कहीं यह अनुभव हो, तो फिर कोई कंपन जीवन के किसी भी दुख का ऐसी जगह पैदा हो गया, जहां जहर मिल गया, तो कुकुरमुत्ते में नहीं होता है। जहर फैल जाता है। __ हमें तो सब चीजें हिला जाती हैं। हमारे पीछे तो कोई ऐसी चीज बुद्ध के लिए उसने कुकुरमुत्ते बनाए थे, वे जहरीले थे। जहर थे, नहीं है, जिस पर हम बिना हिले खड़े हो जाएं। कोई ऐसा स्तंभ नहीं सख्त कड़वे जहर थे। मुंह में रखना मुश्किल था। लेकिन उसके है, जिस पर हम बिना हिले खड़े हो जाएं। पास एक ही सब्जी थी। तो बुद्ध ने यह सोचकर कि अगर मैं कहूं कबीर ने एक छोटा-सा दोहा लिखा है। जिसका अर्थ है कि कि यह सब्जी कड़वी है, तो वह कठिनाई में पड़ेगा; उसके पास कबीर बहुत रोने लगा यह देखकर कि दो चक्कियों के पाट के बीच कोई दूसरी सब्जी नहीं है। वे उस जहरीली सब्जी को खा गए। उसे | जो भी पड़ गया, वह पिस गया। कबीर घर लौटा। कबीर के घर मुंह में रखना कठिन था। और बड़े आनंद से खा गए, और उससे | एक बेटा पैदा हुआ था। कबीर का बेटा था, तो कबीर की हैसियत कहते रहे कि बहुत आनंदित हुआ हूं। का बेटा था। उसका नाम था कमाल। कबीर ने घर जाकर यह दोहा जैसे ही बुद्ध वहां से निकले, उस आदमी ने जब सब्जी चखी, | | पढ़ा और कहा कि कमाल, आज रास्ते पर चलती चक्की देखकर तो वह तो हैरान हो गया। वह भागा हुआ आया और उसने कहा मैं रोने लगा. क्योंकि मझे खयाल आया कि जगत की चक्की के दो कि आप क्या कहते हैं? वह तो जहर है। वह छाती पीटकर रोने पाटों के बीच जो भी पड गया. वह बचा नहीं। लगा। लेकिन बुद्ध ने कहा, तू जरा भी चिंता मत कर। क्योंकि जहर कमाल ने दूसरा दोहा कहा और उसने कहा कि नहीं, यह मत मेरा अब कुछ भी न बिगाड़ सकेगा, क्योंकि मैं उसे जानता हूं, जो कहो। मैं भी चलती चक्की देखा हूं। चलती चक्की देखकर कमाल अमृत है। तू जरा भी चिंता मत कर। हंसने लगा, क्योंकि मैंने देखा कि दो पाटों के बीच में एक छोटी-सी लेकिन फिर भी उस आदमी की चिंता तो हम समझ सकते हैं। कील भी है। जिसने उस कील का सहारा ले लिया, दो पाट उसको बुद्ध ने उसे कहा कि तू धन्यभागी है। तुझे पता नहीं। तू खुश हो। | पीस नहीं पाए। पाट चलते रहे। वह जो छोटी-सी कील है चक्की तू सौभाग्यवान। क्योंकि कभी हजारों वर्षों में बुद्ध जैसा व्यक्ति पैदा के बीच में, उसके सहारे जो गेहूं का दाना चढ़ गया, उसके सहारे होता है। दो ही व्यक्तियों को उसका सौभाग्य मिलता है, पहला जो रह गया, दो चाक चलते रहे, चलते रहे, पीसते रहे, लेकिन वह भोजन कराने का अवसर उसकी मां को मिलता है और अंतिम अनपिसा बच गया! भोजन कराने का अवसर तुझे मिला है। तू सौभाग्यशाली है; तू जो परमात्मा की बीच में कील है, उसके निकट जितना सरक आनंदित हो। ऐसा फिर सैकड़ों-हजारों वर्षों में कभी कोई बुद्ध पैदा जाए, सेंटर के, केंद्र के, उतना ही इस जगत की कोई चीज फिर पीस होगा और ऐसा अवसर फिर किसी को मिलेगा। उस आदमी को नहीं पाती है। अन्यथा तो दो पाट पीसते ही रहेंगे। दुख पीसता ही 169 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग - 3 > रहेगा। मृत्यु पीसती ही रहेगी। और हम कंपते ही रहेंगे, स्वभावतः । यह बिलकुल स्वाभाविक है कि मौत को देखकर हम कंप जाएं। यह बिलकुल स्वाभाविक है कि चारों तरफ दुख ही दुख हो और हम कंप जाएं। यह स्वाभाविक तभी तक है, जब तक बीच की कील का सहारा नहीं मिला। कृष्ण उसी कील की बात कर रहे हैं कि पा लेता है जो प्रभु के परम लाभ को, फिर बड़े से बड़े दुख उसे चलायमान नहीं करते हैं। तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम् । स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ।। २३ ।। और जो दुखरूप संसार के संयोग से रहित है तथा जिसका नाम योग है, उसको जानना चाहिए। वह योग न उकताए हुए चित्त से अर्थात तत्पर हुए चित्त से निश्चयपूर्वक करना कर्तव्य है। सं सार के संयोग से जो तोड़ दे, दुख के संयोग से जो पृथक कर दे, अज्ञान से जो दूर हटा दे, ऐसे योग को अथक रूप से साधना कर्तव्य है, ऐसा कृष्ण कहते हैं। अथक रूप से ! बिना थके, बिना ऊबे । इस बात को ठीक से समझ लें। मनुष्य का मन बने में बड़ी जल्दी करता है। शायद मनुष्य के बुनियादी गुणों में ऊब जाना एक गुण है। ऐसे भी पशुओं में कोई पशु ऊबता नहीं। बोर्डम, ऊब, मनुष्य का लक्षण है। कोई पशु ऊबता नहीं। आपने कभी किसी भैंस को, किसी कुत्ते को, किसी गधे को ऊब नहीं देखा होगा, कि बोर्ड हो गया है ! नहीं; कभी ऊब पैदा नहीं होती। अगर हम आदमी और जानवरों को अलग करने वाले गुणों की खोज करें, तो शायद ऊब एक बुनियादी गुण है, जो आदमी को अलग करता है। आदमी बड़ी जल्दी ऊब जाता है, बड़ी जल्दी बोर्ड हो जाता है। किसी भी चीज से ऊब जाता है। ऐसा नहीं कि दुख से ऊब जाता है, सुख से भी ऊब जाता है। अगर सुख ही सुख मिलता जाए, तो तबियत होती है कि थोड़ा दुख कहीं से जुटाओ। और आदमी जुटा लेता है! अगर सुख ही सुख मिले, तो तिक्त मालूम पड़ने लगता है; मुंह में स्वाद नहीं आता फिर। फिर थोड़ी-सी कड़वी नीम मुंह पर रखनी अच्छी होती है। थोड़ा-सा स्वाद आ जाता है। आदमी ऊबता है, सभी चीजों से ऊबता है। बड़े से बड़े महल | में जाए, उनसे ऊब जाता है। सुंदर से सुंदर स्त्री मिले, सुंदर से सुंदर पुरुष मिले, उससे ऊब जाता है। धन मिले, अपार धन मिले, उससे ऊब जाता है । यश मिले, कीर्ति मिले, उससे ऊब जाता है। जो चीज मिल जाए, उससे ऊब जाता है। हां, जब तक न मिले, तब तक | बड़ी सजगता दिखलाता है, बड़ी लगन दिखलाता है; मिलते ही ऊब जाता है। इस बात को ऐसा समझें, संसार में जितनी चीजें हैं, उनको पाने की चेष्टा में आदमी कभी नहीं ऊबता, पाकर ऊब जाता है | पाने की चेष्टा में कभी नहीं ऊबता, पाकर ऊब जाता है। इंतजार में कभी नहीं ऊबता, मिलन में ऊब जाता है। इंतजार जिंदगीभर चल सकता है; मिलन घड़ीभर चलाना मुश्किल पड़ जाता है। संसार की प्रत्येक वस्तु को पाने के लिए तो हम नहीं ऊबते, लेकिन पाकर ऊब जाते हैं। और परमात्मा की तरफ ठीक उलटा नियम लागू होता है। संसार की तरफ प्रयत्न करने में आदमी नहीं ऊबता, प्राप्ति में ऊबता है। परमात्मा की तरफ प्राप्ति में कभी नहीं ऊबता, लेकिन प्रयत्न में बहुत ऊबता है। ठीक उलटा नियम लागू होगा भी। जैसे कि हम झील के किनारे खड़े हों, तो झील में हमारी तस्वीर बनती है, वह उलटी बनेगी। जैसे आप खड़े हैं, आपका सिर ऊपर है, झील में नीचे होगा। आपके पैर नीचे हैं, झील में पैर ऊपर होंगे। तस्वीर झील में उलटी बनेगी । संसार के किनारे हमारी तस्वीर उलटी बनती है। संसार में जो हमारा प्रोजेक्शन होता है, वह उलटा बनता है। इसलिए संसार में गति करने के जो नियम हैं, परमात्मा में गति करने के वे नियम | बिलकुल नहीं हैं। ठीक उनसे उलटे नियम काम आते हैं। मगर यहीं | बड़ी मुश्किल हो जाती है। सं तो ऊबना आता है बाद में, प्रयत्न में तो ऊब नहीं | आती। इसलिए संसार में लोग गति करते चले जाते हैं। परमात्मा में प्रयत्न में ही ऊब आती है। और प्राप्ति तो आएगी बाद में, और | प्रयत्न पहले ही उबा देगा, तो आप रुक जाएंगे। कितने लोग नहीं हैं जो प्रभु की यात्रा शुरू करते हैं! शुरू भर करते हैं, कभी पूरी नहीं कर पाते। कितनी बार आपने तय किया कि रोज प्रार्थना कर लेंगे! फिर कितनी बार छूट गया वह । कितनी बार तय किया कि स्मरण कर लेंगे प्रभु का घड़ीभर ! एकाध दिन, दो 170 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुखों में अचलायमान - दिन, काफी! फिर ऊब गए। फिर छूट गया। कितने संकल्प, कितने होता है, कोई कह रहा है, अगर उसके व्यक्तित्व से वे किरणे निर्णय, धूल होकर पड़े हैं आपके चारों तरफ! दिखाई पड़ती हैं, जो वह कह रहा है, उसका प्रमाण देती हैं; वह जो मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि ध्यान से कुछ हो सकेगा? | कह रहा है, जिस प्राप्ति की बात, वहां खड़ा हुआ मालूम पड़ता मैं उनको कहता हूं कि जरूर हो सकेगा। लेकिन कर सकोगे? वे कहते हैं, बहुत कठिन तो नहीं है? मैं कहता हूं, बहुत कठिन जरा । अर्जुन भलीभांति कृष्ण को जानता है। कृष्ण को कभी विचलित भी नहीं। कठिनाई सिर्फ एक है, सातत्य! ध्यान तो बहुत सरल है। नहीं देखा है। कृष्ण को कभी उदास नहीं देखा है। कृष्ण की बांसुरी लेकिन रोज कर सकोगे? कितने दिन कर सकोगे? तीन महीने, से कभी दुख का स्वर निकलते नहीं देखा है। कृष्ण सदा ताजे हैं। लोगों को कहता हूं कि सिर्फ तीन महीने सतत कर लो। मुश्किल से ___ इसीलिए तो आप, और विशेषकर आधुनिक युग के चिंतक और कभी कोई मिलता है, जो तीन महीने भी सतत कर पाता है। उब विचारक बड़ी मुश्किल में पड़ते हैं। वे कहते हैं, कृष्ण की बुढ़ापे जाता है, दस-पांच दिन बाद ऊब जाता है! की कोई तस्वीर क्यों नहीं है! ऐसा तो नहीं हो सकता कि कृष्ण बूढ़े बड़े आश्चर्य की बात है कि रोज अखबार पढ़कर नहीं ऊबता न हुए हों। जरूरी ही हुए होंगे। कोई नियम तो कृष्ण को छोड़ेगा जिंदगीभर। रोज रेडियो सुनकर नहीं ऊबता जिंदगीभर। रोज फिल्म नहीं। बुद्ध की भी बुढ़ापे की कोई तस्वीर नहीं है। अस्सी साल के देखकर नहीं ऊबता जिंदगीभर। रोज वे ही बातें करके नहीं ऊबता होकर मरे। महावीर की भी बुढ़ापे की कोई तस्वीर नहीं है। जरूर जिंदगीभर। ध्यान करके क्यों ऊब जाता है? आखिर ध्यान में ऐसी कहीं कोई भूल-चूक हो रही है। क्या कठिनाई है। लेकिन जो लोग ऐसा सोचते हैं, उन्हें इस मुल्क के चिंतन के ढंग कठिनाई एक ही है कि संसार की यात्रा पर प्रयत्न नहीं उबाता, का पता नहीं है। यह मुल्क तस्वीरें शरीरों की नहीं बनाता, मनोभावों प्राप्ति उबाती है। और परमात्मा की यात्रा पर प्रयत्न उबाता है, प्राप्ति | की बनाता है। कृष्ण कभी भी बूढ़े नहीं होते, कभी बासे नहीं होते; कभी नहीं उबाती। जो पा लेता है, वह तो फिर कभी नहीं ऊबता। सदा ताजे हैं। बूढ़े तो होते ही हैं, शरीर तो बूढ़ा होता ही है। शरीर इसलिए बुद्ध को मिला ज्ञान, उसके बाद वे चालीस साल जिंदा | तो जराजीर्ण होगा, मिटेगा। शरीर तो अपने नियम से चलेगा। पर थे। चालीस साल किसी आदमी ने एक बार उन्हें अपने ज्ञान से कृष्ण की चेतना अविचलित भाव से आनंदमग्न बनी रहती है, युवा ऊबते हुए नहीं देखा। कोहनूर हीरा मिल जाता चालीस साल, तो बनी रहती है। वह कृष्ण की चेतना सदा नाचती ही रहती है। ऊब जाते। संसार का राज्य मिल जाता, तो ऊब जाते। कृष्ण की हमने इतनी तस्वीरें देखी हैं। कई दफे शक होने लगता महावीर भी चालीस साल जिंदा रहे ज्ञान के बाद, फिर किसी है कि कृष्ण ऐसा एक पैर पर पैर रखे और बांसुरी पकड़े कितनी देर आदमी ने कभी उनके चेहरे पर ऊब की शिकन नहीं देखी। चालीस खड़े रहते होंगे। यह ज्यादा दिन नहीं चल सकता। यह कभी-कभी साल निरंतर उसी ज्ञान में रमे रहे, कभी ऊबे नहीं! कभी चाहा नहीं तस्वीर उतरवाने को, फोटोग्राफर आ गया हो, बात अलग है। कि अब कुछ और मिल जाए! बाकी ऐसे ही कृष्ण खड़े रहते हैं? । नहीं; परमात्मा की यात्रा पर प्राप्ति के बाद कोई ऊब नहीं है। नहीं, ऐसे ही नहीं खड़े रहते हैं। लेकिन यह आंतरिक बिंब है, यह लेकिन प्राप्ति तक पहुंचने के रास्ते पर अथक...। भीतरी तस्वीर है। यह खबर देती है कि भीतर एक नाचती हुई, इसलिए कृष्ण कहते हैं, बिना ऊबे श्रम करना कर्तव्य है, करने | प्रफुल्ल चेतना है, एक नृत्य करती हुई चेतना है, जो सदा नाच रही योग्य है। है। भीतर एक गीत गाता मन है, जो सदा बांसुरी पर स्वर भरे हुए है। यहां एक बात और खयाल में ले लेनी जरूरी है कि कृष्ण ऐसा ___ यह बांसुरी सदा ऐसी होंठ पर रखे बैठे रहते होंगे, ऐसा नहीं है। कहते हैं, अर्जुन कैसे माने और क्यों माने? कृष्ण कहते हैं, करने | यह बांसुरी तो सिर्फ खबर देती है भीतर की। ये तो प्रतीक हैं, योग्य है। अर्जुन कैसे माने और क्यों माने? अर्जुन को तो पता नहीं सिंबालिक हैं। ये गोपियां चारों वक्त, चारों पहर, चौबीस घंटे है। अर्जुन तो जब प्रयास करेगा, तो ऊबेगा, थकेगा। कृष्ण कहते हैं। आस-पास नाचती रहती होंगी, ऐसा नहीं है। ऐसा नहीं है कि कृष्ण इसलिए धर्म में ट्रस्ट का, भरोसे का एक कीमती मूल्य है। श्रद्धा इसी गोरखधंधे में लगे रहे। नहीं; ये प्रतीक हैं, बहुत आंतरिक का अर्थ होता है, ट्रस्ट। उसका अर्थ होता है, भरोसा। उसका अर्थ | प्रतीक हैं। 171 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 गीता दर्शन भाग-3 असल में इस मुल्क की मिथ, इस मुल्क के मिथिक, इस मुल्क के पुराण प्रतीकात्मक हैं। गोपियों से मतलब वस्तुतः स्त्रियों से नहीं है। स्त्रियां भी कभी कृष्ण के आस-पास नाची होंगी। कोई भी इतना प्यारा पुरुष पैदा हो जाए, स्त्रियां न नाचें, ऐसा मौका चूकना संभव नहीं है। स्त्रियां नाची होंगी। लेकिन यह प्रतीक कुछ और है। यह प्रतीक गहरा है। यह प्रतीक यह कह रहा है कि जैसे किसी पुरुष के आस-पास चारों तरफ सुंदर, प्रेम से भरी हुई, प्रेम करने वाली स्त्रियां नाचती रहें और वह जैसा प्रफुल्लित रहे, वैसे कृष्ण सदा हैं। वह उनका सदा होना है। वह उनका ढंग है होने का। जैसे चारों तरफ सौंदर्य नाचता हो, चारों तरफ गीत चलते हों, चारों तरफ संगीत हो, और घूंघर बजते हों, और चारों तरफ प्रियजन उपस्थित हों; और प्रेम की वर्षा होती हो, ऐसे कृष्ण चौबीस घंटे ऐसी हालत में जीते हैं। ऐसा चारों तरफ उनके हो रहा हो, ऐसे वे भीतर होते हैं। अर्जुन जानता है कृष्ण को भलीभांति। उदासी कभी उस चेहरे पर निवास नहीं बना पाई। आंखों ने उस चेहरे पर कभी हताशा नहीं देखी। उस व्यक्तित्व में कहीं कोई पड़ाव नहीं बन सका दुख का कभी। लेकिन अर्जुन को तो अभी भरोसा करना पड़ेगा, ट्रस्ट करना पड़ेगा कि कृष्ण कहते हैं, तो यात्रा की जाए। इसलिए कृष्ण कहते हैं, कर्तव्य । इसलिए कहते हैं, करने योग्य' है अर्जुन! करोगे, तो जान लोगे। नहीं करोगे, तो नहीं जान पाओगे। कुछ जानने ऐसे हैं, जो करने से ही मिलते हैं । और हम सब ऐसे लोग हैं कि हम सोचते हैं, जानने से ही जानना हो जाए। हम सोचते हैं, कुछ बात जान लें और ज्ञान हो जाए। कृष्ण कहते हैं, कर्तव्य है। अर्जुन! करोगे, तो जान पाओगे। करने से ही जानना आएगा। और करने की सबसे बड़ी कठिनाई वे गिना देते हैं साधक को, ऊब । ऊब जाओगे; दो दिन करोगे और ऊब जाओगे । हेरिगेल एक जर्मन विचारक जापान में था तीन वर्षों तक। एक फकीर के पास एक अजीब-सी बात सीख रहा था। सीखने गया था ध्यान, और उस फकीर ने सीखना शुरू करवाया धनुर्विद्या का रिगेल ने एक-दो दफे कहा भी कि मैं ध्यान सीखने जर्मनी से आया हूं और मुझे धनुर्विद्या से कोई प्रयोजन नहीं है। लेकिन उस फकीर ने कहा कि चुप! ज्यादा बातचीत नहीं। हम ध्यान ही सिखाते हैं। हम ध्यान ही सिखाते हैं। दो-चार दिन, आठ दिन, हेरिगेल का पाश्चात्य मन सोचने लगा, भाग जाऊं। किस तरह के आदमी के चक्कर में पड़ गया ! लेकिन एक आकर्षण रोकता भी था। उस आदमी की आंखों में कुछ कहता था कि वह कुछ जानता जरूर है। उसके उठने-बैठने में भनक मिलती थी कि वह कुछ जानता जरूर है। रात सोया भी पड़ा रहता और हेरिगेल उसे देखता, तो उसे लगता कि यह आदमी और लोगों जैसा नहीं सो रहा है। इसके सोने में भी कुछ भेद है ! तो भाग भी न सके, और कभी पूछने की हिम्मत जुटाए, वह फकीर होंठ पर अंगुली रख देता कि पूछना नहीं । धनुर्विद्या सीखो। एक साल बीत गया। सोचा हेरिगेल ने कि ठीक है; अब कोई उपाय नहीं है। इस आदमी से जाया भी नहीं जा सकता; इससे भागा भी नहीं जा सकता। नहीं तो यह फिर जिंदगीभर पीछा करेगा, इसका | स्मरण रहेगा कि उस आदमी के पास था जरूर कुछ, कोई हीरा भीतर था, जिसकी आभा उसके शरीर से भी चमकती थी। मगर | कैसा पागल आदमी है कि मैं ध्यान सीखने आया हूं, वह धनुर्विद्या सिखा रहा है ! तो सोचा कि सीख ही लो, तो झंझट मिटे । सालभर उसने अथक मेहनत की और वह कुशल धनुर्धर हो गया। उसके निशान सौ प्रतिशत ठीक लगने लगे। उसने एक दिन | कहा कि अब तो मेरे निशान भी बिलकुल ठीक लगने लगे। अब मैं धनुर्विद्या भी सीख गया। अब वह ध्यान के संबंध में कुछ पूछ सकता हूं? उसके गुरु ने कहा कि अभी धनुर्विद्या कहां सीखे ? निशान ठीक लगने लगा, लेकिन असली बात नहीं आई। उसने कहा कि निशान ही तो असली बात है! अब मैं सौ प्रतिशत ठीक निशाना मारता हूं। एक भी चूक नहीं होती। अब और क्या सीखने को बचा ? उसके गुरु | ने कहा कि नहीं महाशय ! निशाने से कुछ लेना-देना नहीं है। जब तक तुम तीर चलाते वक्त मौजूद रहते हो, तब तक मैं न मानूंगा कि तुम धनुर्विद्या सीख गए। ऐसे चलाओ तीर, जैसे कि तुम नहीं हो। उसने कहा कि अब बहुत कठिन हो गया। अभी तो हम आशा रखते थे कि साल छः महीने में सीख जाएंगे, अब यह बहुत कठिन हो गया । यह कैसे हो सकता है कि मैं न रहूं! तो तीर चलाएगा | कौन? और आप कहते हो कि तुम न रहो और तीर चले! एब्सर्ड | है। तर्कयुक्त नहीं है। कोई भी गणित को थोड़ा समझने वाला, तर्क को थोड़ा समझने वाला कहेगा कि पागल के पास पहुंच गए। अभी भी भाग जाना चाहिए। लेकिन सालभर उस आदमी के पास रहकर भागना निश्चित और मुश्किल हो गया, क्योंकि आठ दिन बाद ही भागना मुश्किल 172 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < दुखों में अचलायमान - था। सालभर में तो उस आदमी की न मालूम कितनी प्रतिमाएं छोड़। समय बाधा है ध्यान में। हेरिगेल के हृदय में अंकित हो गई। सालभर में तो वह आदमी | असल में समय क्या है? हमारा अधैर्य समय है। जो टाइम उसके प्राणों के पोर-पोर तक प्रवेश कर गया। भरोसा करना ही कांशसनेस है, वह समय का जो बोध है, वह अधैर्य के कारण है। पड़ेगा, और आदमी बिलकुल पागल मालूम होता है। इसलिए जो समाज जितना अधैर्यवान हो जाता है, उतना टाइम उस फकीर ने कहा, तू जल्दी मत कर। जरूर वह वक्त आ | | कांशस हो जाता है। जो समाज जितना धीरज से बहता है, उतना जाएगा, जब तू मौजूद नहीं रहेगा और तीर चलेगा। और जिस दिन समय का बोध नहीं होता। तू मौजूद नहीं है और तीर चलता है, उसी दिन ध्यान आ जाएगा। अभी पश्चिम बहुत टाइम कांशस हो गया है। एक-एक सेकेंड, क्योंकि स्वयं को पूरी तरह अनुपस्थित कर लेने की कला ही ध्यान | एक-एक सेकेंड आदमी बचा रहा है; बिना यह जाने कि बचाकर है, टु बी एब्सेंट टोटली। करिएगा क्या? बचाकर करिएगा क्या? माना कि एक सेकेंड और जिस क्षण कोई स्वयं को पूरी तरह अनुपस्थित कर लेता आपने बचा लिया और कार एक सौ बीस मील की रफ्तार से चलाई है, परमात्मा प्रवेश कर जाता है। परमात्मा के लिए भी जगह तो और जान जोखम में डाली और दो-चार सेकेंड आपने बचा लिए, खाली करिएगा अपने घर के भीतर! आप इतने भरे हुए हैं कि फिर करिएगा क्या? फिर उन दो-चार सेकेंड से और कार परमात्मा आना भी चाहे, तो कहां से आए? उसको ठहरने लायक दौड़ाइएगा! और करिएगा क्या? जगह भी भीतर चाहिए; उतनी जगह भी भीतर नहीं है! हम इतने | लेकिन समय का बोध आता है भीतर के तनावग्रस्त चित्त से। ज्यादा अपने भीतर हैं, टू मच, कि वहां कोई रत्तीभर भी स्थान नहीं | | इसलिए बड़े मजे की बात है कि आप जितने ज्यादा दुखी होंगे, है, स्पेस नहीं है। | समय उतना बड़ा मालूम पड़ेगा। घर में कोई मर रहा है और खाट उस फकीर ने कहा, तू जल्दी मत कर। तू कुछ वक्त लगा और के पास आप बैठे हैं, तब आपको पता चलेगा कि रात कितनी लंबी यह तीर निशान पर लगाने की बात न कर। निशान न भी लगा, तो होती है। बारह घंटे की नहीं होती, बारह साल की हो जाती है। दुख चलेगा। उस तरफ निशान चूक जाए, चूक जाए; इस तरफ निशान | का क्षण एकदम लंबा मालूम पड़ने लगता है, क्योंकि चित्त बहुत न चूके। उसने कहा, इस तरफ के निशान का मतलब? कि इस | तनाव से भर जाता है। सुख का क्षण बिलकुल छोटा मालूम पड़ने तरफ करने वाला मौजूद न रहे, खाली हो जाए। तीर उठे और चले, | | लगता है। प्रियजन से मिले हैं और विदा का वक्त आ गया, और और तू न रहे। लगता है, अभी तो घड़ी भी नहीं बीती थी और जाने का समय आ एक साल और उसने मेहनत की। पागलपन साफ मालूम होने | | गया! समय बहुत छोटा हो जाता है। लगा। रोज उठाता धनुष और रोज गुरु कहता कि नहीं; अभी वह | __ हेरिगेल का वह गुरु कहने लगा कि समय की बात बंद कर, नहीं बात नहीं आई। निशान ठीक लगते जाते, और वह बात न आती। तो ध्यान में कभी नहीं पहुंच पाएगा। एक साल बीत गया। भागना चाहा, लेकिन भागना और मुश्किल | ध्यान का अर्थ ही है, समय के बाहर निकल जाना। हो गया। वह आदमी और भरोसे के योग्य मालूम होने लगा। इन | रुक गया। अब इस आदमी से भाग भी नहीं सकता। यही ट्रस्ट, दो सालों में कभी उस आदमी की आंख में रंचमात्र चिंता न देखी। | श्रद्धा का मैं अर्थ कह रहा हूं आपसे। श्रद्धा का अर्थ है कि आदमी कभी उसे विचलित होते न देखा। सुख में, दुख में, सब स्थितियों | | की बात भरोसे योग्य नहीं मालूम पड़ती, पर आदमी भरोसे योग्य में उस आदमी को समान पाया। वर्षा हो कि धूप, रात हो कि दिन, | | मालूम पड़ता है। श्रद्धा का अर्थ है, बात भरोसे योग्य नहीं मालूम पाया कि वह आदमी कोई अडिग स्थान पर खड़ा है, जहां कोई | | पड़ती, लेकिन आदमी भरोसे योग्य मालूम पड़ता है। बात तो ऐसी कंपन नहीं आता। लगती है कि कुछ गड़बड़ है। लेकिन आदमी ऐसा लगता है कि __ भागना मुश्किल है। लेकिन बात पागलपन की हुई जाती है। दो इससे ठीक आदमी कहां मिलेगा! तब श्रद्धा पैदा होती है। साल खराब हो गए! गुरु से फिर एक दिन कहा कि दो साल बीत, अब कृष्ण जो कह रहे हैं अर्जुन से, वह बात तो बिलकुल ऐसी गए! उसके गुरु ने कहा कि समय का खयाल जब तक तू रखेगा, लगती है कि जब कोई दुख विचलित न कर सकेगा, संसार से सब तब तक खुद को भूलना बहुत मुश्किल है। समय का जरा खयाल संसर्ग टूट जाएगा; पीड़ा-दुख, सबके पार उठ जाएगा मन। ऐसा 1173 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 मालूम तो नहीं पड़ता। जरा-सा कांटा चुभता है, तो भी संसर्ग टूटता लगता है कि तीर हाथ को उठवा रहा है। ऐसा नहीं लगता कि नहीं मालूम पड़ता। इस विराट संसार से संसर्ग कैसे टूट जाएगा? | प्रत्यंचा को हाथ खींच रहे हैं, बल्कि ऐसा लगता है, चूंकि प्रत्यंचा कैसे इसके पार हो जाएंगे दुख के? दुख के पार होना असंभव खिंच रही है, इसलिए हाथ खिंच रहे हैं। तीर चल गया, ऐसा नहीं मालूम पड़ता है। लेकिन कृष्ण आदमी भरोसे के मालूम पड़ते हैं। | लगता कि उसने किसी निशाने के लिए भेजा है, बल्कि ऐसा लगता वे जो कह रहे हैं, जानकर ही कह रहे होंगे। | है कि निशाने ने तीर को अपनी तरफ खींच लिया है। हेरिगेल और रुक गया, एक साल और। लेकिन तीन साल! उठा। दौड़कर गरु के चरणों में गिर पड़ा। हाथ से प्रत्यंचा ले उसके बच्चे उसकी पत्नी वहां से पकार करने लगे कि अब बहतली . तीर उठाया और चलाया। गरु ने उसकी पीठ थपथपाई और हो गया, तीन साल बहुत हो गए ध्यान के लिए! वह भी जर्मन पत्नी | कहा कि आज! आज तू जीत गया। आज तूने इस तरह तीर चलाया थी, तीन साल रुकी। हिंदुस्तानी होती, तो तीन दिन मुश्किल था। कि तू मौजूद नहीं है। यही ध्यान का क्षण है। तीन साल बहुत वक्त होता है। वह चिल्लाने लगी कि अब आ हेरिगेल ने कहा, लेकिन आज तक यह क्यों न हो पाया? तो जाओ। अब यह कब तक और! अभी वह लिखता जा रहा है कि | | उसके गुरु ने कहा, क्योंकि तू जल्दी में था। आज तू कोई जल्दी में अभी तो शुरुआत भी नहीं हुई। गुरु कहता है कि नाट ईवेन दि नहीं था। क्योंकि तू करना चाहता था। आज करने का कोई सवाल बिगनिंग, अभी तो शुरुआत भी नहीं हुई। और तू बुलाने के पीछे | | न था। क्योंकि अब तक तू चाहता था, सफल हो जाऊं। आज पड़ी है! | सफलता-असफलता की कोई बात न थी। तू बैठा हुआ था, जस्ट आखिर जाना पड़ा। तो उसने एक दिन गुरु को कहा कि अब मैं | | वेटिंग, सिर्फ प्रतीक्षा कर रहा था। लौट जाता हूं, यह जानते हुए कि आप जो कहते हैं, ठीक ही कहते | __ अथक श्रम का अर्थ है, प्रतीक्षा की अनंत क्षमता। कब घटना होंगे. क्योंकि आप इतने ठीक हैं। यह जानते हए कि इन तीन वर्षों घटेगी, नहीं कहा जा सकता। कब घटेगी? क्षण में घट सकती है; में बिना जाने भी मेरे भीतर क्रांति घटित हो गई है। और अभी आप और अनंत जन्मों में न घटे। कोई प्रेडिक्टेबल नहीं है मामला। कोई कहते हैं कि दिस इज़ नाट ईवेन दि बिगनिंग, यह अभी शुरुआत | घोषणा नहीं कर सकता कि इतने दिन में घट जाएगी। और जिस बात भी नहीं है। और मैं तो इतने आनंद से भर गया हूं। अभी शुरुआत | | की घोषणा की जा सके, जानना कि वह क्षुद्र है और आदमी की भी नहीं है, तो मैं सोचता हूं कि जब अंत होता होगा, तो किस परम | | घोषणाओं के भीतर है। परमात्मा आदमी की घोषणाओं के बाहर है। आनंद को उपलब्ध होते होंगे! लेकिन दुखी हूं कि मैं आपको तृप्त | | हम सिर्फ प्रतीक्षा कर सकते हैं। प्रयत्न कर सकते हैं और प्रतीक्षा न कर पाया; मैं असफल जा रहा हूं। मैं इस तरह तीर न चला पाया कर सकते हैं। और ऊब गए, तो खो जाएंगे। और ऊब पकड़ेगी। कि मैं न मौजूद रहूं और तीर चल जाए। तो मैं कल चला जाता हूं। | ऊब बुरी तरह पकड़ती है। सच तो यह है कि जितने लोग मंदिरों गुरु ने कहा कि तुम चले जाओ। जाने के पहले कल सुबह मुझसे | | और मस्जिदों में आपको ऊबे हुए दिखाई पड़ेंगे, उतने कहीं न मिलते जाना। | दिखाई पड़ेंगे। मधशालाओं में भी उनके चेहरों पर थोडी रौनक दोपहर उसका हवाई जहाज जाएगा, वह सुबह गुरु के पास पुनः | | दिखेगी, मंदिरों में वह भी नहीं दिखेगी। होटलों में बैठकर वे जितने गया। आज कोई उसे तीर चलाना नहीं है। वह अपनी प्रत्यंचा, | ताजे दिखाई पड़ते हैं, उतने भी मस्जिदों और गुरुद्वारों में दिखाई नहीं अपने तीर, सब घर पर ही फेंक गया है। आज चलाना नहीं है; | पड़ते। ऊबे हुए हैं! जम्हाइयां ले रहे हैं! सो रहे हैं! आज तो सिर्फ गुरु से विदा ले लेनी है। वह जाकर बैठ गया है। मैंने सुना है कि एक चर्च में एक पादरी बोल रहा है। एक आदमी गुरु किसी दूसरे शिष्य को तीर चलाना सिखा रहा है। बेंच पर जोर से घुर्राटे लेने लगा, सो गया है। पादरी उसके पास आया और वह बैठ गया है। गुरु ने तीर उठाया है, प्रत्यंचा पर चढ़ाया है, तीर कहा कि भाई जान, थोड़ा धीरे से घुर्राटे लें, क्योंकि दूसरे लोगों की चला। और हेरिगेल ने पहली दफा देखा कि गुरु मौजूद नहीं है, तीर नींद न टूट जाए! पूरा चर्च ही सो रहा है। चल रहा है। मौजूद नहीं है का मतलब यह नहीं कि वहां नहीं है, | | मंदिरों में लोग सो रहे हैं। धर्मसभाओं में लोग सो रहे हैं। ऊबे वहां है। लेकिन उसके हाव-भाव में कहीं भी कोई एफर्ट, कहीं कोई हुए हैं; जम्हाइयां ले रहे हैं। कैसे, फिर कैसे होगा? प्रयास, ऐसा नहीं लगता कि हाथ तीर को उठा रहे हैं, बल्कि ऐसा कृष्ण कहते हैं, अथक! बिना ऊबे श्रम करना पड़े योग का। 174 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ <दुखों में अचलायमान - हां, एक ही भरोसे की बात कही जा सकती है कि वे जो कह रहे ऊबने में भी ताकत खर्च होती है। ऊबने में भी ताकत खर्च होती हैं, प्राप्ति पर जीवन की सारी खोज पूरी हो जाती है। और प्राप्ति पर है; उस ताकत को भी श्रम में लगा देना। जब ऊब पकड़े मन को, फिर कभी ऊब नहीं आती। तो और तेजी से श्रम करना। अगर ऊब पकड़े मन को, तो बैठकर और ध्यान रहे, प्रयत्न में ऊब आ जाए तो हर्जा नहीं, प्राप्ति में | ध्यान मत करना, दौड़कर ध्यान करना।। ऊब नहीं आनी चाहिए। अन्यथा जीवनभर का श्रम व्यर्थ गया। और बुद्ध दो तरह का ध्यान करवाते थे भिक्षुओं को। कहते थे, एक इस संसार में प्रयत्न में तो बड़ा रस रहता है और पा लेने पर कुछ | घंटा बैठकर करो; और जैसे ही तुम्हें लगे कि ऊब पकड़ी, कि हाथ नहीं लगता, और ऊब आ जाती है। दौड़कर करो। जानते थे कि ऊब तो पकड़ेगी ही। तो पहले बैठकर लेकिन यह बात ट्रस्ट पर ही ली जा सकती है, भरोसे पर ही। करो, फिर चलकर करो। यह श्रद्धा का ही सूत्र है। अगर आप कभी बुद्धगया गए हों, तो आज भी वे पत्थर लगे पर कृष्ण किसी को धोखा किसलिए देंगे? कोई प्रयोजन तो नहीं हुए हैं, जहां बुद्ध घंटों चलते रहते थे। बोधिवृक्ष के नीचे बैठते, है। बुद्ध किसलिए लोगों को धोखा देंगे? महावीर किसलिए लोगों फिर चलते। फिर बैठते, फिर चलते। फिर बैठते, फिर चलते। को धोखा देंगे? क्राइस्ट या मोहम्मद किसलिए लोगों को धोखा आज भी बर्मा, थाईलैंड जैसे मुल्कों में, जहां बुद्ध के ध्यान केंद्र देंगे? कोई भी तो प्रयोजन नहीं है। फिर एकाध आदमी धोखा देता, अभी भी थोड़ा-बहुत काम करते हैं, वहां भिक्षु एक घंटा बैठकर तो भी ठीक था। इस पृथ्वी पर न मालूम कितने लोग! किसलिए ध्यान करेगा, फिर दूसरे घंटे चलेगा। फिर बैठकर ध्यान करेगा, धोखा देंगे? फिर तीसरे घंटे चलेगा। फिर बैठकर ध्यान करेगा। जब भी बैठकर और फिर मजे की बात यह है कि ये लोग अगर धोखा देने वाले देखेगा कि जरा-सी ऊब का क्षण आया, फौरन उठकर चलने लोग होते, तो इतनी शांति और इतने आनंद और इतनी मौज और लगेगा। ऊबेगा नहीं। ऊब नहीं आने देगा! इतने रस में नहीं जी सकते थे। कोई धोखा देने वाला जीता हुआ और अगर आपने तय कर लिया है कि ऊब को नहीं आने देंगे, दिखाई नहीं पड़ता। ये जो कह रहे हैं, कुछ जानकर कह रहे हैं। | तो आप थोड़े ही दिन में पाएंगे कि आप ऊब का अतिक्रमण कर लेकिन इस जानने के लिए आपको कुछ करना पड़ेगा। अगर आप गए। अब आप अथक योग में प्रवेश कर सकते हैं। सोचते हैं कि सुनकर, पढ़कर, स्मृति से, समझ से काम हो जाएगा, तो कुछ भी काम नहीं होगा। कुछ करना पड़ेगा। और ध्यान रहे, श्रम का एक कदम भी उतने दूर ले जाता है, संकल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः। जितने विचार के हजार कदम भी नहीं ले जाते। विचार में आप वहीं मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ।। २४ ।। खड़े रहते हैं। सिर्फ हवा में पैर उठाते रहते हैं; कहीं जाते नहीं। श्रम शनैः शनैरुपरमेद्बुद्ध्या धृतिगृहीतया। का एक कदम भी दूर ले जाता है। और एक-एक कदम कोई चले, आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत् । । २५ ।। तो लंबी से लंबी यात्रा पूरी हो जाती है। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि संकल्प से उत्पन्न होने वाली लेकिन इस बड़ी यात्रा में सबसे बड़ी बाधा आपकी ऊब से पड़ेगी, संपूर्ण कामनाओं को निःशेषता से अर्थात वासना और आपके घबड़ा जाने से पड़ेगी, कि पता नहीं, पता नहीं कुछ होगा कि आसक्ति सहित त्यागकर और मन के द्वारा इंद्रियों के नहीं होगा! आपकी प्रतीक्षा जल्दी ही थक जाएगी। उससे सबसे बड़ी समुदाय को सब ओर से ही अच्छी प्रकार वश में करके, कठिनाई पड़ेगी। साधक के लिए ऊब सबसे बड़ी बाधा है। क्रम-क्रम से अभ्यास करता हुआ उपरामता को प्राप्त होवे यह अगर स्मरण रहे, तो जब भी आप ऊब जाएं, तब थोड़े तथा धैर्ययुक्त बुद्धि द्वारा मन को परमात्मा में स्थित करके सजग होकर देखना कि ऊब मन को पकड़ रही है, तुड़वा देगी सारी परमात्मा के सिवाय और कुछ भी चिंतन न करे। व्यवस्था को। तो ऊब से बचना। और जब ऊब पकड़े तो और जोर से श्रम करना, तो ऊब की जो ताकत है, वह भी श्रम में कनवर्ट होती है, वह भी श्रम में लग जाती है। परम 7 रमात्मा के सिवाय और कुछ भी चिंतन न करे, यही 1175 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 गीता दर्शन भाग-3> इस सूत्र का सार है। शेष सब कृष्ण ने पुनः दोहराया है। कामनाओं कृष्ण और बुद्ध जैसे आदमी को दोहराना पड़ता है। बार-बार वही को वश में करके, मन के पार होकर, इंद्रियों के अतीत उठकर, बात दोहरानी पड़ती है। फिर नए कोण से वही बात कहनी पड़ती संकल्प-विकल्प से दूर होकर-सब जो उन्होंने पहले कहा है, पुनः है। शायद सुन ली जाए। दोहराया है। और अंत में, सदा परमात्मा के चिंतन में लीन रहे। । | और एक कारण है। सुनने के भी क्षण हैं, मोमेंट्स। नहीं कहा दो बातें। एक, कृष्ण क्यों बार-बार वही-वही बात दोहराते हैं? जा सकता कि किस क्षण आपकी चेतना द्वार दे देगी। किस क्षण इतना रिपीटीशन, इतनी पुनरुक्ति क्यों है ? बुद्ध ने तो इतने वचन | आप उस स्थिति में होंगे कि आपके भीतर शब्द प्रवेश कर जाए, दोहराए हैं कि बुद्ध के जो नए वचनों के संग्रह प्रकाशित हुए हैं, नहीं कहा जा सकता। उनको संपादित करने वाले लोगों को बड़ी कठिनाई पड़ी। क्योंकि | अमेरिका में एक बहुत बड़ा करोड़पति, अरबपति था, अगर बुद्ध के ही हिसाब से पूरे वचन कहे जाएं, तो संग्रह कम से रथचाइल्ड। उससे किसी नए युवक ने, संपत्ति के तलाशी ने पूछा कम दस गुना बड़ा होगा। इतनी बार वचन दोहराए हैं कि फिर कि आपकी सफलता का रहस्य क्या है? तो रथचाइल्ड ने कहा कि संपादित करने वाले लोग वचन लिख देते हैं और बाद में डिट्टो | मेरी सफलता का एक ही रहस्य है कि मैं किसी अवसर को चूकता . निशान लगाते जाते हैं कि वही, जो ऊपर कहा है, फिर कहा। वही, नहीं, छलांग मारकर अवसर को पकड़ लेता हूं। पर, उस आदमी जो ऊपर कहा है, फिर कहा। दस गुना छंटाव करना पड़ता है। । ने कहा कि यह पता कैसे चलता है कि यह अवसर है? और जब लेकिन संपादन करने वाले लोगों से बुद्ध ज्यादा बुद्धिमान थे। तक पता चलता है, तब तक तो अवसर हाथ से निकल जाता है। इतने दोहराने की बात क्या हो सकती है? इस दोहराने का...कृष्ण तो छलांग मारने का मौका कैसे मिलता है ? रथचाइल्ड ने कहा कि भी क्या गीता में कुछ सूत्र दोहराए चले जा रहे हैं। फिर, और फिर, मैं खड़ा रहता ही नहीं; मैं तो छलांग लगाता ही रहता हूं। जब और फिर। बात क्या है? अर्जुन बहरा है? | अवसर आता है, उस पर सवार हो जाता हूं। मैं छलांग लगाता ही होना चाहिए। सभी श्रोता होते हैं। सुनता हुआ मालूम पड़ता है, | रहता हूं। अवसर के लिए रुका नहीं रहता कि जब आएगा, तब शायद सुन नहीं पाता। बिलकुल दिखाई पड़ता है कि सुन रहा है, | | छलांग लगाऊंगा। एक सेकेंड चूके, कि गए। हम तो छलांग लगाते लेकिन कृष्ण को दिखाई पड़ता होगा उसके चेहरे पर कि नहीं सुना।। रहते हैं। अवसर आया, हम सवार हो जाते हैं। । फिर दोहराना पड़ता है। ठीक ऐसे ही व्यक्ति की चेतना में कोई क्षण होते हैं, जब द्वार ये किताबें लिखी गई नहीं हैं, बोली गई हैं। दुनिया में जो भी खुलता है। श्रेष्ठतम सत्य हैं, वे लिखे हुए नहीं हैं, बोले हुए हैं। वह चाहे कुरान तो कृष्ण जैसे व्यक्ति तो कहे चले जाते हैं सत्य को। अर्जुन के हो, कि चाहे बाइबिल, कि चाहे गीता, चाहे धम्मपद। जो भी चारों तरफ गुंजाते चले जाते हैं सत्य को। पता नहीं कब, किस क्षण श्रेष्ठतम सत्य इस जगत में कहे गए हैं, वे बोले गए सत्य हैं। वे में अर्जुन की चेतना उस बिंदु पर आ जाए, उस ट्यूनिंग पर, जहां किसी के लिए एड्रेस्ड हैं। कोई सामने मौजूद है, जिसकी आंखों में आवाज सुनाई पड़ जाए और सत्य भीतर प्रवेश कर जाए! इसलिए कृष्ण देख रहे हैं कि कहा मैंने जरूर, लेकिन सुना नहीं। इतना दोहराना पड़ता है। ___ जीसस तो बहुत जगह बाइबिल में कहते हैं-बहुत जगह कहते पर दोहराने में भी हर बार वे कोई एक नई बात साथ में जोड़ते हैं—कान हैं तुम्हारे पास, लेकिन सुन सकोगे क्या? आंख है चले जाते हैं। हर बार कोई एक नया सत्य, कोई एक नया इंगित। तुम्हारे पास, लेकिन देख सकोगे क्या? बार-बार कहते हैं कि नहीं तो अर्जुन भी उनसे कहेगा कि आप क्या वही-वही बात जिनके पास कान हों, वे सुन लें। जिनके पास आंख हो, वे देख दोहराते हैं! लें। तो क्या अंधों और बहरों के बीच बोलते होंगे? ___ मजा यह है कि जो बिलकुल नहीं सुनते, वे भी इतना तो समझ नहीं; इतने अंधे और बहरे तो कहीं भी नहीं खोजे जा सकते कि ही लेते हैं कि बात दोहराई जा रही है। जिनकी समझ में कुछ भी सारी बाइबिल उन्हीं के लिए उपदेश दी जाए। हमारे जैसे ही लोगों नहीं आता, वे भी शब्द तो सुन ही लेते हैं। उनको यह तो पता चल के बीच बोल रहे होंगे, जिनके कान भी ठीक मालूम पड़ते हैं, आंख ही जाता है कि आपने यही बात पहले कही थी, वही बात आप अब भी ठीक मालूम पड़ती है, फिर भी कहीं कोई बात चूक जाती है। तो भी कह रहे हैं। शब्द पुनरुक्त हो रहे हैं, यह जानने के लिए समझ 1176/ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + दुखों में अचलायमान > आवश्यक नहीं है, केवल स्मृति काफी है। प्यास सदा मौजूद रहती है। तो इसलिए कृष्ण या बुद्ध फिर वही शब्द दोहराते हैं, लेकिन फिर | अगर एक आदमी धन की तलाश में जाता है, तो बहुत ठीक से कुछ नया इशारा जोड़ते हैं। शायद उस नए इशारे से कुंजी पकड़ में समझें तो भी वह प्रभु की तलाश में ही जाता है, गलत दिशा में। आ जाए और अर्जुन का ताला खुल जाए। इसमें नया शब्द जोड़ते | क्योंकि धन से लगता है, प्रभुता मिल जाएगी। धन से लगता है, हैं, प्रभु का सतत चिंतन। | प्रभुता मिल जाएगी। बहुत होगा धन, तो दीनता न रह जाएगी; प्रभु इसमें दो बातें समझने जैसी हैं। एक तो, प्रभु का। हो जाएंगे; मालकियत हो जाएगी। जिसे हम नहीं जानते, उसका चिंतन कैसे करेंगे? जिसे हम एक आदमी पद की तलाश करता है कि राष्ट्रपति हो जाऊं; जानते ही नहीं, उसका हम चिंतन कैसे करेंगे? क्या करेंगे चिंतन ? | | राष्ट्रपति के सिंहासन पर बैठ जाऊं। गलत व्याख्या कर रहा है वह। दूसरी बात, चिंतन का अर्थ? मन में तो परम पद पर पहुंचने की आकांक्षा है कि उस पद पर पहुंच चिंतन का अर्थ विचार नहीं है। क्योंकि विचार तो उसका ही होता जाऊं, जिसके ऊपर कोई पहुंचने की जगह न रह जाए। लेकिन वह है, जो ज्ञात है, नोन है। अज्ञात का कोई विचार नहीं होता। यहीं की छोटी-बड़ी कुर्सियां चढ़ रहा है! बड़ी से बड़ी कुर्सी पर _ चिंतन का कुछ और अर्थ है। वह समझ में आ जाए तो प्रभु का | खड़े होकर भी पाएगा, कहीं नहीं पहुंचा। सिर्फ एक जगह पहुंचा चिंतन खयाल में आ जाए। समझें, आपको प्यास लगी है। आप | है, जहां से अब कोई गिराएगा–सिर्फ एक जगह पहुंचा है। पच्चीस काम में लगे रहें, तो भी प्यास का चिंतन भीतर चलता | क्योंकि नीचे दूसरे चढ़ रहे हैं। वे टांगें खींच रहे हैं। रहेगा। विचार नहीं। विचार तो आप दूसरा कर रहे हैं। हो सकता उसको वे पालिटिक्स.कहते हैं; या और कुछ नाम दें। एक-दूसरे है, हिसाब लगा रहे हैं, खाता-बही कर रहे हैं, किसी से बात कर | की टांग को खींचने का नाम पालिटिक्स! और जितने ऊपर आप रहे हैं। लेकिन भीतर एक अनुधारा, एक अनुचिंतन, एक बारीक गए, उतने ज्यादा लोग आपकी टांग खींचेंगे। क्योंकि आप अकेले अंडर करेंट, भीतर प्यास की चलती रहेगी। कोई भीतर बार-बार | रह जाएंगे और चढ़ने वाले बहुत हो जाएंगे। कहता रहेगा, प्यास लगी है, प्यास लगी है, प्यास लगी है। __लाओत्से ने कहा है कि हमको कोई नीचे कभी न उतार पाया, ___ यह मैं आपसे कह रहा हूं, इसलिए शब्द का उपयोग कर रहा | क्योंकि हमने कहीं चढ़ने की कोशिश ही नहीं की। हूं। वह जो आपके भीतर है, वह शब्द का उपयोग नहीं करेगा। वह | अगर ऐसा करें, तो ठीक है। नहीं तो कोई न कोई खींचेगा। तो प्यास की ही चोट करता रहेगा कि प्यास लगी है। शब्द का लेकिन वह जो पद की आकांक्षा है, वह जो पावर की, शक्ति की उपयोग नहीं करेगा, वह यह नहीं कहेगा कि प्यास लगी है। प्यास आकांक्षा है, वह भी वस्तुतः प्रभुता की आकांक्षा है। ही लगती रहेगी। फर्क आप समझ रहे हैं? नेपोलियन से कोई पूछ रहा था कि कानून की क्या व्याख्या है? . अगर आप कहें कि प्यास लगी है, प्यास लगी है, प्यास लगी व्हाट इज़ दि ला? तो नेपोलियन ने कहा, आई एम दि ला, मैं हूं है, तो यह विचार हुआ। और अगर प्यास ही लगती रहे; सब काम कानून। जारी रहे, विचार जारी रहे और भीतर एक खटक, एक चोट, द्वार ___ अब ऐसा सिर्फ प्रभु कह सकता है, परमात्मा, कि मैं हूं कानून। पर कोई कुंडी खटखटाता रहे, शब्द में नहीं, अनुभव में; प्यास, | | नेपोलियन कह रहा है! और उसे पता नहीं कि हृदय की धड़कन प्यास भीतर उठती रहे, तो चिंतन हुआ। अभी बंद हो जाए, तो आई एम दि ला कुछ काम न करे; मैं कानून प्रभु का विचार तो हम कर ही नहीं सकते। लेकिन प्रभु की प्यास हूं, कुछ काम न करे। और जिस दिन उसने यह बात कही, उसके हम सबके भीतर है। हालांकि हममें से बहुत कम लोगों ने पहचाना | | थोड़े ही दिन बाद वह हार गया। और बड़ी छोटी-सी चीज से हारा, है कि प्रभु की प्यास हमारे भीतर है। लेकिन हम सबके भीतर है। | बिल्लियों से! कोई आदमी प्रभु-प्यास के बिना पैदा ही नहीं होता, हो नहीं सकता। । नेपोलियन छोटा बच्चा था, तो एक छ: महीने का बच्चा था जब हां, यह हो सकता है कि वह अपनी प्रभु-प्यास की व्याख्या कुछ | | नेपोलियन, तो एक बिलाव ने जंगली बिलाव ने उसकी छाती पर और कर ले। और वह प्रभु-प्यास की व्याख्या करके कुछ और पंजा मार दिया था। नौकरानी इधर-उधर हट गई थी, जैसा कि खोजने निकल जाए। मिस-इंटरप्रिटेशन हो सकता है; लेकिन | | नौकरानियां हट जाती हैं। बिल्ली ने पंजा मार दिया। भागी नौकरानी 17 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 आई। बिल्ली तो हट गई। लेकिन छः महीने के बच्चे पर बिल्ली का पंजा बैठ गया । वह जो बाद में कहता था, आई एम दिला, वह सिर्फ बिल्ली का पंजा था उसकी छाती में, कोई कानून नहीं था। फिर वह बहादुर आदमी सिद्ध हुआ। शेर से लड़ सकता था, लेकिन बिल्ली से डरता था। वह छः महीने में जो कानून बनकर बैठ गई थी बिल्ली ! बिल्ली को देखता था तो छः महीने के बच्चे की हैसियत हो जाती थी उसकी, रिग्रेस कर जाता । कभी हारा नहीं था । लेकिन उसके दुश्मन ने, नेल्सन ने, जो उसके खिलाफ लड़ने आया था, पता लगा लिया कि उसकी कमजोरी बिल्ली है। तो सत्तर बिल्लियां नेल्सन अपनी युद्ध की फौज के सामने बांधकर लाया। और जब नेपोलियन ने बिल्लियां देखीं, तो जैसा अर्जुन ने कृष्ण से कहा कि हे कृष्ण, मेरा गांडीव धनुष शिथिल हो गया; मेरे गात शिथिल हुए जाते हैं, पसीना छूट रहा है। अब मेरी हिम्मत नहीं होती। ऐसा ही नेपोलियन ने अपने सेनापति से कहा कि तू सम्हाल। बिल्लियों को देखकर मेरे गात शिथिल हुए जाते हैं! हार गया उसी सांझ । और जिसने पंद्रह दिन पहले कहा था, आई एम दि ला, वह पंद्रह दिन बाद हेलेना के द्वीप पर कैद था कारागृह में। सुबह घूमने निकला था। छोटा-सा द्वीप। द्वीप पर उसको मुक्त रखा गया था, क्योंकि छोटे द्वीप के बाहर भाग नहीं सकता था । द्वीप पर कारागृह था, पूरा द्वीप ही उसके लिए कारागृह था। सुबह घूमने निकला था। छोटी-सी पगडंडी है जंगल की और एक घास वाली औरत एक बड़ा घास का गट्ठर लिए उस तरफ से आती थी। नेपोलियन के साथ। एक चिकित्सक रखा गया था, क्योंकि नेपोलियन जो कि कभी भी बीमार नहीं पड़ा था, हारते ही इस बुरी तरह बीमार पड़ गया, जिसका कोई हिसाब नहीं । सभी राजनीतिज्ञ पड़ जाते हैं, हारते ही! ज्यादा दिन जिंदगी नहीं रहती फिर। फिर मौत बड़ी जल्दी करीब आ जाती है। तो चिकित्सक साथ था। दोनों चल रहे थे। चिकित्सक तो भूल गया, चिल्लाकर जोर से कहा कि ओ घसियारिन ! रास्ता छोड़ । लेकिन घसियारिन क्यों रास्ता छोड़े? हो कौन तुम, जिसके लिए रास्ता छोड़े! घसियारिन तो बढ़ी चली आई। तब नेपोलियन को खयाल आया । नेपोलियन रास्ते से नीचे उतर गया, डाक्टर को भी नीचे उतार लिया और उसने कहा कि वे दिन चले गए, जब हम पहाड़ों से कहते थे, रास्ता छोड़ दो और पहाड़ रास्ता छोड़ देते थे। अब घास वाली औरत रास्ता नहीं छोड़ेगी। नीचे उतरकर किनारे खड़ा हो गया। पंद्रह दिन पहले उस आदमी ने कहा था, आई एम दिला, मैं हूं कानून, मैं हूं नियम । असल में नेपोलियन की या सिकंदर की यात्रा भी इसी आशा में है कि एक जगह मिल जाए, जहां जाकर मैं कह सकूं, मैं हूं प्रभु । पद की हो, कि धन की हो, कि यश की हो, सारी यात्रा मिस-इंटरप्रिटेशन है, उस प्यास की गलत व्याख्या है, जो हमारे भीतर प्रभु के लिए है । वह सबके भीतर है। बस, इस गलत व्याख्या को तोड़ देने की जरूरत है: आपके भीतर चिंतन चलने लगेगा चौबीस घंटे। चाहे दुकान पर बैठे होंगे, तो भीतर कोई प्रभु की प्यास सरकने लगेगी। चाहे घर पर होंगे, चाहे काम करते होंगे, चाहे विश्राम करते होंगे, चाहे जागते होंगे, चाहे सो गए होंगे, भीतर एक खटक चलती ही रहेगी। उस खटक का नाम चिंतन है। उस खटक का, कि प्रभु हुए बिना कोई उपाय नहीं, कि प्रभु से एक हुए बिना कोई उपाय नहीं, कि प्रभु की गोद में पड़े बिना कोई उपाय नहीं, कि प्रभु की शरण में गए बिना कोई उपाय नहीं, कि प्रभु के साथ लीन हुए बिना कोई उपाय नहीं । ऐसी जब प्यास - शब्द नहीं, ऐसी प्यास- जब भीतर सरकने लगती है, तो उसका नाम प्रभु का सतत चिंतन है। कृष्ण कहते हैं, ऐसे सतत चिंतन को जो उपलब्ध होता है, समस्त वासनाओं को क्षीण करके और समस्त इंद्रियों के पार | उठकर, परम है सौभाग्य उसका, वह योगीजन उस सबको पा लेता है, जो पा लेने योग्य है। आज इतना ही। फिर कल सुबह । लेकिन पांच मिनट बैठेंगे, कोई जाएगा नहीं । धैर्य रखेंगे पांच | मिनट। यहां थोड़ा प्रभु का चिंतन चलता है; प्रभु के प्यासे लोग नाचते हैं उसकी यात्रा पर । उनको देखें। देखें ही न, उनका साथ दें। | बैठकर ताली भी बजाएं। उनके गीत में सम्मिलित भी हों। एक पांच | मिनट के लिए भूल जाएं सब । उठें मत। दो-चार लोग उठकर दूसरे लोगों को परेशान करते हैं। अपनी जगह बैठे रहें। एक पांच मिनट का धैर्य रख लें। इतनी देर | धीरज की बात सुनी, तो उसको जल्दी खराब न करें। बैठ जाएं अपनी जगह पर साथ दें उनके कीर्तन में मग्न हों। पांच मिनट के लिए आनंदित हों और यह प्रसाद लेकर घर जाएं। 178 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 6 बारहवां प्रवचन मन साधन बन जाए Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग - 3 > यतो यतो निश्चरति मनश्चंचलमस्थिरम् । ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ।। २६ ।। परंतु जिसका मन वश में नहीं हुआ हो, उसको चाहिए कि यह स्थिर न रहने वाला और चंचल मन जिस-जिस कारण से सांसारिक पदार्थों में विचरता है, उसे उससे रोककर बारंबार परमात्मा में ही निरोध करे । ਸ न चंचल है। वही उसकी उपयोगिता भी है, वही उसका खतरा भी। मन चंचल होगा ही, क्योंकि मन का प्रयोजन ही ऐसा है कि उसे चंचल होना पड़े। मन की चंचलता ठीक वैसी है, जैसे कि हवा का रुख देखने के लिए कोई घर के ऊपर पक्षी का पंख लगा दे। अगर पंख चंचल न हो, तो हवा का रुख न बता पाए। हवा जिस तरफ बहे, पंख को उसी तरफ घूम जाना चाहिए, तो ही वह खबर दे पाएगा कि हवा का रुख क्या है। मन, मनुष्य के व्यक्तित्व में चारों तरफ जो अंतर हो रहे हैं, उनकी खबर देने का यंत्र है । इसलिए वह चंचल होगा ही । चंचल होगा, तो ही अर्थपूर्ण है, अन्यथा उसका कोई अर्थ नहीं है। आपके बाहर सर्दी बदलकर गर्मी हो गई है। मन अगर खबर न दे, तो जीवन असंभव है। रास्ते पर कांटा पड़ा है, मन अगर खबर न दे; पैर में चोट लग गई है, मन अगर खबर न दे; मित्र शत्रु हो गया है, मन अगर खबर न दे; भूख लगी है, मन अगर खबर न दे - तो जीवन असंभव है। तो मन को तो प्रतिपल खबर देनी पड़ेगी, हजार तरह की । और वह हजार तरह की खबर तभी दे सकता है, जब प्रत्येक छोटी-सी घटना से चंचल हो, विचलित हो – तभी खबर दे पाएगा। तो मन का प्रयोजन ही यही है कि वह आपके जीवन को अस्तित्व में रखने का यंत्र है। और अस्तित्व प्रतिपल बदल रहा है। एक क्षण भी वही नहीं है, जो एक क्षण पहले था। सब कुछ बदलता जा रहा है। हर घड़ी, हर क्षण, चारों तरफ प्रवाह है परिवर्तन का । इस परिवर्तन की आपको खबर होनी चाहिए, अन्यथा आप जी न सकेंगे। और इस परिवर्तन की जो खबर देगा, उसको हवा का रुख बताने वाले पंख की तरह कंपते रहना पड़ेगा, तैयार रहना पड़ेगा कि हवा कब बदल जाए, पंख उसके साथ ही बदल जाए। क्षणभर की देरी, कि जीवन खतरे में पड़ सकता है। तो मन की उपादेयता, यूटिलिटी ही यही है। मन है ही इसलिए कि वह जीवन में हो रहे परिवर्तन की सूचना आपको प्रतिपल देता रहे। यह उसका प्रयोजन है। लेकिन यहीं उसका खतरा भी शुरू होता है। क्योंकि हम इसी मन से परमात्मा को भी जानना चाहते हैं, जिस मन से संसार जाना जाता है। तब भूल हो जाती है। क्योंकि संसार है प्रतिपल परिवर्तन, और परमात्मा है सनातन, शाश्वत । वह कभी बदलता नहीं। वह सदा वही है, जो है । और संसार कभी वही नहीं है, जो क्षणभर पहले था। संसार तो बहती हुई गंगा है, जहां एक क्षण भी कुछ ठहरा हुआ नहीं है। फ्लक्स है, प्रवाह है। और परमात्मा सदा वही है, जहां कभी कुछ कणभर भी नहीं बदला है। तो मन संसार को जानने में तो बिलकुल ही समर्थ और सहयोगी है, परमात्मा को जानने में बिलकुल व्यर्थ और बाधा है। अगर इसी मन से परमात्मा को जानना चाहा, तो आप कभी न जान पाएंगे। कभी कोई उपाय इससे परमात्मा को जानने का नहीं है। इस बात को ठीक से समझ लें। मन के दुश्मन हो जाने की कोई जरूरत नहीं है, सिर्फ मन का प्रयोजन समझ लेने की जरूरत है। मन का प्रयोजन ही जो चंचल है उसको जानना है, इसलिए मन चंचल है। मन का प्रयोजन ही नहीं है उसको जानना, जो शाश्वत है, नित्य है । इसलिए शाश्वत और नित्य की तरफ मन का उपयोग करना पागलपन है। गलत, असंगत आयाम है परमात्मा मन लिए। या परमात्मा के लिए मन असंगत विधि है। इसलिए जो भी परमात्मा की तरफ, सत्य की तरफ, नित्य की तरफ, अपरिवर्तनीय की तरफ, शाश्वत की तरफ, इटरनल की | तरफ यात्रा करना चाहता है, उसे मन की चंचलता को छोड़कर, मन को ठहराकर ही गति करनी पड़ेगी। इसका यह भी मतलब नहीं है कि आप बिलकुल जड़ हो जाएं। इसका यह भी मतलब नहीं है कि मन आपका पत्थर हो जाए । |इसका इतना ही मतलब है कि मन को आन और आफ करने की कला आपके पास होनी चाहिए। जब आप चाहें, तो मन की गति | शून्य की जा सके; और जब आप चाहें, तो मन की गति पूरी की जा सके। इसकी गुलामी न रह जाए, इसकी परवशता न रह जाए; इसके आप मालिक हो जाएं कि आप बटन दबाएं और मन काम बंद कर दे, ताकि आप शाश्वत को जान सकें। आप बटन दबाएं और मन सक्रिय हो जाए, ताकि आप संसार में जी सकें। और अस्तित्व दोहरा है। बाहर की तरफ संसार है, भीतर की | तरफ परमात्मा है। इसलिए अक्सर एक भूल हो जाने का डर है कि 180 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन साधन बन जाए - जो लोग परमात्मा की तरफ जाते हैं, वे मन को इस भांति बंद कर नहीं, लेकिन पैर के आप मालिक हैं। जब आप चलना चाहते देते हैं कि संसार से टूट जाते हैं। वह वही की वही भूल हो गई, जो | हैं, पैर चलते हैं। जब आप रुकना चाहते हैं, पैर थिर हो जाते हैं। पहले हो रही थी, कि इस मन को इतना गतिमान कर लेते हैं कि उस ठीक ऐसी ही मालकियत मन की भी होनी चाहिए। मन भी एक पर काबू नहीं रह जाता और परमात्मा से टूट जाते हैं। उपकरण है, जैसे पैर एक उपकरण है। मन भी एक इंस्ट्रमेंट है। सम्यक! सम्यक व्यक्तित्व वह है, कृष्ण कह रहे हैं, जो मन का | लेकिन आप रात सोने को बिस्तर पर पड़े हैं। आप मन से कहते मालिक हो जाए। मालकियत का मतलब, मन को मार डालना नहीं | हैं कि अब चुप हो जाओ; अब बंद हो जाओ; मुझे सो जाने दो। है। मरी हुई चीज के मालिक होने का कोई मतलब नहीं होता। मरी लेकिन वह चले चला जा रहा है! वह आपकी सुनता ही नहीं। इसमें हुई चीज के मालिक होने का क्या मतलब होता है? दुश्मन को मार मन का कोई कसूर नहीं है, ध्यान रखना। नहीं तो आप सोचें कि डाला और उसकी छाती पर बैठ गए, उसका क्या मतलब? मृत | अरे, यह मन ही ऐसी चीज है। मन का इसमें कोई कसूर नहीं है। चीज की मालकियत का कोई मतलब नहीं होता है; जीवित चीज | इसमें मन का कोई भी कसूर नहीं है, इसलिए जो मन को गालियां की मालकियत का कुछ मतलब होता है। | देते रहते हैं, वे निपट नासमझ हैं। मालकियत का इसलिए अर्थ, मन को मार डालना नहीं है। - आपने ही मन की ऐसी व्यवस्था कर रखी है। आपने ही मन को मालकियत का अर्थ, मन को स्वेच्छा से गतिमान करना या गतिहीन | जीवनभर इस तरह का शिक्षण दिया है। आपने ही कभी मन पर कर देने की क्षमता है—स्वेच्छा से, जब चाहें। जैसे कोई आदमी अपनी मालकियत की घोषणा नहीं की। आपने कभी मन को बंद अपने घर के बाहर आ जाता है। जब चाहता है, घर के भीतर चला | करने का कोई उपाय नहीं किया। आप अपने मन को चलाते ही रहे जाता है। बाहर आ जाता है, तो बाहर ऐसा नहीं अटक जाता कि | हैं। आप चलाते ही रहे हैं अकारण-कारण। मन को चलाते ही रहे अब कहे कि मैं घर के भीतर कैसे जाऊं। भीतर चला जाता है, तो हैं। मन का ट्रैक तैयार हो गया है। अटक नहीं जाता। यह नहीं कहता कि अब भीतर आ गया, तो घर । मन जन्मों-जन्मों से चलने का आदी हो गया है। ठहरने की उसे के बाहर कैसे जाऊ! | कोई खबर ही नहीं रही। उसे पता ही नहीं है कि ठहरना भी होता है। घर के भीतर और बाहर जैसी सहज गति आप करते हैं, ऐसे ही और इसलिए जब आप अचानक एक दिन मन से कहते हैं, ठहर स्वयं के बाहर और भीतर सहज गति स्वेच्छा से संभव हो जाए, तो जाओ, तब वह नहीं ठहरता, तो इसमें उसका कसूर नहीं है। और मन की मालकियत है। तो कहा जाएगा. मन निरुद्ध हआ। लेकिन आपके कहने से नहीं ठहरेगा। मन पूरी तरह जीवित है। और जब उसकी जरूरत हो, तब उसको सच तो यह है कि आप जितने घबड़ाकर कहते हैं कि ठहर स्फुरणा दी जा सकती है। और उसकी जरूरत चौबीस घंटे पड़ेगी। जाओ, वह भी मन की ही गति है। आपका घबड़ाकर कहना कि • अस्तित्व संसार में है। मन की जरूरत पड़ेगी। लेकिन मन आपके ठहर जाओ, मन की ही गति है। और आपके कहने से नहीं ठहरेगा, हाथ में एक साधन हो जाए, तो आप मालिक हो गए। आपको कला आनी चाहिए ठहराने की। अभी तो हम मन के हाथ में एक साधन हैं। मन चलता है; हम कार चलाते हों और ब्रेक लगाना न आता हो, और चिल्लाते हों उससे कहते हैं, कृपा करो, मत चलो! वह सुनता ही नहीं। वह | | कि ठहर जाओ; वैसा ही पागलपन है। चिल्लाते रहें, कार नहीं चलता ही.चला जाता है। हमारे मन की हालत ऐसी है, जैसे किसी ठहरेगी। और एक्सेलरेटर पर पैर दबाए चले जा रहे हैं! और आदमी के पैरों की हालत हो जाए। उसको चलना नहीं है, लेकिन | | चिल्ला रहे हैं, ठहर जाओ! और ब्रेक लगाना आता नहीं। और ब्रेक पैर उसको कहें कि हम तो चलेंगे! उसको कहीं जाना नहीं है, उसे | | कभी लगाया नहीं। ब्रेक जाम हो गए हैं। आज अचानक पैर भी कुर्सी पर बैठकर आराम करना है, लेकिन पैर हैं कि चले जा रहे हैं। | रखेंगे, तो जंग खा गए हैं। उनको तेल की जरूरत पड़ेगी; ब्रेक तो उस आदमी को हम विक्षिप्त कहेंगे। हम कहेंगे, इस आदमी के | आयल की जरूरत पड़ेगी। उनको फिर से गति देने के लिए सुगम, पैर इसके मालिक हो गए। यह कहता है, रुको। लेकिन पैर नहीं | | सरल और ढीला होना पड़ेगा। उनको कभी नहीं लगाया, सदा रुकते। जब यह कभी कहता है, चलो! तब पैर कहते हैं, नहीं | एक्सेलरेटर दबाया और सदा चिल्लाते रहे। फिर धीरे-धीरे आपको चलते; रुकेंगे। | पता चलने लगा कि कितना ही चिल्लाओ, यह कार बड़ी खराब है; 11811 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 यह रुकती नहीं है। कार का कोई भी कसूर नहीं है। कोई भी कसूर नहीं है। और मजा यह है कि जब आप चिल्ला रहे हैं, तब भी आपका पैर एक्सेलरेटर को दबाए चला जा रहा है तब भी ! ठीक हम मन के साथ ऐसा ही कर रहे हैं । और इसलिए मन को दोष देते हैं जीवनभर, लेकिन हल नहीं होता कुछ। दूर खड़े रहेंगे, तो मन नहीं दौड़ेगा। ऐसे ही होगा कि कार स्टार्ट कर | दी और एक्सेलरेटर नहीं दबाया। भड़भड़, भड़भड़ होगी, लेकिन गाड़ी चलेगी नहीं; और थोड़ी देर में इंजन बंद पड़ जाएगा। अगर कामवासना के साथ दौड़ाना है, तो ऐसा मत सोचें कि मैं कामवासना का विचार करता हूं; ऐसा सोचेंगे, तो एक्सेलरेटर पर | पैर नहीं पड़ेगा। ऐसा सोचें कि मैं कामवासना हूं। बस, मन दौड़ना शुरू कर देगा। थोड़ी देर में कामवासना आपकी पूरी आत्मा को घेर लेगी। आप उसके साथ एक हो जाएंगे। और जितना एक हो जाएंगे, उतनी मन की गति तेज हो जाएगी। कृष्ण कहते हैं, मन चंचल है। स्वभाव है मन का चंचल होना । होना ही चाहिए मन चंचल, नहीं तो मन का कोई अर्थ नहीं है। मन का प्रयोजन ही वही है। लेकिन मन के यंत्र में मन को रोकने की भी व्यवस्था है। उस व्यवस्था को, उस ब्रेक सिस्टम को ठीक से समझ लेना चाहिए कि वह क्या व्यवस्था है, जो मन को रोकती भी है। दो बातों का ध्यान रखना जरूरी है, एक तो जब मन को रोकना हो, तो एक्सेलरेटर पर पैर न रहे। इसलिए कार में एक ही पैर से दो काम लेते हैं हम, ताकि भूल न हो जाए। नहीं तो एक पैर से ब्रेक लगा सकते हैं, एक से एक्सेलरेटर चला सकते हैं। लेकिन एक ही पैर से दोनों काम लेते हैं, ताकि कभी भूल न हो जाए। जब ब्रेक दबाएं, तो एक्सेलरेटर न दब जाए साथ में। अगर दोनों पैर से काम लें, तो खतरे का पूरा डर है। एक पैर से एक्सेलरेटर दबा दें और एक से ब्रेक दबा दें, तो उपद्रव हो ही जाने वाला है। इसलिए एक ही पैर से दो काम लेते हैं। उसी पैर को ब्रेक पर रखते हैं, ताकि एक्सेलरेटर अनिवार्यतः छूट जाए। | मन में भी वैसी ही व्यवस्था है। ठीक वैसी ही व्यवस्था है। जिस ढंग से हम दबाते हैं मन को काम लेने के लिए, उसी ढंग से मन की रुकावट के लिए भी उसी व्यवस्था का उपयोग करना पड़ता है। थोड़ा-सा स्थान हटना पड़ता है। थोड़ा-सा स्थान भर पैर को हटाना पड़ता है। उसे समझ लें कि वह व्यवस्था क्या है। टेक्निकल, तकनीकी शब्द है, वह है, राग राग का मतलब रंग ही होता है। राग का मतलब रंग ही होता है। किसी भी वृत्ति के राग में पड़ जाएं, अर्थात वृत्ति में ऐसे रंग जाएं कि रंग आपके ऊपर पूरा फैल जाए, तो मन की गति तीव्र हो जाती है। | जब आपको मन को दौड़ना होता है, तो क्या व्यवस्था है? एक्सेलरेटर क्या है मन का ? उसको गत्यात्मक करने का क्या ढांचा है ? हम सब दौड़ाते हैं; इसलिए दौड़ाने से ही शुरू करना ठीक होगा। जब आपको मन को दौड़ाना होता है, तब आप क्या करते हैं? अनेक हत्यारे अदालतों में कहते हैं कि हत्या हमने नहीं की। वे ठीक ही कहते हैं। पहले तो लोग सोचते थे कि हत्यारे सिर्फ इसलिए कहते हैं कि हमने हत्या नहीं की, क्योंकि वे अदालत को धोखा देना चाहते हैं। लेकिन अब मनसविद कहते हैं कि बहुत अर्थों में वे ठीक ही कहते हैं, धोखा देने के लिए नहीं कहते। शायद आपने खयाल न किया हो, जब मन को दौड़ाना हो, तो मन के साथ तादात्म्य स्थापित करना पड़ता है। जितना तादात्म्य स्थापित हो जाए, मन उतना ही दौड़ता है। तादात्म्य एक्सेलरेटर है। तादात्म्य का मतलब है कि मन की जिस वृत्ति दौड़ाना हो, उसके साथ एकात्म हो जाना पड़ता है। अगर आपको कामवासना के साथ मन को दौड़ाना है, तो आप ब्रेक की व्यवस्था ठीक उलटी है; तादात्म्य तोड़ना पड़ेगा। | जितना मन की किसी भी वृत्ति से दूर हो जाएंगे, पार हो जाएंगे, अलग हो जाएंगे, अनुभव कर पाएंगे, मैं भिन्न हूं, उतना ही ब्रेक लग जाएगा। एक ही पैर का उपयोग करना है - तादात्म्य । अगर दबाया तादात्म्य को, एक हुए, तो गति पकड़ेगा; मन और चंचल हो | जाएगा। अगर दूर हटाया तादात्म्य को, मन अचंचल हो जाएगा। और आपके सहयोग के बिना न तो चंचल हो सकता है, न आपके असहयोग के बिना अचंचल हो सकता है। टु कोआपरेट एंड नाट टु कोआपरेट । सहयोग गति देता है, असहयोग गति तोड़ देता है। तो जिस वृत्ति को चलाना हो, उसके साथ सहयोग कर लें; इतना सहयोग कर लें कि आप उसी वृत्ति के रंग में रंग जाएं। इसका जो असल में हत्यारा जब हत्या करता है, तो हत्यारा मौजूद ही नहीं रहता; हत्या के साथ इतना रंग जाता है, जिसका कोई हिसाब नहीं। | सोचने वाला, विवेक का जरा-सा भी बिंदु बाहर नहीं रह जाता, जो कहे कि मैंने हत्या की। हत्या हुई । मैं इतना भी अलग नहीं बचता कि वह कह सके, मैंने हत्या की। हत्यारा इतना ही कह सकता है 182 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन साधन बन जाए कि हत्या के भाव ने मुझे इस बुरी तरह पकड़ लिया कि मैं तो था ही नहीं । हत्या मुझसे हुई है, मैंने की नहीं है। और मनसविद कहते हैं कि वह ठीक ही कह रहा है। सच तो यह है कि बहुत-से हत्यारे हत्या करने के बाद भूल ही जाते हैं कि उन्होंने हत्या की। भूल ही जाते हैं! और बहुत जांच-पड़ताल करके पता चला है कि उनके भीतर कोई भी स्मृति नहीं रह जाती कि उन्होंने हत्या है। क्यों नहीं रह जाती ? स्मृति बनने के लिए भी थोड़ा-सा फासला चाहिए; थोड़ा-सा फासला, अन्यथा स्मृति नहीं बनेगी। अगर आप वृत्ति के साथ पूरे रंग गए, तो घटना हो जाएगी, लेकिन स्मृति नहीं बनेगी। स्मृति बनेगी किसको? मैं तो बचता ही नहीं, जो नोट कर ले कि हत्या की जा रही है। मैं इतना डूब जाता हूं, इतना बेहोश हो जाता हूं, इतना एक हो जाता हूं कि मेरे द्वारा हत्या हो जाती है, लेकिन मेरे द्वारा उसकी कोई स्मृति नहीं बन पाती । मेरा कांशस माइंड इतना लीन हो जाता है कि वह कोई स्मृति नहीं बनाता। अनकांशस मेमोरी बनती है। इसलिए हत्यारा कहता है होश में कि मैंने हत्या नहीं की। लेकिन उसे हिप्नोटाइज करके बेहोश करते हैं, वह कह देता है, मैंने हत्या की। शराब पिला देते हैं, उसे बेहोश कर देते हैं, तो वह कह देता है, मैंने हत्या की । होश में रहता है, तो कहता है, मैंने हत्या नहीं की। होश वाले मन को कोई खबर ही नहीं है। खबर के लिए | दूरी चाहिए। वह दूरी मौजूद नहीं है। आपने हत्या तो नहीं की है, सोचा बहुत बार होगा। क्योंकि ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जिसने किसी न किसी की हत्या करने कभी न कभी सोचा हो। अगर किसी और की नहीं, तो अपनी करने का सोचा होगा। फर्क नहीं है। किसी न किसी की— उसमें स्वयं भी सम्मिलित हैं - हत्या करने का न सोचा हो, ऐसा आदमी खोजना बहुत मुश्किल है, रेयर । जो जानते हैं, वे कहते हैं कि प्रत्येक आदमी सत्तर साल की उम्र में औसतन दस बार अपनी या किसी की हत्या करने का विचार करता है। कम से कम, यह मिनिमम है। करता नहीं है, यह दूसरी बात है। लेकिन विचार करता है। क्यों नहीं कर पाता ? कारण वही है। एक्सेलरेटर पूरा नहीं दब पाता, नहीं तो हो जाए। थोड़ा फासला बना रहता है। थोड़ा सोच-विचार भीतर कायम रहता है कि यह मैं क्या सोच रहा हूं! यह मैं क्या सोच रहा हूं! या भय के कारण एक्सेलरेटर पूरा नहीं दबा पाता कि कहीं स्पीड बहुत तेज न हो जाए, कोई एक्सिडेंट न हो जाए; तो धीरे चलाता है। फासला रह जाए, तो वृत्ति नहीं कार्य कर पाती; फासला छूट जाए, तो वृत्ति कार्य कर जाती है । वृत्ति के साथ तादात्म्य मन को गति, मन को प्राण देना है, खून देना है। और वृत्ति के साथ तादात्म्य तोड़ लेना मन को रुकावट डालनी है, ठहराना है। इसको प्रयोग करके देखें, तो खयाल में आ जाएगा। जिस वृत्ति के साथ मन दौड़ रहा हो, यह मत कहें कि रुक जाओ। रुक जाओ | कहने का कोई मतलब नहीं है । उस वृत्ति के साथ तादात्म्य तोड़ें। मन में क्रोध आ रहा है, तब ऐसा न समझें कि मैं क्रोध कर रहा हूं। ऐसा ही समझें कि मन में क्रोध आ रहा है, मैं दूर खड़े होकर देख रहा हूं, जस्ट ए विटनेस, एक साक्षी । मैं देख रहा हूं कि मन कह रहा है कि क्रोध करो; मन कह रहा है कि गर्दन दबा दो; मन कह रहा है कि आग लगा दो - मैं देख रहा हूं। और जैसे ही देखने का खयाल आएगा, आप अचानक पाएंगे कि एक्सेलरेटर से पैर हट गया, मन की गति धीमी हो गई । और यह अनुभव इतना सहज और सरल है कि प्रत्येक को ही होगा, इसमें कोई अड़चन नहीं है। सिर्फ खड़े होकर देखने की प्रक्रिया का अभ्यास जरूरी है। और कर सकते हैं अभ्यास । रोज मौके मिलते हैं। रात विचार | चल रहे हैं मन में, यह मत कहें, करवट न बदलें परेशानी से कि मन बंद हो जाए, तो मैं सो जाऊं । न; जब विचार चल रहे हैं मन में, तो देखना शुरू करें। यह मत कहें कि बंद हो जाएं। विचारों को देखें कि विचार चल रहे हैं, मैं दूर खड़ा देख रहा हूं। मैं एक साक्षी हूं। मैं सिर्फ देखूंगा; तुम चलो। और आप पाएंगे, जैसे ही आपने निर्णय लिया कि मैं देखूंगा, तुम चलो, उनकी चलने की ताकत कम होने लगी, उनके पैर शिथिल होने लगे, उनकी गति नीचे गिरने लगी। और जिस क्षण आप पूरे देखने वाले की तरह खड़े हो जाएंगे, मन एकदम शांत हो जाएगा। इधर आया साक्षी, उधर गया मन । इस द्वार से साक्षी ने प्रवेश किया, उस द्वार से मन विदा हुआ। यह एक साथ, युगपत घटना घटती है। मन से लड़ने की जरूरत नहीं है। लड़ने वाला तो पागल है। मन के प्रति जागने की जरूरत है। जागने से निरोध फलित होता है। और जब तक मन का निरोध न हो जाए, तब तक प्रभु की तरफ | यात्रा नहीं होती। क्योंकि मन संसार के लिए साधन, प्रभु के लिए बाधा । मन संसार के लिए सहयोगी, प्रभु के लिए विरोधी । इसमें कोई कसूर नहीं है। यह मैकेनिज्म की बात है सिर्फ । यह 183 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 गीता दर्शन भाग-3> अनिवार्यता है। क्योंकि ऐसा मैकेनिज्म नहीं हो सकता, जो दोनों और वह तो बड़ा हो गया, और मन पीछे छूट गया। हमारी जिंदगी तरफ काम दे सके। क्योंकि संसार के लिए बिलकुल और तरह की | की अधिक तकलीफें यही हैं। जरूरत है। वहां सब बदल रहा है, इसलिए बदलने वाला सचेतन | पिछले महायुद्ध में अमेरिका में जिन सैनिकों को भर्ती किया चित्त चाहिए, जो पूरे समय बदलता रहे। गया, उनके आई क्यू, उनकी बुद्धि के माप की जांच की गई पहली और ध्यान रखें, जो चित्त जितनी गति से बदल सकता है संसार दफा बड़े पैमाने पर, तो बड़ी हैरानी हुई। किसी आदमी की बुद्धि में, संसार में उसका सरवाइवल उतना ही सुनिश्चित है; उसका | | तेरह साल से ज्यादा नहीं निकली। तेरह साल पर बुद्धि रुकी हुई अस्तित्व उतना ही सुरक्षित है। मालूम पड़ी। जमीन पर आदमी जीत गया, और पशु हार गए। उसका और औसत बुद्धि तेरह साल पर रुक जाती है। बड़ी घबड़ाहट की कोई कारण नहीं था। पशुओं के पास इतना चंचल मन नहीं है; और बात है। आदमी सत्तर साल का हो जाता है, लेकिन बुद्धि का अंक कोई कारण नहीं है। आदमी के पास चंचल मन है, वह जीत गया। उसका तेरह साल के पास ठहरा रहता है। इसी से सब दिक्कतें खड़ी इस पृथ्वी पर बड़े शक्तिशाली पशु नष्ट हो गए हैं, पूरी की पूरी होती हैं। जैसे बूढ़ा भी क्रोध में आ जाए, तो बच्चों की तरह पैर . जातियां नष्ट हो गईं। उनके पास शरीर महा शक्तिशाली था। आज पटकने लगता है। वह तेरह साल की बुद्धि भीतर काम करने लगती से कोई दस लाख साल पहले वैज्ञानिक कहते हैं-अब तो है। रिग्रेस करना आसान हो जाता है। अस्थिपंजर भी मिलते हैं-हाथी हमारा छोटा-सा जानवर है उस आपके घर में आग लग जाए, आप एकदम पैर पटककर छाती जमाने का, बहुत छोटा-सा; उस जमाने का बहुत मिनिएचर, पीटकर रोने लगते हैं, वैसे ही जैसे छोटा तीन साल का बच्चा, बहुत छोटा-सा प्रतीक। हाथी से दस-दस गुने, पंद्रह-पंद्रह गुने | | उसका खिलौना टूट जाए, तो रोता और छाती पीटता है। फर्क क्या बड़े जानवर इस पृथ्वी पर थे। लेकिन सबके सब नष्ट हो गए। है? फर्क इतना ही है कि साधारण हालतों में आप गंभीरता बनाए बात क्या है? | रखते हैं, असाधारण हालतों में आपका बचकानापन प्रकट हो जाता शरीर तो उनके पास बहुत बड़े थे, शक्ति उनके पास महान थी। है। वह जुवेनाइल भीतर जो छिपा है, वह असाधारण हालत में छोटे-मोटे पहाड़ी को धक्का दे दें, तो खिसक जाए, गिर जाए। प्रकट हो जाता है। साधारणतः अपने को सम्हाल-सम्हूलकर चलाते लेकिन उनके पास बहुत चंचल चित्त नहीं था, जो कि स्थितियों के रहते हैं। जरा-सी कोई विशेष घटना घट जाए, पता चल जाता है साथ बदल सके। स्थितियां बदलीं, उनका मन नहीं बदला। कि भीतर का बच्चा जाहिर हो गया। स्थितियां बदल गईं, मन नहीं बदला; मर गए। क्योंकि स्थिति के तेरह साल पर रुक जाती है बुद्धि! हां, जिसकी नहीं रुकती, वह साथ जिसका मन नहीं बदलेगा, वह मर जाएगा। | जीनियस है। लेकिन नहीं रुकने का मतलब है कि गति जारी रहे। स्थिति के साथ बदलने से ही एडजस्टमेंट होता है। नहीं तो आप बुद्धि इतनी गतिमान रहे कि कहीं ठहरे न; हर स्थिति के साथ मैलएडजस्टेड हो जाएंगे। आपकी उम्र तो ज्यादा हो गई, लेकिन बदलती चली जाए; हर नई स्थिति में नई हो जाए। पायजामा बचपन का पहने चले गए, वैसी मुसीबत हो जाएगी। तो मन को तो बदलना ही पड़ेगा। बदले मन, यही शुभ है। पायजामा बदलना पड़ेगा। जवानी आ गई और बुद्धि बचपन की लेकिन यह सामर्थ्य के भीतर हो कि हम जब चाहें, तब कहें, बस। रही आई, मन नहीं बदला, थिर मन हुआ आपके पास, तो आप और मन शांत होकर बैठ जाए। और हम उस दिशा में भी चेहरा फेर मुश्किल में पड़ जाएंगे। वही काम बच्चा करेगा, तो हम खुश होंगे।। पाएं, जहां अपरिवर्तनीय का वास है, जहां नित्य का निवास है। हम वही जवान करेगा, तो जेलखाने में डाल देंगे। क्यों? बच्चा कर रहा | उस मंदिर की तरफ भी आंखें उठा पाएं, जहां वह रहता है, जो कभी है, तो कोई परेशान नहीं हो रहा है! क्योंकि हम मानते हैं कि बच्चा | नहीं बदलता। अभी जिस परिस्थिति में है, उसके साथ उसका मन बिलकुल | __ और उसको देखते ही ऐसी अपूर्व शांति प्राणों को घेर लेती है। एडजस्टेड है। लेकिन आदमी जवान हो गया है और वही काम कर क्योंकि परिवर्तन के साथ शांति कभी नहीं हो सकती। परिवर्तन के रहा है, तो बर्दाश्त के बाहर हो जाएगा। उसका मतलब यह है कि साथ अशांति ही होगी। परिवर्तन के साथ तनाव और टेंशन ही होगा। उसका मन रिटार्डेड है। उसका मन बच्चा था. तभी वहीं रुक गया। परिवर्तन के साथ तो बेचैनी और चिंता ही होगी। अपरिवर्तनीय के 1184 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन साधन बन जाए साथ ही शाश्वत शांति उतर आती है। कहेगा। मन ही कहेगा, मुझे शांति दो। और आप मन को ही मन और एक बार आदमी इस कला में निष्णात हो जाए कि जब चाहे | के खिलाफ लड़ाने लगेंगे। एक मन का हिस्सा कहेगा, शांति मन को रोक दे, जब चाहे मन को गतिमान कर दे, तो वैसा व्यक्ति चाहिए। और एक मन का हिस्सा अशांति को बुनता चला जाएगा। संसार में भी और परमात्मा में भी, दोनों में समान रूप से जीने फिर आप दोनों पर एक साथ पैर रख रहे हैं, एक्सेलरेटर पर भी लगता है। और वैसा व्यक्ति फिर कह पाता है कि संसार भी | और ब्रेक पर भी। अब एक्सिडेंट सुनिश्चित है। परमात्मा का रूप है। फिर वैसे व्यक्ति को संसार और परमात्मा में और हम में से अधिक लोग एक्सिडेंट हैं। आदमी नहीं, कोई शत्रुता नहीं दिखाई पड़ती। दुर्घटनाएं हैं। हम में से अधिक लोग दुर्घटनाएं हैं। लेकिन चूंकि शत्रता हमें दिखाई पड़ती है. क्योंकि हमारा मन दोनों तरफ नहीं सभी दर्घटनाएं हैं. इसलिए पता लगाना मश्किल होता है। हम सब मुड़ पाता। हमारी चेतना एक ही तरफ फिक्स्ड, फोकस्ड हो जाती दुर्घटनाएं हैं, क्योंकि जो हम हो सकते थे, वह हम नहीं हो पाए हैं; है। हमारी हालत ऐसी है, जैसे किसी आदमी की गर्दन को लकवा और जो हमें नहीं होना चाहिए था, वह हम हो गए हैं। लग जाए और वह एक ही तरफ देख पाए; सिर न घुमा पाए। हमारी | | इसलिए तो इतनी पीड़ा है, इतना दुख है, इतनी परेशानी है। वैसी मन की हालत है-लकवा खा गई, पैरेलाइज्ड। बस, संसार | हमारी पूरी जिंदगी एक लंबी दुर्घटना है। हर चीज दुर्घटना है। प्रेम को ही देख पाते हैं। जब इधर देखना चाहते हैं, तो कुछ मुड़ नहीं | करने जाओ, घृणा हाथ लग जाती है। मित्रता बनाओ, शत्रुता बन पाता। पर इसमें कसूर मन का नहीं है। कसूर आपका है। जाती है। किसी को सुख देने जाओ, दुख के सिवा कुछ भी नहीं लेकिन इधर मैं देखता हूं कि अधिक धार्मिक लोग मन का कसूर दिया जाता। किसी से अच्छी बात बोलो, वह न मालूम क्या समझ समझकर गालियां देते रहते हैं। वह जो गालियां दे रहा है, वह भी | | लेता है। वह कुछ अच्छी बात बोलता है, हम न मालूम क्या समझ मन है। वह जो कह रहा है, मन चंचल है, वह भी मन है। क्योंकि | | लेते हैं। न कोई किसी को समझता, न कोई किसी से सहानुभूति वह जो मन नहीं है, वह तो बोला ही नहीं कभी; वह तो अबोल है। | कर पाता, न कोई किसी पर करुणा कर पाता। सब विक्षिप्त की तरह वह जो मन नहीं है, उसने तो गाली क्या, कभी प्रशंसा भी नहीं की। दौड़ते चले जाते हैं। और हर चीज उलझती चली जाती है। उससे तो शब्द भी नहीं निकला है। वह जो धार्मिक आदमी बेचैनी | ___ इसीलिए तो बूढ़े आदमी कहते हैं कि बचपन बड़ा सुखद था। जाहिर कर रहा है कि बड़ा खराब है यह मन, बड़ा दुष्ट है, इससे | बचपन में था क्या आपके जिसकी वजह से सुखद था? हां, ये कैसे छुटकारा पाऊं! वह मन ही कह रहा है ये सब बातें। क्योंकि बुढ़ापे में जितनी आपने जटिलताएं पैदा कर लीं, ये भर नहीं थीं। मन के बाहर जो है वहां तो मौन है, सतत मौन है। वहां तो कभी | और कोई खास बात नहीं थी। ये जितने उपद्रव आपने इकट्ठे कर कोई शब्द की झंकार पैदा नहीं हुई। वहां तो निःशब्द का निवास है। | लिए बूढ़े होते-होते, ये नहीं थे। कोई पाजिटिव, खास बात नहीं थी वह मन ही कह रहा है। और मन की यह खूबी है कि वह अपने | | बचपन में। अगर होती, तो बुढ़ापा इतना उलझा हुआ नहीं हो विपरीत भी वक्तव्य देता है। देना ही पड़ता है। जिसे प्रतिदिन सकता था। आपके पास कोई हीरे नहीं थे। अगर होते तो और बड़े बदलना पड़ेगा, उसे अपने ही वक्तव्य के खिलाफ बोलना पड़ेगा। हो गए होते; उनकी और ग्रोथ हो गई होती। कुछ नहीं था। बचपन एक क्षण पहले उसने कहा था कि मैं तुम्हारे लिए जान दे दूंगा। और सिर्फ कोरी स्लेट थी। एक क्षण बाद सोचता है कि तुम्हारी जान ले लूं! एक क्षण पहले । हां, बुढ़ापे में दुख होता है। कुछ लिखा नहीं था उस पर, कोई कहा था, तुम्हारे बिना एक क्षण न जी सकूँगा; और एक क्षण बाद | | अमृत वचन नहीं लिखे थे, कोई वेद नहीं लिखा था उस पर; सिर्फ सोचता है कि इससे छुटकारा कैसे हो! कोरी स्लेट थी। लेकिन बुढ़ापे में पाते हैं, तो ऐसा लगता है कि जैसे स्थिति बदलती है, मन बदल जाता है। मन कभी कंसिस्टेंट नहीं कार्बन का बहुत उपयोग किया गया हो, तो जो उसकी गति हो जाती हो सकता। कोई उपाय नहीं है। उसको इनकंसिस्टेंट होना ही | है, ऐसी सब चित्त की स्थिति हो जाती है। पड़ेगा, असंगत होना ही पड़ेगा। हर बार बदलना पड़ेगा; हर बार कुछ समझ में नहीं आता कि क्या लिखा है। और फिर भी रूप नया लेना पड़ेगा। तो मन अपने ही खिलाफ बोलता चला लिखते चले जाते हैं, उसके ऊपर ही लिखते चले जाते हैं! और जाएगा। अशांत होगा, और कहेगा कि शांति चाहिए मुझे। मन ही जटिल होता चला जाता है, आखिर में सिर्फ एक पागलपन के 185 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < गीता दर्शन भाग-3 - अतिरिक्त कुछ नहीं बचता। खुद नहीं पढ़ सकते, दूसरे की तो बात | | सुन, असली बात यह है कि लिखना आसान है, पढ़ना बहुत कठिन अलग है। जिंदगी के बाद में जिंदगी ने क्या पाया, जिंदगी ने क्या है। हम खुद ही नहीं पढ़ पाते कि क्या लिखा है। निष्कर्ष लिया, जिंदगी कहां पहुंची, खुद नहीं बता सकते; दूसरे की ये जिंदगी के बाबत उसके मजाक हैं। जिंदगी के आखिर में जब तो बात अलग है। आप अपनी जिंदगी को उठाकर देखेंगे, तो पाएंगे कि कुछ समझ में सुना है मैंने, एक बहुत अदभुत फकीर हुआ, मुल्ला नसरुद्दीन। नहीं आता, यह क्या लिखा है मैंने! इस सारी कथा की न कोई गांव में अकेला आदमी था, जो लिख-पढ़ सकता था। तो गांव के | शुरुआत है, न कोई अंत है। न इस कथा में कोई तुक है, न इस लोग उससे चिट्ठियां लिखवाते थे। तो दो घटनाएं उसकी मैं कहना कथा में कोई संगति है। यह मैंने किया क्या? यह करीब-करीब चाहता हूं। वह बहुत कीमती आदमी था। उसने आदमी पर गहरे ऐसा है, जैसा एक पागल आदमी लिखता और जो परिणाम होता, मजाक किए हैं। उसकी सब घटनाएं आदमियों पर मजाक हैं। वह मेरा हो गया है। एक बूढ़ी औरत उससे चिट्ठी लिखवाने आई। नसरुद्दीन ने कहा यह होगा; यह होने वाला है। इसीलिए हम बुढ़ापे में बचपन की कि माफ कर। आज चिट्ठी नहीं लिख सकूँगा। क्योंकि मेरे अंगूठे | याद करते हैं कि बड़े सुखद दिन थे! सुखद वगैरह कुछ भी न था। में बहुत दर्द है, पैर के अंगूठे में बहुत दर्द है। उस स्त्री ने कहा, बच्चों से पूछो। सब बच्चे जल्दी बड़े होना चाहते हैं। बचपन बड़ी लेकिन मैंने कभी सुना नहीं कि पैर के अंगूठे से कोई चिट्ठी लिखता तकलीफ में गुजरता है। क्योंकि बचपन से ज्यादा गुलामी और कभी है! पैर के अंगूठे में दर्द है, तो रहने दो। मेरी चिट्ठी तो लिख दो। नहीं होती जिंदगी में। मां कहती है, इधर बैठो। बाप कहता है, उधर उसने कहा कि माई, तू समझती नहीं। मुझे झंझट में मत डाल। तो | बैठो। इसी में वक्त जाया होता है। उसने कहा, इसमें झंझट क्या है! तुम्हारा हाथ तो ठीक है। उसने | एक बच्चे से उसके स्कूल में उसके शिक्षक ने पूछा कि तू बनना कहा, हाथ बिलकुल ठीक है। सब ठीक है। लेकिन पैर के अंगूठे | क्या चाहता है? उसने कहा, मैं बहुत कनफ्यूज्ड हूं। क्यों? क्योंकि में बड़ी तकलीफ है। बूढ़ी औरत ने कहा कि मैं पढ़ी-लिखी नहीं, | मेरी मां मुझे गणितज्ञ बनाना चाहती है। मेरा बाप मुझे कवि बनाना लेकिन इतना तो मैं भी समझती हूं कि पैर के अंगूठे से लिखने का चाहता है। मेरी चाची मुझे संगीतज्ञ बनाना चाहती है। मेरा बड़ा भाई कोई संबंध नहीं। मुझे नेता बनाना चाहता है। और भी बहुत रिश्तेदार हैं, वे सब नसरुद्दीन ने कहा, अब तू नहीं मानती, तो हम बताए देते हैं। बनाना चाहते हैं। और मुझे तो कुछ पता नहीं है कि मुझे क्या बनना चिट्ठी तो हम लिख देंगे, लेकिन उसको पढ़ेगा कौन दूसरे गांव में? है। बस, इस सबके बीच डोल रहा हूं। चिट्ठी लिखकर फिर हमीं को पढ़ने भी जाना पड़ता है! और कई बार बचपन, बच्चों से पूछो, सुखद नहीं है। बच्चे बहत पीड़ा से तो ऐसा हो जाता है, नसरुद्दीन ने कहा कि तू किसी को बताना मत, | गुजरते हैं। और एक बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक जी.एन.पियागेट ने, कि हम खुद भी नहीं पढ़ पाते कि क्या लिखा है! पैर में मेरे बहुत | | जिसने बच्चों के साथ कोई पचास वर्ष मेहनत की है, उसका कहना तकलीफ है, अभी मुझे तू झंझट में मत डाल। है कि पांच साल के पहले की स्मृति इसीलिए भूल जाती है, क्योंकि एक बार ऐसा हुआ कि एक दूसरा आदमी नसरुद्दीन से चिट्ठी | बहुत दुखद है। आपको याद नहीं आती, पांच साल की उम्र के लिखवाने आया। नसरुद्दीन ने पूरी चिट्ठी लिख दी। चिट्ठी लिखने | पहले की कोई स्मृति याद नहीं आती। क्यों भूल जाती है? कारण के बाद उस आदमी ने कहा कि अब जरा मुझे पढ़कर तो सुना दो, क्या है? जी.एन.पियागेट कहता है कि सिर्फ इसलिए भूल जाती है कहीं मैं कुछ भूल तो नहीं गया लिखवाने को। नसरुद्दीन मुश्किल कि वह इतनी दुखद है कि मन उसे याद नहीं करना चाहता। लेकिन में पड़ा। उसने कहा कि देख भाई, यह गैरकानूनी है। उसने कहा बुढ़ापे में हम कहते हैं कि बचपन बड़ा सुखद था, स्वर्ग था! में क्या गैरकानूनी बात है! नसरुद्दीन ने कहा, यह चिट्ठी तु वह बढ़ापे के नर्क की वजह से कह रहे हैं; और कोई कारण नहीं बता किसके नाम लिखी गई है? वही इसके पढ़ने का हकदार है। है। नर्क हम अपने हाथ से बना लेते हैं। मैं नहीं पढ़ सकता। उस आदमी ने कहा कि बात तो ठीक है। जिस | इस मन की विक्षिप्त अवस्था को जब तक कोई संयम में न ले आदमी के नाम लिखी गई है, वही पढ़े। मैं नहीं पढ़ सकता। जब आए, निरोध को न उपलब्ध हो जाए, तब तक प्रभु की यात्रा नहीं वह आदमी जाने लगा कि बात ठीक है, तो नसरुद्दीन ने कहा कि हो सकती है। और निरोध को उपलब्ध होने की विधि साक्षी भाव 186 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ <मन साधन बन जाए है, विटनेसिंग है, तादात्म्य को तोड़ देना है। तादात्म्य को तोड़ना ही | पसे रहित है जो, रजोगुण जिसका शांत हो गया-इन योग है। योग का अर्थ है, जुड़ जाना। पा दो बातों को इस सूत्र में समझ लेना चाहिए। संसार से जो टूटने की कला सीख लेता है, वह प्रभु से जुड़ने पाप से मुक्त है जो! पाप क्या है ? चोरी पाप है। हिंसा की कला सीख लेता है। वह एक ही चीज के दो नाम हैं। इसलिए | पाप है। असत्य पाप है। ऐसा हम मोटा हिसाब रखते हैं। लेकिन जैन-शास्त्रों ने योग का बड़ा दूसरा उपयोग किया है। इसलिए कई | | वस्तुतः ये पाप के रूप हैं, पाप नहीं। जब मैं कहता हूं, पाप के रूप दफे बड़ी भ्रांति होती है। हैं, पाप नहीं, तो मेरा मतलब ऐसा है कि जब हम कहते हैं, यह हार जो लोग हिंदू-शास्त्र को पढ़ते हैं और हिंदू योग की परिभाषा से है गले का, यह हाथ की चूड़ी है, यह पैर की पांजेब है, तो ये रूप परिचित हैं, वे अगर जैन-शास्त्र पढ़ेंगे, तो बड़ी हैरानी में पड़ेंगे। हैं सोने के, आभूषण हैं सोने के, आकार हैं सोने के। क्योंकि जैन-शास्त्र कहते हैं, तीर्थंकर अयोग को उपलब्ध हो जाता | सोने को हम समझ लें. तो सब रूपों को हम समझ लेंगे। और है-अयोग को, योग को नहीं! अगर रूपों को हमने समझा, तो हम धोखे में पड़ेंगे। धोखे में लेकिन जैन-शास्त्र योग का अर्थ करते हैं, संसार से जुड़ना। तो | इसलिए पडेंगे कि अगर नए रूप का सोना सामने आ गया. तो हम तीर्थंकर अयोग को उपलब्ध हो जाता है; संसार से टूट जाता है। न समझ पाएंगे कि यह सोना है। क्योंकि अनंत रूप हो सकते हैं हिंदू-शास्त्र योग का अर्थ करते हैं, परमात्मा से जुड़ना। इसलिए सोने के। आपने अगर समझा कि चूड़ी सोना है, और आपने गले परम ज्ञानी योग को उपलब्ध हो जाता है, क्योंकि परमात्मा से जुड़ का हार देखा, तो आप न समझ पाएंगे कि यह सोना है। जाता है। अगर आपने एक चीज को पाप समझा और दूसरी चीज का अगर आप जैन-शास्त्र पढ़ेंगे, तो बड़ी बेचैनी में पड़ेंगे कि ये आपको पता नहीं है, पहचान नहीं है, और वह जिंदगी में आई, तो जैन-शास्त्र कहते हैं, योग से छूटो, अयोग को उपलब्ध हो जाओ। आप न समझ पाएंगे कि पाप है। आकार से बांधकर पाप को समझा हिंदू-शास्त्र कहते हैं, योग को उपलब्ध होओ। कि भूल होगी। निराकार से समझना जरूरी है। स्वर्ण से समझें, दोनों उपयोग हो सकते हैं। क्योंकि एक जगह से छूटना, दूसरी | आभूषण से नहीं। जगह जुड़ना है। संसार से छूटो, अयोग हो जाए, तो परमात्मा से ___ पाप तो एक ही है, पाप के रूप अनेक हो जाते हैं। सोना तो एक योग हो जाता है। संसार से योग हो जाए, जुड़ जाओ, तो परमात्मा | ही है, आभूषण अनेक हो जाते हैं। मूल को ठीक से समझ लें, तो से अयोग हो जाता है। सब जगह पहचान लेंगे कि पाप क्या है। और अगर आपने आकार कला, जो आर्ट है जीवन का, जीवन की जो कला है, वह इतनी को पकड़ा-आकार को पकड़ने की ही वजह से दुनिया में ही है कि तुम मालिक हो जाओ। जब चाहो जुड़ सको, जब चाहो अलग-अलग समाज अलग-अलग चीजों को पाप कहता है। टूट सको। मालकियत इतनी हो कि क्षण का इशारा और बात बदल आकार को पकड़ने की वजह से अलग-अलग समाज जाए, हवा का रुख बदल जाए, चेतना दूसरी तरफ बहने लगे। ऐसे, अलग-अलग चीज को पाप कहते हैं। ऐसे स्वतंत्रचेता व्यक्ति को ही प्रभु की उपलब्धि होती है। जो चीज एक समाज में पाप है, वह दूसरे में पाप नहीं है। ऐसा भी हो सकता है कि जो चीज एक समाज में पुण्य है, वह दूसरे में पाप है। और जो चीज एक समाज में पाप है, वह दूसरे में पुण्य है। .. प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम् । और ऐसा भी हो जाता है कि जो एक युग में पाप है, वह दूसरे युग उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम् ।। २७।।। | में पुण्य हो जाता मालूम पड़ता है। इसलिए बड़ा ही विभ्रम पैदा हुआ क्योंकि जिसका मन अच्छी प्रकार शांत है और जो पाप से है। बड़ा विभ्रम पैदा हुआ है। रहित है और जिसका रजोगुण शांत हो गया है, ऐसे इस आकार को अगर पकड़ेंगे, तो विभ्रम पैदा होगा। क्योंकि सच्चिदानंदघन ब्रह्म के साथ एकीभाव हुए योगी को अति | आकार बदलते रहते हैं। पाप की भी फैशन बदलती है, आभूषण उत्तम आनंद प्राप्त होता है। की ही नहीं। तो अगर आप पुराने पाप की परिभाषा पकड़े बैठे रहे, | तो पाप जो नए रूप लेगा—वह भी फैशन बदलता है; पुराने पाप 1871 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3> करते-करते भी मन ऊब जाता है, नए पाप खोजता है—तो नए पाप | सिर्फ पापी होने की खबर देता है; या ज्यादा से ज्यादा पाप का आपकी पुरानी व्याख्या में पकड़ में नहीं आते हैं, तो आप मजे से | | प्रायश्चित्त करने की खबर देता है; और कोई खबर नहीं देता। करते चले जाते हैं। मजे से करते चले जाते हैं। थोड़ा देखें कि कैसे धनी के घर पैदा होना पुण्य था। धन पुण्य से मिलता था कभी। यह हो जाता है! वह पुरानी परिभाषा थी। अब धनी के घर पैदा होना जैसे भीतर एक और इसलिए हर युग दिक्कत में पड़ता है। परिभाषा होती है। पश्चात्ताप लाता है कि कहीं कोई पाप, कहीं कोई अपराध, कहीं पुरानी और पाप होते हैं नए। पुरानी परिभाषा में कहीं उनके लिए कोई गिल्ट हो रही है। सूचना नहीं होती। जब तक परिभाषा बनती है, तब तक पाप की | प्रधो. पश्चिम का एक बहत बडा विचारक लिखता है कि सब फैशन बदल जाती है। परिभाषा बनने में तो समय लगता है,। | धन चोरी है। पुराने विचारक कहते थे, धन पुण्य से मिलता है। पूंधो डेफिनीशन बनने में समय लगता है, वक्त लगता है। अनुभव से | कहता है, सब धन चोरी है। तो चोरों के घर में पुण्य से कोई पैदा परिभाषा बनती है, तब तक फैशन बदल जाती है। और अब तो नहीं हो सकता, पाप से ही पैदा हो सकता है। स्वभावतः, चोरों के इतने जोर से पाप की फैशन बदल रही है कि बहुत मुश्किल है कि घर-अगर सब धन चोरी है तो चोरों के घर कोई पुण्य से कैसे . कोई परिभाषा काम करेगी। | पैदा होगा! पाप से ही पैदा हो सकता है। अगर धो की बात सच हालत करीब-करीब वैसी है, जैसा मैंने सुना है कि एक आदमी है, तो गरीब के घर पैदा होना बड़ा पुण्य कर्म है। पेरिस की सड़क पर जोर से भागा जा रहा है। एक मित्र रास्ते में | | युग बदलते हैं, परिभाषाएं बदल जाती हैं, लेकिन पाप नहीं मिला, नमस्कार की और कहा कि इतनी जल्दी में कहां जा रहे हो? | | बदलता। परिभाषाएं बदलती हैं। आभूषण बदलते हैं। सोना नया उसने कहा, मेरी पत्नी के कपड़े हैं हाथ में। इतनी दौड़ने की क्या | आभूषण बन जाता है। आकार बदल जाते हैं। बदलने से भूल जरूरत है? पत्नी कोई मुसीबत में है? उसने कहा, मुसीबत में नहीं। होती है। वैसे ही दर्जी ने देर कर दी है। और अगर मेरे पहुंचने में देर हो जाए, इसलिए कृष्ण ने उसमें दूसरी बात तत्काल जोड़ी है, वह मूल की तब तक तो फैशन बदल जाएगी। काफी खर्च उठाया है। कहीं | है। पहले कहा कि पाप से जो मुक्त है और फिर पीछे कहा, रजोगुण पहुंचने के पहले फैशन न बदल जाए। इसलिए क्षमा करो। फिर | के जो बाहर है। क्योंकि रजोगुण ही पाप का आधार है। कभी मिलना। अभी मैं जरा जल्दी में हूं। ___ अगर आपके भीतर रजोगुण है, तो वह नए-नए पाप खोज वह ठीक कह रहा है। पेरिस में इतने ही जोर से बदल रही है। लेगा; पुराने छोड़ेगा, नए खोज लेगा। लेकिन अगर भीतर रजोगुण फैशन। सारी दुनिया में ऐसे ही बदल रही है। और कपड़ों की फैशन | खो गया, तो पाप को खोजने का उपाय खो गया। आपके भीतर बदले, तो बहुत दिक्कत नहीं आती, क्योंकि क्या दिक्कत आने | पाप निर्मित हो सके, उसकी ऊर्जा खो गई। इसलिए बहुत गहरे में वाली है! लेकिन पाप भी फैशन बदलता है। और जब पाप फैशन रजोगुण की क्षमता ही पाप है। बदलता है, तो बड़ी मुश्किल हो जाती है, क्योंकि एकदम पकड़ में रजोगुण का मतलब है-रजोगुण का मतलब क्या है ? तीन गुण नहीं आता है कि यह पाप है। एकदम पकड़ में नहीं आता कि यह इस देश के मनसविद ने खोजे हैं। गहरे हैं वे गुण। मन के तीन गुण पाप है। इस देश की बड़ी गहरी खोज है। इस देश ने जो गहरे से गहरे तो पाप के हम अगर मल को समझ लें. तो ही हम पाप से बच | अनुदान जगत को दिए हैं, उसमें त्रिगण प्रकृति की खोज बड़ी गहरी सकेंगे, अन्यथा पाप से बचना कठिन है। | है। बड़ी गहरी है। वे तीन गुण हैं-सत्व, रज, तम। चित्त भी इन अब जैसे, कोई भी व्यवस्था को हम ले लें। कोई भी व्यवस्था | | तीन गुणों से काम करता है। को हम ले लें; जो कल पाप थी, आज पाप नहीं मालूम पड़ती। । तम का अर्थ है, वह शक्ति, जो चीजों में अवरोध डालती है। कल पुण्य थी, आज पाप हो गई। वक्त था एक, दान पुण्य था; | तम का अर्थ है, वह शक्ति, जो चीजों में अवरोध डालती है, दानी पुण्यात्मा था। आज जो भी दान करता है, हर एक समझता है | स्टैग्नेंसी पै र्स है। और कि बिना पाप किए दान नहीं हो सकता। पहले पाप करो, तब धन | अगर कोई स्टैटिक फोर्स न हो आपके भीतर, तो आप कहीं रुक न इकट्ठा करो, तभी दान कर पाओगे। तो आज जो दान करता है, वह पाएंगे; कहीं भी न रुक पाएंगे। कहीं भी न रुक पाएंगे, परमात्मा में दे चीजों को गोकनी रे। 1188| Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन साधन बन जाए > भी न रुक पाएंगे, अगर स्टैटिक फोर्स आपके भीतर न हो। ध्यान रहे, जैसा मैंने पहले सूत्र में समझाया, मन गति है। अगर तम सिर्फ रोकने वाली शक्ति है। जैसे जमीन से आप एक पत्थर आपमें रज की शक्ति बहुत ज्यादा है, तो मन को आप रोक न फेंकें ऊपर की तरफ, थोड़ी देर में जमीन पर गिर जाएगा, क्योंकि पाएंगे। मन गति करता ही रहेगा। जमीन में एक कशिश है, जो रोकती है। नहीं तो फेंका गया पत्थर मैंने आपको कहा कि एक्सेलरेटर दबाना पड़े, तो गाड़ी चलती फिर कभी नहीं रुकेगा; अनंत काल तक चलता ही रहेगा, चलता है। लेकिन गाड़ी में पेट्रोल होना चाहिए। बिना पेट्रोल के ही रहेगा। फिर कहीं गिर नहीं सकता। कोई अवरोध शक्ति चाहिए। एक्सेलरेटर मत दबाते रहें, नहीं तो गाड़ी नहीं चलेगी। नहीं तो आप नहीं तो आप चल पड़े घर से, तो फिर घर दुबारा वापस न आ कहेंगे कि गलत बात कही। हम तो एक्सेलरेटर दबा रहे हैं, वह सकेंगे। हां, घर में कोई तमस भी बैठा है, जो वापस खींच लाएगा। | चलती नहीं! पेट्रोल भी चाहिए, वह ऊर्जा भी चाहिए, जो गति ले पत्नी है, बच्चे हैं, वह स्टैग्नेंसी फोर्स है। सके। उस ऊर्जा का नाम रज है। रज कहें, मूवमेंट है। तम ठहराव जो लोग सभ्यता का अध्ययन करते हैं, वे कहते हैं, घर पुरुष ने | है, रेस्ट है। दोनों, आदमी को चलाने और ठहराने का कारण हैं। नहीं बनाया, स्त्री ने बनाया। इसीलिए उसको घरवाली कहते हैं। __ सत्व स्थिति है। वह न गति है, न ठहराव है; स्वभाव है। अगर आपको कोई घरवाला नहीं कहता। घर उसी का है। अगर स्त्री न | | आपके भीतर रज बहुत है, तो आप सत्व में ठहर न सकेंगे। आप हो, तो पुरुष जन्मजात खानाबदोश है। भटकता रहेगा; ठहर नहीं | | ठहर न सकेंगे सत्व में, रज दौड़ाता ही रहेगा। रज कम होना सकता। वह स्त्री की खूटी बन जाती है, फिर उसके आस-पास वह | चाहिए। लेकिन अगर रज बिलकुल शून्य हो जाए, तो आप सत्व रस्सी बांधकर घूमने लगता है कोल्हू के बैल की तरह। | में ठहर तो जाएंगे, लेकिन बेहोश हो जाएंगे होश में नहीं रहेंगे। परुष को अगर हम ठीक से समझें तो वह रज है. गति है। स्त्री सषप्ति में ऐसा ही होता है। रज बिलकल शन्य हो जाता है. को ठीक से समझें तो वह तम है. अगति है। इसलिए इस जगत बिलकल नहीं रह जाता. गति बिलकल नहीं रह जाती. और ठहराव में जितनी चीजों को ठहरना है, उन्हें स्त्री का सहारा लेना पड़ता है। | की शक्ति पूरा आपको पकड़ लेती है। लेकिन तब आपमें इतनी भी और जिन चीजों को चलना है, उन्हें पुरुष का सहारा लेना पड़ता है। गति नहीं रह जाती कि आप जान सकें कि मैं कहां हूं। क्योंकि यह बड़े मजे की बात है कि सब चीजों को चलाने वाले पुरुष होते | | जानना भी एक मूवमेंट है। नोइंग इज़ ए मूवमेंट, ज्ञान एक गति है। हैं और ठहराने वाली स्त्रियां होती हैं। दुनिया में इतने धर्म पैदा हुए, इसलिए सुषुप्ति में कुछ भी नहीं रह जाता, आप जड़वत हो जाते हैं। एक भी स्त्री ने पैदा नहीं किया; सब पुरुषों ने पैदा किए। लेकिन समाधि का अर्थ है, रज और तम उस स्थिति में आ जाएं कि दुनिया में जितने धर्म टिके हैं, स्त्रियों की वजह से; पुरुषों की वजह | | एक-दूसरे को संतुलित कर दें, एक-दूसरे को निगेट कर दें, काट से कोई भी नहीं। | दें। रज और तम ऐसे संतुलन में आ जाएं कि एक-दूसरे को काट सब धर्म पुरुष पैदा करते हैं—चाहे जैन धर्म हो, चाहे हिंदू, चाहे दें। ऋण और धन बराबर शक्ति के हो जाएं, तो शून्य हो जाएंगे। बौद्ध, चाहे इस्लाम, चाहे ईसाई, चाहे जोरोस्ट्रियन, चाहे कोई उस शून्य में सत्व का उदभावन होता है। उस शून्य में सत्व का फूल भी-दुनिया के सब धर्म पुरुष पैदा करता है। मगर उसकी सुरक्षा | | खिलता है। उस शून्य में आप सत्व में ठहर भी जाते हैं और जान स्त्री करती है। मंदिर में जाकर देखें। पुरुष दिखाई नहीं पड़ता। हां, भी लेते हैं। इतना रज रहता है कि जान सकते हैं; इतना तम रहता कोई पुरुष अपनी स्त्री के पीछे चला गया हो, बात अलग है! कोई | | है कि ठहर सकते हैं। खड़े हो सकते हैं, जान सकते हैं। और सत्व दिखाई नहीं पड़ता। स्त्रियां दिखाई पड़ती हैं। में स्थिति हो जाती है; स्वभाव हो जाता है। एक बार किसी चीज को गति मिल जाए, तो उसको ठहराने के | सब पाप रज की अधिकता से होते हैं। सब पाप रज की लिए जगह स्त्री में है, पुरुष के पास नहीं है। वह तो गति देकर दूसरी | अधिकता से होते हैं। रजाधिक्य पाप करवा देता है। और चीज को गति देने में लग जाएगा। वह रुकेगा नहीं। कभी-कभी अकारण पाप भी करवा देता है। रोकने की शक्ति, मन के पास भी ऐसी ही शक्ति है एक, जो | सार्च की एक कथा है, जिसमें एक आदमी पर अदालत में रोकती है; और एक शक्ति है, जो दौड़ाती है। तमस अवरोध शक्ति | मुकदमा चलता है। क्योंकि उसने समुद्र के तट पर, किसी व्यक्ति है, रज गति शक्ति है। को, जो धूप ले रहा था सुबह की, उसकी पीठ पर जाकर छुरा भोंक 189 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 > दिया। मुकदमा इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है कि उस आदमी ने, छुरा भोंकने वाले ने, जिसकी पीठ में छुरा भोंका, उसका चेहरा कभी नहीं देखा था। झगड़े का तो कोई सवाल नहीं; दुश्मनी का कोई सवाल नहीं। पहचान ही नहीं थी । दुश्मनी के लिए कम से कम पहचान तो अनिवार्य शर्त है। दुश्मनी के लिए पहले तो मित्रता बनानी ही पड़ती है। बिना मित्रता बनाए, तो दुश्मनी नहीं बन सकती। कोई मित्रता ही नहीं थी, कोई पहचान नहीं थी। कोई एक्वेनटेंस भी नहीं था, परिचय भी नहीं था। वह यह भी नहीं जानता था, इस आदमी का नाम क्या है। सिर्फ पीठ देखी पीठ तो फेसलेस होती है। उसका तो कोई चेहरा नहीं होता। उसने छुरा भोंक दिया! अदालत उससे पूछती है कि तूने छुरा क्यों भोंका इस आदमी की पीठ में? क्योंकि न तू इसे पहचानता है, न तू इसे जानता है। न तो तेरी कोई दुश्मनी है, न कोई तेरा संबंध है ! वह आदमी कहता है कि मैं सिर्फ कुछ करने को बेचैन था। कुछ करने को बेचैन ! और कुछ दिन से ऐसा बेचैन था कि कुछ सूझ ही नहीं रहा था, क्या करूं! और कुछ ऐसा करना चाहता था, जिसको कहा जा सके ईवेंट, घटना! मन बड़ा बेचैन था । मैं प्रफुल्ल हूं, प्रसन्न हूं। अखबार में फोटो भी छप गई है; चर्चा भी हो रही है। आई हैव डन समथिंग, कुछ मैंने किया। और जब आदमी कुछ करता है, ही बिकम्स समबडी, वह कुछ हो जाता है। मैं प्रसन्न हूं, आप कारण वगैरह मत पूछें मुझसे। वह मजिस्ट्रेट कहता है कि कैसा मामला है! कुछ तो कारण होना चाहिए ? वह आदमी कहता है, मुझे बताइए कि मेरे जन्म का कारण क्या है ? और जब मैं मर जाऊंगा, तो कोई कारण होगा? कुछ कारण नहीं है। मेरे जवान होने का कारण क्या है? और मैं एक स्त्री के प्रेम में गिर गया था, तो अदालत बता सकती है कि कारण क्या है? कोई कारण जब किसी चीज के लिए नहीं है, तो इस नाहक छोटी-सी घटना को इतना तूल क्यों दे रहे हैं कि मैंने इसकी पीठ में छुरा भोंक दिया! मजिस्ट्रेट निर्णय करने में बड़ी मुश्किल में पड़ा हुआ है कि क्या निर्णय करे, क्या सजा दे ! यह शुद्ध पाप है! शुद्ध पाप की सजा किसी कानून में नहीं लिखी है। आभूषणों की सजा लिखी हुई है। यह बिलकुल शुद्ध पाप है, जो सिर्फ शक्ति की गति की वजह से हो गया है। लेकिन मजिस्ट्रेट कहता है कि फांसी तो मुझे तुझे देनी ही होगी । वह आदमी कहता है, आप फांसी दे दें। कारण न बताएं। कारण बताने की कोई जरूरत नहीं है। हम राजी हैं। मैं बिलकुल राजी हूं। आप फांसी दे दें। कारण बताने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन मजिस्ट्रेट कहता है, जजमेंट मुझे लिखना पड़े, तो कारण तो चाहिए ही । वह कैदी कहता है, तो सारी जिरह आप इसीलिए कर रहे हैं, ताकि फांसी लगाने का कारण मिल जाए ! और मैं कहता हूं, मैंने अकारण छुरा भोंका है। छुरा भोंकने के आनंद के लिए छुरा भोंका है। और जब उसकी पीठ में छुरा भुंका और खून का फव्वारा फैला, तो मैंने जिंदगी में पहली दफा, जिसको कहें, थ्रिल, पुलक अनुभव की। मैं प्रसन्न हूं। आप सोचें, क्या सारे पाप ऐसी ही पुलक से पैदा नहीं होते ? नहीं, आप सब कारण खोज लेते हैं । और कारण खोजकर आप | रेशनलाइज कर लेते हैं। आप कहते हैं, मैंने इसलिए किया। लेकिन अगर गहरे में जाएंगे, तो पाप करने के लिए ही किया जाता है; कोई और कारण नहीं होता। आपके भीतर ऊर्जा होती है, रज होता है, | जो कुछ करना चाहता है। कुछ धक्के देना चाहता है। कुछ करना चाहता है। उस करने से ही सारे पाप रूप लेते हैं। कृष्ण कहते हैं, वह जो रजोगुण है, उस रजोगुण के पार जाना जरूरी है। लेकिन पार जाने का अर्थ ? रजोगुण और तमोगुण इस संतुलन आ जाएं कि शून्य हो जाएं। अगर आप रजोगुण को बिलकुल काट डालें, जो कि संभव नहीं है। क्योंकि काटेगा कौन? काटने | का काम रजोगुण ही करता है, गति । काटेगा कौन? अगर एक आदमी कहता है कि मैं करूंगा साधना और रजोगुण को काट दूंगा, तो साधना रजोगुण करता है, एफर्ट रजोगुण से आता है। काटेगा कौन? काटने वाला बच जाएगा पीछे। काटने में मत पड़ें, सिर्फ | संतुलन काफी है। रज और तम बराबर अनुपात में आ जाएं जीवन में, तो आपकी प्रतिष्ठा सत्व में हो जाती है। और वैसे सत्व को उपलब्ध हुआ व्यक्ति, कृष्ण कहते हैं, अति उच्च, अति श्रेष्ठ आनंद को उपलब्ध होता है। अति उत्तम आनंद को उपलब्ध होता है, वैसे सत्व में खिल गया व्यक्ति । सत्व खिल जाना फूल की भांति । उस खिलने का राज तम और रज का संतुलित हो जाना है। यह ट्राएंगल है जीवन की शक्तियों का, एक त्रिभुज । दो भुजाएं, दो कोणों को नीचे बनाती हैं। वे जो नीचे के दो कोण हैं, वे रज और तम हैं। अगर वे बिलकुल संतुलित हो जाएं, साठ-साठ डिग्री के 190 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन साधन बन जाए हो जाएं, तो सत्व का संतुलित कोण ऊपर प्रकट हो जाता है। वह जो तीसरा कोण प्रकट होता है सत्व का, वही कोण फ्लावरिंग है, वही फूल का खिलना है। यह जो सत्व के फूल का खिलना है, यह अति उच्च श्रेष्ठतम आनंद का शिखर छ लेता है। वह शिखर हैं। इस शिखर को छूने के लिए क्या करें? गति को और अगति को संतुलन में लाएं। कैसे लाएंगे ? क्या रास्ता है, क्या विधि है, क्या मार्ग है कि इनमें से एक चीज विक्षिप्त होकर ओवरफ्लो न करने लगे, बाहर न दौड़ने लगे? एक ही रास्ता है । और वह रास्ता, जैसा मैंने पहले सूत्र में कहा, यदि आपका मन आपके काबू में आ जाए और आप जब चाहें तब मन को ठहरा सकें, और जब चाहें तब मन को चला सकें, तो चलना और ठहरना संतुलित हो जाएगा। क्योंकि आपके हाथ में हो जाएगा। जब तक आपके हाथ में नहीं है, तब तक संतुलन असंभव है। तब तक हम सभी असंतुलित रहते हैं। कोई एक चीज पर ठहर जाता है। एक आदमी को हम कहते हैं, एकदम तामसी है, आलसी है, प्रमादी है । उठता ही नहीं, पड़ा ही रहता है; बिस्तर पर ही पड़ा हुआ है। वह एक तम भारी पड़ गया है उसके ऊपर; रज बिलकुल नहीं उठने का भी मन होता है, तो एक करवट ही ले पाता है, ज्यादा से ज्यादा। करवट लेकर फिर सो जाता है। एक दूसरा आदमी है कि दौड़ता ही रहता है। रात सोने भी बिस्तर पर जाता है, तो सिवाय करवटें लेने के सो नहीं पाता। एक तामसी है, जो करवट लेकर फिर सो जाता है। और एक रजोगुण से भरा हुआ आदमी है, जिसका मन इतना दौड़ता है कि रात सोना भी चाहता तो सिर्फ करवट ही ले पाता है और कुछ नहीं कर पाता। करवटें | बदलता रहता है! रात भी मन ठहरता नहीं, दौड़ता ही रहता है। सारा मनुष्य का व्यक्तित्व ऐसा ही असंतुलित है । और इन दो के बीच असंतुलन है। और अगर यह संतुलन ठीक न हो पाए, जीवन की सारी जटिलताएं पैदा होती हैं - सारी जटिलताएं ! तो सारी जटिलताएं असंतुलन, इम्बैलेंस का फल हैं। सारे पाप इम्बैलेंस का फल हैं। और पाप दो तरह के हैं। एक ऐसा पाप, रजोगुण से पैदा होता है, पाजिटिव । रजोगुण से वह पाप पैदा होता है, जैसा इस आदमी ने पीठ में छुरा भोंक दिया। एक ऐसा पाप भी है, जो तमोगुण से पैदा होता है । उसको उदाहरण के लिए समझ लें कि आप भी इस पीठ में छुरा जब भोंका जा रहा था, तब आप भी बैठे थे। लेकिन आप बैठे ही रहे। आपने उठकर यह भी न कहा हुए कि क्या कर रहे हो ? यह क्या हो रहा है? बल्कि आपने और आंख बंद कर ली और ध्यान करने लगे। आप भी पाप में भागीदार हो रहे हैं, लेकिन निगेटिवली । यह तमोगुण का पाप है । आप भी जिम्मेवार हैं। यह घटना आपके भी नकारात्मक सहयोग से फलित हो रही है। दुनिया में दो तरह के पापी हैं, पाजिटिव और निगेटिव, विधायक और नकारात्मक | विधायक वे, जो कुछ करते हैं; और नकारात्मक वे, जो खड़े होकर देखते रहते हैं। अब बंगाल है। एक गांव में पांच आदमी नक्सलाइट हो जाते हैं। पांच हजार का गांव है। पांच आदमी रोज हत्या करते हैं, पांच | हजार का गांव बैठा देखता रहता है। वे निगेटिव नक्सलाइट हैं, वे जो बैठकर देख रहे हैं। पांच आदमी हत्या कर रहे हैं, और वे कहते हैं कि बड़ा मुश्किल हो गया। पांच आदमी हत्या कर रहे हैं रोज, पांच हजार आदमी रोज देख रहे हैं। कलकत्ता मैं जाता हूं, तो देखकर हैरान होता हूं। ट्राम में सौ आदमी सवार हैं, लटके हैं दरवाजों से। दो लड़के आ जाते हैं, ट्रेन में आग लगा देते हैं। बाकी लोग खड़े होकर देखते हैं, फिर अपने घर चले जाते हैं कि नक्सलाइट बहुत उपद्रव कर रहे हैं। यह निगेटिव पाप है। यह तमस के आधिक्य से पैदा हुआ पाप है । यह करता कुछ नहीं, लेकिन बहुत-सा करना इसके ही सहयोग से फलित होते हैं। यह करता कुछ नहीं; यह देखता रहता है। हम पाजिटिव पापी को तो पकड़ लेते हैं, जेल में डाल देते हैं। लेकिन निगेटिव पापी के लिए अभी तक कोई जेल नहीं है। लेकिन निगेटिव पापी भी छोटा-मोटा पापी नहीं है। इसलिए मैंने कहा कि पाप के आभूषणों को मत पकड़ें। पाप की जड़ को पहचानने की कोशिश करें। अगर आपका चित्त तमस की तरफ ज्यादा झुका, तो आप नकारात्मक पापों में लग जाएंगे। अगर आपका चित्त रज की तरफ ज्यादा झुका, तो आप विधायक पापों में लग जाएंगे। और पाप के बाहर होने का उपाय है कि रज और तम दोनों संतुलित हो जाएं, तो आपकी फ्लावरिंग सत्व में हो जाएगी। और सत्व ही पुण्य है। लेकिन जिन्हें हम पुण्य कहते हैं, वे पुण्य नहीं हैं। अगर हम ठीक से समझें, तो जिन्हें हम पुण्य कहते हैं, वे भी दो तरह के ही होते हैं, जैसे दो तरह के पाप होते हैं। कुछ लोग इसलिए पुण्यात्मा | मालूम पड़ते हैं कि तमस इतना ज्यादा है कि पाप नहीं कर पाते, 191 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ << गीता दर्शन भाग-3 नकारात्मक हैं। एक आदमी कहता है कि मैंने कभी चोरी नहीं की। इसका यह मतलब नहीं कि वह चोर नहीं है। अचोर होना बहुत मुश्किल बात है। इतना ही हो सकता है कि इतना तामसी है कि चोरी करने भी नहीं जा सका। इतना तामसी है कि चोरी करने में भी कुछ तो करना पड़ेगा। जनरल मौंटगोमरी ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि दुनिया में चार तरह के लोग हैं। एक वे, जो ज्ञानी हैं, लेकिन निष्क्रिय हैं। उनके ज्ञान से जगत को कोई लाभ नहीं होता; उनको भी होता हो, संदिग्ध है। एक वे, जो अज्ञानी हैं, लेकिन बड़े सक्रिय हैं। वे सारे जगत को हजारों तरह के नुकसान पहुंचाते हैं। जगत को तो पहुंचाते ही हैं, खुद को भी पहुंचाते हैं। एक वे, जो ज्ञानी हैं और सक्रिय हैं। लेकिन ऐसे लोग विलक्षण हैं; मुश्किल से कभी पैदा होते हैं। एक वे, जो अज्ञानी हैं और निष्क्रिय हैं। ये भी विलक्षण हैं; ये भी मुश्किल से कभी पैदा होते हैं। ये दोनों छोर वाले लोग बहुत मुश्किल से पैदा होते हैं। श्रेष्ठतम तो वह है, जो ज्ञानी है और सक्रिय है। नंबर दो पर वह है, जो अज्ञानी है और निष्क्रिय है; कम से कम किसी उपद्रव में विधायक रूप से नहीं जाएगा। नंबर तीन पर वे हैं, जो ज्ञानी हैं और निष्क्रिय हैं। और नंबर चार पर वे हैं, जो अज्ञानी हैं और सक्रिय हैं। और ये नंबर चार के लोग निन्यानबे प्रतिशत हैं पृथ्वी पर। यह विभाजन भी अगर ठीक से देख लें, तो तम और रज का ही विभाजन है। वह जो सत्व वाला व्यक्ति है, वह वही है, जो ज्ञानी है और सक्रिय है। लेकिन ज्ञान और सक्रिय, क्रिएटिव नालेज, सर्जनात्मक ज्ञान तभी फलित होता है, जब तम और रज दोनों संतुलित हो जाते हैं, जैसे तराजू के पलड़े। और ऐसी स्थिति में, कृष्ण कहते हैं, परम आनंद को उपलब्ध होता है योगी। शेष हम रात लेंगे। अभी हम थोड़े-से संतुलन की दिशा में, तराजू के पलड़ों को थोड़ा एक जगह लाकर खड़ा करने की कोशिश करें। कोई जाए न! एक पांच मिनट संन्यासी यहां आनंद में डूबते हैं। संन्यासियों से कहना चाहता हूं, पूरे आनंद में डूबें, भूल जाएं अपने को। और आपसे कहता हूं, उनके भूलने में सहयोगी बनें। तालियां बजाएं, गीत गाएं। डोलें अपनी जगह पर। ये पांच मिनट भूल जाएं सब, जो सोचा, समझा, विचारा। और पांच मिनट लीन हो जाएं प्रभु में। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 6 तेरहवां प्रवचन पदार्थ से प्रतिक्रमणपरमात्मा पर Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग - 3 > युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः । सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ।। २८ । । और वह पापरहित योगी इस प्रकार निरंतर आत्मा को परमात्मा में लगाता हुआ सुखपूर्वक परब्रह्म परमात्मा की प्राप्तिरूप अनंत आनंद को अनुभव करता है। पा प से रहित हुआ व्यक्तित्व आत्मा को सदा परमात्मा में लगाता हुआ परम आनंद को उपलब्ध होता है। पाप से रहित हुआ पुरुष ही आत्मा को परमात्मा की ओर सतत लगा सकता है। पाप से रहित हुआ जो नहीं है, पाप में जो संलग्न है, वह आत्मा को सतत रूप से पदार्थ में लगाए रखता है। अगर पाप की हम ऐसी व्याख्या करें, तो भी ठीक होगा, आत्मा को पदार्थ में लगाए रखना पाप है। आत्मा को पदार्थ में लगाए रखना पाप है और आत्मा को परमात्मा में लगाए रखना पुण्य है। पाप का फल दुख है, पुण्य का फल आनंद है। पदार्थ का उपयोग एक बात है, और पदार्थ में आत्मा को लगाए रखना बिलकुल दूसरी बात है। पदार्थ का उपयोग किया जा सकता है बिना पदार्थ में आत्मा को लगाए । वही योग की कला है । उस कुशलता का नाम ही योग है। पदार्थ का उपयोग किया जा सकता है बिना आत्मा को पदार्थ में लगाए । । उपयोग तो करना पड़ता है शरीर से । जैसे आप भोजन कर रहे हैं। भोजन तो करना पड़ता है शरीर से जाता भी शरीर में है, पचता भी शरीर में है। जरूरत भी, भोजन, शरीर की है। लेकिन भोजन में आत्मा को भी लगाए रखा जा सकता है। और मजा यह है बिना भोजन किए भी आत्मा को भोजन में लगाए रखा जा सकता है। उपवास अगर आपने किया हो, तो आपको पता होगा। भोजन नहीं करते हैं, लेकिन आत्मा भोजन में लगी रहती है। आत्मा को लगाने के लिए भोजन करना जरूरी नहीं है; और भोजन करने के लिए आत्मा को लगाना जरूरी नहीं है। ये अनिवार्य नहीं हैं बातें। जैसे बिना भोजन किए भी हम आत्मा को भोजन में लगाए रख सकते हैं, वैसे ही हम भोजन करते हुए भी आत्मा को भोजन में न लगाएं, इसकी संभावना है। एक तो हमारा अनुभव है कि बिना भोजन किए आत्मा शरीर में लग सकती है। वह हमारा सब का अनुभव है। दूसरा अनुभव हमारा नहीं है। लेकिन दूसरा अनुभव इसी अनुभव का दूसरा अनिवार्य छोर है। अगर यह संभव है कि आत्मा भोजन में लगी रहे बिना भोजन के, तो यह संभव क्यों नहीं है कि भोजन चलता रहे और आत्मा भोजन में न लगे ? 194 यह भी संभव है। क्योंकि पदार्थ का सारा संबंध, सारा संसर्ग शरीर से होता है । पदार्थ का कोई संसर्ग आत्मा से होता नहीं । आत्मा तो सिर्फ खयाल करती है कि संसर्ग हुआ, और खयाल से ही बंधती है। आत्मा पदार्थ से नहीं बंधती, विचार से बंधती है। आत्मा तो सिर्फ विचार करती है, और विचार करके बंध जाती है। विचार ही छोड़ दे, तो मुक्त हो जाती है। आत्मा के ऊपर पदार्थ का कोई बंधन नहीं है, रस का बंधन है। और हम सब पदार्थ में रस लेते हैं। और जहां हम रस लेते हैं, वहीं ध्यान प्रवाहित होने लगता है। जहां हम रस लेते हैं, वहीं ध्यान की धारा बहने लगती है। परमात्मा में हमने कोई रस लिया नहीं । उस तरफ कभी ध्यान की कोई धारा बहती नहीं। पदार्थ में हम रस लेते हैं, उस तरफ धारा बहती है। क्या करें? इस पाप से कैसे छुटकारा हो ? यह जो पदार्थ को पकड़ने का पागलपन है, इससे कैसे छुटकारा हो ? एक आधारभूत बात इस छुटकारे के लिए जरूरी है, और वह यह कि पदार्थ में जब हम रस लेते हैं, तो यह बड़ी मजे की बात है कि जितना ज्यादा आप रस लेने की कोशिश करते हैं, उतना कम रस मिलता है। जितना ज्यादा रस लेने की कोशिश करते हैं, उतना कम रस मिलता है। | अगर आप कभी खेल खेलने गए हैं और आपने सोचा कि आज खेल में बहुत आनंद लें, बहुत सुख लें, तो आपको पता चलेगा कि आप कोशिश करते रहना सुख लेने की और आप पाएंगे कि सुख बिलकुल हाथ नहीं लगा। कोशिश से सुख हाथ लगता नहीं कोई डायरेक्ट, सीधा सुख पाया जा सकता । जिस चीज से भी आप सीधा सुख पाने की कोशिश करेंगे, पाएंगे कि चूक गए। आज तय करके जाएं घर कि आज घर जाकर सुख लेंगे। भोजन में सुख लेंगे। बच्चों से मिलकर सुख लेंगे। प्रियजनों से प्रेम करके सुख लेंगे। और पूरी, सतत कोशिश करना कि प्रेम कर रहे, और सुख लेंगे; भोजन कर रहे, और सुख लेंगे; खेल रहे, और सुख लेंगे । और आप अचानक पाएंगे कि सुख तो तिरोहित हो गया, वह कहीं है नहीं। सुख बाइ-प्रोडक्ट है। सुख सीधी चीज नहीं है। सुख ऐसा है Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदार्थ से प्रतिक्रमण-परमात्मा पर - जैसे कि गेहूं के साथ भूसा पैदा होता है। गेहूं बो देते हैं, बालियां मरते हैं। कम भोजन से बहुत कम लोग बीमार पड़ते हैं, ज्यादा लग जाती हैं, गेहूं फल जाता है और साथ में भूसा पैदा हो जाता है। भोजन से ज्यादा लोग बीमार पड़ते हैं। कभी भूलकर भूसे को सीधा मत बो देना। ऐसा मत सोचना कि अगर आज अमेरिका सबसे ज्यादा बीमार कौम है, तो उसका भूसा बो देंगे, तो पौधा पैदा होगा; पौधे में और भी ज्यादा भूसा कारण कुछ और नहीं है, अत्यधिक भोजन उपलब्ध है। पहली दफा लगेगा। क्योंकि गेहूं में इतना भूसा लग गया, तो भूसे में कितना ओवरफेड मुल्क है, जिसके पास खाने को जरूरत से ज्यादा है। भूसा नहीं लगेगा। और खाए चला जा रहा है सुबह से शाम तक, पांच बार! सारी कुछ भी हाथ नहीं लगेगा। हाथ का भूसा भी सड़ जाएगा। भूसा बीमारी घेर रही है। सारी तकलीफ, सारी पीड़ा घेर रही है। बाइ-प्रोडक्ट है; गेहूं के साथ पैदा होता है, सीधा पैदा नहीं होता। खयाल है कि भोजन ज्यादा कर लेंगे, तो सुख मिलेगा। जब सुख बाइ-प्रोडक्ट है। थोड़े भोजन से थोड़ा मिलता है, ज्यादा भोजन से ज्यादा मिल दुख सीधा पैदा होता है। दुख गेहूं की तरह है। अब मैं आपको जाएगा, तो भोजन करते चले जाओ। सुख तो नहीं मिलता, सिर्फ कहूं, दुख गेहूं की तरह है। सुख उसके भूसे की तरह है। दुख हाथ लगता है। आस-पास दिखाई पड़ता है; सत्व नहीं होता सुख में कुछ। बीज में भोजन से सिर्फ उसे ही सुख मिलता है, जो भोजन में रस लेने दुख छिपा होता है। नहीं जाता, सिर्फ भोजन का उपयोग करता है; भोजन करता है। ध्यान रहे, जब हम जमीन में बोते हैं, तो गेहूं बोते हैं। गेहूं भीतर और जो ठीक से भोजन करता है, रस की फिक्र छोड़कर, वह होता है, भूसा बाहर होता है। लेकिन जो बाहर से देखता है, उसे | भोजन से बहुत रस उपलब्ध करता है। क्योंकि वह चबाकर भूसा पहले दिखाई पड़ता है। भूसे को खोले, तब गेहूं मिलता है। खाएगा। स्वाद से खाने वाला कभी चबाकर खाने वाला नहीं होगा। प्रकृति में गेहूं पहले आता है, भूसा पीछे आता है। दृष्टि में भूसा स्वाद से खाने वाला गटकेगा, क्योंकि इतनी फुर्सत कहां! जितना पहले आता है, गेहूं पीछे आता है। ज्यादा गटक जाए। पेट का उपयोग स्वाद वाला ऐसे करता है, जैसे दुख तो बीज है। उसके चारों तरफ सुख का भूसा छाया रहता है। कोई तिजोरी में रुपए डाल रहा हो। देखने वाले को सुख पहले दिखाई पड़ता है, और जब सुख को लेकिन जो भोजन का उपयोग करता है, वह गटकता नहीं; वह छीलता है, तब दुख हाथ लगता है। लेकिन बोने वाले को दुख ही | चबाता है। और जो चबाता है, उसको रस मिल जाता है। मैं आपसे बोना पड़ता है। और अगर आपने सीधा सुख बोने की कोशिश की, कह रहा हूं, बाइ-प्रोडक्ट है। और जो रस पाना चाहता है, गटक तो कुछ हाथ नहीं लगने वाला है। कुछ भी हाथ लगने वाला नहीं है। जाता है, उसे रस तो नहीं मिलता, सिर्फ बीमारी हाथ लगती है। पदार्थ में जो आदमी जितना ज्यादा सीधा रस लेगा. उतना ही कम जीवन में जो भी रसपर्ण है. वह उपयोग से मिलता हैरस उपलब्ध कर पाएगा। अगर पदार्थ में कोई सीधा रस न ले. सिर्फ उपयोग। सम्यक उपयोग तब संभव हो पाता है. जब पदार्थ से पदार्थ का उपयोग करे-उपयोग सीधी बात है तो बड़े हैरानी की | हमारी आत्मा का कोई आसक्ति, कोई राग, कोई लगाव न हो। हम बात है कि पदार्थ का उपयोग करने वाला पदार्थ से बहुत रस ले सिर्फ उपयोग कर रहे हों। पाता है। और पदार्थ में रस लेने वाला उपयोग तो कर ही नहीं पाता, ___ आसक्ति बहुत और बात है। आसक्ति का मतलब है, हम सीधा बहुत तरह के दुखों में पड़ जाता है। रस लेने की कोशिश कर रहे हैं। आसक्ति का अर्थ है कि हम लेकिन हम पदार्थ का उपयोग नहीं करते हैं, हम पदार्थ में रस सोचते हैं कि जितना ज्यादा पदार्थ हमारे पास होगा, हम उतने सुखी लेने की कोशिश करते हैं। इसका फर्क समझें। थोड़ा बारीक है, हो जाएंगे। ऐसा होता नहीं। अक्सर इतना ही होता है कि जितनी इसलिए एकदम से शायद खयाल में न आए। ज्यादा वस्तुएं होती हैं, उतने हम चिंतित हो जाते हैं। और हर वस्तु जो आदमी भोजन में रस लेने की कोशिश करेगा, उसे भोजन | | की रक्षा के लिए और वस्तुएं चाहिए, और वस्तुओं की रक्षा के लिए से नुकसान पहुंचेगा, रस नहीं मिलने वाला है। इसलिए अक्सर | और वस्तुएं चाहिए। और अंत में हम पाते हैं कि आदमी खो गया ज्यादा भोजन से लोग पीड़ित और परेशान हैं। चिकित्सक कहते हैं, | और वस्तुओं का ढेर रह गया। कम भोजन से बहुत कम लोग मरते हैं, ज्यादा भोजन से ज्यादा लोग आदमी खो ही जाता है। वस्तुएं धीरे-धीरे इतने जोर से चारों 1951 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 तरफ इकट्ठी हो जाती हैं कि उनके बीच में हम कहां समाप्त हो गए, मन में नहीं है। वस्तुओं का रस ही सभी तरह के पाप करवा देता है हमें पता भी नहीं चलता। वस्तुओं में जिसने भी सीधा रस लेने की फिर। फिर वस्तुओं की दौड़ में कौन से पाप करने, कौन से नहीं कोशिश की, वह वस्तुओं से दब जाएगा और स्वयं को खो देगा। करने, इसका विचार करना मुश्किल हो जाता है। वस्तुएं सब पाप और जिस व्यक्ति ने स्वयं को बचाने की कोशिश की और वस्तुओं करवा लेती हैं। आखिर बड़े सम्राट अगर इतनी हत्याएं कर जाते से अपने को पार रखा; जाना सदा कि वस्तुओं का उपयोग है; हैं–नादिर या सिकंदर या हिटलर या स्टैलिन–अगर बड़े वस्तुएं साधन हैं, साध्य नहीं; मीन्स हैं, एंड नहीं; उनका उपयोग राजनीतिज्ञ सब तरह के पाप कर जाते हैं, तो किसलिए? खयाल कर लेना है; जरूरत है उनकी, लेकिन जीवन का परम सौभाग्य है कि सत्ता हाथ में होगी, तो वस्तुओं की मालकियत हाथ में उनसे फलित नहीं होता है। होगी। खयाल है कि धन हाथ में होगा, तो सारी वस्तुएं खरीदी जा जीसस का वचन है-विचारणीय है-जीसस ने कहा है, मैन | सकती हैं। कैन नाट लिव बाइ ब्रेड अलोन, आदमी अकेली रोटी से नहीं जी। लेकिन सारी वस्तुएं खरीद ली जाएं और मुझे यह पता न चले सकता। कि मैं वस्तुओं से अलग भी कुछ हूं, तो मेरे जीवन में पाप घिर इसका यह मतलब नहीं है कि आदमी बिना रोटी के जी सकता जाएगा, अंधकार भी घिर जाएगा, पदार्थ भी भारी पत्थर की तरह है। इसका यह मतलब नहीं है। क्योंकि बिना रोटी के कोई नहीं जी | मेरी छाती पर पड़ जाएंगे, लेकिन मैं खो जाऊंगा। सकता। लेकिन जब जीसस कहते हैं कि आदमी अकेली रोटी से | | स्वामी राम टोकियो में मेहमान थे। और तब की बात है, जब नहीं जी सकता, तो उनका कहना यह है कि रोटी जरूरत तो है, | टोकियो में नए ढंग के मकान बहुत कम थे, सभी लकड़ी के मकान लक्ष्य नहीं है। थे। एक सांझ निकलते थे, और एक मकान में आग लग गई है; अगर आपकी सब जरूरतें भी पूरी कर दी जाएं, तो भी आपको लोग सामान बाहर निकाल रहे हैं। जिसका मकान है, वह छाती जिंदगी न मिलेगी। तो भी जीवन का फूल नहीं खिलेगा। तो भी पीटकर रो रहा है। राम भी उस आदमी के पास खड़े होकर उस जीवन की सगंध नहीं प्रकट होगी। तो भी जीवन की वीणा नहीं आदमी को गौर से देखने लगे। बजेगी। सब मिल जाए, तो भी अचानक पाया जाता है कि कुछ शेष | | वह छाती पीट रहा है, रो रहा है और चिल्ला रहा है, कह रहा रह गया। | है, मैं मर गया! राम थोड़े चिंतित हुए, क्योंकि वह आदमी बिलकुल वह शेष वही रह गया, जो हमारे भीतर था और जिसे हम | नहीं मरा है। बिलकुल साबित, पूरा का पूरा है। चारों तरफ उसके वस्तुओं से पार करके कभी न देख पाए, और कभी न जान पाए। | घूमकर भी देखा। उस आदमी ने कहा भी कि क्या देखते हो! मैं मर वही शेष रह गया। वही खाली जगह रह जाएगी। गया हूं, लुट गया, सब खो गया। इसलिए अक्सर ऐसा होता है. जिनके पास सब होता है. वे बडी राम बडे चिंतित हए. क्योंकि उसका कछ भी नहीं खोया है। वह एंप्टीनेस, बड़ा खालीपन अनुभव करते हैं। सब रिक्त हो जाता है | आदमी पूरा का पूरा है। लेकिन हां, मकान में तो आग लगी है, और भीतर। ऐसा लगता है कि सब तो है, लेकिन अब! जब तक सब लोग ला रहे हैं सामान। तिजोड़ियां निकाली जा रही हैं। कीमती नहीं होता, तब तक एक भरोसा भी रहता है कि एक कार और पोर्च | | वस्त्र निकाले जा रहे हैं। हीरे-जवाहरात निकाले जा रहे हैं। फिर में खड़ी हो जाएगी, तो शायद सब कुछ मिल जाएगा। फिर कारों | आखिरी बार आदमियों ने आकर कहा कि अब एक बार और हम की कतार पोर्च में लग जाती है और कुछ भी नहीं मिलता है। और भीतर जा सकते हैं। अंतिम क्षण है। एक बार और, इसके बाद आदमी को भीतर अचानक पता चलता है कि मेरा सारा श्रम, सारी मकान में जाना असंभव होगा। लपटें बहुत भयंकर हो गई हैं। अगर दौड़-धूप व्यर्थ गई। कारें तो खड़ी हो गईं, पर मैं कहां हूं? मुझे तो कोई जरूरी चीज रह गई हो, तो बता दें। कुछ मिला नहीं। इसलिए जिसको ठीक वस्तुएं उपलब्ध हो जाती उस आदमी ने कहा, मुझे कुछ याद नहीं आता। मुझे कुछ भी हैं, उसे ही पहली दफे पता चलता है कि आत्मा खो गई है। याद नहीं आता कि क्या रह गया और क्या आ गया। मैं होश में कृष्ण कह रहे हैं, पाप से रहित पुरुष! नहीं हूं। मैं बिलकुल बेहोश हूं। तुम मुझसे मत पूछो। तुम भीतर पापरहित का अर्थ है, वस्तुओं की तरफ लगा हुआ रस जिसके जाओ। तुम जो बचा सको, वह ले आओ। 196 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदार्थ से प्रतिक्रमण-परमात्मा पर → हर बार वे आदमी बाहर आते थे, तो बहुत खुश। कुछ बचाकर दौड़ पाएगा। इन दो में से एक ही चुनना पड़ता है। वह गली बहुत लाते थे। आखिरी बार छाती पीटते रोते हुए बाहर निकले और एक संकरी है, उसमें दो नहीं समाते। लाश लेकर बाहर निकले। उस आदमी का इकलौता बेटा अंदर रह __ और उसकी दिशा बड़ी विपरीत है। वह डायमेंशन अलग है। गया था और जलकर समाप्त हो गया था। वह डायमेंशन बिलकुल भिन्न है, वह आयाम भिन्न है। अगर पदार्थ स्वामी राम ने अपनी डायरी में लिखा कि उस दिन उस मकान | की तरफ चित्त दौड़ता है, तो उसकी तरफ कभी नहीं दौड़ पाएगा। से चीजें तो सब बचा ली गईं, लेकिन मकान का मालिक, होने क्योंकि पदार्थ साकार है, और वह निराकार है। क्योंकि पदार्थ जड़ वाला मालिक, जलकर समाप्त हो गया। उन्होंने अपनी डायरी में | है, और वह चेतन है। क्योंकि पदार्थ बाहर है, और वह भीतर है। लिखा है कि करीब-करीब हर आदमी की जिंदगी में ऐसी ही घटना क्योंकि पदार्थ नीचे है, और वह ऊपर है। क्योंकि पदार्थ मृत्यु में ले घटती है। चीजें तो बच जाती हैं, मालिक मर जाता है! चीजें सब जाता, और वह अमृत में। वह बिलकुल उलटा है, बिलकुल बच जाती हैं। आखिर में सब मकान, सब धन, तिजोड़ी, सब | विपरीत। तो पदार्थ की तरफ दौड़ता हुआ चित्त वहां न जा सकेगा। व्यवस्थित हो जाता है। और वह जिसके लिए किया था, वह सुना है मैंने, एक आदमी भागा हुआ जा रहा है एक रास्ते से। मालिक मर जाता है! | तेजी में है। सांझ ढलने के करीब है। राह के किनारे बैठे हुए एक हमारी सारी सफलता सिवाय हमारी कब्र के और कुछ नहीं आदमी से उसने पूछा कि दिल्ली कितनी दूर है? उस बूढ़े आदमी बनती। और हमारे सारे प्रयत्न हमें सिवाय मरघट के और कहीं नहीं | ने कहा, दो बातों का जवाब पहले दे दो, फिर मैं बताऊं कि दिल्ली ले जाते। और जिंदगी का पूरा अवसर, जिन चीजों को जोड़ने में, | कितनी दूर है। उसने कहा, अजीब आदमी मिले तुम भी! इतना इकट्ठा करने में हम गंवाते हैं, कृष्ण जैसे लोग कहते हैं कि उस सीधा बता दो कि दिल्ली कितनी दर है। दो बातों के सवाल और अवसर में हम परमात्मा को भी पा सकते थे, जिसे पाकर परम | जवाब का क्या सवाल है? उस बूढ़े आदमी ने कहा, फिर मुझसे आनंद भी मिलता है और मृत्यु के अतीत भी आदमी हो जाता है। | मत पूछो। क्योंकि मैं गलत जवाब देना कभी पसंद नहीं करता। मरता भी नहीं। कोई और नहीं था, इसलिए मजबूरी में उस जल्दी जाने वाले लेकिन पाप से भरा चित्त यह न कर पाएगा। पाप से भरा चित्त, आदमी को भी उस बूढ़े से कहना पड़ा, अच्छा भाई, पूछ लो तुम्हारे अर्थात पदार्थ की ओर दौड़ता हुआ चित्त। हम सबका दौड़ रहा है सवाल। लेकिन मेरी समझ में नहीं आता; कोई संगति नहीं है। मैं पदार्थ की ओर। इधर पदार्थ दिखा नहीं कि चित्त दौड़ा नहीं। रास्ते | | पूछता हूं, दिल्ली कितनी दूर है, इसमें मुझसे पूछने का कोई सवाल पर देखते हैं एक सुंदर व्यक्ति को गुजरते हुए, चित्त दौड़ गया। देखा ही नहीं है। एक मकान खूबसूरत, चित्त दौड़ गया। एक चमकती हुई कार | पर उस बूढ़े ने कहा, तो तुम जाओ। नहीं तो मेरे दो सवाल! • गुजरी, चित्त दौड़ गया। | पहला तो यह कि तुम जिस तरफ जा रहे हो, इसी तरफ जाने का इस चित्त को समझना पड़ेगा, अन्यथा पाप में ही जीवन बीत | | इरादा है? तो दिल्ली बहुत दूर है। क्योंकि दिल्ली आठ मील पीछे जाता है। यह दौड़ ही रहा है पूरे वक्त, यह तलाश ही कर रहा है। छूट गई है। अगर ऐसे ही जाने का है, तो दिल्ली पहुंचोगे जरूर, और अगर सड़क से कोई कार न गुजरे, और सड़क से कोई स्त्री न | | यह मैं नहीं कहता कि गलत जा रहे हो, लेकिन पूरी जमीन का निकले, और कोई सुंदर भवन न दिखाई पड़े, कोई सुंदर पुरुष न चक्कर लगाकर। और वह भी बिलकुल सीधी, नाक की रेखा में दिखाई पड़े, कुछ भी न दिखाई पड़े, तो हम आंख बंद करके चलना। जरा चूके, कि चक्कर चूक गया, तो दिल्ली से फिर दिवास्वप्न देखने लगते हैं। उसमें कारें गुजरने लगती हैं; स्त्री-पुरुष बचकर निकल जा सकते हो। सिर मत हिलाना जरा भी। बिलकुल गुजरने लगते हैं; धन, शान-शौकत गुजरने लगती है। सब भीतर नाक की सीध में जाना। फिर भी मैं पक्का नहीं कहता कि दिल्ली चलाने लगते हैं। लेकिन चित्त पदार्थ की तरफ ही दौड़ता रहता है। पहुंचोगे। सारी जमीन घूमकर भी जरा भी चूक गए, इरछे-तिरछे हो जागते हैं तो, सोते हैं तो, सपना देखते हैं तो—चित्त पदार्थ की तरफ गए, तो फिर चूक जाओगे। इसलिए मैं पूछता हूं कि इरादा क्या है? ही दौड़ता रहता है। | इसी तरफ जाने का है? और अगर लौटने की तैयारी हो, तो दिल्ली यह पदार्थ की तरफ दौड़ता हुआ चित्त परमात्मा की तरफ नहीं बहुत पास है; पीठ के पीछे है। आठ ही मील का फासला है। 197 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 उस आदमी ने कहा, यह मेरी समझ में आया। माफ करो कि मैंने प्रतिक्रमण पुण्य है। वापस लौट आएं। तुमसे कहा कि असंगत बात पूछते हो। संगत बात थी। लेकिन तो एक तो यह आपसे कहना चाहता हूं कि पदार्थ अनंत है, दूसरा क्या सवाल है? इसलिए कितना ही आक्रमण करो, कभी भी पा न सकोगे प्रभु को। उस आदमी ने कहा कि जरा चलकर भी मुझे बताओ कि कितनी और जब तक प्रभु न मिल जाए, तब तक शांति नहीं, संतोष नहीं, चाल से चलते हो। क्योंकि दूरी चाल पर निर्भर करती है, मीलों पर | चैन नहीं। और दूसरी बात यह कहना चाहता हूं कि उस बूढ़े ने कहा नहीं। आठ मील, तेज चलने वाले के लिए चार मील हो जाएंगे; कि पीछे लौटो, दिल्ली आठ मील दूर है। मैं आपसे कहना चाहता धीरे चलने वाले के लिए सोलह मील हो जाएंगे। और एक कदम हूं, पीछे लौटो, परमात्मा आठ इंच भी दूर नहीं है। आठ मील बहुत चलकर बैठ गए, तो आठ मील अनंत हो जाएंगे। इसलिए जरा | ज्यादा है। असल में पीछे लौटो, तो आप ही परमात्मा हो। अगर चलकर बताओ! चाल क्या है? क्योंकि सब रिलेटिव है। दिल्ली ठीक से कहें, तो ऐसा कहना पड़ेगा। जरा-सा भी फासला नहीं है। की दूरी या सभी दूरियां रिलेटिव हैं, सापेक्ष हैं। कितना चलते हो? ___ मोहम्मद ने कहा है—कोई पूछता है मोहम्मद से कि प्रभु कितने उस आदमी ने कहा कि माफ करना। यह भी मेरे खयाल में नहीं | दूर है तो वे कहते हैं कि यह जो गले की धड़कती हुई नस है, इससे . था। तुम ठीक ही पूछते हो। | भी ज्यादा निकट। इसे काट दो, तो आदमी मर जाता है। यह जीवन परमात्मा भी, जिस दिशा में हम जाते हैं, पदार्थ की दिशा में, | के बहुत किनारे है। मोहम्मद कहते हैं, यह जो गले की धड़कती नस वहां हमें कभी नहीं मिलेगा। दिल्ली तो शायद मिल जाए, दिल्ली | है, इससे भी निकट, इससे भी पास, जीवन से भी पास। के उलटे चलकर भी, क्योंकि जमीन का घेरा बहुत बड़ा नहीं है। ___ लौटने भर की देरी है। लौटकर चलना भी नहीं पड़ता, क्योंकि लेकिन पदार्थ का घेरा अनंत है। अगर हम पदार्थ की तरफ खोजते | चलने लायक फासला भी नहीं है। सिर्फ लौटना, जस्ट रिटर्निंग इज़ हुए चलते हैं, तो हम अनंत तक भटक जाएं, तो भी परमात्मा तक इनफ। पर अबाउट टर्न, पूरा का पूरा लौटना पड़े, एकदम पूरा। नहीं लौटेंगे। मुख जहां है, उससे उलटा कर लेना पड़े। तो एक तो पदार्थ का घेरा अनंत है, जमीन का घेरा तो बहुत छोटा | पदार्थ की तरफ जो उन्मुखता है, वह पाप है। और पदार्थ की तरफ है। यह जमीन तो बहुत मीडियाकर प्लेनेट है; बहुत ही गरीब, पीठ कर लेना पुण्य है। इसलिए दान पुण्य बन गया, और कोई कारण छोटा-मोटा, क्षुद्र। इसकी कोई गिनती नहीं है। यह हमारा सूरज इस न था। क्योंकि जिसने धन दिया, उसने प्रतिक्रमण शुरू किया। पृथ्वी से साठ हजार गुना बड़ा है। लेकिन हमारा सूरज भी बहुत जिसने धन लिया, उसने आक्रमण किया। इसलिए त्याग पुण्य बन मीडियाकर है। वह भी बहुत मध्यमवर्गीय प्राणी है, मिडिल क्लास! गया, क्योंकि त्याग का अर्थ है, पदार्थ की तरफ पीठ कर ली। से हजार-हजार. दस-दस हजार गने बडे सर्य हैं. महासर्य हैं। बद्ध घर छोडकर गए हैं. तो जो सारथी उन्हें छोडने गया है. रास्ते इस पृथ्वी की तो कोई गिनती नहीं है। यह तो बड़ी छोटी जगह है। | में बहुत रोने लगा। और उसने कहा कि मैं कैसे लौटूं आपको वह तो हम बहुत छोटे हैं, इसलिए पृथ्वी बड़ी मालूम पड़ती है। छोड़कर! इतना धन, इतना अपार धन छोड़कर जा रहे हैं आप, इसकी स्थिति बहुत बड़ी नहीं है। चले जाएं, तो पहुंच ही जाएंगे | पागल तो नहीं हैं? मैं छोटा हूं, छोटे मुंह बड़ी बात मुझे नहीं कहनी दिल्ली। लेकिन पदार्थ तो अनंत है। उसके फैलाव का तो कोई अंत | चाहिए। लेकिन इस अंतिम क्षण में न कहूं, यह भी ठीक नहीं। आप नहीं। वह तो हम कितना ही चलते जाएंगे, वह आगे-आगे-आगे | पागल हैं! इतना धन छोड़कर जा रहे हैं! मौजूद रहेगा। बुद्ध ने कहा, कहां है धन? तुम मुझे दिखाओ, तो मैं वापस लौट तो एक फर्क तो यह करना चाहता हूं कि पदार्थ अनंत है, इसलिए जाऊं। उन महलों में, तुम तो बाहर ही थे, मैं भीतर था। उन उस दिशा से कभी परमात्मा तक नहीं आ पाएंगे, लौटना ही पड़ेगा। | तिजोड़ियों को तुमने दूर से देखा है; उनकी चाबियां मेरे हाथ में थीं। जैनों के पास एक बहुत अच्छा शब्द है, वह है, प्रतिक्रमण। उस राज्य के रथ के तुम सिर्फ चालक थे, मैं उसका मालिक था। प्रतिक्रमण का अर्थ है, रिटर्निंग बैक, वापस लौटना। आक्रमण का | | मैं तुमसे कहता हूं कि मैंने वहां धन कहीं नहीं पाया। क्योंकि धन अर्थ है, जाना, हमला करना; और प्रतिक्रमण का अर्थ है, वापस तो वही है, जिससे आनंद मिल जाए। लौटना। हम सब आक्रामक हैं पदार्थ की तरफ, वही पाप है। बुद्ध ने जो शब्द उपयोग किया है, वह है, संपत्ति। वह बहुत 198] Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदार्थ से प्रतिक्रमण-परमात्मा पर - बढ़िया शब्द है। बुद्ध ने कहा, संपत्ति तो वही है, जिससे संतोष छोटी-सी कहानी से समझाने की कोशिश करूं, मुझे बहुत प्रीतिकर मिल जाए। वहां तो मैंने सिर्फ विपत्ति पाई, क्योंकि सिवाय दुख के | रही है। कुछ भी न पाया। विपत्ति पाई। जिसे तुम संपत्ति कहते हो, वह सुना है मैंने कि एक सांझ, रात उतरने के करीब है, अंधेरा घिर विपत्ति है। मैं उसे छोड़कर जा रहा हूं। विपत्ति को छोड़कर जा रहा | रहा है, और एक वनपथ से दो संन्यासी भागे चले जा रहे हैं। बूढ़े हूं संपत्ति की तलाश में। संन्यासी ने पीछे युवा संन्यासी से कई बार, बार-बार पूछा, कोई पदार्थ की तरफ से मुंह मोड़ना पड़े। जरूरी नहीं कि बुद्ध की तरह | खतरा तो नहीं है? वह युवा संन्यासी थोड़ा हैरान हुआ कि संन्यासी छोड़कर जंगल जाएं। बुद्ध जैसा छोड़ने को भी तो नहीं है हमारे | | को खतरा कैसा! और जिसको खतरा है, उसी को तो गृहस्थ कहते पास। बुद्ध जैसा हो, तो छोड़ने का मजा भी है थोड़ा। कुछ भी तो | | हैं। खतरा होता ही है कुछ चीज हो पास, तो खतरा होता है! न हो नहीं है, पदार्थ भी नहीं है। परमात्मा नहीं है, वह तो ठीक है। पदार्थ | | कुछ, तो खतरा होता है? और कभी इस बूढ़े ने नहीं पूछा कि कोई भी क्या है! कुछ भी नहीं है। खतरा है; आज क्या हो गया! मगर बड़े मजे की बात है कि बुद्ध को इतनी संपत्ति विपत्ति | फिर एक कुएं पर पानी पीने रुके। बूढ़े ने अपना झोला जवान दिखाई पड़ी। और हम वह जो छोटा-सा मनीबेग खीसे में रखे हैं, | | संन्यासी के, अपने शिष्य के कंधे पर दिया और कहा, सम्हालकर वह संपत्ति मालूम पड़ती है! बुद्ध को साम्राज्य व्यर्थ मालूम पड़ा। रखना! तभी उसे लगा कि खतरा झोले के भीतर ही होना चाहिए। हमने जो अपने मकान के आस-पास थोड़ी-सी फेंसिंग कर रखी | बूढ़ा पानी भरने लगा, उसने हाथ डालकर खतरे को टटोला। देखा है, वह साम्राज्य मालूम पड़ता है। इसे थोड़ा देखना जरूरी है; कि सोने की ईंट अंदर है। खतरा काफी है! उसने ईंट को निकालकर समझना जरूरी है कि जिसे हम संपत्ति कह रहे हैं, वह संपत्ति है ? | तो फेंक दिया कुएं के नीचे, और एक पत्थर करीब-करीब उसी ‘छोड़ने को नहीं कह रहा हूं, समझने को कह रहा हूं। समझ से | वजन का झोले के भीतर रखकर कंधे पर टांगकर खड़ा हो गया। तत्काल रस छूट जाता है। फिर आप कहीं भी रहें; फिर आप कहीं बूढ़े ने जल्दी-जल्दी पानी पीया। भी रहें-मकान में रहें कि मकान के बाहर-इससे फर्क नहीं | जिसके पास खतरा है, वह पानी भी तो जल्दी-जल्दी पीता है! पड़ता। फिर मकान के भीतर भी आप जानते हैं कि मकान में नहीं। | आप सभी जानते हैं उसको! सबके भीतर वह बैठा हुआ है, जो हैं। फिर आपके हाथ में धन रहे या न रहे, लेकिन भरा हुआ हाथ जल्दी-जल्दी पानी पीता है, जल्दी-जल्दी खाना खाता है, जल्दीभी जानता है कि गहरे अर्थों में सब कछ खाली है। और जिस दिन जल्दी चलता है. जल्दी-जल्दी पजा-प्रार्थना करता है। जल्दी-जल्दी वह समझ पैदा हो जाती है, उस दिन प्रतिक्रमण शुरू हो जाता है। | बेटे-बच्चों को प्रेम की थपकी लगाता है। जल्दी-जल्दी सब चल पाप है, आक्रमण पदार्थ पर; पुण्य है, प्रतिक्रमण पदार्थ से। और | | रहा है, क्योंकि खतरा भारी है। . समझ के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं है। क्योंकि नासमझी के नहीं, पानी पीया भी कि नहीं पीया! प्यास बुझी कि नहीं बुझी! अतिरिक्त पदार्थ से कोई जोड़ नहीं है हमारा। नासमझी ही हमारा | जल्दी से झोला कंधे पर लिया; टटोलकर देखा, खतरा साबित है; जोड़ है। नासमझ हैं, इसीलिए जुड़े हैं। सोचते हैं, संपत्ति है, | चल पड़े। फिर रास्ते में पूछने लगा कि अंधेरा घिरता जाता है। रास्ता इसलिए पकड़े हैं। जान लेंगे कि संपत्ति नहीं है, हाथ खुल जाएंगे, | सूझता नहीं। कोई दूर गांव का दीया भी दिखाई नहीं पड़ता। बात पकड़ छूट जाएगी। | क्या है! हम भटक तो नहीं गए? कुछ खतरा तो नहीं है? ध्यान रहे, पकड़ छूट जाने का अर्थ भाग जाना नहीं है, एस्केप | वह युवक खिलखिलाकर हंसने लगा। और उस अंधेरी रात में नहीं है; क्लिगिंग छूट जाना है, पकड़ छूट जाना है। ठीक है, वस्तुएं | उसकी खिलखिलाहट वृक्षों में गूंजने लगी। उस बूढ़े ने कहा, हंसते हैं, उनका उपयोग किया जा सकता है। बराबर किया जाना चाहिए। | हो पागल! कोई सुन लेगा, खतरा हो जाएगा! उस युवक ने कहा, वह परमात्मा की अनुकंपा है कि इतनी वस्तुएं हैं और उनका उपयोग | अब आप बेफिक्र हो जाएं। खतरे को मैं कुएं पर ही फेंक आया हूं। किया जाए। जीवन के लिए उनकी जरूरत है। लेकिन प्रभु को पाने बूढ़े ने घबड़ाकर झोले के भीतर हाथ डाला। निकाला, तो सोने के लिए उन पर जो हमारी पकड़ है...। | की ईंट तो नहीं है, पत्थर का टुकड़ा है। लेकिन दो मील तक पत्थर पकड़ बड़ी अजीब चीज है। पकड़ सिर्फ खयाल है। एक का टुकड़ा भी खतरा देता रहा! हृदय धड़कता रहा जोरों से! 199 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 क्लिगिंग! सोना तो था नहीं, इसलिए सोने को आप दोष नहीं दे क्योंकि मूल्य भी मेरे मन में था। कीमत भी मेरी, भय भी मेरा, दोनों सकते। सोना तो था नहीं झोले में, इसलिए सोने को कसूरवार नहीं मेरी ईजादें, और मैं परेशान था! मुझे प्रभु को धन्यवाद दे लेने दे। ठहरा सकते। पत्थर का टुकड़ा था, लेकिन मन में सोना था। मन | | जीवन में थोड़ा तलाश करें। पदार्थ को दिए गए मूल्य हमारे में तो पकड़ थी सोने की। मूल्य हैं। थोड़ा खोज करें। पदार्थ की पकड़ हमारा दुख, हमारी एक क्षण तो बूढ़े के हृदय की धड़कन जैसे बंद हुई-हुई हो गई। चिंता, हमारा संताप, हमारी एंग्विश है। थोड़ा खोज करें। पदार्थ को फिर उसे भी हंसी आ गई यह सोचकर कि दो मील पत्थर को ढोया, पकड़-पकड़कर हम पागल हो गए हैं। इसको थोड़ा समझें। और नाहक डरे। युवक खिलखिलाकर हंस ही रहा था, वह भी आपके मन की पकड़ ढीली हो जाएगी। और वह दिन आ सकता खिलखिलाकर हंसा। झोले को वहीं पटक दिया। और कहा कि है कभी भी, जब उस बूढ़े की तरह रात आप देर तक भजन गाते रहें अब हम यहीं सो जाएं, अब तो कोई खतरा नहीं है। और प्रभु को धन्यवाद दें कि पदार्थ से पकड़ छूट गई। अगर पत्थर का टुकड़ा मन में सोना हो, तो खतरा हो जाता है। । ___ उसी क्षण प्रतिक्रमण हो जाता है। इधर छूटा पदार्थ से हाथ, उधर और अगर सोने का टुकड़ा मन में पत्थर हो, तो आदमी बेखतरा हो प्रभु में प्रवेश हुआ। यह युगपत, साइमलटेनियस, एक साथ घट . जाता है। आप पर निर्भर है। जाते हैं। प्रभु को खोजने जाने की जरूरत नहीं है, सिर्फ पदार्थ से और मजे की बात है कि सोने और पत्थर में कोई बुनियादी फर्क छूटने की जरूरत है। यहां जला दीया, वहां अंधेरा गया। ऐसे ही है नहीं। सब आदमी के बनाए हए डिसटिंक्शन हैं: सब आदमी के यहां जला प्रतिक्रमण, यात्रा लौटी पीछे की तरफ, वहां प्रभु से बनाए हुए भेद हैं; बिलकुल ह्यूमन, बिलकुल मानवीय। मिलन हुआ। आदमी न हो जमीन पर, तो क्या आप सोचते हैं, सोना सिंहासन | तो कृष्ण कहते हैं, ऐसा व्यक्ति सतत आत्मा को परमात्मा में पर बैठेगा और पत्थर पैरों में ? इस भूल में न पड़ना। कोई सोने को | लगाए रखता है। नहीं पूछेगा। कोई पत्थर को छोटा नहीं मानेगा। हीरे-जवाहरात | जिसका पदार्थ से संबंध छूट जाता है, उसका सतत संबंध कंकड़ों के पास कंकड़ों जैसे ही पड़े रहेंगे। परमात्मा से बन जाता है। बिना संबंध के तो हम रह नहीं सकते। आदमी को हटा लें पथ्वी से फिर एक कंकड में और एक हीरे अगर ठीक से समझें तो वी एक्झिस्ट इन रिलेशनशिप्स. हम में कोई फर्क है? कोई फर्क नहीं है! सब फर्क आदमी के मन के संबंधों में ही जीते हैं। अभी पदार्थों के संबंध में जीते हैं, जब पदार्थ दिए हुए हैं। सब फर्क आदमी के मन के दिए हुए हैं। सब ह्यूमन | का संबंध छूट जाता है, तो नए संबंधों का जगत शुरू होता है; हम इनवेनशंस हैं, आदमी के झूठे आविष्कार हैं। आदमी ने ही प्रभु के संबंध में जीने लगते हैं। और आत्मा निरंतर प्रभु में लगी आरोपित किए मूल्य, और फिर उन्हीं मूल्यों में बंधता और सोचता | रहती है। क्योंकि फिर तो इतना आनंद है उस तरफ कि एक क्षण और मुट्ठी बांधकर जीता है। को भी भूलना मुश्किल है प्रभु को। फिर कुछ भी काम करते कृष्ण कहते हैं, पाप से जो मुक्त हो, वह प्रभु की तरफ गति कर रहें—फिर दुकान चलाते रहें, दफ्तर में काम करते रहें, मिट्टी खोदते पाता है, प्रभु की तरफ उन्मुख हो जाता है। पदार्थ से मुक्त हो मन, | रहें, पहाड़ तोड़ते रहें—जो भी करना हो, करते रहें। तो प्रभु की तरफ तत्काल लीन हो जाता है। कबीर कहते थे कि फिर ऐसा हो जाता है...। कबीर से लोग त फिर वह साध आधी रात तक प्रभ के भजन गाता रहा। पछते होंगे। कबीर तो उन लोगों में से थे, जो पाप के बाहर हए और उस जवान ने कहा भी कि अब सो जाएं! पर उस बूढ़े साधु ने कहा | जिन्होंने प्रभु का दर्शन जाना। तो कबीर से लोग पूछते होंगे कि आप कि आज मुझे जीवन में जो दिखाई पड़ा है, वह कभी दिखाई नहीं | कपड़ा बुनते रहते दिनभर, फिर प्रभु का स्मरण कब करते हैं? पड़ा था। मुझे जरा प्रभु को धन्यवाद दे लेने दे। एक पत्थर सोने का __कबीर तो जुलाहे थे और जुलाहे ही बने रहे। वे छोड़कर नहीं धोखा दे गया! और मैं धोखा खाता रहा। तो मेरे मन में ही कहीं गए। जान लिया प्रभु को, फिर भी कपड़ा ही बुनते रहे, झीनी-झीनी खोट है। और अब अगर मेरे झोले में कोई सोना लटका दे, तो भी चदरिया बुनते रहे। रोज सांझ बेचने चले जाते बाजार में। लोग मैं पत्थर ही समझंगा। और अब मझे कभी खतरा होने वाला नहीं पूछते कि आप कभ बनते. कभी बाजार में बेचते, प्रभु का है। अब मैं कभी भयभीत न होऊंगा। क्योंकि भय मेरे मन में था, स्मरण कब करते हैं? 12000 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदार्थ से प्रतिक्रमण - परमात्मा पर > तो कबीर, कोई पूछ रहा था, उसे उठाकर अपने झोपड़े के बाहर ने गए और कहा, यहां आ ! क्योंकि शायद मैं कह न सकूं, लेकिन बता तो सकता हूं। विगिंस्टीन ने अपनी एक अदभुत किताब में, ट्रेक्टेटस में एक वाक्य लिखा है कि कुछ चीजें हैं, जो कही नहीं जा सकतीं, लेकिन बताई जा सकती हैं। देअर आर थिंग्स व्हिच कैन नाट बी सेड, बट | व्हिच कैन बी शोड । कही नहीं जा सकतीं, बताई जा सकती हैं। बहुत-सी चीजें हैं। जो भी महत्वपूर्ण चीजें हैं, कही नहीं जा सकतीं। लेकिन इशारा तो किया ही जा सकता है। विगिंस्टीन तो बड़ा तर्क - निष्णात व्यक्ति था। शायद इस सदी में उससे बड़ा कोई तार्किक नहीं था । पर उसने भी यह अनुभव किया कि कुछ चीजें हैं, जो नहीं कही जा सकतीं, सिर्फ बताई जा सकती हैं। तो कबीर ने कहा कि बाहर आओ, शायद कोई चीज से मैं तुम्हें बता दूं। कबीर उस आदमी को लेकर चले। थोड़ी देर बाद उस आदमी ने कहा, अब बताइए भी! कबीर ने कहा, जरा कोई मौका तो आ जाने दो। मुझे कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा है कि कैसे तुम्हें बताऊं । वही मैं खोज रहा हूं। जरा और चलें। थोड़ी देर में वह आदमी थ गया। उसने कहा, मैं घर जाऊं, मुझे दूसरे काम करने हैं। कब बताइएगा? कबीर ने कहा कि ठहरो-ठहरो, आ गया मौका। नदी से एक स्त्री पानी की गागर भरकर सिर पर रखकर चल पड़ी है। शायद उसका प्रियजन उसके घर आया होगा – कोई अतिथि, कोई मेहमान | उसके चेहरे पर बड़ी प्रसन्नता है। उसकी चाल में तेज गति है। वह उमंग से भरी और नाचती जैसी चलती है, और ऐसी चल रही है। गागर उसने बिलकुल छोड़ रखी है, सिर पर गागर संभली है। 1 कबीर ने कहा, इस स्त्री को देखो। यह कुछ गुनगुना रही है गीत । शायद उसका प्रियजन आया होगा, उसका प्रेमी आया होगा। प्रेमी प्यासा होगा, उसके लिए पानी लेकर जाती है। दौड़ती जाती है ! हाथ दोनों छूटे हुए हैं, गागर सिर पर है। मैं तुमसे पूछता हूं, इसको गागर की याद होगी या नहीं होगी ? गीत गाती है, चलती है रास्ते पर; काम में लगी है पूरा गागर का स्मरण होगा कि नहीं होगा ? उस आदमी ने कहा, स्मरण नहीं होगा, तो गागर नीचे गिर जाएगी! तो कबीर ने कहा, यह साधारण-सी औरत रास्ता पार करती है, गीत गाती है, फिर भी गागर का स्मरण इसके भीतर बना है। तो तुम 201 मुझे इससे भी गया-बीता समझते हो कि मैं कपड़ा बुनता हूं और परमात्मा का खयाल करने के लिए मुझे अलग से समय निकालना पड़ेगा? मेरी आत्मा उसमें निरंतर लगी ही है। इधर कपड़ा बुनता रहता है, कपड़े के बुनने का काम शरीर करता है, आत्मा उधर प्रभु के गुणों में लीन बनी रहती है, डूबी रहती है । और ये हाथ भी, आत्मा प्रभु में डूबी रहती है, इसलिए आनंद से मग्न होकर कपड़ा बुनते हैं। कपड़ा भी फिर कबीर का साधारण नहीं बुना जाता। और कबीर जब ग्राहक को बेचते थे कपड़ा, तो कहते थे, राम, बहुत सम्हलकर | वापरना। साधारण कपड़ा नहीं है; प्रभु की स्मृति भी इसमें बुनी है। वे ग्राहक से कहते थे, राम, जरा सम्हलकर वापरना। कोई ग्राहक कभी-कभी पूछ भी लेता कि मेरा नाम राम नहीं है ! तो कबीर कहते कि मैं तुम्हारे उस नाम की बात कर रहा हूं, जो इस | नाम के भी पहले तुम्हारा था और इस नाम के बाद भी तुम्हारा होगा। तुम्हारे असली नाम की बात कर रहा हूं। यह बीच में तुमने कौन से नाम रखे, तुम हिसाब-किताब रखो। बाकी जब आखिर में सब नाम गिर जाएंगे, तो जो बच रहेगा, मैं उसकी बात कर रहा हूं। प्रभु का स्मरण, आत्मा का उसमें सतत लगा रहना, तभी संभव है, जब चित्त पाप से मुक्त हो जाए। चित्त पाप से मुक्त हो जाए, पार हो जाए, अतीत हो जाए, उठ जाए ऊपर, पदार्थ की दौड़ छूट तो फिर लगा ही रहता है। यह ऐसा लग जाता है, जिसका कोई हिसाब नहीं। सब करते हुए भी लगा रहता है। जाए, और जिस दिन सब करता हुआ लगा रहे, उसी दिन योग पूर्ण | हुआ। अगर कोई कहे कि मैं काम करता हूं, तो मुझे प्रभु की स्मृति भूल जाती है, तो उसका प्रभु बड़ा बचकाना है, बड़ा छोटा है। काम से हार जाता है ! क्षुद्र-सा काम और प्रभु की स्मृति को तोड़ दे, तो अभी प्रभु की स्मृति नहीं है, कोई नकली स्मृति होगी। ऐसा जबर्दस्ती थोप - थापकर बैठ गए होंगे अपने को कि प्रभु का स्मरण कर रहे हैं। लेकिन होगा नहीं । हो नहीं सकता। अगर प्रभु की स्मृति आ गई है, पदार्थ से मन छूट गया है और प्रभु की याद आ गई है, तो अब कुछ भी करिए और कहीं भी चले जाइए, और जागिए कि सोइए, स्मृति जारी रहेगी। राम एक रात सो रहे हैं अपने कमरे में। एक मित्र सरदार पूर्णसिंह उनके कमरे पर मेहमान थे स्वामी राम के । आधी रात कुछ गर्मी थी, नींद खुल गई; बड़े चौंककर हैरान हुए। जोर-जोर से राम की आवाज आ रही है, राम सोचा कि कहीं रामतीर्थ उठकर Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 प्रभु-स्मरण तो नहीं करने लगे। लेकिन अभी आधी रात मालूम | रोआं-रोआं शरीर का कंपने लगे। पड़ती है। अंधेरा है। | ऐसे भी, अगर मैं बहुत प्रेम से भरा हआ हाथ आपके हाथ पर उठे। देखा कि राम तो बिस्तर पर मजे से सो रहे हैं। पर आवाज रखू, तो मेरे हाथ की तरंगों में भेद होगा। और मैं क्रोध से भरकर आ रही है! बहुत हैरान हुए कि कोई और तो आस-पास नहीं है। | और घृणा से भरकर यही हाथ आपके हाथ पर रखू, तो मेरी हाथ एक चक्कर झोपड़े का लगा आए। कोई भी नहीं है। फिर पास | | की तरंगों में भेद होगा। मेरे हृदय के भाव मेरे हाथ की तरंगें बनते आए। लेकिन जैसे राम के पास आते, आवाज बढ़ जाती; दूर जाते, | | तो हैं। इसलिए प्रेम से छुआ गया हाथ कुछ और ही स्पर्श लाता है। आवाज कम हो जाती। तो बहुत पास आकर, पैर के पास कान घृणा से छुआ गया हाथ कोई और ही स्पर्श लाता है। अभिशाप से रखकर सुना। भरोसा नहीं हुआ; विश्वास नहीं आया। हाथ के पास भरे हाथ में जहर आ जाता है। वरदान से भरे हाथ में अमृत बरस जाकर कान रखकर सुना; भरोसा नहीं आया। पूरे शरीर के | जाता है। रोएं-रोएं से जैसे राम की आवाज उठ रही है। घबड़ा गए कि मैं कोई | | तो भाव दौड़ते तो हैं शरीर के कोने-कोने तक। कोई कारण नहीं सपना तो नहीं देख रहा हूं! जाकर आंखें धोईं। मैं किसी भ्रांति, | | है कि प्रभु का स्मरण इतने गहरे में उतर जाए कि शरीर के . किसी हेल्यूसिनेशन में तो नहीं हूं! क्योंकि यह कैसे हो सकता है | कोने-कोने तक उसकी ध्वनि पैदा हो जाए। लेकिन जीवन के कि शरीर से आवाज आए! रातभर जगे बैठे रहे, कि जब राम उठे | | बहत-से रहस्य अज्ञात हैं; उनके नियम अज्ञात हैं। इसलिए वे हमें सुबह, तो उनसे पूछ लें। रहस्यपूर्ण मालूम होते हैं, क्योंकि उनका विज्ञान हमें ज्ञात नहीं है। सुबह उठकर राम से पूछा, तो राम ने कहा, आ सकती है। | सतत स्मरण आत्मा को परमात्मा का बना रहता है एक बार क्योंकि जब से स्मरण हुआ उसका, तब से दिन हो या रात, भीतर | पदार्थ से चित्त हट जाए, पाप से चित्त हट जाए। तो सतत उसकी अनुगूंज चलती रहती है। हो सकता है, शरीर भी | कृष्ण कहते हैं, वैसा व्यक्ति परम आनंद को उपलब्ध होता है। कंपित हो रहा हो और आवाज आ गई हो। हो सकता है, राम ने कृष्ण हर सूत्र के बाद यही कहते हैं कि ऐसा व्यक्ति परम आनंद कहा, क्योंकि मैंने तो कभी सोते में उठकर अपने शरीर को सुनने को उपलब्ध होता है, ऐसा व्यक्ति परम आनंद को उपलब्ध होता का उपाय भी नहीं है। हो सकता है। लेकिन भीतर मेरे चलता रहता है, ऐसा व्यक्ति परम आनंद को उपलब्ध होता है। यह परम आनंद है। भीतर चलता रहता है। | क्या है? कुछ हमारी समझ में आता नहीं है सीधा। आनंद हमने कठिन नहीं है यह। क्योंकि शरीर भी तो विद्युत की तरंगों का जाना ही नहीं। परम आनंद क्या है? कोरा शब्द। कान पर गूंजता जाल है; ध्वनि भी तो विद्युत की तरंग है। दोनों में कोई भेद तो नहीं है, खो जाता है। है। और अगर भीतर बहुत गहरी अनुगूंज हो, तो कोई कारण नहीं हमने सुख जाना है थोड़ा-सा। थोड़ा-सा! जब प्रतीक्षा करते हैं है कि शरीर के तंतु क्यों न ध्वनित होने लगें! कोई कारण तो नहीं। तब, अपेक्षा करते हैं तब, इंतजार करते हैं तब। और हमने दुख जो संगीत की गहरी पकड़ जानते हैं, उन्हें पता होगा कि अगर | जाना है बहुत-जब मिलता है तब, जब पा लेते हैं तब, जब पहुंच एक सूने कमरे में बंद द्वार करके, खाली कमरे में एक वीणा बजाई जाते हैं तब। जब प्रतीक्षा का होता है अंत और उपलब्धि आती है जाए और दसरी वीणा को दसरे कोने में खाली टिका दिया जाए. हाथ में. तो दख। रास्ते पर जानी हैं सख की कल्पनाएं सख के तो थोड़ी देर में उसके तार रिजोनेंस करने लगते हैं। एक वीणा बजे, | सपने; और मंजिल पर पहुंचकर झेली है पीड़ा दुख की। ये हम दूसरी वीणा जो खाली रखी है, कोई बजाता नहीं, उसके तार भी | जानते हैं, सुख और दुख हम जानते हैं। परम आनंद क्या है? कंपकर जवाब देने लगते हैं। रिजोनेंस पैदा हो जाता है। ध्वनियां । तो आमतौर से हम समझ लेते हैं, सुख का ही कोई बहुत बड़ा टकराती हैं उस वीणा से, उसके तार भी कंपित होकर उत्तर देने | | रूप होगा। नहीं, इस भ्रांति में न पड़ जाना आप। ऐसा मत सोचना लगते हैं। | कि महा सुख होगा। शब्दकोश में यही लिखा हैं। शब्दकोशों में पूरा शरीर है तो विद्युत की तरंग। ध्वनि भी विद्युत का एक रूप यही लिखा है, आनंद-महा सुख, महान सुख, अनंत सुख। है। कोई आश्चर्य तो नहीं है कि भीतर ध्वनि बहुत गहरे, हृदय की हमारे पास सुख के अलावा तौलने का कोई उपाय नहीं है। अंतर-गुहा तक गूंजने लगे, तो शरीर रिजोनेंस करने लगे, लेकिन एक चम्मच से भी हिंद महासागर तौला जा सके, लेकिन 202 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + पदार्थ से प्रतिक्रमण-परमात्मा पर - सुख से आनंद नहीं तौला जा सकता। एक चम्मच से भी हिंद मानना ही मत। गीता बंद कर देना, सुख को खोज लेना। कृष्ण सुख महासागर को नाप लेना इनकंसीवेबल नहीं है। इसको हम सोच तक जाने का कोई रास्ता नहीं बता सकते। कृष्ण जो रास्ता बता रहे सकते हैं कि हो सकता है। बहुत वक्त लगेगा, लेकिन फिर भी हो हैं, वह सुख के पार जाने का है। लेकिन जो सुख के पार जाएगा, जाएगा। ऐसी कोई कठिनाई नहीं है। क्योंकि आखिर कितने ही वही दुख के पार जाएगा। अनंत चम्मचों से भरा होगा, लेकिन एक चम्मच कुछ तो सागर को इसलिए बुद्ध ने तो आनंद शब्द का उपयोग ही बंद कर दिया था खाली कर ही लेती है। दूसरी और कर लेगी, तीसरी और कर लेगी। इसी भ्रांति की वजह से। क्योंकि सुख और आनंद में हमें कुछ हो सकता है, पूरी मनुष्य जाति अनंत जन्मों तक भी एक-एक समानता मालूम पड़ती है। तो बुद्ध ने अपने जीवन में कभी आनंद चम्मच निकालती रहे, खाली करती रहे, लेकिन कभी न कभी का उपयोग नहीं किया। जब भी कोई पूछता था कि क्या होगा खाली हो जाएगा। इसकी कल्पना की जा सकती है। यह असंभव | | निर्वाण में? तो वे कहते थे, दुख क्षय हो जाएगा, बस। यह नहीं नहीं है। | कहते थे कि आनंद मिल जाएगा। अगर कोई बहुत ही जिद्द करता लेकिन सुख की चम्मच से हम आनंद को जरा भी नहीं तौल और कहता कि विधायक रूप से कुछ बताओ, तो बुद्ध कहते, पाएंगे; वह असंभव है। क्यों? कारण है उसका। चम्मच में सागर | शांति। आनंद का उपयोग नहीं करते थे। क्योंकि आनंद से सुख का बंध जाए, तो क्वांटिटी का भर फर्क रहता है, क्वालिटी का फर्क हमारा खयाल बना हुआ है। कहीं ऐसा लगता है कि सुख ही नहीं रहता। एक चम्मच में आपने सागर भर लिया, और नीचे हिंद | बढ़ते-बढ़ते-बढ़ते आनंद हो जाएगा। महासागर है, और चम्मच में थोड़ा-सा सागर आ गया। दोनों में | सुख आनंद नहीं होगा। सुख भी पदार्थ से जुड़ाव है, दुख भी क्वांटिटी का फर्क है, परिमाण का; गुण का कोई भेद नहीं है, पदार्थ से जुड़ाव है। सुख भी पाप है, दुख भी पाप है। दोनों ही क्वालिटी का कोई भेद नहीं है। चम्मच का सागर चखो कि नीचे का महासागर चखो; एक-सा स्वाद है, एक-सा पानी है। चम्मच आपने कोई ऐसा सुख जाना है, जो पदार्थ से न जुड़ा हो? आपने के कणों का विश्लेषण करो, सागर के कणों का विश्लेषण करो, कोई ऐसा दुख जाना है, जो पदार्थ से न जुड़ा हो? अगर जाना हो, एक-सा हाइड्रोजन, आक्सीजन है। चम्मच सागर के बाबत पूरी तो वह आनंद है। लेकिन हम तो जो भी जाने हैं, वह पदार्थ से जुड़ा खबर दे देगी। चम्मच सागर का मिनिएचर रूप है। | है। दुख जाना है तो; धन खो गया, दुख आ गया। सुख जाना है लेकिन सुख और आनंद में गुणात्मक, क्वालिटेटिव अंतर है, तो; धन मिल गया, सुख आ गया। दुख जाना है तो; प्रियजन क्वांटिटी का नहीं। इसलिए कोई कल्पना सुख से नहीं बनेगी। पर बिछुड़ गया, तो दुख आ गया। सुख जाना है तो; प्रियजन मिल जब भी हम सुनते हैं, अर्जुन, इससे परम आनंद उपलब्ध होगा, तो गया, तो सुख आ गया। लेकिन सब पदार्थ से है। • हमारे मन में होता है, जरूर बड़ा सुख मिलेगा। बिलकुल भूल आमतौर से हमारे मुल्क के लोग पश्चिम के लोगों को जाना, सुख की बात ही भूल जाना। सुख से आनंद का कोई भी मैटीरियलिस्ट कहते हैं। लेकिन इस जमीन पर सभी मैटीरियलिस्ट संबंध नहीं है। हैं, सभी लोग पदार्थवादी हैं। पश्चिम के लोग हैं, ऐसी बात कहनी तो फिर हम तो दो ही चीजें जानते हैं, सुख और दुख; तीसरी उचित नहीं है। सभी लोग पदार्थवादी हैं। अपदार्थवादी तो वह है, . कोई चीज जानते नहीं। तो या तो सुख से संबंध होगा, अगर सुख जिसकी कृष्ण बात कर रहे हैं। वैसे लोग न पूरब में हैं, न पश्चिम में से नहीं है, तो फिर क्यों हमें उलझाते हैं। क्योंकि फिर दुख ही बच | हैं। कभी-कभी कोई एकाध आदमी होता है। बाकी सब पदार्थवादी रहता है। उसके अलावा तीसरी चीज हमें कुछ पता नहीं है। हैं। चाहे सुख, चाहे दुख, हम पदार्थ की ही तलाश करते हैं। दुख से भी आनंद का कोई संबंध नहीं है। अगर ठीक से समझें, ___ हां, एक फर्क हो सकता है कि पश्चिम के लोग सिंसियर तो जहां दुख और सुख दोनों शेष नहीं रह जाते, वहां आनंद फलित मैटीरियलिस्ट हैं, और हम इनसिसियर मैटीरियलिस्ट हैं। वे होता है। लेकिन वह अपरिचित है. वह अननोन है। ईमानदार पदार्थवादी हैं। वे कहते हैं कि ठीक है, हमें तो सुख और इसलिए आप अगर सुख की खोज में हों, तो कृष्ण की बातों में | दुख ही सब कुछ है; आनंद हमें मालूम ही नहीं कि है। हम मानते मत पड़ना। अगर सुख की खोज में हों, तो भूलकर कृष्ण की बात भी नहीं कि है, हम तो सुख और दुख में जीते हैं। 203 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 हम बेईमान पदार्थवादी हैं। हम कहते हैं, आनंद! हम आनंद लिए ही जीते हैं। और जीवनभर सुख और दुख की ही चेष्टा करते हैं। और ध्यान रहे, बेईमान पदार्थवादी से ईमानदार पदार्थवादी बेहतर है, कम से कम ईमानदार है। और ध्यान रहे, ईमानदार पदार्थवाद कभी भी आध्यात्मिक हो सकता है। बेईमान पदार्थवाद कभी भी आध्यात्मिक नहीं हो सकता। क्योंकि बेईमान है ! दोहरी बीमारियां जुड़ी हैं। पदार्थ तो बीमारी है ही, बेईमानी और भारी बीमारी है। हमारे मुल्क में एक बड़ी भ्रांति छा गई है कि हम सब आध्यात्मिक हैं। इससे बड़ा दुर्भाग्य घटित नहीं हो सकता। यह ऐसा ही है कि किसी अस्पताल के सब मरीजों को खयाल आ जाए कि हम परम स्वस्थ हैं; हम गामा हैं! वह अस्पताल गया! मरीज मरेंगे। क्योंकि डाक्टर की अब सुन नहीं सकते वे । डाक्टर अगर कहेगा, इलाज; वे कहेंगे, बाहर हो जाओ। तुम्हारा दिमाग खराब है! हम परम स्वस्थ हैं ! इलाज करना है, पश्चिम चले जाओ । उधर लोग बीमार हैं। इस अस्पताल में सब स्वस्थ हैं। यहां तो कोई बीमार कभी पड़ता ही नहीं। बीमार को भ्रांति पैदा हो जाए कि मैं स्वस्थ हूं, तो उसका इलाज भी नहीं हो सकता। बीमार को तो ठीक से जानना चाहिए कि मैं बीमार हूं। बीमारी की पीड़ा जितनी साफ हो, उतना इलाज हो सकता है। इस मुल्क के अध्यात्मवाद का जो खयाल हमारे दिमाग में बैठ गया भारी होकर, उसके कारण हैं। इस मुल्क में ऐसे लोग पैदा हुए, जो आध्यात्मिक थे। लेकिन यह मुल्क आध्यात्मिक नहीं हो जाता इसलिए कि इस मुल्क में लोग पैदा हुए जो आध्यात्मिक थे। किसी घर में आइंस्टीन पैदा हो जाए, तो पूरा घर कोई नोबल प्राइज विनर नहीं हो जाता । कि सब कह दें कि हमारे घर में आइंस्टीन पैदा हुए, तो नोबल प्राइज तो हमारे घर के हर बच्चे का जन्मसिद्ध अधिकार है! बुद्ध पैदा हो जाएं, कृष्ण पैदा हो जाएं, इससे हम अध्यात्मवादी नहीं हो जाते। बल्कि इससे हमारे ऊपर एक और बड़ा दायित्व, एक और बड़ी रिस्पांसिबिलिटी गिर जाती है कि जिन्होंने बुद्ध पैदा किया, उनका भौतिकवाद होना अत्यंत दुखद और पीड़ादायी हो जाता है। इससे हम आध्यात्मिक नहीं हो जाते, बल्कि इससे हमारा भौतिकवाद और भी पीड़ादायी हो जाना चाहिए। कि जिन्होंने बुद्ध, और महावीर, और कृष्ण, और ऋषभ पैदा किए, उनकी हालत ! उनकी हालत दो-दो कौड़ी को पकड़ने की हो, उनकी हालत चौबीस घंटे पदार्थ के चिंतन की हो ! 204 हां, इसको अगर अध्यात्मवाद हम समझते हों कि रोज उठकर हम सुबह गीता पढ़ लेते हैं। कितनी बार पढ़िएगा? और जब पहली बार आपकी बुद्धि में नहीं आई, तो आप समझते हैं, दूसरी बार आपकी बुद्धि थोड़ी ज्यादा हो जाएगी ? डिटेरियोरेट हो रही है बुद्धि रोज । कल जितनी थी, कल और कम हो जाने वाली है। दूसरी बार और कम समझ में आएगी। और तीसरी बार समझने की जरूरत ही नहीं रह जाएगी, तोते की तरह दोहराए चले जाएंगे। फिर जिंदगीभर आदमी गीता पढ़ता रहता है और सोचता है। कुछ नहीं समझता; शब्द दोहराता है। आध्यात्मिक होना हो, तो जीवंत प्रयोग की जरूरत है। कृष्ण प्रयोग की ही बात कर रहे हैं। वे कह रहे हैं, पदार्थ से हटाओ। सोचेंगे, कभी न हटा पाएंगे। हटाना शुरू करें। अभी थोड़ी ही | देर में पदार्थ पकड़ेगा, तब पदार्थ से दूर रहकर – अभी प्यास लगेगी और पानी पीएंगे, तब थोड़ा प्यास से दूर खड़े होकर प्यास को भी देखना, पानी को भी देखना। पानी प्यास को बुझा रहा है, यह भी देखना। और आप देखने वाले रहना। आप न प्यासे बनना और न पानी बनना। जब प्यास मिट जाए, तब भी आप जानने वाले रहना कि अब प्यास मिट गई। आप प्यास मत बन जाना, अन्यथा पानी पर पागलपन शुरू हो जाएगा। आप जरा दूर खड़े | होकर देखते रहना । यह दूर खड़े होने की कला, यह प्रतिपल दूर खड़े होने की कला, ठीक वस्तुओं के बीच में अनासक्त होने की कला ही किसी क्षण उस विस्फोट में ले आती है जीवन को, जहां हम परमात्मा से एक जाते हैं। अभी इतना ही। पर बैठें। पांच मिनट थोड़ा प्रयोग कर लें। दो-तीन बातें आपसे कह दूं, तो आपको आसानी होगी। कई मित्र मुझे पूछ रहे हैं कि संकीर्तन क्या है ? तो दो-तीन बात आप समझ लें। फिर आप देख भी लें। क्योंकि कुछ चीजें हैं, जो कही नहीं जा सकतीं और बताई जा सकती हैं। तो कुछ मैं आपको बताऊं कि संकीर्तन क्या है। कुछ थोड़ा-सा कह दूं, तो आपको खयाल में आ जाए। एक, संकीर्तन छलांग है- ए जंप - बुद्धि के बाहर । ध्यान रखना, बुद्धि के बाहर। वह जो सोच-विचार का जगत है हमारे मन Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ <पदार्थ से प्रतिक्रमण-परमात्मा पर - का. उसके बाहर भाव के जगत में एक छलांग है। सोचेंगे-विचारेंगे. तो नाच न सकेंगे। सोचेंगे-विचारेंगे, तो गा न सकेंगे। सोचेंगेविचारेंगे, तो सब पागलपन लगेगा कि ये तो पागल हो गए। लेकिन सोच-विचारकर जिंदगीभर देख लिया, कहीं पहुंचे नहीं हैं। काफी गणित कर लिया, काफी दर्शनशास्त्र पढ़ लिया, काफी तर्क कर लिया-हाथ में राख भी नहीं है। तो थोड़ी देर के लिए, एक सात मिनट के लिए सोचने के बाहर की दुनिया में भी झांककर देख लें। और बिना झांके कोई उपाय नहीं है। मैं आपसे कहूं कि जरा खिड़की पर आ जाएं। आकाश है बाहर, तारे निकले हैं, फूल खिले हैं। तो आप खिड़की पर आने के पहले नहीं जान सकेंगे कि तारे खिले हैं। खिड़की पर आ जाएं, तो आकाश दिखाई पड़ सकता है। एक छोटा-सा आकाश यहां संकीर्तन का संन्यासी पैदा करेंगे। संन्यासियों से कहूंगा, वे लोगों को भूल जाएं। लोग हैं या नहीं, इसकी फिक्र छोड़ दें। वे तो अपने रस में पूरे डूब जाएं। अपने हाथों को परमात्मा की तरफ फैला दें और नाच में मग्न हो जाएं। तीन मिनट अगर ठीक से पूरी सामर्थ्य से डूबा कोई भी व्यक्ति, तो चौथे मिनट छलांग में उतर जाता है। और जब आदमी भीतर प्रवेश करता है प्रभु के, तब खुद नहीं नाचता, प्रभु उसमें नाचने लगता है। तब खुद गीत नहीं गाता, प्रभु ही गीत गाता है। तब थोड़ी ही देर में आदमी मिट जाता है, नृत्य ही शेष रह जाता है। इस संकीर्तन को आप भी साथ दें। ताली बजाएं। गीत गाएं। डोलें। मग्न हों। एक सात मिनट इस प्रयोग को समझें। 205 Page #232 --------------------------------------------------------------------------  Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 6 चौदहवां प्रवचन । अहंकार खोने के दो ढंग Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 गीता दर्शन भाग-3 सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि । लिए अदृश्य है। ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ।। २९ ।। । इसमें दूसरी और अदभुत बात कही है। उसके लिए मैं अदृश्य यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति । नहीं हूं, यह पहले समझ लें। फिर इससे भी अदभुत बात कृष्ण ने तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ।। ३०।। कही है, वह मेरे लिए अदृश्य नहीं है। क्योंकि हम, परमात्मा और हे अर्जुन, सर्वव्यापी अनंत चेतन में एकीभाव से स्थिति अदृश्य है, इस बात को तो अपने अंधेपन से समझा लेंगे। लेकिन रूप योग से युक्त हुए आत्मा वाला तथा सबमें समभाव से | परमात्मा के लिए हम अदृश्य हैं, इसे हम कैसे समझाएंगे! देखने वाला योगी आत्मा को संपूर्ण भूतों में बर्फ में जल के समस्त भूतों में देख पाए जो एक को...। । सदृश व्यापक देखता है और संपूर्ण भूतों को आत्मा में आकार प्रत्येक वस्तु का अलग है। प्रत्येक व्यक्ति का आकार देखता है। | अलग है। प्रत्येक वस्तु का गुण अलग है। प्रत्येक वस्तु भिन्न-भिन्न और जो पुरुष संपूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव है। लेकिन भिन्नता के भीतर जो अभिन्नता देख पाए। यूनिटी इन को ही व्यापक देखता है और संपूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव डायवर्सिटी। वह जो इतना अनेक-अनेक होकर दिखाई पड रहा है. के अंतर्गत देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता हूं | वह कहीं गहरे में एक है-ऐसा जो देख पाए! सोच पाए नहीं। और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता है। सोचना तो बहुत कठिन नहीं है। सोच तो विज्ञान भी पाता है कि समस्त पदार्थों के बीच कोई एक ही है। लेकिन सोचने से कुछ हल नहीं होता। सोच तो हम भी सकते 1 रमात्मा अदृश्य है, ऐसी हमारी मान्यता है। लेकिन यह हैं कि समस्त सोने के आभूषणों के बीच सोना ही है; और समस्त प मान्यता बड़ी भूल भरी है। परमात्मा अदृश्य नहीं है, | सागरों में एक ही जल है। सोचने का सवाल नहीं है। सोचने से - हम ही अंधे हैं; खोजेंगे, तो ऐसा पाएंगे। अंधा अगर | | आंख नहीं खुलती। अंधा भी प्रकाश के संबंध में सोच-विचार कहे कि प्रकाश अदृश्य है, तो जो अर्थ होगा, वही अर्थ हमारे कहने | करता रह सकता है। इससे अनुभव उपलब्ध नहीं होता। का होता है कि परमात्मा अदृश्य है। देख पाए! आदमी बहुत अदभुत है। स्वयं का अंधापन स्वीकार करना इसलिए दुनिया में समस्त भाषाओं में, चाहे वे किसी कोने में पीड़ादायी है; परमात्मा को ही अदृश्य मान लेना सुखद है। अंधे को | पैदा हुई हों, हम प्रभु-साक्षात करने वाले के लिए जो उपयोग करते भी आसान पड़ेगा यह मान लेना कि प्रकाश कुछ ऐसी चीज है जो हैं, उसमें आंख का उपयोग जरूर करते हैं। भारत में हम कहते हैं, दिखाई नहीं पड़ती; बजाय यह मानने के कि में अंधा हूं। अहंकार द्रष्टा। उसका अर्थ है, देखने वाला। विचारक नहीं, सोचने वाला को चोट लगती है कि मैं अंधा हूं। और फिर भी आंख के अंधेपन नहीं। तत्व अनुभव को हम कहते हैं, दर्शन; चिंतन नहीं, मनन नहीं, से इतनी चोट नहीं लगती, जितनी मेरी चेतना अंधी है, तो चोट आंख। पश्चिम में भी देखने वाले को सीअर ही कहते हैं, देखने लगती है। वाला ही कहते हैं, जिसने देखा-सोचा-विचारा नहीं देखा, इसलिए आपसे कहता हूं, जो-जो लोग कहे चले जाते हैं कि अनुभव किया। परमात्मा अदृश्य है, परमात्मा अदृश्य है, वे सिर्फ अपने अंधेपन कैसे अनुभव होगा? समस्त रूपों में वह अरूप कैसे दिखाई को ढांके चले जाते हैं। आंख खुली हो, तो परमात्मा ही दृश्य है। पड़ेगा? या ऐसा समझें कि जो भी दृश्य है, वही परमात्मा है। न दिखाई। जब तक आप रूप देखेंगे, तब तक दिखाई नहीं पड़ेगा। थोड़ा पड़ना, अदृश्य होने का सबूत नहीं है अनिवार्य रूप से; अंधेपन का अरूप की तरफ साधना करनी पड़ेगी। लेकिन हम जो भी देखते हैं, सबूत भी हो सकता है। सब रूपवान है। हम जो भी देखते हैं, साकार है। हम जहां भी जाते कृष्ण इस सूत्र में यही कहते हैं। वे कहते हैं कि जिसने अनुभव हैं, साकार से मुलाकात होती है। निराकार से मुलाकात नहीं होती। किया समस्त भूतों में एक को, और जिसने एक में अनुभव किया और मजा यह है कि सब जगह निराकार मौजूद है, लेकिन हमें समस्त भूतों को, उसके लिए न तो मैं अदृश्य हूं और न वह मेरे साकार से ही मुलाकात होती है। और सब जगह निर्गुण मौजूद है, 208 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अहंकार खोने के दो ढंग - और हमें सगुण से ही मुलाकात होती है। और सब जगह असीम | | दस खिड़कियां होंगी, तो दस आकाश हो जाएंगे। उस घर के भीतर मौजूद है, और हमें सीमा से ही मुलाकात होती है। बात क्या है? रहने वाले को क्या कभी स्वप्न में भी यह सूझ पाएगा कि एक ही बात करीब-करीब ऐसी है, जैसे कोई आदमी अपने घर के बाहर | | आकाश होगा? यह असंभव मालूम पड़ता है। और आकाश एक कभी न गया हो और जब भी आकाश को देखा हो, तो अपनी ही है। खिड़की से देखा हो। आकाश तो असीम है, लेकिन खिड़की से | ___ इंद्रियों से देखते हैं हम जगत को, इसलिए आकार दिखाई पड़ता देखा गया आकाश फ्रेम में हो जाता है। खिड़की का फ्रेम आकाश | | है। इंद्रियां विंडोज हैं, खिड़कियां हैं। और प्रत्येक इंद्रिय का ढांचा से लग जाता है। आकाश में कोई फ्रेम नहीं होता, कोई ढांचा नहीं | | विराट के ऊपर बैठ जाता है। कान से सुनते हैं, आंख से देखते हैं, होता। आकाश का कोई चौखटा नहीं होता। आकाश चौखटे से | हाथ से छूते हैं। हर इंद्रिय अपने ढांचे को दे देती है निराकार को। बिलकुल मुक्त है। लेकिन खिड़की के पीछे से खड़े होने पर | | जब भी छूते हैं, निराकार छूते हैं। लेकिन हाथ स्पर्श को आकार खिड़की का चौखटा आकाश पर जड़ जाता है। दे देता है। हाथ की सीमा है। हाथ असीम को नहीं छू सकता। और जिसने कभी खले आकाश को जाकर न देखा हो, सदा जिसको भी छएगा, उसे ही सीमित बना लेगा। खिड़की से ही देखा हो, वह यह न मान सकेगा कि आकाश असीम जब भी देखते हैं, निराकार को देखते हैं। लेकिन आंख की सीमा है, निराकार है। वह यही मान पाएगा कि आकाश की सीमा है। | है। आंख निराकार को नहीं देख सकती। तो जब भी देखते हैं, आंख यद्यपि जिसे वह आकाश की सीमा कह रहा है, वह उसकी खिड़की | | अपनी खिड़की बिठा देती है निराकार पर, और आकार निर्मित हो की सीमा है। लेकिन खिड़की आकाश पर जड़ जाती है। और | जाता है। जब भी सुनते हैं, तब फिर...। आकाश जरा भी बाधा नहीं देता। क्योंकि जो असीम है, वह किसी सभी इंद्रियां निराकार को आकार देती हैं। और फिर जैसा मैंने चीज को बाधा नहीं देता; सिर्फ सीमित बाधा देता है। | कहा, उस मकान में पांच खिड़कियां हों। या हम ऐसा समझें कि ध्यान रखना. सीमित हमेशा बाधा देता है। उसकी सीमा के आगे वह मकान ठहरा हआ मकान न हो. आन दि व्हील्स हो. उस पर आप खींचोगे, इनकार कर देगा। असीम बाधा नहीं देता। असीम | चक्के लगे हों और मकान दिन-रात चलता रहे, तो पांच खिड़कियां का अर्थ ही यह है कि आप कुछ भी करो, कोई बाधा नहीं पड़ती। | करोड़ों आकाश बना देंगी। तो एक छोटी-सी खिड़की आकाश पर जड़ जाती है, आकाश | ।। हम चलते हुए मकान हैं, जिसके नीचे पैर लगे हैं। घूमती हुई इनकार भी नहीं करता। आकाश कहता भी नहीं कि ज्यादती हो रही आंखें हैं हमारे पास। हमारी सारी इंद्रियां, पांच इंद्रियां पांच अरब है, अन्याय हो रहा है। आकाश चुपचाप अपनी जगह बना रहता | | इंद्रियों का काम करती हैं। क्योंकि चलते वक्त पूरे समय आकाश है। आकाश को पता भी नहीं चलता कि किसी की खिड़की उसके बदलता रहता है और हमारी इंद्रिय हर बार नई-नई चीज को देखती ऊपर बैठ गई है। लेकिन आप जो भीतर खड़े होकर देखते हैं, रहती है। इसलिए हमने यह अनंत-अनंत रूपों का जगत अनुभव आपकी खिड़की की सीमा आकाश की सीमा बन जाती है। एक। किया है। फिर अगर आपके घर में बहुत खिड़कियां हैं, तो आप बहुत-से | कृष्ण इस सूत्र तक आने के पहले बार-बार दोहराते हैं कि वही आकाशों को जानने वाले हो जाएंगे। एक खिड़की से देखेंगे, एक | जान पाएगा मुझे, जो इंद्रियों के पार है। तब इतने सूत्रों के बाद वे आकाश दिखाई पड़ेगा, जहां से सूरज निकलता है। दूसरी खिड़की | कहते हैं कि जो मुझे सब भूतों में देख लेगा एक को, और एक में से देखेंगे, वहां अभी कोई सूरज नहीं है; आकाश में बदलियां तैर देख लेगा सब भूतों को...। रही हैं। तीसरी खिड़की से देखेंगे, वहां बदलियां भी नहीं हैं, सूरज __यह एक साथ ही घटित हो जाता है। कहीं से भी शुरू कर लें। भी नहीं है; आकाश में पक्षी उड़ रहे हैं। चाहे सबमें देख लें एक को, तो दूसरी बात, एक में सब दिखाई जो आदमी घर के बाहर कभी नहीं गया. क्या वह किसी भी तरह एक दिखाई सोच पाएगा कि ये तीनों आकाश एक ही आकाश हैं? नहीं सोच | पड़ने लगता है। ये दो बातें नहीं हैं। ये दो छोर हैं एक ही घटना के, पाएगा। सीधा गणित यही होगा कि तीन आकाश हैं मेरे घर के एक ही हैपनिंग के। कहीं से भी शुरू हो सकता है। और हर आदमी आस-पास। पांच खिड़कियां होंगी, तो पांच आकाश हो जाएंगे। को अलग-अलग शुरू होगा। को 209 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 गीता दर्शन भाग-3 - इसे भी थोड़ा खयाल में ले लें। अन्यथा गलत छोर से आपने | स्त्री बहुपति कर सकती है, वहां स्त्री कमाने लगती है और पुरुष शुरू किया, तो आप कभी भी ठीक स्थिति में नहीं पहुंच पाएंगे। घर बैठकर खाने लगता है। वहां पुरुष कमाने नहीं जाता। सेकेंडरी ये दो ढंग हैं। स्त्रैण चित्त-स्त्रैण चित्त कहता हूं, स्त्री का चित्त हो जाता है, द्वितीय हैसियत का हो जाता है। स्त्री प्रथम हैसियत की नहीं। क्योंकि कुछ स्त्रियों के पास पुरुष का चित्त होता है। और हो जाती है। पुरुष चित्त का उपयोग करूंगा, तब भी मेरा मतलब चित्त पर आग्रह अगर ठीक समझें, तो उस समाज में पुरुष स्त्रियों जैसा व्यवहार है। क्योंकि कुछ पुरुषों के पास स्त्रियों का चित्त होता है। स्त्रैण चित्त कर रहे हैं, स्त्रियां पुरुष जैसा व्यवहार कर रही हैं। पुरुष अनाक्रामक एक में सबको देख सकता है आसानी से। हो जाते हैं, स्त्रियां आक्रामक हो जाती हैं। इसलिए स्त्री मोनोगेमस है; एक को ही पकड़ना चाहती है। यह | चित्त को समझ लेना आप। जब मैं स्त्रैण और पुरुष कह रहा हूं, दनिया में जो परिवार है. पतिव्रत धर्म है. एक पति है. यह स्त्री की तो स्त्री और परुष के शरीर से मेरा मतलब नहीं है. चित्त के ढंग से पकड़ है। स्त्री एक से ही शुरू कर सकती है। हां, बढ़ती चली जाए, मतलब है। तो ऐसी घटना आ सकती है कि एक में सबको देख ले। स्त्रैण चित्त एक पर रुकना चाहता है। इसलिए स्त्री जितना प्रगाढ़ लेकिन पुरुष अनेक से शुरू कर सकता है। और ऐसी घटना | प्रेम कर सकती है, पुरुष नहीं कर पाता। पुरुष का प्रेम बिखर जाता आ सकती है कि अनेक में एक को देख ले। पुरुष जो है वह | है। स्त्री का प्रेम एक पर, एक टूट, एक धारा में गिरता रहता है। पोलीगेमस। पुरुष चित्त और स्त्री चित्त का यह फासला, इन दो और इसीलिए सारी दुनिया में अब तक स्त्री और पुरुष के बीच हम चीजों का फासला निर्मित करता है। कभी सुलह पैदा नहीं करवा पाए। क्योंकि उनके चित्त के ढंग इतने इसलिए पुरुष बहु पर दौड़ता रहता है, अनेक पर दौड़ता रहता | | भिन्न हैं कि कभी सुलह हो पाएगी, यह कठिन दिखाई पड़ता है। है। एक से उसे तृप्ति नहीं होती। होती ही नहीं। सब-सब रूपों में, जब तक कि हम चित्त के ढंग को बदल न लें, कलह जारी रहेगी। जीवन की सब विधाओं में, सब दिशाओं में पुरुष अनेक पर दौड़ता | क्योंकि स्त्री एक को चाहती है, पुरुष अनेक को चाहता है। यह रहता है। स्त्री को एक से तृप्ति हो जाती है। और अगर स्त्री भी कलह का बुनियादी कारण है। और इसलिए स्त्री ईर्ष्यालु हो जाती अनेक पर दौड़ती है, तो उसके भीतर पुरुष चित्त की प्रधानता है, है, सदा भयभीत रहती है कि पुरुष कहीं किसी और स्त्री को न स्त्री चित्त की कमी है। चाहने लगे। ईर्ष्यालु होने के कारण उसकी सारी प्रकृति कुरूप हो पश्चिम की स्त्री ने अनेक पर दौड़ना शुरू किया है, क्योंकि | जाती है। और पुरुष झूठा हो जाता है, असत्य बोलने लगता है। पश्चिम की स्त्री धीरे-धीरे पुरुष जैसी होती जा रही है। उसकी क्योंकि उसे भय रहता है कि कहीं दूसरे की तरफ जो प्रेम से देखी साइक में, उसके चित्त में बुनियादी परिवर्तन हो रहे हैं। और बहुत गई आंख, उसकी स्त्री की पकड़ में न आ जाए। तो व्यर्थ की आश्चर्य न होगा कि थोड़े दिनों में पश्चिम का पुरुष एक पर ठहरने कहानियां गढ़ता रहता है, झूठी बातें करता रहता है। की कोशिश में लग जाए! क्योंकि प्रकृति संतुलन कभी भी नहीं यह मजबूरी है चित्त की। और इस चित्त को अगर हम ठीक से खोती है। | समझ लें, तो ही हम समझ पाएंगे कि ये जो दो छोर कृष्ण ने कहे जिन समाजों में बहुपत्नी प्रथा थी, उन समाजों में चित्त का एक हैं, ये क्यों कहे हैं। ढंग हुआ। और जिन समाजों में बहुपति प्रथा रही है, कि एक स्त्री __पुरुष अगर जाएगा, तो अनेक में एक की खोज उसके लिए बहुत-से पति कर सके, उन समाजों के पूरे चित्त की व्यवस्था बदल | | अध्यात्म में भी आसान होगी। यद्यपि आध्यात्मिक उपलब्धि पर जाती है। जिस समाज में एक स्त्री बहुत पति कर लेती है, उस पुरुष भी मिट जाता है, स्त्री भी मिट जाती है। लेकिन जब तक यह समाज में पुरुष कमजोर हो जाता है और स्त्री बलवान हो जाती है। नहीं हुआ, तब तक हमारी प्रत्येक साधना में, हमारे प्रत्येक कर्म में पुरुष स्त्रैण हो जाता है, स्त्री पुरुष-चेतना को पकड़ लेती है। हमारा चित्त मौजूद रहता है। ऐसे समाज हैं जमीन पर, जहां एक स्त्री बहुपति कर सकती है। | यही वजह है कि स्त्रियां स्टैटिक सोसायटी का आधार बन जाती लेकिन बड़े मजे की बात है, उनकी पूरी सामाजिक व्यवस्था बदल | हैं, ठहरे हुए समाज का। स्त्रियां बदलाहट बिलकुल पसंद नहीं जाती है। पूरी साइकोलाजी, पूरा मनस बदल जाता है। जहां एक | करतीं, या बहुत क्षुद्र ढंग की बदलाहट पसंद करती हैं। कपड़े, 210 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अहंकार खोने के दो ढंग - जेवर, जिनकी बदलाहट से कोई बदलाहट दुनिया में नहीं होती। से कभी देखा। हां, कभी-कभी नए कांबिनेशन बना लेते हैं। उससे कोई बुनियादी बदलाहट स्त्रियां पसंद नहीं करतीं। स्त्रियां बहुत कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन सब पुराना ही रहता है। उस पुराने को रेसिस्टेंट, बहुत प्रतिरोधी शक्ति की तरह बदलाहट के खिलाफ हम फिर जुगाली करने लगते हैं, जैसे जानवर जुगाली करते हैं न! खड़ी रहती हैं। कोई बदलाहट! लेकिन जानवर की जुगाली सिर्फ भोजन के लिए होती है। और लेकिन पुरुष बदलाहट के लिए बहुत आतुर रहता है। ऊपरी | हमारी जुगाली भोजन के लिए तो नहीं होती, विचारों के लिए होती बदलाहट के लिए बहुत आतुर नहीं रहता। कपड़े वह जिंदगीभर है। जानवर खाना खा लेता है, फिर निकाल-निकालकर चबाता एक से पहने रह सकता है, इससे अड़चन नहीं आती। उसकी समझ रहता है बैठकर। भैंस को कभी देखें, तो समझ में आएगा। खाए के बाहर है कि बहुत कपड़े बदलने की क्या जरूरत है! वह एक ही हुए खाने को फिर-फिर से खाती रहती है। हम भी गृहीत किए गए, ढंग के कपड़े जिंदगीभर पहने रह सकता है, कोई अड़चन नहीं | ग्रहण किए गए संस्कारों को फिर-फिर दोहराते रहते हैं। आती। लेकिन किसी गहरी बुनियादी बदलाहट के लिए वह आतुर __आंख बंद करके बैठ जाएं, दिवास्वप्न शुरू हो जाएगा। फिल्म रहता है कि चीजों का कोई गहरा रूप बदल जाए। क्योंकि गहरा |चढ़ गई पर्दे पर। वह जो हमने देखा है, जाना है, वह फिर-फिर रूप बदले, तो वह अनेक जीवन एक जीवन में जी सके। दोहरने लगेगा। स्त्री गहरी बदलाहट नहीं चाहेगी, वह एक ही जीवन की एक न; इससे भी हटना पड़ेगा। अन्यथा आंख की खिड़की से आप तारतम्यता को पसंद करेगी। एक सुर उसके व्यक्तित्व का है। यह न हटे। यह जो भीतर विचार की दुनिया जारी हो जाती है, इसके भी साइक, चित्त का भेद है। इस चित्त के भेद के अनुसार अध्यात्म में | समझना कि मैं पार हूं, इससे भी पार हूं, इससे भी भिन्न हूं। इससे भी गति करते वक्त खयाल रखना जरूरी है। | भी दूर खड़े होकर देखना कि ये विचार चल रहे हैं, मैं देखने वाला 'हां, अगर कोई स्त्री एग्रेसिव हो, आक्रामक हो, जैसा कि कुछ | हूं। और अगर तीन महीने कोई इस स्मरण में ठहर जाए, कि ये जो स्त्रियां होती हैं, तो उनके लिए अनेक में एक को देखना आसान विचार चल रहे हैं, ये दूर हैं, और मैं देखने वाला हूं...। पड़ेगा। कोई पुरुष रिसेप्टिव हो, जैसा कि कुछ पुरुष होते हैं, ग्राहक और निश्चित ही आप देखने वाले हैं, आप विचार नहीं हैं। आप हो, एग्रेसिव न हो, आक्रामक न हो, तो उसके लिए एक में अनेक | विचार होते, तो आपको कभी पता ही न चलता कि विचार चल रहे को देखना आसान होगा। कैसे देखेंगे? हैं। क्योंकि यह उसे ही पता चल सकता है, जो दूर खड़ा है। चाहे दो में से कुछ भी करें, एक काम तो दोनों को करना पड़ेगा आपने रात जाकर फिल्म देखी है सिनेमागृह में। अगर आप कि इंद्रियों के पार उठने की चेष्टा करनी पड़ेगी। आंख से बहुत फिल्म ही होते, तो देखता कौन? आप फिल्म नहीं हैं। आप कुर्सी देखा, कभी आंख बंद करके देखें। एक खयाल रखें, आंख से तो पर बैठे हुए हैं। बिलकुल अलग। लेकिन अंधेरा है कमरे में। खुद बहुत देखा, रूप के अतिरिक्त कुछ न पाया। खिड़की से बहुत दिखाई नहीं पड़ते, फिल्म ही दिखाई पड़ती है। और फिल्म ऐसी देखा, अब खिड़की से हटकर देखें। ग्रिप बांध लेती है मन पर कि कभी-कभी दर्शक भूल ही जाता है लेकिन डर यह है कि हमारी आदतें ऐसी कंडीशंड, ऐसी | कि वह है भी। वह करीब-करीब अभिनय का पात्र हो जाता है। संस्कारित हो जाती हैं कि जब हम आंख बंद करते हैं, तब भी हम लोगों के रूमाल गीले निकलते हैं सिनेमागृह से; आंसू पोंछ-पोंछ आंख से ही देखते रहते हैं। बंद आंख में भी आंख से ही देखते | कर आ गए हैं! रहते हैं। कभी पीछे लौटकर सोचा है कि पर्दे पर कुछ भी न था, जिसके __ आंख ने हजार-हजार संस्कार इकट्ठे कर रखे हैं खिड़की से | लिए आप रोते थे। सिर्फ छाया और धूप का खेल था। तब मन में देखने के। वही संस्कार आंख री-प्ले करती है, फिर से फिल्म को | बड़ी बेचैनी होगी कि मैं भी कैसा नासमझ हूं! वहां कुछ था नहीं। चढ़ा देती है। और हमारे मस्तिष्क का ढंग ठीक टेप रिकार्डर जैसा । | सिर्फ विद्युत के दौड़ते हुए रूप थे। कोई जीवन भी न था वहां, है; उसमें कुछ भेद नहीं है। हमारे मस्तिष्क में प्रत्येक चीज अंकित | | लेकिन भ्रम जीवन का हो जाता है। भ्रम जीवन का हो जाता है। भूल है, वह अंकित चीज हम फिर से खोलकर देखने लगते हैं। जाते हैं अपने को, फिल्म सब कुछ हो जाती है, खुद खो जाते हैं। आंख बंद करके हम वही देखने लगते हैं, जो हमने खुली आंख | और सिनेमागृह में तो तीन घंटे बैठते हैं, उसमें इतनी गड़बड़ हो Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 - जाती है—आंसू आ जाते हैं, रूमाल भीग जाता है, छाती धड़कने | | कोई पुरुष है नहीं; बाकी तो सब स्त्रियां हैं। लगती है, हृदय भारी हो जाता है, दुखी हो जाते हैं, सुखी हो जाते . पुजारी ने चिट्ठी पढ़ी, घबड़ाया कि पता नहीं कौन आ गया! उस न चित्त की जिस फिल्म को आप अनंत जन्मों से देख रहे | पुजारी को पता भी न होगा कि कभी कोई शद्ध स्त्री आ सकती है. हैं, अगर उसमें ऐसा तादात्म्य गहन हो गया हो, तो आश्चर्य नहीं | | जिसे सिर्फ एक ही पुरुष है। माफी मांगी और कहा, भीतर आ है। वहां वह पूरे वक्त चल रहा है। सोते-जागते, मन के पर्दे पर | | जाओ, क्योंकि मुझसे ज्यादती हो गई कि मैंने भी पुरुष होने का दावा फिल्म जारी है। इसमें कभी अंतराल नहीं आया, गैप नहीं पड़ा। किया। कृष्ण के मंदिर में पुरुष होने का दावा करने वाला पुजारी इसलिए भयंकर तादात्म्य हो गया है। जैसे कोई आदमी जिंदगीभर गलत पुजारी है। सिनेमा में ही बैठा रहे और भूल जाए कि मैं हूं। सिनेमा ही हो जाए! भक्ति का मार्ग स्त्रैण चित्त का मार्ग है-समर्पण का, किसी के ऐसी हमारी स्थिति है। चरणों में सब रख देने का, और एक ही चरण में पूरे जगत के चरणों इसे तोड़ना पड़े। इसे तोड़ने के लिए जरूरी है जानना कि मैं | | को उपलब्ध कर लेने का। मूर्तियां स्त्रियों ने विकसित की हैं, भला दर्शक हूं। बस, यह स्मरण कि मैं द्रष्टा हूं। पुरुषों ने बनाई हों। मूर्ति स्त्रैण चित्त के निकट है। कृष्ण की सारी साधना पद्धति द्रष्टा की है। मैं दर्शक हूं, मैं द्रष्टा महावीर शुद्ध पुरुष चित्त हैं। वे कहते हैं, कोई परमात्मा नहीं है। हूं। इसका स्मरण कि मैं देख रहा हूं। विचारो, मैं तुम्हारे साथ एक | महावीर का यह कहना कि कोई परमात्मा नहीं है, आत्मा ही नहीं हूं; तुम से दूर खड़ा देख रहा हूं। परमात्मा है, पुरुष की शुद्धतम घोषणा है। पुरुष किसी परमात्मा को यह स्मरण गहरा हो जाए, तो विचार भी बंद हो जाएंगे। आंख | | मान नहीं सकता। क्योंकि मानेगा, तो समर्पण करना पड़ेगा। पुरुष भी बंद हो गई, बाहर का आकाश दिखाई पड़ना बंद हो गया। समर्पण नहीं कर सकता। पुरुष संकल्प कर सकता है, साधना कर विचार भी बंद हो गए, बाहर के आकाश के बने प्रतिबिंब भी बंद सकता है, गौरीशंकर पर चढ़ सकता है। महावीर कहते हैं, कोई हो गए। और जिस दिन यह होगा, उसी दिन आप अंतर के लोक | परमात्मा नहीं है। प्रत्येक परमात्मा है। स्वयं को जान लिया, तो से पुनः उस विराट आकाश में पहुंच जाएंगे, जिस पर कोई खिड़की | | परमात्मा को जान लिया। किसी दूसरे को नहीं जानना है। नहीं है। और जिस दिन आप उस विराट आकाश को जान | पुरुष स्वयं में जीता है; स्त्री सदा दूसरे में जीती है। कभी वह बेटे लेंगे-चौखटे से रहित, फ्रेमलेस—उसी दिन आपको अनेक में | | में जीती है, कभी पति में जीती है, पर सदा दूसरे में जीती है। दूसरे एक और एक में अनेक दिखाई पड़ने लगेगा। के बिना उसका होना न होने के बराबर हो जाता है। स्त्री का सारा जिन्हें एक में अनेक देखना है, उनके लिए भक्ति सुगम मार्ग है। | रस, सारा जीवन दूसरे से प्रतिध्वनित होता है। उसका बेटा प्रसन्न मैंने कहा, स्त्रैण चित्त का वह लक्षण है। भक्ति का मार्ग मूलतः | है, और वह प्रसन्न है। पुरुष दूसरे में नहीं जीता, अपने में जीता है, स्त्रैण है। महावीर से भक्ति नहीं करवा सकते आप, मीरा से ही | स्व-केंद्रित जीता है। स्त्री पर-केंद्रित जीती है। करवा सकते हैं। महावीर जैसे कि पुरुष चित्त के प्रतीक हैं। अगर । परमात्मा पर है। इसलिए जैसे-जैसे दुनिया में पुरुष द्वारा निर्मित पुरुष चित्त शुद्ध हो, तो महावीर जैसा होगा। अगर स्त्री चित्त शुद्ध | विज्ञान विजयी हुआ, वैसे-वैसे भक्ति के रूप खंडित हुए। क्योंकि हो, तो मीरा जैसा होगा। एक प्रतीक की तरह ले रहा हूं इन दो को। | विज्ञान पुरुष की खोज है, स्त्री की खोज नहीं है। कोई एक मैडम स्त्री चित्त शुद्ध हो, तो मीरा जैसा होगा। तो मीरा गई है वृंदावन | क्यूरी नोबल प्राइज पा लेती हो; अपवाद है। और मैडम क्यूरी के और मंदिर के पुजारी ने कहा कि अंदर न आने दूंगा, क्योंकि मैं स्त्री पास पुरुष जैसा चित्त था, स्त्री जैसा नहीं। का चेहरा नहीं देखता। तो मीरा ने खबर भिजवाई कि मैं तो सोचती विज्ञान पुरुष की खोज है। इसलिए जैसे-जैसे विज्ञान जीतता थी, कृष्ण के सिवाय और कोई पुरुष नहीं है। आप भी पुरुष हैं, गया, वैसे-वैसे धर्म की बहुत बुनियादी शिलाएं आदमी तोड़ता इसका मुझे कुछ पता न था! मैं एक दर्शन आपका करना ही चाहती। | चला गया। क्योंकि उसके मार्ग ही अलग हैं। हूं। मैं दूसरे पुरुष को भी देख लूं! ___ अगर आपके पास समर्पण करने की क्षमता है, तो आपके लिए यह एक में अनेक को खोजने वाला चित्त है, जो कहता है कि कोई भी चरण परमात्मा के चरण बन सकते हैं। इसलिए अगर सिर्फ एक ही पुरुष है, कृष्ण। सब उसी में लीन हो गए। दूसरा तो स्त्रियां कह पाईं कि उन्हें पति ही परमात्मा है, और अगर कोई स्त्री 212] Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < अहंकार खोने के दो ढंग - पति में परमात्मा देख पाए, तो पति इतना विराट हो जाएगा धीरे-धीरे आ सकेगा। और जब किसी ने बुद्ध से पूछा कि ऐसा आप क्यों कि सब, एक में अनेक समा जाएगा। अगर देख पाए। वही उसकी कहते हैं? तो उन्होंने कहा, मैं स्त्रियों को दीक्षा दिया हूं। पांच साल साधना बन सकती है। न देख पाए, तो भी वह किसी को खोजेगी। | भी बहुत है कि मेरी पद्धति शुद्ध रह जाए, स्त्रियां उसको बदल जैसा व्यक्ति जो कहता है. कोई परमात्मा नहीं है, देंगी। क्योंकि स्त्रैण चित्त। उसके पास भी...। महावीर के पास पचास हजार संन्यासी थे, तो और बदल डाला, बिलकुल बदल डाला! केवल आठ हजार संन्यासी पुरुष थे, बयालीस हजार संन्यासिनियां चित्त हमारा दो प्रकार का है। लेकिन किसी भी चित्त के पार जाना स्त्रियां थीं। महावीर कहते हैं. कोई परमात्मा नहीं है। लेकिन हो. तो इंद्रियों के पार जाना जरूरी है। लेकिन जाने की विधि में थोडे लीस हजार स्त्रियां कहती हैं. तम हमारे लिए परमात्मा हो. फर्क होंगे। स्त्री चित्त समर्पण से जाएगा। समर्पण कर दिया अपना भगवान हो! महावीर के चरण में भी उन्होंने परमात्मा को खोज | प्रभु के लिए, तो सब इंद्रियां समर्पित हो गईं, स्वयं भी समर्पित हो लिया। महावीर कितना ही कहें, वह महावीर के चरण में भी | | गए। खुला आकाश, विराट आकाश उपलब्ध हो गया। परमात्मा को खोज लिया। __पुरुष समर्पण से नहीं, संकल्प से जाएगा। संकल्पपूर्वक बुद्ध ने इनकार किया, कोई परमात्मा नहीं है। और इसलिए बुद्ध | एक-एक इंद्रिय के ऊपर उठेगा। ने बहुत दिन तक जिद्द की कि मैं स्त्रियों को दीक्षा न दूंगा। बहुत __ भेद ऐसा है, रामकृष्ण के पास एक आदमी आया। एक हजार मजेदार घटना है। बुद्ध ने बहुत दिन जिद्द की कि मैं स्त्रियों को दीक्षा | | स्वर्ण-मुद्राएं जाकर उसने रामकृष्ण के पैर में जोर से पटकीं। जोर से, नहीं दूंगा। एक अर्थ में जिद्द ठीक थी, क्योंकि बुद्ध का पथ | | ताकि घाट पर इकट्ठे लोगों को सोने की खनखनाहट का पता चल बिलकुल पुरुष का पथ है। और मजा यह है कि पुरुष के पथ पर | जाए कि किसी ने आकर सोना दान किया! दानी जब करता है, तो स्त्री को लाओ, तो स्त्री न बदलेगी, पथ को बदल लेगी। इसलिए घोषणा से ही करता है! उसी में दान बेकार हो जाता है यद्यपि।। बुद्ध बहुत इनकार किए कि क्षमा करो। बहुत मजबूरी में, बहुत | रामकृष्ण ने कहा, इतने जोर से भाई क्यों पटकता है? दान दबाव में, और बड़ी एक तार्किक घटना के कारण बुद्ध को दीक्षा चुपचाप भी कर सकता है! उस आदमी को कुछ होश आया। उसने देने के लिए राजी होना पड़ा। कहा, क्षमा करें, भूल हो गई। अनजाने हो गया। स्वीकार करके बुद्ध की वृद्ध एक रिश्तेदार है, गौतमी। बुद्ध से उम्र में बड़ी है। | मुझे कृतार्थ करें। रामकृष्ण ने कहा, स्वीकार कर लेता हूं। क्योंकि रिश्ते में चाची लगती है। गौतमी बुद्ध के पास आई। जब सैकड़ों | कोई मुझे गालियां देने आए, तो वह भी स्वीकार कर लेता हूं, तू तो स्त्रियों को बुद्ध इनकार कर चुके, तो गौतमी बुद्ध के पास आई। स्वर्ण की मुद्राएं लाया! मैंने स्वीकार कर लीं। अब मेरी तरफ से उसने यह नहीं कहा, मुझे दीक्षा दो। उसने यह कहा कि क्या स्त्रियां जाकर इनको गंगा में फेंक आ। सत्य को नहीं पा सकेंगी? बुद्ध ने कहा, जरूर पा सकेंगी। क्या ___ तो वह आदमी मुश्किल में पड़ा। एक हजार स्वर्ण-मुद्राएं! गया स्त्रियों के लिए सत्य का द्वार बंद है? बुद्ध ने कहा, नहीं, द्वार बंद | | गंगा के किनारे। बड़ी देर लगा दी। लौटा नहीं। रामकृष्ण ने कहा, नहीं है। क्या स्त्रियां ऐसी अपवित्र हैं कि सत्य के निकट न पहुंच | | भाई, जरा देखो, वह आदमी कहां है? बड़ी देर लग गई। फेंकने को सकें? बुद्ध ने कहा कि नहीं-नहीं, स्त्रियां उतनी ही पवित्र हैं, कहा था! एक सेकेंड का काम था। फेंककर चलकर आ गया होता। जितने पुरुष। तो गौतमी ने कहा कि फिर बुद्ध हमें दीक्षा क्यों नहीं __लोग देखने गए। और उन्होंने आकर बताया कि वह एक-एक देते हैं? क्या हम वंचित रह जाएं बुद्ध की मौजूदगी से? फिर हमें | अशर्फी को बजाकर देख रहा है। और बजाकर फेंकता है और कब दूसरा बुद्ध मिलेगा? उसका कोई वचन है? उसका कोई | कहता है, आठ सौ दस, आठ सौ ग्यारह, आठ सौ बारह...! वह आश्वासन है? और अगर हम नहीं पहुंच पाए सत्य तक, तो | | गिन-गिनकर फेंक रहा है! भीड़ इकट्ठी है वहां भारी।। जिम्मेवार आप भी होंगे। जब वह आदमी लौटा, पसीना-पसीना, घंटों की मेहनत के बाद। बुद्ध कठिनाई में पड़ गए। बुद्ध ने कहा, मैं दीक्षा देता हूं। लेकिन रामकृष्ण ने कहा, तू बड़ा पागल है। जो काम एक ही कदम में किया साथ ही यह भी घोषणा करता हूं कि मेरा जो धर्म पांच हजार वर्ष जा सकता था, वह तूने हजार कदम में किया! फेंकनी ही थीं, जोड़नी तक लोगों के काम आता, अब पांच सौ साल से ज्यादा काम नहीं तो नहीं थीं। जोड़ते वक्त गिनती की कोई सार्थकता भी है। फेंकते 213 Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < गीता दर्शन भाग-3 > वक्त तो गिनती की कोई सार्थकता नहीं है। आदमी तिजोड़ी में जोड़ता चली जाएगी। इसलिए पुरुष के सब मार्ग आत्मा की घोषणा करेंगे। है, तो एक-एक गिनकर जोड़ता है। जोड़ने के वक्त तो गिनती की स्त्री का मार्ग है, विसर्जन। कोई चीज पानी की तरह तरल होकर सार्थकता है। क्योंकि जोड़ने वाला चित्त अगर गिनेगा नहीं, तो पता | बह जाएगी। इसलिए स्त्री के मार्ग परमात्मा की घोषणा करेंगे। कैसे चलेगा कि कितना जोड़ा? लेकिन छोड़ते वक्त गिनती की । एक में देख लें सबको या सबमें देख लें एक को। थोड़े विधियों कौन-सी आवश्यकता है? तू इकट्ठा ही झोला फेंक देता! के भेद होंगे। लेकिन इंद्रियों से पार उठना पड़ेगा। या तो एक-एक एक-एक करके फेंका उसने। संकल्प एक-एक करके ही फेंक | इंद्रिय के साक्षी बनकर पार उठे, या समस्त इंद्रियों को एक बार ही पाता है। समर्पण इकट्ठा फेंक देता है। समर्पण का मतलब है कि प्रभु के चरणों में सौंप दें। तुम्ही सम्हालो ये इंद्रियां; तुम्ही सम्हालो ये सब कुछ। तुम्हारे चरणों | आप सोचते होंगे, बड़ा सरल है; एक बार जाकर प्रभु के चरणों में रख दिया सिर, तुम जानो। इकट्ठा फेंक देता है। संकल्प में सौंप दें; झंझट से छूटे। अगर आपके मन में ऐसा खयाल आया एक-एक इंद्रिय से लड़ेगा। एक-एक इंद्रिय से लड़ेगा, एक-एक हो कि एक बार जाकर प्रभु के चरणों में सौंप दें, झंझट से छूटे, तो इंद्रिय को छोड़ेगा। परिणाम वही होता है। पुरुष का रास्ता थोड़ा | आप सौंप न पाएंगे। आप सौंप न पाएंगे, क्योंकि आप झंझट से . लंबा है। स्त्री का रास्ता शार्टकट है। लेकिन पुरुष के लिए शार्टकट | छूटने को सौंप रहे हैं। झंझट आप ही हैं। नहीं है, बहुत लंबा हो जाएगा। स्त्री का रास्ता बहुत निकटतम | लेकिन अगर आपको ऐसा खयाल आया कि यह तो बात है-छलांग का। बिलकुल ठीक है; छोड़ दिया। छोड़ देंगे नहीं; कल छोड़ देंगे नहीं। अपने चित्त की तलाश कर लेनी चाहिए। जरूरी नहीं है कि आप | वह पुरुष चित्त का लक्षण है—जाऊंगा, करूंगा, छोडूंगा। वह पुरुष हैं, तो आपके पास पुरुष चित्त हो। इस भ्रम में मत पड़ना कि | | छोड़ने में भी करना करेगा। समर्पण भी उसके लिए एक संकल्प ही पुरुष होने से पुरुष चित्त होता है। स्त्री हों, तो स्त्री चित्त हो, इस भ्रम | होगा। वह कहेगा, मैं तैयारी कर रहा हूं, संकल्प कर रहा हूं कि में मत पड़ना। समर्पण कर दूं! अगर समर्पण भी आएगा, तो संकल्प के ही द्वार इसकी तलाश कर लेना कि आपके चित्त का ढंग क्या है ? | से आएगा। अगर वह प्रभु के चरणों में अपने को झुकाएगा भी, तो समर्पण का ढंग है या संकल्प का ढंग है? आपकी सामर्थ्य अपने | | यह बड़े व्यायाम और कसरत का फल होगा। भारी कसरत करेगा! को किसी के हाथ में छोड़ देने की है? नदी से अगर सागर तक | और कसरत से कोई झुका है? अकड़ना हो, तो कसरत ठीक है। पहुंचना हो, तो आप तैरकर पहुंचिएगा कि बहकर पहुंचिएगा? झुकना हो, तो नहीं। लेकिन अकड़ना हो, तो पूरे अकड़ जाएं। इसकी जरा ठीक से खोज कर लेना। बड़े मजे की बात है कि अगर पूरे अकड़ जाएं, तो एक दिन __ अगर बहकर पहुंच सकते हों, तो समर्पण मार्ग है। फिर नदी के | | अचानक पाएंगे कि सब बिखर गया। यह मुट्ठी है मेरी, इसको मैं हाथ में छोड़ दिया कि ले चल। नदी तो सागर जा ही रही है, ले | | बांधता चला जाऊं और इतना बांधूं, इतना जितना कि मेरी ताकत जाएगी। लेकिन अगर आप तैरने वाले आदमी हैं, तो तैरेंगे सागर | है। फिर एक क्षण आ जाएगा कि यह मुट्ठी खुल जाएगी-जिस की तरफ। नदी तो मेहनत कर ही रही है, आप भी मेहनत करेंगे। | क्षण मेरी ताकत चुक जाएगी बांधने की। और ताकत चुक जाएगी; जरूरी नहीं है कि तैरकर आप थोड़ी जल्दी पहुंच जाएंगे। हो सकता । ताकत सीमित है। है, थोड़ी देर से ही पहुंचें, क्योंकि तैरने में नाहक शक्ति व्यय होगी। | आप करके देखना। बांधते जाना, बांधते जाना, पूरी ताकत लगा नदी सागर की तरफ बह ही रही है, आप सिर्फ बह गए होते, तो भी देना। एक क्षण आप अचानक पाएंगे कि अब आप और नहीं बांध पहुंच गए होते। लेकिन आप पर निर्भर है। सकते हैं, और देखेंगे कि अंगुलियां खुल रही हैं! हां, कुनकुना बांधे पुरुष चित्त को बहने में रस न आएगा। वह कहेगा, यह भी क्या | | रहें, धीरे-धीरे, तो जिंदगीभर बांधे रह सकते हैं। हो रहा है! तैरने का कोई मौका ही नहीं! तो पुरुष चित्त अक्सर नदी । अकड़ना ही हो, तो पूरे अकड़ जाना। कहना, कोई ब्रह्म नहीं है, से उलटा तैरने लगता है, क्योंकि उलटा नदी में तैरने में ज्यादा मैं ही ब्रह्म हूं। लेकिन फिर इसको इस घोषणा से कहना कि पूस संकल्प को मौका मिलता है, क्रिस्टलाइजेशन। पुरुष का मार्ग है, जीवन इस पर लगा देना। एक क्षण आएगा कि यह बिखराव क्रिस्टलाइजेशन। सख्त हीरे की तरह भीतर कोई चीज मजबूत होती उपलब्ध हो जाएगा। लेकिन तनाव से विश्राम आएगा पुरुष को। थू 214 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहंकार खोने के दो ढंग टेंशन इज़ रिलैक्सेशन । पुरुष के लिए गहरे तनाव से विश्राम आएगा। जैसे कि तीर को खींचा है प्रत्यंचा पर। खींचते गए, खींचते गए, पूरा खींच लिया। फिर कभी आपने खयाल किया है कि बड़ी उलटी घटना घटती है ! तीर की प्रत्यंचा को खींचते हैं पीछे की तरफ, और जाता है आगे की तरफ। फिर एक क्षण आता है कि और नहीं खींच सकते और प्रत्यंचा छूट जाती है, और तीर आगे की यात्रा पर निकल जाता है। आप तो पीछे की तरफ खींच रहे थे, यात्रा तो उलटी हो गई। आप तो खींच रहे थे - मैं, मैं, मैं पूरा खींचते चले जाएं, एक दिन आप अचानक पाएंगे, बिखराव आ गया; तीर छूट गया, प्रत्यंचा टूट गई; ना मैं की तरफ यात्रा शुरू हो गई; परमात्मा में उपलब्धि हो गई। लेकिन मैं को खींचकर होगी पुरुष की उपलब्धि । स्त्री मैं को ऐसे ही समर्पित कर सकती है। इसलिए स्त्री और पुरुष के बीच कभी अंडरस्टैंडिंग नहीं हो पाती। एक स्त्री ने आकर मुझे कहा कि मुझे संन्यास लेना है, लेकिन मेरे पति कहते हैं, क्या होगा संन्यास लेने से मैं उनको कैसे समझाऊं ? मुझे तो लग रहा है, सब कुछ होगा। लेकिन वे कहते हैं, बताओ क्या होगा? कैसे होगा ? मुझे तो लग रहा है कि यह खयाल ही कि संन्यास लेना है, मेरे भीतर कुछ होना शुरू हो गया। जब लूंगी, तब तो होगा। अभी तो खयाल से कुछ मेरे भीतर हो रहा है | और वे कहते हैं, क्या होगा? कैसे होगा ? मुझे बताओ। मुझे भी तो सिद्ध करो। वह स्त्री सिद्ध न कर पाएगी। सिद्ध करने में पड़ेगी, तो कठिनाई में पड़ेगी। जो हो रहा है, वह भी बंद हो जाएगा। सिद्ध करना पुरुष चित्त का लक्षण है। स्वीकार कर लेना स्त्री चित्त का लक्षण है। और सिद्ध करके भी स्वीकार ही तो उपलब्ध होता है। मगर जरा लंबी यात्रा है। स्त्री बिना सिद्ध किए भी स्वीकार कर सकती है। और स्वीकार करते ही सिद्ध हो जाता है। बस, इतना ही फर्क होगा, आगे-पीछे का । पुरुष पहले सिद्ध करेगा, फिर स्वीकार करेगा। स्त्री पहले स्वीकार लेगी, और फिर सिद्ध कर लेगी। पर इतना फर्क होगा। और वे पुरुष ठीक पूछ रहे हैं। उनका पूछना बिलकुल दुरुस्त है। लेकिन वह अपने लिए ही पूछें, तो ठीक है; स्त्री के लिए न पूछें। उसे अपने मार्ग से जाने दें। उसे अपने मार्ग से जाने दें। हां, जब उनका सवाल हो खुद का, तो पूरा सिद्ध करके फिर संन्यास लें। लेकिन स्त्री को जाने दें। जिसे बिना सिद्ध किए संन्यास का भाव आता हो, उसे सिद्ध करने की कोई जरूरत नहीं रही, क्योंकि सिद्ध करने की जरूरत इतनी ही है कि भाव आ जाए। लेकिन पुरुष सोचेगा, विचारेगा, गणित लगाएगा, हिसाब लगाएगा, हर चीज की जांच करेगा, कि होगा कि नहीं होगा ? कितना होगा? जितना छोड़ेंगे, जितना कष्ट पाएंगे, उससे सुख ज्यादा होगा कि कम होगा? वह यह सब सोचेगा। और अगर कोई स्त्री पुरुष से बहुत प्रभावित हो जाए, तो | नुकसान में पड़ेगी। और अगर कोई पुरुष स्त्री से बहुत प्रभावित हो | जाए, तो नुकसान में पड़ेगा। और दुर्भाग्य यह है कि पुरुष स्त्रियों से प्रभावित होते हैं, और स्त्रियां पुरुषों से प्रभावित होती हैं। ऐसा होता है। और दोनों का रुख जीवन के प्रति बहुत भिन्न है। करीब-करीब ऐसा कि जैसे हम जमीन पर एक वर्तुल, एक सर्किल खींच दें। उस वर्तुल के एक बिंदु पर पुरुष खड़ा हो, बाईं तरफ मुंह किए; उसी बिंदु पर स्त्री खड़ी हो, दाईं तरफ मुंह किए। दोनों की पीठें मिलती हों। पुरुष और स्त्रियां बहुत कोशिश करते हैं कि दोनों आमने-सामने से आलिंगन में मिल जाएं। वह घटना घटती नहीं। धोखा ही सिद्ध होती है। क्योंकि उनके रुख बड़े | विपरीत हैं। उनकी दोनों की पीठ ही मिल सकती हैं। लेकिन अगर वे दोनों अपनी-अपनी यात्रा पर निकल जाएं, तो वर्तुल पर एक बिंदु ऐसा भी आएगा, जहां उन दोनों के चेहरे मिल जाएंगे। दोनों चले जाएं अपनी यात्रा पर; पुरुष बाएं चला जाए, स्त्री दाएं | चली जाए। और पुरुष न कहे कि दाएं जाने से कुछ न होगा, क्योंकि मैं बाएं जा रहा हूं। और स्त्री न कहे कि बाएं जाने से क्या होने वाला है, मुझे तो दाएं जाने से बहुत कुछ हो रहा है। मत लड़ो। दाएं-बाएं ही चले जाओ। जरूर वह बिंदु एक दिन आ | जाएगा तुम्हारी ही यात्रा से, जहां तुम आमने-सामने मिल जाओगे। 215 लेकिन वह बिंदु अंतिम बिंदु है। पड़ाव का प्रारंभ बिंदु नहीं है यात्रा | का; मंजिल का अंतिम बिंदु है। और इतनी समझ हो, तो स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के सहयोगी हो जाते हैं। इतनी समझ न हो, तो एक-दूसरे के विरोधी हो जाते हैं और जीवनभर बाधा डालते हैं। कृष्ण कहते हैं, ऐसा जो इंद्रियों के पार गया हुआ व्यक्ति है, उसके लिए परमात्मा दृश्य हो जाता है। निश्चित ही हो जाता है। | क्योंकि निराकार तब आकारों में खंडित नहीं होता, तब निराकार अपनी समग्रता में प्रकट होता है। ध्यान रहे, आकार को देखना हो, तो आपके भीतर अहंकार Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < गीता दर्शन भाग-3 - जरूरी है। निराकार को देखना हो, तो आपके भीतर अहंकार बाधा यह दूसरी बात का क्या राज है? है। क्योंकि अहंकार आकार देता रहेगा। अहंकार बड़ी छोटी-सी परमात्मा को तो हम सब दृश्य होने ही चाहिए, चाहे हम कैसे चीज है, लेकिन बड़े-बड़े आकार उससे पैदा होते हैं। ठीक ऐसे | भी हों। चाहे हम कैसे भी हों-बुरे हों, भले हों, अज्ञानी हों, पापी जैसे कोई शांत झील में एक पत्थर का छोटा-सा कंकड़ डाल दे। हों-कैसे भी हों; बाकी उसकी आंख में तो हम दिखाई पड़ने ही कंकड़ तो बड़ा छोटा-सा होता है, बहुत जल्दी जाकर जमीन में बैठ चाहिए। उसकी आंख में हम दिखाई नहीं पड़ते! कृष्ण का यह जाता है। लेकिन कंकड़ से जो लहरें पैदा होती हैं, वे विराट होती वक्तव्य बहुत अदभुत है। शायद दुनिया के किसी शास्त्र में ऐसा चली जाती हैं, फैलती चली जाती हैं। वक्तव्य नहीं है। अहंकार तो बहुत छोटी-सी चीज है, लेकिन वह बड़े-बड़े सभी शास्त्र ऐसा कहते हैं कि वह तो हमें देख ही रहा है। सब आकार पैदा करता है, निराकार कभी नहीं। बड़े से बड़ा आकार तरफ से देख रहा है। सब जगह से देख रहा है। ऐसी कोई जगह नहीं पैदा कर सकता है, निराकार कभी नहीं। निराकार तो तब पैदा है, जहां वह हमें न देख रहा हो; उसकी आंख हम पर न लगी हो। होगा, जब कंकड़ ही न हो, लहर ही न उठे, तब निराकार की कृष्ण का यह वक्तव्य तो बहुत भिन्न है। भिन्न ही नहीं, बहुत निस्तरंग स्थिति होगी। | डायमेट्रिकली अपोजिट है। इस वक्तव्य का दूसरा मतलब यह अहंकार खो जाए! या तो अहंकार इतना मजबूत होता चला जाए हआ कि जब तक हम इस स्थिति में नहीं हैं. तब तक परमात्मा हमें कि अपने आप अपनी ही ताकत से टूट जाए, जैसा पुरुष के जीवन | | नहीं देख रहा है? हम उसके लिए न होने के बराबर हैं? अदृश्य में घटित होता है। जैसा महावीर के जीवन में घटित होता है। | हैं? हम उसी दिन दृश्य होंगे, जिस दिन वह हमारे लिए दृश्य हो अहंकार सख्त, सख्त और मजबूत होता चला जाता है। छोटा होता | | जाएगा? इसका क्या मतलब हो सकता है? चला जाता है—छोटा, छोटा, छोटा-एटामिक, अणु जैसा हो इसके दो-तीन मतलब खयाल में ले लेने जैसे हैं, गहरे हैं, जाता है, परमाणु जैसा हो जाता है। और फिर आखिर इतना छोटा सूक्ष्म। और यह वक्तव्य बहुत कीमती है। हो जाता है कि उसके आगे जाने का कोई उपाय नहीं रहता। इतना | पहला मतलब तो यह है कि परमात्मा ही नहीं, कहीं भी, हम कंडेंस्ड कि अब आखिरी कोई गति नहीं रहती। टूटकर बिखर जाता | | सिर्फ वही देख पाते हैं जो हम हैं। परमात्मा भी वही देख पाता है, है, एक्सप्लोजन हो जाता है। जो वह है। जब तक हम परमात्मा जैसे नहीं हो जाते, हम उसे स्त्री का अहंकार बड़ा होता चला जाता है; इतना बड़ा कि | | दिखाई नहीं पड़ सकते। परमात्मा से एक हो जाता है। अगर मीरा से कृष्ण की बातें सुनी हैं, __ हम उसे दिखाई नहीं पड़ सकते, क्योंकि वह इतना शुद्धतम, तो खयाल में आएगा। इधर पैर पर सिर भी रखती है, उधर कृष्ण और हम अभी इतने अशुद्ध कि उस शुद्धि में हमारी अशुद्धि का से नाराज भी हो जाती है। डांट-डपट भी कर देती है। इधर सिर रख कोई प्रतिफलन नहीं हो सकता। उस शुद्धतम में हमारी अशुद्धि का देती है पैर पर, उधर कृष्ण पर नाराज भी हो जाती है! उधर कृष्ण से कोई प्रतिफलन नहीं हो सकता। वह अशुद्धि हमसे कटे, हटे, तो कभी रूठ भी जाती है। बड़ा होता जाता है। इतना बड़ा, इतना बड़ा ही हम शद्ध होकर उसमें प्रतिफलित हो सकते हैं। कि परमात्मा से रूठने की सामर्थ्य भी आ जाती है। और जब इतना | | इसमें कसूर परमात्मा का नहीं है, इसमें हमारी अशुद्धि बाधा है। बड़ा हो जाता है कि परमात्मा के बराबर हो जाए, तो खो जाता है। | वह इतना विराट, इतना निराकार, इतना असीम! और हम इतने दो खोने के ढंग हैं। या तो मैं इतना बड़ा हो जाए कि परमात्मा | आकार से भरे हुए कि उस निराकार की आंख में हमारा आकार जैसा। और या मैं इतना छोटा हो जाए, जितना हो सकता है। दोनों | पकड़ में नहीं आ सकता। स्थितियों में छूट जाएगा, विदा हो जाएगा। ध्यान रहे, जिस तरह आकार वाली आंख में निराकार पकड़ में कृष्ण कहते हैं, ऐसी स्थिति को उपलब्ध व्यक्ति के लिए मैं नहीं आ सकता, उसी तरह निराकार की आंख में आकार पकड़ में साकार जैसा, दृश्य हो जाता हूं, निराकार होते हुए। और दूसरी बात नहीं आ सकता। आकार इतनी क्षुद्र घटना है कि उस निराकार की तो और भी अद्भुत कहते हैं कि और ऐसा व्यक्ति मुझे दृश्य हो | | आंख में कैसे पकड़ में आएगा? असल में निराकार और आकार जाता है। का कोई संबंध नहीं बन सकता। असंभव है। निराकार आकार से 2161 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अहंकार खोने के दो ढंग - मिलेगा कैसे! तो न होगी; मुलाकात ही न होगी। मुलाकात ही तब होगी, जब इसे थोड़ा ऐसा समझें कि अगर निराकार आकार से मिल सके, जलने की तैयारी हो। तो निराकार भी आकार वाला हो जाएगा। क्योंकि निराकार अगर | | जब कोई परमात्मा के साथ खोने को राजी है, मिटने को राजी आकार से मिले, तो उसका अर्थ है कि आकार तो निराकार के बाहर | | है, एकाकार होने को राजी है...। और एकाकार होने को वही राजी होगा, समथिंग आउट साइड। और अगर निराकार के बाहर कोई | | होता है, जिसको अपने निराकार का बोध हो जाता है। नहीं तो आप चीज है, तो जो चीज बाहर है, वह निराकार का आकार बना देगी। अपने आकार को बचाते फिरते हैं कि कहीं नष्ट न हो जाए। क्योंकि सब आकार दूसरे से बनते हैं। आपके घर की जो बाउंड्री है, वह | | मैं आकार हूं, अगर आकार मिट गया, तो मैं मिट गया। जिस दिन आपके घर से नहीं बनती, आपके पड़ोसी के घर से बनती है। अगर | | आप जानते हैं, मैं निराकार हूं, उस दिन इस शरीर को आप कपड़े इस पृथ्वी पर आपका ही अकेला घर हो, तो आपके घर की कोई | की तरह उतारकर रख देने को राजी हो सकते हैं। उस दिन इन इंद्रियों बाउंड्री न होगी। को आप चश्मे की तरह उतारकर रख देने को राजी हो सकते हैं। सब सीमाएं दूसरे से बनती हैं। इसलिए जो असीम है, उसके | उस दिन आप निराकार हैं। फिर निराकार और निराकार के बीच लिए दूसरा तो हो ही नहीं सकता, क्योंकि वह सीमित हो जाएगा। | कोई व्यवधान नहीं है। कोई व्यवधान नहीं है। दोनों के बीच फिर __ हम तो उसी दिन उसके लिए हो सकते हैं, जिस दिन हम भी | कोई सीमा नहीं है। दोनों एक हो गए हैं। असीम हों। असीम का असीम से मिलन हो सकता है; असीम का | । जैसे कोई बूंद कहे कि मैं बूंद रहकर सागर से मिल जाऊं, तो न सीमित से मिलन नहीं हो सकता। सीमित का सीमित से मिलन हो | | मिल सकेगी। सागर भी चाहे-बूंद तो समझ लें कि असमर्थ है सकता है। असीम का असीम से मिलन हो सकता है। सीमित का | बेचारी, कमजोर है-अगर सागर भी चाहे कि मैं बूंद को बूंद रहने असीमित से मिलन नहीं हो सकता। असीमित का सीमित से भी | | दूं और मिल जाऊं, तो सागर भी न मिल सकेगा। अगर बूंद को मिलन नहीं हो सकता। यह असंभव है। इसका कोई उपाय नहीं है। सागर से मिलना है, तो सागर में खो जाना पड़ेगा। और अगर सागर इसलिए कृष्ण ठीक कहते हैं। वे कहते हैं, हम उन्हें तब तक को बूंद में अपने को मिलाना है, तो बूंद को खो देने के सिवाय कोई दिखाई नहीं पड़ेंगे, उनकी दृष्टि में नहीं पड़ेंगे, जब तक कि हम ऐसे | | रास्ता नहीं है। न हो जाएं कि या तो हमें एक में सब दिखाई पड़ने लगे, और या हम परमात्मा के लिए तभी दृश्य होते हैं, जब परमात्मा हमारे सब में एक दिखाई पड़ने लगे। | लिए दृश्य हो जाता है। जब तक परमात्मा हमारे लिए अदृश्य है, उसी क्षण हम परमात्मा के साक्षात्कार में हो जाएंगे। साक्षात्कार हम भी उसके लिए अदृश्य हैं। जब तक परमात्मा हमें ऐसा है, जैसे में कहना ठीक नहीं, भाषा की गलती है। हम परमात्मा के साथ | | नहीं है, तब तक हम भी परमात्मा के लिए ऐसे हैं, जैसे नहीं हैं। . एकात्म हो जाएंगे, एकाकार हो जाएंगे। उस क्षण हम भी निराकार | | एक कैथोलिक नन के जीवन को मैं पढ़ता था। एक कैथोलिक होंगे। या ऐसा कहें कि उस क्षण हम भी परमात्मा होंगे। संन्यासिनी का जीवन में पढ़ता था। कैथोलिक मान्यता है कि ___ परमात्मा ही परमात्मा से मिल सकता है, उससे नीचे मिलने का परमात्मा हर वक्त देख रहा है सब जगह। आश्रम में थी वह उपाय नहीं है। मिलना हमेशा समान का हाता है। असमान का काइ न का कोई संन्यासिनी। वह अपने बाथरूम में भी कपडे पहनकर ही स्नान मिलना नहीं होता। सम्राट से मिलना हो, तो सम्राट हो जाना जरूरी | करती थी! जब लोगों को पता चला, मित्रों को, साथी-संगिनियों है; चपरासी होकर मिलना बहुत कठिन है। परमात्मा से मिलना हो, को पता चला, तो उन्होंने कहा कि तू पागल तो नहीं है! बाथरूम तो परमात्मा हो जाना जरूरी है। वही योग्यता है मिलने की, अन्यथा | बंद करके, कपड़े उतारकर स्नान कर सकती है! कपड़े पहनकर कोई योग्यता नहीं है। स्नान करने की क्या जरूरत है? वहां तो कोई भी देखने वाला नहीं इसी चेहरे को, इसी स्थिति को लेकर परमात्मा के सामने हम न | | है। उस स्त्री ने कहा-गणित उसका साफ था—उसने कहा कि जा सकेंगे। आग से किसी को मिलना हो, तो जलना सीखना मैंने पढ़ा है किताब में कि परमात्मा सब जगह देखता है। चाहिए: बस. मिल जाएगा। जल जाए. तो आग से एक हो जाएगा। मगर उसकी नासमझी भी गहरी है. क्योंकि जो बाथरूम में लेकिन कोई सोचता हो कि बिना जले आग से मुलाकात हो जाए, घुसकर देख लेगा, वह कपड़े के भीतर घुसकर नहीं देख लेगा! - - - S . Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 इससे अच्छा तो यह होता कि वह सड़क पर नग्न खड़ी हो जाती; है। अभी तो आकार की भाषा में ही अर्जुन से बात की जा सकती क्योंकि जब वह सभी जगह देख ही रहा है! कपड़े के पार भी उसकी | | है। नहीं तो डायलाग, संवाद नहीं होगा। आंख चली ही जाती होगी, जब ईंट-पत्थर के पार चली जाती है। ___ हां, जब कृष्ण धीरे-धीरे तैयार कर लेंगे अर्जुन को, तो अपना और हड्डी के पार भी चली जाती होगी! | निराकार रूप भी दिखा देंगे। तब वे वासुदेव नहीं रह जाएंगे, तब सभी जगह वह देख रहा है, फिर भी हम उसकी पकड़ में आने | वे परात्पर ब्रह्म हो जाएंगे। तब वे कृष्ण नहीं रह जाएंगे, स्वयं जगत वाले नहीं हैं। उसकी आंख बहुत बड़ी है और हम बहुत छोटे हैं। | की सत्ता हो जाएंगे। तब वे अपने सब आकारों को उतारकर नीचे वह बहुत निराकार है, हम बहुत साकार हैं। वह बिलकुल निर्गुण रख देंगे और विराट को खुला छोड़ देंगे। है, हम बिलकुल सगुण हैं। वह बिलकुल शून्यवत है और हम | लेकिन तब भी अर्जुन कहां पूरा तैयार हो पाया था? कैसा घबड़ा अहंकार हैं। इसलिए पकड़ में हम न आएंगे। हम गजरते रहेंगे गया। और कहा कि बंद करो यह रूप। बंद करो। घबड़ाते हैं प्राण। आर-पार उसके। उसके ही आर-पार गुजरते रहेंगे—उसमें ही | घबड़ाएगा ही। जीएंगे, उसमें ही जगेंगे, उसमें ही सोएंगे, उसमें ही पैदा होंगे, उसमें कृष्ण को तो अर्जुन के पास आना है, तो सागर की भाषा नहीं ही मरेंगे और फिर भी वह हमें नहीं देख पाएगा। बोलनी पड़ेगी, बूंद की ही भाषा बोलनी पड़ेगी। नहीं तो अर्जुन तो अभी हमारी पात्रता भी नहीं कि वह हमें देखे। हमारी पात्रता की समझेगा ही नहीं। और अगर प्रयोजन यही है कि अर्जुन समझे, तो घोषणा उसी क्षण होती है, जिस क्षण हम उसे देख लेते हैं। | अर्जुन की ही भाषा का उपयोग करना उचित है। कृष्ण का यह सूत्र कीमती है, समझने जैसा है। | ध्यान रहे, इस पृथ्वी पर जो शिक्षक अपनी भाषा का उपयोग करते हैं, वे किसी के काम नहीं पड़ते। जो शिक्षक आपकी भाषा का उपयोग करते हैं, वे ही काम पड़ते हैं। मगर दुर्भाग्य ऐसा है कि प्रश्न : भगवान श्री, इस श्लोक में कृष्ण कहते हैं, मुझ | जो शिक्षक अपनी भाषा का उपयोग करते हैं, वे आपको खूब जंचते वासुदेव को देखता है। यह वासुदेव शब्द का उपयोग | हैं। और जो शिक्षक आपकी भाषा का उपयोग करते हैं, वे आपको यहां किस अर्थ में है? बहुत जंचते नहीं। क्योंकि आपकी भाषा का उपयोग करने के साथ ही गलतियां शुरू हो जाती हैं। आपमें गलतियां हैं. आपकी भाषा में गलतियां हैं। जब कृष्ण कहते हैं, मुझ वासुदेव को देखता है, मुझ ___ हां, अगर शिक्षक अपनी ही भाषा का उपयोग करे, तो गलतियां UI कृष्ण को देखता है, मुझे देखता है, तो कृष्ण जब अपने | कभी न होंगी; लेकिन बात इतनी सही होगी कि आपकी बुद्धि में न लिए वासुदेव या मैं या कृष्ण, मामेकं-इस तरह के | पड़ेगी। आपकी बुद्धि में पड़ने के लिए बात को थोड़ा गैर-सही शब्दों का प्रयोग करते हैं, तब ध्यान रखना कि इन सब शब्दों का होना जरूरी है। प्रयोग अर्जुन के निमित्त है। इन सब शब्दों का प्रयोग अर्जुन के | कृष्ण जो कह रहे हैं, उसमें गलती है। गलती अर्जुन के कारण निमित्त है। है, कृष्ण उसके लिए दोषी नहीं हैं। हां, कृष्ण की करुणा भर दोषी अर्जुन समझ ही नहीं पाएगा, अगर कृष्ण कहें कि मुझ निराकार | हो सकती है। क्योंकि वह अर्जुन को चाहते हैं, वह समझ ले। को देखता है। या कहें कि मुझ में शून्य को देखता है। या कहें कि इसलिए उसकी भाषा का उपयोग कर रहे हैं। उसे देखता है, जो मेरे भीतर है ही नहीं! | आप एक छोटे बच्चे को सिखाते हैं। सिखाते हैं, ग गणेश का; अगर कृष्ण निगेटिव शब्दों का उपयोग करें, जो कि ज्यादा सही | | या अभी सिखाते हैं, ग गधे का! सेकुलर, धर्म-निरपेक्ष राज्य होने होंगे, तो अर्जुन बिलकुल समझ न पाएगा। बात ठीक होगी, लेकिन | की वजह से गणेश का ग तो कह नहीं सकते, तो ग गधे का! गणेश अर्जुन की समझ के बाहर पड़ जाएगी। को लाने में सेकुलर बुद्धि को ज्यादा तकलीफ होती है; गधा आ अर्जुन तो कृष्ण को ही समझता है, वासुदेव को समझता है, | जाए, तो ज्यादा तकलीफ नहीं होती! धर्म-निरपेक्ष राज्य है, कोई अर्जुन तो अभी कृष्ण के रूप को समझता है, आकार को समझता | | गधा एम.पी. होना चाहे, अक्सर होना चाहते हैं; हो जाते हैं। गणेश 218| Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < अहंकार खोने के दो ढंग - होना चाहें, दरवाजा बंद कर देंगे वे कि धर्म-निरपेक्ष! तुम यां कहां | होना है। आपका भी नाम तो केवल शब्द है। आपका भी भगवान आ रहे हो! देवी-देवताओं की यहां कोई जरूरत नहीं, यहां सिर्फ | | होना ही सत्य होना है। लेकिन उसका स्मरण दिलाने के लिए गधों के लिए द्वार खुला है! प्रक्रिया से गुजरना पड़ेगा। तो बच्चे को सिखाना पड़ता है, ग गणेश का, या ग गधे का। इसलिए कृष्ण कह रहे हैं, मुझ वासुदेव को। ग का गधे से या गणेश से कोई लेना-देना है? ग तो गंवार का भी अर्जुन इसको समझ पाएगा कि ठीक है। और अर्जुन इसको होता है। ग तो अनेकों का होता है। ग का गधे से या गणेश से क्या | इसलिए भी समझ पाएगा कि इन वासुदेव से उसका बड़ा प्रेम है; ठेका? लेकिन बच्चे को कहीं से तो शुरू करना पड़ेगा। वन हैज टु | परात्पर ब्रह्म से कोई प्रेम भी नहीं है। सुखद होगा उसे कि मैं तुम्हें बिगिन समव्हेयर। सबमें देख पाऊं। सुख होगा उसे कि मैं तुम्हें सबमें पा पाऊं। सुख ___ अगर हम कहें कि ग सब का, तो बच्चे की कुछ समझ में न | | होगा उसे कि तुम भी मुझे देख पाओगे; तुम वासुदेव कृष्ण, तुम मुझे आएगा। बच्चे को तो कहीं से शुरू करना पड़ेगा। फिर धीरे-धीरे | | देख पाओगे, मैं तुम्हें देख पाऊंगा! यह उसकी समझ में पड़ेगी बात। हम कहेंगे, ग गणेश का भी और ग गधे का भी और ग गंवार का | लेकिन यह सिर्फ प्रलोभन है। यह सिर्फ शिक्षक के द्वारा दिया भी। और तब बच्चे को धीरे-धीरे समझ में आएगा कि ग का किसी | गया प्रलोभन है। इस प्रलोभन के आसरे उसको कृष्ण इंच-इंच से कोई लेना-देना नहीं। ग सबका हो सकता है। फिर वह गधे को | सरकाएंगे। भी भूल जाएगा, गणेश को भी भूल जाएगा। ग रह जाएगा। कभी-कभी कोई शिक्षक ऊबकर, परेशान होकर इस तरह की ठीक वैसे ही कृष्ण को भी बच्चे के साथ बात करनी पड़ रही है। | प्रक्रिया छोड़ देता है। कभी-कभी कोई शिक्षक ऐसी प्रक्रिया छोड़ इस पृथ्वी पर बुद्ध को, महावीर को, या कृष्ण को, या क्राइस्ट को, | | देता है। जैसे कि नागार्जुन एक बौद्ध शिक्षक हुआ, अदभुत। ठीक या मोहम्मद को बच्चों के साथ बात करनी पड़ रही है। उम्र से भला | | उतना ही जानने वाला, उतनी ही गहराई में, जैसे कृष्ण। लेकिन वह बूढ़े हों; ज्ञान से तो बच्चे ही हैं, जिनसे बात करनी पड़ रही है। ।। | यह प्रक्रिया उपयोग न करेगा। वह शिक्षक की भाषा बोलेगा। वह और बच्चों के साथ बात करनी इतनी कठिन नहीं होती, क्योंकि | विद्यार्थी की भाषा बोलेगा ही नहीं। तो एक आदमी के काम नहीं बच्चों को खयाल होता है कि वे बच्चे हैं। बूढ़ों के साथ और | | पड़ सका। कठिनाई हो जाती है, क्योंकि वे समझते हैं, वे बूढ़े हैं। होते बच्चे। जैसे कृष्णमूर्ति। वे शिक्षक की भाषा बोल रहे हैं, विद्यार्थियों की नहीं। और आध्यात्मिक शिक्षकों का कोई टीचर्स ट्रेनिंग कालेज तो इसलिए दुनिया के सारे शास्त्र बच्चों के लिए हैं। जो जानने की है नहीं कि जहां आध्यात्मिक शिक्षकों के सामने भाषण किया जा यात्रा पर थोड़ा आगे जाएगा, जैसा ग गधे से छूट जाता है, ऐसे ही सके। कोई कबीर और नानक तो सुनने आते नहीं। अगर कबीर बुद्धि शास्त्र से छूट जाती है। सब शास्त्र क ख ग हैं। उनमें सिर्फ सुनने आते हों कृष्णमूर्ति को, तो ठीक है! लेकिन वे समझकर चल यात्रा का प्रारंभ है, अंत नहीं है। हां, अंत की झलक देने की रहे हैं कि कबीर सुनने आते हैं! और क ख ग सुन रहे हैं! उनकी जगह-जगह कोशिश होती है कि शायद थोड़ी-सी झलक खयाल | | पकड़ में कुछ नहीं आ रहा! लेकिन फिर भी सुनते-सुनते भ्रम पैदा में आ जाए, तो आदमी यात्रा पर निकल जाए। हो जाएगा कि पकड़ में आ गया, फिर मौत हुई। तो कृष्ण जो कह रहे हैं, मुझ वासुदेव को। अर्जुन यही समझ | नहीं; विद्यार्थी की भाषा बोलनी पड़ेगी। शिक्षाशास्त्र कहता है सकता है। अगर कृष्ण कहें कि मुझ परात्पर ब्रह्म को, तो अर्जुन || कि ठीक शिक्षक वही है, जिसकी क्लास के विद्यार्थी, जो अंतिम कहेगा, महाराज, आप मेरे सारथी। परात्पर ब्रह्म! वर्ग है विद्यार्थी का या जो अंतिम विद्यार्थी है, जो उसे समझ पाए, एक-एक इंच उसको सरकाना पड़ेगा। एक-एक इंच। एक-एक | अंतिम विद्यार्थी जिस शिक्षक को समझ पाए, वही योग्य शिक्षक इंच कृष्ण अपने को प्रकट करेंगे-वाणी से, व्यक्तित्व से, जीवन | | है। अगर आप सिर्फ प्रथम विद्यार्थी के लिए बोल रहे हैं, तो बाकी से। एक-एक इंच प्रकट करेंगे और उस जगह लाएंगे, जहां अर्जुन | | उनतीस को छुट्टी कर दें! के सामने वे भगवान की तरह प्रकट हो सकें। वही उनका होना सत्य । मगर यहां तो कुछ शिक्षक ऐसे भी हो जाते हैं पृथ्वी पर, जो सिर्फ होना है। कृष्ण होना तो सिर्फ शब्द है। भगवान होना ही उनका सत्य अपने लिए बोल रहे हैं, मोनोलाग। डायलाग नहीं है। कृष्णमूर्ति जो 1219 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 बोल रहे हैं, वह मोनोलाग है, एकालाप। दूसरे से बात नहीं चल कहते हैं कि मैं तुम्हारे बिना बोलूंगा, तो मुझे भी सुनाई पड़ जाएगा, रही है; उसमें दूसरे का कोई सवाल ही नहीं है। आप न हों, तो भी | | | तो एक्सिडेंट है। मैं भी आता-जाता रहूंगा। मैं भी कोई सुनने के चलेगा। लिए उत्सुक नहीं हूं! मेरे एक शिक्षक थे, मेरे एक प्रोफेसर थे, बहुत अदभुत आदमी | | बहुत चौंके। कहने लगे, तुम आदमी कैसे हो? मैंने कहा कि थे। जब मैं उनके पास दर्शनशास्त्र पढ़ने गया विद्यार्थी की हैसियत | | आदमी ऐसा न होता, तो मैं आपके पास आता नहीं। छः साल से से, तो में उनका अकेला विद्यार्थी था, क्योंकि उनके पास विद्यार्थी कोई आया नहीं! फिर यह एकालाप चला दो साल तक। टिकते नहीं थे। कई साल से उनके पास कोई विद्यार्थी नहीं टिकता कभी-कभी मैं दस-दस, पंद्रह-पंद्रह मिनट के लिए बाहर चला था। कोई पांच-सात साल से वे खाली थे। टिकते इसलिए भी नहीं | जाता। लौटकर आता। मगर उन्होंने निभाया। वे पंद्रह मिनट बोलते थे कि उनका विद्यार्थी कभी एम.ए. पास नहीं हुआ। जो भी उनके रहते थे खाली कमरे में! पर ऐसे शिक्षक बहुत कम विद्यार्थियों के पास आया, फेल होकर गया। फिर आना लोगों ने बंद कर दिया। काम पड़ सकते हैं, नहीं के बराबर। उनका विषय ही कोई नहीं लेता था। कौन झंझट में पड़े! उसमें फेल ___ अगर शिक्षक अपने आनंद में बोले, तो ऐसा ही हो जाएगा। वह . होना पक्का ही था। आपको भल जाएगा। आपको याद रखे. तो नीचे उतरना ही पडेगा। उनसे कई बार पूछा गया कि आप सभी को फेल कर देते हैं? वे | | और आपको याद न रखे, तो बोलना व्यर्थ हो जाता है; बोलने का बोले कि मैं दो में से एक ही कर सकता हूं। अगर ईमानदारी से | | कोई मतलब नहीं रह जाता। फिर चुप ही हो जाना बेहतर है। जांचूं, तो वे फेल होते हैं। और अगर बेईमानी से जांचूं, तो पास हो | इसलिए बहुत-से शिक्षक इस पृथ्वी पर चुप भी रहे। और कोई सकते हैं। लेकिन बेईमानी से मैं जांच नहीं सकता। फेल होंगे। । कारण नहीं था। कुल कारण इतना ही था कि वे बोलते, तो एकालाप छः-सात साल से कोई नहीं गया था। मुझे भी मित्रों ने समझाया | होता। और अगर संवाद करना चाहते, तो उनको कहीं उस जगह कि वहां मत जाओ। पर मैंने कहा कि उस आदमी में कुछ खूबी तो से बात शुरू करनी पड़ती, जहां वे जानते थे, बात बेकार है। होनी ही चाहिए, जो कहता है, ईमानदारी से जांचेंगे, तो ही पास | लेकिन कृष्ण बहुत करुणावान हैं। वे अर्जुन की तरफ देखकर ही करेंगे। तो, ऐसे आदमी के पास पास होने का कोई मतलब है। मैं | | बोल रहे हैं। एक-एक शब्द उनका एड्रेस्ड है, वह डायलाग है। जाता हूं। ऐसे आदमी के पास फेल होने का भी कुछ मतलब है। | | गीता एक महानतम संवाद है, जिसमें शिक्षक विद्यार्थी को पूरे समय उन्होंने मुझे आते ही से समझाया कि दो-तीन बातें साफ समझ | | स्मरण रखे हुए है। इसलिए वह पूरी दफे उतार-चढ़ाव लेते हैं। जब लो। क्योंकि तुम अकेले हो, पांच-सात साल बाद आए हो, और वे अर्जुन को देखते हैं कि नहीं, यह समझ में नहीं आएगा, और मेरी आदत डायलाग की नहीं है, मेरी आदत मोनोलाग की है। क्या नीचे उतर आते हैं। जब वे समझते हैं कि अर्जुन की समझ थोड़ी मतलब आपका? उन्होंने कहा, मैं बोलूंगा, तुम से नहीं। मैं | चमक रही है, तब वे तत्काल ऊपर चले जाते हैं। बोलूंगा, तुम सुनना, यह दूसरी बात है। तुम्हारा मैं ध्यान नहीं । कृष्ण की गीता में बहुत उतार-चढ़ाव है। कृष्ण की गीता सपाट रखंगा, नहीं तो मेरे बोलने में गड़बड़ होती है। मुझे जो बोलना है, नहीं है। उसमें कई बार वह अर्जुन के बहुत निकट उन्हें आना पड़ता वह मैं बोलूंगा; तुम सुन लोगे, यह दूसरी बात। एक्सिडेंटल है यह है। बहुत छोटी बात कहनी पड़ती है, जो कि उन्हें नहीं कहनी चाहिए कि तुमने सुन लिया, सांयोगिक है। मैं तुम्हारे लिए नहीं बोल सकता थी, जो कि उन्होंने नहीं कहनी चाही होगी। लेकिन अर्जुन पर यह हूं, क्योंकि तुम्हारे लिए बोलूंगा, तो मुझे कुछ गलत, नीचे तल पर | | भरोसा रखकर कि इस तरह धीरे-धीरे उसे आगे ले जाकर कहीं वह उतरकर बोलना पड़ेगा। चीज प्रकट कर देंगे, जो कहनी है। और जब एक दफा वह उस मैंने कहा कि मैं भी आपसे कह दूं कि आप भूलकर मत समझना | | चीज को समझ लेगा, तो वह यह भी जान जाएगा कि पहले जो बातें कि मैं यहां मौजूद हूं। और अगर बीच-बीच में मैं उठकर चला | | कही थीं, वे मुझे ध्यान में रखकर कही थीं; वे कृष्ण की तरफ से जाऊं, तो आप बोलना बंद मत करना। आप जारी रखना बोलना। | नहीं थीं, मेरी तरफ से थीं। अर्जुन निमित्त है। इसलिए वैसी बात मैं फिर लौट आऊंगा। मेरी मौजदगी आप मानना ही मत। और रजिस्टर आप बंद कर दो; मेरी अटेंडेंस नहीं भरी जाएगी। जब आप | अभी इतना ही। फिर सांझ हम बैठेंगे। कही है। |220| Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < अहंकार खोने के दो ढंग - अभी जाएंगे नहीं। और आज तो रविवार है, इसलिए दस मिनट हम कीर्तन करेंगे। और रविवार है इसलिए मैं आपसे चाहूंगा कि आपमें से भी जो लोग कीर्तन करना चाहें, वे ग्राउंड के चारों तरफ बैठे हुए लोगों के चारों तरफ फैल जाएं। जो लोग बैठकर कीर्तन करते हैं, जिनको आनंद है, वे चारों तरफ खड़े हो जाएं। बैठे हुए लोग बीच में रह जाएंगे। आपमें से जिन लोगों को कीर्तन में भाग लेना है, वे चारों तरफ फैल जाएं। शर्माएं न! फैल जाएं। Page #248 --------------------------------------------------------------------------  Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 6 पंद्रहवां प्रवचन सर्व भूतों में प्रभु का स्मरण Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग - 3 > सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः । सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ।। ३१ । । इस प्रकार जो पुरुष एकीभाव में स्थित हुआ संपूर्ण भूतों में आत्मरूप से स्थित मुझ सच्चिदानंदघन वासुदेव को भजता है, वह योगी सब प्रकार से बर्तता हुआ भी मेरे में बर्तता है। कृ ष्ण इस सूत्र में अर्जुन को सब भूतों में प्रभु को भजने के संबंध में कुछ कह रहे हैं। भजन का एक अर्थ तो हम जानते हैं, एकांत में बैठकर प्रभु के चरणों में समर्पित गीत; एकांत में बैठकर प्रभु के नाम का स्मरण; या मंदिर में प्रतिमा के समक्ष भावपूर्ण निवेदन । लेकिन कृष्ण एक और ही रूप का, और ज्यादा गहरे रूप का, और ज्यादा व्यापक आयाम का सूचन कर रहे हैं। वे कहते हैं कि जो व्यक्ति समस्त भूतों में मुझ सच्चिदानंद को भजता है ! क्या होगा इसका अर्थ ? इसका अर्थ होगा, जब भी कुछ आपको दिखाई पड़े, तब स्मरण करें कि वह परमात्मा है। राह पर पड़ा हुआ पत्थर हो, कि आकाश से गुजरता हुआ बादल हो, कि सुबह उगता हुआ सूरज हो, कि आपके बच्चे की आंखें हों, कि आपका मित्र हो, कि आपका शत्रु हो, जो भी आपको मिले, उसके मिलन के साथ ही जो पहला स्मरण आपके प्राणों में प्रवेश करे, वह यह हो, यह भी प्रभु है। तब सच्चिदानंद रूप को हम समस्त भूतों में भज रहे हैं, ऐसा कहा जा सकेगा। रास्ते पर वृक्ष मिल जाए, कि गाय मिल जाए, कि नदी बहती हो — जो भी — जो भी आकार मिले कहीं जीवन में, उन समस्त आकारों में उस निराकार का स्मरण । इसके पहले कि हमें पता चले कि पत्थर है, पता चल जाए कि परमात्मा है। तो भजन हुआ, कृष्ण के अर्थों में। इसके पहले कि मैं आपको देखूं और समझं कि आप आदमी हैं, उसके पहले मुझे पता चल जाए कि आप परमात्मा हैं। आदमी का होना पीछे प्रकट हो। निराकार की स्मृति पहले आ जाए, आकार पीछे निर्मित हो। मैं पीछे पहचानूं कि आप कौन हैं; पहले तो यही पहचानूं कि परमात्मा है। तो समस्त भूतों में प्रभु को भजा गया, ऐसा कहा जा सके। एकांत में भजन बहुत आसान है, क्योंकि आप अकेले हैं। प्रतिमा के सामने भी भजन बहुत आसान है, क्योंकि बहुत ठीक से समझें, तो फिर भी आप अकेले हैं। लेकिन जीवन के सतत प्रवाह में, जहां न मालूम कितने रूपों में लोग मिलेंगे; जहां कोई छुरा लिए हुए छाती पर खड़ा हो सकता है, वहां भी पहले स्मरण आ जाए कि प्रभु छुरा लिए हुए खड़ा है, तो फिर प्रभु का भजन हुआ। जीवन में जहां घना संघर्ष है, जहां तनाव है, अशांति है, जहां शत्रुता भी फलित होती है, वहां पहला स्मरण यही आए कि प्रभु है । पीछे पहचानें रूप को, पहले अरूप की पहचान हो जाए। ऐसे | अरूप को प्रतिपल देखने की जो साधना है, उसका नाम कृष्ण इस सूत्र में कह रहे हैं, प्रभु को भजना । जीवंत साधना तो ऐसी ही होगी। जीवंत साधना कोनों में बंद होकर नहीं होती, जीवन के विराट घनेपन में होती है। जीवंत साधना द्वार बंद करके नहीं होती, जीवंत साधना तो मुक्त आकाश के नीचे होती है। द्वार तो हम इसीलिए बंद करते हैं कि बाहर जो है, वह परमात्मा नहीं है; वह कहीं भीतर न आ जाए ! मंदिर में तो हम इसीलिए जाते हैं कि मकान में परमात्मा को देखना कठिन पड़ेगा। | लेकिन वह साधना संकुचित है, बहुत सीमित है; उसके भी प्रयोजन और अर्थ हैं। लेकिन कृष्ण इस सूत्र में जिस विराट साधना की खबर दे रहे हैं, वह बहुत और है। सुना है मैंने, एक आदमी था महाराष्ट्र में । घोर नास्तिक था । साधु-संतों के पास जाता, तो साधु-संत बड़ी मुश्किल में पड़ जातें । क्योंकि यह दुर्भाग्य की घटना है कि नास्तिक भी हमारे तथाकथित साधु-संतों से ज्यादा समझदार होते हैं। साधु-संत मुश्किल में पड़ जाते। उस नास्तिक को जवाब देते उनसे न बन पड़ता। वह जो भी पूछता, उन साधु-संतों को बेचैन | कर जाता। साधु-संत होना चाहिए ऐसा कि जिसे कोई बेचैन न कर | जाए; बल्कि बेचैनी से भरा कोई पास आए, तो चैन लेकर जा सके। लेकिन वह नास्तिक बहुत-से साधु-संतों के लिए तकलीफ और परेशानी का कारण बन गया था। बड़े-बड़े साधुओं के पास जाकर भी उसने पाया कि उसके प्रश्नों का उत्तर नहीं है। तब एक साधु ने उससे कहा कि तू इधर-उधर मत भटक। तेरे लायक सिर्फ एक ही आदमी है, एकनाथ नाम का तू उसके पास | चला जा । अगर उससे उत्तर मिल जाए, तो ठीक। नहीं तो फिर परमात्मा से ही उत्तर लेना। फिर बीच में दूसरा आदमी काम नहीं पड़ेगा। उस आदमी ने कहा, लेकिन परमात्मा तो है ही नहीं! तो उस | साधु ने कहा, फिर एकनाथ आखिरी आदमी है। उत्तर मिल जाए, ठीक; न मिले, तो तू जान । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८सर्व भूतों में प्रभु का स्मरण - बहुत आशा से भरा हुआ वह नास्तिक एकनाथ के पास पहुंचा। हैं! एकनाथ ने कहा कि यह ही नहीं कह रहा हूं कि मैं ही ब्रह्म हूं, सुबह थी। कोई सुबह के आठ, साढ़े आठ, नौ बज रहे थे। धूप यह भी कह रहा हूं कि तू भी ब्रह्म है। फर्क इतना ही है कि तुझे अपने घनी थी, सूरज ऊपर निकल आया था। गांव में पूछता हुआ गया, होने का पता नहीं, मुझे अपने होने का पता है। तो लोगों ने कहा कि एकनाथ के बाबत पूछते हो! नदी के किनारे | __उसने कहा, छोड़िए इस बात को। यह भी आपसे पूछ लूं कृपा मंदिरों में देखना, अभी कहीं सोता होगा! उसके मन में थोड़ी-सी | करके कि शंकर की पिंडी पर पैर रखकर सोना कौन-सा तुक है! चिंता हुई। साधु तो ब्रह्ममुहूर्त में उठ आते हैं। नौ बज रहे हैं; कहीं एकनाथ कहने लगे, मैंने सब जगह पैर रखकर देखा, शंकर को ही सोता होगा! पाया। कहीं भी पैर रखें, फर्क क्या पड़ता है! जहां भी पैर रखं, वही गया जब मंदिर में, तो देखकर और मुश्किल में पड़ गया। है। शंकर की पिंडी पर रखें, तो वही है, अगर ऐसा होता, तो एक क्योंकि एकनाथ शंकर के मंदिर में सोए हैं, पैर दोनों शंकर की पिंडी बात थी। जहां भी पैर रखू, वही है। तो फिर मैंने फिक्र छोड़ दी। से टिके हैं: आराम कर रहे हैं। सोचा कि नास्तिक हं मैं. अगर इतना उस आदमी ने कहा, तो मैं जाऊं। क्योंकि अभी हम भी इस महानास्तिक मैं भी नहीं हूं। शंकर को पैर लगाते मेरी भी छाती कंप हालत पर नहीं पहुंचे कि शंकर की पिंडी पर पैर रख सकें! हम तो जाएगी। कहीं हो ही अगर! कहता हूं कि नहीं है। लेकिन पक्का | कुछ ज्ञान लेने आए थे। आस्तिक होने आए थे। आप महानास्तिक भरोसा नहीं है नहीं होने का। कहीं हो ही अगर? और पैर लग जाए, | मालूम पड़ते हो। एकनाथ ने कहा, अब इतनी धूप चढ़ गई, जाओगे तो कोई झंझट खड़ी हो जाए। किसके पास मुझे भेज दिया। लेकिन कहां। भोजन बनाता हूं, भोजन कर लो, फिर जाना। जब अब आ ही गया हूं, तो इससे दो बात कर ही लेनी चाहिए। और एकनाथ गांव में जाकर आटा मांग लाए। फिर उन्होंने वैसे बेकार है। यह मुझसे भी गया-बीता मालूम पड़ता है! बाटियां बनाईं। और जब वे बाटियां बनाकर रख रहे थे, तो एक और जो आदमी शंकर की पिंडी पर पैर रखकर सो रहा है, कुत्ता आकर एक बाटी लेकर भाग गया। तो एकनाथ हंडी लेकर घी उसको उठाने की हिम्मत न हो सकी। पता नहीं नाराज हो, क्या करे! की उसके पीछे भागे। ऐसे आदमी का भरोसा नहीं। बैठकर प्रतीक्षा की। कोई दस बजे उस आदमी ने समझा कि यह दुष्ट, कुत्ते से भी बाटी छुड़ाकर एकनाथ उठे। लाएगा। अजीब संन्यासी मिल गया! ले गया कुत्ता एक बाटी, तो उस आदमी ने कहा कि महाराज, आया था पूछने कुछ ज्ञान; ले जाने दो। अब तो कोई जरूरत न रही पूछने की। क्योंकि आप मुझसे भी आगे यह भी उसके पीछे दौड़ा कि देखें, यह करता क्या है? एक मील गए हुए मालूम पड़ते हैं! पूछने कुछ और आया था, अभी पहले तो | | दौड़ते-दौड़ते एकनाथ बामुश्किल उस कुत्ते को पकड़ पाए और मैं यह पूछना चाहता हूं, यह कोई उठने का समय है? साधु-संत | | पकड़कर कहा कि राम, हजार दफे समझाया कि बिना घी की बाटी ब्रह्ममुहूर्त में उठते हैं! हमको पसंद नहीं है खानी; तुमको भी नहीं होगी। नाहक एक मील एकनाथ ने कहा कि ब्रह्ममुहूर्त ही है। असल में जब साधु-संत | दौड़वाते हो। हम घी लगाकर थोड़ी देर में रखते; फिर उठाकर ले जा उठते हैं, तभी ब्रह्ममहर्त! न हम अपनी तरफ से सोते हैं, न अपनी सकते थे। छड़ाकर बाटी, घी की हंडी में डालकर-कुत्ते के मुं तरफ से उठते हैं। जब वह सो जाता है. सो जाता है. जब वह उठता जठी बाटी वापस डालकर_घी में परा सराबोर करके मंह में लगा है, तब उठ जाता है। तो हमने तो एक ही जाना कि जब नींद खुल | | दी और कहा कि आइंदा खयाल रखना, नहीं तो हड्डी-पसली तोड़ गई ब्रह्म की, तो ब्रह्ममुहूर्त है! हम अपनी तरफ से सोते भी नहीं, | देंगे। न इस राम को पसंद है, न उस राम को पसंद है! जब हम बाटी अपनी तरफ से जागते भी नहीं। ब्रह्म को जब सोना है, सो जाता है; | में घी लगा लें, तभी ले जाया करें। नाहक एक मील दौड़वाया! ब्रह्म को जब जगना है, जग जाता है। यह ब्रह्ममुहूर्त है, क्योंकि ब्रह्म ___ उस आदमी ने सोचा कि बड़े मजे का आदमी है! शंकर की पिंडी उठ रहे हैं! पर पैर रखकर सोता है, कुत्ते को राम कहता है! उसने कहा, गजब की बात कह रहे हैं आप भी। और मुश्किल । __अगर ठीक से समझें, तो यह भजन चल रहा है। ये दोनों ही में डाल दिया। हम तो पूछने आए थे, ब्रह्म है या नहीं? अब हम भजन के रूप हैं। अगर प्रभु सब जगह है, ऐसा स्मरण आ जाए, और मश्किल में पड़ गए। क्योंकि आप तो कह रहे हैं, आप ही ब्रह्म तो शंकर की पिंडी को अलग कैसे करिएगा! और अगर सब जगह 225 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 प्रभु है, तो कुत्ते को बिना घी की बाटी कैसे खाने दीजिएगा ! ये दोनों विरोधी बातें नहीं हैं, ये एक ही प्रभु के भजन में लीन चित्त के दो रूप हैं। और संगतिपूर्ण हैं; इनमें कोई विरोध नहीं है। असल में जो शंकर की पिंडी पर पैर रख सकता है, वही कुत्ते को राम कह सकता है। और जो कुत्ते को राम कह सकता है, वही शंकर की पिंडी पर पैर रख सकता है। यह शंकर की पिंडी पर पैर रखने का साहस, सामर्थ्य, उसी का है, जो कुत्ते के सामने सिर झुका और कुत्ते के सामने सिर झुकाने की, समर्पण की स्थिति उसी में हो सकती है, जो शंकर की पिंडी पर पैर रख सके। लेकिन हमारी कुछ उलटी स्थिति है। हमें जहां भी कुछ दिखाई पड़ता है, पहले संसार स्मरण आता है, पहले। अगर रास्ते में आप अकेले चले जा रहे हैं, और अंधेरे में एक आदमी निकल आता है, तो आपको पहले भला आदमी नहीं दिखाई पड़ता है। पहले कोई चोर, बदमाश, लुच्चा! आपका स्मरण ऐसा है, आपका भजन ऐसा चल रहा है ! और भगवान न करे कि आपके भजन की वजह से वह कहीं आदमी लुच्चा हो जाए। क्योंकि भजन प्रभाव तो करता ही है। आप जब दूसरे के प्रति एक दृष्टि लेते हैं, तो आप दूसरे को वैसा होने का मौका देते हैं। जब आप दूसरे के प्रति रुख लेते हैं, तो आप दूसरे को वैसा होने का अवसर देते हैं। इस जमीन पर हजारों लोग इसलिए बुरे हैं, क्योंकि उनके आस-पास हर आदमी उन्हें बुरा सोचने का मौका दे रहा है। आपको खयाल न होगा कि अगर आपको दस ऐसे आदमियों के बीच में रख दिया जाए, जो आपको भगवान मानते हों, तो आप चोरी करना बहुत मुश्किल पाएंगे कि अगर पकड़ा गए भगवान चोरी करते, तो क्या हालत होगी! अगर दस लोग आप पर भगवान जैसा भरोसा भी करते हों, आपको देखकर भगवान जैसा प्रणाम करते हों, तो अचानक आप पाएंगे कि आपकी संभावनाएं रूपांतरित होने लगीं। एक भी आदमी भरोसा कर ले, तो भी आपके भीतर कुछ नए का जन्म होता है। और एक भी आदमी अविश्वास कर दे, तो आपके भीतर शैतान की प्रतीति शुरू हो जाती है। जो दूसरे हमसे अपेक्षा करते हैं, हम उसे सिद्ध करने में लग जाते हैं। जाने-अनजाने जो हमें दूसरे सोचते हैं, हम वैसे ही हो जाते हैं। लेकिन हमें जब भी कोई दिखाई पड़ता है, तो हमें प्रभु का स्मरण नहीं आता, हमें संसार का ही स्मरण आता है। और संसार में भी जो बहुत क्षुद्र है, अंधकारपूर्ण है, अशुभ है, उसका ही स्मरण आता है। प्रभु का इस अर्थ में भजन गहरी बात है, आर्डअस, कठिन, तपश्चर्यापूर्ण है। इसका अर्थ यह है कि जहां भी रूप प्रकट हो, वहां | तत्काल स्मरण करना कि प्रभु है। और अगर ऐसा स्मरण बैठता चला जाए, तो धीरे-धीरे आप पाएंगे कि सच में सभी जगह प्रभु है । और धीरे-धीरे आप पाएंगे कि प्रभु के अतिरिक्त और कोई दिखाई पड़ना असंभव हो गया है। कृष्ण बहुत-सी विधियों की बात कर रहे हैं। यह भी एक विधि है। यह भी एक विधि है। एक सूफी फकीर हुआ है, हसन । संस्मरण लिखा है हसन ने अपना कि जब मंसूर को फांसी दी जाती थी, और लोग मंसूर पर | नुकीले पत्थर फेंक रहे थे, और मंसूर के शरीर से लहूलुहान धाराएं . |खून की बह रही थीं, तब हसन भी उस भीड़ में खड़ा था। मंसूर हंस रहा था, और हसन भीड़ में खड़ा था, और सारे लोग पत्थर फेंक रहे थे। हसन का इरादा नहीं था कि मंसूर पर पत्थर फेंके। लेकिन जिस भीड़ में खड़ा था, वह दुश्मनों की थी। और हसन की इतनी हिम्मत न थी - तब तक इतनी हिम्मत न थी - कि उस भीड़ में खड़ा रहे, जो दुश्मनों की है । कहीं कोई पहचान न ले कि यह आदमी पत्थर नहीं फेंक रहा है ! तो उसके हाथ में एक फूल था, उसने वह फूल फेंककर मंसूर को मारा। सिर्फ इस खयाल से कि लोग समझेंगे, मैं भी कुछ फेंककर मार रहा हूं। लेकिन मंसूर दूसरों के पत्थर खाकर तो प्रसन्न था, हसन का फूल | खाकर रोने लगा। हसन बहुत घबड़ाया। और हसन ने पूछा कि मेरी | समझ में नहीं आता ! लहूलुहान कर रहे हैं जो पत्थर, घाव कर रहे हैं जो पत्थर, उनकी चोट खाकर तुम हंसे चले जाते हो, और मैंने एक फूल मारा और तुम रोने लगे ? 226 मंसूर ने कहा कि मैं एक साधना में लगा रहा हूं सदा। वह साधना | मेरी यह रही है कि जब भी मुझे कोई दिखाई पड़े, तो मैं उसमें पहले परमात्मा देखूं । तो ये जो लोग मुझे पत्थर मार रहे हैं, इनमें तो मैं परमात्मा देख रहा था। लेकिन तुझे तो मैं समझता था कि तू परमात्मा है ही, इसलिए मैंने देखने की कोशिश न की । तुझे तो मैं समझता था, तू ज्ञान को उपलब्ध है ही, इसलिए तुझे परमात्मा देखने की क्या कोशिश! इनके साथ तो मैं भजन में रत था। ये पत्थर फेंक रहे थे और मैं परमात्मा देख रहा था। लेकिन जब फूल फेंका, तो मैं चूक गया। तेरे से मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि तेरे बाबत भी परमात्मा होना मैं पहले सोचूं ! तुझे तो मैं परमात्मा मानता Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व भूतों में प्रभु का स्मरण - ही था, जानता ही था। लेकिन चूक गया भजन एक क्षण को। मैं और थोड़ा खोदते, और थोड़ा खोदते, तो एक जगह आ जाती, जहां परमात्मा तुझ में नहीं देख पाया, तेरा फेंकना ही मुझे पहले दिखाई | पानी है ही। लेकिन पहले पानी हाथ नहीं लगता। पहले तो पड़ गया, यद्यपि फूल था। मैं तेरे फूल की वजह से नहीं रो रहा हूं; कंकड़-पत्थर हाथ लगते हैं। अब कंकड़-पत्थर से कोई भरोसा मेरा भजन चूक गया, उसकी वजह से रो रहा हूं। तुझसे अपेक्षा न | नहीं मिलता है कि आगे पानी होगा। कंकड़-पत्थर से क्या संबंध थी कुछ फेंकने की। कभी सोचा भी नहीं था, इसलिए चूक गया। है पानी का? लेकिन प्रभु को धन्यवाद कि उसने आखिरी क्षण में तुझसे एक फूल लेकिन आदमी खोदता है। फिर थोड़ी-सी जमीन तर मिलती है; फिंकवा दिया, तो मुझे पता चल गया कि मुझमें भी अभी कमी है। थोड़ी-सी पानी की झलक दिखाई पड़नी शुरू होती है। लगता है मेरा भजन पूरा नहीं है। कि अब जमीन गीली होने लगी। आशा बढ़ जाती है, सामर्थ्य बढ़ इसलिए कोई कभी ऐसा न समझ ले अपने को कि भजन पूरा हो जाती है, हिम्मत बढ़ जाती है, और हुंकार करके आदमी खोदने में गया। सतत जारी रखना ही पड़ेगा। जब तक दूसरा दिखाई पड़ता | | लग जाता है। फिर धीरे-धीरे गंदा पानी झलकने लगता है। आशा है, तब तक उसमें परमात्मा को खोजने की कोशिश जारी रखनी ही | और घनी होने लगती है। और एक दिन आदमी उस जल-स्रोत पर पड़ेगी। एक घड़ी ऐसी आती है जरूर, जब दूसरा ही दिखाई नहीं | पहुंच जाता है, जो शुद्ध है। पड़ता। तब फिर भजन की कोई जरूरत नहीं रह जाती। जब ठीक ऐसे ही रूप में अरूप को खोदना पड़ता है। और जब हम परमात्मा ही दिखाई पड़ने लगता है, तब फिर परमात्मा को भजने | खोदने चलते हैं, तब रूप ही हाथ में मिलता है; अरूप तो सिर्फ की कोई जरूरत नहीं रह जाती। लेकिन जब तक वह नहीं दिखाई स्मरण रखना पड़ता है। जब रास्ते पर कोई आदमी मिलता है, तो पड़ता, तब तक उसका आविष्कार करना है, पर्ते तोड़नी हैं, सिर्फ स्मरण ही हम रख सकते हैं कि प्रभु होगा गहरे में भीतर; अभी उघाड़ना है। कुछ पता तो नहीं। जब छुएंगे, तो आदमी की हड्डी-पसली हाथ में और आदमी के ऊपर रूप की पर्त-पर्त जमी हैं, जैसे प्याज पर आएगी। जब मिलेंगे, तो दोस्ती-दुश्मनी हाथ में आएगी; घृणा, जमी होती हैं—पर्त, और पर्त, और पत। एक पर्त उघाड़ो, दूसरी | | क्रोध, प्रेम हाथ में आएगा। ये सब कंकड़-पत्थर हैं। इन पर रुक पर्त आ जाती है। दूसरी उघाड़ो, तीसरी आ जाती है। लेकिन अगर नहीं जाना है, और इनको अंतिम नहीं मान लेना है। जो इनको हम प्याज को उघाडते ही चले जाएं तो एक घडी ऐसी आती है. | | अंतिम मान लेता है, वह प्रभु की खोज में रुक जाता है। जब शन्य रह जाता है, कोई पर्त नहीं रहती। प्याज बचती ही नहीं, आप मझे मिले और आपने मझे एक गाली दे दी। बस, मैंने शून्य रह जाता है। ठीक ऐसे ही एक-एक पर्त आदमी की उघाड़ेंगे, समझ लिया कि अंतिम बात हो गई। यह आदमी बुरा है। यह उघाड़ेंगे, और जब आदमी के भीतर सिर्फ शून्य रह जाएगा, तब अल्टिमेट हो गया मेरे लिए। यह गाली मेरे लिए चरम हो गई। मैंने भागवत चैतन्य का, तब भगवान का अनुभव होगा। पहली पर्त को, कंकड़-पत्थर को कुएं की आखिरी स्थिति मान ली। लेकिन लंबी यात्रा है। जैसे कि कोई कुआं खोदता है। कुआं | जिससे गाली मिली है, उसके भीतर भी परमात्मा है। थोड़ा खोदता है, तो पानी एकदम से हाथ नहीं लग जाता। पहले तो | खोदना पड़ेगा। हो सकता है, थोड़ा ज्यादा खोदना पड़े। जिससे प्रेम कंकड़-पत्थर हाथ लगते हैं। लेकिन वह पानी का ध्यान रखकर मिला है, उसके भीतर थोड़े जल्दी परमात्मा मिल जाए। जिससे कुआं खोदता चला जाता है। मिट्टी हाथ लगती है, पत्थरों की चट्टानें घृणा मिली है, दो पर्त और ज्यादा आगे मिले। लेकिन इससे कोई हाथ लगती हैं। अभी पानी बिलकुल दिखाई नहीं पड़ता, लेकिन | | फर्क नहीं पड़ता। पर्त कितनी ही हो, भीतर परमात्मा सदा मौजूद है। पानी का स्मरण रखकर खोदता चला जाता है। भरोसा ही है कि __परमात्मा यानी अस्तित्व, वह जो है। इसलिए वह सब जगह पानी होगा। | मौजूद है। हम कहीं भी खोजेंगे, वह मिल जाएगा। कहीं भी और भरोसा सच है। क्योंकि कितनी ही गहरी जमीन क्यों न हो, | खोजेंगे, वह मिल जाएगा। और अगर हमने खोज न की, तो वह पानी होगा ही। दूरी कितनी ही हो सकती है, पानी होगा ही। भरोसा | कहीं भी न मिलेगा। झूठा भी नहीं है। हां, आपकी ताकत कम पड़ जाए और जमीन | | यह बड़े मजे की बात है कि परमात्मा, जो सदा और सर्वदा ज्यादा हो, तो बात अलग है। वह भी आपकी ताकत की कमी है। मौजूद है, हमारी बिना खोज के नहीं मिलेगा। प्रत्येक चीज के लिए 227 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 गीता दर्शन भाग-3 कीमत चुकानी पड़ती है। बिना कीमत कुछ भी नहीं मिलता, न रिकग्नीशन, प्रत्यभिज्ञा नहीं होती। उसे थोड़ा कष्ट देना ही पड़ेगा। मिलना चाहिए। क्योंकि बिना कीमत कुछ मिल जाए, तो खतरा इसलिए भी कष्ट देना पड़ेगा, ताकि उसे पता हो, जो उसे उपलब्ध यही है कि आप पहचान भी न पाएं कि आपको क्या मिला है। हो रहा है, वह आसान नहीं है, तपश्चर्या है। और इसलिए भी कष्ट एक छोटी-सी घटना मुझे स्मरण आती है। नंदलाल बंगाल के देना होगा कि अभी उसकी और भी संभावना है। यह चित्र आखिरी एक बहुत अदभुत चित्रकार हुए। रवींद्रनाथ ने एक संस्मरण लिखा | नहीं है। अभी इससे बेहतर भी निकल सकता है। अगर वह मेरी है नंदबाबू के संबंध में कि जब नंदलाल बड़े चित्रकार नहीं थे, सिर्फ | आंखों में जरा-सा भी प्रशंसा का भाव देख लेता, तो यह अंतिम हो विद्यार्थी थे और अवनींद्रनाथ ठाकुर के पास पढ़ते थे। अवनींद्रनाथ | जाता। इसके आगे फिर नहीं निकल सकता था। एक दूसरे बड़े चित्रकार थे। अवनींद्रनाथ के पास पढ़ते थे। परमात्मा भी हमसे बड़ी संभावनाओं और अपेक्षाओं में है-बड़ी एक दिन रवींद्रनाथ अवनींद्रनाथ के पास बैठे हैं। नंदलाल कृष्ण संभावनाओं में। इसलिए जल्दी प्रकट नहीं हो जाता। तपश्चर्या है, की एक तस्वीर बनाकर लाए। रवींद्रनाथ ने लिखा है कि मैंने अपने मूल्य चुकाना पड़ता है। और हम पर उसकी आस्था इतनी है, जितनी जीवन में कृष्ण की इतनी सुंदर तस्वीर नहीं देखी। बड़े से बड़े हममें से किसी की भी उस पर आस्था नहीं है। इसलिए तो हजार दफे . चित्रकारों ने बनाई है, लेकिन नंदलाल ने जो बनाई थी, वह बात ही भूल करते हैं, फिर भी माफ हुए चले जाते हैं। हजार जन्म लेते हैं, कुछ और थी। मैं तो एकदम विमुग्ध हो गया। मेरे मन में खयाल व्यर्थ गंवा देते हैं, फिर जन्म मिल जाता है। लेकिन खोजे बिना नहीं उठा कि अवनींद्रनाथ कितने प्रसन्न न होंगे, उनके विद्यार्थी ने कैसी मिलेगा। और खोज जब भी शरू होती है. तो जिसे हम खोजने जाते अदभुत तस्वीर बनाई है! हैं, उससे उलटी चीजें पहले हाथ आती हैं। लेकिन अवनींद्रनाथ ने वह तस्वीर हाथ में उठाकर दरवाजे के __अगर मैं आपके पास परमात्मा खोजने गया, तो पहले आप बाहर फेंक दी और नंदलाल से कहा कि इसको चित्र कहते हो? | | मिलेंगे, जो कि परमात्मा नहीं हैं। पहले आपका शरीर मिलेगा, जो इसको कला कहते हो? शर्म नहीं आती? बंगाल में जो पटिए होते | कि निराकार नहीं है। फिर आपका मन मिलेगा, जो कि हजार हैं, जो दो-दो पैसे का कृष्ण-पट बनाकर जन्माष्टमी के समय बेचते | गंदगियों से भरा है। और अगर मैं इनको पार करने की सामर्थ्य नहीं हैं, अवनींद्रनाथ ने कहा कि तुमसे अच्छा तो बंगाल के पटिए बना | रखता हूं, तो मैं आपके बाहर से ही लौट आऊंगा और आपके उस लेते हैं! | मंदिर के अंतर्कक्ष से वंचित ही रह जाऊंगा, जहां प्रभु विराजमान रवींद्रनाथ ने लिखा है कि मुझे जैसे किसी ने छाती में छुरा भोंक है। मैं कांटों से ही लौट आया, फूलों तक पहुंच ही न पाया, यद्यपि दिया हो। यह तो अपेक्षित ही न था। मुझे खयाल आया कि सभी फूलों की सुरक्षा के लिए कांटे होते हैं। अवनींद्रनाथ के भी मैंने चित्र देखे हैं, इतना सुंदर कृष्ण का चित्र प्रभु को भजना समस्त भूतों में, इसका अर्थ है, चाहे कितना ही उनका भी कोई नहीं है। यह क्या हो रहा है। लेकिन बोलना ठीक न विपरीत कुछ क्यों न हो, चाहे बिलकुल शैतान क्यों न खड़ा हो; था। शिष्य और गुरु के बीच बोलना उचित भी न था। जहां शैतान खड़ा हो, समझना कि साधना का और भी शुभ अवसर नंदलाल पैर छूकर विदा हो गए। वह तस्वीर साथ में उठाकर उपलब्ध हुआ है; वहां भी प्रभु को भजना, वहां स्मरण करना कि बाहर ले गए। चले जाने पर रवींद्रनाथ ने कहा कि क्या किया प्रभु है। पिने? देखा-मन था कि अवनींद्रनाथ से लडेंगे, जझ पडेंगे: जिस रात जीसस को पकड़ा गया, तो जिस व्यक्ति ने जीसस को लेकिन जूझने की हिम्मत टूट गई-आंख उठाकर देखा, तो देखा, | | पकड़वाया, जुदास ने, यहूदा ने, तो जीसस ने जाने के पहले उसके अवनींद्रनाथ की आंखों से आंसुओं की धारा बह रही है। और पैर अपने हाथों से धोए। उसी आदमी ने पकड़वाया जीसस को; मुश्किल में पड़ गए। कहा कि आप रो रहे हैं! बात क्या है? | उसी ने दुश्मन को खबर दी। उसी ने तीस रुपए की रिश्वत में जीसस अवनींद्रनाथ ने कहा कि बड़ा कष्ट होता है, इतना सुंदर चित्र मैं भी की खबर दी कि जीसस कहां हैं। और विदा होने के पहले आखिरी बना नहीं सकता! तो रवींद्रनाथ ने कहा कि यही मैं सोचता था। फिर रात सबसे पहले जीसस ने यहूदा के पैर अपने हाथ से धोए। फिर फेंका क्यों है? बाकी शिष्यों के भी पैर अपने हाथ से धोए। अवनींद्रनाथ ने कहा कि बिना मूल्य के कुछ भी मिल जाए, तो एक शिष्य ने पूछा भी कि आप यह क्या करते हैं? हम तो आपके 228 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व भूतों में प्रभु का स्मरण > शिष्य हैं। आप हमारे पैर धोते हैं! तो जीसस ने कहा कि मैं प्रभु का जब भी हम दूसरे के संबंध में कोई निर्णय लें, तब सदा अपने स्मरण करता हूं। सादृश्य से लें। हम इससे उलटा ही करते हैं। जब भी हम दूसरे के और जब दूसरे दिन लोगों को पता चला कि यहूदा ने ही उनको संबंध में कोई निर्णय लेते हैं, तो कभी अपने सादृश्य से नहीं लेते। पकड़वाया है, तो बहुत हैरान हुए। अब तक वह बात गुत्थी की तरह | अगर दूसरा बुराई करता है, बुरा काम करता है, तो हम कहते हैं, उलझी रह गई कि यहूदा के पैर धोना जीसस ने क्यों किया होगा? | | वह बुरा आदमी है। और अगर हम बुराई करते हैं, तो हम कहते हैं, कृष्ण के इस सूत्र में व्याख्या है। ईश्वर को भजने का यह अवसर | | वह मजबूरी है। अगर दूसरा आदमी चोरी करता है, तो वह चोर है। छोड़ना उचित न था। जो आदमी फांसी पर लटकवाने ले जा रहा | | और अगर हम चोरी करते हैं, तो वह आपदधर्म है! लेकिन कभी है, उस आदमी में भी परमात्मा को देखने की आखिरी कोशिश अपने सादृश्य से नहीं सोचते। अगर हम क्रोध करते हैं, तो वह दूसरे जीसस ने की। के सुधार के लिए है। और अगर दूसरा क्रोध करता है, तो वह हिंसक प्रभु को इस अर्थ में जो भजना शुरू कर दे, उसे फिर किसी और है। अगर हम किसी को मारते के लिए। भजन की कोई भी जरूरत नहीं है। प्रभु को जो इस रूप में देखना | और अगर दूसरा जिलाता भी है, तो मारने के लिए। शुरू कर दे, उसे फिर किसी मंदिर और तीर्थ की जरूरत नहीं है। प्रभु । दूसरे को हम कभी भी उस भांति नहीं सोचते, जैसा हम स्वयं को जो इस रूप में सोचना, समझना और जीना शुरू कर दे, उसके को सोचते हैं। स्वयं में जो श्रेष्ठतम है, उसे हम स्वभाव मानते हैं; लिए पूरी पृथ्वी मंदिर हो गई, उसके लिए सब रूप प्रतिमाएं हो गए और दूसरे में जो निकृष्टतम है, उसे उसका स्वभाव मानते हैं! प्रभु के, उसके लिए सब आकार निराकार का निवास हो गए। ध्यान रहे, स्वयं का जो शिखर है, वह हमारा स्वभाव है; और कृष्ण से अर्जुन को मिला यह सूत्र बहुत कीमती है कि जो सब दूसरे की जो खाई है, वह उसका स्वभाव है। उसका भी शिखर है, भूतों में मुझ वासुदेव को, मुझ परमात्मा को, परमात्मा को, प्रभु को और हमारी भी खाई है। देखना शुरू कर देता है, भजना शुरू कर देता है, वह योगी परम सादृश्य का अर्थ यह है कि जब मैं दूसरे की खाई के संबंध में सिद्धि को उपलब्ध होता है। सोचूं, तो पहले अपनी खाई को देख लूं। तो मैं पाऊंगा कि शायद | मुझसे बड़ी खाई किसी दूसरे की नहीं है। जब मैं अपने शिखर के | संबंध में सोचूं, तो मैं दूसरों के शिखर भी सोच लूं, तो शायद मैं आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन । पाऊंगा कि मुझसे छोटा शिखर किसी का भी नहीं है। सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ।। ३२ ।। लेकिन हमारे सोचने की विधि, पद्धति यह है कि दूसरे का जो और हे अर्जुन, जो योगी अपनी सादृश्यता से संपूर्ण भूतों में बुरा है, निकृष्टतम है, वही उसका सार तत्व है; और हमारा जो सम देखता है और सुख अथवा दुख को भी सब में सम | श्रेष्ठतम है, वह हमारा सार तत्व है। इसलिए हमसे निरंतर अन्याय देखता है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है। हुआ चला जाता है। समता होगी कैसे? ___ ध्यान रहे, एक समता तो यह है कि मैं दो आदमियों को समान समझ. अऔर ब समान हैं। यह समता बहत गहरी नहीं है। असली म. मत्व योग है। समता का बोध श्रेष्ठतम योग है। सुख समता यह है कि मैं, मैं और तू को समान समझू, जो बहुत गहरी रा में, दुख में, अनुकूल में, प्रतिकूल में, सब स्थितियों है। दो आदमियों को समान समझने में बहुत कठिनाई नहीं है, में, सब परिस्थितियों में जो सम बना रहता है, समता क्योंकि दो आदमियों को समान समझने में ही मैं ऊपर उठ जाता हूं। को देखता है—एक। इस संबंध में काफी बात कृष्ण ने कही है। मैं पैट्रोनाइजिंग हो जाता हूं। मैं दो को समान समझने वाला। मैं इसमें एक दूसरी छोटी-सी बात वे कह रहे हैं, जो कीमती है। वह ऊपर उठ जाता हूं। मैं करीब-करीब मजिस्ट्रेट की कुर्सी पर बैठ है, जो अपने सादृश्य से सब में ही सम स्थिति देखता है। इसे थोड़ा जाता हूं। दो को समान समझने में बहुत कठिनाई नहीं है। दूसरे के समझना जरूरी है। साथ स्वयं को समान समझने में सबसे बड़ी कठिनाई है। अपने सादृश्य से! कठिनतम बात है यह। इसका अर्थ यह है कि सुना है मैंने, सोरोकिन ने कहीं एक छोटा-सा मजाक लिखा है। 229 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 लिखा है कि सोरोकिन एक समाजवादी से बात कर रहा था, जो वह पाएगा, मैं कौन हूं निर्णय लेने वाला! मैं भी तो वहीं खड़ा हूं, कहता था, सब चीजें बांट दी जानी चाहिए समान। सोरोकिन ने जहां सारे लोग खड़े हैं। उससे कहा कि जिन आदमियों के पास दो मकान हैं, क्या आपका इसलिए हमारे जो तथाकथित साधु-संत होते हैं, जो स्वयं को खयाल है, एक उसको दे दिया जाए, जिसके पास एक भी नहीं? कुछ पवित्र, ऊपर, और शेष सबको नारकीय जीव मानकर देखते उस आदमी ने कहा, निश्चित। बिलकुल ठीक। यही चाहता हूं। हैं, इन्हें कृष्ण के सूत्र का कोई पता नहीं। जिन आदमियों के पास दो कारें हैं, सोरोकिन ने कहा, एक उसको | तथाकथित साधु-संन्यासियों के पास जाओ, तो वे ऐसे देखते हैं दे दी जाए, जिसके पास एक भी नहीं? उस आदमी ने कहा कि |कि कहां है, पासपोर्ट ले आए नर्क जाने का कि नहीं। नीचे से ऊपर बिलकुल दुरुस्त। यही तो मेरी फिलासफी है, यही तो मेरा दर्शन है। तक जांच करके उनकी आंख का भाव यह होता है कि वे कहीं सोरोकिन ने कहा कि क्या आपका यह मतलब है कि जिस आदमी ऊपर, आप कहीं नीचे! के पास दो मुर्गियां हैं, एक उसको दे दी जाए, जिसके पास एक भी ठीक संत तो वह है, जो यह जान लेता है कि सभी सम हैं। नहीं? उस आदमी ने कहा, बिलकुल गलत। कभी नहीं! सोरोकिन | क्योंकि वह जो भीतर बैठा है, वह जरा भी ऊपर-नीचे नहीं हो . ने कहा कि कैसा समाजवाद है! अभी तक तो आप कहते थे, सकता। एक ही बैठा हुआ है, तो असमानता का सवाल कहां है! बिलकल ठीक। उसने कहा, न मेरे पास दो मकान हैं और न दोबद्ध ने अपने पिछले जन्म की कथा कही है। और कहा है कि कारें हैं, मेरे पास दो मुर्गियां हैं। यह बिलकुल गलत। यहां तक अपने पिछले जन्म में, जब मैं ज्ञान को उपलब्ध नहीं था, तब उस समाजवाद लाने की कोई जरूरत नहीं है। समय एक बुद्धपुरुष थे, कोई ज्ञान को उपलब्ध हो गए थे, तो मैं दूसरों को समान कर दिया जाए, यह बहुत कठिन मामला नहीं उनके दर्शन करने गया। मैंने झुककर उनके पैर छुए। स्वाभाविक! है। कृष्ण और गहरी समानता की बात कर रहे हैं। वे कह रहे हैं, उन्होंने जान लिया था, मैं अज्ञानी था। मैं पैर छूकर खड़ा भी न हो स्वयं के सादृश्य से समता, स्वयं को दूसरे के समान समझना। पाया था कि मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया। मैंने क्या देखा, यह बड़ी जटिल बात है। क्योंकि अहंकार भयंकर बाधा डालता अनपेक्षित, कि वे बुद्धपुरुष मेरे चरणों में सिर रखे हैं, झुक गए हैं। है। वह कहता है, कछ भी कहो, सब कहो, इंचभर भी जरा मझे घबड़ाकर मैंने उन्हें ऊपर उठाया और कहा कि आप यह क्या करते ऊंची जगह दे दो, बस, फिर ठीक है। सबके साथ! हैं! यह तो मेरे साथ...मुझे पाप लगेगा। मैं आपके पैर छुऊं, यह अभी भीतर मन में सोचेंगे, तब पता चलेगा कि सबके साथ मैं | | तो ठीक, क्योंकि आप जानते हैं और मैं नहीं जानता। और आप मेरे समान! यह नहीं हो सकता। सब समान हो सकते हैं, सबके बीच पैर छुएं! मुझे जरा बचाओ। भीतर गहरे में मन कहेगा, मुझे बचाओ। मैं | | तो उन बुद्धपुरुष ने हंसकर कहा था कि जो तेरे भीतर बैठा है, सबको समान करने को राजी हूं। और सबको समान करने में ही मैं मैं भलीभांति जानता हूं, वह वही है जो मेरे भीतर बैठा है। तुझे पता विशेष हो जाऊंगा, मैं अलग हो जाऊंगा, मैं ऊपर उठ जाऊंगा। । नहीं है, कभी पता चल जाएगा। जब तुझे पता चल जाएगा, तब इसलिए समाजवादी नेता हैं सारी दुनिया में, साम्यवादी नेता हैं | | तेरी समझ में आ जाएगा यह राज कि मैंने तेरे पैर क्यों छुए थे। मैंने सारी दुनिया में, वे सबको समान करने के लिए बहुत पागल हैं, तेरे पैर क्यों छुए थे, यह राज तुझे कभी समझ में आ जाएगा। आज बहुत विक्षिप्त हैं। लेकिन आखिर में कुल फल इतना होता है कि | तुझे पता नहीं कि तेरे भीतर वही हीरा छिपा है, जो मेरे भीतर। तू तो सब समान हो जाते हैं, वे सबके ऊपर हो जाते हैं। कोई इस बात | | नहीं जानता है, इसलिए अगर मैं तेरे पैर न भी छुऊं, तो तुझे पता के लिए राजी नहीं है कि मुझसे कोई समान हो। नहीं चलेगा। लेकिन मैं तो जानता हूं; अगर मैं तेरे पैर न छुळं, तो कृष्ण कहते हैं, स्वयं के सादृश्य से! | मेरे सामने ही मैं गिल्टी और अपराधी हो जाऊंगा। मैं जानता हूं कि जब भी दूसरे के संबंध में सोचो, तो स्वयं के सादृश्य से वही तेरे भीतर भी छिपा है, जो मेरे भीतर छिपा है। सोचना। और तब एक अदभत घटना घटेगी। तीन घटनाएं घटेंगी। यह सादश्य है। एक तो घटना यह घटेगी, जो स्वयं के सादृश्य से सोचेगा, वह तो कृष्ण कहते हैं, यह श्रेष्ठतम स्थिति है योग की। पर यह दूसरे का निर्णय लेना बंद कर देगा। नहीं; निर्णय नहीं लेगा। क्योंकि समता और है। यह अ और ब के बीच में नहीं; यह मेरे और तेरे 1230 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व भूतों में प्रभु का स्मरण > के बीच, मैं और त के बीच समता है। अब आप बिलकुल खोजबीन न करेंगे। बिलकुल खोजबीन ही मैं को तू के सम लाना महायोग है। क्योंकि मैं की सारी चेष्टा ही न करेंगे। जरा संदेह-शंका न उठाएंगे। कोई प्रमाण न पूछेगे। यही है कि तू को नीचे कर दे। हम जिंदगीभर यही करते हैं। तू को | | बिलकुल राजी हो जाएंगे कि दुरुस्त। यह तो हम पहले जानते थे नीचे करने की कोशिश ही हमारी जिंदगी का रस है। और अगर कि यह होने वाला है। हम पहले ही कह चुके थे कि वह आदमी वस्तुतः न कर पाएं, तो हम दूसरी तरकीबों से करते हैं। | भाग जाएगा। वह आदमी ही ऐसा था। अगर एक आदमी को धन मिल जाए, तो जिनके पास धन नहीं बड़े मजे की बात है कि जब कोई आपसे किसी की निंदा करता है, वह उनके ऊपर खड़ा हो जाता है। एक को मिनिस्ट्री मिल जाए, | है, तो आप प्रमाण नहीं पूछते। और जब कोई किसी की प्रशंसा तो जिनको नहीं मिली, वह उनके ऊपर खड़ा हो जाता है। उसकी करता है, तब बड़े प्रमाण पूछते हैं! बात क्या है ? निंदा मान लेने में चाल बदल जाती है। उसका ढंग बदल जाता है। उसकी आंखें | दिल को बड़ी राहत मिलती है, क्योंकि मैं ऊपर हो जाता हूं। प्रशंसा बदल जाती हैं। लेकिन जिसको नहीं मिली, वह क्या करे? जो हार मानने में बड़ी पीड़ा होती है, बड़ी चोट लगती है। गया, वह क्या करे? सुना है मैंने, एक विद्यार्थी नंबर तीन पास हुआ। उसके बाप ने वह दूसरी तरकीबों से नीचा दिखाने की कोशिश करता है। वह | उसे डांटा कि हमारे कुल में कभी न चला ऐसा। ऐसा कभी नहीं कहता है, तुम जीते नहीं हो, पैसा बांटकर जीत गए हो। मोरारजी | | हुआ हमारे कुल में कि कोई नंबर तीन आया हो। हालांकि न होने भाई से पूछे । जो जीत गया, वह पैसा बांटकर जीत गया। जैसे जो का कुल कारण इतना था कि कुल में कोई पढ़ा ही नहीं था! नंबर हार गया, उसने पैसे नहीं बांटे थे! हार जाना, कोई पैसे न बांटने | तीन आएगा कैसे? लड़के ने बड़ी मेहनत की। वह सालभर मेहनत की प्रामाणिकता है? लेकिन जो जीत गया, उसे अब किस तरह करके नंबर दो आया। बाप ने कहा कि क्या रखा है! कौन-सी बड़ी नीचे दिखाएं? वह तो दिखा रहा है नीचे, छाती पर चढ़ गया। अब उन्नति कर ली! एक ही लड़के को पीछे हटा पाए! लड़के ने और जो हार गया है, वह क्या करे? वह दूसरे रास्ते खोजेगा नीचे दिखाने | | मेहनत की और तीसरे साल वह नंबर एक आ गया। तो बाप ने कहा के। इसीलिए हम निंदा में इतना रस लेते हैं। हम एक-दूसरे की निंदा | कि इसमें कुछ नहीं है। इससे पता चलता है कि तुम्हारी क्लास में में इतना रस लेते हैं। गधों के सिवाय कोई भी नहीं है! बहुत मजे की बात है। अगर मैं आपसे आकर कहूं कि आपका | बाप को भी अड़चन होती है कि बेटा कुछ है। हालांकि सब बाप पड़ोसी बहुत अच्छा आदमी है, तो आप एकदम से मान न लेंगे। | कोशिश करते हैं कि मेरा बेटा कुछ हो, दूसरों के सामने। क्योंकि आप कहेंगे, अच्छा! भरोसा तो नहीं आता। पड़ोसी और अच्छा | | मेरा बेटा कुछ है, ऐसा दूसरों को बताकर वे भी कुछ होते हैं। आदमी! मेरे रहते और मेरा पड़ोसी अच्छा आदमी! क्या कह रहे हैं | | लेकिन अगर बेटा सच में कुछ है, तो बाप अड़चन में पड़ जाता है • आप! भला आप ऊपर से कहें या न कहें, भीतर बेचैनी शुरू हो | | बेटे के साथ। दूसरों के साथ चर्चा करता है, मेरा बेटा कुछ है। जाएगी। और आप कहेंगे, मान नहीं सकता। आपको पता नहीं है | क्योंकि मेरा बेटा! लेकिन बेटा सामने पड़ता है, तो बेचैनी शुरू शायद। जरा पुलिस की किताब में जाकर देखें ब्लैक लिस्ट में नाम | | होती है। बाप के मन को तक बेटे के मन से बेचैनी शुरू होती है! है उसका। इसको आप अच्छा आदमी कहते हैं! यह आदमी महा | अगर लड़की सुंदर हो, तो मां तक चिंतित हो जाती है। और रास्ते दुष्ट है। पत्नी को पीटते मैंने सुना है। | पर जब गुजरती है, तो देखती रहती है कि लोग लड़की को देख रहे आप पच्चीस बातें निकालकर दलील देंगे कि यह आदमी अच्छा | | हैं कि उसको देख रहे हैं। अगर लड़की को देख रहे हैं, तो बहुत नहीं है। क्यों? क्योंकि अगर वह अच्छा है, तो आपके मैं का क्या बेचैनी होती है। उसका बदला वह घर लौटकर लड़की से लेगी! होगा! आप पच्चीस दलीलें खोजकर, उसे नीचे करके, अपने | | आदमी का मन इतने निकट संबंधों में भी मैं को ऊपर रखता है। सिंहासन पर पुनः विराजमान हो जाएंगे। | मां और बेटी के संबंध में भी, बाप और बेटे के संबंध में भी, वह लेकिन अगर कोई आपसे आकर कहे कि सुना, पड़ोस का | | मैं को ऊपर रखता है। निकटतम के साथ भी हमारी दुश्मनी चलती आदमी फलाने की स्त्री को लेकर भाग गया! आप कहेंगे, मैं पहले है मैं और तू की। से ही जानता था कि वह भागेगा। महायोग है, कृष्ण कहते हैं कि स्वयं के सादृश्य से सब के साथ 231 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 समता समझ लेना। | दूसरा कभी बनाया ही नहीं। और अब बना सकूँगा, इसकी भी कोई जरा भी फासला न रह जाए, कि दूसरा ठीक वैसा ही है, जैसा आशा नहीं। और हर आदमी इसको दिल में लिए घूमता है मैं हूं। बुराई में भी, भलाई में भी, पाप में भी, पुण्य में भी, दूसरे जिंदगीभर। कह भी नहीं पाता, क्योंकि कहे तो झंझट आ जाए, और मझमें कोई फासला नहीं है। ऐसी प्रतीति की जो गहराई है, वह क्योंकि दूसरे भी यही लिए घूम रहे हैं! कह भी नहीं पाता बहुत बड़ा विस्फोट लाती है। साफ-साफ। छिपा-छिपाकर कहता है। गोल-मोल बातें करके पर इसको चाहने के लिए, इस दिशा में यात्रा करने के लिए, जब कहता है। परोक्ष-परोक्ष रूप से घोषणा करता है। न मालूम कितनी भी दूसरे के संबंध में सोचें, तो एक बार पुनः उसी बात को लेकर | तरकीबें खोजता है कि तुम्हें पता चल जाए कि मुझ जैसा कोई नहीं। अपने संबंध में पहले सोचना। और अपने मन के धोखों में मत पड़ | लेकिन बिलकुल पागल हो, क्योंकि दूसरा भी इसी कोशिश में लगा जाना, क्योंकि मन कहेगा, ये तो मजबूरियां थीं। ऐसा तो उसका मन है कि मझ जैसा कोई भी नहीं। हम सब इसी खेल में रत हैं। भी कहता है, यह भी जानना। ऐसा मत कहना कि यह मेरा स्वभाव परमात्मा यह मजाक करता है या नहीं, मुझे पता नहीं। लेकिन नहीं है। उसका मन भी यही कहता है कि यह मेरा स्वभाव नहीं है। आदमी का मन जरूर यह मजाक कर रहा है। और गहरी मजाक . जैसा हमें लगता है, वैसा ही प्रत्येक को लगता है। है। और पूरी जिंदगी इस मजाक में व्यतीत हो जाती है; व्यर्थ ही महावीर ने तो इसे अहिंसा कहा, इस सूत्र को। यह स्वयं के | | व्यतीत हो जाती है। सादृश्य सब को मान लेने को महावीर ने अहिंसा कहा। महावीर ने | | मार्क ट्वेन के संस्मरणों में मैंने कहीं देखा है। वह फ्रेंच नहीं कहा कि जैसा हमें लगता है, वैसा सब को लगता है, इसलिए तुम | | जानता था, और फ्रांस आया। तो एक बहुत मजेदार घंटना हो गई। जो व्यवहार अपने साथ करो, वही दूसरे के साथ करो। | फ्रांस में उसका लड़का शिक्षित हो रहा था, यूनिवर्सिटी में पढ़ रहा जीसस ने भी यही कहा। अगर जीसस के पूरे जीवन के उपदेश था। तो उसका स्वागत किया पेरिस के साहित्यकारों ने। तो उसने का सार-निचोड़ हम रखें, तो एक ही वाक्य है जीसस का, जो परम | अपने लड़के से कहा कि तु जरा मेरे साथ बैठे रहना, क्योंकि लोग है, महावाक्य है, डू नाट डू अनटु अदर्स, दैट यू वुड नाट लाइक | | जब हंसेंगे, अगर मैं न हंसू, तो वे समझेंगे, फ्रेंच नहीं जानता। टु बी डन विद यू–मत करो दूसरों के साथ वह, जो तुम न चाहोगे और फ्रेंच न जाने कोई उन दिनों, तो अशिक्षित, थोड़ा अनाड़ी, कि दूसरे तुम्हारे साथ करें। थोड़ा अश्रेष्ठ। फ्रेंच तो जाननी ही चाहिए, संस्कृति की भाषा! तो लेकिन हम वही कर रहे हैं। और तब अगर हम योग को उपलब्ध मैं यह चाहता हूं, मार्क ट्वेन ने कहा कि पता न चले कि मैं नहीं नहीं होते, तो आश्चर्य नहीं। और अगर हम श्रेष्ठ शांति को और जानता हूं। तो तू मेरे पास बैठ रहना। तू मुझे इशारा कर देना। तो तू आनंद को उपलब्ध नहीं होते, तो आश्चर्य नहीं। यह हमारे ही कर्मों | | जो करेगा, वही मैं करने लगूंगा। जब तू हंसेगा, मैं हंस दूंगा। जब का सुनिश्चित फल है। जो हम कर रहे हैं, उसकी यह नियति है। तू गंभीर हो जाएगा, मैं गंभीर हो जाऊंगा। तुझ पर ध्यान रखूगा। तू यही होगा। खयाल रखना। ताकि किसी को यह पता न चल पाए। लेकिन बहुत कठिन है दूसरे के साथ अपने को सम भाव में | लेकिन बड़ी गड़बड़ हो गई। क्योंकि जब मार्क ट्वेन की तारीफ रखना। सबसे बड़ी कठिनाई उस ईगो और अहंकार की है, जो | | की जाती थी, तो सारा हाल ताली बजाता; लड़का भी बजाता और कहता है, मैं! मेरे जैसा कोई भी नहीं। मार्क ट्वेन भी बजाते, क्योंकि वे समझ नहीं पाते। लड़का बड़ा अरब में एक कहावत है, एक मजाक है कि परमात्मा जब लोगों बेचैन हुआ कि यह तो बड़ी मुसीबत है! लेकिन अब बीच मंच पर को बनाता है, तो सबके साथ एक मजाक कर देता है। धक्का देते कुछ कहना भी ठीक नहीं है कार्यक्रम चलते वक्त। यह भूल कई वक्त दुनिया में, उनके कान में कह देता है, तुम जैसा किसी को भी दफे हुई। लोग खिलखिलाकर हंसते। लड़का भी हंसता। मार्क नहीं बनाया। सभी से कह देता है, दिक्कत तो यह है। अगर एकाध ट्वेन भी हंसता। और उसे पता ही नहीं चलता कि मार्क ट्वेन के से कहे, तो चले। झंझट न हो कुछ। सभी से कह देता है! संबंध में कोई मजाक कही गई है। यह मजाक, यह कहावत बड़ी प्रीतिकर है, बड़े अनुभव की है। बाद में लड़का तो पसीने से तरबतर हो गया। जब रात लौटने हर एक से कह देता है कि गजब, तुम जैसा तो लाजवाब, तुम जैसा लगे, लड़के ने कहा, आपने तो मुझे दिक्कत में डाल दिया। लोग 232 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < सर्व भूतों में प्रभु का स्मरण > सब मेरी तरफ भी देखते थे कि तेरा बाप क्या कर रहा है। मार्क | जरा लंबी है, और लोग कहते हैं, खूबसूरत है। और किसी के पास ट्वेन ने पूछा, क्या गलती हो गई? उसने कहा कि जब लोग ताली | | थोड़ी चपटी है, और लोग कहते हैं, बिलकुल न होती तो अच्छी। बजाते थे, मैं ताली बजाता था, तो वह तो आपकी प्रशंसा की जा करो क्या? कोई है कि गणित के बड़े सवाल हल कर देता है, और रही थी कि आप बहुत महान हैं। और आप भी ताली बजा देते थे, | | कोई है कि सोलह आने गिनने में दस दफे भूल कर जाता है। करो उससे बहुत गड़बड़ हो जाती थी। क्या? यहां जीवन में सादृश्य को बनाने में जरा कठिनाई पड़ेगी, मार्क ट्वेन ने कहा, घबड़ा मत। जिंदगी में पहली दफा, जो मैं | क्योंकि बहुत-सा असादृश्य प्रकट है। सदा करना चाहता था, वह अपने आप हो गया है। मार्क ट्वेन ने | __ तो बुद्ध कहते, पहले मौत से शुरू करो, लेट अस बिगिन फ्राम कहा, घबड़ा मत, जिंदगी में जो सदा करना चाहता था कि जब लोग | दि एंड, चलो पीछे से शुरू करें। क्योंकि मौत में तो बड़ी अटारी मेरी प्रशंसा करें, तो मैं भी ताली बजाऊं। बजाता नहीं था, क्योंकि वाला भी वहीं पहुंच जाता है, जहां छोटा झोपडे वाला। जिसका मैं समझता था भाषा। आज तो गलती में हो गया। लेकिन हुआ | गणित बड़ा कुशल था और जो गणित में सदा फेल हुआ, वे भी वही, जो मेरे दिल में सदा से है। | वहीं पहुंच जाते हैं। जिसकी शक्ल पर लोग मरे जाते थे और __ हम सब के दिल में यही है कि देखो, कैसे मूढ़ हम भी, कि सब जिसकी शक्ल से लोग ऐसे बचते थे कि कहीं मिल न जाए, वह तो हमारे लिए ताली बजा रहे हैं, और हम बैठे हैं। यही तो मौका | भी वहीं पहुंच गया। सब वहीं चले आ रहे हैं। नेता और अनुयायी, था, जब हम भी ताली बजाते। लेकिन भाषा समझ में आती है,। | गुरु और शिष्य, साधु और असाधु, सम्मानित और अपमानित, इसलिए चुप रह जाते हैं। वह तो भूल से हो गई घटना। लेकिन मन संत और चोर-सब चले आ रहे हैं। एक जगह जाकर--मौत। में हमारे यही होता है। मन हमारा यही करता है। मौत जो है, बहुत कम्युनिस्ट है; एकदम समान कर देती है! इस वह जो हमारा मैं है, वह सदा इसी तलाश में है कि कोई कह दे | बुरी तरह समान करती है कि राख ही रह जाती है। सब समान हो कि तुम महान, तुम यह, तुम वह-और हम फूलकर कुप्पा हो जाता है। जाएं। फिर सादृश्य नहीं सधेगा। तो बुद्ध कहते, वहीं से शुरू करो और जब यह साफ दिखाई पड़ इसलिए बुद्ध कहते थे कि जिसे सादृश्य-योग साधना हो, वह जाए कि अंत में इतना सब सादृश्य हो जाने वाला है, तो बीच की पहले तो तीन महीने मरघट पर जाकर निवास करे। सादृश्य-योग | झंझट में क्यों पड़ते हो। उसमें कुछ बहुत सार नहीं है। आखिरी तो साधना हो, तो पहले तीन महीने मरघट पर निवास करे। जब कोई यह है। भिक्षु आता, बुद्ध कहते, जा तीन महीने मरघट पर रह। वह कहता, ___ और जो भी भिक्षु तीन महीने मौत पर स्मरण करके आता, इससे क्या होगा? मैं योग साधने आया! बुद्ध कहते, पहले जरा | जिंदगी में सादृश्य को उपलब्ध हो जाता। अगर उससे कोई कभी . मरघट पर तीन महीने रहकर आ। वह कहता, वहां क्या करूंगा? | कहता भी कि तुम तो बहुत ही ज्ञानी हो, तो वह कहता, क्षमा करो। तो बुद्ध कहते, जब भी कोई मुर्दा आए, तो जानना कि ऐसा ही | | अब मझे धोखा न दे पाओगे। मैं देख आया मरघट। वहां मैंने एक दिन मैं भी आऊंगा। जब उसको जलाया जाए, तो जानना कि | | ज्ञानियों को धूल में मिलते देखा। और अगर कोई उससे कहता कि ऐसा ही एक दिन मैं भी जलाया जाऊंगा। जब उसका बेटा खोपडी आपकी आंख वह कहता, क्षमा कर तोड़े, तो जानना कि मेरा बेटा एक दिन खोपड़ी तोड़ेगा। जब सब | धोखा न दे पाओगे। मैं देख आया मरघट। सब आंखें राख से लोग उसको जला-बुझाकर जाने लगें, तो जानना कि एक दिन लोग | ज्यादा सिद्ध नहीं होती। मुझे इसी तरह जला-बुझाकर चले जाएंगे। __ कृष्ण कहते हैं, यह सादृश्य-योग उच्चतम योग की स्थिति को पर वह आदमी पूछता, इससे होगा क्या? बुद्ध कहते, मौत से पहुंचा देता है। सादृश्य शुरू कर, बाद में जिंदगी में आसान हो जाएगा। शुरू करें कहीं से। मौत से शुरू करें, आसान पड़ेगा। लेकिन __ और बात ठीक कहते हैं। जिंदगी में सादृश्य बनाना जरा मुश्किल हिम्मत न जुटेगी मरघट जाने की। डर लगता है मरघट जाने में। पड़ेगा, क्योंकि किसी के पास बड़ा मकान है और किसी के पास इसीलिए डर लगता है, क्योंकि मरघट कुछ बुनियादी खबरें देता है। छोटा मकान है। सादृश्य बनाओ कैसे! और किसी के पास नाक एक अंग्रेज कवि ने एक छोटा-सा गीत लिखा है, जिसमें कहा | 233 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 है-पुराने ईसाई आर्थोडाक्स ढंग से, गांव में जब कोई मरता है, जब आप एक छोटे-से बच्चे को डांट रहे हैं बूढ़े होकर, तब तो चर्च की घंटी बजती है—उस कवि ने एक छोटा-सा गीत लिखा आपको कभी भी खयाल नहीं आता कि एक दिन आप भी छोटे-से है और कहा है कि जब चर्च की घंटी बजे, तो किसी को पूछने मत बच्चे थे। इसी तरह डांटे गए थे। और आपको यह भी खयाल नहीं भेजना कि किसके लिए बजती है। तुम्हारे लिए ही बजती है, तुम्हारे आता कि यह बच्चा कल इसी तरह बूढ़ा हो जाएगा। अगर बूढ़े को लिए ही बजती है। बच्चे में यह सादृश्य दिखाई पड़ जाए, तो इस दुनिया में बूढ़ों और जब चर्च की घंटी बजे, तो गांव में कोई मर गया। तो स्वभावतः | बच्चों के बीच जो कलह है, वह विदा हो जाए। वह कलह विदा गांव के लोग किसी को बाहर पूछने भेजते हैं, किसके लिए बजती | हो जाए। उस कलह की कोई जगह न रह जाए। . है? उस गीतकार ने ठीक लिखा है, मत भेजना किसी को पूछने कि लेकिन यह दिखाई नहीं पड़ता है। हम इसके लिए बिलकुल किसके लिए बजती है। तुम्हारे लिए ही बजती है, तुम्हारे लिए ही अंधे हैं। इसलिए हमारे जीवन में महा दुख फलित होता है। लेकिन बजती है-इट टाल्स फार दी, इट टाल्स फार दी। | वह अति उत्तम योग और उससे उपलब्ध होने वाली शांति फलित जब रास्ते से कोई मुर्दा निकले, तो मत पूछना कि कौन मर नहीं होती। गया? जानना कि मैं ही मर गया हूं, मैं ही मर गया हूं। जब कोई शेष कल सुबह हम बात करेंगे। अपमानित हो, जब कोई हारे और धूल-धूसरित हो जाए, तो मत अभी कीर्तन में पांच मिनट जाएंगे। नहीं, उठेगा कोई भी नहीं। सोचना कि कोई और गिर गया है। जानना कि मैं ही गिर गया हूं। अपनी जगह बैठे रहें। और साथ दें, बैठे न रहें। साथ देकर ही और तब जीवन में भी धीरे-धीरे-धीरे सादृश्य फैलता चला जाएगा। कीर्तन को समझा जा सकता है। देखें, देखने वाले कोई भी मंच पर सादृश्य के आते ही बड़ी करुणा पैदा होती है; बड़ी करुणा, | | नहीं आएंगे। आप वहीं बैठकर ताली बजाएं, गीत गाएं, डोलें, महाकरुणा पैदा होती है। अंग्रेजी में शब्द बहुत अच्छा है करुणा के | आंदोलित हों। लिए, कंपैशन। उसमें अगर आधे कम को हम अलग कर दें, तो पीछे पैशन रह जाता है। दो तरह के लोग हैं, पैसोनेट और कंपैसोनेट। पैशन यानी वासना, और कंपैशन यानी करुणा। जब तक कोई आदमी कहता है कि मैं दूसरों से भिन्न हूं, तब तक वासना में जीएगा, पैशन में। और जब जानेगा कि मैं दूसरों के ही समान हूं, तो कंपैशन में प्रवेश कर जाएगा, करुणा में। दो ही तरह के लोग हैं, वासना से जीने वाले और करुणा से जीने वाले। वासना में वे जीते हैं, जो अहंकार को केंद्र बनाते हैं। करुणा में वे जीते हैं, जो दूसरे के साथ सादृश्य को उपलब्ध हो जाते हैं। सादृश्य अहंकार की मृत्यु है। और सादृश्य करुणा का जन्म है। सादृश्य यह खबर देता है कि दूसरा भी उतना ही कमजोर है, जितना कमजोर मैं। सादृश्य कहता है, दूसरा भी उतनी ही सीमाओं में बंधा है, जितनी सीमाओं में मैं। मुझे भी किसी ने गाली दी है, तो क्रोध आ गया है। और अगर किसी दूसरे को भी गाली दी गई है, तो क्रोध आ गया है, तो मैं कठोर न हो जाऊं। करुणा अपेक्षित है, अगर सादृश्य का थोड़ा बोध है। लेकिन सादृश्य का बोध हमें नहीं है। और इस बोध को समझने से नहीं समझा जा सकता: इस बोध को जन्माने से समझा जा सकता है। इसका प्रयोग करना शुरू करें। 234 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 6 सोलहवां प्रवचन मन का रूपांतरण Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 गीता दर्शन भाग - 3 अर्जुन उवाच हे योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन । एतस्याहं न पश्यामि चंचलत्वात्स्थितिं स्थिराम् ।। ३३ । । चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् । तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ।। ३४ ।। मधुसूदन, जो यह ध्यानयोग आपने समत्वभाव से कहा है, इसकी मैं मन के चंचल होने से बहुत काल तक ठहरने वाली स्थिति को नहीं देखता हूं। क्योंकि हे कृष्ण, यह मन बड़ा चंचल और प्रमथन स्वभाव वाला है, तथा बड़ा दृढ़ और बलवान है, इसलिए उसका वश में करना मैं वायु की भांति अति दुष्कर मानता हूं। यो ग की आधारभूत शिलाओं के संबंध में कृष्ण के द्वारा बात किए जाने पर अर्जुन ने वही पूछा है, जो आप भी पूछना चाहेंगे। अर्जुन कह रहा है, बातें होंगी ठीक आपकी, मिलता होगा परम आनंद। आकर्षण भी बनता है कि उस आयाम में यात्रा करें। लेकिन मन बड़ा चंचल है। और समझ में नहीं पड़ता है कि इस चंचल मन के साथ कैसे उस थिर स्थिति को पाया जा सकेगा ! क्षणभर भी ठहरेगी वह स्थिति, इसका भी भरोसा नहीं आता है। फिर चंचल ही नहीं है यह मन, बहुत शक्तिशाली, बहुत जिद्दी भी है। बहुत अडिग, अपने स्वभाव को कायम भी रखता है। ऐसा लगता है कि हे मधुसूदन, जैसे वायु को वश में करना कठिन हो, वैसा ही कठिन इस मन को वश में करना है। के साथ खूबी है। वायु पर मुट्ठी बांधे, तो पकड़ में नहीं आती है। जितने जोर से मुट्ठी बांधे, उतनी ही मुट्ठी के बाहर हो जाती है। न तो दिखाई पड़ती है वायु कि हम उसका पीछा कर सकें। ऐसा ही मन भी दिखाई नहीं पड़ता है। और न ही वायु जरा ही देर थिर रहती है। जो अथिर है प्रतिपल, यहां से वहां डांवाडोल है, दौड़ती फिरती है, ऐसा ही यह मन है - प्रतिपल दौड़ता हुआ; अदृश्य; न दिखाई पड़ता, न पकड़ में आता; सिर्फ अनुभव होता है इसके कंपन का । वायु का आपको अनुभव क्या है? वायु का कोई अनुभव नहीं है। वायु की दौड़ती, भागती धारा के थपेड़ों का अनुभव है। वायु अगर थिर हो, तो वायु का कोई भी अनुभव न होगा। उसकी | अथिरता का ही अनुभव है, उसके प्रवाह का ही अनुभव है। दौड़ती है वायु आपको छूकर, तो उसका स्पर्श होता है। दौड़ता हुआ ही स्पर्श होता है। और तो कोई अनुभव नहीं है। मन का भी, उसके परिवर्तन का ही अनुभव होता है; मन का तो कोई अनुभव नहीं है। उसकी चंचलता ही प्रतीति में आती है, और तो कुछ प्रतीति में आता नहीं है। जैसे वायु की गति प्रतीति में आती है, वायु नहीं; ऐसे ही मन की भी चंचलता प्रतीति में आती है, मन नहीं। ऐसा जो अदृश्य, जो | पकड़ के बाहर और सदा ही भागता हुआ मन है। तो अर्जुन की शंका उचित ही है। वह पूछता है कृष्ण को, संभावी नहीं मालूम पड़ता, इंप्रोबेबल है, असंभव दिखता है। आप कहते हैं, सदा के लिए थिर हो जाए; क्षण के लिए भी थिर होना असंभव मालूम पड़ता है । मन का यह स्वभाव ही नहीं है कि थिर हो जाए। मन तो चंचल ही है। या कहें कि चंचलता ही मन है। दुरूह मालूम होती है बात। आकर्षण भारी । मन को देखकर, कमजोरी को | देखकर, मन की स्थिति को देखकर असंभव मालूम होती है बात। यह अर्जुन का ही सवाल नहीं है, यह पूरे मनुष्य के मन का सवाल है। इसमें दो-तीन बातें ध्यान में ले लेनी जरूरी हैं। एक, कि मन के संबंध में जो भी हम जानते हैं, स्वभावतः उसी जानने के भीतर सोचते हैं। हमने मन को कभी थिर नहीं जाना। | तो उचित ही लगता है, स्वाभाविक ही तर्कयुक्त लगता है कि मन की थिरता असंभव है। हमने कभी मन को थिर नहीं जाना। इसलिए स्वाभाविक ही लगता है कि यह शंका उठे कि यह मन थिर नहीं हो सकेगा। | लेकिन यह हमारी धारणा नकारात्मक है। यह हमारी धारणा निगेटिव है। हमें थिरता का कोई अनुभव नहीं है, चंचलता का ही अनुभव है। इसलिए हमारा यह सोचना कि थिरता असंभव है, थोड़ा जरूरत से ज्यादा सोचना है। हम इतना ही कहें कि चंचल हैं। हम, थिरता का हमें कोई पता नहीं। वहां तक बात तथ्य की है। लेकिन तत्काल हमारा मन एक कदम आगे बढ़कर नतीजा लेता है, जिसके लिए कोई कारण नहीं है। हमारा मन कहता है कि नहीं, थिरता असंभव है। चंचलता हमने जानी है, वह हमारे अतीत का अनुभव है। थिरता हमारा अनुभव नहीं है। लेकिन जो हमारा अनुभव नहीं है, वह असंभव है, ऐसा कहने का कोई कारण नहीं है। अगर बहरे को कोई | कहे, बहरे को कोई समझाए लिखकर कि वाणी संभव है; बहरा 236 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ मन का रूपांतरण > कहेगा, असंभव है। अंधे को कोई समझाने की कोशिश करे कि भविष्य का निर्धारक नहीं है; और अतीत से कोई नतीजा भविष्य के प्रकाश संभव है; अंधा कहेगा, असंभव है। अंधा कहेगा, हे लिए नहीं लिया जा सकता। मैं अभी तक नहीं मरा हूं, इसलिए मैं मधुसूदन, अंधकार के सिवाय कभी कुछ जाना नहीं। मान नहीं अगर कहूं कि मृत्यु असंभव है, तो गलती है कुछ? इतने दिन का सकता कि आंखें प्रकाश भी देख सकती हैं, क्योंकि अंधकार ही | | अनुभव है, इतने दिन जीकर जाना है कि नहीं मरता हूं। अगर मैं देखती रही हैं। एक क्षण को भी देख सकती हैं, यह अकल्पनीय | कहूं कि इतने वर्ष का अनुभव! मालम पडता है. क्योंकि सदा से अंधकार ही जाना है। एक आदमी कहे कि अस्सी वर्ष का मेरा अनभव कि नहीं मरता फिर भी हम जानते हैं कि वह अंधे की धारणा नकारात्मक है। हूं, नतीजा देता है कि मृत्यु असंभव है। अस्सी वर्ष तक जो संभव लेकिन अंधे की बात गलत न कह सकेंगे हम। अंधा अपने अनुभव नहीं हो पाया, वह अचानक एक क्षण में संभव हो जाएगा, यह से कहता है। और अनुभव के सिवाय कहने का उपाय भी क्या है! तर्कयुक्त नहीं मालूम होता। जो अस्सी वर्ष तक नहीं आ सकी मौत, __ हम जब मन के संबंध में कह रहे हैं, तब भी हम अपने अनुभव अस्सी वर्ष तक मैं प्रतीक्षा करता रहा हूं, वह एक क्षण में कैसे आ से कहते हैं। लेकिन अनुभव अंधे जैसा है। मन के अतिरिक्त हमने जाएगी? जिसको अस्सी वर्ष मैंने हराया, वह एक क्षण में मुझे कैसे कभी कुछ जाना ही नहीं। जो हमने नहीं जाना है, उसके बाबत | हराएगी? जो अस्सी वर्ष तक मेरी प्रतीति नहीं बनी, वह एक क्षण पाजिटिव कनक्लूजन लेना उचित नहीं है। में मेरा अनुभव नहीं बन सकता है-ऐसा अगर कोई कहे, तो अर्जुन का यह कहना तो ठीक है कि मन चंचल है, बहुत कठिन गलत कह रहा है? ठीक ही मालूम पड़ता है, तर्कयुक्त मालूम मालूम पड़ता है। लेकिन यह कहना उचित नहीं है कि अकल्पनीय | पड़ता है। मालूम पड़ता है, कृष्ण। यह हम अपनी अनुभूति के बाहर का लेकिन सभी तर्कयुक्त बातें सत्य नहीं होतीं। सच तो यह है कि नतीजा ले रहे हैं, जो खतरनाक हो सकता है। क्योंकि वैसा नतीजा, | सभी असत्य तर्कयुक्त रूप लेते हैं। सभी असत्य अपने आस-पास रोकने वाला सिद्ध होगा। वैसा नतीजा अवरोध बन जाएगा। तर्क का जाल बुन लेते हैं। एक बार किसी ने सोच लिया कि ऐसी बात असंभव है, तो करने अर्जुन कहता है, असंभव मालूम पड़ता है-अकल्पनीय, की धारणा ही छूट जाती है। असंभव को कोई करने नहीं निकलता। इनकंसीवेबल-कोई धारणा नहीं बनती कि यह हो सकता है, एक जब कोई असंभव को भी करने निकलता है, तो मानकर चलता है। क्षण को भी ठहरेगा मन। लेकिन यह अर्जुन बिना जाने कह रहा है। कि संभव है। अगर संभव को भी कोई मान ले कि असंभव है, तो अर्जुन एक अर्थ में ठीक कह रहा है, क्योंकि हम सब का करने ही नहीं निकलता। और मान्यता फिर असंभव ही बना देगी; अनुभव यही है। एक अर्थ में गलत कह रहा है, क्योंकि जो हमारा क्योंकि जब करने ही नहीं जाएंगे, तो सिद्ध ही हो जाएगा कि देखो, अनुभव नहीं है, उसके संबंध में कोई भी विधायक वक्तव्य ठीक असंभव है; क्योंकि फलित नहीं होगा। और इस तरह तर्क का नहीं है। अपना एक दुष्चक्र, एक विशियस सर्किल है। अगर आप मानते हैं एक आदमी कहता है कि मेरा जीवन हो गया, मैंने ईश्वर का कि असंभव है, तो आप करेंगे नहीं; करेंगे नहीं, तो संभव नहीं हो कहीं दर्शन नहीं किया, इसलिए ईश्वर नहीं है। उसे इतना ही कहना पाएगा। आपकी मान्यता और दृढ़ हो जाएगी कि असंभव है। देखो, । चाहिए कि ईश्वर है या नहीं, मुझे पता नहीं। इतना ही मुझे पता है कहा था पहले ही कि असंभव है! कि मैंने उसका अभी तक दर्शन नहीं किया है। तो बात बिलकुल ही अगर आप असंभव को भी संभव मानकर चलते हैं, तो करने तथ्य की है। की सामर्थ्य, शक्ति बढ़ती है। और कुछ आश्चर्य नहीं कि असंभव लेकिन मैंने दर्शन नहीं किया है, इसलिए ईश्वर नहीं है, तो फिर भी संभव हो जाए। क्योंकि बहुत असंभव संभव होते देखे गए हैं। तर्क अपनी सीमा के बाहर गया। और अक्सर तर्क कब अपनी असल में हम असंभव उसे कहते हैं, जिसे हम नहीं कर पा रहे हैं। | सीमा के बाहर चला जाता है, हमें पता नहीं चलता। एक छोटी-सी लेकिन जिसे हम नहीं कर पा रहे हैं, उसे नहीं ही कर पाएंगे, ऐसा | छलांग तर्क लेता है, और खतरनाक स्थितियों में पहुंचा देता है। निष्कर्ष लेने की तो कोई भी जरूरत नहीं है। एक बिलकुल छोटी-सी छलांग; मैंने ईश्वर को नहीं जाना अब पर अक्सर हम अतीत से निष्कर्ष लेते हैं भविष्य का। अतीत तक; बहुत खोजा, नहीं पाया। सब तरह खोजा, नहीं दर्शन हुआ, 2371 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 तो ईश्वर नहीं है। इन दोनों के बीच में गैप है, जो आपको दिखाई दो चीजों के बाबत हमें बड़ी सफाई है। एक तो शरीर के बाबत नहीं पड़ रहा है। इस निष्पत्ति तक पहुंचने के लिए उतने आधार | | बहुत साफ स्थिति है कि शरीर है। वह पदार्थ का समूह है। वह काफी नहीं हैं। इस निष्पत्ति पर तो वही पहुंच सकता है, जो यह भी | पंचभूत कहें, या जितने भूत हों उतने कहें, उन सब का समूह है। कह सके कि जो भी संभव था, वह सब मैंने देख लिया; जो भी उसके बाबत बहुत स्थिति साफ है। आत्मा है, उसके बाबत भी अस्तित्व था, वह मैंने पूरा छान डाला; कोना-कोना जहां तक | स्थिति साफ है कि वह पदार्थ नहीं है। इतना तो साफ है नकारात्मक, असीम का विस्तार था, मैंने सब पा लिया, देख लिया। अब एक | कि वह पदार्थ नहीं है। वह चैतन्य है, वह कांशसनेस है। यह मन रत्तीभर अस्तित्व नहीं बचा है छानने को, इसलिए मैं कहता हूं कि क्या है दोनों के बीच में? ईश्वर नहीं है। तब उसकी बात में कोई तर्कयुक्तता हो सकती है। यह मन दोनों के मिलन से उत्पन्न हुई एक बाइ-प्रोडक्ट है। यह लेकिन सदा शेष है। मन पदार्थ और चेतना के मिलन से पैदा हुई एक उत्पत्ति है। वस्तुतः तो अर्जुन के इस संदेह में वास्तविकता है। फिर भी कहीं कोई देखा जाए, तो शरीर का भी बहुत गहन अस्तित्व है और आत्मा का गहरी भूल है। भी। मन का गहन अस्तित्व नहीं है। दूसरी बात वह कहता है कि वायु की तरह है। और ठीक उसने | मन ऐसा है. जैसे कि मैं आपको एक जंगल में मिल जाऊं। और उपमा ली है। ठीक उसने उपमा ली है। लेकिन फिर भी उपमा में हम दोनों के बीच मैत्री का जन्म हो। आप भी बहुत हैं, मैं भी बहुत कुछ बुनियादी भूलें हैं, वह खयाल में ले लें, तो कृष्ण का उत्तर हूं, लेकिन यह मैत्री हम दोनों के बीच एक संबंध है। यह मैत्री पदार्थ समझना आसान हो जाएगा। भी नहीं है, और यह मैत्री आत्मा भी नहीं है। क्योंकि अकेले दो एक तो बुनियादी भूल यह है कि वायु पदार्थ है, मन पदार्थ नहीं पदार्थों के बीच यह घटित नहीं हो सकती, इसलिए पदार्थ तो नहीं है। वायु पदार्थ है, मन पदार्थ नहीं है। अर्जुन के वक्त में तो वायु है। और अकेली दो आत्माओं के बीच भी घटित नहीं हो सकती को पकड़ना मुश्किल था, अब मुश्किल नहीं है। अगर आज अर्जुन बिना शरीरों को बीच में माध्यम बनाए, तो यह सिर्फ आत्मा भी नहीं सवाल पूछता, तो वायु की उपमा नहीं ले सकता था। आज तो | है। लेकिन शरीर और आत्मा मौजूद हों, तो मैत्री नाम का एक विज्ञान ने सुलभ कर दिया है। हम चाहें तो वाय को ठंडा करके पानी | संबंध, एक रिलेशनशिप घटित हो सकती है। . बना ले सकते हैं। और ज्यादा ठंडा कर सकें, तो ठोस पत्थर की ___ मन वस्तु नहीं है, संबंध है। मन पदार्थ नहीं है, संबंध है। इसे तरह वायु जम जाएगी। थोड़ा ठीक से समझ लें; क्योंकि संबंध को पदार्थे से तुलना देने क्योंकि विज्ञान कहता है, प्रत्येक पदार्थ की तीन अवस्थाएं हैं। में बड़ी भूल हो जाएगी। पदार्थ को कभी तोड़ा नहीं जा सकता। जैसे बर्फ, पानी, भाप। इसी तरह प्रत्येक पदार्थ की तीन अवस्थाएं आप कहेंगे, तोड़ा जा सकता है; हम एक पत्थर के दस टुकड़े कर हैं। और प्रत्येक पदार्थ एक अवस्था से दूसरी अवस्था में प्रवेश कर | सकते हैं। आपने पदार्थ नहीं तोड़ा, सिर्फ पत्थर तोड़ा है। पदार्थ सकता है। वायु भी एक विशेष ठंडक पर जल की तरह हो जाती तोड़ने का मतलब यह है कि पत्थर को आप इतना तोड़ें, इतना तोड़ें है; और एक विशेष ठंडक पर पत्थर की तरह जम जाएगी। पदार्थ | |कि पत्थर शून्य में विलीन हो जाए। आप नहीं तोड़ सकते। विज्ञान की तीन अवस्थाएं हैं। कहता है, कोई पदार्थ तोड़ा नहीं जा सकता इस अर्थ में। नष्ट नहीं खैर, अर्जुन को उसका कोई पता नहीं था। अगर आज कोई | किया जा सकता। अर्जुन की तरफ से पूछता, तो वायु का उदाहरण नहीं ले सकता था। ___ लेकिन संबंध नष्ट किया जा सकता है। मेरे और आपके बीच क्योंकि वायु अब बिलकुल मुट्ठी में पकड़ी जा सकती है; ठंडी | की मैत्री के नष्ट होने में कौन-सी कठिनाई है! मैत्री नष्ट हो सकती करके पानी बनाई जा सकती है; बर्फ की तरह जमाई जा सकती है। है; बिलकुल नष्ट हो सकती है। अस्तित्व में फिर वह कहीं ढूंढ़े से उसे कोई आदमी हाथ में लेकर चल सकता है। न मिलेगी। पदार्थ की तुलना मन से देने में एक बुनियादी भूल हो गई। मन | ___ संबंध नष्ट हो सकते हैं, पदार्थ नष्ट नहीं होता। वायु पदार्थ है, तो सिर्फ विचार है। मन है क्या, इसे हम थोड़ा ठीक से समझ लें, | मन संबंध है। मन संबंध है शरीर और आत्मा के बीच। शरीर और तो बहुत साफ हो जाएगी बात। आत्मा के बीच जो दोस्ती है, उसका नाम मन है। शरीर और आत्मा 2381 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन का रूपांतरण - के बीच जो मैत्री हो गई है, उसका नाम मन है। शरीर और आत्मा | | है। उपमा में भूलें अक्सर हो जाती हैं। मन पदार्थ नहीं है, इसलिए के बीच जो राग है, उसका नाम मन है। शरीर और आत्मा के बीच | वायु जैसा नहीं है। इसलिए वायु तो किसी दिन पकड़ ली जाएगी, जो लेश्या है, उसका नाम मन है। शरीर और आत्मा के बीच जो | पकड़ ली गई; मन को किसी भी दिन नहीं पकड़ा जा सकेगा। संबंध संबंध है, रिलेशनशिप है, उसका नाम मन है। को पकड़ने का कोई उपाय नहीं है। इसीलिए विज्ञान मन को मानने निश्चित ही, यह संबंध शरीर की तरफ से आत्मा की तरफ नहीं तक को राजी नहीं है। उसका कारण है कि उसकी लेबोरेटरी में, हो सकता, क्योंकि शरीर जड़ है। अगर मैं अपनी कार को प्रेम करने उसकी प्रयोगशाला में कहीं भी मन पकड़ा नहीं जा सकता। लगता हूं, तो भी मैं यह नहीं कह सकता कि मेरी कार मुझे प्रेम एक आदमी को काटकर, विज्ञान सब तरफ से डिसेक्ट करके करती है। कार की तरफ से मेरी तरफ कोई प्रेम नहीं हो सकता। | खोज लेता है। हड्डी मिलती है, मांस मिलता है, मज्जा मिलती है, इकतरफा है; वन वे ट्रैफिक है। खून मिलता है, पानी मिलता है, लोहा, तांबा सब मिलता है। एक तो संबंध में भी एक बात खयाल रख लेना कि जब दो व्यक्तियों चीज नहीं मिलती, मन। इसलिए विज्ञान कहता है, हमने खोज के बीच मैत्री होती है, तो टू वे ट्रैफिक, डबल ट्रैफिक है। यहां से करके देख लिया, मन नहीं मिलता। और जो नहीं मिलता है, वह भी कुछ जाता है, वहां से भी कुछ आता है। लेकिन जब एक व्यक्ति | नहीं है। वही भूल तर्क की फिर हो रही है। क्योंकि जो नहीं मिलता, और एक वस्तु के बीच संबंध होता है, तो वन वे ट्रैफिक है। एक | | जरूरी नहीं है कि नहीं हो। हो सकता है, खोजने का ढंग ऐसा है ही तरफ से जाता है; दूसरी तरफ से कुछ आता नहीं। कि वह नहीं मिल सकता। तो संबंध भी यह इस तरह का है, जैसा कि एक व्यक्ति और अगर आपके हृदय की काट-पीट करके हम खोजें कि प्रेम है या वस्तु के बीच होता है; दो व्यक्तियों के बीच नहीं। एक तरफ चेतना नहीं; और न मिले-नहीं मिलेगा; अब तक नहीं मिला। कभी नहीं है भीतर, और दूसरी तरफ पदार्थ है शरीर। चेतना की तरफ से ही मिलेगा। फेफड़ा खोलकर पूरा देख लेंगे। फुफ्फुस मिलेगा, हवा यह संबंध है। को फेंकने का यंत्र मिलेगा। प्रेम-प्रेम नहीं मिलेगा। और ध्यान रहे, इकतरफा संबंध में एक सुविधा है, उसे तोड़ने | ___ इसलिए वैज्ञानिक कहते हैं कि फेफड़ा है, हृदय है ही नहीं। में सदा ही इकतरफा निर्णय काफी होता है। दो तरफा संबंध तोड़ने नाहक हृदय-हृदय की लोग बातें किए जा रहे हैं! एक कविता है में कठिनाई है। अगर मैं किसी व्यक्ति को प्रेम करूं, तो झंझट है हृदय, यह है नहीं। तोड़ते वक्त; क्योंकि दूसरी तरफ से भी कुछ लेन-देन हुआ है। लेकिन क्या आप मानने को राजी होंगे कि प्रेम नहीं है? सबका और जब तक दोनों राजी न हो जाएं तोड़ने को, तब तक तोड़ने में | अनुभव है कि है। मां जानती है कि है। बेटा जानता है कि है। मित्र कठिनाई है, अड़चन है। जानते हैं कि है। प्रेमी जानते हैं कि है। वस्तु के साथ संबंध तोड़ने में कोई भी अड़चन नहीं है, क्योंकि । अनुभव में सबके है प्रेम, लेकिन फिर भी प्रयोगशाला में सिद्ध इकतरफा है। मेरा ही निर्णय था कि संबंधित हूं। मेरा ही निर्णय है नहीं होगा। और अगर प्रयोगशाला के वैज्ञानिक से आपने जिद्द की, कि संबंधित नहीं है, बात समाप्त हो गई। वस्तु जाकर किसी तो आप ही गलत सिद्ध होंगे। असल में प्रयोगशाला जिन साधनों अदालत में मुकदमा नहीं करेगी कि यह आदमी मुझे डायवोर्स कर का उपयोग कर रही है, वे वस्तुओं के पकड़ने के साधन हैं, उनसे रहा है, कि यह तलाक मांगता है। वस्तु को कोई प्रयोजन नहीं है। संबंध पकड़ में नहीं आते। संबंध छूट जाते हैं। जब मेरा संबंध था, तब भी वस्तु का कोई संबंध मुझसे नहीं था। संबंध वस्तु नहीं है। और इसलिए संबंध की एक खूबी है कि इसलिए ध्यान रखें कि मन एक संबंध है, पहली बात, वस्तु | | संबंध बन सकता है और विनष्ट हो सकता है। संबंध शून्य से पैदा नहीं। दूसरी बात, मन इकतरफा संबंध है-चेतना का शरीर की होता है और शून्य में विलीन हो जाता है। तरफ; शरीर से चेतना की तरफ नहीं। शरीर की तरफ से चेतना की इस बात को ठीक से समझ लें। तरफ कोई संबंध की धारा ही नहीं है। सारी धारा चेतना से शरीर की वस्तु कभी भी पैदा नहीं होती; वस्तु सदा है। और कभी नष्ट तरफ है। नहीं होती; सदा है। न तो वस्तु का कोई सजन होता है और न कोई इसलिए अर्जुन जब कहता है, वायु जैसा है, तो कई भूलें करता विनाश होता है; सिर्फ रूपांतरण होता है। जो अभी पानी था, वह 239 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 बर्फ बन जाता है। जो बर्फ था, वह पानी बन जाता है। जो पानी था, शरीर की गर्दन काट दे। प्रेमी अपने को मार डाल सकता है। प्रेम वह भाप बन जाता है। जो अभी पहाड़ पर जमा था, वह समुद्र में | | इतना हो सकता है गहन कि शरीर को तोड़ दे, जीवन को नष्ट कर पिघलकर बह जाता है। जो अभी शरीर था, वह कल खाद बन दे। तो वह प्रेम नहीं है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। वह है तो है ही। जाता है। जो अभी खाद है, वह कल शरीर बन जाता है। जो अभी | और कभी-कभी तो जीवन से भी ज्यादा वजनी हो जाता है। लेकिन पौधे में बीज की तरह प्रकट हुआ है, वह कल आपका खून बन | वह है क्या? जाता है। जो अभी आपके भीतर खून है, कल जमीन में समाकर | | वह संबंध है, रिलेशनशिप है। संबंध की एक खूबी है कि वह फिर किसी बीज में प्रवेश कर जाएगा। सब रूपांतरण हैं; लेकिन खो सकता है; बन भी सकता है, मिट भी सकता है। . मूल नहीं खोता है। मूल थिर है। __इसलिए अर्जुन का यह खयाल कि वायु की तरह है यह मन, आइंस्टीन का खयाल स्वीकृत हुआ है, और वह यह कि इस | । ठीक नहीं है। उदाहरण करीब-करीब सूचक है, लेकिन ठीक नहीं जगत में जितनी वस्तु है, जितना मैटर है, वह सीमित है। क्योंकि है। प्रामाणिक नहीं है। जमता है, फिर भी बहुत गहरे में नहीं जमता उसमें नया नहीं जुड़ सकता और पुराना घट भी नहीं सकता। वह है। मन एक संबंध है। कितना ही विराट हो, लेकिन पदार्थ सीमित है। हम नाप पाएं कि न | | और यह भी बात अर्जुन की ठीक नहीं है-हम सबके मन में हैं नाप पाएं: हमारे नापने के साधन छोटे पड़ जाएं, लेकिन पदार्थ ये बातें, इसलिए मैं कह रहा हूं--यह भी बात अर्जुन की ठीक नहीं सीमित है, क्योंकि उसमें नया एडीशन नहीं हो सकता। एक पानी | | है कि इस मन को थिर नहीं किया जा सकता। क्योंकि एक और की बूंद ज्यादा नहीं जोड़ी जा सकती इस जगत में! | गहरे नियम की आपको मैं बात कर दं, जो भी चीज चंचल हो आप कहेंगे, हम हाइड्रोजन और आक्सीजन को मिलाकर पानी | सकती है, वह थिर हो सकती है। और जो चीज थिर नहीं हो सकती, बना सकते हैं। बिलकुल बना सकते हैं। लेकिन हाइड्रोजन | वह चंचल भी नहीं हो सकती। जो भी दौड़ सकता है, वह खड़ा हो आक्सीजन को ही मिलाकर बना सकते हैं। वह हाइड्रोजन सकता है। और जो खड़ा भी नहीं हो सकता, वह दौड़ भी नहीं आक्सीजन का एक रूप है। वह कोई नई घटना नहीं है। आज तक सकता। अगर आप दौड़ सकते हैं, तो आप खड़े हो सकते हैं। एक रेत का टुकड़ा भी हम नया नहीं बना सकते हैं। न बना सके हैं | दौड़ने की क्षमता साथ में ही खड़े होने की क्षमता भी है। भला आप और न बना सकेंगे। कभी खड़े न हुए हों, दौड़ते ही रहे हों, और अब ऐसी आदत बन पदार्थ जैसा है, है। जितना है, है। उतना ही है, उतना ही रहेगा। गई हो कि आपको खयाल ही न आता हो कि खड़े कैसे होंगे। बन लेकिन संबंध रोज नए बन सकते हैं, और रोज खो जा सकते हैं। जाता है। इस जमीन पर जितने लोग रहे हैं, उनके शरीरों में जितना था, मैंने सुना है कि एक आदमी पक्षाघात से, पैरालिसिस से परेशान वह सब अभी इस जमीन में मौजूद है; जमीन का वजन कम-ज्यादा है दस साल से। घर के भीतर बंद पड़ा है; उठ नहीं सकता। लेकिन नहीं होता। हम कितने ही लोग पैदा हों, मर जाएं, जमीन का वजन एक दिन रात, आधी रात अंधेरे में आग लग गई। सारे घर के लोग ही रहता है। हम जब जिंदा रहते हैं, तब भी उतना रहता है; बाहर निकल गए। वह पैरालिसिस से करीब-करीब मरा हुआ जब मर जाते हैं, तब भी जमीन का वजन उतना ही रहता है। हमारे आदमी, वह भी दौड़कर बाहर आ गया। जब वह दौड़कर बाहर शरीर में से कुछ खोता नहीं। हां, जमीन में गिर जाता है, रूप बदल | आया, तो लोग चकित हुए। वे तो हैरान थे कि अब क्या होगा, जाते हैं। उसको निकाला नहीं जा सकता। लेकिन जब उसको लोगों ने दौड़ते लेकिन हमारे संबंधों का क्या होता है? कोई प्रेम किया था। कोई देखा, तो मकान की आग तो भूल गए लोग। दस साल से वह फरिहाद किसी शीरी को प्रेम किया था। उस प्रेम का क्या हुआ? | आदमी हिला नहीं था, वह दौड़ रहा है। जब वह प्रेम चल रहा था, तब भी जमीन पर कोई चीज बढ़ी नहीं | | लोगों ने कहा, यह क्या हो रहा है। चमत्कार, मिरेकल! आप, थी, और जब वह प्रेम नहीं है, तब भी जमीन पर कोई चीज घटी और दौड़ रहे हैं। उस आदमी ने नीचे झांककर अपने पैर देखे। उसने नहीं है। वह प्रेम क्या था? वह चला है, यह निश्चित है। क्योंकि कहा, मैं दौड़ कैसे सकता हूं! वापस गिर गया। मैं दौड़ ही कैसे वह प्रेम इतना बड़ा भी हो जाता है कभी कि कोई अपने पदार्थगत | सकता हूं? दस साल से...! 2401 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन का रूपांतरण > लेकिन अब वह कितना ही कहे कि दौड़ नहीं सकता, लेकिन रूप है, गर्मी के साथ ही समाप्त हो जाएगी। वह दूसरा पोल है। वह खाट से मकान के बाहर आया है। फिर नहीं उठ सका वह अगर आप सोचते हों कि हम सब पुरुषों को समाप्त कर दें, तो आदमी। पर क्या हुआ क्या? इस बीच आ कैसे गया? दुनिया में स्त्रियां ही स्त्रियां रह जाएंगी, तो आप गलत सोचते हैं। वह जो एक कंडीशनिंग थी, एक खयाल था कि मैं उठ नहीं अगर सब पुरुषों को समाप्त कर दें, स्त्रियां तत्काल समाप्त हो सकता, चल नहीं सकता, आग के सदमे में भूल गया। बस, इतना जाएंगी। या सब स्त्रियों को समाप्त कर दें, तो पुरुष तत्काल समाप्त ही हुआ। एक शाक। ओर वह भूल गया परानी आदत। दौड़ पड़ा। | हो जाएंगे। वे पोलर हैं। वे एक-दूसरे के छोर हैं। एक ही साथ हो सौ में से नब्बे पक्षाघात के बीमार मानसिक आदत से बीमार हैं।। सकते हैं, अन्यथा नहीं हो सकते। सौ में से नब्बे! शरीर में कहीं कोई खराबी नहीं है। सौ में से नब्बे, क्या आप सोचते हैं, इस दुनिया में हम शत्रुता समाप्त कर दें, मैं कह रहा है। लेकिन एक आदत है। तो मित्रता ही बचेगी? तो आप गलत सोचते हैं। हालांकि बहुत और मन के मामले में तो सौ में से सौ दौड़ने के बीमार हैं। लोग इसी तरह सोचते हैं कि दुनिया से शत्रुता समाप्त कर दो, तो पक्षाघात से उलटा। इतने जन्मों से मन को दौड़ा रहे हैं कि अब यह मित्रता ही मित्रता बच जाएगी! उन्हें कोई पता नहीं है अस्तित्व के सोच में भी नहीं आता कि मन खड़ा हो सकता है ? नहीं हो सकता। नियमों का। जिस दिन दुनिया से शत्रुता समाप्त होगी, उसी दिन कौन कहता है, नहीं हो सकता? यह मन ही कह रहा है। मित्रता समाप्त हो जाएगी। मित्रता जीती है शत्रुता के साथ। - तो अर्जुन जो सवाल पूछ रहा है, वह अगर ठीक से हम समझें, | दुनियाभर के शांतिवादी हैं, वे कहते हैं कि दुनिया से युद्ध बंद तो अर्जुन नहीं पूछ रहा है। अर्जुन अभी है भी नहीं, पूछेगा कैसे! । कर दो, तो शांति ही शांति हो जाएगी। वे गलत कहते हैं। उन्हें मन ही पूछ रहा है। मन ही कह रहा है कि मैं कभी खड़ा नहीं हो जीवन के नियम का कोई पता नहीं है। अगर आप युद्ध समाप्त करते सकता। मैं कभी खड़ा हुआ ही नहीं। मैं सदा चलता ही रहा। दौड़ना | | हैं, उसी दिन शांति भी समाप्त हो जाएगी। पोलर है। अस्तित्व मेरी प्रकृति है। चंचलता मेरा स्वभाव है। मैं चंचलता ही हूं; मैं खड़ा एक-दूसरे से बंधा है, विपरीत से बंधा है। नहीं हो सकता। ऊपर से सोचने में ऐसा लगता है कि ठीक है, पुरुष को समाप्त लेकिन ध्यान रहे, इस जगत में प्रत्येक शक्ति अपनी विपरीत करने से...हम सब पुरुषों की छाती में छुरा भोंक दें। तो स्त्रियों की शक्ति से जुड़ी होती है। जो जीएगा, वह मरेगा। जीने के साथ मरना छाती में तो छुरा भोंक ही नहीं रहे, तो वे तो बचेंगी ही! पर आपको जुड़ा रहता है। यहां कोई भी शक्ति अकेली पैदा नहीं होती, | पता ही नहीं है। वे तत्काल विनष्ट हो जाएंगी। इधर पुरुष समाप्त पोलेरिटी में पैदा होती है। अस्तित्व पोलर है, ध्रुवीय है। यहां हर होंगे, उधर स्त्रियां कुम्हलाएंगी, सूखेंगी और विदा हो जाएंगी। जिस चीज अपने विपरीत से जुड़ी है, विपरीत के बिना अस्तित्व में नहीं | दिन आखिरी पुरुष समाप्त होगा, उस दिन आखिरी स्त्री मर जाएगी। हो सकती। . अस्तित्व पोलर है, ध्रुवीय है। हर चीज अपने विपरीत के साथ __ अगर हम दुनिया से प्रकाश समाप्त कर दें, तो आप सोचते होंगे, जुड़ी है। अंधेरा ही अंधेरा रह जाएगा। आप गलत सोचते हैं। अगर हम इसलिए अर्जुन का यह कहना कि मन चंचल है, इसलिए ठहर दुनिया से प्रकाश समाप्त कर दें, अंधेरा तत्काल समाप्त हो जाएगा। | नहीं सकता, गलत है। चंचल है, इसीलिए ठहर सकता है। चंचल आप कहेंगे, फिर क्या होगा? कुछ भी हो, अंधेरा नहीं हो सकता। | है, इसीलिए ठहर सकता है। अगर जीवन के नियम का बोध हो, हां, बात असल यह है कि प्रकाश आप समाप्त न कर पाएंगे। | तो कहना था ऐसा कि मन का स्वभाव चूंकि चंचल है, हे मधुसूदन, इसलिए पता करना मुश्किल है। प्रकाश और अंधेरा संयुक्त | इसलिए मेरी बात समझ में आ गई। मन ठहर सकता है। अस्तित्व हैं। यह ठीक नियमयुक्त बात होती, लेकिन बड़ी एब्सर्ड। अगर और आसान होगा समझना, अगर दुनिया से हम गर्मी समाप्त | अर्जुन ऐसा कहता कि मन चंचल है, इसलिए मैं समझ गया कि कर दें, तो क्या आप सोचते हैं, सर्दी बच रहेगी? ऊपर से तो ऐसे | ठहर सकता है, तो हमें भी बड़ी दिक्कत पड़ती गीता समझने में। ही दिखाई पड़ता है कि गर्मी बिलकुल समाप्त हो जाएगी, तो हम कहते, यह अर्जुन कैसा पागल है! जब मन चंचल है, तो एकदम ठंडक हो जाएगी दुनिया में। लेकिन ठंडक गर्मी का एक ठहरेगा कैसे? 241 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 > तो यह तो हमें, यह सिलोजिज्म, यह तर्क- वाक्य तो ठीक मालूम पड़ता है कि मन चंचल है, मधुसूदन, इसलिए, देअर फोर, ठहर नहीं सकता। यह तो बिलकुल तर्कयुक्त मालूम पड़ता है। लेकिन मैं आपसे कहता हूं, यह तर्कयुक्त है, लेकिन सत्य नहीं है। सत्य वचन तो यह होगा कि चूंकि मन चंचल है, मधुसूदन, इसलिए, देअरफोर, ठहर सकता है। यह सत्य होगा। क्योंकि आदमी जीवित है, इसलिए मर सकता है। अगर आपने कहा, चूंकि आदमी जीवित है, इसलिए नहीं मर सकता, तो गलत होगा। अगर आपने कहा कि आदमी स्वस्थ है, इसलिए बीमार नहीं पड़ सकता, तो गलत है। अगर आप कहें कि आदमी स्वस्थ है, इसलिए बीमार पड़ सकता है, तो ठीक है। असल में स्वस्थ आदमी ही बीमार पड़ता है। अगर आप इतने बीमार हो जाएं कि डाक्टर कह दे, स्वास्थ्य रत्तीभर नहीं बचा, फिर आप बीमार न पड़ सकेंगे, ध्यान रखना । मरा हुआ आदमी कभी बीमार पड़ते देखा है आपने? आप कह सकते हैं कि यह मुर्दा बीमार पड़ गया ? मुर्दा बीमार पड़ता ही नहीं। पड़ ही नहीं सकता। जिंदा ही बीमार पड़ सकता है। स्वास्थ्य हो, तो ही आप बीमार पड़ सकते हैं। असल में बीमारी का पता ही इसलिए चलता है कि स्वास्थ्य का भी पता चलता है। यह पोलर है, यह ध्रुवीय है। पर अर्जुन को इस सत्य का कोई बोध नहीं है। हम जैसा ही उसका मन है। जिस तर्क-विधि से हम चलते हैं, उसी तर्क-विधि से वह चलता है। हम कहते हैं कि फलां व्यक्ति से मेरा इतना प्रेम है कि कभी झगड़ा नहीं होगा। बस, हम गलत बातों में पड़ गए। जिससे प्रेम है, उससे झगड़ा होगा। पोलर हैं। जब आपका किसी से प्रेम हो, तो आप समझ लेना कि आप झगड़े का एक नाता स्थापित कर रहे हैं। लेकिन हमारा तर्क नहीं है ऐसा। हम कहते हैं, मेरा इतना प्रेम है कि झगड़ा कभी नहीं होगा। बस, मूढ़ता में पड़े आप। आपको जिंदगी की पोलेरिटी का कोई पता नहीं है। जिससे जितना ज्यादा प्रेम है, उससे उतनी ही कलह की संभावना है। अगर कलह से बचना हो, तो कृपा करके प्रेम से बच जाना। और आप सोचते हों कि प्रेम-प्रेम हम सम्हाल लेंगे, और कलह कलह से बच जाएंगे, तो आप निपट अंधकार में हो। आपको जिंदगी में यह कभी भी रास्ते पर नहीं लाएगी बात । जिसको शत्रुता बचना हो, उसको मित्रता से बच जाना चाहिए। लेकिन हम करते हैं कोशिश कि मित्र बना लें, ताकि शत्रुता से बच जाएं। प्रेम फैला दें, ताकि संघर्ष न हो। अपना बना लें, | ताकि कोई पराया न रहे। जो जितना गहरा आपका अपना है, उससे आपको उतने ही पराएपन के क्षण उपलब्ध होंगे। जो आपके जितना | निकट है, किन्हीं क्षणों में वह आपको इस पृथ्वी पर सर्वाधिक दूर | मालूम पड़ेगा। मगर यह जीवन का गहरा नियम है, जो हमारे सामान्य हिसाब में नहीं आता। और इसलिए हम जिंदगीभर गलती किए चले जाते हैं। जिंदगीभर गलती किए चले जाते हैं। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि मेरा तो मेरी पत्नी से इतना प्रेम है, फिर कलह क्यों होती है? मैं कहता हूं, इसीलिए। और तो कोई कारण नहीं है। अभी एक मौका आया। कोई आठ साल पहले एक महिला ने मुझे आकर कहा था कि मेरे पति से बहुत कलह होती है। और मेरा प्रेम इतना है ! मेरा यह प्रेम-विवाह है, और हमने जी-जान लगाकर यह शादी की है। न मेरे घर के लोग पक्ष में न उस घर के लोग पक्ष में थे। और जब तक हम घर के लोगों से लड़ रहे थें, तब तक ही हमारा प्रेम रहा। और जब से हमने शादी की, तब से हम दोनों लड़ रहे हैं ! इतना प्रेम था कि हम जीवन देने को तैयार थे, और अब हालत ऐसी है कि एक साथ बैठना मुश्किल हो गया है। बात क्य है? मैंने कहा, यही बात है। इतना प्रेम होगा, तो यही फल होगा। . फिर आठ साल बाद वह महिला मुझे मिली। मैंने उससे पूछा, | कहो, कलह कैसी चल रही है? उसने कहा, कलह ! कलह अब बिलकुल नहीं चलती, क्योंकि प्रेम ही नहीं रहा। अब कलह भी नहीं चलती। उसने शब्द मुझे कहे, वे बहुत ठीक थे। उसने कहा, अब कलह भी नहीं चलती है। अब तो कोई संबंध ही नहीं रहा । बात ही शांत हो गई। प्रेम ही नहीं बचा; अब कलह भी नहीं बची ! जितना हम मन के भीतर जाएंगे या जीवन के भीतर जाएंगे, उतना इस विरोधी तत्व को पाएंगे। रिपल्शन और अट्रैक्शन, विकर्षण और आकर्षण एक साथ हैं। राग और विराग एक साथ हैं। विरोध साथ में खड़े हैं। इसलिए अर्जुन लगता है कि ठीक पूछ रहा है; ठीक नहीं पूछ | रहा है | और अर्जुन को यह भी खयाल नहीं है कि कृष्ण जो कह रहे हैं, वह कोई सिद्धांत नहीं कह रहे हैं। अगर कृष्ण कोई सिद्धांत कह | रहे हैं, तो अर्जुन कृष्ण को हरा देगा। अगर कृष्ण कोई सिद्धांत कह रहे हैं, तो अर्जुन कृष्ण को हरा देगा। क्योंकि सिद्धांत के माध्यम से मन को हल करने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि सब सिद्धांत मन की संततियां हैं। सिद्धांत के द्वारा मन को हराने का कोई उपाय नहीं 242 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 मन का रूपांतरण → है, क्योंकि सब सिद्धांत मन ही पैदा करता है और निर्मित करता है। | की टीका नहीं है। उसका कारण है। क्योंकि जो भी टीका निकाल अभी मैं एक महानगर में था। एक पंडित, बड़े सज्जन, भले रहा है, उसका सिद्धांत पहले से तय है, गीता को जानने के पहले आदमी। एक ही बुराई, कि पंडित। वे मुझे मिलने आए। मैंने उनसे | से तय है। और अपने सिद्धांत को वह गीता पर थोप देता है। जब पूछा, क्या कर रहे हैं आप जिंदगीभर से? उन्होंने कहा कि मेरा तो | कि कृष्ण का कोई सिद्धांत नहीं है। कृष्ण का कुछ सत्य जरूर है। एक ही काम है कि मैं जैन साधु-साध्वियों को सिद्धांत की शिक्षा और वह उस सत्य तक पहुंचाने के लिए किसी भी सिद्धांत का देता हूं। मैंने कहा, कितनों को दिया? उन्होंने कहा, सैकड़ों जैन | उपयोग कर सकते हैं। इसलिए वे भक्ति की भी बात करते हैं, ज्ञान साधु-साध्वियों को मैंने निष्णात किया है। शास्त्र का बोध दिया है। की भी, कर्म की भी, ध्यान की भी, योग की भी। वे सारी बात करते मैंने कहा, इतने सैकड़ों जैन साधु-साध्वी आपने बना दिए, लेकिन चले जाते हैं। ये सब सिद्धांत सिद्धांत की तरह विरोधी हैं, सत्य की आप अब तक साधु नहीं हुए? उन्होंने कहा, मैं तो नौकरी बजाता तरह अविरोधी हैं। सत्य की तरह कोई विरोध नहीं है, लेकिन हं। मैंने कहा, तो कभी सोचा कि नौकरी बजाने वाला पंडित जिन सिद्धांत की तरह भारी विरोध है। साधु-साध्वियों को पैदा किया होगा, वे किस हालत के होंगे? | इसलिए गीता पर जितना अनाचार हुआ है, ऐसा अनाचार किसी नौकर से भी गए-बीते होंगे! कितनी महीने की तनख्वाह मिलती है! | पुस्तक पर पृथ्वी पर नहीं हुआ है। क्योंकि एक सिद्धांत को मानने वे कहने लगे, ज्यादा नहीं देते। पैसा तो जैनियों पर बहुत है, लेकिन | वाला जब गीता की व्याख्या करता है, तो वह अपने सिद्धांत को डेढ़ सौ रुपए महीने से ज्यादा नहीं देते! मैंने कहा, तुमने जो सब सिद्धांतों की गर्दन काटकर गीता पर थोप देता है। एक गर्दन साधु-साध्वी पैदा किए, उनकी कीमत कितनी होगी? डेढ़ सौ रुपए | बचा लेता है। जो उसके सिद्धांत से कहीं मिलता है, उसको बचा महीने का मास्टर साधु-साध्वी पैदा कर रहा है। सिद्धांत की शिक्षा | लेता है। बाकी सब की गर्दन कलम कर देता है। गीता की हत्या हो दे रहा है! जाती है। मैंने कहा, जिन सिद्धांतों को तुम लोगों को समझाते हो, उनके गीता सिद्धांतवादी शास्त्र नहीं है, गीता एक सत्य की उदघोषणा सत्य का तुम्हें खुद कोई अनुभव नहीं हुआ? उसने कहा कि | है। सिद्धांत का मोह नहीं है। इसलिए विपरीत सिद्धांतों की एक बिलकुल नहीं। मैं तो अपने डेढ़ सौ रुपए के लिए करता हूं। साथ चर्चा है-एक साथ। गीता तर्क का शास्त्र नहीं है। अगर तर्क अगर अर्जुन किसी पंडित के पास होता, तो पंडित को हरा देता। का शास्त्र होता, तो कंसिस्टेंट होता, एक संगति होती उसमें। क्योंकि अर्जुन जो कह रहा है, वे जीवन की गहराइयां हैं। हमारी | गीता जीवन का शास्त्र है। जितना विरोधी जीवन है, उतनी ही ऐसी उलझन है। लेकिन कृष्ण के साथ कठिनाई है, क्योंकि कृष्ण विरोधी गीता है। जितना जीवन पोलर है, स्वविरोधी है, उतने ही कोई सिद्धांत की बात नहीं कर रहे, सत्य की बात कर रहे हैं। गीता के वक्तव्य स्वविरोधी हैं। इसलिए अर्जुन कितनी ही कठिनाइयां उठाए, वे सत्य के सामने और कृष्ण से ज्यादा तरल आदमी, लिक्विड आदमी खोजना एक-एक जड़ सहित उखड़कर गिरती चली जाएंगी। उसने उचित कठिन है। वे कहीं भी बह सकते हैं। पत्थर की तरह नहीं हैं कि बैठ कठिनाई उठाई है। मनुष्य की वह कठिनाई है। मनुष्य के मन की गए एक जगह। पानी की तरह बह सकते हैं। या और भी उचित कठिनाई है। लेकिन जिस आदमी के सामने उठाई है. उसे सिद्धांतों होगा कि भाप की तरह हैं। बादल की तरह कोई : में कोई रस नहीं है। हैं। कोई ढांचा नहीं है। इसीलिए गीता में एक अभूतपूर्व घटना घटी है कि गीता में कृष्ण __इसलिए अर्जुन दिक्कत में पड़ता जाता है। अपनी ही शंकाएं ने इतने सिद्धांतों का उपयोग किया है कि दुनिया में जितने सिद्धांत | उठाकर दिक्कत में पड़ता जाता है। क्योंकि उसकी प्रत्येक शंका हो सकते हैं, करीब-करीब सबका। और इसलिए सभी सिद्धांतवादी | उसके मन की सूचना देती है कि वह कहां खड़ा है। इस प्रश्न ने पंडितों को गीता बड़े काम की मालूम पड़ी है, क्योंकि सब अपने अर्जुन की स्थिति को बहुत साफ किया है। मतलब की बात गीता से निकाल सकते हैं। इसीलिए तो गीता पर | । अर्जुन को मन के ऊपर किसी चीज का उसे कोई अनुभव नहीं है। इतनी टीकाएं हो सकी हैं। एकदम एक-दूसरे से विरोधी! | तर्क-बुद्धि उसके पास गहरी है। सोचता-समझता है, लेकिन भाव लेकिन उन टीकाओं में एक भी कृष्ण को समझने की सामर्थ्य के जगत में उसका कोई प्रवेश नहीं है। नियम की बात करता है, 243 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 लेकिन गहरे, अल्टिमेट नियम का उसे कोई भी अहसास नहीं है। अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते । । ३५ ।। इस वक्तव्य ने अर्जुन के अर्जुन की स्थिति बहुत साफ की है। हे महाबाहो, निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में और कृष्ण के लिए अब उसकी स्थिति को हल करना प्रतिपल होने वाला है, परंतु हे कुंतीपुत्र अर्जुन, अभ्यास अर्थात आसान होता चला जाएगा। सबसे बड़ी कठिनाई यह है, वह स्थिति के लिए बारंबार यत्न करने से और वैराग्य से कठिनाई है, डायग्नोसिस की, निदान की। और जहां तक शरीर की वश में होता है। डायग्नोसिस, बीमारियों का पता लगाने का सवाल है, हम उपाय कर सकते हैं। लेकिन जहां तक मन की बीमारियों का सवाल है, उनको कन्फेस करवाना पड़ता है। और कोई उपाय नहीं है। उनको कष्ण ने अर्जुन की मनोदशा को देखकर कहा, निश्चय बीमार से ही स्वीकृति दिलवानी पड़ती है। y० ही अर्जुन, मन बड़ी मुश्किल से वश में होने वाला है। फ्रायड एक काम करता रहा है—करीब-करीब कृष्ण वही काम - यह जो कहा, निश्चय ही, यह मनुष्य के मन की स्थिति कर रहे हैं— फ्रायड एक काम करता रहा है, और फ्रायड के पीछे के लिए कहा है। निश्चय ही, जैसा मनुष्य है, ऐज वी आर, जैसे चलने वाले मनसविदों का जो समूह है, साइकोएनालिस्ट्स का, वे हम हैं; हमें देखकर, निश्चय ही मन बड़ी मुश्किल से वश में होने भी एक काम करते रहे हैं। वे मरीज को पर्दे के पीछे एक कोच पर | वाला है। जैसा आदमी है, अगर हम उसे वैसा ही स्वीकार करें, तो लिटा देते हैं। और उससे कहते हैं, जो तुझे बोलना है बोल। कुछ | शायद मन वश में होने वाला ही नहीं है। भी छिपाना मत, जो तेरे मन में आए, बोलते जाना। कभी वह गीत लेकिन-और उस लेकिन में गीता का सारा सार छिपा हैगाता है। कभी गालियां बकता है। कभी भजन बोलने लगता है। लेकिन अर्जुन, अभ्यास और वैराग्य से मन वश में हो जाता है। जो तेरे मन आए, बस मन में आए, उसको तू शब्द देते जाना। तू | जैसा मनुष्य है, अगर हम उसे अनछुआ, वैसा ही रहने दें, और यह भी मत फिक्र करना कि वह ठीक है कि गलत। चाहें कि मन वश में हो जाए, तो मन वश में नहीं होता है। क्योंकि पर्दे के पीछे छिपा हुआ मनोवैज्ञानिक बैठा रहता है। वह आदमी | जैसा मनुष्य है, वह सिर्फ मन ही है। मन के पार उसमें कुछ भी नहीं पर्दे के पार अनर्गल—हमें अनर्गल दिखाई पड़ता है बाहर से, | है। मन के पार उसका कोई भी अनुभव नहीं है। मन को वश में उसके भीतर तो उसकी भी संगति है—वह बोलता चला जाता है। करने की कोई भी कीमिया, कोई भी तरकीब उसके हाथ में नहीं है। जैसा हम सब अंदर बोलते रहते हैं, अगर जोर से बोल दें, बस वैसे | लेकिन-और लेकिन बहुत महत्वपूर्ण है; और ये दो शब्द, ही। वह बोलता चला जाता है। अभ्यास और वैराग्य गीता के प्राण हैं लेकिन अभ्यास और एक-दो दिन, तीन दिन तो थोड़ा रोकता है, कोई-कोई बात छिपा | | वैराग्य से मन वश में हो जाता है। अभ्यास और वैराग्य का आधार जाता है। लगता है कि नहीं बोलनी चाहिए, तो छिपा लेता है। आपको समझा दूं, फिर हम अभ्यास और वैराग्य को समझेंगे। लेकिन तीन-चार दिन में वह धीरे-धीरे राजी हो जाता है, हल्का हो ___ अभ्यास और वैराग्य का पहला आधार तो यह है कि मनुष्य जाता है, बहने लगता है, और बोलने लगता है। फिर मनोवैज्ञानिक | जैसा है, उससे अन्यथा हो सकता है। पीछे बैठकर खोज करता रहता है कि उसके मन का सार मिल जाए। - मन की बात ही नहीं कर रहे वे। वे कह रहे हैं, मन को छोड़ो। कृष्ण भी अर्जुन से ऐसी बातें कह रहे हैं कि अर्जुन के मन का तुम जैसे हो, ऐसे में मन वश में नहीं होगा। पहले हम तुम्हें ही थोड़ा सार मिल जाए। अर्जुन का मन साफ प्रकट हो जाए। इस वक्तव्य बदल लें। पहले हम तुम्हें ही थोड़ा बदल लें, फिर मन वश में हो में अर्जुन के मन का सार साफ हुआ है, अर्जुन के मन का निदान | | जाएगा। अभ्यास और वैराग्य इस बात की घोषणा है कि मनुष्य हुआ है। अब कृष्ण चिकित्सा में ज्यादा व्यवस्था से लग सकते हैं। | जैसा है, उससे अन्यथा भी हो सकता है। मनुष्य जैसा है, उससे | भिन्न भी हो सकता है। मनुष्य जैसा है, वैसा होना एकमात्र विकल्प | नहीं है, और विकल्प भी हैं। हम जैसे हैं, यह हमारी एकमात्र स्थिति श्रीभगवानुवाच | नहीं है, और स्थितियां भी हमारी हो सकती हैं। असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् । अगर हम एक बच्चे को जंगल में छोड़ दें पैदा हो तब, तो क्या 244| Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन का रूपांतरण - आप सोचते हैं, वह बच्चा कभी भी मनुष्य की कोई भी भाषा बोल | | हैरान होंगे! आप कहेंगे, क्रोध! क्रोध तो हर मनुष्य करता है। पाएगा! कोई भाषा नहीं बोल पाएगा। ऐसा नहीं कि वह आपके घर आपको सब मनुष्यों का पता नहीं है। में पैदा हुआ था, तो गुजराती बोलेगा जंगल में! कि हिंदुस्तान की | | ऐसे कबीले हैं आज भी आदिवासियों के, जो क्रोध करना नहीं जमीन पर पैदा हुआ था, तो हिंदी बोलेगा। कि अंग्रेज के घर में पैदा | जानते। क्योंकि क्रोध भी अभ्यास से आता है; अचानक नहीं आ हुआ था, तो अंग्रेजी बोलेगा। नहीं, वह कोई भाषा नहीं बोलेगा। जाता। बाप कर रहा है, मां कर रही है, घर भर क्रोध कर रहा है, शायद आप सोचते होंगे, वह कोई नई भाषा बोलेगा। वह नई भाषा और तख्ती भी लगी है कि क्रोध करना पाप है घर में। और सब चल भी नहीं बोलेगा। वह भाषा ही नहीं बोलेगा। रहा है। वह बच्चा सीख रहा है, वह कंडीशन हो रहा है। वह जवान उन्नीस सौ बीस में बंगाल में दो बच्चियां पकड़ी गईं, जिनको होकर बच्चा कहेगा कि ऐसा हो ही कैसे सकता है कि आदमी क्रोध भेड़िए उठाकर ले गए थे और उन्होंने उनको बड़ा कर लिया। भेड़िए न करे! तो यह सिखावन है। बच्चा तो एक तरल चीज थी। आपने शौकीन हैं। और कई दफे दुनिया में कई जगह उन्होंने यह काम | | उसे एक दिशा में ढाल दिया। कठिनाई हो गई। वह अड़चन हो गई। किया है। बच्चों को उठा ले जाते हैं, फिर उनको पाल लेते हैं। एक ऐसे कबीले हैं, जिनमें संपत्ति का कोई मोह नहीं है; कोई मोह बच्ची ग्यारह साल की थी और एक तेरह साल की थी, जब वे नहीं है। संपत्ति का मोह ही नहीं है। अभी एक छोटे-से कबीले की पकड़ी गईं। और पहली दफा हैरानी हुई, वे कोई भाषा नहीं बोलती | खोज हुई, तो बड़े चकित हो गए लोग, उस कबीले में संपत्ति की थीं। भाषा की तो बात दूसरी है, वे दो पैर से खड़ी भी नहीं हो सकती | | मालकियत का खयाल ही नहीं है। किसी आदमी को यह खयाल थीं। वे चारों हाथ-पैर से ही चलती थीं। नहीं है कि यह मेरी जमीन है। किसी को खयाल नहीं है कि यह मेरा अभी कुछ दिन पहले, पांच-सात वर्ष पहले यू.पी. में एक बच्चा | मकान है। पकड़ा गया जंगल में, वह भी भेड़ियों ने पाल लिया था। वह कोई लेकिन कबीले का पूरा ढंग और है कंडीशनिंग का। कोई अपना चौदह साल का था, वह भी कोई भाषा नहीं बोल सकता था। उसका मकान नहीं बनाता, सारा गांव मिलकर उसका मकान बनाता है। नाम रख लिया था राम, पकड़ने के बाद। छ: महीने कोशिश करके जब भी गांव में एक नए मकान की जरूरत पड़ती है, पूरा गांव बामुश्किल उससे राम निकलवाया जा सका कि वह राम कह सके। | मिलकर एक मकान बनाता है। गांव में कोई नया आदमी रहने आ लेकिन छः महीने में वह मर गया। और चिकित्सक कहते हैं कि वह जाता है, तो पूरा गांव एक मकान बना देता है। वह आदमी उसमें राम कहलवाने की कोशिश ही उसकी जान लेने वाली सिद्ध हुई। रहने लगता है। पूरा गांव घर-घर से चीजें देकर उसके घर को जमा चौदह साल का बच्चा एक शब्द नहीं बोलता था। क्या हुआ? देता है पूरा। वह घर का उपयोग करने लगता है। चारों हाथ-पैर से चलता था। छः महीने मसाज कर-करके उसको उस कबीले में खयाल ही नहीं है प्राइवेट ओनरशिप का, कि बामुश्किल खड़ा कर पाए। नहीं तो रीढ़ उसकी सीधी नहीं होती थी, व्यक्तिगत संपत्ति भी कोई चीज होती है। आप उस कबीले में फिक्स्ड हो गई थी। चार हाथ-पैर से वह भेड़ियों की तेजी से दौड़ता कम्युनिज्म न फैला सकेंगे। क्योंकि कम्युनिज्म पोलेरिटी है। था। लेकिन खड़ा करके वह ऐसा चलता था कि रत्ती-रत्ती मुश्किल | व्यक्तिगत संपत्ति हो, तो कम्युनिज्म का खयाल पैदा हो सकता है; हो गया। क्या हो गया? नहीं तो पैदा नहीं हो सकता। उस कबीले में आप किसी को आदमी वही हो जाता है, जिस आयाम में उसका अभ्यास करवा | नक्सलाइट नहीं बना सकते हैं। कोई उपाय नहीं है। उस कबीले में दिया जाता है; वही हो जाता है। वह भेड़िए के साथ रहा, भेड़िए | | किसी को खयाल ही नहीं है कि वस्तु और व्यक्ति में कोई संबंध का अभ्यास हो गया। अभ्यास कर लिया, वही हो गया। | मालकियत का होता है। आदमी एक अनंत संभावना है, इनफिनिट पासिबिलिटी। हम जो और हम मरे जाते हैं अपरिग्रह का सिद्धांत दोहरा-दोहराकर। हो गए हैं, वह हमारी एक पासिबिलिटी है सिर्फ। वह हमारी एक वह कुछ हल होता नहीं। अपरिग्रही से अपरिग्रही भी...अब संभावना है, जो हम हो गए हैं। अगर हम दुनिया की मनुष्य जातियों दिगंबर जैन मुनि नग्न रहते हैं। को भी देखें, तो हमको पता चलेगा कि अनंत संभावनाएं हैं। दो दिगंबर जैन मुनि शिखरजी के पास के वन में झगड़ पड़े। अब ऐसे कबीले हैं आज भी, जो क्रोध करना नहीं जानते हैं। आप झगड़ा लोग कहते हैं कि या तो स्त्री के कारण होता है या धन के |245 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 कारण। न उनके पास स्त्री है, न धन है, जहां तक जानकारी है। विधियां, मेथड्स। और आप जैसे हैं, वह भी किन्हीं विधियों के झगड़ा हो गया, तो जो पिच्छी वगैरह रखते हैं साथ में, उससे कारण हैं, अपने कारण नहीं। अगर आप गुजराती बोलते हैं, तो एक-दूसरे की खोपड़ी पर हमला बोल दिया। लोगों ने, गांव वालों सिर्फ इसलिए कि गुजराती का अभ्यास करवा दिया गया है। और ने आकर छुड़ाया। पुलिस भी आ गई। और तब बड़ी हैरानी हुई कि कोई कारण नहीं है। आप अंग्रेजी बोल सकेंगे, अगर अंग्रेजी का वह जो पिच्छी का डंडा था, उसमें सौ-सौ के नोट अंदर भरे हुए अभ्यास करवा दिया जा सके। कोई अड़चन नहीं है। थे। उसी पर झगड़ा हो गया था। वह बंटवारे में झगड़ा हो गया था। जो भी आप हैं, वह अभ्यास का फल है। लेकिन अभी जो गए थे शौच को जंगल में, लेकिन वह बंटवारे में झगड़ा हो गया! अभ्यास करवाया है, वह समाज ने करवाया है। और समाज बीमारों पुलिस थाने ले गई। आस-पास के गांव के जैनी हाथ-पैर का समूह है। अभी जो अभ्यास करवाया है, वह भीड़ ने करवाया जोड़कर उनको छुड़वाए, कि हमारी इज्जत का खयाल करो। कोई है। और भीड़ मनुष्य की निम्नतम अवस्था है। इसलिए आप उस क्या कहेगा! दिगंबर मुनि हैं! चर्चा बंद करो। रिश्वत खिलाई-मुनि भीड़ के एक हिस्से हैं। अभी आप हैं नहीं। अभी आप जो भी हैं, को छुड़ाने के लिए। वह भीड़ का ही हिस्सा हैं। और भीड़ ने जो करवा दिया है, वह बड़े आश्चर्य की बात है, एक आदमी नग्न खड़ा होने की हिम्मत आप हैं। जुटा पाया, तो पिच्छी में रुपए के बंडल रखे हुए है! कंडीशनिंग है। अभ्यास का अर्थ है, व्यक्तिगत चेष्टा उस दिशा में, जहां आप कंडीशनिंग भारी है। मगर यह एक रूप ही है। यह अनिवार्य नहीं नए हो सकें, जहां आप भिन्न हो सकें। है। ऐसे रूप आदमी के हैं, जहां उनको पता भी नहीं है। ___ यह मन की धारा, जो बहुत चंचल दिखाई पड़ती है, वह चंचल अब यहां हम सोचते हैं। जिस ढंग से हम सोचते हैं, वह एक | | इसीलिए है कि पूरी व्यवस्था उसे चंचल कर रही है। विकल्प है। यह मैंने इसलिए उदाहरण के लिए आपको कहा कि हमारी हालत करीब-करीब ऐसी है कि मैंने सुना है, एक कुत्ते अन्य विकल्प सदा हैं। के मन में खयाल आ गया कि वह दिल्ली चला जाए। सारी दुनिया अभ्यास का मूल आधार यह है कि आप जैसे हैं, उससे अन्यथा | दिल्ली जा रही थी। उसने सोचा कि कुत्ते क्यों पीछे रह जाएं। और हो सकते हैं। अभ्यास का अर्थ है, ऐसी विधि, जो आपको अन्यथा जब सभी दिल्ली पहुंच जाएंगे, तो कुत्तों के अधिकारों का क्या कर देगी। अब जैसे एक आदमी है, वह कहता है कि मेरे हाथ में | | होगा? फिर वह कुत्ता कोई छोटा-मोटा कुत्ता भी नहीं था, एक बहुत तकलीफ है, आपरेशन करवाना है। आपरेशन आप करिएगा, | एम.पी. का कुत्ता था। नेता का कुत्ता था। दिन-रात दिल्ली जाओ, तो मैं न करवा पाऊंगा, मैं हाथ को खींच लूंगा। इतनी तकलीफ | दिल्ली आओ की बात सुनाई पड़ती थी। दिल्ली जाने की विधियां होगी। हम कहते हैं, कोई फिक्र नहीं। हम तुम्हें अनस्थेसिया दे देंगे, और उपाय और सीढ़ियां ईजाद किए जाते थे; आदमियों के कंधों पहले बेहोशी की दवा दे देंगे, फिर आपरेशन कर लेंगे। फिर तुम्हें पर कैसे चढ़ो, लोगों की आंखों में धूल कैसे झोंको, सब उसने सुन तकलीफ न होगी। लिया था। वह ठीक ट्रेंड हो गया था। अर्जुन कहता है, मन बड़ा चंचल है। कृष्ण कहते हैं, बिलकुल एक दिन उसने अपने गुरु को कहा-गुरु, मालिक जो उसका ठीक कहते हो। हम पहले अभ्यास करवा देंगे। फिर मन चंचल न | | एम.पी. था-कहा कि अब बहुत देर हुई जा रही है। अब मुझे रहेगा। हम पहले तुम्हें बदल देंगे। हम सारी स्थिति बदल देंगे। । आशीर्वाद दें, मैं भी दिल्ली जाऊं! उसने कहा कि तू क्या करेगा अभ्यास का अर्थ है, सारी बाह्य और आंतरिक स्थिति की | दिल्ली जाकर? कुत्ता होकर और तेरी ऐसी हिम्मत? बदलाहट। अभ्यास का अर्थ है, वे जो संस्कार हैं, कंडीशनिंग है, समझ गया था। वह कुत्ता तो बहुत दिन से रहता था; वह सब वह जो हमारे भीतर पुराना जमा हुआ प्रवाह है, उसको जगह-जगह | राज समझ गया था। उसने कहा कि आप देखते नहीं कि आपका से तोड़कर नई दिशा दे देना। वह जो विरोधी पहुंच गया है इस बार, वह कुत्तों से बेहतर है? और दूसरा शब्द कृष्ण उपयोग करते हैं, वैराग्य। उनका अर्थ तो बदतर है। नेता ने कहा कि बिलकुल ठीक। यह बात तो बिलकुल मैं सांझ आपसे कहूंगा। अभी मैं सिर्फ मूल आधार आपको कह दूं। ठीक है। तू जा। तू दिल्ली जा। उसने कहा, रास्ता कुछ बता दें। मैं अभ्यास का अर्थ है, आप जैसे हैं, उससे अन्यथा करने की कैसे दिल्ली जाऊं! 246 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन का रूपांतरण तो रास्ता, नेता ने कहा कि सूत्र सरल है। जिस तरकीब से मैं जाता रहा, वही तरकीब तू भी उपयोग कर। क्योंकि वह अनुभव में लाई गई तरकीब है। तरकीब उसने बता दी कि जब अमीर कोई दिखाई पड़े, अमीर कुत्ता...! कुत्तों में भी अमीर और गरीब होते हैं। अमीर कुत्ता आपने देखा होगा ; कार में भी चलता है; सुंदरतम स्त्रियों की गोद में भी बैठता है; शानदार गलीचों पर विश्राम भी करता है। आदमी को रोटी न मिले, उसको तो विशेष भोजन मिलता है। वह अमीर कुत्ता है। तो उसने कहा, जब अमीर कोई कुत्ता दिखे, तो कहना कि सावधान। गरीब कुत्ते इकट्ठे हो रहे हैं; तुम्हारे लिए खतरा है। मैं तुम्हारी रक्षा कर सकता हूं। और जब कोई गरीब कुत्ता दिखे, तो फौरन कहना कि मर जाओगे। लूटे जा रहे हो। शोषण किया जा रहा है। लाल झंडा हाथ में लो। मैं तुम्हारा नेता हूं। इन अमीरों को ठीक करना जरूरी है। और जब तक — जैसा कि अहमदाबाद की सड़कों पर मैंने दो-चार जगह लिखा देखा : जनता जागे, सेठिया भागे – उसने कहा होगा, कुत्ते जागे, सेठिया भागे। तैयार हो जाओ! पर उस कुत्ते ने कहा कि महाराज, यह तो ठीक है। लेकिन अमीर और गरीब कुत्ते दोनों साथ मिल जाएं, तो मैं क्या करूं? तो कहना, मैं सर्वोदयी हूं। मैं सबके उदय में विश्वास करता हूं। गरीब का भी उदय हो, अमीर का भी उदय हो। सूरज पूरब से भी निकले, पश्चिम से भी साथ निकले। हम सर्वोदयी हैं। सूत्र पूरा हो गया । कुत्ते ने प्रचार शुरू कर दिया। और नेता ने कहा, ध्यान रखना, जोर से बोले चले जाना। कुत्ते ने कहा, यह तो अभ्यास है हमारा। इसमें कोई चिंता न करें। इसमें हम नेताओं को मात दे देते हैं। इसमें कोई दिक्कत नहीं है। हम चिल्लाते रहेंगे। नेता ने कहा, अगर चिल्लाते रहे, तो दिल्ली पहुंच जाओगे । बस, चिल्लाने में कुशलता चाहिए। इसकी फिक्र मत करना कि क्या चिल्ला रहे हो। जोर से चिल्ला रहे हो, इसका खयाल रखना। दूसरे को दबा देना चिल्लाने में, बस ! कुत्ते ने शुरू कर दिया काम | महीने पंद्रह दिन में उसने काशी के कुत्तों को राजी कर लिया । नेता से कहा कि अब मैं जाता हूं। आप वहां खबर करवा दें दिल्ली में कि मैं आ रहा हूं। ठहरने का इंतजाम, सब व्यवस्था करवा दें। कितनी देर लगेगी, नेता ने पूछा, तेरे पहुंचने में? कुत्ते ने कहा कि कुत्ते की चाल से जाऊंगा; और सर्वोदयी कहकर फंस गया । तो वे कुत्ते कह रहे हैं, पैदल जाओ। झंझट हो गई। वे कहते हैं, सर्वोदयी, पैदल जाओ, पदयात्रा करो ! फंस गया झंझट में; नहीं तो ट्रेन में निकल जाता। अब तो पैदल ही जाना पड़ेगा। कम से कम महीनाभर लग जाएगा। खबर कर दी गई। दिल्ली के कुत्ते बड़े प्रसन्न हुए। काशी का | कुत्ता आता है; धर्मतीर्थ से आता है। जरूर कुछ ज्ञान लेकर आता | होगा! काम पड़ेगा। लेकिन बड़ी मुश्किल तो यह हुई कि एक महीने के बाद उन्होंने स्वागत का इंतजाम किया, द्वार - दरवाजे बनाए । लेकिन कुत्ता सात ही दिन में पहुंच गया। वे तो इंतजाम कर रहे थे एक महीने बाद का, कुत्ता सात दिन में दिल्ली पहुंच गया। बड़े चकित हुए। उन्होंने कहा, बिलकुल समझ नहीं तुम्हें। बेवक्त आ गए। हम सब इंतजाम किए थे। मेयर को राजी किए थे। फूलमाला पहनवाते । यह तुमने क्या किया ! सब विरोधी पार्टी के नेताओं को इकट्ठा कर | रहे थे कि फूलमाला पहनाते । तुम यह क्या किए? इतनी जल्दी आ गए बेवक्त। कोई तैयारी नहीं है। उस कुत्ते ने कहा कि मैं क्या कर सकता हूं? काशी से निकला; एक मिनट रुक नहीं सका कहीं । जिस गांव में पहुंचा, उसी गांव के कुत्ते इस बुरी तरह पीछे लग जाते कि मैं जान बचाकर गांव के बाहर होता। वे दूसरे गांव के बाहर तक जब तक मुझे छोड़ते, तब तक दूसरे गांव के कुत्ते मेरे पीछे लग जाते। मैं ठहरा ही नहीं, रुका ही नहीं, विश्राम नहीं किया। बस, भागता ही चला आ रहा हूं! और कहते हैं, इतना ही कहकर वह कुत्ता मर गया, क्योंकि इतना थक 247 गया था। दिल्ली आमतौर से कब्र बनती है पहुंचने वालों की। बड़ी कब्र है। दौड़-दौड़कर किसी तरह पहुंचते हैं वहां ; गिरकर मर जाते हैं। शायद मरने के लिए पहुंचते हैं या किसलिए पहुंचते हैं, कुछ कहना कठिन है। मर गया वह कुत्ता । पर एक राज की बात बता गया कि ठहर नहीं पाया कहीं; दौड़ाते ही रहे लोग । हम भी एक-एक आदमी के मन को बचपन से दौड़ा रहे हैं। सब मिलकर दौड़ा रहे हैं । सब मिलकर दौड़ा रहे हैं। बाप दौड़ा रहा है कि नंबर एक आओ। मां दौड़ा रही है कि क्या कर रहे हो, बगल | के पड़ोसी का लड़का देख रहे हो ? स्पोर्ट्स में नंबर एक आ गया। मां-बाप किसी तरह पीछा छोड़ेंगे, तो एक पत्नी उपलब्ध होगी। वह कहेगी, दौड़ो । देखते हो, बगल का मकान बड़ा हो गया । बगल की पत्नी के पास हीरों की चूड़ियां आ गईं। तुम देखते रहोगे ऐसे ही बैठे दौड़ो । किसी तरह दौड़-दाड़कर और थोड़ी उम्र गुजारता | है, तो बच्चे पैदा हो जाते हैं। वे कहते हैं कि क्या बाप मिले तुम Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 भी! न घर में कार है, न टेलीविजन सेट है। कुछ भी नहीं है। बड़ी इसलिए वैराग्य की शर्त पीछे जोड़ दी कि वैराग्य की भावना हो, दीनता मालूम होती है। इनफीरिआरिटी कांप्लेक्स पैदा हो रहा है | तो फिर ऐसी विधियां हैं, जिनके अभ्यास से आदमी मन को विश्राम हममें, स्कूल जाते हैं तो। दौड़ो। को पहुंचा सकता है। पूरी शिक्षा, पूरा समाज, पूरी व्यवस्था दौड़ने के एक ढांचे में ___संध्या हम वैराग्य के संबंध में और अभ्यास के संबंध में थोड़ी ढली हुई है। दिल्ली पहुंचो। दौड़ो, चाहे जान चली जाए, कोई फिक्र गहरी छान-बीन करेंगे। अभी तो पांच-सात मिनट के लिए सब राग नहीं। दौड़ते रहो। ठहरना भर मत। छोड़कर, एक पांच-सात मिनट कीर्तन के वैराग्य में क्योंकि अगर इतने सारे अभ्यास में आदमी का मन ठहरने का स्थान नहीं कीर्तन कहीं ले जाएगा नहीं। पाता, किसी विश्रामगृह में नहीं रुक पाता, भागता ही चला जाता एक युवक मेरे पास आया था। वह पूछ रहा था, कीर्तन से है; तो अगर अर्जुन एक दिन कह रहा है कृष्ण से कि यह मन बड़ा फायदा क्या होगा? सोचते हैं आप, वह पूछता है, कीर्तन से फायदा भागने वाला है, यह रुकता नहीं क्षणभर को, तो ठीक ही कह रहा क्या होगा? है। हम सब का मन ऐसा है। फायदा! फायदे की भाषा में जो सोचता है, वह कीर्तन नहीं कर लेकिन कृष्ण कहते हैं, यह मन का ढंग सिर्फ एक संस्कारित पाएगा। कीर्तन से फायदा होता है, लेकिन उसी को, जो फायदे की व्यवस्था है। अभ्यास से इसे तोड़ा जा सकता है। अभ्यास से नई भाषा छोड़ देता है। कीर्तन तो वैराग्य के मन की दशा है। और व्यवस्था दी जा सकती है। और वैराग्य से! क्यों? वैराग्य को क्यों | कीर्तन एक अभ्यास भी है; एक अभ्यास मन को ठहराने का। शरीर जोड़ दिया? क्या अभ्यास काफी न था? अभ्यास की विधि बता नाचेगा। शब्द वाणी से निकलेंगे। और भीतर कोई बिलकुल ठहरा देते कि इससे बदल जाओ। | रहेगा। नाच के बीच कोई बिलकुल ठहरा रहेगा। वैराग्य इसलिए जोड़ दिया कि अगर वैराग्य न हो, तो आप | आप भी साथ दें। साथ देंगे, तो ही अनुभव हो पाएगा। और विधियों का उपयोग न करेंगे। क्योंकि राग दौड़ाने की व्यवस्था है। | संकोच न करें, छोटे-से संकोच व्यर्थ ही बाधा डाल देते हैं। देखते राग के बिना कोई दौड़ता नहीं है। दिल्ली कोई ऐसे ही वैराग्य भाव | | हैं कि कहीं पड़ोस का आदमी क्या सोचने लगे! वह पहले ही से से नहीं दौड़ता। राग, कुछ उपलब्धि की आकांक्षा, कुछ पाने का | आपके बाबत बहुत अच्छा नहीं सोचता है। आप बिलकुल बेफिक्र खयाल दौड़ाता है। कोई लक्ष्य, कोई राग दौड़ाता है। रहें। तो राग चंचल होने का आधार है, तो वैराग्य विश्राम का आधार बनेगा। अभी हम सब राग में जीते हैं। हमारा पूरा समाज राग से भरा है। हमारी पूरी शिक्षा, समाज की व्यवस्था, परिवार, संबंध-सब राग पर खड़े हैं। इसलिए हम सब दौड़ते हैं। राग बिना दौड़े नहीं फलित हो सकता। राग यानी दौड़। चंचलता का बुनियादी आधार राग है। इसलिए ठहराव का बुनियादी आधार वैराग्य होगा। तो वैराग्य की शर्त जरूरी है, नहीं तो आप ठहरने को राजी नहीं होंगे। आप कहेंगे, ठहरकर मर जाएंगे। पड़ोसी तो ठहरेगा नहीं, वह तो दौड़ता रहेगा। आप मुझसे ही क्यों कहते हैं कि ठहर जाओ? अगर मैं ठहर गया, तो दूसरा तो ठहरेगा नहीं; वह पहुंच जाएगा! __जब तक आपको कहीं पहुंचने का राग है, जब तक कुछ पाने का राग है, तब तक मन अचंचल नहीं हो सकता, चंचल रहेगा। इसमें मन का क्या कसूर है! आप राग कर रहे हैं, मन दौड़ रहा है। मन आपकी आज्ञा मान रहा है। |248 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 6 सत्रहवां प्रवचन वैराग्य और अभ्यास Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 गीता दर्शन भाग-3 प्रश्नः भगवान श्री, सुबह के श्लोक में चंचल मन को राग नहीं है, जिसके प्रति हम रोज विकर्षण से नहीं भर जाते। प्रत्येक शांत करने के लिए अभ्यास और वैराग्य पर गहन राग के पीछे खाई छूट जाती है विषाद की; प्रत्येक राग के पीछे चर्चा चल रही थी, लेकिन समय आखिरी हो गया पश्चात्ताप गहन हो जाता है। लेकिन तब ऐसा नहीं कि हम विराग था, इसलिए पूरी बात नहीं हो सकी। तो कृपया | की तरफ चले जाते हों, तब सिर्फ इतना ही होता है कि हम नए राग अभ्यास और वैराग्य से कृष्ण क्या गहन अर्थ लेते हैं, | की खोज में निकल जाते हैं। इसकी व्याख्या करने की कृपा करें। वैराग्य कोई नई घटना नहीं है। एक स्त्री से विरक्त हो जाना सामान्य घटना है। लेकिन स्त्री से विरक्त हो जाना बहुत असामान्य घटना है। एक सुख की व्यर्थता को जान लेना सामान्य घटना है, - गहै संसार की यात्रा का मार्ग संसार में यात्रा का लेकिन सुख मात्र की व्यर्थता को जान लेना बहत असामान्य घटना रा मार्ग। वैराग्य है संसार की तरफ पीठ करके स्वयं के है। और असामान्य इसीलिए है कि हमारे हाथ में एक ही सुख होता __ घर की ओर वापसी। राग यदि सुबह है, जब पक्षी है एक बार में। एक सुख व्यर्थ हो जाता है, तो तत्काल मन कहता घोंसलों को छोड़कर बाहर की यात्रा पर निकल जाते हैं, तो वैराग्य है कि नए सुख का निर्माण कर लो; दूसरे सुख की खोज में निकल सांझ है, जब पक्षी अपने नीड़ में वापस लौट आते हैं। जाओ। ठहरो मत; यात्रा जारी रखो। यह सुख व्यर्थ हुआ, तो वैराग्य को पहले समझ लें, क्योंकि जिसे वैराग्य नहीं, वह जरूरी नहीं कि सभी सुख व्यर्थ हों! अभ्यास में नहीं जाएगा। वैराग्य होगा, तो ही अभ्यास होगा। ययाति की बहुत पुरानी कथा है, जिसमें ययाति सौ वर्ष का हो वैराग्य होगा, तो हम विधि खोजेंगे—मार्ग, पद्धति, राह, गया। बहुत मीठी, बहुत मधुर कथा है। तथ्य न भी हो, तो भी सच टेक्नीक—कि कैसे हम स्वयं के घर वापस पहुंच जाएं? कैसे हम है। और बहुत बार जो तथ्य नहीं होते, वे भी सत्य होते हैं। और लौट सकें? जिससे हम बिछुड़ गए, उससे हम कैसे मिल सकें? बहुत बार जो तथ्य होते हैं, वे भी सत्य नहीं होते। जिसके बिछुड़ जाने से हमारे जीवन का सब संगीत छिन गया, यह ययाति की कथा तथ्य नहीं है, लेकिन सत्य है। सत्य इसलिए जिसके बिछुड़ जाने से जीवन की सारी शांति खो गई, जिसके कहता हूं कि उसका इंगित सत्य की ओर है। तथ्य नहीं है इसलिए बिछुड़ जाने से, खोजते हैं बहुत, लेकिन उसे पाते नहीं; उस आनंद | | कहता हूं कि ऐसा कभी हुआ नहीं होगा। यद्यपि आदमी का मन को किस विधि से, किस मेथड से हम पाएं? यह तो तभी सवाल | ऐसा है कि ऐसा रोज ही होना चाहिए। उठेगा, जब वैराग्य की तरफ दृष्टि उठनी शुरू हो जाए। तो पहली ___ ययाति सौ वर्ष का हो गया, उसकी मृत्यु आ गई। सम्राट था। तो बात, वैराग्य को समझें, फिर हम अभ्यास को समझेंगे। सुंदर पत्नियां थीं, धन था, यश था, कीर्ति थी, शक्ति थी, प्रतिष्ठा __ वैराग्य का अर्थ है, राग के जगत से वितृष्णा, फ्रस्ट्रेशन। थी। मौत द्वार पर आकर दस्तक दी। ययाति ने कहा, अभी आ गई? जहां-जहां राग है, जहां-जहां आकर्षण है, वहां-वहां विकर्षण पैदा | अभी तो मैं कुछ भोग नहीं पाया। अभी तो कुछ शुरू भी नहीं हुआ हो जाए। जो चीज खींचती है, वह खींचे नहीं, बल्कि विपरीत हटाने था! यह तो थोड़ी जल्दी हो गई। सौ वर्ष मुझे और चाहिए। मृत्यु ने लगे। जो चीज बुलाती है, बुलाए नहीं, बल्कि द्वार बंद कर ले। कहा, मैं मजबूर हूं। मुझे तो ले जाना ही पड़ेगा। ययाति ने कहा, मालूम पड़े कि द्वार बंद कर लिया, और द्वार में प्रवेश से इनकार कोई भी मार्ग खोज। मुझे सौ वर्ष और दे। क्योंकि मैंने तो अभी तक कर दिया। कोई सुख जाना ही नहीं। विकर्षण हम सभी को होता है। अगर ऐसा मैं कहूं, तो आप थोड़े मृत्यु ने कहा, सौ वर्ष आप क्या करते थे? ययाति ने कहा, जिस हैरान होंगे कि हम सभी रोज वैराग्य को उपलब्ध होते हैं। लेकिन | सुख को जानता था, वही व्यर्थ हो जाता था। तब दूसरे सुख की खोज वैराग्य को उपलब्ध होकर हम अभ्यास की तरफ नहीं जाते। वैराग्य | | करता था। खोजा बहुत, पाया अब तक नहीं। सोचता था, कल की को उपलब्ध होकर, पुराने राग तो गिर जाते हैं, हम नए राग के योजना बना रहा था। तेरे आगमन से तो कल का द्वार बंद हो जाएगा। निर्माण में लग जाते हैं। अभी मुझे आशा है। मृत्यु ने कहा, सौ वर्ष में समझ नहीं आई। आशा हम सभी वैराग्य को उपलब्ध होते हैं, रोज, प्रतिदिन। ऐसा कोई अभी कायम है? अनुभव नहीं आया? ययाति ने कहा, कौन कह 250 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + वैराग्य और अभ्यास - सकता है कि ऐसा कोई सुख न हो, जिससे मैं अपरिचित होऊ, जिसे थे कि कल और मिल जाए, तो मैं सुख पा लूँ! ययाति ने कहा, पा लूं तो सुखी हो जाऊं! कौन कह सकता है? गाना है | मिला कल भी, लेकिन जिन सुखों को खोजा उनसे दुख ही पाया। __ मृत्यु ने कहा, तो फिर एक उपाय है कि तुम्हारे बेटे हैं दस। एक | और अभी फिर योजनाएं मन में हैं। क्षमा कर, एक और मौका! पर बेटा अपना जीवन दे दे तुम्हारी जगह, तो उसकी उम्र तुम ले लो। मौत ने कहा, फिर वही करना पड़ेगा। मैं लौट जाऊं। पर मुझे एक को ले जाना ही पड़ेगा। ___ इन सौ वर्षों में ययाति के नए बेटे पैदा हो गए: पुराने बेटे तो मर बाप थोड़ा डरा। डर स्वाभाविक था। क्योंकि बाप सौ वर्ष का चुके थे। फिर छोटा बेटा राजी हो गया। ऐसे दस बार घटना घटती होकर मरने को राजी न हो, तो कोई बेटा अभी बीस का था, कोई है। मौत आती है, लौटती है। एक हजार साल ययाति जिंदा रहता है। अभी पंद्रह का था, कोई अभी दस का था। अभी तो उन्होंने और मैं कहता हं, यह तथ्य नहीं है, लेकिन सत्य है। अगर हमको भी भी कुछ भी नहीं जाना था। लेकिन बाप ने सोचा, शायद कोई उनमें | | यह मौका मिले, तो हम इससे भिन्न न करेंगे। सोचें थोड़ा मन में कि राजी हो जाए। शायद कोई राजी हो जाए। पूछा, बड़े बेटे तो राजी | मौत दरवाजे पर आए और कहे कि सौ वर्ष का मौका देते हैं, घर में न हुए। उन्होंने कहा, आप कैसी बात करते हैं! आप सौ वर्ष के कोई राजी है ? तो आप किसी को राजी करने की कोशिश करेंगे कि होकर जाने को तैयार नहीं। मेरी उम्र तो अभी चालीस ही वर्ष है। नहीं करेंगे! जरूर करेंगे। क्या दुबारा मौत आए, तो आप तब तक अभी तो मैंने जिंदगी कुछ भी नहीं देखी। आप किस मुंह से मुझसे | | समझदार हो चुके होंगे? नहीं, जल्दी से मत कह लेना कि हम कहते हैं? समझदार हैं। क्योंकि ययाति कम समझदार नहीं था। सबसे छोटा बेटा राजी हो गया। राजी इसलिए हो गया जब हजार वर्ष के बाद भी जब मौत ने दस्तक दी तो ययाति वहीं था बाप से उसने कहा कि मैं राजी हं. तो बाप भी हैरान हआ। ययाति जहां पहले सौ वर्ष के बाद था। मौत ने कहा, अब क्षमा करो। किसी ने कहा, सब नौ बेटों ने इनकार कर दिया, तू राजी होता है। क्या चीज की सीमा भी होती है। अब मुझसे मत कहना। बहुत हो गया! तुझे यह खयाल नहीं आता कि मैं सौ वर्ष का होकर भी मरने को | | ययाति ने कहा, कितना ही हुआ हो, लेकिन मन मेरा वहीं है। कल राजी नहीं, तेरी उम्र तो अभी बारह ही वर्ष है! अभी बाकी है, और सोचता हूं कि कोई सुख शायद अनजाना बचा उस बेटे ने कहा, यह सोचकर राजी होता हूं कि जब सौ वर्ष में | हो, जिसे पा लूं तो सुखी हो जाऊं! भी तुमने कुछ न पाया, तो व्यर्थ की दौड़ में मैं क्यों पडूं! जब मरना __अनंत काल तक भी ऐसा ही होता रहता है। तो फिर वैराग्य पैदा ही है और सौ वर्ष के समय में भी मरकर ऐसी पीड़ा होती है, जैसी | नहीं होगा। अगर एक राग व्यर्थ होता है और आप तत्काल दूसरे तुमको हो रही है, तो मैं बारह वर्ष में ही मर जाऊं। अभी कम से | | राग की कामना करने लगते हैं, तो राग की धारा जारी रहेगी। एक कम विषाद से तो बचा हूं। अभी मैंने दुख तो नहीं जाना। सुख नहीं | | राग का विषय टूटेगा, दूसरा राग का निर्मित हो जाएगा। दूसरा जाना, दुख भी नहीं जाना। मैं जाता हूं। | टूटेगा, तीसरा निर्मित हो जाएगा। ऐसा अनंत तक चल सकता है। फिर भी ययाति को बुद्धि न आई। मन का रस ऐसा है कि उसने ऐसा अनंत तक चलता है। वैराग्य कब होगा? कल की योजनाएं बना रखी थीं। बेटे को जाने दिया। ययाति और वैराग्य उसे होता है, जो एक राग की व्यर्थता में समस्त रागों की सौ वर्ष जीया। फिर मौत आ गई। ये सौ वर्ष कब बीत गए, पता व्यर्थता को देखने में समर्थ हो जाता है। जो एक सख के गिरने में नहीं। ययाति फिर भूल गया कि मौत आ रही है। कितनी ही बार | समस्त सुखों के गिरने को देख पाता है। जिसके लिए कोई भी मौत आ जाए, हम सदा भूल जाते हैं कि मौत आ रही है। हम सब | फ्रस्ट्रेशन, कोई भी विषाद अल्टिमेट, आत्यंतिक हो जाता है। जो बहुत बार मर चुके हैं। हम सब के द्वारों पर बहुत बार मौत दस्तक | मन के इस राज को पकड़ लेता है जल्दी ही कि यह धोखा है। क्यों? दे गई है। क्योंकि कल मैंने जिसे सुख कहा था, वह आज दुख हो गया। आज ययाति के द्वार पर दस्तक हुई। ययाति ने कहा, अभी! इतने | | जिसे सुख कह रहा हूं, वह कल दुख हो जाएगा। कल जिसे सुख जल्दी! क्या सौ वर्ष बीत गए? मौत ने कहा, इसे भी जल्दी कहते | | कहूंगा, वह परसों दुख हो जाएगा। जो इस सत्य को पहचानने में हैं आप! अब तो आपकी योजनाएं पूरी हो गई होंगी? समर्थ हो जाता है, जो इतना इंटेंस देखने में समर्थ है, जो इतना गहरा ययाति ने कहा, मैं वहीं का वहीं खड़ा हूं। मौत ने कहा, कहते देख पाता है जीवन में...। 251 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 - अब दुबारा जब मन कोई राग का विषय बनाए, तो मन से पूछना है। उस आदमी ने कहा, उसी देखने की सुंदरता के पीछे तो मैं कि तेरा अतीत अनुभव क्या है! और मन से पूछना कि फिर तू एक | फंसा। फिर पीछे नरक ही निकला है! नया उपद्रव निर्मित कर रहा है! जीवन के जो चेहरे हमें दिखाई पड़ते हैं, वे असलियत नहीं हैं। __एक मनोवैज्ञानिक के पास एक व्यक्ति गया था। ऐसे ही एक इसलिए बुद्ध अपने भिक्षुओं से कहते थे, जब तुम्हें कोई चेहरा सुंदर मित्र, यहां मैं आया, उस पहले दिन ही मुझसे मिलने आ गए। उस दिखाई पड़े, तो आंख बंद करके स्मरण करना, ध्यान करना, चमड़ी मनोवैज्ञानिक के पास जो व्यक्ति गया था, उसने कहा कि मेरी के नीचे क्या है? मांस। मांस के नीचे क्या है? हड्डियां। हड्डियों के पहली पत्नी मर गई। मनोवैज्ञानिक भलीभांति जानता था कि पहली | नीचे क्या है? उस सब को तुम जरा गौर से देख लेना। एक्सरे पत्नी और उसके बीच क्या घटा था। लेकिन पति भूल चुका था | | मेडिटेशन, कहना चाहिए उसका नाम। बुद्ध ने ऐसा नाम नहीं मरते ही। तो मैं दूसरा विवाह कर लूं या न कर लूं? दिया। मैं कहता हूं, एक्सरे मेडिटेशन! एक्सरे कर लेना, जब मन उस मनोवैज्ञानिक ने कहा, क्या तेरे मन में दूसरे विवाह का में कोई चमड़ी बहुत प्रीतिकर लगे, तो दूर भीतर तक। तो भीतर जो खयाल आता है? उसने कहा, आता है। आप इससे क्या नतीजा | दिखाई पड़ेगा, वह बहुत घबड़ाने वाला है। . लेते हैं? उस मनोवैज्ञानिक ने कहा, इससे मैं नतीजा लेता हूं, मैं एक गांव में ठहरा हुआ था। वहां गोली चली। चार लोगों को अनुभव के ऊपर आशा की विजय। गोली लग गई, तो उनका पोस्टमार्टम होता था। मेरे एक मित्र, जो अनभव के ऊपर आशा की विजय। एक पत्नी की कलह और चमड़ी के बड़े प्रेमी हैं...। उपद्रव और संघर्ष और दुख और पीड़ा से बाहर नहीं हुआ है कि अधिक लोग होते हैं। उपनिषद कहते हैं इस तरह के लोगों को वह नई पत्नी की तलाश में चित्त निकल गया। लेकिन मन कहता | चमार-चमड़ी के प्रेमियों को। चमड़े के जूते बनाने वाले को नहीं; है कि इस स्त्री के साथ सुख नहीं बन सका, तो जरूरी तो नहीं है | जरूरी नहीं कि वह चमार हो। लेकिन चमड़ी के प्रेमी को! ' कि किसी स्त्री के साथ न बन सके। पृथ्वी पर बहुत स्त्रियां हैं। कोई | तो एक चमड़ी के प्रेमी मेरे मित्र थे। मुझे मौका मिला, मैंने उनसे दूसरी स्त्री सुख दे पाएगी; कोई दूसरा पुरुष सुख दे पाएगा। कोई | कहा कि चलो, डाक्टर परिचित है, मैं तुम्हें पोस्टमार्टम दिखा दूं। दूसरी कार, कोई दूसरा बंगला, कोई दूसरा पद, कोई दूसरा गांव, उन्होंने कहा, उससे क्या होगा? मैंने कहा, थोड़ा देखो भी, आदमी कोई कहीं और जगह सुख होगा। यहां नहीं, कोई बात नहीं। यद्यपि के भीतर क्या है, उसे थोड़ा देखो। इस जगह आने के पहले भी यही सोचा था। और जिस गांव में आप पोस्टमार्टम के गृह में भीतर प्रवेश किए, तो भयंकर बदबू थी, जाने की सोच रहे हैं, उस गांव के लोग भी यही सोच रहे हैं कि क्योंकि लाशें तीन दिन से रुकी थीं। वे नाक पर रूमाल रखने लगे। कहीं चले जाएं, तो उन्हें सुख मिल जाए! मैंने कहा, मत घबड़ाओ। जिन चमड़ियों को तुम प्रेम करते हो, सुना है मैंने कि एक दिन सुबह-सुबह एक आदमी भागा हुआ उनकी यही गति है। थोड़ा और भीतर चलो। उन्होंने कहा, बहुत पागलखाने पहुंचा। जोर से दरवाजा खटखटाया। पागलखाने के | उबकाई आती है। वॉमिट न हो जाए! मैंने कहा, हो जाए तो कुछ प्रधान ने दरवाजा खोला। उस आदमी ने पूछा कि मैं यह पूछने आया हर्जा नहीं है। और भीतर आओ। खाने से कोई निकलकर तो नहीं भाग गया? जब हम गए. तो डाक्टर ने एक आदमी, जिसके पेट में गोली नहीं; कोई निकलकर भागा नहीं। आपको इसका शक क्यों पैदा | | लगी थी, उसके पूरे पेट को फाड़ा हुआ था। तो सारी मल की हुआ? उसने कहा, और कोई कारण नहीं है। मेरी पत्नी को कोई | | ग्रंथियां ऊपर फूटकर फैल गई थीं। वे मेरे मित्र भागने लगे। मैं उन्हें लेकर भाग गया है। तो में अपने होश में नहीं मान सकता कि जिसमें | पकड़ रहा हूं, खींच रहा हूं; वे भागते हैं। कहते हैं, मुझे मत थोड़ी भी बुद्धि होगी, वह मेरी पत्नी को लेकर भाग जाएगा! तो मैंने | | दिखाओ! उन्होंने आंखें बंद कर लीं। मैंने कहा, आंखें खोलो। ठीक सोचा, पागलखाने में जाकर देख लूं कि कोई निकल तो नहीं गया। से देख लो। उन्होंने कहा, मुझे मत दिखाओ, नहीं तो मेरी जिंदगी पर उस प्रधान ने कहा कि माफ कर मेरे भाई। तेरी पत्नी के साथ खराब हो जाएगी! तुम्हारी जिंदगी क्यों खराब हो जाएगी? उन्होंने मैंने तुझे कई बार रास्ते पर घूमते देखा है। मेरा तक मन बहुत बार कहा, फिर मैं किसी शरीर को प्रेम न कर पाऊंगा। जब भी शरीर हुआ कि तेरी पत्नी को लेकर भाग जाऊं। वह देखने में बहुत सुंदर | को देखुंगा, तो यह सब दिखाई पड़ेगा। 252 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - वैराग्य और अभ्यास - बुद्ध कहते थे, जब शरीर आकर्षक मालूम पड़े, तो थोड़ा भीतर | मैं कल जीना चाहूं। ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे पाए बिना मेरा गौर करना कि है क्या वहां? तो शायद शरीर का जो राग है, वह जीवन व्यर्थ है। टूट जाए और वैराग्य उत्पन्न हो। वैराग्य का अर्थ है, वस्तुओं के लिए नहीं, पर के लिए नहीं, बुद्ध को वैराग्य उत्पन्न होने की जो बड़ी कीमती घटना है, वह दूसरे के लिए नहीं, अब मेरा आकर्षण अगर है, तो स्वयं के लिए मैं आपसे कहूं। है। अब मैं उसे जान लेना चाहता हूं, जो सुख पाना चाहता है। बुद्ध के पिता ने बुद्ध के महल में उस राज्य की सब सुंदर स्त्रियां | | क्योंकि जिन-जिन से सुख पाना चाहा, उनसे तो दुख ही मिला। इकट्ठी कर दी थीं। रात देर तक गीत चलता, गान चलता, मदिरा | अब एक दिशा और बाकी रह गई कि मैं उसको ही खोज लूं, जो बहती, संगीत होता और बुद्ध को सुलाकर ही वे सुंदरियां सुख पाना चाहता है। पता नहीं, वहां शायद सुख मिल जाए। मैंने नाचते-नाचते सो जातीं। एक रात बुद्ध की नींद चार बजे टूट गई। बहुत खोजा, कहीं नहीं मिला; अब मैं उसे खोज लूं, जो खोजता एर्नाल्ड ने अपने लाइट आफ एशिया में बड़ा प्रीतिकर, पूरा वर्णन | था। उसे और पहचान लूं, उसे और देख लूं। किया है। वैराग्य का अर्थ है, विषय से मुक्ति और स्वयं की तरफ यात्रा। चार बजे नींद खुल गई। पूरे चांद की रात थी। कमरे में चांद की | चित्त दो यात्राएं कर सकता है। या तो आपसे पदार्थ की तरफ, किरणें भरी थीं। जिन स्त्रियों को बुद्ध प्रेम करते थे, जो उनके | और या फिर पदार्थ से आपकी तरफ। आपसे पदार्थ की तरफ जाती आस-पास नाचती थीं और स्वर्ग का दृश्य बना देती थीं, उनमें से | हुई जो चित्त की धारा है, उसका नाम राग है। पदार्थ से आपकी कोई अर्धनग्न पड़ी थी; किसी का वस्त्र उलट गया था; किसी के तरफ लौटती हुई जो चेतना है, उसका नाम वैराग्य है। मुंह से घुर्राटे की आवाज आ रही थी; किसी की नाक बह रही थी; कभी आपने ऐसा अनुभव किया, जब पदार्थ से आपकी चेतना किसी की आंख से आंसू टपक रहे थे; किसी की आंख पर कीचड़ आपकी तरफ लौटती हो? सबको छोटा-छोटा अनुभव आता है इकट्ठा हो गया था। वैराग्य का। लेकिन थिर नहीं हो पाता। थिर इसलिए नहीं हो पाता बुद्ध एक-एक चेहरे के पास गए और वही रात बुद्ध के लिए घर कि वैराग्य का हम कोई अभ्यास नहीं करते हैं। राग का तो अभ्यास से भागने की रात हो गई। क्योंकि इन चेहरों को उन्होंने देखा था; करते हैं। वैराग्य का क्षण भी आता है, तो चूंकि अभ्यास नहीं होता, ऐसा नहीं देखा था। लेकिन ये चेहरे असलियत के ज्यादा करीब थे। इसलिए खो जाता है। जिन चेहरों को देखा था, वे मेकअप से तैयार किए गए चेहरे थे, करीब-करीब ऐसे जैसे आपने कबूतर पालने वाले लोगों को तैयार चेहरे थे। ये चेहरे असलियत के ज्यादा करीब थे। यह शरीर देखा होगा, अपने घर पर एक छतरी लगाकर रखते हैं। कबूतर की असलियत है। आता है, तो छतरी पर बैठ पाता है। हमारे ऊपर भी वैराग्य का लेकिन जैसी शरीर की असलियत है, वैसे ही सभी सुखों की कबूतर कई बार आता है, लेकिन कोई छतरी नहीं होती, जिस पर असलियत है। और एक-एक सुख को जो एक्सरे मेडिटेशन करे, | बैठ पाए। फिर उड़ जाता है। अभ्यास, छतरी का बनाना है कि जब एक-एक सुख पर एक्सरे की किरणें लगा दे, ध्यान की, और वैराग्य का कबूतर आए, जब वैराग्य का पक्षी आए अपनी तरफ एक-एक सख को गौर से देखे. तो आखिर में पाएगा कि हाथ में उडकर. तो हमारे पास उसके बैठने की. बिठाने की. निवास की सिवाय दुख के कुछ बच नहीं रहता। और जब आपको एक सुख जगह हो। की व्यर्थता में समस्त सुखों की व्यर्थता दिखाई पड़ जाए, और जब अभ्यास वैराग्य को थिर करने का उपाय है। वैराग्य तो सबके एक सुख के डिसइलूजनमेंट में आपके लिए समस्त सुखों की | भीतर पैदा होता है, अभ्यास थिर करने का उपाय है। वैराग्य तो कामना क्षीण हो जाए, तो आपकी जो स्थिति बनती है, उसका नाम सबके ऊपर आता है, अभ्यास उसे रोक लेने का उपाय है, उसे वैराग्य है। प्राणों में आत्मसात कर लेने का उपाय है। वैराग्य का अर्थ है, अब मुझे कुछ भी आकर्षित नहीं करता। अभी हमारी जैसी स्थिति है, वह ऐसी है कि राग का तो हम वैराग्य का अर्थ है, अब ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसके लिए मैं कल अभ्यास करते हैं। राग का हम अभ्यास करते है। हर राग व्यर्थ होता जीना चाहूं। वैराग्य का अर्थ है, ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसके लिए है, लेकिन अभ्यास जारी रहता है। और वैराग्य कभी-कभी आता 253 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 - है राग की असफलता में से, लेकिन उसका कोई अभ्यास न होने | __कभी आपने खयाल किया, अगर एक कमरे में दस पुरुष बैठकर से वह कहीं भी ठहर नहीं पाता; हमारे ऊपर रुक नहीं पाता; वह | | बात कर रहे हों और एक स्त्री आ जाए, तो उनके बोलने की सबकी बह जाता है। टोन फौरन बदल जाती है; वही नहीं रह जाती। बड़े मृदुभाषी, मधुर, इसलिए कृष्ण कहते हैं, वैराग्य और अभ्यास। | शिष्ट, सज्जन हो जाते हैं। क्या हो गया? क्या. हो क्या गया एक अभ्यास क्या है? वैराग्य तो इस प्रतीति का नाम है कि इस जगत स्त्री के प्रवेश से? उनको भी खयाल नहीं आएगा कि यह अभ्यास में बाहर कोई भी सुख संभव नहीं है। सुख असंभावना है। दूसरे से चल रहा है। यह अभ्यास है, बहुत अनकांशस हो गया, अचेतन किसी तरह की शांति संभव नहीं है। दूसरे से सब अपेक्षाएं व्यर्थ हो गया। इतना कर डाला है कि अब हमें पता ही नहीं चलता। हैं। इस प्रतीति को उपलब्ध हो जाना वैराग्य है। | इसकी हालत करीब-करीब ऐसी हो गई है, जैसे साइकिल पर लेकिन इस प्रतीति को हम सब उपलब्ध होते हैं, मैं आपसे कह आदमी चलता है, तो उसको घर की तरफ मोड़ना नहीं पड़ता रहा हूं। इससे आपको थोड़ी हैरानी होती होगी। हम सभी वैराग्य | हैंडिल, मुड़ जाता है। चलता रहता है, साइकिल चलती रहती है, को उपलब्ध होते हैं रोज। | जहां-जहां से मुड़ना है, हैंडिल मुड़ता रहता है। अपने घर के सामने कामवासना मन को पकड़ती है। लेकिन आपने देखा है कि आकर गाड़ी खड़ी हो जाती है। उसे सोचना नहीं पड़ता कि अब बाएं कामवासना के बाद आदमी क्या करता है? सिर्फ करवट लेकर | मुड़ें कि अब दाएं। अभ्यास इतना गहरा है कि अचेतन हो गया है। निढाल पड़ जाता है। वैराग्य पकड़ता है। साइकिल होश से नहीं चलानी पड़ती। बिलकुल मजे से वह गाना __हर कामवासना के बाद एक विषाद मन को पकड़ लेता है, एक | गाते, पच्चीस बातें सोचते, दफ्तर का हिसाब लगातें...चलता फ्रस्ट्रेशन। फिर वही! कुछ भी नहीं, फिर वही। कुछ भी नहीं, फिर रहता है। पैर पैडिल मारते रहते हैं, हाथ साइकिल मोड़ता रहता है। वही। और चित्त ग्लानि अनुभव करता है। चित्त को लगता है, यह | | यह बिलकुल अचेतन हो गया है। इतना अभ्यास हो गया कि मैं क्या कर रहा हूं! लेकिन तब आप चुपचाप करवट लेकर सो जाते अचेतन हो गया। हैं। चौबीस घंटे में फिर राग पैदा हो जाता है। कामवासना का अभ्यास इतना अचेतन है कि हमें पता ही नहीं वैराग्य को स्थिर करने का आपने कोई उपाय नहीं किया। जब होता कि जब हम कपड़ा पहनते हैं, तब भी कामवासमा का अभ्यास कामवासना व्यर्थ होती है, तब आपने उठकर ध्यान किया कुछ ? चल रहा है। जब आप आईने के सामने खड़े होकर कपड़े पहनकर तब आपने उठकर कोई अभ्यास किया कि यह वैराग्य का क्षण | देखते हैं, तो सच में आप यह देखते हैं कि आपको आप कैसे लग गहरा हो जाए! नहीं; तब आप चुपचाप सो गए। रहे हैं? या आप यह देखते हैं कि दूसरों को आप कैसे लगेंगे? और लेकिन कामवासना के लिए आप बहत अभ्यास करते हैं। राह अगर दसरों का थोडा खयाल करेंगे. तो अगर परुष देख रहा है चलते अभ्यास चलता है। फिल्म देखते अभ्यास चलता है। रेडियो | आईने में, तो दूसरे हमेशा स्त्रियां होंगी। अगर स्त्रियां देख रही हैं, सुनते अभ्यास चलता है। किताब पढ़ते अभ्यास चलता है। मित्रों | तो दोनों हो सकते हैं, पुरुष और स्त्रियां भी। क्योंकि स्त्रियों की से बात करते अभ्यास चलता है। मजाक करते अभ्यास चलता है। कामवासना ईर्ष्या से इतनी संयुक्त हो गई है, जिसका कोई हिसाब अगर कोई आदमी ठीक से जांच करे अपने चौबीस घंटे की, तो नहीं है। पुरुष होंगे कि कोई देखकर प्रसन्न हो जाए, इसलिए; और चौबीस घंटे में कितने समय वह कामवासना का अभ्यास कर रहा स्त्रियों की याद आएगी कि कोई स्त्री जल जाए, राख हो जाए, है, देखकर दंग हो जाएगा। अगर मजाक भी करता है किसी से, तो | इसलिए। मगर दोनों कामवासना के ही रूप हैं। दोनों के भीतर गहरे भीतर कामवासना का कोई रूप छिपा रहता है। में तो वासना ही चल रही है। दुनिया की सब मजाकें सेक्सुअल हैं, निन्यानबे परसेंट। यह अभ्यास चौबीस घंटे चल रहा है। तो फिर वैराग्य का जो निन्यानबे प्रतिशत मजाक सेक्स से संबंधित हैं, कामवासना से पक्षी आता है आपके पास, कोई जगह नहीं पाता जहां बैठ सके; संबंधित हैं। हंसता है, घूरकर देखता है, रास्ते पर चलता है; चलने | | व्यर्थ हो जाता है। आपने जो मकान बनाया है, वह वासना के पक्षी का ढंग, कपड़े पहनने का ढंग, उठने का ढंग, बोलने का ढंग, | | के लिए बनाया है। इसलिए सब तरफ से उसको निमंत्रण है, निवास अगर थोड़ा गौर करेंगे तो कामवासना से संबंधित पाएंगे। के लिए मौका है। 254 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < वैराग्य और अभ्यास > जीवन दोनों देता है आपको, वैराग्य भी और राग भी। लेकिन । राग का रास्ता वही है, जो वैराग्य का। सिर्फ आपका चेहरा उलटी राग का अभ्यास है, इसलिए राग टिक जाता है। वैराग्य का । तरफ होगा। जिन-जिन चीजों में आपने रस लिया था, उन-उन चीजों अभ्यास नहीं है, इसलिए वैराग्य नहीं टिकता है। जीवन में अंधेरा में विरस। जिन-जिन चीजों के लिए दीवाने हुए थे, उन-उन चीजों भी है, उजेला भी। राग भी, विराग भी। यहां क्रोध भी आता है, की व्यर्थता। जैसे-जैसे दौड़े थे, वैसे-वैसे विपरीत यात्रा। पश्चात्ताप भी। लेकिन क्रोध के लिए पूरा इंतजाम है, पूरी मशीनरी किस-किस चीज में रस लिया है? किस-किस चीज में रस लिया है आपके पास। पश्चात्ताप की कोई मशीनरी नहीं है। आ जाता है, है? उस-उस चीज के यथार्थ को देखना जरूरी है। क्योंकि यथार्थ चला जाता है। उसकी कोई गहरी आप पर पकड़ नहीं छूट जाती। उसके विरस को भी उत्पन्न कर देता है। किस चीज का आकर्षण है? जीवन आपको पूरे अवसर देता है। लेकिन जिस चीज का किसी प्रियजन का हाथ बहुत प्रीतिकर लगता है, हाथ में लेने जैसा अभ्यास है, आप उसी का उपयोग कर सकते हैं। करीब-करीब लगता है। तो लेकर बैठ जाएं, लेकिन लेकर भूलें न। हाथ हाथ में ऐसा समझिए कि आप पैदल चल रहे हैं और रास्ते में आपको पड़ी| ले लें और अब थोड़ा ध्यान करें कि क्या रस मिल रहा है? सिवाय हुई कार मिल जाए, बिलकुल ठीक। जरा स्विच आन करना है कि | | पसीने के कुछ भी मिलता नहीं है। थोड़ी ही देर में मन होगा कि अब कार चल पड़े। लेकिन अगर आपका कोई अभ्यास नहीं है, तो आप | यह हाथ छोड़ना चाहिए। वैराग्य अपने आप ही आता है! पैदल ही चलते रहेंगे। और खतरा एक है कि कहीं कार का मोह लेकिन खुद के ही राग में किए गए वायदे दिक्कत देते हैं। राग पकड़ जाए, तो गले में रस्सी बांधकर, कार से बांधकर उसको | में हम कहते हैं कि तेरा हाथ हाथ में आ जाए, तो दुनिया की कोई खींचने की कोशिश करेंगे, उसमें और झंझट में पड़ेंगे। उससे तो | ताकत छुड़ा नहीं सकती। दुनिया की ताकत की बात दूर है, पैदल ही तेजी से चल लेते। पांच-सात मिनट के बाद दुनिया की कोई ताकत दोनों के हाथ साथ 'अभ्यास जो है, वही आप कर पाएंगे। जिसका अभ्यास नहीं है, नहीं रख सकती, इकट्ठा नहीं रख सकती। पांच-सात मिनट के बाद वह आप नहीं कर पाएंगे। इसलिए कृष्ण ने वैराग्य को नंबर दो पर पसीना-पसीना ही रह जाता है! बदबू-बदबू ही छूट जाती है। बाक पर वैराग्य आपको समझाया। कष्ण पांच-सात मिनट के बाद कोई बहाना खोजकर हाथ अलग करना के सूत्र में अभ्यास पहले और वैराग्य बाद में उन्होंने कहा है। उन्होंने | पड़ता है। कहा, जिसे अभ्यास और वैराग्य...। जरा गौर से देखना कि जब हाथ अलग करते हैं, तब मन में वैराग्य को नंबर दो पर कृष्ण ने क्यों रखा? वैराग्य है तो प्रथम। वैराग्य का एक क्षण है। उस क्षण को थोड़ा गहरा करने की जरूरत क्योंकि वैराग्य न हो, तो अभ्यास नहीं हो सकता। लेकिन नंबर दो है, पहचानने की जरूरत है। क्योंकि नहीं तो कल फिर हाथ हाथ में पर रखने का कारण है। और वह कारण यह है कि वैराग्य तो रोज | | लेने की आकांक्षा पैदा होगी। अभी वैराग्य का क्षण है, अभ्यास कर आता है, लेकिन अभ्यास न हो तो टिक नहीं सकता। अभ्यास क्या लें। थोड़ा गौर से देखें। और दो मिनट ज्यादा लिए रहें हाथ को, हो वैराग्य का? | और थोड़ा गौर से सोचें कि क्या दुबारा फिर हाथ को हाथ में लेने जैसे आपने कामवासना का अभ्यास किया है, वैसे ही वैराग्य की आकांक्षा पैदा करेगा मन? अगर करता हो, तो अब इस हाथ का भी अभ्यास करना पड़े। जैसे आपने राग का अभ्यास किया है, | को जिंदगीभर हाथ में ही लिए रहें! अब जल्दी क्या है? हाथ हाथ वैसे ही वैराग्य का अभ्यास करना पड़े। जिस तरह आप काम का | में है, हम रुक जाएं। मन को थोड़ा मौका दें कि वह वैराग्य को भी चिंतन करते हैं, उसी तरह निष्काम का चिंतन करना पड़े। ठीक वही पहचाने। जल्दी न करें। क्योंकि जल्दी खतरनाक है। जल्दी के बाद करना पड़े, उलटे मार्ग पर। जैसे कि आप यहां तक आए अपने घर वैराग्य थिर न हो पाएगा। से, तो जिस रास्ते से आए हैं, उसी से वापस लौटिएगा न! और तो भोजन बहुत अच्छा लग रहा है, तो खा लें जरा; खाते चले कोई उपाय नहीं है। मुझ तक जिस रास्ते से आप आए हैं, लौटते | | जाएं। फिर रुकें मत, जब तक कि प्राण संकट में न पड़ जाएं। रुकें वक्त उसी रास्ते से वापस लौटिएगा। एक ही फर्क होगा, रास्ता वही | | मत। और जरा देख लें कि इस सब स्वाद का क्या फल हो सकता होगा, आप वही होंगे, एक ही फर्क होगा कि आपका चेहरा उलटी | | है! और जब स्वाद पूरा ले चुकें, तो जब मुंह में किसी चीज को, तरफ होगा। और तो कोई फर्क होने वाला नहीं है। | जिसकी लोग कल्पना करते हैं...। खाने वाले प्रेमी हैं...। 1255 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ << गीता दर्शन भाग-3> टाइप हैं लोगों के अलग-अलग। कुछ हैं, जिनको सब चीज छूट कोई सौदा करने जा रहा है जिसमें लाभ होने वाला है, या कोई नेता जाए, लेकिन भोजन का रस कठिनाई दे जाए। कुछ हैं, जिन्हें सब | | वोटर से वोट मांगने जा रहा है, तब उनकी टपकती हुई लार देखें! छूट जाए, लेकिन काम का रस कठिनाई दे जाए। कुछ हैं, जिन्हें तब उनके चेहरे से जो झलक रहा है, वह देखें! वह हम सबके ऊपर काम, भोजन किसी चीज की चिंता नहीं। सिर्फ अहंकार का रस है, | उतरता है वैसा ही। लेकिन जब विरक्ति का क्षण पीछे आता है, यश का। वे भूखे रह सकते हैं, जेल जा सकते हैं, लेकिन कोई पद तब? तब हम विरक्ति के क्षण को जल्दी से गुजारने की कोशिश पर बिठा दो! तो वे सब कर सकते हैं। पत्नी छोड़ सकते हैं, बच्चे करते हैं। छोड़ सकते हैं। सब जीवन भारी तपश्चर्या में गुजार सकते हैं। बस ___ अभी एक महिला मुझे मिलने आईं; उनके पति चल बसे। तो इतना ही पक्का कर दो कि कोई कर्सी पर...। और ऐसा भी जरूरी | मुझसे वे कहने लगी, हमने बहुत सुख पाया। साथ रहे। बहुत सुख नहीं है कि वे पहले ही से कहें, कुर्सी पर बिठा दो। हो सकता है, | | पाया। अब मुझे बहुत पीड़ा है, बहुत दुख है। मुझे कुछ सांत्वना उनको भी पक्का पता न हो कि कुर्सी पर बैठने के लिए जेल जा रहे | चाहिए। मैंने कहा, तुम गलत जगह आ गई हो। मैं सांत्वना नहीं हैं। चित्त बड़ा अचेतन काम करता है। लेकिन जब जेल से छूटेंगे, दूंगा। सुख तुमने पाया, सांत्वना मैं दूं? मेरा क्या कसूर है? मेरा . तब सबको पता चल जाएगा कि वे जेल किसलिए गए थे। इसमें कोई हाथ ही नहीं है। उसने कहा, नहीं-नहीं; आपका तो कोई जो त्यागी दिखाई पड़ते हैं, उनमें भी सौ में से मुश्किल से एकाध | हाथ नहीं है। लेकिन कई संतों-महात्माओं के पास इसीलिए जा रही आदमी होता है, जो वैराग्य को उपलब्ध होता है। त्याग भी हूं कि सांत्वना मिल जाए। मैंने कहा, किन्हीं ने दी? उन्होंने कहा, इनवेस्टमेंट की तरह काम करता है। इधर त्याग करते हैं, उधर कुछ बहुतों ने दी। तो मैंने कहा, फिर मेरे पास किसलिए आईं? अगर उनकी भोग की इच्छा है। लेकिन हम पहचान नहीं पाते। यह हो मिल गई. तो खतम करो अब यह बात। उसने कहा. नहीं. मिलती सकता है कि मैं गोली खाने को राजी हो जाऊं, अगर फूलमाला मेरे नहीं। मैंने कहा, मिलेगी भी नहीं। सुख तुम पाओगी, तो जब दुख ऊपर पड़ने को हो। यह हमें दिखाई नहीं पड़ेगा, कि कौन फूलमाला | | का क्षण आएगा, उसे कौन पाएगा? राग तुम भोगोगी, जब विराग पड़ने के लिए गोली अपने ऊपर डलवाएगा! यह वह आदमी कह | का क्षण आएगा, उसे कौन भोगेगा? अब तुम इस तरकीब में लगी रहा है, जिसको यश की आकांक्षा और पकड़ नहीं है। जिसको है, | हो कि तुमने राग तो भोग लिया, अब यह जो विराग की उतरती वह पूरा जीवन इस पर दांव पर लगा सकता है। धारा है, इसको कोई भुलाने की तरकीब दे दे। यह नहीं होगा। लेकिन यह जो चित्त की व्यवस्था है, इसमें जब वैराग्य का क्षण मैंने कहा, मैं तो तुमसे प्रार्थना करूंगा कि तुम एक काम करो; आता है, उस वक्त ठहरने की जरूरत है। उस अंतराल में रुकने की यह कीमती होगा। जितना पति का साथ रहना कीमती नहीं हआ. जरूरत है। तो अभ्यास की शरुआत हो जाएगी। जैसे समद्र में पानी उससे ज्यादा पति की मत्य कीमती हो सकती है। क्योंकि पति के बढ़ता है, फिर गिरता है, ठीक वैसे ही चित्त में राग आता है, फिर | साथ से कुछ मिल गया हो, ऐसा मैं नहीं मानता। तुम फिर ईमानदारी गिरता है। जब राग आता है, तब आप बड़ा इंतजाम करते हैं। और | से मुझसे कहो कि सच में सुख था? जब वैराग्य आता है, जब गिरता है राग, तब आप कुछ नहीं करते।। वह महिला थोड़ी बेचैन हुई। उसने कहा कि नहीं; कहने को तब आप कोई व्यवस्था नहीं करते कि वह विराग थिर हो जाए। उस कहते हैं। सुख तो क्या था; ठीक था, सो-सो; ऐसा ही ऐसा था! विराग को थिर करने के लिए वैराग्य के क्षणों का उपयोग करिए। मैंने कहा, और थोड़ा गौर से सोचो। क्योंकि पहले तो तुम बिलकुल और जिंदगी में जितने क्षण राग के हैं, उतने ही विराग के हैं। आश्वस्त थीं कि बहुत सुख पाया। अब तुम कहती हो, सो-सो, जितने दिन हैं, उतनी ही रातें हैं। उसमें कोई अंतर नहीं है। वह | ऐसा-ऐसा। थोड़ा और जरा भीतर जाओ। उसने कहा, लेकिन आप अनुपात बराबर है। हर राग के साथ विराग आएगा ही, इसलिए क्यों दबे हुए घाव उघाड़ना चाहते हैं? मैं नहीं उघाड़ना चाहता। मैं अनुपात बराबर है। पर उस उतरते हुए क्षण का आप उपयोग नहीं तुम्हें दिखाना चाहता हूं कि स्थिति सच में क्या है। कहीं ऐसा तो करते हैं। उसका कैसे उपयोग करें? जैसा आपने चढ़ते हुए क्षण का नहीं कि अब तुम कल्पना कर रही हो कि तुमने सुख भोगा। यह उपयोग किया था। कितना रस लिया था! कल्पना, अतीत में सुख भोगने की, वैराग्य के क्षण को गंवा दोगी। अगर कोई प्रेमी अपनी प्रेयसी से मिलने जा रहा है, या कोई धनी | | ठीक से देखो कि तुमने सुख भोगा? 256 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - वैराग्य और अभ्यास > वह स्त्री थोड़ी डर गई। उसने आंख बंद कर ली। फिर उसने कहा | पाया था। हालांकि उस दिन बिलकुल नहीं पाया था; लेकिन आज कि नहीं, सुख तो नहीं भोगा। मैने कहा, कभी तुम्हारे मन में ऐसा सोच रहे हैं। आज सोच रहे हैं, ताकि कल फिर उस होटल की तरफ खयाल आया था कि इस पति के साथ विवाह न होता, तो अच्छा | पैर जा सकें। था? क्योंकि ऐसी पत्नी जरा खोजना मुश्किल है। उसने कहा, आप | तो मैं आपसे कहूंगा कि अतीत का भी सत्य साफ है। उस भी कैसी बात करते हैं। मैंने कहा, मैं तुम्हें एक कहानी कहता हूं। महिला को मैंने कहा, ठीक से देखो। उसने हिम्मत जुटाकर कहा एक चर्च में एक पादरी ने एक सांझ कहा कि जिन दंपतियों में | | कि नहीं, कोई सुख तो नहीं पाया। मैंने कहा, जिसके जीवन से तुमने कभी झगड़ा न हुआ हो, वे आगे आ जाएं। कोई पांच सौ लोग थे। सुख नहीं पाया, और जिसको तुम कहती हो खुद कि मैंने कई बार पांच-सात जोड़े आगे आए। उस पादरी ने भगवान से कहा, हे सोचा कि इस आदमी से मिलना न होता, तो अच्छा; विवाह न परमात्मा, इन पक्के झूठों को आशीर्वाद दे, ब्लेस दीज डैम लायर्स! किया होता, तो अच्छा...। क्या कभी तुम्हारे मन में ऐसा भी उन्होंने कहा, आप हमें झूठा कह रहे हैं? खयाल आया था कि यह आदमी मर जाए या मैं मर जाऊं? । कहने की कोई जरूरत नहीं है। मैंने यही जानने के लिए तुम्हें __उस स्त्री ने कहा, अब आप जरा ज्यादा बात कर रहे हैं। मैं बाहर बुलाया था कि कितने झूठे आज यहां इकट्ठे हैं। उनमें से एक धीरे-धीरे आपसे कछ बातों पर राजी होती जाती है. तो आप ज्यादा ने पूछा, लेकिन आपको पता कैसे चला? उसने कहा कि मैं भी | बात कर रहे हैं! मैंने कहा कि मैं कुछ ज्यादा नहीं कर रहा। ऐसा दंपति हूं। मुझे भी बहुत कुछ पता है। और तुम सब अलग-अलग मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि बहुत मुश्किल है कि जिन्हें हम प्रेम करते आकर मुझसे चर्चा कर गए हो। तुम भूल गए हो। हैं, उनकी हत्या का या उनके मर जाने का खयाल हमें न आता हो। वे पति भी आकर चर्चा कर चुके हैं। वे उसी के सुनने वाले हैं। स्वीकार करना कठिन पड़ता है। खुद भी स्वीकार करना कठिन और ईसाइयों में कन्फेशन होता है। पादरी के पास जाकर पति भी | पड़ता है कि ऐसा कैसे! कई दफे जब मन में आता है, तो हम कहते बता आता है, किस मुसीबत में गुजर रहा है; पत्नी भी बता आती हैं, नहीं-नहीं, यह ठीक नहीं है। इस तरह की बात बड़ी गलत है। है। तुम अलग-अलग सब बता गए हो मुझे। और अब तुम जोड़े यह मन बड़ा खराब है। जैसे कि मन दोषी है और हम निर्दोष, की तरह खड़े हो कि हममें कोई कलह नहीं है! अलग खड़े हैं! मैंने उस महिला को कहा कि ठीक से देख ले। कहीं अब यह वह महिला ईमानदार थी और उसने कहा कि ऐसा खयाल आया। सुख का खयाल झूठा न हो। लेकिन जैसे ही उसने कहा कि ऐसा खयाल आया, जैसे उसके ऊपर हम भविष्य में भी झूठे सुख निर्मित करते हैं और अतीत में भी। से एक भार उतर गया। और उसने कहा, सच में ही मैं हैरान हूं। जिस हम अदभुत हैं। जो सुख हमने कभी नहीं पाए, हम सोचते हैं, हमने | व्यक्ति के साथ रहकर मैं सुख न पा सकी, जिस व्यक्ति के साथ अतीत में पाए। यह तरकीब है मन की। क्योंकि अतीत में सुख रहकर मैंने कई बार सोचा कि दो में से एक समाप्त ही हो जाए तो निर्मित करें, तो ही भविष्य में आशा करना आसान है। अन्यथा | अच्छा, आज उसकी मृत्यु पर मैं दुख क्यों पा रही हूं? भविष्य में आशा करना दुरूह हो जाएगा। यह अभ्यास है काम का। और मैंने कहा कि जो दुख पा रही हो, उससे बचने की भी कोशिश वैराग्य का अभ्यास यास करना है. तो अतीत के सखों को ठीक से चल रही है। इस दख को परा पाओ। छाती पीटो रोओ चिल्लाओ। देखना, ताकि साफ हो जाए कि वे दुख थे। अगर पूरा अतीत दुख | जिस तरह नाची थी शादी के वक्त, उसी तरह अब मृत्यु के वक्त सिद्ध हो जाए, तो भविष्य में सुख की आशा क्षीण हो जाएगी, गिर | छाती पीटो, तड़पो, जमीन पर लोटो। दुख भोगो। और देखो इस दुख जाएगी; क्योंकि भविष्य अतीत के प्रोजेक्शन, अतीत के फैलाव के | को गौर से, ताकि यह वैराग्य का क्षण ठहर जाए, और कल फिर अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। कल्पनाएं हमारी स्मृतियों के ही पुरानी आशाएं और फिर पुराने जाल फिर खड़े न हों। नए रूप हैं। भविष्य की योजनाएं, हमारे अतीत की ही विफल लाओत्से ने लिखा है कि एक आदमी मरने के करीब था। योजनाओं को फिर से सम्हालना है। लाओत्से गांव का बूढ़ा आदमी था, फकीर था। तो उसकी पत्नी उसे काम का अभ्यास चलता है। तो अतीत में हम सोचते हैं, कैसा कई बार कहने आई कि मेरे पति को बचा लो। उसके बिना मैं सुख मिला! उस दिन भोजन किया था उस होटल में, कैसा सुख बिलकुल न रह सकूँगी। लाओत्से ने कहा, बचाना तो मेरे हाथ में 257 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3> नहीं है। लेकिन तुम बिलकुल बिना उसके न रह सकोगी, इस पर | अभ्यास के संबंध में कुछ दो-तीन बातें और आपसे कहूं। भरोसा मत करना। क्योंकि मैंने कई लोगों को मैं बढा आदमी एक तो यह कि कछ लोगों का खयाल है कि परमात्मा को पाने हूं-मैंने कई लोगों को मरते और कई लोगों को यही बात करते | के लिए किसी अभ्यास की कोई भी जरूरत नहीं है। जैसा कि सुना। और सब बिना उसके रह लेते हैं। जापान में कुछ झेन फकीर कहते हैं कि परमात्मा को पाने के लिए नहीं; वह नहीं मानी। उसने कहा, वे और और होंगे; मैं और हूं। | कोई भी अभ्यास की जरूरत नहीं। यद्यपि वे ऐसा कहते ही हैं, हर आदमी को यही खयाल है कि मैं एक्सेप्शन हूं। वे और और। अभ्यास पूरी तरह करते हैं। पर वे उसको नाम देते हैं, अभ्यासरहित होंगे, मैं और हूं। मैं मर जाऊंगी, एक क्षण न जी सकूँगी। लाओत्से | | अभ्यास, एफर्टलेस एफर्ट, प्रयत्नरहित प्रयत्न। ' ने कहा, अब तक किसी को मरते नहीं देखा। इस गांव में मैं बहुत | ठीक है। उनके कहने में कुछ अर्थ है। अगर गीता का यह वचन दिन से हूं। हालांकि यही बात बहुतों को कहते सुना। और जितने उन्हें बताया जाए, तो वे कहेंगे, अभ्यास से नहीं मिलेगा परमात्मा। जोर से तुम कहती हो, इतने ही जोर से कहते सुना। लेकिन उस स्त्री क्योंकि स्वभाव अभ्यास से नहीं मिलता। अभ्यास से आदतें ने कहा, आप औरों की बात कर रहे हैं। मेरी बात करिए। लाओत्से | मिलती हैं। ने कहा, वक्त आएगा; तो तुझसे मुलाकात करूंगा। इसको थोड़ा समझना पड़ेगा। स्वभाव अभ्यास से नहीं मिलता; पति मर गया। तो उन दिनों चीन में एक प्रथा थी कि पति की कब्र अभ्यास से आदतें मिलती हैं। स्वभाव तो मिला ही हुआ है। और पर गीली मिट्टी लगाते थे और उस पर थोड़ी दूब उगाते थे। और परमात्मा को पाना कोई आदत नहीं है कि आप अभ्यास कर लें। रिवाज यह था कि जब तक पति की कब्र की गीली मिट्टी सूखकर | जैसे किसी को धनुर्विद्या सीखनी हो, तो अभ्यास करना पड़ेगा। कड़ी न हो जाए और उस पर दूब पूरी छा न जाए, तब तक उस स्त्री | | क्योंकि धनुर्विद्या एक आदत है, स्वभाव नहीं। अगर न सिखाया को दूसरा विवाह-कम से कम तब तक नहीं करना चाहिए। | जाए, तो आदमी कभी भी धनुर्विद न हो सकेगा। जैसा मैंने सुबह लाओत्से ने देखा कि वह मर गया आदमी। पांच-सात दिन के | कहा, किसी को भाषा सीखनी हो, तो अभ्यास करना पड़ेगा। बाद वह कब्रिस्तान के पास से गुजरता था, तो देखा कि वह औरत क्योंकि भाषा एक आदत है, एक हैबिट है, स्वभाव नहीं है। लेकिन कब्र पर पंखा कर रही है। उसने सोचा कि यह औरत ठीक ही कहती | श्वास तो चलेगी आदमी की बिना अभ्यास के, कि उसका भी थी कि यह एक्सेप्शनल है, यह विशेष। हद! मरे हुए पति को हवा अभ्यास करना पड़ेगा! खून तो बहेगा बिना अभ्यास के, कि उसका कर रही है! आश्चर्य! लाओत्से ने कहा, मुझसे गलती हो गई। भी अभ्यास करना पड़ेगा! हड्डियां तो बड़ी होती रहेंगी बिना निश्चित गलती हो गई। जिंदा आदमियों को पत्नियां हवा नहीं अभ्यास के, कि उनका भी अभ्यास करना पड़ेगा! करतीं, मरे हुए आदमी को पत्नी हवा कर रही है! मुझसे गलती हो तो झेन फकीर कहते हैं, परमात्मा को पाना तो स्वभाव को पाना गई। यह औरत निश्चित ही विशेष है। है, इसलिए अभ्यास की कोई भी जरूरत नहीं। तो हम कह सकते लाओत्से पास गया और कहा कि देवी, मैं प्रणाम करता हूं। मुझे हैं, हम तो कोई अभ्यास कर ही नहीं रहे, तो फिर हमको परमात्मा भरोसा नहीं आया कि कोई मुर्दा पति को हवा करेगा। क्यों नहीं मिलता? झेन फकीर कहेंगे, आप नहीं कर रहे, ऐसा मत उसने कहा कि भरोसे की जरूरत नहीं है। हवा पति को नहीं कर कहिए। आप परमात्मा को खोने का अभ्यास कर रहे हैं। अभ्यास रही हूं, कब्र जल्दी सूख जाए! वह एक आदमी मेरे पीछे पड़ा है, | | आप कर रहे हैं परमात्मा को खोने का। तो झेन फकीर कहते हैं, उसके मैं प्रेम में पड़ गई हूं। और यह कब्र सूखने में देर ले रही है। | सिर्फ परमात्मा को खोने का अभ्यास मत करिए, और आप आकाश में बादल घिरे हैं; कहीं बरसा न हो जाए! परमात्मा को पा लेंगे। ऐसा है आदमी का मन! मत सोचना किसी और का! अगर किसी मगर परमात्मा को खोने का अभ्यास न करना, बहुत बड़ा और का सोचा, तो राग का अभ्यास होगा। अगर जाना कि मेरा भी, | अभ्यास है। उसमें सारा वैराग्य साधना पड़ेगा। और सारी विधियां तो विराग का अभ्यास होगा। फिर से दोहरा दूं। अगर सोचा कि और साधनी पड़ेगी। का होगा ऐसा, तो राग का अभ्यास कर रहे हैं आप। अगर सोचा कि लेकिन झेन फकीर संगत हैं। उनकी बात का अर्थ है। वे यह जोर मेरा भी ऐसा ही है, तो वैराग्य का अभ्यास होता है। देना चाहते हैं कि जब परमात्मा आपको मिल जाए, तो आप ऐसा 258 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - वैराग्य और अभ्यास - मत समझना कि आपके अभ्यास से मिल गया। कोई नहीं समझता | करना है, तो कहना ही फिजूल है किसी से कि जागो। ऐसा। जब परमात्मा मिलता है, तो ऐसा ही पता चलता है कि वह । अगर मैं आपसे कहता हूं, जागो, तो इसका मतलब यह हुआ तो मिला ही हुआ था। मेरे गलत अभ्यासों के कारण बाधा पड़ती | | कि मैं आपसे कह रहा हूं कि कुछ करो। वह करना कितना ही सूक्ष्म थी। ऐसा समझ लें कि एक झरना है, उसके ऊपर एक पत्थर रखा | हो. लेकिन करना ही पडेगा। अगर मैं यह भी कहता हं. नींद तोडो. है। पत्थर को हटा दें, तो झरना फट पडता है। झरने को फटने के तो क्या फर्क पड़ता है। गीता कहती है, राग तोड़ो। कोई कहता है, लिए कोई अभ्यास नहीं करना पड़ता। लेकिन पत्थर अगर अटा रहे नींद तोड़ो। कोई कहता है, मूर्छा तोड़ो। कोई कहता है, होश ऊपर, तो बाधा बनी रहती है। लाओ। कोई कहता है, जागो। उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। एक तो झेन फकीर कहते हैं, आदमी की आदतें बाधाओं का काम | बात तय है कि कुछ करना पड़ेगा, समथिंग इज़ टु बी डन। या यह कर रही हैं, रुकावटों का। भी अगर हम कहना चाहें, तो हम कह सकते हैं, समथिंग इज़ टु ऐसा समझें कि आप मकान के भीतर बैठे हैं, दरवाजा बंद करके। बी अनडन। लेकिन वह भी एक काम है। अगर हम यह कहें कि अगर मैं आपसे कहूं कि अगर आपको सूरज चाहिए, तो सूरज को कुछ करना ही पड़ेगा, या अगर हम यह कहें कि कुछ नहीं ही करना भीतर लाने का अभ्यास करना पड़ेगा! तो आप कहेंगे, यह कहीं हो | पड़ेगा, तो भी कुछ करने की जरूरत है। जैसे हम हैं, वैसे ही हम सकता है? सूरज को हम भीतर लाने का अभ्यास कैसे करेंगे? स्वीकृत नहीं हो सकते। 'झेन फकीर कहते हैं, भीतर लाने का कोई अभ्यास नहीं करने की अभ्यास का इतना ही अर्थ है कि आदमी जैसा है, ठीक वैसा जरूरत है; सिर्फ दरवाजा बंद करने का जो अभ्यास किया हुआ है, परमात्मा में प्रवेश नहीं कर सकता; उसे रूपांतरित होकर ही प्रवेश उसको छोड़िए। दरवाजा खला करिए, सूरज भीतर आ जाएगा। होना पड़ेगा। वह रूपांतरण कैसे करता है, इससे बहुत फर्क नहीं सूरज भीतर लाना नहीं पड़ेगा, सूरज आ जाएगा। आप सिर्फ पड़ता। हजार विधियां हो सकती हैं। हजार विधियां हो सकती हैं। दरवाजा बंद मत करिए। हजार विधियां हैं। इसका यह मतलब हुआ कि हम चाहें तो अभ्यास से परमात्मा | जैसे पर्वत पर चढ़ने के लिए हजार मार्ग हो सकते हैं। और से वंचित हो सकते हैं। और चाहें तो अनभ्यास से, नो एफर्ट से, जरूरी नहीं कि आप बने-बनाए मार्ग से ही चढ़ें। आप चाहें, थोड़ी अभ्यास छोड़ देकर परमात्मा को पा सकते हैं। लेकिन अभ्यास को तकलीफ ज्यादा लेनी हो, तो बिना मार्ग के चढ़े। जहां पगडंडी नहीं छोड़ना अभ्यास करने से कम कठिन बात नहीं है। इसलिए झेन | है, वहां से चढ़े। पगडंडी बचाकर चढ़ें। आपकी मर्जी। लेकिन फकीर अभ्यास की विधियां उपयोग करते हैं। पगडंडी बचाकर भी आप जब चढ़ रहे हैं, तब फिर एक पगडंडी लेकिन कष्णमर्ति ने एक कदम और हटकर बात कही है। वे का ही उपयोग कर रहे हैं. सिर्फ आप पहले आदमी हैं उसका कहते हैं. अभ्यास छोड़ने के भी अभ्यास की जरूरत नहीं है। अगर उपयोग करने वाले: इससे कोई फर्क नह कहीं से भी गीता के इस वक्तव्य के खिलाफ इस सदी में कोई वक्तव्य है, तो | चढ़ें, पहाड़ पर हजार तरफ से चढ़ा जा सकता है, लेकिन चढ़कर वह कृष्णमूर्ति का है। कृष्णमूर्ति कहते हैं, इतने भी अभ्यास की | एक ही पर्वत पर पहुंच जाना हो जाता है। जरूरत नहीं है—अभ्यास छोड़ने के लिए भी। कोई मेथड, किसी हजार विधियां हैं, अनंत विधियां हैं। दुनिया के सब धर्मों ने विधि की जरूरत नहीं है। अलग-अलग विधियों का उपयोग किया है। और इन विधियों के लेकिन जो कृष्णमूर्ति को थोड़ा भी समझेंगे, वे पाएंगे, वे | कारण बहुत वैमनस्य पैदा हुआ है—बहुत वैमनस्य पैदा हुआ है। जिंदगीभर से एक विधि की बात कर रहे हैं। उस विधि का नाम है, क्योंकि प्रत्येक विधि की एक शर्त है; वह मैं आपसे कहूं, तो बहुत अवेयरनेस। उस विधि का नाम है, जागरूकता। वह मेथड है। उपयोगी होगी। सिर्फ इतना ही है कि वे उसको मेथड नहीं कहते हैं। कोई हर्जा नहीं, प्रत्येक विधि की यह शर्त है कि जिस आदमी को उस विधि का उसको नो-मेथड कहिए। कहिए कि यह अविधि है। इससे कोई उपयोग करना हो, उसे उस विधि को एब्सोल्यूट मानना चाहिए। फर्क नहीं पड़ता। मगर जागरूकता का अभ्यास करना ही पड़ेगा। प्रत्येक विधि की यह शर्त है कि जिस आदमी को उस विधि पर जाना जागना पड़ेगा ही। और अगर जागरूकता का कोई अभ्यास नहीं हो, उसे इस भाव से जाना चाहिए कि यही विधि सत्य है। 259 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 क्यों? क्योंकि हम इतने कमजोर लोग हैं कि अगर हमें जरा भी पता चल जाए कि बगल का रास्ता भी जाता है, उससे बगल का भी रास्ता जाता है, तो बहुत संभावना यह है कि दो कदम हम इस रास्ते पर चलें, दो कदम बगल के रास्ते पर चलें, दो कदम तीसरे रास्ते पर चलें। और जिंदगीभर रास्ते बदलते रहें, और मंजिल पर कभी न पहुंचें! इसलिए दुनिया के प्रत्येक धर्म को डाग्मेटिक असर्सन्स करने पड़े। कुरान को कहना पड़ा, यही सही है; और मोहम्मद के सिवाय उस परमात्मा का रसूल कोई और नहीं है। एक ही परमात्मा और एक ही उसका पैगंबर है। इसका कारण यह नहीं है कि मोहम्मद मेटिक हैं। इसका यह कारण नहीं है कि मोहम्मद पागल हैं और कहते हैं कि मेरा ही मत ठीक है। लेकिन असलियत यह है कि यह मोहम्मद उन लोगों के लिए कहते हैं, जो सुन रहे हैं। क्योंकि उनको अगर यह कहा जाए, सब मत ठीक हैं, मुझसे विपरीत कहने वाले भी ठीक हैं, उलटा जाने वाले भी ठीक हैं; इस तरफ जाने वाले, उस तरफ जाने वाले भी ठीक हैं; तो वह जो कनफ्यूज्ड आदमी है, जो भ्रमित आदमी है, जो वैसे ही भ्रमित खड़ा है, वह कहेगा, जब सभी ठीक हैं, तो शक होता है कि कोई भी ठीक नहीं है । बहुत संभावना यह है कि जब हम कहें, सभी ठीक हैं, तो आदमी को शक हो । महावीर के साथ ऐसा ही हुआ ! इसलिए दुनिया में महावीर के मानने वालों की संख्या बढ़ नहीं सकी; और कभी नहीं बढ़ सकेगी। उसका कारण है। उसके कारण महावीर हैं। आज भी महावीर के मानने वालों की संख्या - मानने वालों की, सच में जानने वालों की नहीं; मानने वालों की संख्या – पैदाइशी मानने वालों की संख्या; अब पैदाइश से मानने का कोई भी संबंध नहीं है, लेकिन पैदाइशी मानने वालों की संख्या तीस लाख से ज्यादा नहीं है। महावीर को हुए पच्चीस सौ वर्ष हो गए हैं। अगर महावीर तीस दंपतियों को कनवर्ट कर लेते, तो तीस लाख आदमी पैदा हो जाते पच्चीस सौ साल में। महावीर की बात कीमती है बहुत, लेकिन फैल नहीं सकी, क्योंकि महावीर ने नान - डाग्मेटिक असर्सन किया | महावीर ने कहा, यह भी ठीक, वह भी ठीक; उसके विपरीत जो है, वह भी ठीक। महावीर ने सप्तभंगी का उपयोग किया। अगर महावीर आप एक वाक्य का उत्तर पूछें, तो वे सात वाक्यों में जवाब देते । आप पूछें, यह घड़ा है? तो महावीर कहते हैं, हां, यह घड़ा है। I | कहते हैं, रुको, दूसरी भी बात सुन लो। यह घड़ा नहीं भी है; क्योंकि मिट्टी है। रुको, चले मत जाना, तीसरी बात भी सुन यह घड़ा भी है, घड़ा नहीं भी है। आप भागने लगे, तो महावीर | कहेंगे कि जरा रुको, चौथी बात और सुन लो। यह घड़ा है भी, यह घड़ा नहीं भी है, और यह घड़ा ऐसा है कि वक्तव्य में कहा नहीं जा |सकता, रहस्य है । आप कहने लगे कि बस, अब मैं जाऊं ! तो वे कहेंगे, एक वक्तव्य और सुन लो, यह घड़ा है; अवक्तव्य है। नहीं है; अवक्तव्य है । है भी, नहीं भी है; अवक्तव्य है। घड़ा को थोड़ा-बहुत समझते भी रहे होंगे, वह भी गया! अब आप घड़े में पानी भी मुश्किल से भर पाएंगे। क्योंकि सोचेंगे, घड़ा है भी, घड़ा नहीं भी है। पानी भरना कि नहीं भरना ! पानी बचेगा कि निकल जाएगा! आप दिक्कत में पड़ेंगे। यद्यपि महावीर ने सत्य को जितनी पूर्णता से कहा जा सकता है, कहने की कोशिश की है। इतनी पूर्णता से कहने की कोशिश किसी की भी नहीं है, जितनी महावीर की है। लेकिन इतनी पूर्णता से कहकर वह किसी के काम का नहीं रह जाता। किसी के काम नहीं रह जाता। अगर वे चुप रह जाते, तो भी बेहतर था; शायद आप कुछ समझ जाते । उनकी इतनी बातों से, जो समझते थे, वह भी गड़बड़ हो गया । इसलिए महावीर को अनुगमन नहीं मिल सका। कोई भी विधि, अगर चाहते हैं कि आपके काम पड़ जाए, तो उसे कहना पड़ेगा कि यही विधि ठीक है; कोई और विधि ठीक नहीं है। जानते हुए कि और विधियां भी ठीक हैं। इसलिए दुनिया का प्रत्येक धर्म अपनी विधि को आग्रहपूर्वक कहता है कि यह ठीक है । वह आग्रह आपके ऊपर करुणा है। आपके ऊपर करुणा है, इसलिए । वह करीब-करीब हालत वैसी है कि डाक्टर आपके पास आए। आप उसका प्रिस्क्रिप्शन लेकर कहें कि डाक्टर साहब, यही दवा ठीक है कि और दवाएं भी ठीक हैं? वह कहे कि और भी दवाएं | ठीक हैं। हकीम के पास जाओ, तो भी ठीक हो जाओगे। एलोपैथ के पास जाओ, तो भी ठीक हो जाओगे। आयुर्वेद के पास जाओ, तो भी ठीक हो जाओगे। किसी के पास न जाओ, साईं बाबा के पास जाओ, तो भी ठीक हो जाओगे। कहीं भी जाओ, ठीक हो जाओगे। तो आप उस डाक्टर से कहेंगे, फीस के बाबत क्या | खयाल है! आपको दूं कि न दूं ? नहीं, आपको देने का कोई कारण नहीं है। 260 और ध्यान रखना, वह डाक्टर कितनी ही महत्वपूर्ण दवा दे जाए, वह कचरे की टोकरी में गिर जाएगी; आपके पेट में जाने वाली नहीं Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - वैराग्य और अभ्यास - है। क्योंकि यह डाक्टर भरोसे का नहीं रहा। यह डाक्टर आपके | ___ गीता अपने में पूरी ठीक है, कुरान अपने में पूरा ठीक है। गीता भीतर वह जो एक कनविक्शन, वह जो एक आस्था, एक निष्ठा के ठीक होने से कुरान गलत नहीं होता। कुरान के ठीक होने से जन्माता, इसने नहीं जन्मायी। हालांकि बेचारा ठीक कह रहा था। | गीता गलत नहीं होती। सत्य इतना बड़ा है कि अपने विरोधी सत्य लेकिन निष्ठा आपके भीतर नहीं आई। यह डाक्टर की दवा कितनी को भी आत्मसात कर लेता है। सत्य इतना महान है कि अपने से ही ठीक हो, यह डाक्टर थोड़ा-सा गलत साबित हुआ। यह डाक्टर | विपरीत को भी पी जाता है। और सत्य के इतने द्वार हैं। लेकिन कृपा डाक्टर जैसा लगा ही नहीं। यह भरोसा पैदा नहीं करवा पाया। तब | करके ऐसा मत कहो कि दोनों द्वार एक हैं। नहीं तो वह आदमी फिर दवा काम नहीं करेगी। दवा को लिया भी न जा सकेगा। | दिक्कत में पड़ेगा। न इससे निकल पाएगा, न उससे निकल उपयोग भी संदिग्ध होगा। संदिग्ध उपयोग खतरों में ले जाएगा। | पाएगा। द्वार से तो एक से ही निकलना पड़ेगा। इसलिए प्रत्येक धर्म अपनी विधि के बाबत आग्रहपूर्ण है। वह | | अगर मैं किसी मंदिर में प्रवेश करता हूं, उसके हजार द्वार हैं, तो कहता है, यही विधि ठीक है। और जो इस आग्रहपूर्ण विधि का भी दो द्वार से प्रवेश नहीं हो सकता। प्रवेश एक ही द्वार से करना उपयोग करेगा, वह एक दिन जरूर उस जगह पहुंच जाता है, जहां पड़ेगा। हां, भीतर जाकर मैं जानूंगा कि सब द्वार भीतर ले आते हैं। वह जानता है. और विधियों के लोग भी पहुंच गए। लेकिन यह लेकिन फिर भी मैं आने वालों से कहंगा कि तम किसी एक से ही अंतिम अनुभव है; यह अंतिम अनुभव है। प्रवेश करना। दो से प्रवेश करने की कोशिश में डर यह है कि दोनों तो मैं पसंद नहीं करता कि कोई पढ़े, अल्लाह-ईश्वर तेरे नाम। | दरवाजों के बीच में जो दीवाल है, उससे सिर टकरा जाए, और कुछ यह बहुत कनफ्यूजिंग है। कोई ऐसा बैठकर याद करे, | | न हो। दो नावों पर यात्रा नहीं होती, दो धर्मों में भी यात्रा नहीं होती, अल्लाह-ईश्वर तेरे नाम, तो गलत है। अल्लाह का अपना उपयोग दो विधियों में भी यात्रा नहीं होती। है, राम का अपना उपयोग है। राम का करना हो, तो राम का करना। लेकिन विधि का उपयोग अनिवार्य है। क्यों अनिवार्य है? अल्लाह का करना हो, तो अल्लाह का करना। क्योंकि दोनों के | अनिवार्य इसलिए है कि हमने जो कर रखा है अब तक, उसको स्वर विज्ञान हैं, और दोनों की अपनी गहरी चोट है। राम की चोट | काटना जरूरी है। हमने जो कर रखा है अब तक, उसे काटना अलग है, अल्लाह की चोट अलग है। जरूरी है। जो आदमी कह रहा है, अल्लाह-ईश्वर तेरे नाम, वह एक छोटी-सी कहानी कहूं, उससे मेरी बात खयाल में आ जाए, पालिटिक्स में कह रहा हो, तो ठीक है। धर्म की दुनिया में बात न | फिर हम सुबह बात करेंगे। करे, क्योंकि राम का पूरा का पूरा वैज्ञानिक रूप भिन्न है; राम की रामकृष्ण बहुत दिन तक साकार उपासना में थे; सगुण साकार चोट भिन्न है। अलग केंद्र पर, अलग चक्रों पर उसकी चोट है। और की उपासना में लीन थे। काली के भक्त थे। मां की उन्होंने अगर इन दोनों का एक साथ उपयोग किया, तो खतरा है कि आप | पूजा-अर्चना की थी। और मां की साकार प्रतिमा को भीतर अनुभव पागल हो जाएं। लेकिन वे जो लोग उपयोग करते हैं, वे ऊपर-ऊपर | | कर लिया था। मनुष्य के मन की इतनी सामर्थ्य है कि वह जिस पर उपयोग करते हैं। पागल भी नहीं होते, चर्खा चलाते रहते हैं, | | भी अपने ध्यान को पूरा लगा दे, उसकी जीवंत प्रतिमा भीतर उत्पन्न अल्लाह-ईश्वर तेरा नाम कहते रहते हैं। हो जाती है। लेकिन फिर भी रामकृष्ण को तृप्ति नहीं थी। क्योंकि अगर भीतर उपयोग करें, तो पागल हो जाएंगे। दोनों शब्दों का | | मन से कभी तृप्ति नहीं मिल सकती। मन के ऊपर ही संतृप्ति का एक साथ उपयोग नहीं किया जा सकता। यह लोक है। तो बहत बेचैन थे। अब बडी मश्किल में पड़ गए थे। जहां आयुर्वेद की दवा ले लें, ठीक है। एलोपैथी की ले लें, ठीक है। तक साकार प्रतिमा ले जा सकती थी, पहुंच गए थे। लेकिन कोई लेकिन कृपा करके दोनों का मिक्सचर न बनाएं। यह मिक्सचर है। तृप्ति न थी, तो तलाश करते थे कि कोई मिल जाए, जो निराकार और ये नासमझों के द्वारा प्रचलित बातें हैं। जिनको धर्म की साइंस में धक्का दे दे। का कोई भी बोध नहीं है। तो कुरान भी ठीक, गीता भी ठीक! दोनों । तो एक संन्यासी गुजरता था। गुजरता था कहना शायद ठीक नहीं में से खिचड़ी इकट्ठी तैयार करो। वह किसी के काम की नहीं है। | | है, रामकृष्ण की पुकार के कारण निकला वहां से। इस जगत में जब वह जहर है। आप किसी ऐसे व्यक्ति को खोज लेते हैं, जो आपको किसी विधि 261] Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 के जीवन में प्रवेश करा दे, तो आप यह मत सोचना कि आपने उसे | बनाई थी प्रतिमा ? उसी छेनी से तोड़ दो। रामकृष्ण ने कहा कि किस खोजा। आप न खोज पाएंगे। वही आपको खोजता है। छेनी से बनाई थी! मन के ही भाव से बनाई थी। तो तोतापुरी ने तोतापुरी निकले। तोतापुरी दो दिन से एहसास कर रहे थे कि | कहा, एक काम करो। आंख बंद करो, और मैं एक कांच का टुकड़ा किसी को मेरी बहुत जरूरत है। दक्षिणेश्वर के मंदिर के पास से उठाकर लाता हूं बाहर से, और मैं तुम्हारे माथे पर कांच के टुकड़े निकलते थे, रुक गए। किसी से पूछा कि मंदिर के भीतर कौन है ? | | से काढूंगा, और जब तुम्हें भीतर मालूम पड़े कि लहूलुहान तुम्हारा तो उन्होंने कहा कि रामकृष्ण मंदिर के भीतर साधना करते हैं। माथा हो गया तब हिम्मत करके, तलवार उठाकर दो टुकड़े कर देना तोतापुरी भीतर गए, देखा कि रामकृष्ण को उनकी जरूरत है; कोई प्रतिमा के। रामकृष्ण ने कहा, तलवार! निराकार की यात्रा पर धक्का दे दे। ___ तोतापुरी ने कहा, जब प्रतिमा तक तुम अपने मन से बना सके, ___ अदृश्य का जगत इतना ही बड़ा है। जो हमें दिखाई पड़ता है, वह तो तलवार न बना सकोगे? बना लेना। रामकृष्ण बड़े रोते हुए, क्षमा बहुत कम है। जो नहीं दिखाई पड़ता है, वह बहुत बड़ा है। न तो मांगते हुए कि बड़ी मुश्किल की बात है, भीतर गए। फिर तोतापुरी हम आकस्मिक किसी से मिलते हैं, न मिल सकते हैं। आकस्मिक ने माथे पर कांच से काट दिया। काटते वक्त उन्होंने हिम्मत की, ' हम किसी को सुन भी नहीं सकते। आकस्मिक किसी का शब्द भी | | तलवार उठाई, प्रतिमा दो टुकड़े होकर गिर गई। रामकृष्ण छः दिन के हमारे कान में नहीं पड़ सकता। बहुत कार्य-कारणों का जाल है। लिए गहन समाधि में खो गए। छः दिन के बाद जब वापस लौटे, तो तोतापुरी ने जाकर रामकृष्ण को हिलाया। आंख खोली रामकृष्ण उन्होंने कहा, अंतिम बाधा गिर गई—दि लास्ट बैरियर हैज फालेन ने। रामकृष्ण को लगा, आ गया वह आदमी। उन्होंने नमस्कार | अवे। आखिरी! वह प्रतिमा भी आखिरी बाधा बन गई थी। किया और कहा कि मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं। दो दिन से चिल्ला रहा जो हम निर्मित करते हैं, उसे मिटाना भी पड़ता है फिर। हमने राग हूं कि भेजो किसी को जो मुझे आकार से मुक्त कर दे। आ गए की प्रतिमाएं निर्मित की हैं, तो हमें विराग की तलवारें उठानी पड़ेंगी। आप! तोतापुरी ने कहा, आ गया मैं। लेकिन कठिनाई पड़ेगी, नहीं तो कृष्णमूर्ति ठीक कहते हैं। अगर राग निर्माण न किया हो, तो क्योंकि तुमने इतनी मेहनत से जो साकार निर्मित किया है, उसे विराग की तलवार उठाने की कोई जरूरत नहीं। लेकिन जिसने राग तोड़ना भी पड़ेगा। रामकृष्ण ने कहा, मेरी काली को बचने दो। मेरी | निर्माण नहीं किया है, वह कृष्णमूर्ति को सुनने कहाँ जाता है। पूछने प्रतिमा को बचने दो, और मुझे निराकार में जाने दो। तोतापुरी ने कहां जाता है! वह जाता नहीं। और जिसने राग निर्माण किया है, वह कहा, तो लोट जाऊं। यह दोनों बात एक साथ न हो सकेगी। सुनने-पूछने जाता है। वह उससे कह रहे हैं कि कुछ न करना। कुछ तम्हें इस प्रतिमा को भीतर से तोडना पड़ेगा, जैसे तमने बनाया। करने की जरूरत नहीं है। अभ्यास व्यर्थ है। रामकृष्ण ने कहा, मैं तोड़ ही नहीं सकता। और तोडूंगा कैसे! भीतर तो वह जो रागी है, अपने अभ्यास को तो जारी रखता है राग के। कोई औजार भी तो नहीं है। बड़ा मजा यह है हमारे मन का। अगर वह यह भी मान ले कि तोतापुरी ने कहा, आंख बंद करो और तोड़ने की कोशिश करो। अभ्यास व्यर्थ है, तो राग का अभ्यास भी बंद कर दे। वह तो बंद रामकृष्ण आंख बंद करते। आनंदमग्न हो जाते। नाचने लगते। नहीं करता। उसको जारी रखता है। सिर्फ वैराग्य का अभ्यास बंद तोतापुरी रोकते और कहते, मैंने इसलिए आंख बंद करने को नहीं कर देता है। बंद कर देता है, कहना ठीक नहीं; शुरू नहीं करता। कहा। रामकृष्ण कहते, लेकिन जब प्रतिमा दिखाई पड़ती है, तोड़ने बंद कहां! उसने शुरू ही नहीं किया है। की बात कहां, मैं बचता ही नहीं। आनंदमग्न हो जाता हूं। तो लेकिन कृष्ण साधक की दृष्टि से बोल रहे हैं। वे कह रहे हैं, तोतापुरी ने कहा, फिर इस आनंद में तृप्त हो जाओ। तृप्त भी नहीं | अभ्यास से तोड़ना पड़ेगा। राग, अभ्यास से तोड़ना पड़ेगा! हो पाता, किसी और महाआनंद की तलाश है। तो तोतापुरी ने कहा, अभ्यास की विधियों के संबंध में आगे वे बात करेंगे, तो धीरे-धीरे फिर इस प्रतिमा को तोड़ो। रामकृष्ण कहने लगे, कैसे तोडूं न कोई हम उनको उघाड़ेंगे और समझने की कोशिश करेंगे। समझ पूरी तो हथौड़ी, न कोई छेनी, कुछ भी तो नहीं है! तोतापुरी ने जो कहा, वह तभी आएगी, जब कोई एकाध विधि पकड़कर आप प्रयोग में लग मैं आपसे कहता हूं। जाएंगे। प्रयोग के अतिरिक्त और कोई समझ नहीं है। उसने कहा, बनाई कैसे थी? छेनी थी भीतर? किस छेनी से अब हम एक विधि का उपयोग यहां भी करते हैं, अभी उसको |262 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 वैराग्य और अभ्यास > थोड़ा गौर से देखें। यह भी एक विधि है। अगर कीर्तन में इतने लीन हो जाएं कि आपको पता ही न रहे कि कौन नाच रहा है. कि कौन देख रहा है, कि ये हाथ किसके हिल रहे हैं—मेरे या किसी और के! यह वाणी किसकी निकल रही है—मेरी या किसी और की! अगर इतनी तल्लीनता आ जाए, तो आप वैराग्य की एक स्थिति को अभी अनुभव कर सकेंगे—यहीं। तो हमारे संन्यासी जाएंगे संकीर्तन में। उठकर कोई न जाए। और जिनको उठकर जाना होता हो, उन्हें आना ही नहीं चाहिए यहां। उन्हें आने की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि मैं जो मेहनत कर रहा हूं, वह इसलिए कि आपको कोई विधि खयाल में आ जाए। आप उन नासमझों में से हैं कि सारी बात सुनकर जब विधि की बात उठती है, तब भागने की कोशिश करते हैं! बैठ जाएं अपनी जगह पर। कोई वहां से उठेगा नहीं। पांच मिनट कीर्तन चलेगा, फिर आप जाएंगे। और कीर्तन सिर्फ सुनें न, सम्मिलित हों। इतने लोग हैं, अगर कीर्तन जोर से हो, तो यह पूरा वायुमंडल पवित्र होगा और दूर-दूर तक उसकी किरणें पहुंच जाएंगी। ताली बजाएं। गीत दोहराएं। अपनी जगह पर डोलें भी। | 263 Page #290 --------------------------------------------------------------------------  Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 6 अठारहवां प्रवचन तंत्र और योग Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः। लेता कि हे मधुसूदन, आपको कभी आसन लगाए नहीं देखा! वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः।। ३६ ।। आपको कभी प्राणायाम करते नहीं देखा। आपको कभी प्रभु-स्मरण मन को वश में न करने वाले पुरुष द्वारा योग दुष्प्राप्य है करते नहीं देखा। आपको किसी तपश्चर्या में से गुजरते नहीं देखा। अर्थात प्राप्त होना कठिन है और स्वाधीन मन वाले | जिस योग-साधना की आप बात कर रहे हैं, जिस अभ्यास की आप प्रयत्नशील पुरुष द्वारा साधन करने से प्राप्त होना सहज है, | बात कर रहे हैं, वह कभी आपके आस-पास दिखाई नहीं पड़ा। यह मेरा मत है। | और जिस वैराग्य की आप बात कर रहे हैं, उसका तो आपके आस-पास कोई भी अंदाज नहीं मिलता, अनुमान नहीं लगता। मोर पंख बांधकर, बांसुरी बजाकर आप नाचते हैं। सुंदरतम बृज की ष्ण ने दो-तीन बातें इस सूत्र में कही हैं, जो समझने गोपियां आपके चारों तरफ रास करती हैं। वैराग्य कहीं दिखाई नहीं जैसी हैं। | पड़ता, मधुसूदन! ८ एक, मन को वश में न करने वाले पुरुष द्वारा योग की अर्जुन निश्चित ही ऐसा पूछता। लेकिन अर्जुन को पूछने का उपलब्धि अति कठिन है; असंभव नहीं कहा। बहुत मुश्किल है; | उपाय कृष्ण ने नहीं छोड़ा। इसलिए अर्जुन ने नहीं पूछा। क्योंकि असंभव नहीं कहा। नहीं ही होगी, ऐसा नहीं कहा। होनी अति कठिन | कृष्ण ने कहा, बहुत कठिन है अर्जुन, असंभव नहीं है। है, ऐसा कहा है। तो एक तो इस बात को समझ लेना जरूरी है। तो उस थोड़े-से वर्ग, जिसमें कृष्ण भी आते हैं और कभी दूसरी बात कृष्ण ने कही, मन को वश में कर लेने वाले के लिए । एकाध-दो आदमी आ पाते हैं सदियों में, उस छोटे-से वर्ग की भी सरल है, सहज है उपलब्धि योग की। हम बात कर लें, क्योंकि उसका भी खतरा बड़ा है। क्योंकि जो उस और तीसरी बात कही, ऐसा मेरा मत है। ऐसा नहीं कहा, ऐसा | वर्ग में नहीं आता, वह अगर सोच ले कि यह होगा कठिन, लेकिन सत्य है। ऐसा कहा, दिस इज़ माइ ओपीनियन, ऐसा मेरा मत है। | हम कठिन मार्ग से ही जाएंगे, तो बहुत डर यह है कि वह कभी नहीं ये तीन बातें इस श्लोक में खयाल ले लेने जैसी हैं। पहुंचेगा, भटकेगा, व्यर्थ समय और जीवन को कर लेगा। पहली बात तो यह जो बहुत अजीब मालम पडेगी कि कष्ण ऐसा हआ इस देश में। इस देश ने बडे गहरे प्रयोग किए हैं। तंत्र ऐसा कहें। कहना था कि मन को जो वश में नहीं करता, उसके लिए | | उन प्रयोगों में से है, जो उनके लिए है वस्तुतः, जो मन को वश में योग की उपलब्धि असंभव है, इंपासिबल है; नहीं होगी। लेकिन | न करें। इसलिए तंत्र जब इसोटेरिक था, कुछ थोड़े-से लोग उस पर कृष्ण कहते हैं, कठिन है, असंभव नहीं। इसका अर्थ? इसका अर्थ | प्रयोग करते थे, तब वह बड़ी अदभुत प्रक्रिया थी। लेकिन और यह हुआ कि कठिन हो, लेकिन किसी स्थिति में, किसी व्यक्ति के लोगों को भी लगा कि यह तो बहुत अच्छा है। मन को वश में भी लिए, मन को वश में बिना किए भी उपलब्धि संभव हो सकती है। | | न करना पड़े और योग उपलब्ध हो जाए! कठिन है, लेकिन संभव हो सकती है। अति कठिन है, लेकिन फिर तंत्र के तो सभी सत्र उलटे हैं।। भी हो सकती है। यह जो थोड़ी-सी जगह छोड़ी है कृष्ण ने, वह तंत्र के लिए छोड़ी मन को वश में करने वाला कैसे उपलब्धि को प्राप्त होता है, है। उसकी बात करनी उन्होंने उचित नहीं समझी है, क्योंकि उसकी उसकी हमने बात की। अब थोड़ा हम उस थोड़े-से अल्पवर्ग के | | बात करनी सदा ही खतरे से भरी है। क्योंकि हम सबका मन ऐसा संबंध में बात कर लें, जिसकी वजह से कृष्ण असंभव न कह सके। होगा कि अपने को अपवाद मान और हम सबका मन ऐसा बहुत ही छोटा वर्ग है। कभी करोड़ में एकाध आदमी ऐसा होता | | होगा कि जब मन को बिना वश में किए हो सकता है, तो होगा लंबा है, जो मन को बिना वश में किए योग को उपलब्ध हो जाता है।। | मार्ग, लेकिन यही ज्यादा आनंदपूर्ण रहेगा। मन को वश में भी न बहुत रेयर फिनामिनन है; बहुत करीब-करीब न घटने वाली घटना | करेंगे और पहुंच भी जाएंगे योग को। दूसरे न पहुंचते होंगे, हम तो है; लेकिन घटती है। खुद कृष्ण भी उन्हीं लोगों में से एक हैं। पहुंच ही जाएंगे! इसलिए कृष्ण ने जानकर कहा है यह, बहुत समझकर कहा है। इसलिए तंत्र जब व्यापक फैला, तो अति कठिनाई उसने पैदा खुद कृष्ण भी उन्हीं लोगों में से एक हैं। क्योंकि अर्जुन जरूर ही पूछ की। हजारों लोग यह सोचकर कि ठीक है, क्योंकि तंत्र कहता 12661 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < तंत्र और योग > है...। तंत्र के पंच मकार प्रसिद्ध हैं। वह कहता है, पांच म का जो बहुत कठिन है मामला। पर तंत्र ने इसके प्रयोग किए। पर सेवन करेगा-सेवन, त्याग नहीं—वही योग को उपलब्ध होगा। | इसोटेरिक थे, गुप्त थे। साधारणतः वे समूह में नहीं किए जा सकते मदिरा का त्याग नहीं, सेवन। मैथुन का त्याग नहीं, सेवन। मांस का | थे। पर धीरे-धीरे खबर तो फैलनी शुरू हुई। और उनको भी पता त्याग नहीं, सेवन। जो उसको भोगेगा, वही योग को उपलब्ध चल गया, जो शराब पीकर नालियों में पड़े रहते थे। उन्होंने सोचा होगा। यह बहुत ही छोटा-सा अल्पवर्ग है, जिसके लिए यह बात कि हम भी तंत्र की साधना क्यों न करें? यह तो बहुत ही उचित है। बिलकुल सही है। फिर कोई यह भी नहीं कह सकता कि शराब पीना पाप है। फिर तो और ध्यान रहे, वह अल्पवर्ग अति कठिन मार्ग से गुजरता है। शराब पीना पुण्य हो गया। दिखता सरल पड़ता है कि शराब पीने से ज्यादा सरल और क्या हो तो नाली में शराब पीकर जो पड़ा था, उसने जब शराब पीकर सकता है! शराबी सड़कों पर पीकर रास्तों पर पड़े हैं। शराब पीने | तंत्र की साधना शुरू की, तो मंदिर में नहीं पहुंचा, वह और नाली से ज्यादा सरल क्या होगा? लेकिन तंत्र की प्रक्रिया बहुत कठिन है, में, और नाली में चला गया। और मैथुन तो सारा जगत कर रहा है। अति दूभर है। तंत्र ने जब कहा कि मैथुन में ही उपलब्धि हो जाएगी परमात्मा की, तंत्र कहता है, शराब पीना, लेकिन बेहोश मत होना। यह साधना कहीं भागने की जरूरत नहीं, त्यागने की जरूरत नहीं। तो लोगों ने है। शराब पीए जाना और बेहोश होना मत। अगर बेहोश हो गए, कहा, फिर ठीक ही है। कहीं कुछ करने की जरूरत नहीं। मैथुन तो तो साधना का सूत्र टूट गया। तो शराब पीना और बेहोश मत होना, हम कर ही रहे हैं। लेकिन तंत्र की शर्त है। शराब पीना और होश को कायम रखना। एक घटना मुझे याद आती है। एक तांत्रिक के पास एक त्यागी हम तो होश बिना शराब पीए कायम नहीं रख पाते। शराब | साधु गया। वहां बड़ी-बड़ी मटकियों में भरी हुई शराब रखी थी और पीकर कायम रख पाएंगे? बिना ही पीए पीए-सी हालत रहती है एक युवा तांत्रिक बैठकर ध्यान कर रहा था। साधु बहुत घबड़ाया। दिन-रात! जरा में होश खो जाता है। तंत्र कहता है, शराब पीना, शराब की बास चारों तरफ थी। उस साधु ने कहा कि मटके-मटके उसकी मनाही नहीं है। लेकिन होश कायम रखना। | भरकर शराब कौन.पीता है यहां? उस तांत्रिक गुरु ने कहा कि यह तो तंत्र की अपनी विधि है, कि जब शराब पीयो, कितनी मात्रा | | जो युवक बैठा है, इसके लिए रखी है। एक मटका तो यह एक ही में पीयो, कहां रुक जाओ; होश को कायम रखो। फिर धीरे-धीरे | गटक में पी जाता है, एक सांस में। उस आदमी ने कहा कि मुझे मात्रा बढ़ाते जाओ। वर्षों की लंबी यात्रा में वह घड़ी आती है कि भरोसा नहीं आता। फिर इसकी हालत क्या होती है? उसके गरु ने कितनी ही शराब कोई पी जाए, होश कायम रहता है। फिर तो तंत्र कहा कि हालत वही रहती है, जो थी। शराब अछूती गुजर जाती है। को यहां तक करना पड़ा कि कोई शराब काम नहीं करती, तो सांप आर-पार निकल जाती है, बीच में नहीं पहुंचती है, केंद्र को नहीं पालने पड़ते थे। अभी भी आसाम में कुछ तांत्रिक सांप पालते हैं छूती है। उसने कहा, मैं मानूंगा नहीं, मैं देखना चाहूंगा। एक सांस और जीभ पर सांप से कटाएंगे। और साधना की आखिरी कसौटी में पानी की एक मटकी पीना मुश्किल है, और शराब...! यह होगी कि सांप काट ले, और होश कायम रहे। उस तांत्रिक गुरु ने युवक को कहा कि एक मटकी शराब पी जा। है प्रक्रिया अदभुत, पर बड़ी दूभर है। शराब छोड़ने को तंत्र नहीं उसने कहा कि एक मिनट का मुझे मौका दें, मैं अभी आया। गुरु कहता। तंत्र बहुत साहसियों का मार्ग है। वे कहते हैं, हम छोड़ेंगे थोड़ा हैरान हुआ कि एक मिनट का मौका उसने क्यों मांगा? एक नहीं। अगर कीचड़ में से कमल हो सकता है, तो हम शराब में से | | मिनट बाद वह आया और एक मटकी उठाकर पी गया। वह साधु होश पैदा करेंगे। और बेहोशी में अगर होश न रह सका. तो होश | | भी चकित हुआ। एक सांस में! की कीमत कितनी है! और अगर शराब पीकर सारी बुद्धि नष्ट हो । साधु के जाने पर गुरु ने उससे पूछा कि एक मिनट का समय तूने जाए, तो ऐसी बुद्धि को बचाने में भी कितना सार है! क्यों मांगा था? उसने कहा कि मैंने कभी एक दफे में पीया नहीं था, तंत्र कहता है, मैथुन का हम त्याग न करेंगे; ब्रह्मचर्य हम न तो मैं अंदर जाकर अभ्यास करके आया, एक मटकी अंदर पीकर, साधेंगे। हम तो मैथुन में प्रवेश करेंगे, और वीर्य को अस्खलित | कि मैं पी पाऊंगा कि नहीं पी पाऊंगा। कभी मैंने एकदम से ऐसा रखेंगे। | किया नहीं था, इसलिए जरा अभ्यास के लिए अंदर गया। एक 267 Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 मटकी पीकर देखी, कि ठीक है; हो जाएगा। | चिंतक का लक्षण है। वैज्ञानिक चिंतक अल्प भी शेष हो कुछ मार्ग यह जो वर्ग था साधकों का, यह बहुत कठिन वर्ग है। मैथुन हो, | | की सुविधा, उसे छोड़कर चलता है। उसे छोड़कर चलता है। स्खलन नहीं। और मैथुन की यात्रा पर आदमी निकलता ही इसलिए | दूसरी बात कृष्ण ने कही, सरल है उसके लिए, जो मन को वश है कि स्खलन हो। तो आप यह मत सोचना कि तंत्र मैथुन के पक्ष । | में कर ले। कठिन है उसके लिए, जो मन को बिना वश में किए में है। तंत्र तो मैथुन के अतिक्रमण की बात है। | यात्रा करे। सरल है उसके लिए, जो मन को वश में कर ले। मैथुन के लिए जाता ही आदमी इसलिए है कि स्खलन हो। जो सरल इसलिए है मन को वश में कर लेने के बाद, कि मन ही बोझ उसके चित्त पर और शरीर पर है, वह फिंक जाए। और तंत्र | व्यवधान डालता है। वह व्यवधान डालने वाला अब आपके काबू कहता है, मैथुन सही, स्खलन नहीं। और अगर कोई व्यक्ति मैथुन | में है। आप सरलता से उसका अतिक्रमण कर सकते हैं, बाधाएं की स्थिति में अस्खलन को उपलब्ध हो जाए, तो इससे बड़ा आपके काबू में हैं। ब्रह्मचर्य और क्या होगा? उन ब्रह्मचारियों से, जो कि स्त्री को देखने __करीब-करीब ऐसा समझें कि कोई चाहे तो मकान की सीढ़ियों में डरते हैं, इस आदमी के ब्रह्मचर्य की बात ही और है। से नीचे उतर सकता है, कोई चाहे तो छलांग भी लगाकर मकान से मगर यह मार्ग है अति संकीर्ण, इसलिए कृष्ण ने उसकी सिर्फ नीचे उतर सकता है। छलांग लगाने में खतरा है। हाथ-पैर टूट जाने निगेटिव खबर देकर सूत्र छोड़ दिया। का खतरा है। जब तक कि हाथ-पैरों की ऐसी कुशलता न हो, जैसी कुछ लोग हैं, जो मन को बिना किसी तरह वश में किए, मन को कि होती नहीं है, हाथ-पैर टूटने को सदा तैयार रहते हैं। और जब पूरी छूट दे देते हैं। पूरी छूट! मन से कहते हैं, जो तुझे करना है कर, आप मकान पर से कूदते हैं और आपके हाथ-पैर टूटते हैं, तो न लेकिन उस करने में वे पार खड़े हो जाते हैं। मन को नहीं रोकते, तो मकान की लंबाई तुड़वाती है हाथ-पैर, न जमीन तुड़वाती है; लगाम नहीं पकड़ते मन की। घोड़ों को कह देते हैं, दौड़ो, जहां दौड़ना आपके ही हाथ-पैर का ढंग हाथ-पैर को तुड़वा देता है। . है। लेकिन दौड़ते हुए घोड़ों में, भागते हुए रथ में, गड्ढों में, खाई में, कभी आपने खयाल किया होगा कि एक बैलगाड़ी में अगर आप खड्डु में, वह जो ऊपर रथ पर बैठा है वह, वह अकंप बैठा रहता है। | बैठकर जा रहे हों, साथ में एक शराबी धुत बैठा हो, और आप होश तंत्र कहता है कि लगाम सम्हालकर और आप अकंप बैठे रहे, | | में बैठे हों। और गाड़ी उलट जाए, तो आपको चोट लगे, धुत शराबी तो कुछ मजा नहीं है। छोड़ दो लगाम; घोड़ों को दौड़ने दो; रथ को | को न लगे। आप समझते हैं। कोई आसान बात है! शराबी रोज खड्डों में, खाइयों में गिरने दो; और तुम अकंप रथ पर बैठे रहो, तो नालियों में गिरता है, लेकिन न कहीं चोट है, न हड्डी टूटती, न ही असली मालकियत है। फ्रैक्चर होता! बात क्या है? आप जरा गिरकर देखें! शराबी के पास पर वह मालकियत बहुत थोड़े-से लोगों का मार्ग है। भूलकर कौन-सी तरकीब है, जिससे कि गिरता है और चोट नहीं खाता? आप लगाम छोड़कर मत बैठ जाना, नहीं तो पहले ही गड्ढे में प्राणांत | तरकीब शराबी के पास नहीं है। असल में शरीर जब भी गिरने हो जाएगा! दूसरे संतुलन के लिए नहीं बचेंगे आप। के करीब होता है, तो रेसिस्टेंट हो जाता है, अकड़ जाता है। अकड़ी इसलिए कृष्ण ने असंभव नहीं कहा। असंभव नहीं है, कृष्ण | हुई हड्डी टूट जाती है। वह शराबी बेहोश है, वह रेसिस्ट नहीं करता। भलीभांति जानते हैं। और कृष्ण से बेहतर कोई भी नहीं जानता। यह | | उसको पता ही नहीं कि कब गाड़ी उलट गई। जब उलट गई, तब असंभव नहीं है, बिलकुल संभव है। लेकिन बहुत ही थोड़े-से | भी वे गाड़ी में ही बैठे हुए हैं! तब भी वे हांक रहे हैं नाली में पड़े लोगों के लिए है, अत्यल्प, न के बराबर; उन्हें गिनती के बाहर | | हुए। उनको पता ही नहीं, गाड़ी कब उलट गई। शरीर को मौका नहीं छोड़ा जा सकता है। और उनकी गिनती करनी ठीक भी नहीं है, | | मिलता है कि अकड़ जाए। अकड़ न पाए, तो जमीन चोट नहीं क्योंकि गिनती करने का कोई फायदा नहीं है। अपवाद को बाहर | | पहुंचा पाती। चोट पहुंचती है अकड़ी चीज पर। छोड़ा जा सकता है। इसलिए बच्चे इतने गिरते हैं और चोट नहीं खाते। आप जरा नियम की बात कर रहे हैं वे अर्जुन से। और अर्जुन उन लोगों में | बच्चों की तरह गिरकर देखें, तब आपको पता चलेगा। एक दफे गिर से नहीं है, जो कि तंत्र के मार्ग पर जा सके। इसीलिए कहा, दुष्प्राप्य | | गए, तो फैसला हुआ! और बच्चा दिनभर गिर रहा है और उठकर है। बड़ी कठिनाई से मिलने वाला है; मिल सकता है। यह वैज्ञानिक | | फिर चल पड़ा है। बात क्या है? बच्चे के पास सीक्रेट क्या है? |268] Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ <तंत्र और योग सम्हलतान सीक्रेट इतना ही है कि जब वह गिरता है, तब शरीर को इस बात | कला उपलब्ध कर ली थी, मैं भी किस भांति उसको उपलब्ध करूं, का कोई पक्का पता ही नहीं चलता कि गिर रहे हैं, सम्हल जाएं। | उसी तरह ? मोझर्ट ने कहा, तुम्हारी उम्र कितनी है? उस आदमी ने हीं, इसलिए चोट नहीं खाता है। सम्हलेगा, तो चोट खा कहा, मेरी उम्र तो पैंतालीस पार कर गई है। उसने कहा, तुमको सात जाएगा। सम्हलने में ही चोट खा जाता है आदमी। वर्ष में आना चाहिए था, एक। और दूसरी बात ध्यान रखना, यह मकान से उतरना हो, तो सीढ़ियां ही ठीक हैं। सम्हलता है जो तुमसे न हो सकेगा। उसने कहा, लेकिन क्यों न हो सकेगा? तुमसे आदमी, उसको सीढ़ियां ही ठीक हैं। क्योंकि सीढ़ियों पर सम्हलकर हो सका, मुझसे क्यों न हो सकेगा? मोझर्ट ने कहा, इसलिए कि उतर सकते हैं। सम्हलकर छलांग लगाई तो खतरा है। मैं किसी से कभी पूछने नहीं गया। तुम पूछने आए हो! छलांग तो वह लगा सकता है, जो गैर-सम्हले लगाता है। जो पूछने वाला तो सीढ़ियां ही चढ़ सकता है। पूछने वाला सडेन गिरता हो मकान से जमीन की तरफ, लेकिन इतना भी न अकड़े कि नहीं हो सकता। पूछने का मतलब ही है कि सीढ़ियां पूछने गया है गिर रहा हूं। शरीर पर जिसके पता ही न चले। जो ऐसा ही गिरे कि सम्हलकर कैसे चढ़ जाएं, उतर जाएं। न पूछने वाला छलांग मकान से, जैसा छत पर खड़ा था, ठीक वैसा ही गिरे, जरा फर्कन लगाता है। पड़े। शराब पी जाए, और वैसा ही रहे, जैसा शराब पीने के पहले ___मोझर्ट ने कहा, मुझमें तुममें फर्क है। मैं किसी से पूछने नहीं था। मैथुन कर जाए, और चित्त वैसा ही रहे, जैसा मैथुन करने के गया। तुम पूछने आए हो। पहले था। क्रोध कर जाए, और क्रोध के बीच वैसा ही रहे, जैसा पूछने वाले को सीढ़ियां बतानी पड़ेंगी। जो लोग छलांग लगा क्रोध करने के पहले था। जरा अंतर न पड़े। तो फिर वह जो सकते हैं, वे बिना गुरु के यात्रा कर सकते हैं। लेकिन जिसको गुरु छोटा-सा संकीर्ण मार्ग है, यात्रा की जा सकती है। की जरूरत हो, वह छलांग नहीं लगा सकता। 'लेकिन वह कभी जनपथ नहीं बन सकता; वह पब्लिक हाई-वे बिना गुरु के वही आदमी चल सकता है, जो छलांग लगा नहीं है। वह बहुत, अति संकीर्ण है। जनपथ पर, जहां सबको | सकता हो। क्योंकि गुरु की कोई जरूरत नहीं है। हम न कोई मार्ग चलना है, वहां सीढ़ियां हैं। | पूछ रहे हैं, न हम कोई सीढ़ियां पूछ रहे हैं। सीढ़ियां और मार्ग पूछने कभी आपने खयाल किया है कि सीढ़ियों पर भी आप छलांग का मतलब यह है कि कुशलता से, बिना तकलीफ के, बिना ही लगाते हैं, उतरते नहीं हैं। उतर तो कोई सकता ही नहीं। चाहे पूरे | अड़चन के, सरलता से, बिना किसी झंझट के, बिना किसी उपद्रव मकान की छलांग लगाएं, चाहे सीढ़ी पर। सीढ़ी पर कोई आप उतर में पड़े, बिना किसी खतरे में पड़े, मैं कैसे निकल जाऊं? गुरु ढूंढ़ने सकतें हैं? एक सीढ़ी से दूसरी पर छलांग लगाते हैं। एक आदमी का यही मतलब है। एक मंजिल से दूसरी मंजिल पर लगाता है। बड़ी सीढ़ी है, और कोई इसलिए छलांग लगाने वाले के लिए मार्ग बताने की कोई फर्क नहीं है। लेकिन छोटी सीढ़ी होने की वजह से आपको अड़चन | जरूरत नहीं है। जो छलांग लगाने वाला है, वह लगा जाता है। नहीं आती, आप सम्हलकर उतर आते हैं। इतना ही फर्क पड़ता है। __यही तो झंझट होती है। कृष्णमूर्ति के पास लोग जाते हैं और मन को वश में करना सीढ़ियों वाला मार्ग है। और मन को | | पूछते हैं, हाउ टु बी अवेयर? और कृष्णमूर्ति कहते हैं, डोंट आस्क निरंकुश छोड़कर छलांग लगा जाना गैर-सीढ़ियों वाला मार्ग है। | मी हाउ। मत पूछो, कैसे! जापान में बौद्ध धर्म की दो शाखाएं हैं। एक शाखा को कहते हैं, नहीं, कृष्णमूर्ति को पता नहीं है कि जो पूछता नहीं है कैसे, वह सोटो झेन। और एक शाखा का नाम है, रिझाई झेन। एक शाखा है, आएगा काहे के लिए आपके पास! वह जो आया है, वह कैसे जो मानती है कि सडेन एनलाइटेनमेंट, अचानक निर्वाण की | पूछने वाला ही है। असल में कैसे पूछने के लिए ही तो कोई आता उपलब्धि। वह छलांग वाला रास्ता है। दूसरी मानती है, ग्रेजुअल है। नहीं तो आने की कोई जरूरत नहीं। आप जहां हैं, वहीं से एनलाइटेनमेंट; वह क्रमशः, एक-एक क्रम, एक-एक सीढ़ी चलने छलांग लगा जाएं, पूछने की जरूरत क्या है, किस दिशा में वाला मार्ग है। लगाएं? कैसे लगाएं? जिसने पूछा, किस दिशा में, कैसे, किस मोझर्ट के पास एक आदमी गया। और उस आदमी ने मोझर्ट से | | विधि से, वह आदमी सीढ़ियां उतरेगा। पूछा कि जिस भांति तुमने सात वर्ष की उम्र में संगीत की समस्त मन को वश में करना सीढ़ियों वाला उपाय है। एक-एक कदम 269 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 गीता दर्शन भाग-3 उठाया जा सकता है। धीरे-धीरे अभ्यास किया जा सकता है। कोई जिम्मा नहीं है। छलांग लगाने वाला मामला बहुत उलटा है। कभी-कभी कोई | लेकिन बुद्ध आगे बढ़े चले जाते हैं। अंगुलिमाल और हैरान आदमी छलांग लगा पाता है। होता है। ठिठके भी नहीं वे। एक दफे उसकी बात के लिए रुककर बुद्ध के जीवन में उल्लेख है कि बुद्ध एक गांव से गुजरते हैं। सोचा भी नहीं कि विचार कर लें। वे आगे ही बढ़ते चले आते हैं। लोग कहते हैं, मत जाओ, आगे एक डाकू है, वह हत्या कर रहा है | अंगुलिमाल कहता है कि देखो, सुना? समझे कि नहीं? बहरे तो लोगों की। रास्ता निर्जन हो गया है। वह अंगुलिमाल किसी को भी नहीं हो! मार देता है। तुम मत जाओ इस रास्ते से। बुद्ध कहते हैं, अगर मुझे | बुद्ध कहते हैं, भलीभांति सुनता हूं, समझता हूं। अंगुलिमाल पता न होता, तो शायद मैं दूसरे रास्ते से भी चला जाता। लेकिन कहता है, रुक जाओ। मत बढ़ो! बुद्ध कहते हैं, अंगुलिमाल, मैं अब जब कि मुझे पता है, इसी रास्ते से जाना होगा। लोग कहते हैं, बहुत पहले रुक गया। तब से मैं चल ही नहीं रहा हूं। मैं तुझसे लेकिन किसलिए? बुद्ध कहते हैं, इसलिए कि वह बेचारा प्रतीक्षा कहता हूं, अंगुलिमाल, तू रुक जा, मत चल। अंगुलिमाल बोला करता होगा। लोग मिल न रहे होंगे; उसको बड़ी तकलीफ होती | कि बहरे तो नहीं हो, लेकिन पागल मालूम होते हो। मैं खड़ा हुआ होगी। कोई गर्दन तो मिलनी चाहिए गर्दन काटने वाले को! और | | हूं। मुझ खड़े हुए को कहते हो कि रुक जाओ! तुम चल रहे हो। अपनी गर्दन का इतना भी उपयोग हो जाए कि किसी को थोड़ी शांति | चलते हुए को कहते हो कि खड़े हो! मिल जाए, तो बुरा क्या है! बुद्ध आगे बढ़ जाते हैं। तो बुद्ध ने कहा, मैंने जब से जाना कि मन ही चलता है, और अंगुलिमाल देखता है, कोई आ रहा है दूर से, तो अपने पत्थर | जब मन रुक जाता है, तो सब रुक जाता है। तेरा मन बहुत चल पर, अपने फरसे पर धार रखने लगता है। बहुत दिन हो गए, जंग रहा है। इतनी दूर से तू मुझे देख रहा है, और तेरा मन चल रहा है। खा गया फरसा। कोई निकलता ही नहीं रास्ते से। उसने कसम खा फरसे पर धार रख रहा है, तेरा मन चल रहा है। अभी तू सोच रहा ली है कि एक हजार लोगों की गर्दन काटकर, उनकी अंगुलियों का | है, तेरा मन चल रहा है। मारूं, न मारूं। यह आदमी लौट जाए, हार बनाना है, इसलिए वह अंगुलिमाल उसका नाम पड़ गया। आए। तेरा मन चल रहा है। तेरे मन के चलने को मैं कहता हूं,. उसने नौ सौ निन्यानबे आदमी मार दिए, एक की ही दिक्कत है। अंगुलिमाल, तू रुक जा। उसी में वह अटका हुआ है। कोई निकलता ही नहीं! रास्ता ___ अंगुलिमाल ने कहा, मेरी किसी की बात मानने की आदत नहीं करीब-करीब बंद हो गया है। किसी को आते देखकर, अति प्रसन्न है। तो ठीक है। तुम आगे बढ़ो, मैं भी फरसे पर धार रखता हूं। वह होकर वह अपने फरसे पर धार रखता है। फरसे पर धार रखता है; बुद्ध आगे आ जाते हैं। बुद्ध सामने खड़े लेकिन जैसे-जैसे बुद्ध करीब आते हैं, और जैसे-जैसे वह साफ हो जाते हैं। वह अपना फरसा उठाता है। देख पाता है, उसको थोड़ा लगता है कि निरीह आदमी, सीधा-सादा बुद्ध कहते हैं, लेकिन मरते हुए आदमी की एक बात पूरी कर आदमी, शांत आदमी! इस बेचारे को शायद पता नहीं है कि यहां सकोगे? अंगुलिमाल ने कहा, बोलो। कोई बात पूरी करने के लिए अंगुलिमाल है और रास्ता निर्जन हो गया है। इसको एक चेतावनी तो हजार आदमी मैंने काटे! तुम बोलो; बात पूरी करूंगा। मेरे वचन दे देनी चाहिए। इसको एक दफा कह देना चाहिए कि तू खतरनाक का भरोसा कर सकते हो। बुद्ध ने कहा, वह मैं जानता हूं। कोई रास्ते पर आ रहा है। दिया गया वचन ही हजार आदमी मारने के लिए उसको मजबूर __ अंगुलिमाल के पास जब बुद्ध पहुंच जाते हैं, तो वह चिल्लाता किया है। तो बुद्ध ने कहा, इसके पहले कि मैं मरूं, एक छोटी-सी है कि हे भिक्षु! लौट जा वापस। शायद तुझे पता नहीं, तू भूल से बात जानना चाहता हूं। यह सामने जो वृक्ष लगा है, इसके दो-चार आ गया है। इस मार्ग पर कोई आता नहीं। और तेरी शांत मुद्रा को पत्ते मुझे काटकर दे दो। देखकर, तेरी धीमी गति को देखकर, तेरे संगीतपूर्ण चलने को । उसने फरसा वृक्ष में मारा। दो-चार पत्ते क्या, दो-चार शाखाएं देखकर मुझे लगता है कि तुझे माफ कर दूं। तू लौट जा। एक शर्त, कटकर नीचे गिर गईं। बुद्ध ने कहा, यह आधी बात तुमने पूरी कर अगर तू लौट जाए, तो मैं फरसा न उठाऊं। लेकिन अगर एक कदम दी। अब इनको वापस जोड़ दो। उस अंगुलिमाल ने कहा, तुम भी आगे बढ़ाया, तो तू अपने हाथ से मरने जा रहा है। फिर मेरा निश्चित पागल हो। तोड़ना संभव था, जोड़ना संभव नहीं है। 12701 Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंत्र और योग > तो बुद्ध ने कहा, अंगुलिमाल, तोड़ना तो बच्चे भी कर सकते | तो बुद्ध ने कहा कि मैं तुमसे कहता हूं, तुम हत्या छोड़-छोड़कर हैं। अगर जोड़ सको, तो कुछ हो, अन्यथा कुछ भी नहीं। तोड़ना. भी नहीं छोड़ पाए। यह हत्या कर-करके भी मुक्त हो गया। इसके तो बच्चे भी कर सकते हैं। अगर जोड़ सको, तो कुछ हो। हजार | लिए मन को वश में करने की कोई प्रक्रिया नहीं है। और जब गांव गर्दन भी काट ली, तो मैं कहता हूं, कुछ भी नहीं हो। एक गर्दन | में गए, तो बुद्ध ने कहा, अब तुम्हें अभी, जल्दी ही प्रमाण मिल जोड़ दो, तो मैं समझूगा, कुछ हो। जाएगा। थोड़ी प्रतीक्षा करो, जल्दी प्रमाण मिल जाएगा। अंगुलिमाल ने फरसा नीचे पटक दिया। वह बुद्ध के पैरों पर गिर | ___ गांव में जब सब भिक्षु गए, तो बुद्ध ने कहा, अंगुलिमाल, भिक्षा गया। और बुद्ध ने कहा, अंगुलिमाल, तू आज से उपलब्ध हुआ। | मांगने जा। तू आज से ब्राह्मण हुआ। तू आज से संन्यासी हुआ। सम्राट भी डरते थे। अंगुलिमाल का नाम कोई ले दे, तो उनको बुद्ध के भिक्षु पीछे खड़े थे। उन्होंने कहा कि हम वर्षों से आपके | | भी कंपन हो जाता था। सारे गांव में खबर फैल गई कि अंगुलिमाल साथ हैं। हम से कभी आपने ऐसे वचन नहीं बोले कि तुम ब्राह्मण | भिक्षु हो गया। लोगों ने दरवाजे बंद कर लिए। क्योंकि भरोसा क्या, हुए, कि तुम उपलब्ध हुए, कि तुम पा गए। और अंगुलिमाल हत्यारे | कि वह आदमी एकदम किसी की गर्दन दबा दे! दरवाजे बंद हो से, जो अभी क्षणभर पहले गर्दन काटने को तैयार था, और फरसा | | गए। दुकानें बंद हो गईं। गांव बंद हो गया। लोग अपनी छतों पर, फेंककर सिर्फ पैर पर गिरा है, उससे आप ऐसे वचन बोल रहे हैं! | छप्परों पर चढ़ गए। बुद्ध ने कहा, यह उन थोड़े-से लोगों में से है, जो छलांग लगा | ___ अंगुलिमाल जब नीचे भिक्षा का पात्र लेकर भिक्षा मांगने सकते हैं। छलांग लगा गया है। और जब अंगुलिमाल को निकला, तो कोई भिक्षा देने वाला नहीं था। हां, लोगों ने ऊपर से कर खडा किया. तो लोग उसका चेहरा भी न पहचान सके। वह पत्थर जरूर फेंके। और इतने पत्थर फेंके कि अंगलिमाल सड़क पर क्रूर हत्यारा न मालूम कहां विदा हो गया था। उन आंखों में जहां | लहूलुहान होकर गिर पड़ा। और जब लोगों ने पत्थर फेंके, तो आग जलती थी, वहां फूल खिल गए थे। वह व्यक्ति, जिसके हाथ | | अंगुलिमाल ने सिर्फ अपने भिक्षा-पात्र में पत्थर झेलने की कोशिश में फरसा था, कोई भरोसा न कर सकता था कि इस हाथ में कभी | की। न उसने एक दुर्वचन कहा, न एक क्रोध से भरी आंख उठाई। फरसा रहा होगा। इस हाथ ने कभी फूल भी तोड़े होंगे, इतनी भी और जब वह लहूलुहान, पत्थरों में दबा हुआ नीचे पड़ा था, बुद्ध इस हाथ में कठोरता नहीं है। | उसके पास गए। और उन्होंने कहा, अंगुलिमाल, इन लोगों के इतने लेकिन बुद्ध के भिक्षुओं को तो ईर्ष्या होनी स्वाभाविक थी। आज | | पत्थर खाकर तेरे मन में क्या होता है? तो अंगुलिमाल ने कहा, मेरे का नया आदमी एकदम सीनियर हो गया। एकदम सीनियर! सब | | मन में यही होता है कि जैसा नासमझ मैं कल तक था, वैसे ही छलांग लगा गया! सब व्यवस्था तोड़ दी! अंगुलिमाल बुद्ध के | | नासमझ ये हैं। परमात्मा, इनको क्षमा कर। और मेरे मन में कुछ भी बगल में चलने लगा। गांव में प्रवेश किया। भिक्षु ईर्ष्या से भर गए। | नहीं होता। तो बुद्ध ने अपने भिक्षुओं से कहा कि इसको देखो, यह उन्होंने कहा, यह अंगुलिमाल हत्यारा है। | बिना विधि के छलांग लगा गया है। बुद्ध ने कहा, थोड़ा ठहरो। उस आदमी को तुम नहीं जानते हो। | कृष्ण इसलिए उस छोटे-से हिस्से में छोड़ देते हैं, दुष्प्राप्य वह उन थोड़े-से लोगों में से है, जो छलांग लगा लेते हैं। वह हत्या | कहते हैं, असंभव नहीं कहते हैं। सरल कहते हैं उसको, जिसने कर-करके हत्या से मुक्त हो गया। और तुम हत्या बिना किए हत्या | मन को वश में किया, क्योंकि मन को इंच-इंच वश में किया जा से मुक्त नहीं हो पाए हो। मैं तुमसे पूछता हूं भिक्षुओ, तुम्हारे मन | | सकता है। अगर हजार घोड़े हैं आपके मन के रथ में, तो आप में अंगुलिमाल की हत्या का खयाल तो नहीं उठता? | एक-एक घोड़े को धीरे-धीरे लगाम पहना सकते हैं। एक-एक एक भिक्षु जो पीछे था, वह घबड़ाकर हट गया। उसने कहा, | घोड़े को धीरे-धीरे ट्रेन कर सकते हैं, प्रशिक्षित कर सकते हैं। और आपको कैसे पता चला? मेरे मन में यह खयाल आ रहा था कि | | एक दिन ऐसा आ सकता है कि रथ ऐसा चलने लगे कि आप इसको तो खतम ही कर देना चाहिए। नहीं तो मुफ्त, यह नंबर दो समता को उपलब्ध हो जाएं। का आदमी हो गया! बुद्ध के बाद ऐसा लगता है कि यही आदमी || विपरीत के बीच समता को उपलब्ध होना कठिन है, सानुकूल है। और अभी-अभी आया! | के बीच समता को उपलब्ध होना आसान है। अनुकूल के बीच | 271| Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < गीता दर्शन भाग-3 समता को उपलब्ध होना आसान है, प्रतिकूल के बीच समता को | मन को स्वच्छंद छोड़कर पाया है। जिसने मन को वश में किया है, उपलब्ध होना अति कठिन है। वह अहिंसावादी युद्ध से दूर भागेगा। वह कहेगा, कहीं कोई मेरी इसलिए कृष्ण कहते हैं, मन को वश में करके, अनुकूल स्थिति | लगाम टूट जाए! युद्ध का उपद्रव, कोई घोड़ा छूट जाए! कोई झंझट बनाकर, शांत हो जाना सरल है। हो जाए! तो मेरी सारी व्यवस्था बनी बनाई, कभी भी विशृंखल हो __ अगर चारों तरफ हरियाली भरे वृक्ष हों, पक्षियों के मधुर गीत सकती है। हों, सुबह की ताजी हवा हो, सूरज का उठता हुआ, जागता हुआ इसलिए कृष्ण कहते हैं, सरल है। और सरल से ही जाना उचित नया रूप हो, तो उसके बीच बैठकर ध्यान करना आसान है। बाजार | है। सरल का अर्थ ही यही है कि जो अधिकतम लोगों के लिए हो, चारों तरफ उपद्रव चल रहा हो, आग लगी हो, उसके बीच | सुगम पड़ेगा, अनुकूल पड़ेगा, स्वभाव के साथ पड़ेगा। सहज है। बैठकर, प्रतिकूल के बीच ध्यान में उतरना कठिन है। लेकिन तीसरी बात, और महत्वपूर्ण, कृष्ण कहते हैं, यह मेरा लेकिन असंभव नहीं है। ऐसे लोग हैं, जो मकान में आग लगी | मत है। ऐसा कहने की क्या जरूरत है कृष्ण को कि यह मेरा मत हो, और ध्यान में उतर सकते हैं। ऐसे लोग हैं, जो बीच बाजार में है? कह सकते थे, यह सत्य है। सत्य और मत का थोड़ा फर्क बैठकर ध्यान में उतर सकते हैं। समझ लें। कृष्ण उन लोगों में से ही हैं। नहीं तो कृष्ण युद्ध के मैदान पर जाने | ट्रथ का मतलब होता है, ऐसा है, मैं कहूं या न कहूं। कोई जाने को राजी न होते। राजी हो जाते हैं, क्योंकि कोई अड़चन नहीं है। न जाने; कोई माने न माने—ऐसा है। मत का अर्थ होता है, जैसा वहां भी चित्त वैसा ही रहेगा। युद्ध होगा, लाशें पट जाएंगी, खून है, उसके बाबत मेरा विचार, ओपीनियन अबाउट दि टूथ, सत्य के की धाराएं बहेंगी—चित्त वैसा ही रहेगा। इसीलिए तो वे अर्जुन को संबंध में मेरा विचार। सत्य नहीं, मेरा विचार। विचार में भूल-चूक कह पाते हैं कि अर्जुन, तू बेफिक्री से काट, कोई कटता ही नहीं। | हो सकती है। विचार में कमी भी हो सकती है। विचार में बस, तू एक खयाल छोड़ दे कि तू काटने वाला है, बस। कटने | | अभिव्यक्ति-दोष भी हो सकता है। विचार में भाषा के कारण, जो वाला कोई भी नहीं है यहां। तेरी भ्रांति भर तू छोड़ दे कि मैं किसी | कहा गया, वह अन्यथा भी समझा जा सकता है। शब्द बोलते ही को मार डालूंगा, कि कोई मेरे द्वारा मार डाला जाएगा, कि मेरे द्वारा आपके हाथ में चला जाता है। मैंने शब्द बोला, तो आपके हाथ में किसी को दुख पहुंच जाएगा। चला जाता है। व्याख्या आप करेंगे। __ कृष्ण कहते हैं, दुख सदा अपने ही द्वारा पहुंचता है, किसी और इसलिए कृष्ण बहुत ही ठीक बात कह रहे हैं। वे कहते हैं, यह के द्वारा नहीं। तू भर यह खयाल छोड़ दे कि तेरे द्वारा! अन्यथा तेरा | मेरा मत है अर्जुन। मत का अर्थ है कि जैसे ही सत्य को शब्द दिया यह खयाल तुझे दुख पहुंचा जाएगा, और कुछ नहीं होगा। सब | गया, वह मत हो जाता है, सत्य नहीं रह जाता। सत्य जब निःशब्द अपने ही कारण से मरते हैं, निमित्त कुछ भी बन जाए। तू निमित्त होता है, तभी सत्य होता है। से ज्यादा नहीं होगा, कर्ता नहीं होगा। इसलिए तू मारने-काटने की इसलिए जो लोग शब्दों में सत्य का आग्रह करते हैं, उनको सत्य फिक्र छोड़ दे। और फिर कौन कब कटता है! शरीर ही कटता है। | का कोई भी पता नहीं है। शब्दों में जो सत्य का आग्रह करता है, वह जो भीतर है, अनकटा रह जाता है। उसे तो शस्त्र भी नहीं छेद | उसे सत्य का कोई भी पता नहीं है। शब्दों में ज्यादा से ज्यादा, बस पाते; उसे तो कोई काट नहीं पाता। आग जला नहीं पाती, पानी डुबा मत की बात कही जा सकती है, कि मेरा ओपीनियन है अर्जुन। । नहीं पाता। फर्क है बहुत। अगर कहें कि सत्य है यह, तो मानने का आग्रह यह जो कृष्ण ऐसा कह सकते हैं, ऐसा जानते हैं इसलिए। | वजनी हो जाता है। मत है यह, तो मानो न मानो, स्वतंत्रता कायम इसलिए युद्ध के मैदान पर खड़े हो सके हैं। ये वे थोड़े-से जो लोग रहती है। सत्य को तो मानना ही पड़ेगा। मत को अस्वीकार भी हैं करोड़ों में, उनमें से एक आदमी युद्ध के मैदान पर खड़ा हो | सकता है। नहीं तो अहिंसावादी भागेगा युद्ध के मैदान से। सिर्फ | फिर और भी कारण हैं। जैसे ही सत्य को हम प्रकट करते हैं, वही अहिंसावादी युद्ध के मैदान पर भी खड़ा होकर अहिंसक हो वह मत हो जाता है। इसलिए सभी शास्त्र मत हैं, ओपीनियन का सकता है, जिसने मन को वश में करने की विधि से पार नहीं पाया. | संग्रह हैं। कोई शास्त्र सत्य का संग्रह नहीं है, न हो सकता है। किया जा 1272 Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -तंत्र और योग काश, दुनिया के सभी धर्म यह समझ पाएं कि उनका जो शास्त्र अर्जुन उवाच है, वह एक मत है, सत्य नहीं है, तो झगड़ा न हो। क्योंकि सत्य के अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः । संबंध में हजार मत हो सकते हैं। हजार सत्य नहीं हो सकते। लेकिन अप्राप्य योगसंसिद्धि कां गतिं कृष्ण गच्छति ।। ३७ ।। चूंकि प्रत्येक शास्त्र दावा करता है सत्य का, इसलिए दो सत्यों कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति । में-दो सत्य कैसे माने–कलह खड़ी हो जाती है। अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ।। ३८।। मत है! अर्जुन को कहा गया कृष्ण का यह वक्तव्य बड़ा कीमती एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः। है, यह मेरा मत है। कृष्ण जैसा आदमी कहे कि यह मेरा मत है, त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते । । ३९ ।। अदभुत है। क्योंकि कृष्ण जैसा आदमी सहज ही कह पाता है, यह | इस पर अर्जुन बोला, हे कृष्ण, योग से चलायमान हो गया सत्य है। बिना फिक्र किए, बिना सोचे-समझे उससे निकलता है, है मन जिसका, ऐसा शिथिल यत्न वाला श्रद्धायुक्त पुरुष, यह सत्य है, क्योंकि वह सत्य को जानता है। यह बहुत कंसीडर्ड योग-सिद्धि को अर्थात भगवत-साक्षात्कार को न प्राप्त वक्तव्य है, बहुत सोचकर कहा गया कि यह मत है अर्जुन। इसको होकर, किस गति को प्राप्त होता है। तुम ऐसा मत समझ लेना कि यही सत्य है। अन्यथा शब्दों पर गांठ और हे महाबाहो, क्या वह भगवत्प्राप्ति के मार्ग में मोहित बन जाएगी और शब्दों की व्याख्या तुम करोगे। हुआ आश्रयरहित पुरुष छिन्न-भिन्न बादल की भांति दोनों ___ अगर मत है, तो इसका अर्थ यह हुआ कि सत्य तुम्हें पाना ओर से अर्थात भगवत्प्राप्ति और सांसारिक भोगों से भ्रष्ट पड़ेगा, इस मत से सत्य नहीं मिलेगा। मत से सिर्फ सूचना मिलती हुआ नष्ट तो नहीं हो जाता है। है कि मुझे सत्य मिला। अगर तुम्हें भी सत्य पाना है, तो तुम्हें भी | हे कृष्ण, मेरे इस संशय को संपूर्णता से छेदन करने के लिए चेष्टा और श्रम और अभ्यास और साधना करनी पड़ेगी, तब तुम । आप ही योग्य हैं, क्योंकि आपके सिवाय दूसरा इस संशय सत्य पाओगे। अगर मैं कहूं कि जो मैं कह रहा हूं, यही सत्य है, । का छेदन करने वाला मिलना संभव नहीं है। तो आपको शब्द से ही सत्य मिल गया। अब साधना की और क्या जरूरत रह गई है! साधना की सुविधा बनी रहे। अर्जुन को पता रहे कि सत्य अभी पाना है। जो मिला है, वह मत है। भगवान भी बोले, | ना अर्जुन ने कृष्ण की बात को; जो उठना चाहिए था तो जो मिलेगा, वह मत होगा, सत्य नहीं होगा। साधना के लिए स संशय, वही उसके मन में उठा। अर्जुन बहुत उपाय शेष रहेगा ही। प्रेडिक्टेबल है। अर्जुन के संबंध में भविष्यवाणी की फिर साथ में यह भी जरूरी है समझ लेना कि मत को विचारा जा सकती है कि उसके मन में क्या उठेगा। जो मनुष्य के मन में . जा सकता है। इसलिए जब तक जो आदमी विचार में पड़ा है, उससे उठता है सहज, वह उठा उसके मन में। मत की ही बात की जा सकती है, सत्य की बात नहीं की जा सकती उठा यह सवाल कि योग से चलायमान हो जाए जिसका चित्त, है। क्योंकि वह इस पर सोचेगा। अर्जुन जो सुनेगा, उस पर सोचेगा प्रभु-मिलन से जो विचलित हो गया है, खो चुका है जो उस निधि भी, उसका अर्थ भी निकालेगा, व्याख्या भी करेगा। और अर्थ और को-यद्यपि श्रद्धायुक्त है, चाहता भी है कि पा ले, कोशिश भी व्याख्याएं! अर्थ और व्याख्याएं हमारी होती हैं। करता है कि पा ले, फिर भी मन थिर नहीं होता तो ऐसे व्यक्ति जब अर्जुन अर्थ निकालेगा, तो वह कृष्ण का नहीं होगा, वह की गति क्या होगी? अर्जुन का होगा। हां, अगर अर्जुन इस हालत में आ जाए कि यह डर स्वाभाविक है। तत्काल पीछे पूछता है कि कहीं ऐसा तो सोचना छोड़ दे, व्याख्या करना छोड़ दे, अर्थ निकालना छोड़ दे,। न होगा कि जैसे कभी आकाश में वायु के झोंकों में बादल सिर्फ सुन सके; इतना शून्य और खाली हो जाए कि अपने मन को छितर-बितर होकर नष्ट हो जाता है। कहीं ऐसा तो न होगा कि दोनों विदा कर दे तो फिर मत सत्य की तरह प्रवेश कर सकता है। । ही छोरों को खो गया आदमी! यहां संसार को छोड़ने की चेष्टा करे लेकिन ऐसा अति कठिन है। ऐसा अति कठिन है। कि परमात्मा को पाना है, और वहां मन थिर न हो पाए और इसलिए कृष्ण कहते हैं, यह मत है। | परमात्मा मिले नहीं! तो कहीं ऐसा तो न होगा कि राम और काम 1273| Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 दोनों खो जाएं और वह आदमी एक बादल की तरह हवाओं के दोनों तो हम उस पर पैर रख लें। कि जब भरोसा है पूरा, तब पहले से तरफ के झोंकों में छितर-बितर होकर नष्ट हो जाए। कहीं ऐसा तो उठाते हैं। न होगा? इसलिए अर्जुन कहता है, हे कृष्ण, मेरे संशय को पूर्ण रूप से संसार को छोड़ते समय मन में यह सवाल उठता ही है कि कहीं छेद डालें। मुझे पक्का करवा दें आश्वासन, कि मिल ही जाएगा ऐसा तो न हो कि मैं संसार की तरफ वैराग्य निर्मित कर लूं, तो दूसरा तट, ताकि मैं निःसंशय इस तट को छोड़ सकूँ। छेद कर दें, संसार भी छूट जाए, और परमात्मा को पा न सकू, क्योंकि मन बड़ा | छेद डालें मेरे इस संदेह को। जरा भी बाकी न रहे। यह अगर जरा चंचल है। तो संसार भी छूट जाए और परमात्मा भी न मिले; तो मैं | | भी बाकी रहा, तो तट छोड़ने में मुझे कठिनाई होगी। एकाध जंजीर घर का न घाट का; धोबी के गधे जैसा न हो जाऊं! को मैं तट से बांधे ही रहूंगा। एकाध लंगर नाव का मैं डाले ही __ अभी कहीं तो हूं, संसार में सही। अभी कुछ तो मेरे पास है। रहूंगा। दूसरे तट पर जाने की मेरी हिम्मत कमजोर होगी। डर लगेगा माना कि भ्रामक है, माना कि सपने जैसा है, फिर भी है तो। सपना | कि पता नहीं, पता नहीं दूसरा किनारा है भी या नहीं! होगा भी, तो ही सही, झूठा ही सही, फिर भी भरोसा तो है कि मेरे पास कुछ है। मिलेगा भी या नहीं। और जैसा मन मेरा है, उसे मैं भलीभांति जानता कोई मेरा है। पत्नी है, पति है, बेटा है, बेटी है, मित्र हैं, मकान है।। हूं। और जो शर्ते तुमने कहीं, वे भी मैंने ठीक से सुन लीं कि मन माना कि झूठा है। कल मौत आएगी, सब छीन लेगी। लेकिन मौत | बिलकुल थिर हो जाए। और मैं भलीभांति जानता हूं कि क्षण को जब तक नहीं आई है, तब तक तो है। और माना कि कल सब राख | मन थिर होता नहीं। सब घोड़े वश में आ जाएं। और मैं भलीभांति में गिर जाएगा। लेकिन जब तक नहीं गिरा, तब तक तो है; तब तक | जानता हूं कि एक भी घोड़ा वश में आता नहीं। सब इंद्रियों के मैं तो सांत्वना है। पार चला जाऊं! और भलीभांति जानता हूं कि इंद्रियों के अतिरिक्त कहीं ऐसा तो न होगा, हे महाबाहो, कि इसे भी छोड़ दे आदमी, | | मेरा कोई पार का अनुभव नहीं है। और जिसकी तुम बात करते हो, उस राम को पाने की वासना से तो कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारी शर्ते! और कल तुम तो कह दोगे मोहित हो जाए, तुम्हारा आकर्षण पकड़ ले। और तुम जैसे आदमी कि शर्ते तुमने पूरी नहीं की, तो तुम्हें किनारा नहीं मिला। लेकिन खतरनाक भी हैं। उनकी बातें आकर्षण में डाल देती हैं। मोह पैदा | मेरा क्या होगा? यह तट भी छूट जाए, वह तट भी न मिले, तो कहीं हो जाता है कि पा लें इस ब्रह्म को, पा लें इस आनंद को, मिले यह | बिखर तो न जाऊंगा! टूट ही तो न जाऊंगा! गति क्या होगी मेरी? समाधि, हो जाए निर्वाण हमारा भी, हम भी पहुंचें उस जगह, जहां | इस संशय को पूरा ही छेद डालो कृष्ण! पूरा ही। सब शून्य है और सब मौन है, और जहां परम सत्य का साक्षात्कार और कृष्ण से वह कहता है, तुम जैसा आदमी दूसरा मिलना है। तुम्हारे मोह में पड़ा, तुम्हारी बात के आकर्षण में पड़ा आदमी | मुश्किल है। संभव नहीं कि तुम जैसा आदमी मैं फिर पा सकूँ, जो संसार को छोड़ दे, खूटी तोड़ ले यहां से, और नई खूटी न गाड़ मेरे इस संशय को छेद डाले। पाए। यह तट भी छूट जाए संसार का, उस तट की कोई खबर नहीं। ऐसा अर्जुन ने क्यों कहा होगा? नाव कमजोर है. हवा के झोंके तेज हैं. कंपती है बहत। पतवार संशय को वही छेद सकता है. जिसकी आंखों में स्वयं संशय न कमजोर, हाथ चलते नहीं, और दूसरे किनारे भी न पहुंच पाएं, तो | हो। जो असंदिग्धमना हो, जो निःसंशय हो, जो अपने ही भीतर कहीं दोनों किनारों से भटक गई नौका की तरह, हवा के तूफानी इतने भरोसे से भरपूर हो कि उसका भरोसा ओवरफ्लो करता हो, थपेड़ों में नाव डूब तो न जाए! कहीं ऐसा तो न हो कि यह भी छूटे | बाहर बहता हो। जिसके रोएं-रोएं से पता चलता हो कि उस आदमी और वह भी न मिले! के मन में कोई संशय, कोई प्रश्न नहीं हैं। धर्म की यात्रा पर निकले हुए आदमी को यह सवाल उठता ही कृष्ण जैसे आदमी प्रश्न नहीं पूछते कभी। कृष्ण जैसे आदमी है। उठेगा ही। यह बिलकुल स्वाभाविक है। जब भी हम कुछ | कभी किसी के पास शंका निवारण के लिए नहीं जाते। अर्जुन छोड़ते हैं, तो यह सवाल उठता है कि यह छूटता है, दूसरा मिलेगा भलीभांति जानता है कि कृष्ण कभी किसी के पास शंका निवारण या नहीं? एक सीढ़ी से पैर उठाते हैं, तो भरोसा पक्का कर लेते हैं। को नहीं गए। भलीभांति जानता है, इनके मन में कभी प्रश्न नहीं कि दूसरी सीढ़ी पर पैर पड़ेगा या नहीं? दूसरी सीढ़ी पक्की हो जाए, उठा। भलीभांति जानता है कि ये बिलकुल निःसंशय में जीते हैं। 27A Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * तंत्र और योग ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, कठिन है। सदियां बीत जाती हैं, | वह कहता है कि ठीक है; पक्का है कि मैं यहां कुछ दान करूं, तो तब कभी ऐसा आदमी उपलब्ध होता है। स्वर्ग में उत्तर मिल जाएगा? पक्का है कि यहां एक मंदिर बना दूं, जिसके मन में कोई संशय नहीं है, वही तो दूसरे के संशय को | | तो भगवान के मकान के पास ही ठहरने की जगह मिलेगी? पक्का काट पाएगा। जिसके मन में स्वयं ही बहुत तरह के संशय हैं, वह | है? तो मैं कुछ त्याग कर सकता हूं। दूसरे के संशय को काटने भला जाए, और जड़ों को पानी सींचकर सांसारिक मन, पाने का पक्का हो जाए, तो छोड़ सकता है। पाने लौट आएगा। के लिए ही छोड़ सकता है। बड़ा अदभुत है यह। बड़ा कंट्राडिक्टरी हम सब यही करते हैं। हम सब एक-दूसरे का संशय काटते हैं। है यह। यह हो नहीं सकता। अगर पाने के लिए ही छोड़ रहे हैं, तो बेटे का संशय बाप काट रहा है; और बाप खुद संदिग्ध है! उसे छोड़ना नहीं हो सकता। और कठिनाई यह है कि जो छोड़ता है, वही खुद पता नहीं कि मामला क्या है! बेटा पूछता है, यह पृथ्वी किसने पाता है। बनाई ? बाप कहता है, भगवान ने। और भीतर-भीतर डरता है कि | अब इस वक्तव्य को, इस पैराडाक्स को, इस उलटबांसी को बेटा अब आगे न पूछे कि भगवान किसने बनाए? और कहीं बेटा ठीक से समझ लेना चाहिए। जोर से न पूछ ले कि भगवान कहां है? देखा है? क्योंकि बेटे | | कबीर के पास लोग जाते थे, तो वे उलटबांसियां कहते थे। कोई आमतौर से नहीं पूछते, इसलिए बाप अपने झूठ कहे चले जाते हैं। | | उनसे पूछता था कि उलटी-सीधी बातें आप कहते हैं, हमारी कुछ ' लेकिन थोड़े ही दिन में बेटा जवान होगा और जान लेगा कि बाप | समझ में नहीं पड़ती! तो वे कहते, तुम जाओ। क्योंकि फिर आगे को भी पता नहीं है। लेकिन वह यह भी जान लेगा कि बेटों के | की जिस यात्रा पर मुझे तुम्हें ले जाना है, वे सब उलटबांसियां हैं। सामने जानने का मजा लिया जा सकता है। अपने बेटों के सामने | उलटबांसी का मतलब होता है, पैराडाक्स। वह भी लेगा। और ऐसा चलता है। गुरु असंदिग्ध भाव से जवाब | जैसे कबीर के पास कोई जाएगा और पूछेगा, परमात्मा है? तो देता मालूम पड़ता है, लेकिन भीतर संदेह खड़ा होता है। | कबीर उसको इसका उत्तर न देंगे। वे कहेंगे, समुंद लागी आगि, कृष्ण जैसा आदमी अर्जुन को मिले, तो स्वाभाविक है उसका नदियां जल भईं राख। वह आदमी कहेगा, आप क्या कह रहे हैं! कहना कि हे महाबाहो, तुम जैसा आदमी फिर नहीं मिलेगा। तुम | | समुद्र में आग लग गई है और नदियां जलकर राख हो गई हैं? ट ही डालो। अगर तुम न काट पाए मेरे संदेह को, तो फिर मैं कबीर कहेंगे, तू जा। अगर राजी हो, तो रुक। क्योंकि आगे फिर आशा नहीं करता कि कुछ हो सकता है। फिर मैं होपलेस हालत में और उपद्रव होगा। हो जाऊंगा, बिलकुल आशारहित। फिर मेरी कोई आशा नहीं है। ___ कोई आकर पूछेगा, आत्मा क्या है? और कबीर कहेंगे, जाग क्योंकि जैसा मैं अपने को जानता हूं, वैसा तो मैं इसी किनारे से बंधा कबीरा जाग। माछी चढ़ गई रूख! मछली जो है, वह झाड़ पर चढ़ रहूंगा। कम से कम कुछ तो मुट्ठी में है। और जो तुम कह रहे हो, । | गई है; कबीर जाग! वह आदमी कहेगा, मैं आत्मा के संबंध में वह बात जंचती है, लेकिन मेरे संशय को काट डालो। समझने आया। कहां की मछलियां! कहां के रूख! कभी मछलियां यहां दो-तीन बातें खयाल में ले लेनी जरूरी हैं। झाड़ों पर चढ़ी हैं? कबीर कहेंगे, तू जा। क्योंकि आगे की बातें और एक तो बात यह खयाल में ले लेनी जरूरी है कि सांसारिक मन कठिन हैं। का यह लक्षण है कि वह किसी चीज को छोड़ सकता है किसी चीज | । यह जो कृष्ण से अर्जुन पूछ रहा है, उसका उत्तर, उसकी दुविधा के पाने के भरोसे। सहज नहीं छोड़ सकता। पाने का भरोसा हो, तो असल में यही है। दुविधा त्याग की यही है कि त्याग बिना पाने की छोड़ सकता है किसी चीज को। त्याग करने में सांसारिक मन आशा के किया जाए, तो होता है। और जो बिना पाने की आशा के मुश्किल नहीं पाता, लेकिन त्याग इनवेस्टमेंट होना चाहिए। त्याग त्याग करता है, वह बहुत पाता है। जो पाने की आशा से त्याग कुछ और पाने के लिए सिर्फ व्यवस्था बनाना चाहिए। करता है, वह पाने की आशा से करता है, इसलिए त्याग नहीं हो और जब त्याग किसी और को पाने के लिए होता है, तो त्याग पाता। और चूंकि त्याग नहीं हो पाता, इसलिए वह कुछ भी नहीं नहीं होता, सिर्फ सौदा होता है। इसलिए सांसारिक मन त्याग को पाता है। समझ ही नहीं पाता, सिर्फ बार्गेनिंग समझता है, सौदा समझता है। जिसे पाना हो, उसे पाने की बात छोड़ देनी चाहिए। जिसे न पाना 275 Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 गीता दर्शन भाग-3 हो, उसे पाने की बात करते चले जाना चाहिए। सांसारिक मन नहीं | | वाला मन संदेह करता ही चला जाएगा। ऐसा नहीं है कि एक संदेह समझ पाएगा यह, वह कहेगा कि पाने की बात छोड़ दूं! अच्छा | का निरसन हो जाए, तो निरसन हो जाएगा। एक संदेह का निरसन छोड़े देते हैं। लेकिन पाना क्या सच में छोड़ने से हो जाएगा? उसका | | होते ही दूसरा संदेह खड़ा हो जाएगा। दूसरे का निरसन होते ही तीसरा भीतरी, भीतरी जो सांसारिक मन की बनावट है, जो इनर स्ट्रक्चर | संदेह खड़ा हो जाएगा। फिर कृष्ण क्यों संदेहों को तृप्त करने की है, जो मेकेनिज्म है, वह यह है। कोशिश कर रहे हैं? क्या इस आशा में कि संदेह तृप्त हो जाएंगे? मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि हम ध्यान बहुत करते नहीं, सिर्फ इस आशा में कृष्ण अर्जुन के संदेह दूर करने की हैं, शांति नहीं मिलती। तो मैं उनसे कहता हूं, तुम शांति की फिक्र कोशिश करेंगे कि धीरे-धीरे हर संदेह के निरसन के बाद भी जब छोड़ दो। तुम शांति चाहो ही मत। फिर तुम ध्यान करो। और शांति नया संदेह खड़ा होगा, तो अर्जुन जाग जाएगा, और समझ पाएगा मिल जाएगी, बट दैट विल बी ए कांसिक्वेंस। वह परिणाम होगा कि संदेहों का कोई अंत नहीं है। सहज। तुम मत मांगो। डोंट मेक इट ए रिजल्ट, इट बिल बी ए खयाल रखिए, संदेह के निरसन से संदेह का निरसन नहीं होता। कांसिक्वेंस। तुम फल मत बनाओ उसे, वह परिणाम होगा। वह हो लेकिन बार-बार संदेह के निरसन करने से आपको यह स्मृति आ ही जाएगा; उसकी तुम फिक्र न करो। वे कहते हैं, तो फिर हम शांति सकती है कि कितने संदेह तो निरसन हो गए, मेरा संदेह तो वैसा का खयाल छोड़ दें, फिर शांति मिल जाएगी? का वैसा ही खड़ा हो जाता है! यह तो रावण का सिर है। काटते हैं, वे शांति का खयाल भी छोड़ने को राजी हैं, एक ही शर्त पर, कि | फिर लग जाता है। काटते हैं, फिर लग जाता है! काटते हैं, फिर शांत मिल जाएगी? लग जाता है! कृष्ण अथक काटते चले जाएंगे। अब शांति की तलाश अशांति है। इसलिए शांति का तलाशी | | पूरी गीता संदेह के सिर काटने की व्यवस्था है। एक-एक संदेह कभी शांति नहीं पा सकता। तलाश अशांति है। और शांति की | | काटेंगे, जानते हुए कि संदेह से संदेह होता है। संदेह किसी भी तलाश महा अशांति है। भरोसे, आश्वासन से कटता नहीं है। लेकिन अर्जुन थक जाए ऐसा है। दिस इज़ दि फैक्टिसिटी, यह ऐसा तथ्य है, ऐसा | | कट-कटकर, और हर बार खड़ा हो-होकर गिरे, और फिर खड़ा अस्तित्व है, इसमें कोई उपाय नहीं है। इस अस्तित्व की शर्तों को | हो जाए। संदेह मिटे, और फिर बन जाए; जवाब आए, और फिर मानें तो ठीक, न मानें तो दुख भोगना पड़ता है। इस अस्तित्व की प्रश्न बन जाए। ऐसा करते-करते शायद अर्जुन को यह खयाल आ शर्त ही यह है। उस पार जाने की शर्त यह है कि यह किनारा छोड़ो। जाए कि नहीं, संदेह व्यर्थ है; और आश्वासन की तलाश भी बेकार और यह भी शर्त है कि उस किनारे की बात मत करो। है। किसी क्षण यह खयाल आ जाए, तो तट छूट सकता है। अर्जुन कहता है, मुझे निःसंदिग्ध कर दें। हे महाबाहो, तुम्हारी मगर अर्जुन की प्यास बिलकुल मानवीय है, टू ह्यूमन, बहुत बांहें बड़ी विशाल हैं। तुम दूर के तट छू लेते हो। तुम असीम को मानवीय है। इसलिए कृष्ण नाराज न हो जाएंगे। जानते हैं कि मनुष्य भी पा लेते हो। तुम मुझे कह दो, भरोसा दिला दो। जैसा है, तट से बंधा, उसकी भी अपनी कठिनाइयां हैं। लेकिन सच ही क्या कृष्ण का भरोसा अर्जुन के लिए भरोसा बन किसी का सपना हम तोड़ दें। सुखद सपना कोई देखता हो; सकता है? क्या कृष्ण यह कह दें कि हां, मिलेगा दूसरा किनारा, | माना कि सपना था, पर सुखद था; तोड़ दें। तो वह आदमी पूछे कि तो भी क्या संदेह करने वाला मन चुप हो जाएगा? क्या वह मन | सपना तो आपने मेरा तोड़ दिया, लेकिन अब? अब मुझे कहां! नया संदेह नहीं उठाएगा? कि अगर कृष्ण के कहने से नहीं मिला, | अब मैं क्या देखू? अभी जो देख रहा था, सुखद था। आप कहते तो? फिर कृष्ण जो कहते हैं, वह मान ही लिया जाए, जरूरी क्या | हैं, सपना था, इसलिए तुड़वा दिया। अब मैं क्या देखू ? है? फिर हम कृष्ण की मानकर चले भी गए और कल अगर खो ___ कुछ देखने की उसकी प्यास स्वाभाविक है। मगर उस प्यास में गए, तो किससे शिकायत करेंगे? कहीं बादल की तरह बिखर गए, | बुनियादी गलती है। आदमी के होने में ही बुनियादी गलती है। प्यास तो फिर किससे कहेंगे? और अगर गति बिगड़ गई, तो कौन होगा| | मानवीय है, लेकिन मानवीय होने में ही कुछ गलती है। वह गलती जिम्मेवार ? कृष्ण होंगे जिम्मेवार? यह है कि सपना देखने वाला कहता है कि मैं सपना तभी तोडूंगा, अजीब है आदमी का मन। असल बात यह है कि संदेह करने जब मुझे कोई और सुंदर देखने की चीज विकल्प में मिल जाए। 276 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - तंत्र और योग और कृष्ण जैसे लोगों की चेष्टा यह है कि हम सपना भी तोड़ेंगे, | जाना ही किनारा है। लेकिन वह उलटबांसी की बात हो गई। विकल्प भी न देंगे, ताकि तुम उसको देख लो, जो सबको देखता | मझधार में डूब जाना ही किनारा है। लेकिन वह उलटबांसी की बात है। देखने को बंद करो। दृश्य को छोड़ो। तुम एक दृश्य की जगह | | हो गई, वह पैराडाक्स हो गया। किनारा तो हम कहते हैं, जो दूसरा दृश्य मांगते हो। अगर कृष्ण की भाषा में मैं आपसे कहूं, तो | मझधार में कभी नहीं होता। किनारा तो किनारे पर होता है। कृष्ण कहेंगे, दूसरा किनारा है ही नहीं। यह किनारा भी झूठ है; और | ___ लेकिन यह किनारा भी छोड़ दो, वह किनारा भी छोड़ दो, बीच झूठ के विकल्प में दूसरा किनारा नहीं होता। अगर यह किनारा सच में कौन रह जाएगा? दोनों किनारे जहां छूट गए–संसार भी नहीं होता, तो दूसरा किनारा सच हो सकता था। एक किनारा झूठ और है, मोक्ष भी नहीं है—फिर वासना की धारा को बहने का उपाय नहीं एक सच नहीं हो सकता। दोनों ही किनारे सच होंगे, या दोनों ही रह जाएगा। वासना की नदी फिर बह न सकेगी, और कामना की झूठ होंगे। नावें फिर तैर न सकेंगी, और अहंकार के सेतु फिर निर्मित न हो आप समझते हैं। एक नदी का एक किनारा सच और एक झठ | सकेंगे। तब एक तरह की डूब, एक तरह का विसर्जन, एक तरह हो सकता है? या तो दोनों ही झूठ होंगे, या दोनों ही सच होंगे। की मक्ति. एक तरह का मोक्ष. एक तरह की स्वतंत्रता फलित होती अगर दोनों झूठ होंगे, तो नदी भी झूठ होगी। अगर दोनों ही सच | | है। और वही उपलब्धि है। होंगे, तो नदी भी सच होगी। अब ऐसा समझ लें कि तीनों ही सच लेकिन अर्जुन कैसे समझे उसे? कृष्ण कोशिश करेंगे। वे अभी, होंगे, या तीनों ही झूठ होंगे। तीसरा उपाय नहीं है, अन्य कोई उपाय | दूसरा किनारा है, सही है, पहुंचेगा तू, आश्वासन देता हूं मैं इस नहीं है। ऐसा नहीं हो सकता कि नदी सच हो और किनारे झूठे हों। तरह की बातें करेंगे। यह किनारा तो छूटे कम से कम; फिर वह तो नदी बहेगी कैसे? और ऐसा भी नहीं हो सकता कि एक किनारा | | किनारा तो है ही नहीं। और जिसका यह छूट जाता है, उसका वह सच और दूसरा झूठा हो। नहीं तो दूसरे झूठे किनारे का सहारा न | | भी छूट जाता है। मिलेगा। तीनों सच होंगे, या तीनों झूठ होंगे। कई बार एक झूठ छुड़ाने के लिए दूसरा झूठ निर्मित करना पड़ता अब अर्जुन कहता है, यह किनारा तो झूठ है। कृष्ण, मैं समझ है, इस आशा में कि झूठ छोड़ने का अभ्यास तो हो जाएगा कम से गया, तुम्हारी बातें कहती हैं। तुम पर मैं भरोसा करता हूं। और मेरी | कम। फिर दूसरे को भी छुड़ा लेंगे। जिंदगी का अनुभव भी कहता है, यह किनारा झूठ है। दुख ही पाया | और दो तरह के शिक्षक हैं पृथ्वी पर। एक, जो कहते हैं, जो है इस किनारे पर, कुछ और मिला नहीं। इस वासना में, इस मोह | तुम्हारे हाथ में है, वह झूठ है। और हम तुम्हारे हाथ में कुछ देने को में. इस राग में पीड़ा ही पाई. नर्क ही निर्मित किए। मान लिया, राजी नहीं। क्योंकि कुछ भी हाथ में होगा, झूठ होगा। ऐसे शिक्षक समझ गया। लेकिन दूसरा किनारा सच है न! सहयोगी नहीं हो पाते। कृष्ण क्या कहेंगे? अगर वे कह दें, दूसरा किनारा भी नहीं है, दूसरे शिक्षक ज्यादा करुणावान हैं। वे कहते हैं, तुम्हारे हाथ में तो अर्जुन कहेगा, इसी को पकड़ लूं। कम से कम जो भी है, जो झूठ है, उसे छोड़ दो। हम तुम्हारे लिए सच्चा हीरा देते हैं। सांत्वना तो है, आशा तो है कि कल कुछ मिलेगा। तुम तो बिलकुल हालांकि कोई सच्चा हीरा नहीं है। हीरा मिलता है उस मुट्ठी को, जो निराश किए देते हो। खुल जाती है और कुछ भी नहीं पकड़ती, अनक्लिगिंग। खुली मुट्ठी बुद्ध जैसे व्यक्ति ने यही उत्तर दिया कि दूसरा किनारा भी नहीं है, | | कुछ नहीं पकड़ती, उसको हीरा मिलता है। जो कुछ भी पकड़ती है, मोक्ष भी नहीं है। बड़ी कठिन बात हो गई फिर। मोक्ष भी नहीं है! वह पत्थर ही पकड़ती है। पकड़ना ही-पत्थर आता है पकड़ में। और संसार छोड़ने को कहते हो, और मोक्ष भी नहीं है! धन भी छोड़ने | | हीरा तो खुले हाथ से पकड़ में आता है। अब खुले हाथ की को कहते हो, और धर्म भी नहीं है! तो फिर कहते किसलिए हो? | | पकड़-उलटबांसी हो जाती है। जाग कबीरा जाग, माछी चढ़ गई इसलिए बुद्ध बिलकुल सही कहे, लेकिन काम नहीं पड़ा वह | | रूख। समुंद लागी आग, नदियां जल भई राख। सत्य। दूसरा किनारा भी नहीं है, तो लोगों ने कहा, फिर हमें पकड़े कृष्ण कबीर की भाषा कभी-कभी बोलते हैं बीच-बीच में, रहने दो। | जांचने के लिए, कि शायद अर्जुन राजी हो। नहीं तो फिर वे अर्जुन दूसरा किनारा नहीं है, जोर इस बात पर है कि मझधार में डूब की भाषा बोलने लगते हैं। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3> अभी इतना। फिर हम सांझ...। अब थोड़ी देर-जाग कबीरा जाग, मछली चढ़ गई रूख! 278 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 6 उन्नीसवां प्रवचन यह किनारा छोड़ें my Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग - 3 > श्रीभगवानुवाच पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते । न हि कल्याणकृत्कश्चिदुर्गतिं तात गच्छति ।। ४० ।। हे पार्थ, उस पुरुष का न तो इस लोक में और न परलोक में ही नाश होता है, क्योंकि हे प्यारे, कोई भी शुभ कर्म करने वाला अर्थात भगवत- अर्थ कर्म करने वाला, दुर्गति को नहीं प्राप्त होता है। अ र्जुन ने पूछा है कृष्ण से कि यदि न पहुंच पाऊं उस परलोक तक, उस प्रभु तक, जिसकी ओर तुमने इशारा किया है, और छूट जाए यह संसार भी मेरा; साधना न कर पाऊं पूरी, मन न हो पाए थिर, संयम न सध पाए, और छूट जाए यह संसार भी मेरा तो कहीं ऐसा तो न होगा कि मैं इसे भी खो दूं और उसे भी खो दूं ! तो कृष्ण उसे उत्तर में कह रहे हैं; बहुत कीमती दो बातें इस उत्तर में उन्होंने कही हैं। एक तो उन्होंने यह कहा कि शुभ हैं कर्म जिसके, वह कभी भी दुर्गति को उपलब्ध नहीं होता है । और चैतन्य है जो, प्रभु की ओर उन्मुख चैतन्य है जो, इस लोक में या परलोक में, उसका कोई भी | नाश नहीं है। इन दो बातों को ठीक से समझ लें। पहली बात, चेतना का इस लोक में या उस लोक में, कोई नाश नहीं है। क्यों? चेतना विनष्ट होती ही नहीं । चेतना के विनाश का कोई उपाय नहीं है। विनाश केवल उन्हीं चीजों का होता है, जो संयोग होती हैं, कंपाउंड होती हैं। सिर्फ संयोग का विनाश होता है, तत्व का विनाश नहीं होता। इसे ऐसा समझें कि जो चीज किन्हीं चीजों से जुड़कर बनती है, वह विनष्ट हो सकती है। लेकिन जो चीज बिना किसी के जुड़े है, वह विनष्ट नहीं होती। हम सिर्फ जोड़ तोड़ सकते हैं और जोड़ बना सकते हैं। इसे ऐसा भी समझ लें कि तत्व का कोई निर्माण नहीं होता; निर्माण केवल संयोगों का होता है। एक बैलगाड़ी हम बनाते हैं या एक मशीन बनाते हैं, एक कार बनाते हैं, एक साइकिल बनाते हैं। साइकिल बनती है, साइकिल नष्ट हो जाएगी। जो भी बनेगा, वह नष्ट हो जाएगा। जिसका प्रारंभ है, उसका अंत भी निश्चित है । प्रारंभ में ही अंत निश्चित हो जाता है। और जन्म में ही मृत्यु की मुहर लग जाती है। लेकिन हम पदार्थ को नष्ट नहीं कर सकते, क्योंकि पदार्थ को हम बना भी नहीं सकते हैं। हम केवल संयोग बना सकते हैं। हम पानी को बना सकते हैं। हाइड्रोजन और आक्सीजन को मिला दें, | तो पानी बन जाएगा। फिर हाइड्रोजन आक्सीजन को अलग कर दें, | तो पानी विनष्ट हो जाएगा। लेकिन आक्सीजन ? आक्सीजन को | हम न बना सकेंगे। या हो सकता है, किसी दिन हम बना सकें। किसी दिन यह हो सकता है - जिसकी संभावना बढ़ती जाती है कि हम आक्सीजन को भी बना सकें। जिस दिन हम बना | सकेंगे, उस दिन आक्सीजन एलिमेंट नहीं रहेगी, कंपाउंड हो जाएगी। उस दिन आक्सीजन तत्व नहीं कही जा सकेगी, संयोग हो जाएगी। किसी दिन हम आक्सीजन को बना लेंगे इलेक्ट्रान्स से, न्यूट्रान्स से, और भी जो अंतिम विघटन हो सकता है पदार्थ का, उससे । लेकिन इलेक्ट्रान को फिर हम न बना सकेंगे। तत्व वह है, जिसे हम न बना सकेंगे। इस देश ने तत्व की परिभाषा की है, वह जिसे हम पैदा न कर सकेंगे और जिसे हम नष्ट न कर सकेंगे। अगर किसी तत्व को हम नष्ट कर लेते हैं, तो सिर्फ इतना ही सिद्ध होता है कि हमने गलती से उसे तत्व समझा था; वह तत्व था नहीं। अगर किसी तत्व को हम बना लेते हैं, तो उसका मतलब इतना ही हुआ कि हम गलती से उसे तत्व कह रहे हैं; वह तत्व है नहीं। दो तत्व हैं जगत में । एक, जो हमें चारों तरफ फैला हुआ जड़ का विस्तार दिखाई पड़ता है, मैटर का। वह एक तत्व है। और एक जीवन चैतन्य, जो इस जगत में फैले विस्तार को देखता और जानता और अनुभव करता है । वह एक तत्व है, चैतन्य, चेतना । इन दो तत्वों का न कोई निर्माण है और न कोई विनाश है। न तो चेतना नष्ट हो सकती है. न पदार्थ नष्ट हो सकता है। हां, संयोग नष्ट हो सकते हैं। मैं मर जाऊंगा, क्योंकि मैं सिर्फ | एक संयोग हूं; आत्मा और शरीर का एक जोड़ हूं मैं। मेरे नाम से जो जाना जाता है, वह संयोग है। एक दिन पैदा हुआ और एक दिन विसर्जित हो जाएगा। कोई छाती में छुरा भोंक दे, तो मैं मर जाऊंगा। | आत्मा नहीं मरेगी, जो मेरे मैं के पीछे खड़ी है; और शरीर भी नहीं मरेगा, जो मेरे मैं के बाहर खड़ा है। शरीर पदार्थ की तरह मौजूद | रहेगा, आत्मा चेतना की तरह मौजूद रहेगी, लेकिन दोनों के बीच | का संबंध टूट जाएगा। वह संबंध मैं हूं। वह संबंध मेरा नाम-रूप है । वह संबंध विघटित हो जाएगा। वह संबंध निर्मित हुआ, विनष्ट 280 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ << यह किनारा छोड़ें > हो जाएगा। | बिजली नहीं बुझती। बिजली तो ऊर्जा है। ऊर्जा नष्ट नहीं होती। कृष्ण कहते हैं, चेतना का कोई विनाश नहीं है, इसलिए तू निर्भय भीतर ऊर्जा है जीवन की, चेतना की। शरीर तक आने के रास्ते हो। पापी चेतना का भी कोई विनाश नहीं है, इसलिए पुण्यात्मा हैं। मन उसका रास्ता है, जिससे शरीर तक आती है। जब सिर पर चेतना के विनाश का तो कोई सवाल नहीं है। चेतना का ही विनाश कोई डंडा मारता है, तो आपका मन बुझ जाता है; बीच का सेतु टूट नहीं है। जाता है: खबर आनी बंद हो जाती है। भीतर आप उतने ही चेतन __ अर्जुन ने पूछा है, कहीं ऐसा तो न होगा कि हवाओं के झोंके में होते हैं, जितने थे; और शरीर उतना ही अचेतन होता है, जितना जैसे कोई छोटी-सी बदली बिखर जाए और खो जाए अनंत सदा था। सिर्फ आत्मा से जो चेतना शरीर में प्रतिबिंबित होती थी, आकाश में, कहीं ऐसा तो न होगा कि इस कूल से छूटूं और वह वह प्रतिबिंबित नहीं होती है। किनारा न मिले, और मैं एक बदली की तरह बिखरकर खो जाऊं! | चेतना के बुझने का, नष्ट होने का कोई सवाल नहीं है। पापी की तो कृष्ण कह रहे हैं, इस भांति होना असंभव है, क्योंकि चेतना चेतना का भी सवाल नहीं है। पापी भी कितना ही पाप करे और अविनश्वर है, तत्व है, वह नष्ट नहीं होती। तो पापी की चेतना भी | कितना ही बुरा कर्म करे और कितना ही संसार को पकड़े रहे, कुछ नष्ट नहीं होती। नष्ट होने का उपाय नहीं है। विनाश की कोई भी करे, चेतना नहीं मिटेगी। हां, चेतना विकृत, दुखद, संतापों से संभावना नहीं है। तो पहली बात तो वे यह कहते हैं कि चेतना ही | | घिर जाएगी; नर्कों में जीएगी; पीड़ा में, कष्ट में, गहन से गहन नष्ट नहीं होती, न इस लोक में, न परलोक में, कहीं भी। चेतना का | संताप में गिरती चली जाएगी–नष्ट नहीं होगी। नष्ट होने का कोई कोई विनाश नहीं है। | उपाय नहीं है। ठीक ऐसे ही, जैसे आप एक रेत के टुकड़े को नष्ट लेकिन हमें शक पैदा होगा। हम एक आदमी को एनेस्थेसिया नहीं कर सकते। कोई उपाय नहीं है। का इंजेक्शन दे देते हैं, वह बेहोश हो जाता है। एक आदमी के सिर वैज्ञानिक कितना काम कर पा रहे हैं! एटामिक एनर्जी खोज ली पर चोट लग जाती है, वह बेहोश होकर गिर जाता है। लोग कहते है, चांद पर पहुंच सकते हैं, पांच मील गहरे प्रशांत महासागर में हैं, उसकी चेतना चली गई। चेतना नहीं जाती। लोग कहते हैं, डुबकी ले सकते हैं, सब कर सकते हैं, लेकिन एक रेत का अचेतन हो गया। अचेतन भी कोई नहीं होता है। जब बेहोश होता छोटा-सा कण नहीं बना सकते। नहीं बना सकते, इसलिए नहीं कि है कोई, तब फिर, न तो आत्मा बेहोश होती है और न शरीर बेहोश वैज्ञानिक कमजोर हैं। नहीं बना सकते हैं इसलिए कि पदार्थ न तो होता है। क्योंकि शरीर तो बेहोश हो नहीं सकता, उसके पास कोई निर्माण होता है, न विनष्ट होता है। वैज्ञानिक किसी दिन मनुष्य की होश नहीं है। आत्मा बेहोश नहीं हो सकती, क्योंकि वह पूर्ण होश | आत्मा भी नहीं बना सकेंगे। यद्यपि इस तरफ काफी काम चलता है। फिर होता क्या है? जब एक आदमी के सिर पर चोट लगती है | है। और रोज खबरें आती हैं कि कुछ और खोज लिया गया, जिससे . और वह बेहोश पड़ जाता है, तब होता क्या है ? तब फिर वही बीच संभावना बनती है कि इस सदी के पूरे होते-होते आदमी की आत्मा का संबंध शिथिल होता है। शरीर तक आत्मा से जो चेतना आती को वैज्ञानिक पैदा कर लेगा। थी, उसका प्रवाह अवरुद्ध हो जाता है। अभी जो आदमी का जेनेटिक, जो उसका प्रजनन का मूल कोष्ठ समझ लें कि मैंने बटन दबा दी है और बिजली का बल्ब बुझ है, उसको भी तोड़ लिया गया। जैसे अणु तोड़ लिया गया और गया। तो क्या आप कहेंगे, बिजली बझ गई? इतना ही कहिए कि परमाण की शक्ति उपलब्ध हई. वैसे ही अब मनष्य के जीवकोष्ठ बिजली के बल्ब तक वह जो बिजली की धारा आती थी, अब नहीं को भी तोड़ लिया गया है, और उस जीवकोष्ठ का भी मूल आती है। बिजली नहीं बुझ गई, बल्ब बुझ गया। बटन फिर आप | रासायनिक रहस्य समझ में आ गया है। और अब इस बात की पूरी आन कर देते हैं, बल्ब फिर जल उठता है। अगर बिजली बुझ गई| संभावना है कि हम आज नहीं कल प्रयोगशाला में मनुष्य के शरीर होती, तो फिर बल्ब नहीं जल सकता था। और अगर आपका मेन को जन्म दे सकेंगे। स्विच भी बस्ती का आफ हो गया हो, तब भी बल्ब ही बुझते हैं, अभी एक वैज्ञानिक पत्रिका में, जो मनुष्य के जीवन के संबंध में बिजली नहीं बुझती। और अगर आपका पूरा का पूरा बिजलीघर भी ही समस्त शोध छापती है, एक बहुत बड़ा कार्टून छापा है। वह ठप्प होकर बंद हो गया हो, तब भी बिजलीघर ही बंद होता है, कार्टून मुझे बहुत प्रीतिकर लगा। इस सदी के पूरे होने के समय 281 Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-31 का कार्टून है। दो हजारवां वर्ष आ गया है। एक लड़का एक जिन्हें आत्मा का कोई पता नहीं है, ऐसे बहुत-से आत्मवादी हैं। प्रयोगशाला के पास से गुजर रहा है, उस प्रयोगशाला के पास से, सच तो यह है कि आत्मवादियों में बहुत-से ऐसे हैं, जिन्हें आत्मा जिसके टेस्ट-टयूब में वह पैदा हुआ था। टेस्ट-ट्यूब प्रयोगशाला का कोई पता नहीं। वे ऐसी बातें सुनकर बड़े बेचैन हो जाते हैं। के दरवाजे से दिखाई पड़ रही है। वह लड़का रास्ते से कहता है, उनका एक ही उत्तर होता कि यह कभी हो नहीं सकता। मैं उनसे डैडी! नमस्कार! मैं स्कूल जा रहा हूं। | कहता हूं, वे समझ लें, यह होगा। और आपके कहने से कि यह दो हजारवें वर्ष में इस बात की करीब-करीब संभावना है- | कभी हो नहीं सकता, सिर्फ इतना ही पता चलता है कि आपको कुछ शायद दस साल और पहले यह घटित हो जाएगा कि हम बच्चे पता नहीं है। यह होगा। पर बड़ी घबड़ाहट होती है कि अगर यह के शरीर को प्रयोगशाला की परखनली में पैदा कर लेंगे। तब जो | हो जाएगा, तो फिर आत्मा का क्या हुआ? साधारण बुद्धि के आत्मवादी हैं, बड़ी मुश्किल में अभी पड़ गए __ मैं आपसे कहता हूं, इससे आत्मा पर कोई आंच नहीं आती है। हैं वे मुश्किल में बड़ी मुश्किल में पड़ जाएंगे। अगर किसी दिन | इससे सिर्फ इतना ही सिद्ध होता है कि मां-बाप के शरीर जो काम प्रयोगशाला में आदमी का शरीर पैदा हो गया, तो फिर आत्मा का करते थे गर्भ में शरीर के निर्माण करने का, वह वैज्ञानिक क्या होगा? और अगर वह आदमी हमारे ही जैसा आदमी हआ, | प्रयोगशाला में वैज्ञानिक कर देंगे। आत्मा जैसे मां-बाप के गर्भ में और वैज्ञानिक कहते हैं, हम से बेहतर होगा, क्योंकि वह ठीक से | प्रवेश करती थी, वैसे ही वैज्ञानिक प्रयोगशाला के शरीर में प्रवेश कल्टिवेटेड होगा। हमारी पैदाइश तो बिलकुल ही अवैज्ञानिक है। | करेगी। इससे आत्मा का कोई संबंध नहीं है। इससे कुछ भी सिद्ध उसमें कोई नियम और गणित और कोई व्यवस्था तो नहीं है। उसमें नहीं होता। सारी व्यवस्था होगी। __ आज से हजार साल पहले हम बिजली नहीं जला सकते थे; वैज्ञानिक कहते हैं कि वह जो शरीर हम निर्मित करेंगे, हम जानेंगे | हमारे पास पंखे नहीं थे, बल्ब नहीं थे। लेकिन आकाश में तो कि इसे कितने वर्ष की जिंदगी देनी है। सौ वर्ष की? तो वह ठीक | बिजली चमकती थी। आकाश में बिजली चमकती थी। बिजली सौ वर्ष की गारंटी का सर्टिफिकेट लेकर पैदा होगा। क्योंकि हम सदा से थी। आज हमने बल्ब जला लिए, तो क्या हम सोचते हैं, उतना रासायनिक तत्व उसमें डालेंगे, जो सौ वर्ष तक स्वस्थ रह | | जो बिजली हमारे बल्बों में चमक रही है, वह कोई दूसरी है? वह सके। अगर हम चाहते हैं कि वह आइंस्टीन जैसा बुद्धिमान हो, तो वही है, जो आकाश में चमकती थी। हमने अभी भी बिजली नहीं बुद्धि के तत्व की उतनी ही मात्रा उसमें होगी। अगर हम चाहते हैं बनाई है! अभी भी हमने बिजली को प्रकट करने के उपाय ही बनाए कि वह मजदूर का काम करे, तो उस तरह की मसल्स उसमें होंगी। हैं। बिजली हम कभी न बना सकेंगे। सिर्फ जहां-जहां बिजली अगर हम चाहते हैं कि वह संगीतज्ञ का काम करे, तो उसके गले | अप्रकट है, वहां से हम प्रकट होने के उपाय खोज लेते हैं। और उसकी आवाज का सारा रासायनिक क्रम वैसा होगा। __ अगर किसी दिन हमने आदमी का शरीर बना लिया, जो कि बना और फिर वे यह भी कहते हैं कि हम हर बच्चे को बनाते वक्त ही लिया जाएगा, तो उस दिन भी हम आदमी को नहीं बना रहे हैं, उसकी एक डुप्लीकेट कापी भी बना लेंगे। क्योंकि कभी भी जिंदगी सिर्फ शरीर को बना रहे हैं। और जिस तरह आत्माएं गर्भ के शरीर में किसी की किडनी खराब हो गई, तो उसको बदलने की दिक्कत में प्रवेश करती रही हैं, वे आत्माएं मनुष्य द्वारा निर्मित शरीर में भी पड़ती है। तो उस डुप्लीकेट कापी से उसकी किडनी निकालकर प्रवेश कर पाएंगी। इसमें कोई अड़चन नहीं है, इसमें कोई कठिनाई बदल देंगे। किसी की आंख खराब हो गई! तो एक डुप्लीकेट कापी | भी नहीं है। शरीर विज्ञान से निर्मित हुआ कि प्रकृति से निर्मित हुआ, उस शरीर की जिंदा, प्रयोगशाला में रखी रहेगी। डीप फ्रीज, काफी | | कोई भेद नहीं पड़ता। आत्मा अप्रकट चेतना है। प्रकट होने का गहरी ठंडक में रखी रहेगी, कि सड़ न जाए। और जब भी आपमें | | माध्यम मिल जाए, आत्मा प्रकट हो जाती है। कोई गड़बड़ होगी, तो पार्ट बदले जा सकेंगे। लेकिन न तो चेतना का कोई निर्माण हो सकता है और न कोई उनका कहना है कि जब एक दफे हमें सूत्र मिल गया, तो हम | | विनाश हो सकता है। जब आप किसी की छाती में छुरा भोंकते हैं, एक जैसे हजार शरीर भी पैदा कर सकते हैं, कोई कठिनाई नहीं है। तब भी आत्मा नहीं मरती। और जिस दिन प्रयोगशाला की फिर क्या होगा! आत्मवादियों का क्या होगा? लेबोरेटरी में हम परखनली में आदमी का शरीर बना लेंगे, उस दिन 282 Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यह किनारा छोड़ें - भी आत्मा नहीं बनती। | हो और तू बीच में डूब भी जाए; तो भी मैं तुझसे कहता हूं कि शुभ कृष्ण को पता नहीं था, तो उन्होंने इतना ही कहा, नैनं छिंदन्ति | कर्म जिसने किया, उसकी दुर्गति कभी नहीं होती है। शस्त्राणि। उन्होंने कहा कि शस्त्र छेद देने से आत्मा नहीं मरती है। शुभ कर्म जिसका सफल हो जाए, उसकी तो दुर्गति का सवाल अब अगर गीता फिर से लिखनी पड़े, तो उसमें यह भी जोड़ देना ही नहीं है। लेकिन शुभ कर्म जिसका सफल भी न हो पाए, उसकी चाहिए कि परखनली में शरीर बनाने से आत्मा नहीं बनती है। दोनों | भी दुर्गति नहीं होती। इससे दूसरी बात भी आपको कह दूं, तो जल्दी एक ही चीज के दो छोर हैं। एक ही तर्क के दो छोर हैं। न तो मारने | खयाल में आ जाएगा। से मरती है आत्मा, और न शरीर को बनाने से बनती है आत्मा। ___ अशुभ कर्म जिसने किया, सफल न भी हो पाए, तो भी दुर्गति ___ यह जो अनिर्मित, अजन्मी, अजात, अमृत आत्मा है, कृष्ण कहते हो जाती है। मैंने आपकी हत्या करनी चाही, और नहीं कर पाया, हैं, इसका कभी कोई विनाश नहीं है अर्जुन। यह तो वे एक सामान्य तो भी दुर्गति हो जाती है। नहीं कर पाया, इसका यह मतलब नहीं सत्य कहते हैं। पापी की आत्मा का भी कोई विनाश नहीं है। |कि मैंने आपकी गर्दन दबाई और न दब पाई। नहीं, आपकी गर्दन दूसरी बात वे कहते हैं, लेकिन जिसने शुभ कर्म किए! | तक भी नहीं पहुंच पाया, तो भी दुर्गति हो जाती है। नहीं कर पाया, ध्यान रहे, अर्जुन ने पूछा है कि मैं कोशिश भी करूं और सफल | इसका यह मतलब नहीं कि मैंने आपसे कहा कि हत्या कर दूंगा, न हो पाऊं, श्रद्धायुक्त कोशिश करूं और असफल हो जाऊं, और नहीं की। नहीं, मैं आपसे कह भी नहीं पाया, तो भी दुर्गति हो क्योंकि मैं मेरे मन को जानता हूं; कितनी ही श्रद्धा से करूं, मन की जाती है। भीतर उठा विचार भी अशुभ का दुर्गति की यात्रा पर पहुंचा चंचलता नहीं जाती है। श्रद्धा से भरा हुआ असफल हो जाए मेरा देता है। बीज बो दिया गया। कर्म, तो मैं बिखर तो न जाऊंगा बादलों की भांति! मेरी नाव डूब । गलत विचार भी काफी है दुर्गति के लिए। सही विचार भी काफी तो न जाएगी किनारे को खोकर, दूसरे किनारे को बिना पाए! है दुर्गति से बचने के लिए। क्यों? क्योंकि अंततः हमारा विचार ही कृष्ण कहते हैं, शुभ कर्म जिसने किया। हमारे जीवन का फल बन जाता है। फल कहीं बाहर से नहीं आते। जरूरी नहीं कि शुभ कर्म सफल हुआ हो। किए की बात कर हमारे ही भीतर उनकी ग्रोथ, उनका विकास होता है। रहे हैं, इसको ठीक से समझ लेना आप। शुभ कर्म जिसने बुद्ध ने धम्मपद में कहा है कि तुम जो हो, वह तुम्हारे विचारों किया-जरूरी नहीं कि सफल हो—ऐसे व्यक्ति की कोई दुर्गति | का फल हो। अगर दुखी हो, तो अपने विचारों में तलाशना, तुम्हें नहीं है। सफलता की बात नहीं है। | वे बीज मिल जाएंगे, जिन्होंने दुख के फल लाए। अगर पीड़ित हो, ___ एक आदमी ने शुभ कर्म करना चाहा, एक आदमी ने शुभ कर्म | | तो खोजना; तुम्हीं अपने हाथों को पाओगे, जिन्होंने पीड़ा के बीज करने की कोशिश की, एक आदमी ने शुभ की कामना की, एक | बोए। अगर अंधकार ही अंधकार है तुम्हारे जीवन में, तो तलाश . आदमी के मन में शुभ का बीज अंकुरित हुआ, कोई हर्जा नहीं कि | करना; तुम पाओगे कि तुम्हीं ने इस अंधकार का बड़ी मेहनत से अंकुर न बना, कोई हर्जा नहीं कि वृक्ष न बना, कोई हर्जा नहीं कि | निर्माण किया। हम अपने नर्कों का निर्माण बड़ी मेहनत से करते हैं! फल कभी न आए, फूल कभी भी न लगे। लेकिन जिस आदमी ने - दोनों ही बातें सोच लेना। शभ का बीज भी बोया, अनअंकरित, अंकर भी न उठा हो. उस बरा कर्म असफल भी हो जाए, तो भी बरा फल मिलता है। आदमी के भी जीवन में कभी दुर्गति नहीं होती है। | कहेंगे आप, फिर उसको असफल क्यों कहते हैं? कृष्ण बहुत अदभुत बात कह रहे हैं। शुभ कर्म सफल हो, तब बुरा कर्म असफल भी हो जाए, पूरा न हो पाए, घटित न हो पाए, तो दुर्गति होती ही नहीं अर्जुन, लेकिन तू जैसा कहता है, अगर ऐसा | वस्तु के जगत में न आ पाए, घटना के जगत में उसकी कोई भी हो जाए, कि तू शुभ की यात्रा पर निकले और तेरा मन साथ न | प्रतिध्वनि न हो पाए, सिर्फ आपमें ही खो जाए, सिर्फ स्वप्न बनकर दे; तेरी श्रद्धा तो हो, लेकिन तेरी शक्ति साथ न दे; तेरा भाव तो | ही शून्य हो जाए, तो भी, तो भी फल हाथ आता है-दुखों का, हो, लेकिन तेरे संस्कार साथ न दें: त चाहता तो हो कि दूसरे किनारे | पीड़ाओं का, कष्टों का। दुर्गति हो जाती है। अच्छे कर्म का खयाल पर पहुंच जाऊं, लेकिन तेरी पतवार कमजोर हो; तेरी आकांक्षा तो सफल न भी हो पाए...।। दृढ़ हो कि निकल जाऊं उस पार, लेकिन तेरी नाव ही छिद्र वाली बुद्ध एक कथा कहा करते थे। एक व्यक्ति आया। राजकुमार 283 Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 था। बुद्ध से उसने दीक्षा ली। आदमी से कोई आशा नहीं करता था। यह हत्या कर सकता है, मान और बुद्ध के समय दीक्षा ने जो शान देखी दुनिया में, वह फिर । सकते हैं। यह डाका डाल सकता है, मान सकते हैं। यह किसी की पृथ्वी पर दुबारा नहीं हो सकी। बुद्ध और महावीर के वक्त बिहार | स्त्री को उठाकर ले जा सकता है, मान सकते हैं। यह संन्यास लेगा, ने जो स्वर्णयुग देखा संन्यास का, वह पृथ्वी पर फिर कभी नहीं | यह कोई सपना नहीं देख सकता था! इसने ऐसा क्यों किया? बुद्ध हुआ। उसके पहले भी कभी नहीं हुआ था। से लोग पूछने लगे। अदभुत दिन रहे होंगे। बुद्ध चलते थे, तो पचास हजार संन्यासी बुद्ध ने कहा, मैं तुम्हें इसके पुराने जन्म की कथा कहूं। एक बुद्ध के साथ चलते थे। जिस गांव में बुद्ध ठहर जाते थे, उस गांव छोटी-सी घटना ने आज के इसके संन्यास को निर्मित किया की हवाओं का रुख बदल जाता था! पचास हजार संन्यासी जिस | है-छोटी-सी घटना ने। उन्होंने पूछा, कौन-सी है वह कथा? तो गांव में ठहर जाएं, उस गांव में बुरे कर्म होने बंद हो जाते थे, बुद्ध ने कहा...। कठिन हो जाते थे, मुश्किल हो जाते थे। इतने शुभ धारणाओं से और बुद्ध और महावीर ने उस साइंस का विकास किया पृथ्वी भरे हुए लोग! पर, जिससे लोगों के दूसरे जन्मों में झांका जा सकता है; किताब कथाएं कहती हैं कि बुद्ध जहां से निकल जाएं, वहां चोरियां बंद | की तरह पढ़ा जा सकता है। हो जातीं, वहां हत्याएं कम हो जातीं। आज तो कथा लगती है बात, तो बुद्ध ने कहा कि यह व्यक्ति पिछले जन्म में हाथी था, आदमी लेकिन मैं कहता हूं कि ऐसा हो जाता है। क्योंकि हत्याएं करता कौन | नहीं था। और तब पहली दफा लोगों को खयाल आया कि इसकी है? आदमी करता है। आदमी है क्या सिवाय विचारों के जोड़ के! चाल-ढाल देखकर कई दफा हमें ऐसा लगता था कि जैसे हाथी की और बुद्ध जैसी कौंध बिजली की पास से गुजर जाए, तो आप वही चाल चलता है। अभी भी, इस जन्म में भी उसकी चाल-ढाल, के वही रह सकते हैं जो थे? आप नहीं रह सकते हैं वही के वही। उसका ढंग एक शानदार हाथी का, मदमस्त हाथी का ढंग था। इतनी बिजली कौंध जाए अंधेरे में, तो फिर आप वही नहीं रह जाते, बुद्ध ने कहा, यह हाथी था पिछले जन्म में। और जिस जंगल में जो आप थे। | रहता था, हाथियों का राजा था। तो जंगल में आग लगी। गर्मी के थोड़ी भी झलक मिल जाती है रास्ते की, तो आदमी सम्हलकर दिन थे, भयंकर आग लगी आधी रात को। सारे जंगल के चलता है। अंधेरी रात है अमावस की, और बिजली चमक गई एक | पशु-पक्षी भागने लगे, यह भी भागा। यह एक वृक्ष के नीचे विश्राम क्षण को, फिर घुप्प अंधेरा हो गया, तो भी फिर आप उतनी ही करने को एक क्षण को रुका। भागने के लिए एक पैर ऊपर उठाया, भूल-चूक से नहीं चलते, जितना पहले चल रहे थे। अंधेरा फिर तभी एक छोटा-सा खरगोश वृक्ष के पीछे से निकला और इसके उतना ही है, लेकिन एक झलक मिल गई मार्ग की। पैर के नीचे की जमीन पर आकर बैठ गया। एक ही पैर ऊपर उठा, बुद्ध जैसा आदमी पास से गुजरे, तो बिजली कौंध जाती है। और हाथी ने नीचे देखा, और उसे लगा कि अगर मैं पैर नीचे रखें, तो जिस गांव में पचास हजार भिक्षु और संन्यासी...। महावीर के यह खरगोश मर जाएगा। यह हाथी खड़ा-खड़ा आग में जलकर साथ भी पचास हजार भिक्षु और संन्यासी चलते। और दोनों मर गया। बस, उस जीवन में इसने इतना-सा ही एक महत्वपूर्ण करीब-करीब समसामयिक थे। परा बिहार संन्यास से भर गया। काम किया था. उसका फल आज इसका संन्यास है। उसको नाम ही बिहार इसलिए मिल गया। बिहार का मतलब है, रात वह राजकुमार सोया। जहां पचास हजार भिक्षु सोए हों, वहां भिक्षुओं का विहार-पथ। जहां संन्यासी गुजरते हैं, ऐसी जगह। अड़चन और कठिनाई स्वाभाविक है। फिर वह बहुत पीछे से दीक्षा जहां संन्यासी गुजरते हैं, ऐसे रास्ते। जहां संन्यासी विचरते हैं, ऐसा लिया था, उससे बुजुर्ग संन्यासी थे। जो बहुत बुजुर्ग थे, वे भवन स्थान। इसलिए तो उसका नाम बिहार हो गया। के भीतर सोए। जो और कम बुजुर्ग थे, वे भवन के बाहर सोए। जो बुद्ध एक गांव में ठहरे हैं। उस गांव के सम्राट के बेटे ने आकर | और कम बुजुर्ग थे, वे रास्ते पर सोए। जो और कम बुजुर्ग थे, वे दीक्षा ली। उस सम्राट के लड़के से कभी किसी ने न सोचा था कि और मैदान में सोए। उसको तो बिलकुल आखिर में, जो गली वह दीक्षा लेगा। लंपट था, निरा लंपट था। बुद्ध के भिक्षु भी चकित राजपथ से जोड़ती थी बुद्ध के विहार तक, उसमें सोने को मिला। हुए। बुद्ध के भिक्षुओं ने कहा, इस निरा लंपट ने दीक्षा ले ली? इस रात भर! कोई भिक्षु गुजरा, उसकी नींद टूट गई। कोई कुत्ता भौंका, 284 Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यह किनारा छोड़ें उसकी नींद टूट गई। कोई मच्छर काटा, उसकी नींद टूट गई। | आकर संन्यास ले गया! उससे मैंने पूछा कि तूने कब सोचा? उसने रातभर वह परेशान रहा। उसने सोचा कि सुबह मैं इस दीक्षा का कहा. मैंने सोचा नहीं। मेरे सास और ससर बात करते हैं तीन दिन त्याग करूं। यह कोई अपने काम की बात नहीं। से कि संन्यास लेना है। आपसे मिल भी गए हैं। सोच-विचार सुबह वह बुद्ध के पास जाकर, हाथ जोड़कर खड़ा हुआ। बुद्ध चलता है। मैं उनकी सुन-सुनकर, न मालूम क्या हुआ मुझे कि मैं ने कहा, मालूम है मुझे कि तुम किसलिए आए हो। उसने कहा कि चलकर ले लं। वह आकर संन्यास ले भी गया। अभी सास-ससर आपको नहीं मालूम होगा कि मैं किसलिए आया हूं। मैं कोई | सोचते ही हैं! साधना की पद्धति पूछने नहीं आया। क्योंकि कल मैंने दीक्षा ली, | ___ क्या हुआ? और फिर इस व्यक्ति का मुझसे कोई ज्यादा संबंध आज मुझे साधना की पद्धति पूछनी थी; उसके लिए मैं नहीं | | नहीं। फिर इस व्यक्ति की मेरे विचारों से ज्यादा पहचान नहीं। इसके आया। बुद्ध ने कहा, वह मैं तुझसे कुछ नहीं पूछता। मुझे मालूम | | सास-ससुर ही मुझसे ज्यादा परिचित और मेरे विचारों के ज्यादा है, तू किसलिए आया। सिर्फ मैं तुझे इतनी याद दिलाना चाहता हूं | | निकट हैं। इसको क्या हुआ? यह संन्यास का फूल इसकी जिंदगी कि हाथी होकर भी तूने जितना धैर्य दिखाया, क्या आदमी होकर में अचानक कैसे खिल गया? उतना धैर्य न दिखा सकेगा? ___ यह बीज पिछले जन्मों का है। यह कहीं पड़ा रहता है, चुपचाप उस आदमी की आंखें बंद हो गईं। उसको कुछ समझ में न आया प्रतीक्षा करता है। जैसे बीज गिर जाता है, फिर वर्षा की प्रतीक्षा कि हाथी होकर इतना धैर्य दिखाया! यह बुद्ध क्या कहते हैं, पागल करता है। महीनों बीत जाते हैं धूल में, धंवास में उड़ते, हवाओं की जैसी बात! उसकी आंख बंद हो गई। ठोकरें खाते, फिर वर्षा की प्रतीक्षा चलती है। फिर कभी वर्षा आती लेकिन बुद्ध का यह कहना, जैसे उसके भीतर स्मृति का एक द्वार | | है। शायद इन आठ महीनों में बीज भी भूल गया होगा कि मैं कौन खुल गया। आंख उसकी बंद हो गई। उसने देखा कि वह एक हाथी | हूं। बीज को पता भी कैसे होगा कि मेरे भीतर क्या पैदा हो सकता है। एक घने जंगल में आग लगी है। एक वृक्ष के नीचे वह खड़ा | है। फिर वर्षा आती है, बीज जमीन में दब जाता है और टूटकर है। एक खरगोश उसके पैर के नीचे आकर बैठ गया। इस डर से अंकुर हो जाता है, तभी बीज को पता चलता है। बीज भी चौंकता वह भागा नहीं कि मेरा पैर नीचे पड़े, तो खरगोश मर जाए। और होगा; चौंककर कहता होगा कि मैं सूखा-साखा सा, मुझमें इतनी जब मैं भागकर बचना चाहता हूं, तो जैसा मैं बचना चाहता हूं, वैसा | | हरियाली छिपी थी! मैं सूखा-साखा सा, कंकड़-पत्थर मालूम ही खरगोश भी बचना चाहता है। और खरगोश यह सोचकर मेरे | पड़ता था देखने पर, मुझमें ऐसे-ऐसे फूल छिपे थे! बीज को भी पैर के नीचे बैठा है कि शरण मिल गई। तो इस भोले से खरगोश | भरोसा न आता होगा। को धोखा देकर भागना उचित नहीं। तो मैं जल गया। हम भी सब बीज हैं और लंबी यात्राओं के बीज हैं। उसने आंख खोली, उसने कहा कि माफ कर देना, भूल हो गई। तो कृष्ण कहते हैं, शुभ का इरादा भी, शुभ कर्म की श्रद्धा भी, रात और भी कोई कठिन जगह हो सोने की, तो मुझे दे देना। अब | | दुर्गति में नहीं ले जाती है, कभी नहीं ले जाती है। सिर्फ श्रद्धा भी! मैं याद रख सकूँगा। उतना छोटा-सा, उतना छोटा-सा काम, क्या जरूरी नहीं कि एक आदमी ने अच्छा काम किया हो; इतना भी मेरे जीवन में इतनी बड़ी घटना बन सकता है? काफी है कि सोचा हो; इतना भी काफी है कि कोई सोचता हो, तो सब छोटे बीज बड़े वृक्ष हो जाते हैं। चाहे वे बुरे बीज हों, चाहे वे उसे सहयोग दिया हो। इतना भी काफी है कि कोई कर रहा हो, तो भले बीज हों, सब बड़े वृक्ष हो जाते हैं—सब बड़े वृक्ष हो जाते हैं। प्रशंसा से उसकी तरफ देखा हो, तो भी वह आदमी दुर्गति को प्राप्त हमें चूंकि कोई पता नहीं होता कि जीवन किस प्रक्रिया से चलता | नहीं होता है। है, इसलिए कठिनाई होती है। हमें कोई पता नहीं होता कि किस ___ महावीर जब किसी को दीक्षा देते थे, तो कुछ बातें कहलवाते थे। प्रक्रिया से चलता है। वे कहते थे कि तुम आश्वासन दो कि बुरा कर्म नहीं करोगे। वे कहते अभी यहां एक घटना घटी। एक मित्र और उनकी पत्नी संन्यास | । थे, तुम आश्वासन दो कि कोई बुरा कर्म करता होगा, तो तुम उसे लेना चाहते थे। वे काफी सोच-विचार में पड़े हैं। घर में बातचीत | प्रोत्साहन नहीं दोगे। आश्वासन दो कि कोई बुरा कर्म करता होगा, चलती थी, उनके दामाद ने सुन ली। वे अभी सोच ही रहे हैं, दामाद तो तुम उसकी तरफ प्रशंसा से देखोगे भी नहीं। 285 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 गीता दर्शन भाग-3 वह आदमी पूछता, मैं बुरा कर्म नहीं करूंगा। लेकिन ये दूसरी | | पूरा कर देना। संन्यास को भीतर साधते चले जाना, संसार को बाहर बातें क्या हैं, कि मैं प्रोत्साहन भी न दूंगा! कि मैं प्रशंसा से देखूगा | पूरा कर देना। भी नहीं! लेकिन पत्नी कहती है, और कुछ भी कर लो, चलेगा। यह नहीं एक आदमी रास्ते पर किसी को पीट रहा है। आप नहीं पीट रहे; चल सकता। क्या, मामला क्या है? हमें पता ही नहीं कि वह आपका कोई संबंध नहीं। आप सिर्फ रास्ते से गुजरते हैं। लेकिन व्यक्ति तो रातभर रोकर उतना फायदा ले लिया, जितना कि आपकी आंख की एक झलक उस पीटने वाले को कह जाती है कि संन्यासी को मिलना चाहिए। लेकिन इस पत्नी ने क्या किया? मेरी पीठ थपथपाई गई। बस, पाप हो गया, बीज बो दिया गया। इसका तो कुछ लेना-देना न था! इसने करीब-करीब एक संन्यासी ठीक महावीर ऐसे ही कहते थे, अच्छा कर्म करना। कोई अच्छा की हत्या से जो भी पुण्य मिल सकता है-पुण्य कह रहा हूं, ताकि कर्म करता हो, तो प्रोत्साहन देना। कोई अच्छा कर्म करता हो, कुछ पत्नी नाराज न हो जाए। यहीं कहीं मौजूद होगी! उसने नाहक पुण्य न बन सके, तो अपनी आंख से, अपने इशारे से सहारा देना। बटोर लिया। जमाने बदले। वक्त बहुत अदभुत थे कभी। महावीर लेकिन एक आदमी को संन्यास लेना हो, तो आप सब मिलकर | का एक संस्मरण आपसे कहूं। क्या करेंगे? आप कहेंगे, क्या कर रहे हो! पागल हो गए हो? बुद्धि एक युवक बैठा है स्नानगृह में। उसकी पत्नी उबटन लगाती है। ठिकाने है? आपको पता नहीं कि वह आदमी तो संन्यास की भावना उबटन लगाते वक्त, स्नान करवाते वक्त, अपने पति को वह कहती करके भी न भी ले पाए. तो भी सदगति की व्यवस्था कर रहा है। है कि मेरे भाई ने संन्यास लेने का विचार किया है। वह पति पछता और आप अकारण, आप कोई न थे बीच में, आप कह रहे हैं, है, कब लेगा तुम्हारा भाई संन्यास? उसकी पत्नी कहती है, एक पागल हो गए हो? दिमाग खराब हो गया? बुद्धि खो दी? आपको | महीने बाद का तय किया है। वह पति ऐसे ही मजाक में पूछता है पता भी नहीं है कि आप व्यर्थ ही बीज बो रहे हो, जो आपको | कि एक महीना जीएगा, पक्का है? पत्नी कहती है, किस तरह की भटकाने का कारण हो जाएंगे। अपशकुन की बातें बोलते हो अपने मुंह से! यह शोभा नहीं देता। लेकिन हमें खयाल ही नहीं होता कि हम क्या कर रहे हैं! हमें ऐसा सोचते ही क्यों हो? उसने कहा, सोचता नहीं हूं, लेकिन एक खयाल ही नहीं होता। महीना जीएगा, यह पक्का है? ये ढंग संन्यास लेने के नहीं हैं। संन्यास लेना चाहते हैं। रातभर रोते रहे हैं कल पत्नी क्योंकि जो आदमी स्थगित करता है, उसके भीतर वह जो के चरणों में बैठकर। लेकिन पत्नी सख्त है। वह कहती है कि मर | संन्यास-विरोधी कर्मों का भार है, भारी है। जाओ, वह बेहतर। सास कहती है, मर जाओ, वह बेहतर। शराब | वह युवक ऐसे ही कह रहा है। तो उसकी पत्नी ने सिर्फ मजाक पीने लगो. जआ खेलो. कछ भी करो-चलेगा: संन्यास का नाम में और व्यंग्य में कहा कि अगर तुमको संन्यास लेना हो, तो क्या मत लेना। और इस संन्यास में न वे घर छोड़कर जा रहे हैं, न वे करोगे? आधी उबटन लगी थी शरीर पर, आधी धुल गई थी। वह पत्नी को छोड़कर जा रहे हैं, न वे बच्चों को छोड़कर जा रहे हैं।। युवक नग्न था, खड़ा हो गया। पत्नी ने कहा, कहां जाते हो? उसने सिर्फ संन्यास के भाव को ही तो ले रहे हैं, और क्या कर रहे हैं? दरवाजा खोला। पत्नी ने कहा, कहां निकलते हो? लोग क्या कोई जंगल नहीं जा रहे हैं, कोई पहाड़ नहीं जा रहे हैं। किसी को | कहेंगे? नग्न हो तुम! वह दरवाजे के बाहर हो गया। पत्नी ने कहा, छोड़ नहीं रहे, किसी को नंगा नहीं छोड़ रहे, भूखा नहीं छोड़ रहे; तुम्हारा दिमाग तो ठीक है न! पर उसने कहा, मैंने संन्यास ले काम-धंधा करेंगे। लिया। बात खतम हो गई। पुराने संन्यास से नया संन्यास कठिन है। क्योंकि संन्यासी भी महावीर उसकी कथा जगह-जगह कहते थे। हो जाएंगे; पति भी होंगे, पिता भी होंगे, सारी जिम्मेवारी होगी, उसने कहा कि संन्यास भी कहीं पोस्टपोन किया जाता है! कल सारा दायित्व होगा। कोई दायित्व तोड़ना नहीं है। क्योंकि मैं मानता | लेंगे? अगर जो आदमी मौत को पोस्टपोन कर सकता हो, उसको हूं, वह भी हिंसा है। क्योंकि मैं मानता हूं, किसी को बीच में संन्यास पोस्टपोन करने का हक है; बाकी किसी को हक नहीं है। छोड़कर जाना, वह भी दुख देना है। उतना भी क्यों देना? उसको | कृष्ण कहते हैं, सदभाव भी! करने की कामना भी! खेल समझकर पूरा कर देना कि ठीक है। उसको नाटक समझकर अभी बंबई में एक वृद्ध महिला को संन्यास लेना था। एक दिन 286 Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यह किनारा छोड़ें > पहले मरने के वह मुझसे मिलकर गई और उसने कहा कि अगले | कृष्ण कहते हैं, सदकर्म की, शुभ कर्म की दिशा में किया गया जन्मदिन पर मैं ले लूं, तो हर्ज तो नहीं? मैंने कहा, मुझे कोई हर्ज | | विचार भी, शुभ कर्म की दिशा में उठाया गया एक कदम भी; शुभ नहीं। पर मेरा क्या पक्का कि मैं बचूंगा। उससे मैंने नहीं कहा; वह | कर्म की दिशा, चाहे पूरी हो पाए या न हो पाए, तो भी कभी दुर्गति, नाराज हो जाए। उसने कहा कि नहीं-नहीं, ऐसी आप क्यों बात कभी बुरी गति नहीं होती है। करते हैं। आप तो जरूर बचेंगे। मैंने कहा, समझ लो कि मैं बच भी गया, लेकिन तुम बचोगी, इसका कोई पक्का? उसने कहा, अभी हुआ ही क्या है। अभी मेरी सत्तर साल की ही तो उम्र है। सत्तर की प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः। तो मेरी उम्र ही है, उसने कहा। अभी तो मैं सब तरह से स्वस्थ हूं! शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते । । ४१ ।। मैंने कहा, मान लो यह भी हुआ कि तुम भी बच गईं, मैं भी बच ___ अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम् । गया, लेकिन तुम संन्यास लोगी ही सालभर बाद, तुम्हारा मन एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम् । । ४२ ।। संन्यास लेने का रहेगा, इसका कुछ पक्का? उसने कहा, क्यों नहीं किंतु वह योगभ्रष्ट पुरुष पुण्यवानों के लोकों को अर्थात रहेगा? मैंने कहा, मान लो तुम्हारा भी रहा, मेरा देने का न रहा, तो | स्वर्गादिक उत्तम लोकों को प्राप्त होकर, उनमें बहुत वर्षों तुम क्या करोगी? उसने कहा, आप भी कहां की बातें करते हैं! तक वास करके, शुद्ध आचरण वाले श्रीमान पुरुषों के घर में अगले जन्मदिन का पक्का रहा। मैंने कहा, अगर अगला जन्मदिन - जन्म लेता है। पक्का है, तो ठीक। अथवा वैराग्यवान पुरुष उन लोकों में न जाकर ज्ञानवान लेकिन दूसरे दिन सुबह ही, मेरी सभा में ही आते हुए, | योगियों के ही कुल में जन्म लेता है; परंतु इस प्रकार का जो सभा-भवन के सामने ही कार से टकराकर बेहोश हो गई। यह जन्म है संसार में, निःसंदेह अति दुर्लभ है। आठ-दस घंटे बाद होश में आई, तो मैं उसे देखने अस्पताल गया। मैंने कहा, होश में आ गईं. तो अच्छा हआ। क्या खयाल है संन्यास के बाबत ? उसने कहा, मझे ठीक तो हो जाने दो। आप भी कैसे 'ग-भ्रष्ट पुरुष! अर्जुन जो पूछ रहा है, वह योग-भ्रष्ट आदमी हो! यह भी नहीं पूछा कि चोट कहां लगी! एकदम पूछते | के लिए ही पूछ रहा है। वह कह रहा है कि संसार को हैं, संन्यास! मैंने कहा, क्या पता, जब तक मैं पूछू, तुम चली मैं छोड़ दूं, भोग को मैं छोड़ दूं और योग सध न पाए। जाओ। क्योंकि कल तो कोई पक्का न था इस एक्सिडेंट का। यह या सधे भी, तो बिखर जाए; थोड़ा बने भी, तो हाथ छूट जाए। थोड़ा हो गया न आज! जन्मदिन अब उतना पक्का है, जितना कल था? | पकड़ भी पाऊं और खो जाए सहारा हाथ से, भ्रष्ट हो जाऊं बीच . उसने कहा, संदिग्ध मालूम होता है! फिर मैंने कहा, कितनी देर | | में। तो फिर मैं टूट तो न जाऊंगा? खो तो न जाऊंगा? नष्ट तो न करनी है ? उसने कहा कि कम से कम चौबीस घंटे। मैं जरा ठीक हो जाऊंगा? हो जाऊं, तो फिर आपसे कहूं। मैंने कहा, जैसी तेरी मर्जी। पर मैंने | कृष्ण कहते हैं उसे, योग-भ्रष्ट हुए पुरुष की आगे की गति के कहा कि एक काम करना, चौबीस घंटे सोचती रहना कि संन्यास संबंध में दो-तीन बातें कहते हैं। वे कीमती हैं। और एक बहुत गहरे लेना है, संन्यास लेना है। विज्ञान से संबंधित हैं। थोड़ा-सा समझें। वह तो मर गई छ: घंटे बाद। चौबीस घंटे पूरे नहीं हुए। उसकी बहू | ___ एक, कृष्ण कहते हैं, वैसा व्यक्ति, वैसी चेतना, जो थोड़ा मेरे पास दौड़ी आई कि अब क्या होगा! वह तो मर गई! तो मैंने कहा | साधती है योग की दिशा में, लेकिन पूर्णता को नहीं उपलब्ध कि मैं उसे मरी हुई हालत में संन्यास देता हूं। उसने कहा, यह कैसा | | होती...। पूर्णता को उपलब्ध हो जाए, तो मुक्त हो जाती है। पूर्णता संन्यास है ? मैंने कहा कि उसके मन में अगर जरा भी भाव रह गया को उपलब्ध न हो पाए, तो अपरिसीम सुखों को उपलब्ध होती है। होगा, जरा भी भाव मरते क्षण में कि संन्यास लेना है, संन्यास लेना इस अपरिसीम सुखों की जो संभावनाओं का जगत है, उसका नाम है तो भाव ही तो सब कुछ है। तो बीज तो निर्मित हो गया। उसकी | स्वर्ग है। बहुत सुखों को उपलब्ध होती है। आगे की यात्रा पर उसके फल कभी भी आ सकते हैं। लेकिन ध्यान रहे, सभी सुख चुक जाने वाले हैं। सभी सुख चुक 287 Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 गीता दर्शन भाग - 3 > जाने वाले हैं। सभी सुख समाप्त हो जाने वाले हैं। और कितने ही बड़े सुख हों, और कितने ही लंबे मालूम पड़ते हों, जब वे चुक जाते हैं, तो क्षण में बीत गए, ऐसे ही मालूम पड़ते हैं। तो वैसी चेतना बहुत सुखों को उपलब्ध होती है अर्जुन! लेकिन फिर वापस संसार में लौट आती है, जब सुख चुक जाते हैं। एक विकल्प यह है कि बहुत-से सुखों को पाए वैसी चेतना, और वापस लौट आए उस जगत में, जहां से गई थी। दूसरी संभावना यह है कि वैसी चेतना उन घरों में जन्म ले ले, जहां ज्ञान का वातावरण है। उन घरों में जन्म ले ले, जहां योग की हवा है, मिल्यू, योग का विचारावरण है। जहां तरंगें योग की हैं, और जहां साधना के सोपान पर चढ़ने की आकांक्षाएं प्रबल हैं । और जहां चारों ओर संकल्प की आग है, और जहां ऊर्ध्वगमन के लिए निरंतर सचेष्ट लोग हैं, उन परिवारों में, उन कुलों में जन्म ले ले। तो जहां से छूटा पिछले जन्म में योग, अगले जन्म में उसका सेतु फिर जुड़ जाए। दो विकल्प कृष्ण ने कहे। एक तो, स्वर्ग में पैदा हो जाए। स्वर्ग का अर्थ है, उन लोकों में, जहां सुख ही सुख है, दुख नहीं है। इन दोनों बातों में कई रहस्य की बातें हैं। एक तो यह कि जहां सुख ही सुख होता है, वहां बड़ी बोर्डम, बड़ी ऊब पैदा हो जाती है। इसलिए देवताओं से ज्यादा ऊबे हुए लोग कहीं भी नहीं हैं। जहां सुख ही सुख है, वहां ऊब पैदा हो जाती है। इसलिए कथाएं हैं कि देवता भी जमीन पर आकर जमीन के दुखों को चखना चाहते हैं, जमीन के सुखों को भोगना चाहते हैं, क्योंकि यहां दुख मिश्रित सुख हैं। अगर मीठा ही मीठा खाएं, तो थोड़ी-सी नमक की डिगली मुंह पर रखने का मन हो आता है। बस, ऐसा ही । सुख ही सुख हों, तो थोड़ा-सा दुख करीब-करीब चटनी जैसा स्वाद दे जाता है। स्वर्ग एकदम मिठास से भरे हैं, सुख ही सुख हैं। जल्दी ऊब जाता है। लौटकर संसार में वापस आ जाना पड़ता है। दुर्गति तो नहीं होती, लेकिन समय व्यर्थ व्यतीत हो जाता है। सुखों में गया समय, व्यर्थ गया समय है। उपयोग नहीं हुआ उसका, सिर्फ गंवाया गया समय है। हालांकि हम सब यही समझते हैं कि सुख में बीता समय, बड़ा अच्छा बीता। दुख में बीता समय, बड़ा बुरा गया। लेकिन कभी आपने खयाल किया कि दुख में बीता समय क्रिएटिव भी हो सकता है, सृजनात्मक भी हो सकता है; उससे जीवन में कोई क्रांति भी घटित हो सकती है। लेकिन सुख में बीता समय, सिर्फ नींद में बीता हुआ समय है, उससे कभी कोई क्रांति घटित नहीं होती । सुख में बीते समय से कभी कोई क्रिएटिव '' एक्ट, कोई सृजनात्मक कृत्य पैदा नहीं होता। दुख तो मां भी देता है, और दुख निखार भी देता है, और दुख भीतर साफ भी करता है, शुद्ध भी करता है; सुख तो सिर्फ जंग लगा जाता है। इसलिए सुखी लोगों पर एकदम जंग बैठ जाती है। इसलिए सुखी आदमी, अगर ठीक से देखें, तो न तो बड़े कलाकार पैदा करता, न बड़े चित्रकार पैदा करता, न बड़े मूर्तिकार पैदा | करता । सुखी आदमी सिर्फ बिस्तरों पर सोने वाले लोग पैदा करता । कुछ नहीं, नींद! वक्त काट देने वाले लोग पैदा करता है। शराब पीने वाले, संगीत सुनकर सो जाने वाले, नाच देखकर सो जाने 'वाले इस तरह के लोग पैदा करता है। - अगर हम दुनिया के सौ बड़े विचारक उठाएं, तो दो-तीन प्रतिशत से ज्यादा सुखी परिवारों से नहीं आते। क्या बात है ? क्या सुख जंग लगा देता है चित्त पर ? लगा देता है। बा देता है। और सुख ही सुख, तो कहीं गति नहीं रह जाती; ठहराव हो जाता है, स्टेगनेंसी हो जाती है।' स्वर्ग एक स्टेगनेंट स्थिति है। ट्रेंड रसेल ने तो कहीं मजाक में कहा है कि स्वर्ग का जो वर्णन है, उसे देखकर मुझे लगता है कि नर्क में जाना ही बेहतर होगा । कोई पूछ रहा था रसेल को कि क्यों ? तो उसने कहा, नर्क में कुछ करने को तो होगा; स्वर्ग में तो कहते हैं, कल्पवृक्ष हैं; करने को भी कुछ नहीं है! करना भी चाहेंगे, तो न कर सकेंगे। सोचेंगे, और हो | जाएगा! तो वहां कुछ अपने लायक नहीं दिखाई पड़ता है। नर्क में कुछ तो करने को होगा ! दुख से लड़ तो सकेंगे कम से कम । दुख से लड़ेंगे, तो भी तो कुछ निखार होगा। और वहां तो सुख सिर्फ बरसता रहेगा ऊपर से, तो थोड़े दिन में सड़ जाएंगे। कृष्ण कहते हैं, स्वर्ग चला जाता है वैसा व्यक्ति, जो योग से भ्रष्ट होता है अर्जुन सुखों की दुनिया में चला जाता है। शुभ करना चाहा था, नहीं कर पाया, तो भी इतना तो उसे मिल जाता है कि सुख मिल जाते हैं। लेकिन वापस लौट आना पड़ता है, वहीं चौराहे पर । संसार चौराहा है। अगर वहां से मोक्ष की यात्रा शुरू न हुई, तो वापस - वापस लौटकर आ जाना पड़ता है। वह क्रास रोड्स पर हैं हम जैसे कि मैं एक रास्ते के चौराहे पर खड़ा होऊं। अगर बाएं | चला जाऊं, तो फिर दाएं जाना हो, तो फिर चौराहे पर वापस आ जाना पड़े। संसार चौराहा है। अगर स्वर्ग चला जाऊं, फिर मोक्ष की यात्रा करनी हो, तो चौराहे पर वापस आ जाना पड़े। तो वे लोग, जिन्होंने योग की साधना भी सुख पाने के लिए ही 288 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यह किनारा छोड़ें की हो, स्वर्ग चले जाते हैं। लेकिन जिन्होंने योग की साधना मुक्त | | मालूम क्या कह रहे हैं! बोधिधर्म ने कहा, मैं लौट जाता हूं। लेकिन होने के लिए की हो, लेकिन असफल हो गए हों, भ्रष्ट हो गए हों, | ध्यान रख, आखिर में मैं ही काम पडूंगा। वे उन घरों में जन्म ले लेते हैं, जहां इस जीवन में छूटा हुआ क्रम वह लौट गया। नौ-दस वर्ष बाद जब सम्राट वू की मृत्यु हो रही अगले जीवन में पुनः संलग्न हो जाए। वे उन योग के वातावरणों में थी, तब उसे बड़ी घबड़ाहट होने लगी। उसे लगा, अब मेरा क्या पुनः पैदा हो जाते हैं, जहां से पिछली यात्रा फिर से शुरू हो सके। | होगा? मैंने इतने मंदिर बनाए जरूर; मैंने इतने भिक्षुओं को भोजन इसलिए अर्जुन को कृष्ण कहते हैं, तू आश्वासन रख। तू | कराया जरूर; मैंने इतनी मूर्तियां बनाईं जरूर; मैंने इतने शास्त्र भयभीत न हो। यदि मोक्ष न भी मिला, तो स्वर्ग मिल सकेगा। अगर छपवाए जरूर; लेकिन मेरी आकांक्षा तो यही थी कि लोग कहें कि स्वर्ग भी न मिला, तो कम से कम उस कुल में जन्म मिल सकेगा, तू कितना महान धर्मी है! मेरे अहंकार के सिवाय और तो मैंने कुछ जहां से तूने छोड़ी थी पिछली यात्रा, तू पुनः शुरू कर सके। भयभीत न चाहा! ये सारे मंदिर, ये सारे तीर्थ, ये सारी मूर्तियां, मेरे अहंकार न हो। घबड़ा मत। इस किनारे को छोड़ने की हिम्मत कर। अगर के आभूषण से ज्यादा कहां हैं? तब वह घबड़ाया। मौत करीब आने वह किनारा न भी मिला, तो भी इस किनारे से बुरा नहीं होगा। और लगी, तब वह घबड़ाया। तब वह चिल्लाया, हे बोधिधर्म! अगर कुछ भी हो जाए, यह किनारा वापस मिल जाएगा, इसलिए घबड़ा तुम कहीं हो, तो लौट आओ; क्योंकि शायद तुम्हीं ठीक कहते थे। मत। इसको छोड़ने में भय मत कर। अगर मैं तुम्हारी सुन लेता, तो शायद मैं कुछ कर सकता, जो मुझे मैंने कहा सुबह आपसे कि कृष्ण जैसा शिक्षक अर्जुन की बुद्धि मुक्त कर देता। ये तो मैंने नए बंधन ही निर्मित किए हैं। को समझकर बात करता है। अगर अर्जुन ने बुद्ध से पूछा होता कि __ अगर बुद्ध होते, तो अर्जुन को ऐसा न कहते। लेकिन बुद्ध और अगर मैं भ्रष्ट हो जाऊं, तो कहां पहुंचूंगा? तो पता है आपको, बुद्ध | अर्जुन की मुलाकात नहीं हो सकती थी। वह इंपासिबल है, वह क्या कहते? जहां तक संभावना तो यह है कि बुद्ध कुछ कहते ही | असंभव है। क्योंकि बुद्ध को युद्ध के मैदान पर नहीं लाया जा नहीं, तू जान। लेकिन अगर हम बहुत ही खोजबीन करें बुद्ध सकता था। और अर्जुन बुद्ध के बोधिवृक्ष के नीचे हाथ जोड़कर, साहित्य में, तो सिर्फ एक घटना मिलती है। बुद्ध की नहीं मिलती, नमस्कार करके, जिज्ञासा करने नहीं जा सकता था। वे टाइप अलग बोधिधर्म की मिलती है, बुद्ध के एक शिष्य की। थे। अर्जुन जंगल में किसी गुरु के पास जिज्ञासा करने जाता, इसकी ___ वह चीन गया। चीन के सम्राट ने उसका स्वागत किया। और संभावना कम थी। अगर जाता भी कहीं बुद्ध के पास, तो वृक्ष के चीन के सम्राट ने उसका स्वागत करके कहा, बोधिधर्म, हे ऊपर बैठकर पछता, नीचे नहीं। महाभिक्षु, तुमसे मैं कुछ बातें जानना चाहता हूं। मैंने हजारों बुद्ध के | कृष्ण को भी उसके अहंकार को बीच-बीच में तृप्ति देनी पड़ती मंदिर बनाए, लाखों प्रतिमाएं स्थापित की। मुझे इसका क्या फल | है। कहते हैं, हे महाबाहो, हे विशाल बाहुओं वाले अर्जुन! तो मिलेगा? बोधिधर्म ने कहा, कुछ भी नहीं। सम्राट ने कहा, कुछ भी अर्जुन बड़ा फूलता है। ठीक है। कृष्ण से भी सुनने को राजी हो गया नहीं! आप समझे, मैंने क्या कहा? मैंने अरबों रुपए खर्च किए, इसीलिए कि कृष्ण सारथी हैं उसके, मित्र हैं, सखा हैं; कंधे पर हाथ इसका फल मुझे क्या मिलेगा? बोधिधर्म ने कहा, कुछ भी नहीं। रख सकता है; चाहे तो कह सकता है कि सब व्यर्थ की बातें कर क्योंकि तूने फल की आकांक्षा की, उसी में तूने सब खो दिया। वह रहे हो! इसलिए सुनने को राजी हो गया। सब व्यर्थ हो गया तेरा किया हुआ। दो कौड़ी का हो गया तेरा किया | तो बुद्ध और अर्जुन की मुलाकात नहीं हो सकती थी, वह हआ। उसने कहा. क्या बातें कर रहे हैं? मैंने इतना पवित्र कार्य असंभव दिखती है। अर्जन जाता न बद्ध के पास. और बद्ध को किया, सच होली वर्क, ऐसा पवित्र कार्य! बोधिधर्म ने कहा, तू मूढ़ युद्ध के मैदान पर न लाया जा सकता था। है। देअर इज़ नथिंग ऐज होली, एवरीथिंग इज़ जस्ट एंप्टी-कोई | । इसलिए कृष्ण अर्जुन को जो कह रहे हैं, पूरे वक्त अर्जुन को पवित्र-अवित्र नहीं है; सब खाली है, सब शून्य है। देखकर कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, बहुत सुख मिलेंगे अर्जुन, अगर सम्राट ने कहा, आप कृपा करके किसी और राज्य में पदार्पण | | तू अच्छे काम करते हुए मर जाता है असफल, तो स्वर्गों में पैदा करें। क्योंकि या तो आप ऐसी बात कह रहे हैं, जो हमारी बुद्धि में हो जाएगा। नहीं पड़ती; और या फिर आपकी बुद्धि ही ठीक नहीं है। आप न अगर बुद्ध से वह कहता कि स्वर्गों में पैदा होऊंगा, तो वे कहेंगे, 289 Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ << गीता दर्शन भाग-3 - स्वर्ग सपने हैं। स्वर्ग कहीं हैं ही नहीं। भटकना मत। जिसने स्वर्ग पार कैसे पहुंचूंगा? उस पार कैसे पहुंचूंगा? क्या है विधि? क्या है चाहा, वह नरक में पहुंच गया। स्वर्ग की चाह नरक में ले जाने का | | मार्ग? जरा नाव तो खोलो, तुम जरा पाल तो खोलो। हवाएं तत्पर मार्ग है, बुद्ध कहते, यह बात ही मत कर। अर्जुन का तालमेल नहीं | हैं तुम्हें ले जाने को। बैठ सकता था बुद्ध से। प्रभु तो प्रत्येक को मोक्ष तक ले जाने को तत्पर है। लेकिन हम कृष्ण एक-एक कदम अर्जुन को...इसको कहते हैं, परसुएशन। किनारा इतने जोर से पकड़ते हैं! लोग कहते हैं कि प्रभु जो है, वह अगर गीता में हम कहें कि इस जगत में परसुएशन की, फुसलाने ओम्नीपोटेंट है, सर्वशक्तिशाली है। मुझे नहीं जंचता। हम जैसे की, एक व्यक्ति को इंच-इंच ऊपर उठाने की जैसी मेहनत कृष्ण ने छोटी-छोटी ताकत के लोग भी किनारे को पकड़कर पड़े रहते हैं, की है, वैसी किसी शिक्षक ने कभी नहीं की है। सभी शिक्षक सीधे | | हमको खींच नहीं पाता। हमारी पोटेंसी ज्यादा ही मालूम पड़ती है। अटल होते हैं। वे कहते हैं, ठीक है, यह बात है। खरीदना है? नहीं | नहीं, लेकिन उसका कारण दूसरा है। असल में जो ओम्नीपोटेंट खरीदना, बाहर हो जाओ। | है, जो सर्वशक्तिशाली है, वह शक्ति का उपयोग कभी नहीं करता। शिक्षक सख्त होते हैं। शिक्षक को मित्र की तरह पाना बड़ा | शक्ति का उपयोग सिर्फ कमजोर ही करते हैं। सिर्फ कमजोर ही मुश्किल है। अर्जुन को शिक्षक मित्र की तरह मिला है, सखा की शक्ति का उपयोग करते हैं। जो पूर्ण शक्तिशाली है, वह उपयोग तरह मिला है। उसके कंधे पर हाथ रखकर बात चल रही है। नहीं करता। वह प्रतीक्षा करता है कि हर्ज क्या है! आज नहीं कल; इसलिए कई दफा वह भूल में भी पड़ जाता है और व्यर्थ के सवाल इस युग में नहीं अगले युग में; इस जन्म में नहीं अगले जन्म में; भी उठाता है। कभी तो तुम नाव खोलोगे, कभी तो तुम पाल खोलोगे, तब हमारी एक फायदा होता, बुद्ध जैसा आदमी मिलता, अगर बोधिधर्म हवाएं तुम्हें उस पार ले चलेंगी। जल्दी क्या है? जल्दी भी तो जैसा मिलता, तो बोधिधर्म तो हाथ में डंडा रखता था। वह तो अर्जुन | कमजोरी का लक्षण है। इतनी जल्दी क्या है ? समय कोई चुका तो को एकाध डंडा मार देता खोपड़ी पर, कि तू कहां की फिजूल की | नहीं जाता! बकवास कर रहा है! लेकिन परमात्मा का समय भला न चुके, आपका चुकता है। वह लेकिन कृष्ण उसकी बकवास को सुनते हैं, और प्रेम से उसे अगर जल्दी न करे, चलेगा। उसके लिए कोई भी जल्दी नहीं है, फुसलाते हैं, और एक-एक इंच उसे सरकाते हैं। वे कहते हैं, कोई क्योंकि कोई टाइम की लिमिट नहीं है, कोई सीमा नहीं है। लेकिन फिक्र न कर, अगर नहीं भी मिला वह किनारा, तो बीच में टापू हैं हमारा तो समय सीमित है और बंधा है। हम तो चुकेंगे। वह प्रतीक्षा स्वर्ग नाम के, उन पर तू पहुंच जाएगा। वहां बड़ा सुख है। खूब कर सकता है अनंत तक, लेकिन हमारी तो सीमाएं हैं, हम अनंत सुख भोगकर, नाव में बैठकर वापस लौट आना। अगर तुझे सुख तक प्रतीक्षा नहीं कर सकते हैं। न चाहिए हो, तो.बीच में गुरुजनों के टापू हैं, जिन पर गुरुजन लेकिन बड़ा अदभुत है। हम भी अनंत तक प्रतीक्षा करते हुए निवास करते हैं; उनके गुरुकुल हैं; तू उनमें प्रवेश कर जाना। वहां मालूम पड़ते हैं। हम भी कहते हैं कि बैठे रहेंगे। ठीक है। जब तू ही तू अपनी साधना को आगे बढ़ा लेना। खोल देगा नाव, जब तू ही पाल को उड़ा देगा, जब तू ही झटका लेकिन एक आकांक्षा कृष्ण की है कि तू यह किनारा तो छोड़, देगा और खींचेगा...। फिर आगे देख लेंगे। नहीं कोई टापू हैं, नहीं कोई बात है। तू किनारा और कई दफे तो ऐसा होता है कि झटका भी आ जाए, तो हम तो छोड़। एक दफे तू किनारा छोड़ दे, किसी भी कारण को मानकर | और जोर से पकड़ लेते हैं, और चीख-पुकार मचाते हैं कि सब अभी जरा साहस जुट जाए, तू भरोसा कर पाए और यात्रा पर | भाई-बंधु आ जाओ, सम्हालो मुझे। कोई ले जा रहा है! कोई खींचे निकल जाए तो आगे की यात्रा तो प्रभु सम्हाल लेता है। लिए जा रहा है! रामकृष्ण जगह-जगह कहे हैं, तुम नाव तो खोलो, तुम पाल तो कृष्ण अर्जुन को देखकर ये उत्तर दिए हैं, यह ध्यान में रखना। उडाओ। हवाएं तो ले जाने को खद ही तत्पर हैं। लेकिन तम नाव धीरे-धीरे वे ये उत्तर भी पिघला देंगे, गला देंगे। वह राजी हो जाए ही नहीं खोलते हो, तुम पाल ही नहीं खोलते! तुम किनारे से ही छलांग के लिए, बस इतना ही। जंजीरें बांधे हुए, नाव को बांधे हुए पड़े हो और चिल्ला रहे हो, उस आज इतना। कल सुबह हम बात करेंगे। 290 Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह किनारा छोड़ें लेकिन अभी जाएंगे नहीं। पांच मिनट, एक छलांग के लिए आप भी राजी हों। थोड़ा-सा किनारा छोड़ें। थोड़ी ये कीर्तन की हवाएं आएंगी, आपकी नाव के पाल में भी भर जाएं और आपको भी दूसरे किनारे की तरफ थोड़ा-सा ले जाएं, तो अच्छा है। साथ भी दें। ताली भी बजाएं। गीत भी गाएं। डोलें भी। आनंदित हों। पांच मिनट के लिए सब भूल जाएं। 291 Page #318 --------------------------------------------------------------------------  Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 6 बीसवां प्रवचन आंतरिक संपदा Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 एक: तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम् । का क्या मूल्य है! इसे ऐसा समझने की कोशिश करें। यतते च ततो भयः संसिद्धौ करुनन्दन ।। ४३ ।।। एक साध्वी, झेन साध्वी वर्षों तक अपने गुरु के पास थी। सब और वह पुरुष वहां उस पहले शरीर में साधन किए हुए बुद्धि तरह के प्रवचन सुने, सब तरह के शास्त्र समझे, सब तरह के के संयोग को अर्थात समत्वबुद्धि योग के संस्कारों को। सिद्धांतों को जान लिया। लेकिन बस, कहीं कोई चीज अटकी थी अनायास ही प्राप्त हो जाता है। और हे कुरुनंदन, उसके और द्वार नहीं खुलते थे। ऐसा लगता था, चाबी हाथ में है, फिर भी प्रभाव से फिर अच्छी प्रकार भगवत्प्राप्ति के निमित्त यत्न | ताला अनखुला ही रह जाता था। ऐसा लगता था कि मैं जानती हूं, करता है। फिर भी कुछ अंतराल था, कोई बाधा थी, कुछ दीवाल थी। कितनी ही बारीक और महीन पर्त थी, पर उस पार नहीं निकल पाती थी। गुरु से बार-बार पूछती है कि कौन-सी बाधा है? कैसे टूटेगी? जीवन में कोई भी प्रयास खोता नहीं है। जीवन समस्त | गुरु कहता है, तू प्रतीक्षा कर। बहुत ही छोटी-सी बाधा है, UIT प्रयासों का जोड़ है, जो हमने कभी भी किए हैं। समय | अनायास ही टूट जाएगी। और बाधा इतनी छोटी है कि तू प्रयास के अंतराल से अंतर नहीं पड़ता है। प्रत्येक किया हुआ शायद न कर पाए। बाधा बहुत छोटी है, अनायास ही टूट जाएगी। कर्म, प्रत्येक किया हुआ विचार, हमारे प्राणों का हिस्सा बन जाता | थोड़ी प्रतीक्षा कर; थोड़ी प्रतीक्षा कर। । हम जब कछ सोचते हैं. तभी रूपांतरित हो जाते हैं. जब कछ वर्ष पर वर्ष बीत गए। वह वद्ध भी हो गई। फिर एक दिन उसने करते हैं, तभी रूपांतरित हो जाते हैं। वह रूपांतरण हमारे साथ | | कहा कि कब टूटेगी वह बाधा? गुरु ने आकाश की तरफ देखा और चलता है। कहा कि इस पखवाड़े में शायद चांद के पूरे होने तक टूट जाए। हम जो भी हैं आज, हमारे विचारों, भावों और कर्मों का जोड़ पांच-सात दिन बचे थे चांद की पूरी रात आने को, पूर्णिमा आने हैं। हम जो भी हैं आज, वह हमारे अतीत की पूरी श्रृंखला है। एक को। और पूर्णिमा की रात बाधा टूटी। और ऐसी अनायास टूटी कि क्षण पहले तक, अनंत-अनंत जीवन में जो भी किया है, वह सब | झेन फकीरों के इतिहास में वह कहानी बन गई। मेरे भीतर मौजूद है। सांझ सूरज डूब गया। चांद निकल आया। रोशनी उसकी फैलने कृष्ण कह रहे हैं, इस जीवन में जिसने साधा हो योग, लेकिन लगी। गुरु ने, कोई दस बजे होंगे रात, उस साध्वी को कहा, मुझे सिद्ध न होप ो पाए अर्जन, तो अगले जीवन में अनायास ही, जो उसने प्यास लगी है, त जाकर कएं से पानी ले आ। जैसा जापान में करते साधा था, उसे उपलब्ध हो जाता है। अनायास ही! उसे पता भी नहीं हैं, यहां भी करते हैं। एक बांस की डंडी पर दोनों तरफ बर्तन लटका चलता। उसे यह भी पता नहीं चलता कि यह मुझे क्यों उपलब्ध हो | | देते हैं और कुएं से पानी लाते हैं। रहा है। इसलिए कई बार बड़ी भ्रांति होती है। और इस जगत में | - बांस की डंडी पर लटके हुए मिट्टी के बर्तनों को लेकर कुएं पर सत्य अनायास मिल सकता है, इस तरह के जो सिद्धांत प्रतिपादित | | पानी भरने गई। पानी भरकर लौटती थी। सोचती थी कि पूर्णिमा भी हए हैं, उनके पीछे यही भ्रांति काम करती है। आ गई। चांद भी पूरा हो गया। आधी रात भी हुई जाती है। और कोई व्यक्ति अगर पिछले जन्म में उस जगह पहुंच गया है, जहां | | गुरु ने कहा था कि शायद इस बार चांद के पूरे होते-होते बात हो पानी निन्यानबे डिग्री पर उबलने लगे, और एक डिग्री कम रह गया जाए। अभी तक हुई नहीं। और कोई आशा भी नहीं दिखाई पड़ती! है, वह अचानक कोई छोटी-मोटी घटना से इस जीवन में परम ज्ञान | और अब तो सोने का वक्त भी आ गया। अब गुरु को पानी को उपलब्ध हो सकता है। आखिरी तिनका रह गया था ऊंट पर पिलाकर, और मैं सो जाऊंगी। कब घटेगी यह बात! पड़ने को और ऊंट बैठ जाता है। पर एक छोटा-सा तिनका, अगर । और तभी अचानक उसकी बांस की डंडी टूट गई। उसके दोनों आप कभी वजन तौलते हैं तराजू पर रखकर, तो आपको पता है, | बर्तन जमीन पर गिरे; फूट गए; पानी बिखर गया। और घटना घट एक छोटा-सा तिनका कम हो, तो तराजू का पलड़ा ऊपर रहता है। गई। उसने एक गीत लिखा है कि जब बर्तन नीचे गिरा, तब मैं बर्तन एक तिनका बढ़ा, तो तराजू का पलड़ा नीचे बैठ जाता है; दूसरा । में देखती थी कि चांद का प्रतिबिंब बन रहा है—पानी में। फिर मिट्टी ऊपर उठ जाता है। एक तिनके की भी प्रतिष्ठा होती है। एक तिनके | का घड़ा था; गिरा, फूटा। घड़ा भी फूट गया। पानी बिखर गया। 294 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आंतरिक संपदा चांद का प्रतिबिंब कहां खो गया, कुछ पता न चला। और घड़े के कब मुझे होश आया, कोई आधी रात हो गई, और मैंने देखा कि फटते ही कोई चीज मेरे भीतर फट गई। और जैसे चांद का प्रतिबिंब | मैं दूसरा आदमी हूं। वह आदमी जा चुका जो कल तक था। वह खो गया, ऐसे ही मैं खो गई। घड़े के फूटते ही, कुछ मेरे भीतर भी संदेह करने वाला, वह अश्रद्धालु, वह अविश्वासी, वह नास्तिक फूट गया। और जैसे चांद का प्रतिबिंब खो गया पानी में, ऐसे ही नहीं है। कोई और ही मेरे भीतर आ गया है। वृक्ष के पत्ते-पत्ते में मैं खो गई। ऊपर देखा तो चांद था, भीतर देखा तो परमात्मा था। परमात्मा दिखाई पड़ रहा है। झींगुरों की आवाज ब्रह्मनाद हो गई। घड़े के बर्तन का प्रतिबिंब टूट गया, चांद नहीं टूट गया। और बक जीवनभर कहता रहा कि मेरी समझ के बाहर है कि उस हम परमात्मा के प्रतिबिंब से ज्यादा नहीं हैं। और हमारे अहंकार दिन क्या हुआ! अनायास! का घड़ा है, और राग का पानी है, उसमें सब प्रतिबिंब बनता है वहां। कृष्ण कहते हैं, पिछले जन्मों की यात्रा, अगर थोड़ी-बहुत दौड़ी हुई गुरु के पास पहुंची, और कहा, कभी सोचा भी न था। अधूरी रह गई हो, कहीं हम चूक गए हों, तो किसी दिन अनायास, कि घड़े के फूटने से ज्ञान होगा! गुरु ने कहा, घड़े के फूटने से ही किसी जन्म में अनायास बीज फूट जाता है; दीया जल जाता है; द्वार होता है। घड़ा कैसे फूटेगा, यही सवाल है। और तेरा घड़ा तो बहुत खुल जाता है। और कई बार ऐसा होता है कि इंचभर से ही हम चूक कमजोर था, फूटने को फूटने को ही था। कभी भी फूट सकता था। जाते हैं। और इंचभर से चूकने के लिए कभी-कभी जन्मों की यात्रा कोई ऐसे निमित्त की जरूरत थी, जिसमें कि वह जो तेरे भीतर करनी पड़ती है। आखिरी तिनका रखना है, वह पड़ जाए। वजन तो पूरा था, पलड़ा कोलेरेडो में अमेरिका में जब पहली दफा सोने की खदानें मिलीं, नीचे बैठने को था। बस, आखिरी तिनका, वह एक घड़े के फूटने | | तो एक बहुत अदभुत घटना घटी, मुझे प्रीतिकर रही है। जब पहली से हो गया। दफा सोना मिला अमेरिका के कोलेरेडो में और आज सबसे · बहुत लोगों के जीवन में अनायास घटना घटती है। ज्यादा सोना कोलेरेडो में है, सबसे ज्यादा सोने की खदानें हैं तो - एक बहुत अदभुत साधक और मिस्टिक, एडमंड बक ने एक किसानों को ऐसे ही खेत में काम करते हुए सोना मिलना शुरू हो किताब लिखी है, कास्मिक कांशसनेस। वह बड़ा हैरान है। न उसने गया। पहाड़ों पर लोग चढ़ते, और सोना मिल जाता। लोगों ने कभी कुछ साधा, न कभी कोई प्रार्थना की, न कभी कोई पूजा की, जमीनें खरीद ली और अरबपति हो गए। न प्रभु में विश्वास करता है। अचानक एक दिन रात, अंधेरी रात में एक आदमी ने सोचा कि छोटी-मोटी जमीन क्या खरीदनी है; जंगल से निकल रहा है। एकांत है, झींगुरों की आवाज के सिवाय एक पूरा पहाड़ खरीद लिया। सब जितना पैसा था, लगा दिया। कोई आवाज नहीं है। धीमी सी चांदनी है। हवा के झोंके वृक्षों में | कारखाने थे, बेच दिए। पूरा पहाड़ खरीद लिया। खरबपति हो जाने आवाज कर रहे हैं। की सुनिश्चित बात थी। जब छोटे-छोटे खेत में से खोदकर लोग __ अचानक, घड़ा भी नहीं फूटा-इस महिला के मामले में तो सोना निकाल रहे थे, उसने पूरा पहाड़ खरीद लिया। घड़ा फूटा, इसलिए घटना घटी-अचानक, बक ने लिखा है कि | लेकिन आश्चर्य, पहाड़ पर खुदाई के बड़े-बड़े यंत्र लगवाए, बस, न मालूम क्या हुआ। मेरी समझ में न पड़ा कि क्या हुआ, लेकिन सोने का कोई पता नहीं! वह पहाड़ जैसे सोने से बिलकुल लगा कि जैसे मैं मर रहा हूं। बैठ गया। एक क्षण को ऐसा लगा, खाली था। एक टुकड़ा भी सोने का नहीं मिला। कोई तीन करोड़ सिंकिंग, जैसे कोई पानी में डूब रहा हो, ऐसा डूबता जा रहा हूं। रुपया उसने लगाया था पहाड़ खरीदने में, बड़ी मशीनरी ऊपर ले बहत घबडाहट हई। चिल्लाने की कोशिश की। लेकिन जैसा जाने में। लोग कदालियों से खोदकर सोना निकाल रहे थे कोलेरेडो कभी-कभी सपने में हम सबको हो जाता है। चिल्लाने की कोशिश में। सारी दुनिया कोलेरेडो की तरफ भाग रही थी। और वह आदमी करते हैं, आवाज नहीं निकलती। हाथ उठाने की कोशिश करते हैं, | | बर्बाद हो गया कोलेरेडो में जाकर। उसकी हालत ऐसी हो गई कि हाथ नहीं उठता। तो बक ने लिखा है, न हाथ उठे, न चिल्लाने की | मशीनों को पहाड़ से उतारकर नीचे लाने के पैसे पास में न बचे कि आवाज निकले। फिर यह भी खयाल आया, कोई सुनने को भी मशीनें बेच सके। ठप्प हो गया। झींगुरों के अतिरिक्त वहां है नहीं। आवाज करने से भी क्या होगा? अखबारों में खबर दी उसने कि मैं पूरा पहाड़ मय मशीनरी के कब आंखें बंद हो गईं। कब मैं नीचे गिर पड़ा। लगा कि मर गया। बेचना चाहता हूं। उसके मित्रों ने कहा, कौन खरीदेगा! सारे 295 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 अमेरिका में खबर हो गई है कि उस पहाड़ पर कुछ नहीं है। पर आश्वासन दे रहे हैं अर्जुन को कि तू इन बातों में मत पड़। तू उसने कहा कि शायद कोई आदमी मिल जाए, जो मुझसे ज्यादा इस भांति मत सोच कि कहीं पूरा न हो सका, तो क्या होगा! जितना हिम्मतवर हो। कोई इतना पागल नहीं है, लोगों ने कहा। लेकिन भी होगा, उसकी भी अपनी अर्थवत्ता है। जितना भी तू कर लेगा, उसने कहा, एक कोशिश कर लूं। क्योंकि मैं सोचता हूं, कोई मुझसे उतना भी काफी है। हिम्मतवर मिल सकता है। एक मित्र मेरे पास आए। वे कहते हैं कि उनका नब्बे प्रतिशत और एक आदमी मिल गया, जिसने तीन करोड़ रुपए दिए और मन संन्यास लेने का है, दस प्रतिशत मन संन्यास लेने का नहीं है। पूरा पहाड़ और पूरी मशीनरी खरीदी। जब उसने खरीदी, तो उसके | तो मैंने कहा, फिर क्या खयाल है? उन्होंने कहा कि तो अभी नहीं घर के लोगों ने कहा कि तुम बिलकुल पागल हो गए हो। दूसरा | | लेता हूं। तो मैंने कहा कि थोड़ा सोच रहे हैं, कि न लेना भी एक आदमी बर्बाद हो गया; अब तुम बर्बाद होने जा रहे हो! उस आदमी | निर्णय है। और दस प्रतिशत के पक्ष में निर्णय ले रहे हैं, और नब्बे ने कहा, जहां तक पहाड़ खोदा गया है, वहां तक सोना नहीं है, यह प्रतिशत के पक्ष में निर्णय नहीं ले रहे हैं। साफ है। इसलिए मामला काफी हो चुका है। अब सोना नीचे हो | वे कहते हैं कि नब्बे प्रतिशत संन्यास लेने का मन है, दस सकता है। जहां तक खोदा गया है, वहां तक नहीं है। हम भी इस प्रतिशत संदेह मन को पकड़ता है, तो अभी नहीं लेता हूं। पर उनको झंझट से बचे। वह आदमी मेहनत कर चुका, जो बेकार मेहनत थी। पता नहीं है कि यह भी निर्णय है। न लेना भी निश्चित निर्णय है। अब आगे मेहनत करनी है। बहुत-सा तो कट चुका है पहाड़। कौन यह निर्णय दस प्रतिशत मन के पक्ष में लिया जा रहा है। और नब्बे जाने नीचे सोना हो! लोगों ने कहा कि इस झंझट में मत पड़ो। और प्रतिशत मन के पक्ष में जो निर्णय है, वह नहीं लिया जा रहा है। यह जमीनें बहुत हैं, जिन पर ऊपर ही सोना है। पर उस आदमी ने वह | | नब्बे प्रतिशत मन, मालूम होता है, उनका नहीं है; दस प्रतिशत मन पहाड़ खरीद ही लिया। उनका है। और आश्चर्य की बात कि पहले दिन की खुदाई में ही कोलेरेडो मेरा मतलब समझे! यह नब्बे प्रतिशत मन, मालूम पड़ता है, की सबसे बड़ी सोने की खदान मिली-सिर्फ एक फुट मिट्टी की | उनका नहीं है, कम से कम इस जन्म का नहीं है। अन्यथा यह कैसे पर्त और। एक फुट मिट्टी की पर्त और! और कोलेरेडो का सबसे हो सकता था कि आदमी नब्बे प्रतिशत को छोड़े और दस प्रतिशत बड़ा सोने का भंडार उस पहाड़ पर मिला। और वह आदमी को पकड़े! दस प्रतिशत उनका है, इस जन्म का है। नब्बे प्रतिशत कोलेरेडो का सबसे बड़ा खरबपति हो गया। उनके पिछले जन्मों की यात्रा का है। उससे उन्हें कोई कांशस संबंध एक फुट! कभी-कभी एक इंच से भी चूक जाते हैं। कभी-कभी नहीं मालूम पड़ता कि वह मेरा है। वह ऐसा लगता है कि कोई मेरे आधा इंच से भी चूक जाते हैं। भीतर नब्बे प्रतिशत कह रहा है कि ले लो। लेकिन मैं रुक रहा हूं। तो कृष्ण कहते हैं, भय न करना अर्जुन! कितना ही चूक जाओ, मैं दस प्रतिशत के पक्ष में हूं। वे ज्यादा देर न रुक पाएंगे, क्योंकि जो तूने किया है, वह निष्फल नहीं जाएगा। जितना तूने किया है, | वह नब्बे प्रतिशत धक्के मारता ही रहेगा। और दस प्रतिशत कितनी वह निष्फल नहीं जाएगा। जितना तूने किया है, वह अगले जन्म में | देर जीत सकता है? कैसे जीतेगा? पुनः वहीं से यात्रा शुरू होगी। समय का व्यवधान जरूर पड़ लेकिन समय का व्यवधान पड़ जाएगा। जन्म भी खो सकते हैं। जाएगा। शायद तू समझ भी न पाए, जब अनायास घटना घटे। और वह नब्बे प्रतिशत प्रतीक्षा करेगा; और हर जन्म में धक्का देगा। शायद तुझे प्रतीति भी न हो सके कि यह क्या हो रहा है। लेकिन जो हर दिन, हर रात, हर क्षण वह धक्के मारेगा। क्योंकि वह नब्बे तेरे साथ है, जो तेरा किया हुआ है, वह तेरे साथ होगा। प्रतिशत आपका बड़ा हिस्सा है, जिसे आप नहीं पहचान पा रहे हैं योग की दिशा में किया गया कोई भी प्रयत्न कभी खोता नहीं। कि आपका है। और यह दस प्रतिशत, जिसको आप कह रहे हैं प्रभ की दिशा में उठाया गया कोई भी कदम व्यर्थ नहीं जाता है। मेरा. यह सिर्फ इस जन्म का संग्रह है। उतनी यात्रा हो जाती है। हम दूसरे हो जाते हैं। प्रभु की दिशा में ध्यान रहे, पिछले जन्मों और इस जन्म के बीच में जो संघर्ष है, सोचा गया विचार भी व्यर्थ नहीं जाता है, हम उतने तो आगे बढ़ ही उसी के कारण मनुष्य के कांशस और अनकांशस में फासला पड़ता जाते हैं। है। फ्रायड को अंदाज नहीं है, मुंग को अंदाज नहीं है। क्योंकि मुंग 2961 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आंतरिक संपदा - और फ्रायड की बहुत गहरी पकड़ नहीं है। बहुत ऊपर-ऊपर उनकी । | सक्रिय होती दिखाई पड़ेगी, ऊपर की ही धूल उड़ने लगेगी। नीचे खोज है। फ्रायड के पास जो उत्तर है, वह बहुत साफ नहीं है, कि की धूल तो निश्चित विश्राम करेगी। वह बहुत गहरी बैठ गई है; मनुष्य के चेतन और अचेतन में फर्क क्यों पड़ता है? व्हाइ देअर बहुत गहरी; अब वहां कोई झोंका नहीं पहुंचता है। कभी-कभी कोई इज़ डिस्टिंक्शन? यह चेतन और अचेतन जैसे दो हिस्से क्यों हैं झोंका वहां तक पहुंच जाता है। जब हम कहते हैं कि कोई विचार मनुष्य के मन के? हमारे जीवन में प्रवेश करता है, कोई प्रेरणा, कोई इंसपेरेशन, कोई ___ फ्रायड इतना ही कह सकता है कि अचेतन वह हिस्सा है, जिसको घटना, कोई व्यक्ति, कोई शब्द, कोई ध्वनि, कोई चोट जब हमारे हमने दबा दिया। लेकिन क्यों दबा दिया? और फ्रायड यह भी जानता जीवन में गहरी प्रवेश करती है और हमारी पर्तों को फाड़कर भीतर है कि वह अचेतन हिस्सा नौ गुना बड़ा है चेतन से। तो एक हिस्सा | | चली जाती है, तब उस भीतर की आवाज आती है। नौ गुने को दबा सकेगा? इसमें बड़ी भूल मालूम पड़ती है। फ्रायड | उन मित्र को नब्बे प्रतिशत की जो आवाज आ रही है, वह किसी कहता है कि अचेतन नौ गुना बड़ा है। अनकांशस नौ गुना बड़ा है | गहरी चोट के कारण से आ रही है। लेकिन वे चोट को झुठलाने में कांशस से। जैसे कि बर्फ का टुकड़ा पानी में तैरता हो, तो जितना | लगे हैं। वे बड़े दुख में पड़ गए हैं। दुख भारी है। और मन में विचार नीचे डूब जाता है, उतना अचेतन है, नौ गुना ज्यादा। जरा-सा ऊपर आता है कि आत्महत्या कर लें। निकला रहता है, उतना चेतन है। अगर नौ गुना अचेतन वही हिस्सा | ध्यान रहे, जब किसी आदमी के जीवन में आत्महत्या का विचार है जो आदमी ने दबा दिया है, तो बड़े आश्चर्य की बात है कि चेतन | | आता है, वही क्षण संन्यास में रूपांतरित किया जा सकता है। छोटी-सी ताकत बड़ी ताकत को दबा पाती है? तत्काल! क्योंकि संन्यास का अर्थ है, आत्मरूपांतरण। नहीं: फ्रायड की थोडी भल मालम पडती है। यह बात सच है. जब आदमी आत्महत्या करना चाहता है, तो उसका मतलब यह यह दमन की बात में थोड़ी सच्चाई है। लेकिन अचेतन असल में है कि इस आत्मा से ऊब गया है, इससे ऊब गया है, इसको खतम वह हिस्सा है मन का, जो हमारे अतीत जन्मों से निर्मित होता है; कर दूं। इसके दो ढंग हैं। या तो शरीर को काट दो; इससे आत्मा और चेतन वह हिस्सा है हमारे मन का, जो हमारे इस जन्म से | खतम नहीं होती, सिर्फ धोखा पैदा होता है। वही आत्मा नए शरीर निर्मित होता है। | में प्रवेश करके यात्रा शुरू कर देगी। दूसरा जो सही रास्ता है, वह इस जन्म के बाद हमने जो अपना मन बनाया है, शिक्षा पाई है, | यह है कि इस आत्मा को ट्रांसफार्म करो, रूपांतरित करो, नया कर संस्कार पाए हैं, धर्म, मित्र, प्रियजन, अनुभव, उनका जो जोड़ है, | लो। शरीर को मारने से कुछ न होगा, आत्मा को ही बदल डालो, वह हमारा मन है, कांशस माइंड है। और उसके पीछे छिपी हुई जो | वह योग है। अंतर्धारा है हमारे अचेतन की, अनकांशस माइंड की, वह हमारा इसलिए एक बहुत मजे की बात आपको कहूं, जिस देश में अतीत है। वह हमारे अतीत जन्मों का समस्त संग्रह है। ज्यादा संन्यासी होते हैं, उस देश में आत्महत्याएं कम होती हैं। और निश्चित ही, वह ज्यादा ताकतवर है, लेकिन ज्यादा सक्रिय नहीं जिस देश में संन्यासी कम होते हैं, उसमें उतनी ही मात्रा में है। इन दोनों बातों में फर्क है। ज्यादा ताकत से जरूरी नहीं है कि आत्महत्याएं बढ़ जाती हैं। सक्रियता ज्यादा हो। कम ताकत भी ज्यादा सक्रिय हो सकती है। आप जानकर यह हैरान होंगे कि अगर अमेरिका और भारत की असल में जो हमने इस जन्म में बनाया है, वह ऊपर है; वह हमारे आत्महत्या और संन्यासियों का आंकड़ा बिठाया जाए, तो बराबर मन का ऊपरी हिस्सा है, जो हमने अभी बनाया है। और जो हमारे अनुपात होगा, बराबर, एक्जेक्ट! जितने लोग यहां ज्यादा मात्रा में अतीत का है, वह उतना ही गहरा है। जो हमने जितने गहरे जन्मों | संन्यास लेते हैं, उतने ज्यादा लोग वहां आत्महत्या करते हैं। क्योंकि में बनाया है, उतना ही गहरा दबा है। आत्महत्या का क्षण दो तरफ जा सकता है। वह एक क्राइसिस है, जैसे कोई आदमी के घर में धूल की पर्त जमती चली जाए वर्षों | | एक संकट है। या तो शरीर को मिटाओ, या स्वयं को मिटाओ। तक, तो आज सुबह जो धूल उसके घर में आएगी, वह ऊपर होगी, दिखाई पड़ेगी। और अगर हवा का झोंका आएगा, तो वर्षों की नीचे शरीर को मिटाने से कुछ भी नहीं होता। सिर्फ तीस-पैंतीस साल जो जमी धूल है, उसको पता भी नहीं चलेगा। ऊपर की हवा ही के बाद आप वहीं फिर खड़े हो जाएंगे। एक व्यर्थ की लंबी यात्रा और 297 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 गीता दर्शन भाग-3 > होगी। गर्भाधारण होगा। फिर बच्चे बनेंगे। फिर शिक्षा होगी। फिर उपद्रव सब चलेगा। और फिर एक दिन आप पाएंगे कि ठीक यही क्षण आ गया, आत्महत्या का। हां, तीस-चालीस साल बाद आएगा। यह इतना समय व्यर्थ जाएगा। संन्यास का अर्थ है, आ गई वह घड़ी, जहां हम जैसे हैं, उससे हम तृप्त न रहें। जैसे हम हैं, अब उसी को आगे खींचने में कोई प्रयोजन न रहा। उसमें बदलाहट जरूरी है। तो स्वयं को बदल डो लेकिन नब्बे प्रतिशत मन कहता है, बदल डालो। पर वह पर्त गहरी है, नीचे की है, उसको आप अपनी नहीं मान पाते। वह जो ऊपर की पर्त है, उससे आपकी पहचान है। अभी ताजी है। वह आपको अपनी लगती है। मन का ऐसा नियम है। मन का ऐसा नियम है, जो ऊपर है, वह अपना मालूम पड़ता है। क्योंकि मन ऊपर-ऊपर जीता है, सतह पर लहरों पर। जो गहरा है, वह अपना नहीं मालूम पड़ता है। इसलिए बहुत दफे भ्रांति होती है। जब बहुत गहरे से आवाज आती है - वह स्वयं के ही भीतर से आती है - जब बहुत गहरे से आवाज आती है, तो साधक को लगता है, कोई ऊपर से बोल रहा है । परमात्मा बोल रहा है। परमात्मा कभी नहीं बोलता। परमात्मा तो पूरा अस्तित्व है, वह कभी नहीं बोलता, वह सदा मौन है। लेकिन स्वयं के ही इतने भीतर से आवाज आती है कि वह लगती है, किसी और की आवाज है, इतने दूर से आती मालूम पड़ती है। हम ही अपने से इतने दूर चले गए हैं। अपने घर से हम इतने दूर चले गए हैं कि अपने ही घर के भीतर से आई हुई आवाज कहीं दूर, किसी और की आवाज मालूम पड़ती है। वह अपनी ही आवाज है, अपनी ही गहरे की आवाज है, अपनी ही गहराइयों की आवाज है। पर हमारी आइडेंटिटी, हमारा तादात्म्य होता है ऊपर की पर्त से, उसको हम कहते हैं, मैं । कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, तू भयभीत न हो। जो तू कर सकता है इस जीवन में, कर। अगले जीवन में वह तुझे अनायास मिल जाएगा। इसलिए भी कहते हैं, यह भी मैं आपको याद दिला दूं, कि अगर कृष्ण जैसा आदमी यह बात कह दे, तो यह बहुत गहरे प्रवेश कर जाती है। और संभावना यह है और इसका एक नियम और एक सूत्र और एक व्यवस्था और एक तकनीक है। कृष्ण क्यों कहते हैं यह बात ? महावीर क्यों कहते हैं? बुद्ध क्यों कहते हैं? क्यों दोहराते हैं ये सारे लोग कि तुम जितना करोगे, वह अगले जन्म में अनायास तुम्हें मिल जाएगा? वे इसलिए कहते हैं कि बुद्ध, महावीर या कृष्ण जैसे व्यक्ति के | संपर्क में आपके मन की जो ऊपरी पर्त है, वह खुल जाती है और भीतर तक आप सुन पाते हैं। उनकी मौजूदगी कैटेलिटिक एजेंट का | काम करती है। उनकी मौजूदगी में, आपके भीतर जो दरवाजे आप | नहीं खोल पाते, खुल जाते हैं। उनकी मौजूदगी आपको बल दे जाती है, शक्ति दे जाती है, साहस दे जाती है, भरोसा दे जाती है। तो कृष्ण जब यह कह रहे हैं कि इस जन्म का जो है अगले जन्म में अनायास मिल जाएगा, यह बात अगर अर्जुन के मन में बैठ जाए, तो अगले जन्म में जब अनायास मिलेगा, तो उसे याद भी आ जाएगी। इसलिए भी यह बात कही जाती है। तब अगले जन्म में वह याद कर सकेगा कि निश्चित ही, आज अनायास यह घट रहा | है, यह कृष्ण ने कहा था। वह पहचान पाएगा; ये शब्द उसके भीतर | बैठ जाएंगे। शब्दों की भी गहराइयां हैं। व्यक्तियों की गहराइयों के साथ शब्दों की गहराइयां बढ़ती हैं। जब कोई आदमी कंठ से बोलता है, तो आपके कान से गहरा कभी नहीं जाता है। जब कोई आदमी हृदय से बोलता है, तो आपके हृदय तक जाता है। जब कोई आदमी प्राण से बोलता है, तो आपके प्राण तक जाता है। जब कोई आदमी | आत्मा से बोलता है, तो आपकी आत्मा तक जाता है। और जब | कोई व्यक्ति अपने परमात्मा से बोलता है, तो आपके परमात्मा तक जाता है। गहराई उतनी ही होती है आपके भीतर, जितनी कि बोलने वाले | की गहराई होती है। बोलने वाले की गहराई से ज्यादा आपके भीतर नहीं जा सकता। हां, बोलने वाले की गहराई तक' न जाए, यह हो सकता है। यह हो सकता है कि कोई आत्मा से बोले, लेकिन आपके कानों तक जाए, क्योंकि आपके कानों के आगे मार्ग ही बंद है। तो ध्यान रखना, बोलने वाले की गहराई से ज्यादा गहरा आपके भीतर नहीं जा सकता, लेकिन बोलने वाले की गहराई से कम गहरा आपके भीतर जा सकता है। इसलिए पुराने दिनों में एक व्यवस्था थी कि गुरु के पास शिष्य बहुत निकट में रहे। निकट में रखने का और कोई कारण न था; सिर्फ यही कारण था कि किसी क्षण में, किसी मोमेंट में शिष्य जब | इतने तालमेल में आ जाए गुरु से, इतनी हार्मनी और ट्यूनिंग में आ | जाए कि गुरु अपनी गहरी से गहरी बात उससे कह सके। वह क्षण कब आएगा, कहा नहीं जा सकता। 298 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आंतरिक संपदा जाता है। आप चौबीस घंटे प्रेम के क्षण में नहीं होते। चौबीस घंटे में कोई | कहता है, बिलकुल ठीक है। घर चला जाता है। अक्सर जो लोग क्षण होता है, जब आपको लगता है, आप ज्यादा प्रेमपूर्ण हैं। कहते हैं, बिलकुल ठीक है बिना सोचे-समझे, बिना भयभीत चौबीस घंटे में कई क्षण ऐसे होते हैं, जब आपको लगता है कि आप हुए और यह मामला ऐसा है कि भयभीत होगा ही कोई। यह पूरी ज्यादा क्रोधपूर्ण हैं। जिंदगी के बदलने का सवाल है। यह जिंदगी और मौत का दांव है, भिखारी सुबह आपके दरवाजे पर भीख मांगते हैं, वे जानते हैं और भारी दांव है। कि सुबह दया की ज्यादा संभावना है सांझ की बजाय। सांझ को ___ अर्जुन जब चिंतित हो गया, यह चिंतित होना शुभ लक्षण है। भिखारी भीख मांगने नहीं आता, क्योंकि वह जानता है कि सांझ | | यह चिंता शुभ लक्षण है। इसलिए कृष्ण ने समझा कि अभी वह द्वार तक आप दिनभर भीख मांगकर खुद इतने परेशान हो गए हैं कि खुला है, अब वे उससे कह दें। कह दें उससे कि घबड़ा मत। आपसे कोई आशा नहीं की जा सकती है। सुबह आप आ रहे हैं | भरोसा रख। जो तू करेगा, वह अगले जन्म में तुझे मिल जाएगा, एक दूसरे लोक से, स्वयं के भीतर की गहराइयों से, जहां मालिक | | अगर यात्रा पूरी भी न हुई तो। कुछ खोता नहीं। अगले जन्म में का निवास है, जहां प्रभु रहता है। सुबह-सुबह के क्षण में आपमें | | सुगति मिल जाती है। वैसा वातावरण मिल जाता है, जहां वह फूल भी थोड़ी मालकियत होती है, थोड़ा स्वामित्व होता है। आप भी अनायास खिल जाए। वैसे लोग मिल जाते हैं। भिखारी नहीं होते। सांझ तक, बाजार के धक्के, दफ्तर की दौड़, तिब्बत में एक बहुत पुरानी योगियों की कहावत है, डू नाट सीक सड़कों की चोट, सब उपद्रव सहकर आप भिखारी की हालत में दि मास्टर, गुरु को खोजो मत। व्हेन दि डिसाइपल इज़ रेडी, दि पहुंच जाते हैं। सांझ आपकी हैसियत नहीं होती कि दे सकें। मास्टर एपियर्स। जब शिष्य तैयार है, तो गुरु मौजूद हो जाता है। ___ इसलिए सांझ, दुनिया में किसी कोने में भीख नहीं मांगी जाती। | बहुत पुरानी, कोई छः हजार वर्ष पुरानी किताब में यह सूत्र है इजिप्त भिखारी भी समझ गए हैं लंबे अनभव से मनसविज्ञान, कि आदमी | की। खोजना मत गुरु को। जब शिष्य तैयार है, तो गुरु मौजूद हो की बुद्धि कब काम कर सकती है दया के लिए। ठीक ऐसे ही गहराई के क्षण भी होते हैं। इसलिए गुरु, पुराना | क्योंकि जीवन के बहुत अंतर्नियम हैं, जिनका हमें खयाल भी गुरु चाहता था कि शिष्य निकट रहे, बहुत निकट रहे। ताकि किसी | नहीं होता, जिनका हमें पता भी नहीं होता। वे नियम काम करते ऐसे क्षण में, जब भी उसे लगे कि अभी द्वार खुला है, वह कुछ | रहते हैं। आपकी जितनी योग्यता होती है, उस योग्यता की व्यवस्था डाल दे। और वह भीतर की गहराई तक पहुंच जाए। के लिए परमात्मा सदा ही साधन जुटा देता है। कृष्ण को लगा है कि यह क्षण अर्जुन का गहरा है। क्यों? क्योंकि | हां, आप ही उनका उपयोग न करें, यह हो सकता है। यह हो अर्जुन पहली दफा उत्सुक हो रहा है कुछ करने को। भय उसका | सकता है कि आप कहें कि नहीं, अभी नहीं। आपका ही वह जो उत्सकता की वजह से ही है। अगर उत्सक न होता. तो वह यह भी ऊपर का मन है. बाधा डाल दे। आपके भीतर के मन को देखकर न पूछता कि कहीं मैं बिखर तो न जाऊंगा! कहीं ऐसा तो न होगा | | तो अस्तित्व ने व्यवस्था जुटा दी, लेकिन आपका ऊपर का मन बाधा कि मेरी नाव रास्ते में ही डूब जाए! इसका पक्का अर्थ यह है कि डाल सकता है। बुद्ध आपके गांव से गुजरें और आप कहें कि आज दूसरी तरफ जाने की पुकार उसके मन में आ गई। दूसरे किनारे की तो मुश्किल है। आज तो दुकान पर ग्राहकों की भीड़ ज्यादा है। खोज का आह्वान मिल गया। चुनौती कहीं स्वीकार कर ली गई है। कैसे आश्चर्य की बात है! ऐसा हुआ है। बुद्ध गांव से गुजरे हैं। इसीलिए तो भय उठा रहा है। इसीलिए भय उठा रहा है। नहीं तो पूरा गांव सुनने नहीं आया है। आखिरी वक्त; बुद्ध के पास एक भय भी नहीं उठाता। वह कहता कि ठीक है, आप जो कहते हैं, आदमी भागता हुआ पहुंचा, सुभद्र। बुद्ध अपने भिक्षुओं से विदा बिलकुल ठीक है। | ले चुके थे। और उन्होंने कहा कि अब मैं शांत होता हूं, शून्य होता __ अक्सर जो लोग एकदम से कह देते हैं कि बिलकुल ठीक है, वे हूं, निर्वाण में प्रवेश करता हूं। अब मैं समाधि में जाता हूं। तुम्हें कुछ वे ही लोग होते हैं, जिन्हें कोई मतलब नहीं होता। मतलब हो, तो पूछना तो नहीं है? एकदम से नहीं कह सकते कि ठीक है। क्योंकि तब प्राणों का भिक्षु इकट्ठे थे, कोई लाख भिक्षु इकट्ठे थे। उन्होंने कहा, हमने सवाल है, कमिटमेंट है। फिर तो एक गहरा कमिटमेंट है। आदमी इतना पाया, हम उसको ही नहीं पचा पाए। हमने इतना समझा, हम | 299 Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग - 3 > उसको ही कहां कर पाए ! अब हम विदा होते आपको और कष्ट न देंगे। हमें कुछ पूछना नहीं है। आपने सब बिना पूछे दिया है। बिना मांगे आपने बरसाया है। सलाह नहीं मांगी थी, तो भी सलाह दी है। आपके हम सिर्फ ऋणी हैं, अनुगृहीत हैं। हम सिर्फ रो सकते हैं, और कुछ कह नहीं सकते। बुद्ध ने तीन बार पूछा। बुद्ध का नियम था, हर बात तीन बार पूछते थे । अनुकंपा अदभुत है बुद्ध लोगों की। वे तीन बार पूछते थे। पूछना है कुछ? सामने वाला कहता, नहीं। तो भी बुद्ध कहते, पूछना है कुछ? सामने वाला कहता, नहीं। तो भी बुद्ध कहते, पूछना है कुछ ? सामने वाला कहता, नहीं। तब बुद्ध कहते, अब तू ही जिम्मेवार होगा अपनी नहीं का। तीन बार बहुत हो गया। तीन बार पूछकर बुद्ध वृक्ष के पीछे चले गए। आंखें बंद करके वे अपने प्राणों को विसर्जित करने लगे। जो लोग भी स्वयं को जान लेते हैं, उनके लिए मृत्यु अपने ही हाथ का खेल है। वे मृत्यु में ऐसे ही प्रवेश करते हैं, जैसे आप किसी पुराने मकान को छोड़कर नए मकान में प्रवेश करते हैं। आप नहीं करते ऐसा। आपको तो एक मृत्यु से दूसरी मृत्यु में घसीटकर ले जाना पड़ता है, बड़ी मुश्किल से। क्योंकि आप पुराने मकान को ऐसा जोर से पकड़ते हैं कि छोड़ते ही नहीं। हालांकि वह मकान बेकार हो चुका है; सड़ चुका है; अब उसमें जीवन संभव नहीं है। मृत्यु आती ही तभी है, जब जीवन एक मकान में असंभव हो जाता है। लेकिन आप कहते हैं, चाहे असंभव हो जाए, चाहे मुझे अस्पताल में उलटा-सीधा लटका दो; चाहे मेरी आंख बंद रहे, नलियां मेरी नाक में पड़ी रहें आक्सीजन की, लेकिन मुझे बचाओ। देखा है अस्पताल में लटके हैं लोग! सिर नीचा है, पैर ऊपर हैं। वजन बंधे हैं, नाक में नलियां लगी हैं। इंजेक्शन दिए जा रहे हैं। मगर वे कहते हैं कि बचाओ। मकान सड़ गया है बिलकुल ; बचने के योग्य नहीं। मौत कृपा करती है कि चलो, ले चलें । तुम्हें नया मकान दे दें। वे कहते हैं, पुराना मकान। पता नहीं पुराना भी छूट जाए और नया न मिले ! बेहोश पड़े रहेंगे, लेकिन बचाओ । मरना नहीं है। जो आदमी जान लेता है, वह अपने को सहज, सहज, मकान पूरा हुआ तो वह मौत को खुद कहता है, अब ले चल। यह मकान बेकार हो गया। तो बुद्ध अपने को विसर्जित करने लगे। नए मकान में अब वे जाने को नहीं हैं, क्योंकि अब नए मकान का कोई सवाल नहीं रहा । मकानों की जरूरत मन को रहती है। अब मन विसर्जित हो 'चुका' है। | अब बुद्ध परिनिर्वाण में प्रवेश कर रहे हैं। महाशून्य में, अस्तित्व में उनकी यात्रा हो रही है। सरिता सागर में गिर रही है, सदा के लिए। तब सुभद्र नाम का आदमी भागा हुआ पहुंचा और उसने कहा कि बुद्ध कहां हैं? वे दिखाई नहीं पड़ते ? लोग रो रहे हैं। क्या उनका | अंत हो गया ? एक भिक्षु ने कहा, अंत तो नहीं हुआ है। लेकिन वे अंत में प्रवेश कर रहे हैं। पर, सुभद्र ने कहा, मुझे कुछ पूंछना है। उन लोगों ने कहा, तूने बड़ी देर कर दी सुभद्र! और जहां तक हमें याद है, बुद्ध तेरे गांव से कम से कम तीन या चार बार गुजरे होंगे, तब तू नहीं आया ! उसने कहा, दुकान पर बड़ी भीड़ थी । बुद्ध आते थे जरूर, लेकिन कभी ग्राहक होते; कभी पत्नी बीमार पड़ जाती; कभी बेटे | को कुछ काम आ जाता ; कभी शादी हो जाती। कभी तो ऐसा भी होता कि बहुत धूप होती, तो सोचता कि कौन जाए इतनी धूप में; कभी शीतकाल में आएंगे, तब चला जाऊंगा। फिर कभी शीतकाल में भी आए, तो इतनी सर्दी होती कि घर में बिस्तर में पड़े रहने का मन होता। सोचता कि कौन जाए। अब की दफा जब धूप में आएंगे, तब चला जाऊंगा। ऐसे ही तीस साल बुद्ध मेरे गांव से निकले | जरूर | मेरे गांव के पास से निकले। मैं उन गांवों से निकला जिनमें 300 बुद्ध ठहरे हुए थे। लेकिन नहीं; मैंने सोचा, फिर, फिर मिल लेंगे। आज मुझे खबर मिली कि बुद्ध तो विसर्जित हो रहे हैं। तो मैं भागा हुआ आया हूं। मुझे पूछ लेने दें। भिक्षुओं ने कहा, सुभद्र, इसमें किसका कसूर है ? लेकिन बुद्ध की अनुकंपा, कि बुद्ध वृक्ष के पास से उठकर बाहर आ गए। और उन्होंने कहा कि मेरे जीते जी कोई आदमी खाली हाथ लौट जाए, पूछने आए और लौट जाए! अभी मैं सुन सकता था। तो मेरे ऊपर सदा के लिए एक इल्जाम रह जाएगा कि कोई जानने आया था, और मेरे पास था, जो मैं उसे कह देता। कोई हर्ज नहीं सुभद्र, तीस साल में भी आया, तो जल्दी आ गया। कुछ लोग तीस जन्मों में भी नहीं आते ! कृष्ण एक शुभ क्षण देखकर अर्जुन को कहते हैं कि उसके भीतर चली जाए यह बात नहीं; कुछ नष्ट नहीं होगा अर्जुन ! तू जो भी कमाएगा, वह तेरी संपत्ति बन जाएगी। और ध्यान रहे, और सब तरह की संपत्तियां इसी जन्म में छूट जाती हैं, सिर्फ योग में कमाई गई संपत्ति अगले जन्म में यात्रा करती है। और सब संपत्तियां इसी जन्म में छूट जाती हैं। कमाया हुआ धन Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आंतरिक संपदा छूट जाएगा। बनाए हुए मकान छूट जाएंगे। इज्जत, यश छूट रोशनी की एक किरण आती हो, तो भी भरोसा रहता है कि सूरज जाएगा। लेकिन जो बहुत गहरे तल पर किए गए कर्म हैं, शुभ या बाहर है और मैं बाहर जा सकता हूं! अंधकार आत्यंतिक नहीं है, अशुभ; योग के पक्ष में या योग के विपक्ष में-पक्ष में, तो संपत्ति अल्टिमेट नहीं है। अंधकार के विपरीत भी कुछ है। बन जाएगी; विपक्ष में, तो विपत्ति बन जाएगी। अगर योग के | । एक छोटी-सी किरण उतरती हो छिद्र से घने अंधकार में, तो वह विपक्ष में जीए हैं, तो दिवालिया निकलेंगे और अगले जन्म में छोटी-सी किरण भी उस घने अंधकार से महान हो जाती है। वह अनायास पाएंगे कि दिवालिया हैं। और योग के पक्ष में कुछ किया | घना अंधकार उस छोटी-सी किरण को भी मिटा नहीं पाता; वह है, तो एक महासंपत्ति के मालिक होकर गुजरेंगे और अगले जन्म | छोटी-सी किरण अंधकार को चीरकर गुजर जाती है। में पाएंगे कि सम्राट हैं। कितना ही विषय-वासनाओं में डूबा हो वैसा आदमी अगले भिखारी के घर में भी योग की संपत्ति वाला आदमी पैदा हो, तो | जन्मों में, लेकिन अगर छोटे-से छिद्र से भी, जो उसने निर्मित किया सम्राट मालूम होता है। और सम्राट के घर में भी योग की संपत्ति से | है, प्रभु की कृपा उसको उपलब्ध होती रहे, तो उसके रूपांतरण की हीन आदमी पैदा हो, तो भिखारी मालूम होता है। एक आंतरिक संभावना सदा ही बनी रहती है। वह सदा ही प्रभु-कृपा को पाता संपदा, उसकी ही बात कृष्ण ने कही है और अर्जुन को भरोसा | रहता है। जगह-जगह, स्थान-स्थान, स्थितियों-स्थितियों से प्रभु दिलाया है। की कृपा उस पर बरसती रहती है। न मालूम कितने रूपों में, न मालूम कितने आकारों में, न मालूम कितने अनजान मार्गों और द्वारों से, और न मालूम कितनी अनजान यात्राएं प्रभु की कृपा से पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः।। | उसकी तरफ होती रहती हैं। बाहर वह कितना ही उलझा रहे, भीतर • जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते । । ४४ ।। कोई कोना प्रभ का मंदिर बना रहता है। और वह बहत बडा और वह विषयों के वश में हुआ भी उस पहले के अभ्यास आश्वासन है। से ही, निःसंदेह भगवत की ओर आकर्षित किया जाता है, । कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, वह छोटा-सा छिद्र भी अगर निर्मित हो तथा समत्वबुद्धि रूप योग का जिज्ञासु भी वेद में कहे हुए जाए, तो तेरे लिए बड़ा सहारा होगा। सकाम कर्मों के फल का उल्लंघन कर जाता है। और एक दूसरी बात, और भी क्रांतिकारी, बहुत क्रांतिकारी बात कहते हैं। कहते हैं, योग का जिज्ञासु भी, जस्ट एन इंक्वायरर; योग का जिज्ञासु भी–मुमुक्षु भी नहीं, साधक भी नहीं, सिद्ध भी ' बातें कृष्ण और जोड़ते हैं। वे कहते हैं कि पिछले जन्मों नहीं—मात्र जिज्ञासु; जिसने सिर्फ योग के प्रति जिज्ञासा भी की हो, 91 में जिसने थोड़ी-सी भी यात्रा प्रभु की दिशा में की हो, वह भी वेद में बताए गए सकाम कर्मों का उल्लंघन कर जाता है, वह उसकी संपदा बन गई है। अगले जन्मों में विषय उनसे पार निकल जाता है। और वासना में लिप्त हुआ भी प्रभु की कृपा का पात्र बन जाता है। वेद में कहा है कि यज्ञ करो, तो ये फल होंगे। ऐसा दान करो, अगले जन्म में विषय-वासना में लिप्त हुआ भी-वैसा व्यक्ति | | तो ऐसा स्वर्ग होगा। इस देवता को ऐसा नैवेद्य चढ़ाओ, तो स्वर्ग जिसके पिछले जन्मों की यात्रा में योग का थोड़ा-सा भी संचय है, | में यह फल मिलेगा। ऐसा करो, ऐसा करो, तो ऐसा-ऐसा फल जिसने थोड़ा भी धर्म का संचय किया, जिसका थोड़ा भी पुण्य होता है सुख की तरफ। वेद में बहुत-सी विधियां बताई हैं, जो अर्जन है—वह विषय-वासनाओं में डूबा हुआ भी, प्रभु की कृपा | मनुष्य को सुख की दिशा में ले जा सकती हैं। कारण है बताने का। का पात्र बना रहता है। वह उतना-सा जो उसका किया हुआ है, वह __वेद अर्जुन जैसे स्पष्ट जिज्ञासु के लिए दिए गए वचन नहीं हैं। दरवाजा खुला रहता है। बाकी उसके सब दरवाजे बंद होते हैं। सब | वेद इनसाइक्लोपीडिया है, वेद विश्वकोश है। समस्त लोगों के तरफ अंधकार होता है, लेकिन एक छोटे-से छिद्र से प्रभु का | | लिए, जितने तरह के लोग पृथ्वी पर हो सकते हैं, सब के लिए सूत्र प्रकाश उसके भीतर उतरता है। वेद में उपलब्ध हैं। गीता तो स्पेसिफिक टीचिंग है, एक विशेष और ध्यान रहे, गहन अंधकार में अगर छप्पर के छेद से भी | शिक्षा है। एक विशेष व्यक्ति द्वारा दी गई; विशेष व्यक्ति को दी 301 Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + गीता दर्शन भाग-3> गई। वेद किसी एक व्यक्ति के द्वारा दी गई शिक्षा नहीं है; अनेक | वेद की व्यवस्थाओं के कारण ही जैन और बौद्ध धर्मों का भेद पैदा व्यक्तियों के द्वारा दी गई शिक्षा है। एक व्यक्ति को दी गई शिक्षा | | हुआ, अन्यथा शायद कभी न पैदा होता। क्योंकि तीर्थंकरों को, जैनों नहीं, अनेक व्यक्तियों को दी गई शिक्षा है। के तीर्थंकरों को भी लगा कि ये वेद किस तरह की बातें करते हैं! और वेद विश्वकोश है। क्षुद्रतम व्यक्ति से श्रेष्ठतम व्यक्ति के महावीर कहते हैं कि दूसरे के लिए भी वैसा ही सोचो, जैसा लिए वेद में वचन हैं। क्षुद्रतम व्यक्ति से! उस आदमी के लिए भी | अपने लिए सोचते हो; और वेद ऐसी प्रार्थना को भी जगह देता है वेद में वचन हैं, जो कहता है कि हे प्रभु, हे देव, हे इंद्र! बगल का कि दुश्मन को नष्ट कर दो! बुद्ध कहते हैं, करुणा करो उस पर भी, आदमी मेरा दुश्मन हो गया है; तू कृपा कर और इसकी गाय के दूध जो तुम्हारा हत्यारा हो। और वेद कहते हैं, पड़ोसी के जीवन को नष्ट को नदारद कर दे। उसके लिए भी प्रार्थना है! कुछ ऐसा कर कि इस कर दे हे देव! और इसको जगह देते हैं। बुद्ध या कृष्ण या महावीर, पड़ोसी की गाय दूध देना बंद कर दे। सभी वेद की इन व्यवस्थाओं से चिंतित हुए हैं। सोच भी न पाएंगे। दुनिया का कोई धर्मग्रंथ इतनी हिम्मत न कर लेकिन मैं आपसे कहूं, वेद का अपना ही रहस्य है। और वह पाएगा कि इसको अपने में सम्मिलित कर ले। लेकिन वेद उतने ही रहस्य यह है कि वेद इनसाइक्लोपीडिया है, वेद विश्वकोश है। इनक्लूसिव हैं, जितना इनक्लूसिव परमात्मा है। विश्वकोश का अर्थ होता है, जो भी धर्म की दिशा में संभव है, वह जब परमात्मा इस आदमी को अपने में जगह दिए हुए है, तो वेद | | सभी संगृहीत है। माना कि यह आदमी दुश्मन को नष्ट करने के कहते हैं, हम भी जगह देंगे। जब परमात्मा इनकार नहीं करता कि लिए प्रार्थना कर रहा है, लेकिन प्रार्थना कर रहा है। और प्रार्थना इस आदमी को हटाओ, नष्ट करो; यह आदमी क्या बातें कर रहा | संकलित होनी चाहिए। यह भी आदमी है; माना बुरा है, पर है। है! यह कह रहा है कि हे इंद्र, मैं तेरी पूजा करता हूं, तेरी प्रार्थना, तथ्य है, तथ्य संगृहीत होना चाहिए। और जब परमात्मा इसे तेरी अर्चना, तेरे नैवेद्य चढ़ाता है, तेरे लिए यज्ञ करता है, तो कुछ स्वीकार करता है, सहता है, इसके जीवन का अंत नहीं करता: ऐसा कर कि पड़ोसी के खेत में इस बार फसल न आए। दुश्मन के | श्वास चलाता है, जीवन देता है, प्रतीक्षा करता है इसके बदलने खेत जल जाएं, हमारे ही खेत में फसलें पैदा हों। दुश्मनों का नाश की, तो वेद कहते हैं कि हम भी इतनी जल्दी क्यों करें! हम भी इसे कर दे। जैसे बिजली गिरे किसी पर और वज्राघात होकर वह नष्ट स्वीकार कर लें। हो जाए, ऐसा उस दुश्मन को नष्ट कर दे। वेद जैसी किताब नहीं है पृथ्वी पर, इतनी इनक्लूसिव। सब धर्मग्रंथ, और ऐसी बात को अपने भीतर जगह देता है! शोभन | किताबें चोजेन हैं। दुनिया की सारी किताबें चुनी हुई हैं। उनमें कुछ नहीं मालूम पड़ता। कृष्ण को भी शोभन नहीं मालूम पड़ा होगा। छोड़ा गया है, कुछ चुना गया है। बुरे को हटाया गया है, अच्छे को इसलिए कृष्ण ने कहा है कि वेदों में जिन सकाम कर्मों की-सकाम रखा गया है। धर्मग्रंथ का मतलब ही यही हो कर्म का अर्थ है, किसी वासना से किया गया पूजा-पाठ, हवन, मतलब ही होता है कि धर्म को चुनो, अधर्म को हटाओ। वेद सिर्फ विधि; किसी वासना से, किसी कामना से, कुछ पाने के लिए किया | | धर्मग्रंथ नहीं है; मात्र धर्मग्रंथ नहीं है। वेद पूरे मनुष्य की समस्त गया—जो भी वेदों में दी गई व्यवस्था है, जो कर्मकांड है, उसको क्षमताओं का संग्रह है। समस्त क्षमताएं! कर-करके भी आदमी जहां पहुंचता है, योग की जिज्ञासा मात्र करने | जान्सन ने, डाक्टर जान्सन ने अंग्रेजी का एक विश्वकोश निर्मित वाला, उसके पार निकल जाता है। सिर्फ जिज्ञासा मात्र करने वाला! किया। विश्वकोश जब कोई निर्मित करता है, तो उसे गंदी गालियां इसका ऐसा अर्थ हुआ, अकाम भाव से जिज्ञासा मात्र करने वाला, | भी उसमें लिखनी पड़ती हैं। लिखनी चाहिए, क्योंकि वे भी शब्द सकाम भाव से साधना करने वाले से आगे निकल जाता है। | तो हैं ही और लोग उनका उपयोग तो करते ही हैं। उसमें गंदी, अकाम का इतना अदभुत रहस्य, निष्काम भाव की इतनी गहराई अभद्र, मां-बहन की गालियां, सब इकट्ठी की थीं। और निष्काम भाव का इतना शक्तिशाली होना, उसे बताने के लिए बड़ा कोश था। लाखों शब्द थे। उसमें गालियां तो दस-पच्चीस कृष्ण ने यह कहा है। ही थी, क्योंकि ज्यादा गालियों की जरूरत नहीं होती, एक ही गाली कृष्ण भी वेद से चिंतित हुए, क्योंकि वेद इस तरह की बातें बता को जिंदगीभर रिपीट करने से काम चल जाता है। गालियों में कोई देता है। वेद से बुद्ध भी चिंतित हुए। सच तो यह है कि हिंदुस्तान में ज्यादा इनवेंशन भी नहीं होते। गालियां करीब-करीब प्राचीन, पथ का 302 Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ <= आंतरिक संपदा - सनातन चलती हैं। गाली, मैं नहीं देखता, कोई नई गाली ईजाद होती | निष्काम की जिज्ञासा करने वाला भी, इन हवन और यज्ञ करने वाले हो। कभी-कभी कोई छोटी-मोटी ईजाद होती है; वह टिकती नहीं। | लोगों से पार चला जाता है। महावीर और बुद्ध ने तो बिलकुल पुरानी गाली टिकती है, स्थिर रहती है।। इनकार किया, और उन्होंने कहा कि वेद की बात ही मत चलाना। एक महिला भद्रवर्गीय पहुंच गई जान्सन के पास। खोला | वेद की बात चलाई, कि नर्क में पड़ोगे। इसलिए वेद के विरोध में शब्दकोश उसका और कहा कि आप जैसा भला आदमी और इस अवैदिक धर्म भारत में पैदा हुए, बुद्ध और महावीर के। तरह की गालियां लिखता है! अंडरलाइन करके लाई थी! जान्सन पर, मेरी समझ यह है कि वेद को ठीक से कभी भी नहीं समझा ने कहा, इतने बड़े शब्दकोश में तुझे इतनी गालियां ही देखने को गया, क्योंकि इतनी आल इनक्लूसिव किताब को ठीक से समझा मिलीं! तू खोज कैसे पाई? मैं तो सोचता था, कोई खोज नहीं | जाना कठिन है। क्योंकि आपके टाइप के विपरीत बातें भी उसमें पाएगा। तू खोज कैसे पाई? जान्सन ने कहा, मुझे गाली और पूजा | होंगी, क्योंकि आपका विपरीत टाइप भी दुनिया में है। इसलिए वेद और प्रार्थना से प्रयोजन नहीं है। आदमी जो-जो शब्दों का उपयोग | को पूरी तरह प्रेम करने वाला आदमी बहुत मुश्किल है। वह वही करता है, वे संगृहीत किए हैं। आदमी हो सकता है, जो परमात्मा जैसा आल इनक्लूसिव हो, नहीं वेद आल इनक्लूसिव है। इसलिए वेद में वह क्षुद्रतम आदमी भी तो बहुत मुश्किल है। उसको कोई न कोई खटकने वाली बात मिल मिल जाएगा, जो परमात्मा के पास न मालूम कौन-सी क्षुद्र जाएगी कि यह बात गड़बड़ है। वह आपके पक्ष की नहीं होगी, तो आकांक्षा लेकर गया है। वह श्रेष्ठतम आदमी भी मिल जाएगा, जो गड़बड़ हो जाएगी। परमात्मा के पास कोई आकांक्षा लेकर नहीं गया है। वेद में वह वेद में कुरान भी मिल जाएगा। वेद में बाइबिल भी मिल जाएगी। आदमी भी मिल जाएगा, जो परमात्मा के पास जाने की हर कोशिश वेद में धम्मपद भी मिल जाएगा। वेद में महावीर के वचन भी मिल करता है और नहीं पहुंच पाता। और वेद में वह आदमी भी मिल | जाएंगे। वेद इनसाइक्लोपीडिया है। वेद को प्रयोजन नहीं है। जाएगा, जो परमात्मा की तरफ जाता नहीं, परमात्मा खुद उसके पास इसलिए महावीर को कठिनाई पड़ेगी, क्योंकि महावीर के आता है। सब मिल जाएंगे। विपरीत टाइप का भी सब संग्रह वहां है। और वह विपरीत टाइप इसलिए वेद की निंदा भी करनी बहुत आसान है। कहीं भी पन्ना को भी कठिनाई पड़ेगी, क्योंकि महावीर वाला संग्रह भी वहां है। खोलिए वेद का, आपको उपद्रव की चीजें मिल जाएंगी। कहीं भी।। और अड़चन सभी को होगी। क्यों? क्योंकि निन्यानबे प्रतिशत आदमी तो उपद्रव है। और वेद | | इसलिए वेद के साथ कोई भी बिना अड़चन में नहीं रह पाता। इसलिए बहुत रिप्रेजेंटेटिव है, बहुत प्रतिनिधि है। ऐसी प्रतिनिधि और अड़चन मिटाने के जो उपाय हुए हैं, वे बड़े खतरनाक हैं। जैसे कोई किताब पृथ्वी पर नहीं है। सब किताबें क्लास रिप्रेजेंट करती । दयानंद ने एक उपाय किया अड़चन मिटाने का। वह अड़चन हैं, किसी वर्ग का। किसी एक वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं सब मिटाने का उपाय यह है कि वेद के सब शब्दों के अर्थ ही बदल किताबें। वेद प्रतिनिधि है मनुष्य का, किसी वर्ग का नहीं, सबका।। | डालो। और इस तरह के अर्थ निकालो उसमें से कि वेद विश्वकोश ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जिसके अनुकूल वक्तव्य वेद में | न रह जाए, धर्मशास्त्र हो जाए; एक संगति आ जाए, बस। न मिल जाए। यह ज्यादती है लेकिन। वेद में संगति नहीं लाई जा सकती। वेद इसीलिए उसे वेद नाम दिया गया है। वेद का अर्थ है, नालेज। असंगत है। वेद जानकर असंगत है, क्योंकि वेद सबको स्वीकार वेद का अर्थ और कुछ नहीं होता। वेद शब्द का अर्थ है, ज्ञान, जस्ट | | करता है, असंगत होगा ही। नालेज। आदमी को जो-जो ज्ञान है, वह सब संगृहीत है। चुनाव | शब्दकोश संगत नहीं हो सकता। विश्वकोश, इनसाइक्लोपीडिया नहीं है। कौन आदमी को रखें, किसको छोड़ दें, वह नहीं है। संगत नहीं हो सकता। इनसाइक्लोपीडिया को अपने से विरोधी कृष्ण, बुद्ध, महावीर सबको इसमें अड़चन रही है। अड़चन के | वक्तव्यों को भी जगह देनी ही पड़ेगी। भी अपने-अपने रूप हैं। कृष्ण ने वेद को बिलकुल इनकार नहीं | लेकिन कभी ऐसा आदमी जरूर पैदा होगा एक दिन पृथ्वी पर, किया, लेकिन तरकीब से वेद के पार जाने वाली बात कही। कृष्ण | | जो समस्त को इतनी सहनशीलता से समझ सकेगा, सहनशीलता ने कहा कि ठीक है वेद भी; सकाम आदमी के लिए है। लेकिन | से, उस दिन वेद का पुन विर्भाव हो सकता है। उस दिन वेद में 1303 Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 गीता दर्शन भाग-3 दिखाई पड़ेगा, सब है। कंकड़-पत्थर से लेकर हीरे-जवाहरातों पवित्र अहंकार भीतर निर्मित होता है। तक, बुझे हुए दीयों से लेकर जलते हुए महासूर्यों तक, सब है। | अपवित्र अहंकार तो होते ही हैं। एक आदमी कहता है कि मुझसे __तो कृष्ण अर्जुन से कहते हैं-वह उनका अर्थ है कहने का और - ज्यादा दुष्ट कोई भी नहीं। कि मैं छाती में छुरा भोंक दूं, तो हाथ नहीं कारण है-वे कहते हैं कि वेदों की समस्त साधना भी तू कर डाल, धोता और खाना खा लेता हूं। अब इसके भी दावे करने वाले लोग सब यज्ञ कर ले, हवन कर ले, फिर भी इतना न पाएगा, जितना | हैं। यह असात्विक अहंकार की घोषणा है। सिर्फ योग की जिज्ञासा से पा सकता है। और योग को साधे, तब | ध्यान रखना कि आमतौर से हम समझते हैं कि सभी अहंकार तो बात ही अलग है। तब तो प्रश्न ही नहीं उठता। अर्जुन को भरोसा | असात्विक होते हैं, तो गलत समझते हैं। सात्विक अहंकार भी होते दिलाने के लिए कृष्ण की चेष्टा सतत है। | हैं। और सात्विक अहंकार सटल, सूक्ष्म हो जाता है। __एक आदमी कहता है, मुझसे दुष्ट कोई भी नहीं; एक आदमी कहता है, मैं तो आपके चरणों की धूल हूं। अब जो आदमी कहता प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः। है, मैं आपके चरणों की धूल हूं। मैं तो कुछ भी नहीं हूं। इसका भी अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम् ।। ४५।।। अहंकार है; बहुत सूक्ष्म। इसका भी दावा है। बहुत दावा शून्य अनेक जन्मों से अंतःकरण की शुद्धिरूप सिद्धि को प्राप्त हुआ मालूम पड़ता है, लेकिन दावा है। कोई दावा दिखाई नहीं पड़ता, और अति प्रयत्न से अभ्यास करने वाला योगी, संपूर्ण पापों क्योंकि यह भी कोई दावा हुआ कि मैं आपके चरणों की धूल हूं! से अच्छी प्रकार शुद्ध होकर उस साधन के प्रभाव से परम लेकिन उस आदमी की आंखों में झांकें। अगर आप उससे कहें गति को प्राप्त होता है अर्थात परमात्मा को प्राप्त होता है। | कि तुम तो कुछ भी नहीं हो, तुमसे भी ज्यादा चरणों की धूल मैंने देखी है एक आदमी में। एक आदमी मैंने देखा, तुमसे भी ज्यादा। तुम कुछ भी नहीं हो उसके सामने। तो आप देखना कि उसके भीतर - स सूत्र में दो बातें कृष्ण और जोड़ते हैं। जैसे-जैसे | | अहंकार तड़पकर रह जाएगा; बिजली कौंध जाएगी। उसकी आंखों २ अर्जुन, उन्हें प्रतीत होता है कि समझ पाएगा, समझ | में झलक आ जाएगी। वही झलक, जो आदमी कहता है कि मुझसे पाएगा, वैसे-वैसे वे कुछ और जोड़ देते हैं। दो बातें ज्यादा दुष्ट कोई भी नहीं। मैं छाती में छुरा भोंक देता हूं, और बिना कहते हैं। वे कहते हैं, शुद्ध हुआ चित्त साधन के द्वारा परम गति को | हाथ धोए पानी पीता हूं। वही झलक! उपलब्ध होता है। ___ अहंकार बहुत चालाक है, दि मोस्ट कनिंग फैक्टर। बहुत शुद्ध हुआ चित्त साधन के द्वारा परम गति को उपलब्ध होता है। चालाक तत्व है हमारे भीतर। वह हर चीज से अपने को जोड़ लेता क्या शुद्ध होना काफी नहीं है? कठिन सवाल है। जटिल बात है। है, हर चीज से! वह कहता है, धन है तुम्हारे पास, तो अकड़कर क्या शद्ध होना काफी नहीं है? और साधन की भी जरूरत पडेगी? खडे हो जाओ. और कहो कि जानते हो. मैं कौन हं। मेरे पास धन इतना ही उचित न होता कहना कि शुद्ध हुआ जिसका अंतःकरण, है। अब तुमने अगर सोचा कि धन की वजह से अहंकार है। छोड़ वह परम गति को उपलब्ध होता है? दो धन। तो वह अहंकार कहेगा, तेरे से बड़ा त्यागी कोई भी नहीं। लेकिन कृष्ण कहते हैं, अनंत जन्मों में भी शुद्ध हुआ अंतःकरण घोषणा कर दे कि मैं त्यागी हूं, महान! वाला व्यक्ति साधन की सहायता से परम गति को उपलब्ध होता | आपको पता नहीं कि वही अहंकार, जो धन के पीछे छिपा था, है। मेथड, विधि की सहायता से। साधारणतः हमें लगेगा, जो शुद्ध | अब त्याग के पीछे छिप गया है; त्याग को ओढ़ लिया है। और हो गया पूरा, अब और क्या जरूरत रही साधन की? क्या परमात्मा ध्यान रहे, धन वाला अहंकार तो बहुत स्थूल होता है, सबको उसे बिना किसी साधन के न मिल जाएगा? दिखाई पड़ता है। त्याग वाला अहंकार सूक्ष्म हो जाता है और दिखाई एक छोटी-सी बात समझ लें, तो खयाल में आ जाएगी। जो नहीं पड़ता। शुद्ध हो जाए सब भांति और साधन का प्रयोग न किया हो, तो एक - इसलिए कृष्ण कहते हैं कि अर्जुन, सब भांति शुद्ध हुआ व्यक्ति ही खतरा है, जो अंतिम बाधा बन जाता है। पायस ईगोइज्म, एक भी, साधन की सहायता से प्रभु को उपलब्ध होता है। 304 Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ << आंतरिक संपदा अब ये साधन की इसलिए जरूरत पड़ी। शुद्धि हो जाए, सत्व | बड़ा कष्ट हुआ उस आदमी को। धन छोड़ देने में कष्ट न हुआ आ जाए, सब अंतःकरण बिलकुल पवित्र मालूम होने लगे, लेकिन था। यह सड़क पर बुहारी लगाने में बहुत कष्ट हुआ। कई दफा मन यह प्रतीति एक चीज को बचा रखेगी, वह है मैं। उस मैं को बिना | में खयाल आता कि क्या सड़क पर बुहारी लगाना, यह कोई योग साधन के काटना असंभव है। उस मैं को साधन से काटना पड़ेगा। है? यह कोई साधन है? कई दफा आता बायजीद के पास, पूछने और योग की जो परम विधियां हैं, वे इस मैं को काटने की का मन होता। बायजीद कहता कि रुक, रुक। अभी पूछ मत। थोड़ा विधियां हैं, जिनसे यह मैं कटेगा। बहुत तरह की विधियां योग और बुहारी लगा। उपयोग करता है, जिनसे कि यह मैं काटा जाए। अलग-अलग बुहारी लगाते-लगाते एक महीना बीत गया, तब बायजीद एक तरह के व्यक्ति के लिए अलग-अलग विधि उपयोगी होती है, | दिन सड़क के किनारे से निकल रहा था। वह धनपति इतने आनंद जिससे यह मैं कट जाए। एक-दो घटनाएं मैं आपसे कहूं, तो | से बुहारी लगा रहा था कि जैसे प्रभु का गीत गा रहा हो। उसने खयाल में आ जाए। उसके कंधे पर हाथ रखा। उसने लौटकर भी नहीं देखा बायजीद सूफी फकीर हुआ बायजीद। बायजीद के पास, जिस राजधानी को। वह अपनी बुहारी लगाता रहा। बायजीद ने कहा, मेरे भाई, में वह ठहरा था, उस राजधानी का जो सबसे बड़ा धनपति था, नगर सुनो भी! उसने कहा, व्यर्थ मेरे भजन में बाधा मत डालो। बायजीद सेठ था, वह आया। उसने आकर लाखों रुपए बायजीद के चरणों | ने कहा, चल, अब बुहारी लगाने की कोई जरूरत न रही। बुहारी में डाल दिए और कहा बायजीद, मैं सब त्याग करना चाहता हूं। | लगाना भजन बन गया। एक साधन का उपयोग हुआ। स्वीकार करो! बायजीद ने कहा कि अगर तू त्याग को त्याग करना योग हजार विधियों का प्रयोग करता है। योग ने जब पहली दफा चाहे, तो मैं स्वीकार करता हूं। त्याग को स्वीकार नहीं करूंगा। | संन्यासियों को कहा कि तुम भिक्षा मांगो, तो उसका कारण सिर्फ त्याग को भी त्याग करना चाहे, तो स्वीकार करता हूं। उस आदमी साधन था। भिखारी बनाने के लिए नहीं था। बुद्ध खुद सड़क पर ने कहा, मजे की बात कर रहे हैं आप। धन तो त्यागा जा सकता है; भिक्षा मांगने जाते हैं। बुद्ध को भिक्षा मांगने की क्या जरूरत थी? त्याग को कैसे त्यागेंगे! त्याग क्या कोई चीज है? और जब बुद्ध के पास बड़े से बड़ा सम्राट भी दीक्षित होता है, तो बायजीद ने कहा, साधन का उपयोग करेंगे; त्याग को भी त्याग | वे कहते हैं, भिक्षा मांग। कई बार लोग कहते भी थे कि भिक्षा की करवा देंगे। उस आदमी ने कहा, करो साधन का उपयोग, लेकिन क्या जरूरत है, हमारे घर से इंतजाम हो जाएगा! बुद्ध कहते, जिस मेरी समझ में नहीं आता। यह त्याग तो है ही नहीं! समझिए कि एक | घर को छोड़ दिया, उससे इंतजाम लेगा, तो साधन न हो पाएगा। कमरे में मैं मौजूद हूं, तो मुझे बाहर निकाला जा सकता है। लेकिन उससे इंतजाम मत ले। तू तो सड़क पर भीख मांग। वह आदमी अगर मैं मौजूद नहीं हूं, तो मेरी गैर-मौजूदगी को कैसे बाहर कहता कि कई दफा लोग ऐसा हाथ का इशारा कर देते हैं, आगे निकाला जा सकेगा! . जाओ. तो बड़ा दख होता है। बद्ध कहते, जिस दिन दुख न हो, उस बायजीद ने कहा, प्यारे, जिसे तू गैर-मौजूदगी कह रहा है, वह | | दिन तेरी भिक्षा छुड़वा देंगे। साधन हो गया। गैर-मौजूदगी नहीं है। वह सिर्फ जो प्रकट अहंकार था, उसका इसलिए बुद्ध ने अपने संन्यासियों को भिक्खु कहा; भिक्षु, अप्रकट हो जाना है। तू टेबल-कुर्सी के नीचे छिप गया है; मांगने वाले। और अधिकतर बड़े परिवार के लोग थे बुद्ध के गैर-मौजूद नहीं है। हम निकालेंगे। साधन का उपयोग करेंगे। भिक्षुओं में, क्योंकि सम्राट वे खुद थे। उनके सारे संबंधी, उनके ___ उसने कहा, अच्छा भाई। मैं तो सोचता था कि सब धन सब मित्र, उनकी पत्नी के संबंधी, वे सब दीक्षित हुए थे। उन छोड़कर–अंतःकरण इस धन की वजह से अशुद्ध होता | | सबको भीख मंगवाई रास्तों पर। है-अशुद्धि के बाहर हो जाऊंगा। तुम कहते हो कि और! और | | बुद्ध जब खुद अपने गांव में आए और भीख मांगने निकले, तो क्या चाहते हो तुम? उनके पिता ने उनको जाकर रोका और कहा कि अब हद हुई जाती उस फकीर ने कहा कि तू कल से एक काम कर। रोज सुबह | है! क्या कमी है तेरे लिए? कम से कम इस गांव में तो भीख मत सड़क पर बुहारी लगा, कचरे को ढो। फिर जब जरूरत होगी, आगे | | मांग! मेरी इज्जत का तो कुछ खयाल कर। बुद्ध ने कहा, मैं अपनी साधन का उपयोग करेंगे। इज्जत तो गंवा चुका। तुम्हारी भी गंवा दूं, तो साधन हो जाए। इसे ह 305 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 कहां तक बचाए रखोगे? इसको छोड़ो ! बुद्ध के पिता ने फिर भी नहीं समझा। बुद्ध के पिता ने कहा कि नासमझ, तुझे पता नहीं है। उस बुद्ध को बुद्ध के पिता नासमझ कह रहे हैं, जिससे समझदार आदमी इस जमीन पर मुश्किल से कभी कोई होता है! लेकिन बाप का अहंकार बेटे को समझदार कैसे माने! लाखों लोग उसको समझदार मान रहे हैं। लाखों लोग उसके चरणों में सिर रख रहे हैं। लेकिन बुद्ध के बाप अकड़कर खड़े हैं। | बाप नहीं समझ पाए; पत्नी नहीं समझ पाई; पर बारह साल का राहुल भिक्षा पात्र लेकर भिक्षुओं में सम्मिलित हो गया। बहुत मां | ने बुलाया; बहुत पिता ने कहा कि बेटे, तू लौट आ । इस बात में मत पड़ । पर राहुल ने कहा, बात पूरी हो गई। मेरी दीक्षा हो गई। साधन का अर्थ है, वह जो सात्विक होने का भी अहंकार बच | रहेगा, उसे भी काटना पड़ता है। अगर कोई सिर्फ शुद्ध होने की कोशिश करे, सिर्फ नैतिक होने की, तो उसको साधन की जरूरत पड़ेगी। लेकिन अगर कोई योग के साथ शुद्ध होने की कोशिश करे, तो फिर साधन की जरूरत नहीं पड़ती, क्योंकि योग का साधन साथ ही साथ विकसित होता चला | जाता है। कहा, नासमझ, हमारे परिवार में, हमारी कुल-परंपरा में कभी किसी ने भीख नहीं मांगी। बुद्ध ने कहा, आपकी कुल परंपरा में न मांगी होगी। लेकिन जहां तक मैं याद करता हूं अपने पिछले जन्मों को, मैं सदा का भिखारी हूं। मैं सदा ही भीख मांगता रहा हूं। उसी भीख मांगने की वजह से तुम्हारे घर में पैदा हो गया था; और कोई कारण न था। मगर पुरानी आदत, मैंने फिर अपना भिक्षा पात्र उठा लिया। जब बुद्ध अपने घर पहली बार गए बारह वर्ष के बाद, तो उनकी पत्नी ने बहुत क्रोध से अपने बेटे को कहा कि मांग ले बुद्ध से ! ये तेरे पिता हैं। देख तेरे बेशर्म पिता को, ये सब छोड़कर भाग गए हैं। मुझे छोड़कर भाग गए हैं। ये मुझसे बिना पूछे भाग गए हैं। तू एक दिन का था, तब ये भाग गए हैं। ये तेरे पिता हैं, इनसे अपनी वसीयत मांग ले। गहरा व्यंग्य कर रही थी पत्नी । पत्नी को पता नहीं कि किससे व्यंग्य कर रही है। वह आदमी अब मौजूद ही नहीं है। शून्य में यह व्यंग्य खो जाएगा। लेकिन पत्नी को तो अभी भी पुराना पत्नी का भाव मौजूद था। उसे बुद्ध दिखाई नहीं पड़ रहे थे। वह जो सामने खड़ा था सूर्य की भांति, वह उसकी अंधी आंखों में नहीं दिखाई पड़ सकता था। राग अंधा कर देता है; सूर्य भी नहीं दिखाई पड़ता है । बुद्ध भी बुद्ध की पत्नी को नहीं दिखाई पड़ रहे हैं। पत्नी अपने बेटे से व्यंग्य करवा रही है कि मांग। हाथ फैला। बुद्ध से मांग ले कि संपत्ति क्या है ? मेरे लिए क्या छोड़े जा रहे हैं ? गहरा व्यंग्य था । बुद्ध के पास तो कुछ भी न था । लेकिन उसे पता नहीं। बुद्ध के बेटे ने, राहुल ने, हाथ फैला दिए। बुद्ध ने अपना भिक्षा पात्र उसके हाथ में रख दिया, और कहा, मैं तुझे भिक्षा मांगने की वसीयत देता हूं, तू भिक्षा मांग। पत्नी रोने-चिल्लाने लगी कि आप यह क्या करते हैं? बाप घबड़ा गए और कहा कि तू गया, अब घर का एक ही दीया बचा, उसे भी बुझाए देता है! बुद्ध ने कहा, मैं इसी के लिए आया हूं इतनी दूर। इसकी संभावनाओं का मुझे पता है। इसकी पिछली यात्राओं | का मुझे अनुभव है। तुम इसे जानते हो कि छोटा-सा बच्चा है, मैं नहीं जानता। मैं जानता हूं कि इसकी अपनी यात्रा है, जो काफी आगे निकल गई है। जरा-सी चोट की जरूरत है। 306 . आज इतना ही। फिर शेष हम सांझ बात करेंगे। अब थोड़ी देर साधन में प्रवेश करें। कीर्तन भी एक साधन है। कर पाते हैं, उनके भीतर का | अहंकार गिरेगा, टूटेगा । और आप नहीं कर पाते हैं, तो और कोई | कारण नहीं; वह अहंकार भीतर बैठा है। वह कहता है, मैं पढ़ा-लिखा आदमी, युनिवर्सिटी से शिक्षित हूं, बड़ी नौकरी पर हूं, मैं ताली बजाऊं, मैं नाचूं ! यह ग्रामीणों जैसा काम, मैं करूं! वह बैठा है, साधन से टूटेगा। नहीं तो वह बड़ा होता जाएगा। सम्मिलित हों कीर्तन में। जब सारे संन्यासी नाच रहे हैं, गीत गा रहे हैं, तब उनके साथ जुड़ें; आनंदित हों; सम्मिलित हों; गीत | दोहराएं। Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 6 इक्कीसवां प्रवचन श्रद्धावान योगी श्रेष्ठ है Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 - तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः। दमन करता हुआ मालूम पड़ता है। लड़ता है शरीर से, क्योंकि ऐसा कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ।। ४६।। उसे प्रतीत होता है कि सब वासनाएं शरीर में हैं। अगर स्त्री को योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, शास्त्र के ज्ञान वालों से भी देखकर मन मोहित होता है, तो तपस्वी आंख फोड़ लेता है। सोचता श्रेष्ठ माना गया है, तथा सकाम कर्म करने वालों से भी | है कि शायद आंख में वासना है। और अगर कोई आदमी अपनी योगी श्रेष्ठ है, इससे हे अर्जुन, तू योगी हो । आंख फोड़ ले, तो हमें भी लगेगा कि ब्रह्मचर्य की बड़ी साधना में लीन है। पर आंखों के फूटने से वासना नहीं फूटती है। आंखों के चले न पस्वियों से भी श्रेष्ठ है, शास्त्र के ज्ञाताओं से भी श्रेष्ठ जाने से वासना नहीं जाती है। अंधे की भी कामवासना उतनी ही 1 है, सकाम कर्म करने वालों से भी श्रेष्ठ है, ऐसा योगी होती है. जितनी गैर-अंधे की होती है। अगर अंधों के पास अर्जुन बने, ऐसा कृष्ण का आदेश है। तीन से श्रेष्ठ कामवासना न होती, तो अंधे सौभाग्यशाली थे; पुण्य का फल था कहा है और चौथा बनने का आदेश दिया है। तीनों बातों को उन्हें। जन्मांध जो है, उसकी भी कामवासना होती है; तो आंख फोड़ थोड़ा-थोड़ा देख लेना जरूरी है। लेने से कोई कैसे कामवासना से मुक्त हो जाएगा? तपस्वियों से श्रेष्ठ कहा योगी को। साधारणतः कठिनाई मालूम लेकिन योगी? योगी आंख नहीं फोड़ता। आंख के पीछे वह जो पड़ेगी। तपस्वी से योगी श्रेष्ठ? दिखाई तो ऐसा ही पड़ता है | | ध्यान देने वाली शक्ति है, उसे आंख से हटा लेता है। साधारणतः कि तपस्वी श्रेष्ठ मालूम पड़ता है, क्योंकि तपश्चर्या रास्ते पर गुजरती है एक स्त्री, और मेरी आंखें उससे बंधकर रह प्रकट चीज है और योग अप्रकट। तपश्चर्या दिखाई पड़ती है और जाती हैं। अब दो रास्ते हैं। या तो मैं आंख फोड़ लूं; आंख फोड़ योग दिखाई नहीं पड़ता है। योग है अंतधिना, और तपश्चर्या है | | लूं, तो आप सबको दिखाई पड़ेगा कि आंख फोड़ ली गई। या मैं बहिधिना। | आंख मोड़ लं; तो भी दिखाई पड़ेगा कि आंख मोड़ ली गई। या में अगर कोई व्यक्ति धूप में खड़ा है घनी, भूखा खड़ा है, प्यासा | | भाग खड़ा होऊ और कहूं कि दर्शन न करूंगा, देखूगा नहीं, तो भी खड़ा है, उपवासा खड़ा है, शरीर को गलाता है, शरीर को सताता आपको दिखाई पड़ जाएगा। लेकिन मेरी आंख के पीछे जो ध्यान है-सबको दिखाई पड़ता है। क्योंकि तपस्वी मूलतः शरीर से बंधा की ऊर्जा है, अगर मैं उसे आंख से हटा लूं, तो दुनिया में किसी को हुआ है। जैसे भोगी शरीर से बंधा होता है; दिखाई पड़ता है उसका नहीं दिखाई पड़ेगा, सिर्फ मुझे ही दिखाई पड़ेगा। इत्र-फलेल; दिखाई पड़ता है उसके शरीरों की सजावट; दिखाई योग अंतर-रूपांतरण है। पड़ते हैं गहने; दिखाई पड़ते हैं महल; दिखाई पड़ता है शरीर का भोगी भोजन खाए चला जाता है; जितना उसका वश है, भोजन सारा का सारा शृंगार। ऐसे ही तपस्वी का भी सारा का सारा किए चला जाता है। त्यागी भोजन छोड़ता चला जाता है। लेकिन शरीर-विरोध प्रकट दिखाई पड़ता है। लेकिन ओरिएंटेशन एक ही | योगी क्या करता है? योगी न तो भोजन किए चला जाता है, न है; दोनों का केंद्र एक ही है—भोगी का भी शरीर है और तथाकथित | भोजन का त्याग करता है; योगी रस का त्याग कर देता है, स्वाद तपस्वी का भी शरीर है। का त्याग कर देता है। जितना जरूरी भोजन है, कर लेता है। जब हम चूंकि सभी शरीरवादी हैं, इसलिए भोगी भी हमें दिखाई पड़ | जरूरी है, कर लेता है। जो आवश्यक है, कर लेता है। लेकिन जाता है और त्यागी भी दिखाई पड़ जाता है। योगी को पहचानना स्वाद की वह जो लिप्सा है, वह जो विक्षिप्तता है, जो सोचती रहती मुश्किल है, क्योंकि योगी शरीर से शुरू नहीं करता। योगी शुरू है दिन-रात, भोजन, भोजन, भोजन, उसे छोड़ देता है। करता है अंतस से। | लेकिन यह दिखाई न पड़ेगा। यह तो योगी ही जानेगा. या जो योगी की यात्रा भीतरी है, और योगी की यात्रा वैज्ञानिक है। बहुत निकट होंगे, वे धीरे-धीरे पहचान पाएंगे—योगी कैसे उठता, वैज्ञानिक इस अर्थों में है कि योगी साधनों का प्रयोग करता है, | कैसे बैठता, कैसी भाषा बोलता। लेकिन बहुत मुश्किल से पहचान जिनसे अंतस चित्त को रूपांतरित किया जा सके। में आएगा। त्यागी केवल शरीर से लड़ता है शत्रु की भांति। तपस्वी केवल | | तपस्वी दिखाई पड़ जाएगा, क्योंकि तपस्वी का सारा प्रयोग 308 Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < श्रद्धावान योगी श्रेष्ठ है - योग है। शरीर पर है। योगी का सारा प्रयोग अंतसचेतना पर है। क्योंकि ध्यान पारे की तरह हाथ से छिटक-छिटक जाता है। पकड़ा तप दिखाई पड़ने से क्या प्रयोजन है? तपस्वी को बाजार में खड़ा नहीं, कि छूट जाता है। पकड़ भी नहीं पाए, कि छूट जाता है। एक होने की जरूरत ही क्या है? यह प्रश्न तो अपना और परमात्मा के | क्षण भी नहीं रुकता एक जगह। इस ध्यान को एक जगह ठहरा लेना बीच है; यह मेरे और आपके बीच नहीं है। आप मेरे संबंध में क्या कहते हैं, यह सवाल नहीं है। मैं आपके संबंध में क्या कहता हूं, तपस्वी दिखाई पड़ता है; बहुत गहरी बात नहीं है। इसका यह यह सवाल नहीं है। मेरे संबंध में परमात्मा क्या कहता है, वह मतलब नहीं है कि जो आदमी योग को उपलब्ध हो, उसके जीवन सवाल है। मेरे संबंध में मैं क्या जानता हूं, वह सवाल है। में तपश्चर्या न होगी। जो आदमी योग को उपलब्ध हो, उसके योगी की समस्त साधना, अंतधिना है। जीवन में तपश्चर्या होगी। लेकिन जो आदमी तपश्चर्या कर रहा है, इसलिए कृष्ण कहते हैं, तपस्वी से महान है योगी, अर्जुन। ऐसा उसके जीवन में योग होगा, यह जरा कठिन मामला है। इसको कहने की जरूरत पड़ी होगी, क्योंकि तपस्वी सदा ही महान दिखाई | खयाल में ले लें। पड़ता है। जो आदमी रास्तों पर कांटे बिछाकर उन पर लेट जाए, | जो आदमी योग करता है, उसके जीवन में एक तरह की वह स्वभावतः महान दिखाई पड़ेगा उस आदमी से, जो अपनी | आस्टेरिटी, एक तरह की तपश्चर्या आ जाती है। वह तपश्चर्या भी आरामकुर्सी में लेटकर ध्यान करता हो। महान दिखाई पड़ेगा। | सूक्ष्म होती है। वह तपश्चर्या बड़ी सूक्ष्म होती है। वह आदमी एक आरामकुर्सी में बैठना कौन-सी महानता है ? गहरे अर्थों में सरल हो जाता है। वह आदमी गहरे अर्थों में दुख को लेकिन मैं आपसे कहता हूं, कांटों पर लेटना बड़ी साधारण | | झेलने के लिए सदा तत्पर हो जाता है। वह आदमी सुख की मांग सर्कस की बात है, बड़ा काम नहीं है। कांटों पर, कोई भी थोड़ा-सा नहीं करता। उस आदमी पर दुख आ जाएं, तो वह चुपचाप उनको अभ्यास करे, तो लेट जाएगा। और अगर आपको लेटना हो, तो । | संतोष से वहन करता है। उसके जीवन में तपश्चर्या होती है। लेकिन थोड़ी-सी बात समझने की जरूरत है, ज्यादा नहीं! | तपश्चर्या कल्टिवेटेड नहीं होती. इतना फर्क होता है। आदमी की पीठ पर ऐसे बिंदु हैं, जिनमें पीड़ा नहीं होती। अगर दुख आ जाए, तो योगी दुख को ऐसे झेलता है, जैसे वह दुख न आपकी पीठ पर कोई कांटा चुभाए, तो कई, पच्चीस जगह ऐसी हो। सुख आ जाए, तो ऐसे झेलता है, जैसे वह सुख न हो। योगी निकल आएंगी, जब आपको कांटा चुभेगा, और आप न बता | सुख और दुख में सम होता है। सकेंगे कि कांटा चुभ रहा है। आपकी पीठ पर पच्चीस-तीस तपस्वी? तपस्वी दुख आ जाए, इसकी प्रतीक्षा नहीं करता; अपनी ब्लाइंड स्पाट्स हैं, हरेक आदमी की पीठ पर। आप घर जाकर बच्चे | तरफ से दुख का इंतजाम करता है, आयोजन करता है। अगर एक से कहना कि जरा पीठ में कांटा चुभाओ! आपको पता चल जाएगा दिन भूख लगी हो और खाना न मिले, तो योगी विक्षुब्ध नहीं हो · कि आपकी पीठ पर ब्लाइंड स्पाट्स हैं, जहां कांटा चुभेगा, लेकिन जाता; भूख को शांति से देखता है; सम रहता है। लेकिन तपस्वी? आपको पता नहीं चलेगा। बस, उन्हीं ब्लाइंड स्पाट्स का थोड़ा-सा तपस्वी को भूख भी लगी हो, भोजन भी मौजूद हो, शरीर की जरूरत अभ्यास करना पड़ता है। व्यवस्थित कांटे रखने पड़ते हैं, जो भी हो, भोजन भी मिलता हो, तो भी रोककर, हठ बांधकर बैठ जाता ब्लाइंड स्पाट्स में लग जाएं। फिर पीठ पर लेटे हुए आदमी को है कि भोजन नहीं करूंगा। यह आयोजित दुख है। कांटे का पता नहीं चलता है। यह तो फिजियोलाजी की सीधी-सी ___ ध्यान रहे, भोगी सुख की आयोजना करता है, तपस्वी दुख की ट्रिक है, इसमें कुछ मामला नहीं है। | आयोजना करता है। अगर भोगी सिर सीधा करके खड़ा है, तो लेकिन कांटे पर कोई आदमी लेटा हो, तो चमत्कार हो जाएगा, | | तपस्वी शीर्षासन लगाकर खड़ा हो जाता है। लेकिन दोनों आयोजन भीड़ इकट्ठी हो जाएगी। लेकिन कोई आदमी अगर आरामकुर्सी पर करते हैं। बैठकर ध्यान को शांत कर रहा हो, तो कोई भीड़ इकट्ठी नहीं होगी, | योगी आयोजन नहीं करता। वह कहता है, प्रभु जो देता है, उसे किसी को पता भी नहीं चलेगा। यद्यपि ध्यान को एकाग्र करना | | सम भाव से मैं लेता हूं। वह आयोजन नहीं करता। वह अपनी तरफ कांटों पर लेटने से बहुत कठिन काम है। ध्यान को एकाग्र करना से न सुख का आयोजन करता, न दुख का आयोजन करता। जो कांटों पर लेटने से बहुत कठिन काम है, अति कठिन काम है। मिल जाता है, उस मिल गए में शांति से ऐसे गुजर जाता है, जैसे 309 Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ← गीता दर्शन भाग - 3 > कोई नदी से गुजरे और पानी न छुए। ऐसे गुजर जाता है, जैसे कमल के पत्ते हों पानी पर खिले; ठीक पानी पर खिले, और पानी उनका स्पर्श न करता हो। लेकिन आयोजन नहीं है। ध्यान रहे, किसी भी चीज का आयोजन करके मन को राजी किया जा सकता है – किसी भी चीज का आयोजन करके । दुख का आयोजन करके भी दुख में सुख लिया जा सकता है। वैज्ञानिक जानते हैं, मनोवैज्ञानिक जानते हैं उन लोगों को, जिनका नाम मैसोचिस्ट है। दुनिया में एक बहुत बड़ा वर्ग है ऐसे लोगों का, जो अपने को सताने में मजा लेते हैं। दूसरे को सताने में सभी मजा लेते हैं; करीब-करीब सभी। कुछ लोग हैं, जो अपने को सताने में भी मजा लेते हैं। आप कहेंगे, ऐसा तो आदमी नहीं होगा, जो अपने को सताने में मजा लेता हो! मनोवैज्ञानिक कहते हैं, ऐसा आदमी बढ़ी प्रगाढ़ मात्रा में है, जो अपने को सताने में मजा लेता है। अगर उसको खुद को सताने का मौका न मिले, तो वह मौका खोजता है। वह ऐसी तरकीबें ईजाद करता है कि दुख आ जाए। जहां वह छाया में बैठ सकता था, वहां धूप में बैठता है। जहां उसे खाना मिल सकता है, वहां भूखा रह जाता है। जहां सो सकता था, वहां जगता है। जहां सपाट रास्ता था, वहां न चलकर कांटे-कबाड़ में चलता है! क्यों? क्योंकि खुद को दुख देने से भी अहंकार की बड़ी तृप्ति होती है। खुद को दुख देकर भी पता चलता है कि मैं कुछ हूं। तुम कुछ भी नहीं हो मेरे सामने ! मैं दुख झेल सकता हूं। यह जो स्वयं को दुख देने की वृत्ति है, यह दूसरे को दुख देने की वृत्ति का ही उलटा रूप है। चाहे दूसरे को दुख दें, चाहे अपने को दुख दें, असली रस दुख देने में है । इसलिए कृष्ण कहते हैं, तपस्वी से योगी बहुत ऊपर है। क्योंकि तपस्वी स्वयं को दुख देने की प्रक्रिया में लगा रहता है। मनोविज्ञान की भाषा में वह मैसोचिस्ट है। मैसोच नाम का एक लेखक हुआ, जो अपने को ही कोड़े न मार ले, तब तक उसको नींद न आती थी। बिस्तर में कांटे न डाल ले, तब तक उसको नींद न आए। भोजन में जब तक थोड़ी-सी नीम न मिला ले, तब तक उससे भोजन न किया जाए। अगर हमारे मुल्क में मैसोच पैदा हुआ होता, तो हम कहते, बड़ा महात्मा है ! गांधीजी को भी नीम की चटनी भोजन के साथ खाने की आदत थी। जो भी लोग देखते थे, कहते थे, बड़ी ऊंची बात है! स्वभावतः । लुई फिशर गांधीजी को मिलने आया, तो उन्होंने लुई फिशर की भी थाली में एक बड़ी मोटी पिंडी नीम की चटनी की रखवा दी। जो भी मेहमान आता था, उसको खिलाते थे, क्योंकि खुद खाते थे। जो आदमी अपने को दुख देना सीख जाता है, वह दूसरे को भी दुख | देने की चेष्टाएं करता है। लुई फिशर ने देखा कि क्या है ! और गांधीजी इतने रस से खा रहे हैं! तो उसने भी चखकर देखा, तो सब मुंह जहर हो गया। उसने | सोचा कि बड़ा मुश्किल हो गया। उसके साथ रोटी लगाकर खानी, मतलब रोटी भी खराब हो जाए; सब्जी मिलाकर खाओ, सब्जी भी खराब हो जाए ! पर उसने सोचा कि न खाएंगे, तो गांधीजी क्या सोचेंगे, कि मैंने इतने प्रेम से चटनी दी और न खाई। भला आदमी। उसने सोचा, इसको इकट्ठा ही गटक जाना बेहतर है सब भोजन खराब करने की बजाय । और अशुभ भी मालूम न पड़े, अशिष्टाचार भी मालूम न पड़े, इसलिए इसे एकदम एक दफा में | गटक लेना अच्छा है। फिर पूरा भोजन तो खराब न हो। तो वह पूरी | की पूरी चटनी गटक गया। गांधीजी ने रसोइए को कहां कि देखो, चटनी कितनी पसंद आई ! और ले आओ ! लुई फिशर पर जो गुजरी होगी, वह हम समझ सकते हैं। गांधीजी के आश्रम में एक सज्जन थे, अभी भी हैं, प्रोफेसर भंसाली। अभी उनका जन्मदिन मनाया गया। महा संत की तरह, गांधीजी के मानने वाले, भंसाली को मानते हैं। पक्के तपस्वी हैं। छः महीने तक गाय का गोबर खाकर ही रहे। तपस्वी पक्के हैं, इसमें | कोई शक - शुबहा नहीं ! लेकिन मैसोचिस्ट हैं। इलाज होना चाहिए दिमाग का । पागलखाने में कहीं न कहीं इलाज होना चाहिए। गाय का गोबर खाना! ऐसे तो मौज है आदमी की जो उसे खाना हो, खाए। लेकिन यह तपश्चर्या बन जाती है। आस-पास के लोग कहते हैं, क्या महान तपस्वी गाय का गोबर खाकर जीता है ! हम तो नहीं जी सकते। नहीं जी सकते, तो फिर हम कुछ भी नहीं हैं; यह बहुत महान है। यह मैसोचिज्म है। आज मनोविज्ञान जिसको पहचानता है कि खुद को सताने की वृत्ति बीमार है, रुग्ण है। यह स्वस्थ चित्त का लक्षण नहीं है। कृष्ण हजारों साल पहले पहचानते थे । वे अर्जुन से, जो आज का मनोविज्ञान कह रहा है, वह कह रहे हैं कि तपस्वी से ऊंचा है योगी । 310 क्यों? क्योंकि तपस्वी तो सिर्फ, जिसको हम कहें, ऊपरी तरकीबों और ऊपरी व्यर्थ की बातों में, और अपने को कष्ट देकर रस लेता है। और चूंकि कोई आदमी खुद को कष्ट देकर रस लेता है, बाकी लोग भी उसको आदर देते हैं। क्यों आदर देते हैं? अगर Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धावान योगी श्रेष्ठ है एक आदमी सड़क पर खड़े होकर अपने को कोड़े मार रहा है, तो आपको आदर देने का क्या कारण है? अगर मनसविद से पूछेंगे, गहरा जो गया है आदमी के मन में, उससे पूछेंगे, तो वे कहेंगे, इसका कारण है कि आप सैडिस्ट हैं, वह मैसोचिस्ट है। वह अपने को सताने में मजा ले रहा है, और आप दूसरे को सताने में मजा ले रहे हैं। आपने चाहा होता कि किसी को कोड़े मारें; उस तकलीफ से भी आपको बचा दिया। वह खुद ही कोड़े मार रहा है । आप भीड़ लगाकर देख रहे हैं, और चित्त प्रसन्न हो रहा है। आप दुष्ट प्रकृति के हैं, इसलिए आप उसमें रस रहे हैं। अब एक आदमी गोबर खा रहा है। जो दुष्ट प्रकृति के लोग हैं, कहे रहे हैं, महात्मा ! आप बड़ा महान कार्य कर रहे हैं। उनका वश चले, तो दूसरों को भी गोबर खिला दें। ये अपने हाथ से खाने को राजी हैं, तो उसके चरणों में सिर रखकर कह रहे हैं कि तुम बड़े अदभुत आदमी हो। और जब अहंकार को इस तरह तृप्ति दी जाए, तो वह जो स्वयं को दुख देना वाला आदमी है, वह और दुख देने लगता है। फिर यह विशियस सर्किल है; इसका कोई अंत नहीं है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, योगी श्रेष्ठ है तपस्वी से। फिर कहते हैं कि शास्त्र को जो जानता है, उससे योगी श्रेष्ठ है। क्योंकि शास्त्र को जानने से सिवाय शब्दों के और क्या मिल सकता है! सत्य तो नहीं मिल सकता; शब्द ही मिल सकते हैं, सिद्धांत मिल सकते हैं, फिलासफी मिल सकती है। और सारे सिद्धांत सिर में घुस जाएंगे और मक्खियों की तरह गूंजने लगेंगे, लेकिन कोई अनुभूति उससे नहीं मिलेगी । हजार शास्त्रों को निचोड़कर कोई पी जाए, तो भी रत्तीभर, बूंदभर अनुभव उससे पैदा नहीं होगा। कृष्ण इतनी हिम्मत की बात कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, योगी श्रेष्ठ शास्त्र को जानने वाले से। क्यों? योगी श्रेष्ठ क्यों है? ऐसा योगी भी श्रेष्ठ है, जो शास्त्र को बिलकुल न जानता हो, तो भी श्रेष्ठ है। योग ही श्रेष्ठ है। कबीर बिलकुल नहीं जानता शास्त्र को। अगर कोई उससे पूछे, तो वह कहता है कि कागज में क्या लिखा है, हमें कुछ पता नहीं । हम तो वही जानते हैं, जो आंखन देखी है। आंख से जो देखा है, वही जानते हैं। कागज में क्या लिखा है, वह हमें पता नहीं। हम बेपढ़े-लिखे गंवार हैं। हमें कुछ पता नहीं कि कागज में क्या-क्या लिखा है। तुम्हारे वेद, तुम्हारे शास्त्र, तुम्हारे आगम, तुम्हारे पुराण, तुम सम्हालो। हम तो उसकी खबर देते हैं, जो हमने आंख से देखा है। मैं तो कहता आंखन देखी, कबीर कहते हैं, तू कहता है कागद लेखी। किसी पंडित से कह रहे होंगे, तू कहता है कागज की लिखी हुई, और मैं कहता हूं, आंख की देखी हुई। शास्त्र - ज्ञान में और योगी में यही फर्क है। शास्त्र - ज्ञान का | मतलब है, कागज में जो लिखा है, जान लिया। उसे जान लेने से जानने का भ्रम पैदा होता है, ज्ञान पैदा नहीं होता। ज्ञान तो पैदा होता है, स्वयं के दर्शन से। और दर्शन की विधि योग है। शुद्धतम चेतना शुद्ध होते-होते न्यू डायमेंशंस आफ परसेप्शन, दर्शन के नए आयाम को उपलब्ध होती है, जहां दर्शन होता है, जहां साक्षात्कार होता है, जहां हम देख पाते हैं, जहां हम जान पाते हैं। शास्त्र- ज्ञान प्रमाण बन सकता है, सत्य नहीं। शास्त्र - ज्ञान विटनेस हो सकता है, साक्षी हो सकता है, ज्ञान नहीं। जिस दिन कोई जान लेता है, उस दिन अगर गीता को पढ़े, तो वह कह सकता है कि ठीक। गीता वही कह रही है, जो मैंने जाना। वेद को पढ़े, तो कहेगा, ठीक। कुरान को पढ़े, तो कहेगा, ठीक। कुरान वही कहता है, जो मैंने जाना । 311 और ध्यान रहे, जो हम नहीं जानते, उसे हम कभी भी गीता में न पढ़ पाएंगे। हम वही पढ़ सकते हैं, जो हम जानते हैं। इसलिए गीता जब आप पढ़ते हैं, तो उसका अर्थ दूसरा होता है। जब आपका पड़ोसी पढ़ता है, अर्थ दूसरा होता है। जब और दूसरा | पढ़ता है, तो अर्थ दूसरा होता है। जितने लोग पढ़ते हैं, उतने अर्थ होते हैं। होंगे ही, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति वही पढ़ सकता है, जो उसकी क्षमता है। हम जब कुछ समझते हैं, तो वह व्याख्या है, वह हमारी व्याख्या है। और शब्दों से बड़ी भ्रांतियां पैदा हो जाती हैं। कोई कुछ समझता | है, कोई कुछ समझता है। एक ही शब्द से हजार अर्थ निकलते हैं। अभी मैं विनोद भट्ट की एक कथा पढ़ रहा था चार-छः दिन पहले। पढ़ रहा था कि एक गांव के नेता बहुत मुश्किल में पड़ गए, क्योंकि कोई नया आंदोलन पकड़ में नहीं आ रहा था। और नेता का तो धंधा मर जाए, सीजन मर जाए, अगर कोई नया आंदोलन हाथ में न आए। फिर उन्होंने बहुत सोचा, फिर माथापच्ची की और उनको खयाल आया कि पहले भूमिदान आंदोलन चला, तो वह सफल नहीं हुआ। फिर भूमि - छीनो आंदोलन चला, वह भी सफल नहीं हुआ। हम पत्नी - छीनो आंदोलन क्यों न चलाएं! जिसके पास दो पत्नियां हैं, उसकी एक छीनकर उसको दे दी जाए, जिसके पास Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 एक भी नहीं है। में सत्य का उदघाटन होता है। सत्य का अनुभव न हो और अज्ञानी पूरा गांव राजी हो गया। कई लोगों के पास पत्नियां नहीं थीं। | के हाथ में गीता हो, तो सिवाय अज्ञान के गीता में से कोई अर्थ नहीं लोगों ने कहा, यह तो बिलकुल समाजवादी प्रोग्राम है; यह तत्काल | निकलता; निकल सकता नहीं। पूरा होना चाहिए। और गांव में कई लोग थे, जिनके पास दो-दो शास्त्र-ज्ञान दूसरी कोटि का ज्ञान है। प्रथम कोटि का ज्ञान तो पत्नियां थीं। गांव का जमींदार था, जिसके पास दो पत्नियां थीं। अनुभव है, स्वानुभव है। पहली कोटि का ज्ञान हो, तो शास्त्र बड़े सबकी नजरें उन पत्नियों पर थीं। उन्होंने कहा, कुछ न हो, हमको | चमकदार हैं। और पहली कोटि का ज्ञान न हो, तो शास्त्र बिलकुल न भी मिली तो कोई हर्जा नहीं; जमींदार की तो छूट जाएगी। कोई रद्दी की टोकरी में, उनका कोई मूल्य नहीं है। ' फिक्र नहीं; आंदोलन चले। गीता पढ़ने अगर योगी जाएगा, तो गीता में सागर है अमृत का। ___ आंदोलन चल पड़ा। जमींदार गांव के बाहर गया था। वह एक और गीता पढ़ने अगर बिना योग के कोई जाएगा, तो सिवाय शब्दों पत्नी को उठाकर आंदोलनकारी ले गए। के और कुछ भी नहीं है। कोरे खाली शब्द हैं, ऐसे जैसे कि चली ___ चल रहा है जुलूस। नारे लग रहे हैं। जमींदार भागा हुआ आया! हुई कारतूस होती है। चली हुई कारतूस! कितना ही चलाओ, कुछ नेता का पैर पकड़ लिया, और कहा कि बड़ा अन्याय कर रहे हो | नहीं चलता। उठा लो सूत्र श्लोक एक गीता का, कर लो कंठस्थ! मेरे ऊपर। नेता ने कहा, अन्याय कुछ भी नहीं। अन्याय तुमने किया खाली कारतूस लिए घूम रहे हो; कुछ होगा नहीं। प्राण तो अपने ही है। दो-दो पत्नियां रखे हो. जब कि गांव में कई लोगों के पास एक अनुभव से आते हैं। भी पत्नी नहीं है, आधी भी पत्नी नहीं है। दो-दो रखे हुए हो तुम? और कृष्ण खुद कहते हैं अर्जुन को, शास्त्र-ज्ञान भी नहीं है उतना यह नहीं चलेगा। उसने कहा कि नहीं, आप समझ नहीं रहे हैं, बहुत | श्रेष्ठ। शास्त्र-ज्ञान से भी ज्यादा श्रेष्ठ है योग। अन्याय कर रहे हैं मेरे ऊपर। हाथ-पैर जोड़ता हूं। मुझ पर थोड़ा और तीसरी बात कहते हैं, सकाम कर्मों से-किसी आशा से ध्यान धरो। मेरा थोड़ा खयाल करो। रोने लगा, गिड़गिड़ाने लगा। की गई कोई भी प्रार्थना, कोई भी पूजा, कोई भी यज्ञ—उससे योग और फिर इस भीड़ में, जब पत्नी को उठाकर लाए थे, तब तक श्रेष्ठ है। क्यों? क्योंकि योग की साधना का आधारभूत नियम, तो सोचा था कि दो पत्नियां हैं जमींदार के पास। जब लाए तो इस | | उसकी पहली कंडीशन यह है कि तुम निष्काम हो जाओ। आशा बीच में देखा कि साधारण सी औरत है; नाहक परेशान हो रहे हैं। छोड़ दो, अपेक्षा छोड़ दो, फल की आकांक्षा छोड़ दो, तभी योग फिर जब वह इतना गिड़गिड़ाने लगा, तो नेताओं ने कहा कि झंझट में प्रवेश है। भी छुड़ाओ। इस स्त्री को कोई लेने को भी राजी न होगा। । तब यज्ञ तो बहुत छोटी-सी बात हो गई, सांसारिक बात हो गई। तो कहा, अच्छा तू नहीं मानता है, तो ले जा अपनी पत्नी को; | | किसी के घर में बच्चा नहीं हो रहा है, किसी के घर में धन नहीं बरस हम छोड़े देते हैं। रहा है, किसी को पद नहीं मिल रहा है, किसी को कुछ नहीं हो रहा जमींदार बोला कि आप बिलकुल गलत समझ रहे हैं। मेरा | है, तो यज्ञ कर रहा है, हवन कर रहा है। मतलब यह नहीं कि इसको लौटा दो। मेरा मतलब, दूसरी को क्यों वासना और कामना से संयोजित जो भी आयोजन हैं, योग उनसे छोड़ आए? बड़ा अन्याय कर रहे हैं। उसको भी ले जाओ। बहुत श्रेष्ठ है। क्योंकि योग की पहली शर्त है, निष्काम हो जाओ। __ अब जब उसने कहा कि बड़ा अन्याय कर रहे हैं, तो बहुत कठिन | | इसलिए कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, तू योगी बन। तू योग को था कि नेता समझ पाता कि यह कह रहा है कि दसरी को भी ले | उपलब्ध हो। योग से कुछ भी नीचे, इंचभर नीचे न चलेगा। और जाओ। मुश्किल था मामला। वह यही समझा स्वभावतः, कि इस | उन्होंने अब तक योग की ही शिलाएं रखीं, आधारशिलाएं रखीं। पत्नी को छोड़ दो। योग की ही सीढ़ियां बनाईं। और अब वे अर्जुन से कहते हैं कि योग शब्द का अपने आप में अर्थ नहीं है। शब्द की व्याख्या निर्मित | की यात्रा पर निकल अर्जुन। तेरा मन चाहेगा कि सकाम कोई भक्ति होती है। जब गीता में से कुछ आप पढ़ते हैं, तो आप यह मत | | में लग जा, युद्ध जीत जाए, राज्य मिल जाए। लेकिन मैं कहता हूं समझना कि कृष्ण जो कहते हैं, वह आप समझते हैं। आप वही | कि सकाम होना धर्म की दिशा में सम्यक यात्रा-पथ नहीं है। तेरा समझते हैं, जो आप समझ सकते हैं। सत्य का अनुभव हो, तो गीता | मन करेगा कि योग के इतने उपद्रव में हम क्यों पड़ें। शास्त्र पढ़ 312 Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < श्रद्धावान योगी श्रेष्ठ है - लेंगे, सत्य उसमें मिल जाएगा। सरल, शार्टकट; कोई चेष्टा नहीं, की महत्ता थी। कोई मेहनत नहीं। एक किताब खरीद लाते हैं। किताब को पढ़ लेते | लेकिन तपस्वियों ने योगियों की महत्ता को बुरी तरह नीचे हैं। भाषा ही जाननी काफी है। सत्य मिल जाएगा। तेरा मन तुझे | | गिराया, क्योंकि योग तो दिखाई नहीं पड़ता था। तपस्वियों ने कहना कहेगा, शास्त्र पढ़ लो, सत्य मिल जाएगा। कहां जाते हो योग की शुरू किया कि ये ब्राह्मण? ये कहते तो हैं कि हम गुरुकुल में रहते साधना को? पर तू सावधान रहना। शास्त्र से शब्द के अलावा कुछ | हैं, लेकिन इनके पास हजार-हजार गाएं हैं, दस-दस हजार गाएं भी न मिलेगा। असली शास्त्र तो तभी मिलेगा, जब सत्य तुझे मिल हैं। इनके पास दूध-घी की नदियां बहती हैं। इनके पास सम्राट चुका है। उसके पूर्व नहीं, उससे अन्यथा नहीं। और तेरा मन शायद चरणों में सिर रखते हैं, हीरे-जवाहरात भेंट करते हैं। यह कैसा करने लगे...। योग? यह तो भोग चल रहा है! जानकर अर्जुन से ऐसा कहा है। क्योंकि अर्जुन कह रहा है कि और बड़े आश्चर्य की बात है कि जिन गुरुकुलों में, जिन दूसरों को मैं क्यों मारूं? दूसरे मर जाएंगे, तो बहुत दुख होगा जगत | वानप्रस्थ आश्रमों में ब्राह्मणों के पास आती थी संपत्ति, निश्चित ही में। इससे बेहतर है, मैं अपने को ही क्यों न सता लूँ! छोड़ दूं राज्य, | आती थी, लेकिन उस संपत्ति के कारण उनका योग नहीं चल रहा भाग जाऊं जंगल, बैठ जाऊं झाड़ के नीचे। था, ऐसी कोई बात न थी। बल्कि सच तो यह है कि वह संपत्ति __ अर्जुन ऐसे सैडिस्ट है। क्षत्रिय जिसको भी होना हो, उसे दूसरे इसीलिए आती थी कि जिनको भी उनमें योग की गंध मिलती थी, को सताने की वृत्ति में निष्णात होना चाहिए, नहीं तो क्षत्रिय नहीं हो वे उनकी सेवा के लिए तत्पर हो जाते थे। लेकिन भीतर महायोग सकता। क्षत्रिय जिसे होना हो, उसे दूसरे को सताने की वृत्ति में चल रहा था। सामर्थ्य होनी चाहिए। तो क्षत्रिय तो दूसरे को सताएगा ही। पर अगर ___ पर तपस्वियों ने कहा, यह कोई योग है? ये कैसे ऋषि? नहीं; क्षत्रिय दूसरे को सताने से किसी कारण से भी बेचैन हो जाए, तो ये नहीं। धूप में खड़ा हुआ, योगी होगा। भूखा, उपवास करता, अपने को सताना शुरू कर देगा। योगी होगा। शरीर को गलाता, सताता, योगी होगा। रात-दिन इसलिए ध्यान रहे, ब्राह्मणों ने इतने तपस्वी पैदा नहीं किए, | अडिग खड़ा रहने वाला योगी होगा। जितने क्षत्रियों ने पैदा किए इस भारत में। तपस्वियों का असली वर्ग | क्षत्रिय ऐसा कर सकते थे; ब्राह्मण ऐसा कर भी न सकते थे। क्षत्रियों से आया, ब्राह्मणों से नहीं। और बड़े मजे की बात है कि ब्राह्मणों के पास बहुत डेलिकेट सिस्टम थी, उनके पास शरीर ब्राह्मण तो सदा दख में जीए. दीनता में, दरिद्रता में। लेकिन फिर तो बहत नाजक था। उनका कभी कोई शिक्षण तलवार चलाने का, भी ब्राह्मणों ने कभी भी स्वयं को दुख देने के बहुत आयोजन नहीं और युद्धों में लड़ने का, और घोड़ों पर चढ़कर दौड़ने का, उनका किए। क्षत्रियों ने किए स्वयं को दुख देने के आयोजन। बड़े से बड़े कोई शिक्षण न था। क्षत्रियों का था। तपश्चर्या में वे उतर सकते थे तपस्वी क्षत्रियों ने पैदा किए हैं। सरलता से। अगर उन्हें खड़े रहना है चौबीस घंटे, तो वे खड़े रह उसका कारण है। और वह कारण यह है कि क्षत्रिय की तो पूरी सकते थे। ब्राह्मण तो सुखासन बनाता है। वह तो ऐसा आसन की पूरी साधना ही होती है दूसरे को सताने की। अगर वह किसी। | खोजता है, जिसमें सुख से बैठ जाए। वह तो नीचे आसन बिछाता दिन दूसरे को सताने से ऊब गया, तो वह करेगा क्या? जिस है। वह तो ऐसी जगह खोजता है, जहां मच्छड़ न सताएं उसे। तलवार की धार आपकी तरफ थी, वह अपनी तरफ कर लेगा। | क्षत्रिय खड़ा हो सकता था अधिक मच्छड़ों के बीच में। क्योंकि अभ्यास उसका पुराना ही रहेगा। कल वह दूसरे को काटता, अब जिसका अभ्यास धनुष-बाणों को झेलने का हो, मच्छड़ उसको अपने को काटेगा। कल वह दूसरे को मारता, अब वह अपने को | | कुछ परेशान कर पाएंगे? और जिसको मच्छड़ परेशान कर दें, वह मारेगा। ब्राह्मण ने कभी भी स्वयं को सताने का बहुत बड़ा आयोजन युद्ध की भूमि पर धनुष-बाण, बाण छिदेंगे जब छाती में, तो झेल नहीं किया है। पाएगा? सारी अभ्यास की बात थी। इसलिए जब तक ब्राह्मण इस देश में बहुत प्रतिष्ठा में थे, तब ___ इसलिए जब क्षत्रियों ने धर्म की साधना में गति शुरू की, तो तक इस देश में तपस्वी नहीं थे, योगी थे। जब तक ब्राह्मण इस देश | उन्होंने तत्काल तपस्वी को प्रमुख कर दिया और योगी को पीछे कर में प्रतिष्ठा में थे, तो तपस्वियों की कोई बहुत महत्ता न थी, योगियों दिया। 1313 Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 लेकिन कृष्ण कहते हैं अर्जुन को, योग ही श्रेष्ठ है अर्जुन। कि जीवन के दुख से छुटकारा हो जाए। जीवन के दुख से छुटकारा क्योंकि अर्जुन के लिए भी तपश्चर्या सरल थी। अर्जुन भी तपस्वी जिसको चाहिए, मात्र जीवन के दुख से छुटकारा जिसे चाहिए, बन सकता था आसानी से। योगी बनना कठिन था। इसलिए कृष्ण जीवन की ऊब से भागा हुआ, जो अपने को किसी सुरक्षित ने तीनों बातें कहीं; सकाम भी तू बन सकता है सरलता से; युद्ध | अंतःस्थल में पहुंचा देना चाहता है; वह बिना परमात्मा में श्रद्धा के तुझे जीतना, राज्य तुझे पाना। शास्त्र भी पढ़ सकता है तू आसानी | भी योग में संलग्न हो सकता है। से, शिक्षित है, सुसंस्कृत है। शास्त्र पढ़ने में कोई अड़चन नहीं; क्या वह परमात्मा को नहीं पा सकेगा? पा सकेगा, लेकिन यात्रा सत्य मुफ्त में मिलता हुआ मालूम पड़ता है। स्वयं को सताने वाला बहुत लंबी होगी। क्योंकि परमात्मा जो सहायता दे सकता है, वह तपस्वी भी बन सकता है तू। तू क्षत्रिय है; तुझे कोई अड़चन न | | उसे न मिल सकेगी। यह फर्क समझ लें। आएगी। लेकिन मैं कहता हूं तुझसे कि योग श्रेष्ठ है इन तीनों में। | इसलिए कृष्ण उसे कहते हैं, जो मुझमें श्रद्धा से लीन है, मेरी अर्जुन, तू योगी बन! आत्मा से अपनी आत्मा को मिलाए हुए है, उसे मैं परम श्रेष्ठ कहता हूं। क्यों? | एक बच्चा चल रहा है रास्ते पर। कई बार बच्चा अपने बाप का योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना । | हाथ पकड़ना पसंद नहीं करता। उसके अहंकार को चोट लगती है। श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः।। ४७।। | वह बाप से कहता है, छोड़ो हाथ। मैं चलूंगा। बच्चे को बड़ी पीड़ा और संपूर्ण योगियों में भी, जो श्रद्धावान योगी मेरे में लगे हुए | होती है कि तुम मुझे चलने तक के योग्य नहीं मानते! मैं चल लूंगा; अंतरात्मा से मेरे को निरंतर भजता है, वह योगी मुझे परम | तुम छोड़ो मुझे। बाप छोड़ दे या बेटा झटका देकर हाथ अलग कर श्रेष्ठ मान्य है। ले, तो भी बेटा चलना सीख जाएगा, लेकिन लंबी होगी यात्रा। भूल-चूक बहुत होगी। हाथ-पैर बहुत टूटेंगे। और जरूरी नहीं है कि इसी जन्म में चलना सीख पाए। जन्म-जन्म भी लग सकते हैं। of तिम श्लोक इस अध्याय का श्रद्धा पर पूरा होता है। | तो बेटा चलना तो चाहता है, लेकिन अपने से अन्य में कोई 1 कृष्ण कहते हैं, और श्रद्धा से मुझमें लगा हुआ योगी | श्रद्धा का भाव नहीं है। खुद के अहंकार के अतिरिक्त और किसी परम अवस्था को उपलब्ध होता है, वह मुझे के प्रति कोई भाव नहीं है। सर्वाधिक मान्य है। तो कृष्ण कहते हैं, जो मुझमें श्रद्धा से लगा है। दो तरह के योगी हो सकते हैं। एक बिना किसी श्रद्धा के योग क्या फर्क पड़ेगा? यह फर्क पड़ेगा कि जो मुझमें श्रद्धा से लगा में लगे हुए। पूछेगे आप, बिना किसी श्रद्धा के कोई योग में क्यों । है, वह श्रम तो करेगा, लेकिन अपने ही श्रम को कभी पर्याप्त नहीं लगेगा? | मानेगा, नाट इनफ। मेहनत पूरी करेगा, और फिर भी कहेगा कि बिना श्रद्धा के भी लग सकता है। बिना श्रद्धा के लगने का अर्थ | प्रभु तेरी कृपा हो, तो ही पा सकूँगा। इसमें फर्क है। अहंकार निर्मित यह है कि जीवन के दुखों से जो पीड़ित हो गया; जीवन के दुखों से न हो पाएगा, श्रद्धा में जिसका जीवन है। वह कहेगा, मेहनत मैं पूरी जो छिन्न-भिन्न हो गया जिसका अंतःकरण; जीवन के दुख जिसके | करता हूं, लेकिन फिर भी तेरी कृपा के बगैर तो मिलना नहीं होगा। प्राणों में कांटे से चुभ गए; जीवन की पीड़ा से मुक्त होने के लिए मेरी अकेले की मेहनत से क्या होगा? चलूंगा मैं जरूर, कोशिश कोई चेष्टा कर सकता है योग की। यह निगेटिव है। जीवन के दुख मैं जरूर करूंगा, लेकिन मैं गिर जाऊंगा। तेरे हाथ का सहारा मुझे से हटना है। लेकिन जीवन के पार कोई परमात्मा है, इसकी कोई बना रहे। और आश्चर्य की बात यह है कि इस तरह का जो चित्त पाजिटिव श्रद्धा, इसकी कोई विधायक श्रद्धा उसमें नहीं है। इतना है, उसका द्वार सदा ही परम शक्ति को पाने के लिए खुला रहेगा। ही हो जाए तो काफी है कि जीवन के दुख से मुक्ति हो जाए। नहीं - जो श्रद्धावान नहीं है, उसका द्वार क्लोज्ड है, उसका मन बंद है। पाना है कोई परमात्मा, नहीं कोई मोक्ष, नहीं कोई निर्वाण। कोई। वह कहता है, मैं काफी हूं। श्रद्धा नहीं है कि ऐसी कोई चीज होगी। इतना ही हो जाए, तो काफी लीबनिज ने कहा है, कुछ लोग ऐसे हैं, जैसे विंडोलेस कोई 1314 Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धावान योगी श्रेष्ठ है - मकान हो, खिड़की रहित कोई मकान हो; सब द्वार-दरवाजे बंद, ऐसा मत समझना आप कि श्रद्धा का यह अर्थ हुआ कि जो अंदर बैठे हैं। परमात्मा में श्रद्धा करते हैं, उनको ही परमात्मा सहायता देता है। श्रद्धावान व्यक्ति वह है, जिसके द्वार-दरवाजे खुले हैं। सूरज नहीं, परमात्मा तो सहायता सभी को देता है। लेकिन जो श्रद्धा करते को भीतर आने की आज्ञा है। हवाओं को भीतर प्रवेश की सुविधा हैं, वे उस सहायता को ले पाते हैं। और जो श्रद्धा नहीं करते, वे है। ताजगी को निमंत्रण है कि आओ। श्रद्धा का और कोई अर्थ नहीं नहीं ले पाते हैं। होता। श्रद्धा का अर्थ है, मुझसे भी विराट शक्ति मेरे चारों तरफ श्रद्धा का अर्थ है, ट्रस्ट। मैं एक बूंद से ज्यादा नहीं हूं इस विराट मौजूद है, मैं उसके सहारे के लिए निरंतर निवेदन कर रहा हूं। बस, जीवन के सागर में। इस अस्तित्व में एक छोटा-सा कण हूं। इस और कुछ अर्थ नहीं होता। विराट अस्तित्व में मेरी क्या हस्ती है? ___ मैं अकेला काफी नहीं हूं। क्योंकि मैं जन्मा नहीं था, तब भी वह __ योग तो कहता है कि तू अपनी हस्ती को इकट्ठा कर और श्रम कर। विराट शक्ति मौजूद थी। और आज भी मेरे हृदय की धड़कन मेरे और श्रद्धा कहती है, अपनी हस्ती को पूरा मत मान लेना। नाव को द्वारा नहीं चलती, उसके ही द्वारा चलती है। और आज भी मेरा खून खोलना जरूर किनारे से, लेकिन हवाएं तो उसकी ही ले जाएंगी तेरी मैं नहीं बहाता, वही बहाता है। और आज भी मेरी श्वास मैं नहीं नाव को। नाव को खोलना जरूर किनारे से, लेकिन नदी की धार तो लेता, वही लेता है। और कल जब मौत आएगी, तो मैं कुछ न कर उसी की है, वही ले जाएगी। नाव को खोलना जरूर, लेकिन तेरे सकूँगा। शायद वही मुझे अपने में वापस बुला लेगा। तो जो मुझे हृदय की धड़कन भी उसी की है, वही पतवार चलाएगी। यह सदा जन्म देता, जो मुझे जीवन देता, जो मुझे मृत्यु में ले जाता, जिसके स्मरण रखना कि कर रहा हूं मैं, लेकिन मेरे भीतर तू ही करता है। हाथ में सारा खेल है, मैं अकड़कर यह कहूं कि मैं ही चल लूंगा, चलता हूं मैं, लेकिन मेरे भीतर तू ही चलता है। मैं ही सत्य तक पहुंच जाऊंगा, तो थोड़ी-सी भूल होगी। द्वार बंद ऐसी श्रद्धा बनी रहती है, तो छोटा-सा दीया भी सूरज की शक्ति हो जाएंगे व्यर्थ ही। विराट शक्ति मिल सकती थी सहयोग के लिए, का मालिक हो जाता है। ऐसी श्रद्धा बनी रहती है, तो छोटा-सा वह न मिल पाएगी। अणु भी परम ब्रह्मांड की शक्ति के साथ एक हो जाता है। ऐसी इसलिए अंतिम सूत्र कृष्ण कहते हैं, योग की इतनी लंबी चर्चा श्रद्धा बनी रहती है, तो फिर हम अकेले नहीं हैं, फिर परमात्मा सदा के बाद श्रद्धा की बात! साथ है। योग का तो अर्थ है, मैं करूंगा कुछ; श्रद्धा का अर्थ है, मुझसे एक छोटी-सी घटना, और मैं अपनी बात पूरी करूं। अकेले से न होगा। योग और श्रद्धा विपरीत मालूम पड़ेंगे। योग का संत थेरेसा, एक ईसाई फकीर औरत हुई। वह एक बहुत बड़ा अर्थ है, मैं करूंगा-विधि, साधन, प्रयोग, साधना। और श्रद्धा चर्च बनाना चाहती थी; बहुत बड़ा, कि जमीन पर इतना बड़ा कोई का अर्थ है. करूंगा जरूर लेकिन मैं काफी नहीं हं. तेरी भी जरूरत चर्च न हो। उसके शिखर आकाश को छएं और उसके शिखर पड़ती रहेगी। और जहां मैं कमजोर पड़ जाऊं, तेरी शक्ति मुझे स्वर्णमंडित हों, और स्वर्ण में हीरे जड़े हों। वह दिन-रात उसी की मिले। और जहां मेरे पैर डगमगाएं, तेरा बल मुझे सम्हाले। और कल्पना करती थी। फिर एक दिन उसने गांव में आकर कहा कि मुझे जहां मैं भटकने लगू, तू मुझे पुकारना। और जहां मैं गलत होने कोई कुछ दान कर दो। मैं एक बहुत बड़ा चर्च, मंदिर बनाना चाहती लगू, तू मुझे इशारा करना। हूं प्रभु के लिए। और मजे की बात यह है कि जो इस भाव से चलता है, उसे इशारे लेकिन जैसे कि सब गांव के लोग होते हैं, वैसे ही उस गांव के मिलते हैं, सहारे मिलते हैं; उसे बल भी मिलता है, उसे शक्ति भी लोग भी थे। उसने बहुत, अगर उसके पास डब्बा रहा होगा, तो मिलती है। और जो इस भरोसे नहीं चलता, उसे भी मिलता है बहुत बजाया। तीन नए पैसे लोगों ने दिए। लेकिन थेरेसा नाचने इशारा, लेकिन उसके द्वार बंद हैं, इसलिए वह नहीं देख पाता। उसे | | लगी, और लोगों से बोली कि अब चर्च बन जाएगा। लोगों ने भी मिलती है शक्ति, लेकिन शक्ति दरवाजे से ही वापस लौट जाती | कहा, डब्बा तो इतना छोटा है, चर्च बहुत बड़ा। क्या डब्बा पूरा भर है। उसे भी मिलता है सहारा, लेकिन वह हाथ नहीं बढ़ाता, और गया? तो भी क्या होगा? बढ़ा हुआ परमात्मा का हाथ वैसा का वैसा रह जाता है। डब्बा खोला। भरा तो क्या था, कुल तीन पैसे थे! फिर भी संत 3151 Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 थेरेसा ने कहा कि नहीं, बन जाएगा चर्च। लोगों ने कहा, तू पागल तो नहीं हो गई। तीन पैसे में उतना बड़ा चर्च बनाने का इरादा रखती है! एक ईंट भी न.आएगी! तू है दुबली-पतली गरीब औरत, और ये तीन पैसे हैं। तू + तीन पैसे! कितना बड़ा चर्च बनाने का इरादा है? हिसाब क्या है? संत थेरेसा ने कहा, तुम एक और मौजूद है हम दोनों के बीच, उसे नहीं देख रहे हो। मैं, परमात्मा, तीन पैसे—जोड़ो। चर्च बन जाएगा। जोड़ो! मुझमें तो कुछ भी नहीं है; मुझसे क्या होगा! तीन पैसे में क्या रखा है, उससे क्या होगा! लेकिन हम दोनों की जितनी ताकत थी. वह हमने परी लगा दी। अब परमात्मा बीच में है. वह सम्हाल लेगा। और जिस जगह पर संत थेरेसा ने यह कहा था, उस जगह पर संत थेरेसा का कैथेड्रल है—जमीन पर श्रेष्ठतम मंदिरों में से एक। वह अब भी खड़ा है। उस चर्च के नीचे पत्थर पर यह लिखा है कि हम हार गए इस गांव के लोग इस गरीब औरत से, जिसने कहा, तीन पैसे, मैं और धन एक और, जो तुम्हें नहीं दिखाई पड़ता, मुझे दिखाई पड़ता है। श्रद्धा का इतना ही अर्थ है। श्रम आपका, शक्ति आपकी, लेकिन काफी नहीं; तीन पैसे से ज्यादा नहीं पड़ेगी। योग आपका, लेकिन तीन पैसे से ज्यादा का नहीं हो पाएगा। इसलिए योग की इतनी चर्चा करने के बाद कृष्ण ने जो सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बात कही है, वह यह है कि श्रद्धायुक्त जो मुझमें है, उसे मैं परम श्रेष्ठ कहता हूं। इतना ही इस बार। अब थोड़ी देर, वह जो अदृश्य है, उस अदृश्य के गीत में ये संन्यासी संलग्न होंगे। आप भी संलग्न हों। कौन जाने किस क्षण उसकी वीणा का स्वर आपके भीतर भी बजने लगे; कोई नहीं जानता। रोकें मत। आज तो आखिरी दिन है। यह पूरा का पूरा स्थान गूंज उठे आनंद से। 316 Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 7 पहला प्रवचन अनन्य निष्ठा Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < गीता दर्शन भाग-3 > श्रीमद्भगवद्गीता कृष्ण कहते हैं, अनन्य भाव से जो मुझे प्रेम करता! जो इस भांति अथ सप्तमोऽध्यायः प्रेम करता है कि एक ही बचे, दो न रह जाएं। प्रार्थना और प्रेम का यही फर्क है। जहां दो कायम रहते हैं, वहां श्रीभगवानुवाच प्रेम; और जहां दो विलीन हो जाते हैं, वहां प्रार्थना। मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः। यह प्रार्थना का सूत्र है। अनन्य भाव की दशा केवल परमात्मा असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु।।१।। के प्रति हो सकती है, किसी व्यक्ति के प्रति नहीं हो सकती है। श्रीकृष्ण भगवान बोले, हे पार्थ, त मेरे में अनन्य प्रेम से | किसी व्यक्ति के प्रति इसलिए नहीं हो सकती कि जब भी दूसरा आसक्त हुए मन वाला और अनन्य भाव से मेरे परायण व्यक्ति होता है, तब उसकी सीमाएं हैं। और जब हम भी उसके पास योग में लगा हुआ मुझको संपूर्ण विभूति, बल, ऐश्वर्यादि व्यक्ति की भांति जाते हैं, तो अपनी सीमाओं को साथ लेकर जाते गुणों से युक्त सबका आत्मरूप जिस प्रकार संशयरहित | हैं। दोनों की सीमाएं ही दीवाल बन जाती हैं, और दोनों की सीमाएं ___जानेगा, उसको सुन । ही दोनों को दूर करती हैं। मनुष्य के प्रेम में हम कितने ही निकट आ जाएं, निकट आकर भी दूरी कायम रहती है। बल्कि सच तो यह है, जितने निकट आते Or म मौलिक रूप से जीवन के प्रति एक प्रेमपूर्ण निष्ठा || | हैं, उतनी ही दूरी का एहसास गहन, स्पष्ट होता है। प्रेमी जितने प का नाम है। निकट आते हैं, उतना ही प्रतीत होता है कि दोनों के बीच एक बड़ा जीवन के प्रति दो दृष्टियां हो सकती हैं। एक–नकार फासला है, जो पार नहीं किया जा सकता; अनब्रिजेबल; कुछ है, की, इनकार की, अस्वीकार की। दूसरी-स्वीकार की, निष्ठा की, जिस पर कोई सेतु नहीं बन सकता। प्रीति की। जितना अहंकार होगा भीतर. उतना जीवन के प्रति वही तो प्रेम की पीडा है और कष्ट है। प्रेमी दर हो. तो इतनी अस्वीकार और विरोध होता है। जितनी विनम्रता होगी, उतना पीड़ा नहीं मालूम पड़ती, क्योंकि लगता है, पास आ सकते हैं। स्वीकार। जैसा है जीवन, उसके प्रति एक भरोसा और ट्रस्ट। और लेकिन जब प्रेमी बिलकुल ही पास आ जाए, और पास आने का जीवन जहां ले जाए, उसका हाथ पकड़कर जाने की संशयहीन | | उपाय न रह जाए, तब पीड़ा सघन हो जाती है। क्योंकि अब पास अवस्था होती है। आने का कोई उपाय भी न रहा। जितने पास आ सकते थे, उतने कृष्ण इस सूत्र में अर्जुन से कह रहे हैं कि जो अनन्य भाव से मेरे पास आ गए। लेकिन फिर भी दूरी कायम है। वह दूरी सिर्फ प्रार्थना प्रति प्रेम और श्रद्धा से भरा है! में ही टूटती है। और वह दूरी उसके साथ ही टूट सकती है, जिसकी अनन्य भाव को ठीक से समझ लेना जरूरी है। कोई सीमा न हो। जिसकी भी सीमा है, उसके साथ वह दूरी नहीं प्रेम दो तरह के हो सकते हैं। एक प्रेम वैसा, जिसमें अन्य का टूट सकती है। भाव मौजूद रहता है, दूसरा दूसरा ही रहता है, और हम प्रेम करते सिर्फ परमात्मा की तरफ ऐसा प्रेम हो सकता है जो अनन्य हो हैं। पिता बेटे को प्रेम करता है, वह अनन्य नहीं होता। बेटा बेटा जाए, जिसमें दूसरा मौजूद न रहे, जिसमें दूसरा मिट ही जाए। बड़े ही होता है, पिता पिता ही होता है। प्रेम में ऐसा नहीं होता कि पिता मजे की बात है लेकिन यह, क्योंकि जब दूसरा मिटता है, तो मैं भी बेटा हो जाए, बेटा पिता हो जाए। भेद कायम रहता है। अलगाव मिट जाता हूं। मैं भी तभी तक हो सकता हूं, जब तक दूसरा है। जब मौजूद रहता है। दोनों के बीच दीवाल बनी ही रहती है। कितनी ही तक तू है, तभी तक मैं भी हो सकता हूं। मैं और तू एक ही चीज के पारदर्शी हो, कितनी ही ट्रांसपैरेंट हो, पर दीवाल बनी ही रहती है। दो पहलू हैं। एक को फेंक देंगे, दूसरा भी खो जाएगा। ऐसा नहीं पति पत्नी को प्रेम करता है, या मित्र मित्र को प्रेम करता है, तो भी | हो सकता कि मैं एक को बचा लूं और दूसरे को छोड़ दूं। अन्य भाव मौजूद रहता है। दि अदर, वह जो दूसरा है, कितना ही - इसलिए वेदांत बहुत अदभुत शब्द का उपयोग करता है, वह अपना मालूम पड़े, फिर भी दूसरा ही होता है। कितने ही निकट हो, । शब्द है, अद्वैत। वेदांत कहता है कि उस परम स्थिति में ऐसा नहीं फिर भी एक नहीं हो जाता। कहते हम कि एक बचेगा; हम इतना ही कहते हैं कि दो न बचेंगे। 318/ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ << अनन्य निष्ठा - वेदांत ऐसा भी कह सकता था कि उस परम स्थिति में एक ही भी बंद रखें, तो भी उनकी दोनों की कोशिश एक-दूसरे के मालिक बचेगा, लेकिन एक तो बच नहीं सकता बिना दूसरे के बचे। दूसरा | बनने की शुरू हो जाएगी। जहां दूसरा मौजूद हुआ कि मालकियत रहेगा, तो ही एक हो सकता है। इसलिए वेदांत बड़े उलटे ढंग से | शुरू हो गई, हिंसा शुरू हो गई। दूसरे के ऊपर हावी होने की इस बात को कहता है। वह कहता है, दो न बचेंगे, अद्वैत होगा। कोशिश शुरू हो गई। यह नहीं कहते कि एक बचेगा; इतना ही कहते हैं कि दो न बचेंगे। अनन्य भाव का अर्थ है, जहां कोई मालकियत का सवाल नहीं अनेक लोग सोचते हैं कि जब दो न बचेंगे, तो एक बच जाएगा। | है; जहां कोई ऊपर नहीं, कोई नीचे नहीं; जहां दूसरा ही नहीं। अगर वहां भूल होती है। उस भूल को मैं आपको साफ करना चाहता है। दसरा मौजद है, तो वह हमारा ही तथाकथित प्रेम है, उसे चाहे हम अगर दो न बचेंगे और एक ही बच जाएगा, तो फिर वेदांत को भक्ति कहें। लेकिन अगर दूसरा मालूम पड़ता है कि दूसरा है, तो यही कहना था कि एक बचेगा। अद्वैत की बात करनी व्यर्थ थी। वह भक्ति नहीं है, हमारे सांसारिक प्रेम का ही थोड़ा-सा कहनी थी एकत्व की बात, एक बचेगा। इसमें भी कृष्ण यह कहते सब्लिमेटेड, थोड़ा-सा शुद्ध हुआ रूप है। और उस शुद्ध हुए रूप हैं कि दूसरा नहीं बचेगा, दि अदर विल नाट बी, अनन्य। में सारी बीमारियां शुद्ध होकर मौजूद रहेंगी। और बीमारियां जब लेकिन अगर आप सोचते हों कि दूसरा न बचेगा, तो मैं बच शुद्ध हो जाती हैं, तो और भी खतरनाक हो जाती हैं। जब बीमारी जाऊंगा, तो आप गलत सोचते हैं। दो बचें, तो ही आप बच सकते पूरी शुद्ध होती है, तो उसका डोज होमियोपैथिक हो जाता है, बहुत हैं। अगर दूसरा न बचा, तो आप भी खो जाएंगे। आपको बचने की सूक्ष्म हो जाता है, बहुत प्राणों तक छेदता है। भी कोई जगह न बचेगी। | सुना है मैंने कि एक बौद्ध भिक्षुणी अपने साथ बुद्ध की एक अनन्य प्रेम का अर्थ है, प्रेम ही बचेगा। न तो प्रेमी बचेगा, और | | स्वर्ण-प्रतिमा रखती थी छोटी। पर बुद्ध के प्रति प्रेम वैसा ही था, न प्रेयसी बचेगी। न तो प्रेमी बचेगा, न प्रेमपात्र बचेगा; प्रेम ही बच जैसा कि लोगों का लोगों के प्रति होता है। अगर कोई राम का नाम जाएगा। सिर्फ प्रेम ही रह जाएगा। दोनों के बीच में जो है, वही ले देता, तो उसे पीड़ा होती। अगर कोई कृष्ण का नाम ले देता, तो बचेगा, और दोनों खो जाएंगे। उसे चोट पहंचती। अगर कोई जीसस का नाम ले देता. तो वह ऐसे अनन्य भाव को जो उपलब्ध हो, उस व्यक्ति को ही कृष्ण बेचैन होती। यह कोई अनन्य भाव न था। इसमें बुद्ध भी एक दूसरे कहते हैं, वही योगी है, वही भक्त है। उसे हम जो भी नाम देना | व्यक्ति थे, वह भी स्वयं और थी। और अभी ईर्ष्या कायम थी। बुद्ध चाहें। लेकिन जहां दोनों मिट जाएं, जहां एक भी न बचे। का प्रेम कृष्ण के प्रति प्रेम में बाधा बनता। डर लगता है कि अगर दोनों मिट जाएंगे, तो फिर तो कुछ भी न लेकिन यह तो समझ में आ सकता है कि बुद्ध और कृष्ण और बचेगा। और मजे की बात यह है कि जब दोनों मिटते हैं, तभी महावीर के बीच उसे ईर्ष्या मालूम पड़े। लेकिन एक बार वह चीन . उसका पता चलता है, जो सब कुछ है। और जब तक दोनों रहते | के एक मंदिर में ठहरी, जो मंदिर सहस्र बुद्धों का मंदिर कहलाता हैं, तब तक हमें कुछ भी पता नहीं चलता उसका, जो है। तब तक | है। उसमें एक सहस्र बुद्ध की प्रतिमाएं हैं। बड़ी-बड़ी प्रतिमाएं, केवल दो बर्तनों के टकराने की आवाज सुनाई पड़ती है। इसलिए | विशालकाय। जब सुबह वह अपने बुद्ध की-अपने बुद्ध सभी हमारे प्रेम कलह बन जाते हैं। ऐसा प्रेम हमारे जीवन में | की पूजा करने बैठी, तो उसके मन में हुआ कि मैं धूप जलाऊंगी, खोजना कठिन है, जो कलह और कांफ्लिक्ट न बन जाए। कलह लेकिन धुआं तो ये जो बड़े-बड़े बुद्धों की मूर्तियां खड़ी हैं, ये ले बन ही जाएगी। जाएंगी। मैं फूल चढ़ाऊंगी, लेकिन सुगंध तो इन बड़े-बड़े बुद्धों की दो व्यक्ति प्रेम में पड़े कि जानना चाहिए कि वे कलह की तैयारी | मूर्तियों तक पहुंच जाएगी। उसके पास तो छोटे-से बुद्ध थे। और में पड़ रहे हैं। शीघ्र ही कलह प्रतीक्षा करेगी। बस, दो बर्तन आवाज हमारे पास बड़ी चीज हो भी नहीं सकती। हम इतने छोटे हैं कि करेंगे, संघर्ष करेंगे, टकराएंगे। क्योंकि जहां भी मैं मौजूद हूं और | हमारा भगवान भी उतना ही छोटा हो सकता है। हमसे बड़ी चीज दूसरा मौजूद है, वहां डामिनेशन की कोशिश जारी रहेगी, वहां हमारे पास नहीं हो सकती। उसे हम सम्हालेंगे कैसे? मालकियत की कोशिश जारी रहेगी। अगर एक कमरे में हम दो जितना छोटा उसका मन था, उससे भी छोटे उसके भगवान थे। आदमियों को बंद कर दें, तो वे न भी बोलें, चुप भी बैठे, आंख रखी उसने मूर्ति, लेकिन उसे बड़ी पीड़ा हुई कि यह मैं जलाऊंगी तो 1319 Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-31 धूप अपने बुद्ध के लिए, पहुंच जाएगी न मालूम किन के बुद्धों के का मैं नहीं है। यह मैं कृष्ण का मैं नहीं है। कृष्ण का प्रयोग किया लिए! तो उसने एक बांस की पोंगरी बनाई। धूप जलाई और बांस जा रहा है, केवल एक वीहिकल, एक साधन की भांति। और जब की पोंगरी से धूप के धुएं को अपने बुद्ध की नाक तक पहुंचाया। भी कृष्ण बोलते हैं, तो परमात्मा बोलता है। स्वभावतः जो होना था, वह हो गया। बुद्ध का मुंह काला हो इसलिए बहुत बार भूल हो जाती है। कृष्ण की गीता पढ़ते वक्त गया। सभी भक्त अपने भगवानों का मुंह काला करवा देते हैं! बुद्ध | बहुत लोगों को ऐसी कठिनाई होती है कि कृष्ण भी कैसे अहंकारी का मुंह काला हो गया। बहुत बेचैन हुई, बहुत घबड़ाई। भीड़ इकट्ठी | आदमी रहे होंगे! अर्जुन से कहते हैं, जो मुझे अनन्य भाव से प्रेम हो गई। रोने लगी। लोगों ने कहा, पागल तूने यह क्या किया है? करेगा। मुझे! अर्जुन से कहते हैं, जो सब छोड़कर मेरी शरण में आ उसने कहा, यह सोचकर कि मेरे जलाए हुए धूप की सुगंध मेरे बुद्ध जाएगा। मेरी शरण में। कहते हैं अर्जुन से, मुझ वासुदेव को जो सब तक ही पहुंचे। उस भीड़ में खड़ा था एक भिक्षु, वह हंसने लगा। | भांति समर्पित है। मुझ वासुदेव को! उसने कहा कि तब, जहां भी अहंकार है, वहां यह होगा ही। जो भी पढ़ते हैं, दो तरह की भूलें होती हैं। अगर वे कृष्ण के प्रति यह भक्ति नहीं है, यह वही राग है। वही राग जो हम जिंदगी में | रागयुक्त हैं, तो वे समझते हैं कि कृष्ण, वासुदेव नाम के जो व्यक्ति बसाते हैं और एक-दूसरे का मुंह काला कर देते हैं। कलह और | हैं, उनके प्रति समर्पण करना है। यह भी भूल है, राग की भूल है। ईर्ष्या और हिंसा और दुख और पीड़ा, वही पूरा नर्क वहां भी मौजूद | जो कृष्ण के प्रति रागयुक्त नहीं हैं, उन्हें लगता है, कृष्ण भी कैसे हो गया। अहंकारी हैं; कहते हैं, मेरी शरण में आ जाओ! पर दोनों की भूल अनन्य भाव का अर्थ है. न भक्त बचे. न भगवान बचे. भक्ति एक ही है। दोनों मान लेते हैं कि कृष्ण का मैं अहंकार का सूचक ही बच जाए। न प्रेमी बचे, न प्रेमपात्र बचे, प्रेम ही बच जाए। | और प्रतीक है। और जिस दिन ऐसी घटना घटती है और घटती है, और किसी | | जिसने भी कृष्ण के मैं को ठीक से न समझा, वह पूरी गीता को के भी जीवन में कभी भी घट सकती है, सिर्फ अपने को मिटाने की | | ही समझने में असफल हो जाएगा। इस एक छोटे-से शब्द पर गीता तैयारी चाहिए तो जिस दिन ऐसी घटना घटती है, उस दिन फिर | का पूरा सार, पूरी कुंजी निर्भर करती है। अगर आप कृष्ण के मैं को ऐसा नहीं होता कि यह रहा भगवान। उस दिन फिर ऐसा होता है कि न समझ पाए, तो पूरी गीता को ही आप न समझ पाएंगे। क्योंकि हीं, जहां भगवान नहीं। फिर ऐसा कोई चेहरा नहीं, गीता कृष्ण के द्वारा कही गई है, कृष्ण से नहीं कही गई है। गीता जो भगवान का चेहरा नहीं। फिर ऐसा कोई पत्थर नहीं, जो उसकी कृष्ण से प्रकट हुई है, कृष्ण गीता के रचयिता नहीं हैं। गीता कृष्ण प्रतिमा नहीं। और ऐसा कोई फूल नहीं, जो उसका नैवेद्य नहीं। फिर से बही है, लेकिन कृष्ण गीता के स्रोत नहीं हैं; स्रोत तो परम ऊर्जा सभी कुछ उसका है। फिर उसके अलावा कोई और नहीं है। है, परम शक्ति है। स्रोत तो भगवान है। कृष्ण कहते हैं, अनन्य भाव से जो मुझे प्रेम करे। | इसलिए कृष्ण को अगर गीताकार बार-बार कहता है, और जब भी कृष्ण इस परी चर्चा में प्रयोग करेंगे मझे, तब आप भगवानवाच, भगवान ने ऐसा कहा, तो.थोड़ा सोचकर, समझकर थोड़ा ठीक से समझ लेना। क्योंकि कृष्ण जब भी कहते हैं मुझे, तो कहा है। यह भगवान कहना कृष्ण को, सिर्फ इसी अर्थ में है कि कृष्ण के पास ईगो जैसी, अहंकार जैसी कोई चीज बची नहीं है। कृष्ण ने नहीं कहा, भगवान ने कहा; कृष्ण से कहा है, कृष्ण के इसलिए कृष्ण का मैं अहंकार का सूचक नहीं है। कृष्ण के भीतर मैं | द्वारा कहा है। को रिफर करने वाली वैसी कोई चीज नहीं बची है, जैसी हमारे | भगवान को भी चलना हो, तो हमारे पैरों के अतिरिक्त उसके भीतर है। पास अपने कोई पैर नहीं। और भगवान को भी बोलना हो, तो जब हम कहते हैं मैं, तो हमारी एक सीमा है मैं की। और जब हमारी वाणी के अतिरिक्त उसके पास अपनी कोई वाणी नहीं। और कृष्ण कहते हैं मैं, तो मैं असीम है। फिर यह जो विराट आकाश है, भगवान को भी देखना हो, तो हमारी आंखों के अतिरिक्त उसके यह भी उस मैं में समाया हुआ है। और ये जो फूल खिलते हैं वृक्षों पास देखने की कोई आंख नहीं। के.ये भी उसी मैं में खिलते हैं। और ये जो पक्षी उडते हैं आकाश लेकिन जब किसी आंख से भगवान देखता है. तो वह आंख में ये भी उसी मैं में उडते हैं। यह मैं विराट है। यह मैं किसी व्यक्ति | आदमी की नहीं रह जाती। हां, जो नहीं जानते, उनके लिए तो फिर | 320/ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < अनन्य निष्ठा भी वह आंख वही रहेगी, जो आदमी की थी। कृष्ण को जो आंख विश्वास के साथ। जब प्रयोग करता है, तो एक विश्वास को लेकर मिली है, वह तो मां-बाप से मिली है। लेकिन आंख के पीछे से जो प्रयोग करता है, लेकिन पूरे संशय के साथ। संशय रखता है कायम देख रहा है, वह परमात्मा है। अगर आप आंख पर रुक गए, तो अपने भीतर, ताकि जांच कर सके कि बात सही निकली या नहीं समझेंगे कि मां-बाप से मिली हुई आंख है। कृष्ण को जो गला निकली। अपने को खो नहीं देता; अपने को कायम रखता है। मिला है, वह तो मां-बाप से मिला है। लेकिन जो वाणी है, वह संशय को भी कायम रखता है। डाउट को मौजूद रखता है। और परमात्मा की है। अगर आप गले पर रुक गए, तो वाणी को न | फिर भी प्रयोग करता है। प्रयोग करेगा, तो निष्ठा जरूरी है। प्रयोग पहचान पाएंगे। तो बिना निष्ठा के न हो सकेगा। एक कदम भी बिना निष्ठा के नहीं ___ इसलिए कृष्ण जिस सहज मन से कहते हैं कि मेरी शरण आः उठाया जा सकता। ध्यान रखें, कोई अहंकारी इतने सहज भाव से नहीं कह सकता कि अगर आप यहां से घर वापस लौटेंगे, तो आप इस निष्ठा से ही मेरी शरण आ। लौट रहे हैं कि घर उसी जगह होगा, जहां आप छोड़ आए थे। पता __ अगर अहंकारी को आपको अपनी शरण बुलाना है, तो बड़ी आपको हो या न हो, लेकिन यह निष्ठा अंदर खड़ी है कि घर वहीं तरकीबों से बुलाएगा। अहंकार कभी भी इतना सीधा-साफ नहीं | मिलेगा, जहां छोड़ आए थे। यह निष्ठा पीछे काम कर रही है। कल होता। अहंकार बहुत चालाक है। अहंकारी कभी न कहेगा कि मेरी | सुबह जब आप उठेंगे, तो इसी निष्ठा से कि सूरज निकल आया शरण आ, क्योंकि अहंकारी भलीभांति जानता है कि अगर किसी होगा, जैसा कि कल निकला था। से यह कहा कि मेरी शरण आ. तो उस आदमी के अहंकार को चोट | जरूरी नहीं है। किसी दिन तो ऐसा होगा कि सूरज नहीं लगेगी और वह शरण न आ सकेगा। बल्कि वह आदमी आपको | निकलेगा। एक दिन तो ऐसा जरूर होगा कि सूरज नहीं निकलेगा। अपनी शरण में लाने की कोशिश करेगा। वैज्ञानिक कहते हैं, कोई चार हजार साल में ठंडा हो जाएगा। चार इसलिए अहंकारी आदमी दूसरे के अहंकार को जरा भी चोट | हजार साल बाद किसी शरीर में आप जरूर होंगे कहीं, और किसी नहीं पहुंचाता; परसुएड करता है, फुसलाता है, राजी करता है, | दिन सुबह उठेगे और सूरज नहीं निकलेगा। खुशामद करता है। उसके अहंकार को इस तरह राजी करता है कि वैज्ञानिक निष्ठा तो रखता है कि सूरज निकलेगा, लेकिन वह शरण में भी आ जाए और अहंकार को चोट भी न लगे। ससंशय। संशय कायम रखता है कि हो सकता है कि वह दिन आज लेकिन कृष्ण जितनी सरलता से और सहजता से कहते हैं, अगर ही हो, कि न निकले। वह दिन कभी भी हो सकता है। प्रयोगशाला ऐसा कहें तो पैराडाक्सिकल मालूम पड़ेगा, उलटबांसी मालूम में प्रवेश करता है, तो निष्ठा तो रखता है कि प्रकृति अपने पुराने पड़ेगी कि कृष्ण जितनी विनम्रता से घोषणा करते हैं कि मेरी शरण नियम से ही चलती होगी। कल भी आग ने जलाया था, आज भी आ, वह खबर दे रही है कि पीछे कोई अहंकार नहीं है। जलाएगी। लेकिन जरूरी नहीं है। क्योंकि कोई पक्का कैसे हो ___ अहंकार कभी भी इतना सरल नहीं होता। अहंकार हमेशा सकता है कि कल आग ने जलाया था, तो आज भी जलाएगी! तो दांव-पेंच करता है, जटिल होता है। तिरछे रास्तों से यात्रा करता है; वैज्ञानिक एक हाइपोथेटिकल बिलीफ, एक ससंशय निष्ठा के साथ सीधा रास्ता अहंकार नहीं लेता। क्योंकि अहंकार को अनुभव है कि प्रयोगशाला में प्रवेश करता है। सीधे रास्ते से दूसरे के अहंकार को कभी भी झुकाया नहीं जा सकता। विज्ञान में प्रवेश करना हो, तो ससंशय निष्ठा ही मार्ग है। लेकिन लेकिन कृष्ण बड़ी सरलता से कहते हैं कि मुझे जो अनन्य भाव | | धर्म में अगर प्रवेश करना हो, तो निःसंशय निष्ठा मार्ग है। निःसंशय से समर्पित है अर्जुन, वही योग को उपलब्ध होता है। जिसकी निष्ठा | | निष्ठा बड़ी और बात है। उसे थोड़ा समझ लेना जरूरी है। मुझमें पूरी है, असंशय, वह असंदिग्ध ज्ञान को उपलब्ध होता है। निःसंशय निष्ठा का अर्थ यह है कि अगर विपरीत भी हो, अगर असंशय निष्ठा को भी थोड़ा-सा खयाल में ले लेना चाहिए। आज सरजन भी निकले, तो भी जो निष्ठावान, जिसकी कृष्ण बात निष्ठा भी दो तरह की हो सकती है। ससंशय निष्ठा होती है। कर रहे हैं, वैसा निष्ठावान व्यक्ति समझेगा कि मेरी आंख में कोई जिसको विज्ञान में हाइपोथीसिस कहते हैं, वह ससंशय निष्ठा है।। खराबी है; सूरज तो निकला ही होगा। आप फर्क समझ लेना। एक वैज्ञानिक प्रयोग करता है एक हाइपोथेटिकल भरोसे, एक अगर कल सुबह ऐसा हो कि सूरज न निकले, तो निष्ठावान व्यक्ति 1321 Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 कहेगा, मेरी आंख में कोई खराबी है, सूरज तो निकला ही होगा। अगर निष्ठावान व्यक्ति घर वापस पहुंचे और पाए कि उसका घर वहां से हट गया है, तो निष्ठावान व्यक्ति कहेगा, घर तो वहीं होगा, मैं भटक गया हूं। फर्क यह है, संशय वाला व्यक्ति हमेशा संशय बाहर आरोपित करेगा और निःसंशय व्यक्ति संशय को सदा अपने पर आरोपित करेगा। संशयवान व्यक्ति सदा भूल कहीं और खोजेगा; निःसंशय व्यक्ति सदा भूल अपने में खोजेगा। निष्ठावान, संशयहीन निष्ठावान व्यक्ति अपने अतिरिक्त जगत में कहीं भूल नहीं देखेगा। अगर भूल होगी कहीं, तो मुझमें होगी; और कहीं नहीं। जीवन में जो भी घटेगा, चाहे सुख, चाहे दुख, उससे उसकी निष्ठा में कोई डांवाडोल स्थिति, कोई कंपन पैदा नहीं होगा। अगर जीवन पूरा दुख भी बन जाए, तो भी वैसा व्यक्ति जानेगा कि कहीं उसकी ही भूल है; परमात्मा की कृपा में कोई अंतर नहीं है। कहीं मैं ही चूक रहा हूं; उसका प्रसाद तो बरस रहा है। कहीं मेरा ही बर्तन उलटा रखा होगा; उसकी वर्षा तो जारी है। संशयवान व्यक्ति का बर्तन भी उलटा रखा हो, भी हो रही हो, तो भी वह यही कहेगा कि मुझमें पानी नहीं भर रहा है, इससे साफ जाहिर है कि वर्षा नहीं हो रही । इस भेद को ठीक से समझ लेना, क्योंकि यह भेद धर्म में प्रवेश में अंतर लाएगा। क्योंकि धर्म का मौलिक आधार व्यक्ति का रूपांतरण है। विज्ञान का मौलिक आधार वस्तु का रूपांतरण है। विज्ञान की खोज वस्तु की खोज है, धर्म की खोज व्यक्ति की खोज है । इसलिए उचित है कि विज्ञान वस्तु के भीतर भूल-चूक देखे और उचित है कि धर्म व्यक्ति के भीतर भूल-चूक देखे । अगर आपका डाउट अदर ओरिएंटेड है, दूसरे पर ठहरा हुआ है, तो आपका चित्त वस्तु के संबंध में बहुत-सी बातें खोज लेगा, लेकिन स्वयं के संबंध में कुछ भी न खोज पाएगा। इसलिए धर्म और विज्ञान के आयाम, डायमेंशन अलग हैं। कृष्ण कहते हैं, जो निःसंशय होकर मुझमें निष्ठा रखता है! बड़ी कठिन है यह बात । निःसंशय होकर निष्ठा कैसे रखी जा सकती है! अगर निःसंशय होकर हम निष्ठा रखेंगे - यह संभव ही कहां मालूम पड़ता है ! आज किसी भी व्यक्ति से कृष्ण यह कहेंगे, तो वह कहेंगे कि आप असंभव की आकांक्षा करते हैं। यह नहीं हो सकेगा। मैं कैसे सब छोड़ दूं? लेकिन जब कृष्ण ने अर्जुन से यह कहा था, तो अर्जुन ने ऐसा सवाल नहीं उठाया। यह थोड़ा विचारणीय है। अर्जुन उस जमाने के सुशिक्षिततम लोगों में से एक था। सभ्यतम, कुलीनतम, उस समाज में जो श्रेष्ठतम जन थे, उन श्रेष्ठियों में, उन आर्यों में एक | था । कृष्ण ने बहुत बार यह कहा है कि तू सब शंकाएं छोड़कर मुझ पर निष्ठा कर ले | अर्जुन जरूर यह कहता है कि मन बड़ा चंचल है, मन ठहरता नहीं। लेकिन कहीं भी अर्जुन यह नहीं कहता – यह बड़ी आश्चर्य की बात है - कि मैं कैसे आप पर निष्ठा कर लूं? निष्ठा कैसे संभव है? अर्जुन यह जरूर कहता है कि मेरी कमजोरियां हैं। आप जो कहते हैं, ठीक कहते हैं; ठीक ही कहते होंगे। मेरी कमजोरियां हैं। मैं न कर पाऊं। शायद न कर पाऊं। लेकिन अर्जुन एक भी बार यह सवाल नहीं उठाता, जो कि बहुत जरूरी है। हमारे मन में उठेगा। और अर्जुन तो उस समय का श्रेष्ठतम व्यक्ति था। आज अगर हम छोटे बच्चे से भी पूछेंगे, तो उसके मन में भी उठेगा कि भरोसा ! | यह तो ब्लाइंड फेथ हो जाएगा, यह तो अंधा विश्वास हो जाएगा ! यह तो कृष्ण अंधेपन की शिक्षा दे रहे हैं। हमारे मन में यह उठता | है | अर्जुन के मन में नहीं उठता। कुछ कारण होंगे। कुछ कारण हैं। सबसे बड़ा कारण यह नहीं है कि आदमी बदल गया। सबसे बड़ा कारण यह है कि आदमी की कंडीशनिंग, संस्कार बदल गए। आदमी तो वही है। जब आपके मन में यह सवाल उठता है कि यह तो अंधेपन की शिक्षा है। हम भरोसा कर लें आंख बंद करके ! शंका भी न करें, संदेह भी न करें ! तब तो हम मिटे । 322 असल में आपको मिटाने के लिए ही सारा आयोजन है। अगर धर्म के जगत में प्रवेश करना है, तो स्वयं को मिटने की, मिटाने की सामर्थ्य चाहिए पड़ेगी। अगर आप अपने को बचाते हैं, तो फिर भीतर प्रवेश न हो सकेगा। इसलिए द्वार पर ही लिखा है कि जो निःसंशय श्रद्धा कर सके, वह भीतर आ जाए। जिसकी अभी शंका मौजूद हो, वह थोड़ा और घूमे; मंदिर के बाहर थोड़े और चक्कर लगाए। वह थोड़ा और दौड़े। वह और अपनी शंकाओं को थोड़ा थका ले। और जब शंका से कुछ न पाए... । और आदमी ने शंका से कुछ पाया नहीं। हां, वस्तुएं मिलेंगी। धन मिलेगा, पद मिलेगा। लेकिन पाने जैसा कुछ भी न मिलेगा। जिस दिन शंका थक जाए और ऐसा लगे कि शंका से कुछ मिला नहीं, उस दिन भीतर प्रवेश कर आना। उस दिन भीतर चले आना उस मंदिर के, जहां शंका को बाहर रख आना पड़ता है। आदमी वही है, संस्कार बदले हैं। आज की पूरी शिक्षा विज्ञान Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनन्य निष्ठा > की है, इसलिए सवाल उठता है। सवाल आप नहीं उठा रहे हैं; शिक्षा उठा रही है। क्योंकि सारी शिक्षा डाउट की है; सारी शिक्षा संदेह की है। छोटे-से बच्चे को हम संदेह करना सिखा रहे हैं। जरूरी है विज्ञान की शिक्षा के लिए, अन्यथा विज्ञान खड़ा नहीं होगा। इसीलिए भारत में विज्ञान खड़ा नहीं हो सका। क्योंकि जिस देश ने गीता में भरोसा किया, वह देश विज्ञान पैदा नहीं कर पाएगा। लेकिन पश्चिम में धर्म डूब गया। क्योंकि जो चिंतना संदेह में भरोसा करेगी, वह धर्म से वंचित रह जाएगी। और अगर लंबे हिसाब में तौला जाए, तो शायद हम नुकसान में नहीं हैं। और शायद इस सदी के पूरे होते-होते हमें पता चलेगा कि हम फायदे में हैं। कभी-कभी उलटा हो जाता है। अभी तो हमें लगता कि हम बड़े नुकसान में पड़ गए हैं। न विज्ञान है, न टेक्नीक है हमारे पास। गरीबी ज्यादा है, मुसीबत ज्यादा है। लेकिन कोई नहीं कह सकता कि इस सदी के घूमते ही, इस सदी के जाते ही पश्चिम भारी मुसीबत में नहीं पड़ जाएगा। पड़ जाएगा, पड़ रहा है। क्योंकि संदेह न करके हमने बाहर की बहुत-सी चीजें खोईं, लेकिन श्रद्धा रखकर हमने भीतर का एक द्वार खुला रखा। पश्चिम ने संदेह करके बाहर की बहुत चीजें पाईं, लेकिन भीतर जाने वाले द्वार पर जंग पड़ गई, और वह बिलकुल बंद हो गया। आज कितना ही ठोंको, पीटो, खटखटाओ, वह खुलता हुआ मालूम नहीं पड़ता। हालत ऐसी हो गई कि भीतर जाने वाला कोई द्वार भी है, ऐसा भी मालूम नहीं पड़ता । द्वार इतनी मजबूती से बंद है, इतने दिनों से बंद है कि करीब-करीब दीवाल हो गया है। कहीं कोई द्वार नहीं मालूम पड़ता। याद आता है मुझे कि एक बार पिछले महायुद्ध के समय चीन में ऐसा हुआ। दो भाइयों का बंटवारा हुआ। बाप मरणशय्या पर था, तो बाप ने बंटवारा कर दिया। एक-एक लाख रुपए दोनों भाइयों के हाथ में लगे। एक भाई ने तो बहुत मेहनत करनी शुरू कर दी रुपयों से। एक-एक पैसा बचाकर, जीवन दांव पर लगाकर कमाने में लग गया। दूसरे भाई ने तो लाख रुपए की शराब पी डाली। सिर्फ शराब की बोतलें भर उसके पास इकट्ठी हो गईं। स्वभावतः जिसने शराब पी थी, सारे लोगों ने कहा कि बर्बाद हो गए, मिट गए। लेकिन वहां कोई सुनने वाला भी नहीं था । वह तो इतना पीए रहता था कि कौन बर्बाद हो गया! कौन मिट गया ! किसके संबंध में बात कर रहे हो ! कुछ पता नहीं था। पर बोतलें जरूर इकट्ठी होती चली गईं। और जिंदगी बड़े मजाक करती है कभी । और मजाक हुआ । जिस भाई ने लाख रुपया धंधे में लगाया था, उसका तो लाख रुपया डूब गया। और युद्ध आया, और शराब की बोतलों के दाम बहुत बढ़ गए। और उस आदमी ने सब बोतलें बेच लीं। और कहते हैं | कि लाख रुपए उसको वापस मिल गए। लाख रुपए की बोतलें बेच उसने । जिंदगी कभी - कभी अनूठे मजाक करती है। करीब-करीब यह |सदी पूरी होते-होते ऐसा ही मजाक जिंदगी में घटित वाला है। यह पूरब ने भीतर का एक द्वार तो खुला रखा, बाहर का सब कुछ खो दिया । निश्चित ही, हम नासमझ सिद्ध हुए। हमारे पास कुछ है नहीं । हमने भी एक तरह की शराब पी, जिसको भीतरी शराब कहें। और ऐसा मैं कह रहा हूं, ऐसा नहीं । जो भी जानने वाले हैं, वे यही कहते रहे हैं कि एक शराब है, एक नशा है, एक मदहोशी है भीतर की, जहां डूबकर कोई वापस लौटता नहीं । उमर खय्याम ने उसी के गीत गाए हैं। लेकिन लोग समझे नहीं कि उमर खय्याम तो एक सूफी फकीर था। लोग समझे कि वह इसी मधुशाला की बात कर रहा है, जो बाजार में खुली हुई है। वह तो उस मधुशाला की बात कर रहा है, जो भीतर खुलती है। वह तो उस पीने और पिलाने की बात कर रहा है, जो परमात्मा का नशा है। भीतर का यह द्वार तो श्रद्धा से खुलता है। श्रद्धा का अर्थ है, असंशय निष्ठा। लेकिन शिक्षण पूरा विज्ञान का है, इसलिए हमारा मन संदेह के सवाल उठाता है। स्वाभाविक ! उस जमाने में विज्ञान | का कोई शिक्षण न था, शिक्षण धर्म का था, इसलिए अर्जुन ने कोई सवाल नहीं उठाया। अभी मैं एक छोटे-से बच्चे का जीवन पढ़ रहा हूं। उस बच्चे ने बड़ी हैरानी का प्रयोग किया। बारह साल का लड़का घुमक्कड़ जिप्सियों के साथ भाग गया। उसके पिता ने उसको सहायता दी। | कहना चाहिए, पिता ने उसे भगाया जिप्सियों के साथ। यह जानने के लिए कि छः साल वह बच्चा जिप्सियों के साथ रहेगा, तो जिप्सियों की आंतरिक जिंदगी के रहस्य पता लगा लाएगा। क्योंकि जिप्सियों के संबंध में जो भी लिखा गया है, वह बाहर के लोगों की लिखावट है। और जब तक हम किसी को भीतर से न जानें, सच्चाइयों का कोई पता नहीं चलता। तो उस बच्चे को भगा दिया जिप्सियों के साथ। जिप्सियों का | एक कबीला ठहरा है गांव के बाहर। उसके बच्चों से दोस्ती करवा दी बारह साल के बच्चे की । और उस बारह साल के बच्चे को 323 Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 मुसीबत की दुनिया में यात्रा पर भेज दिया। वह बच्चा भाग गया। उस बच्चे ने जो अपने संस्मरण लिखे हैं, उसमें से एक बात इस संबंध में आपसे कहना चाहता हूं। जिप्सियों के पास कोई मकान नहीं हैं। घुमक्कड़ कौम है, खानाबदोश। यह खानाबदोश शब्द अच्छा है। इसका मतलब होता है, जिसका मकान खुद के कंधे पर है – खानाबदोश । दोश यानी कंधा, खाना यानी मकान। और जिसके कंधे पर ही अपना मकान है, उसको कहते हैं खानाबदोश । तो जिप्सियों का तो कोई घर नहीं है। आज इस गांव में, कल दूसरे गांव में, परसों तीसरे गांव में घुमक्कड़ कौम है। निश्चित ही, प्राइवेसी की कोई धारणा जिप्सियों में नहीं है, एकांत की । हो नहीं सकती। रात खुले आकाश के नीचे सोते हैं सब । एकांत का कोई सवाल भी नहीं है। प्रेम भी करना हो, तो खुले आकाश के नीचे ही करना पड़ेगा। कोई उपाय नहीं है। यह बच्चा पहले ही दो-चार - आठ दिनों में जब जिप्सियों के साथ रहा, तो उसे जब भी पेशाब करनी हो, तो वह अकेले में जाकर किसी वृक्ष के नीचे बैठ जाए। जिप्सी बच्चों ने उसे बहुत बुरा माना और कहा कि तुम बहुत गलत बात करते हो ! उसने कहा, इसमें कौन-सी गलत बात है? उन बच्चों ने कहा, यह बिलकुल गलत बात है। सब काम बांटकर करने चाहिए। उसने कहा, अजीब पागलपन की बात कर हो! इसको कैसे बांटा जा सकता है? उन्होंने कहा, हम भी साथ दे सकते हैं, हम भी कोआपरेट कर सकते हैं। जब तुम जाते हो, हमसे भी कह सकते हो कि तुम भी चलो। लेकिन तुम अकेले ही चले जाते हो ! उस बच्चे ने कहा, लेकिन हमारे घर में तो बाथरूम होता है। और हम अंदर जाकर बंद करके ही अपनी शंका का निवारण करते हैं। वे जिप्सी बच्चे बहुत हंसे। वे बोले, कैसे नासमझ हो तुम सब ! क्योंकि कोई भी आदमी उठकर बाथरूम में जाएगा, तो सबको पता है कि वह क्या करने गया! जब पता ही है, तो छिपाने का फायदा क्या है! इस बच्चे को बड़ी कठिनाइयां आईं, क्योंकि इसकी समझ में ही न आए। क्योंकि जिप्सियों के सोचने का ढंग और उनके संस्कार और। ग्रुप माइंड ! इंडिविजुअल का कोई सवाल नहीं है, व्यक्ति का कोई सवाल नहीं है, समूह मन है। जो भी आएगा, बांटकर खाएंगे। जो भी मुसीबत होगी, उसको भी बांट लेंगे। जो भी सुख आएगा, उसको भी बांट लेंगे। साथ जीएंगे। तो खयाल ही नहीं है कि कोई आदमी व्यक्तिगत कोई काम भी कर सकता है। तो बच्चों को सवाल उठा कि तुम व्यक्तिगत जाकर कोई काम कैसे कर सकते हो ? यह असंभव है। हमारे मन में वही सवाल उठते हैं, जो हमारा संस्कार हो जाता है। जैसे जिप्सियों के साथ रहकर इस बच्चे को पता चला कि चोरी वे बुरा नहीं मानते हैं। हां, उस चोरी को बुरा मानते हैं, जिसको कोई संग्रह करे। जैसे कोई आदमी चोरी कर लाए और संग्रह कर ले, चुपचाप छिपा ले और सबको न बांटे, तो उसे बुरा मानते हैं। या कोई ऐसी चीज चुरा लाए, जिसका आज उपयोग न हो, छः महीने बाद उपयोग हो, तो उसको भी बुरा मानते हैं। लेकिन कोई आदमी जाकर खेत से घास तोड़ लाए, तो जिप्सी उसे बुरा नहीं मानते। और जब पहली दफा इस बच्चे के सामने पुलिस आई और जिप्सियों को पकड़ा, क्योंकि उन्होंने अपने घोड़ों के लिए किसी खेत से घास काट लिया था। तो जिसने काटा था, उसने कहा कि इसमें चोरी कहां है? घास तुम तो नहीं बढ़ाते; परमात्मा बढ़ाता है । जमीन परमात्मा की, आकाश परमात्मा का, सूरज परमात्मा का, घोड़े परमात्मा के, तुम परमात्मा के, हम परमात्मा के । तुमने कोई घास तो बढ़ाया नहीं ! हां, अगर हम घास इकट्ठा कर रहे हों, घोड़ों को खिलाने से ज्यादा इकट्ठा कर रहे हों, तो हम जुर्मी हैं। लेकिन इसमें चोरी कैसी ? जिप्सी को समझ में नहीं आता कि इसमें चोरी कैसी। क्योंकि व्यक्तिगत संपत्ति की धारणा उसके मन में नहीं है। व्यक्तिगत संपत्ति जैसी कोई चीज ही नहीं है। धारणा भी कैसे होगी? हमारे मन में खयाल उठता है, चोरी हो गई, क्योंकि हमारा संस्कार है एक । आज हम सारी दुनिया में विज्ञान का संस्कार दे रहे हैं बच्चों को । हम सबके मन में संदेह का संस्कार है। संशय हमारे द्वार पर खड़ा है। संशय के बिना हम एक कदम चलते नहीं। लेकिन कृष्ण ने जब यह शिक्षा दी, तब आदमी के द्वार पर संशय की जगह श्रद्धा थी । पूरा द्वार बदल गया, आदमी वही है। इसलिए आप जब गीता को पढ़ते हैं, आपके काम नहीं पड़ेगी। | क्योंकि आपके दरवाजे पर जो पहरेदार खड़ा है, वह बिलकुल बदल गया है। वह गीता को भीतर प्रवेश ही न करने देगा | आप रट भी लेंगे, कंठस्थ भी कर लेंगे, दोहराने भी लगेंगे, लेकिन हृदय के भीतर गीता का कोई प्रवेश न होगा। क्योंकि वह प्रवेश तभी हो सकता है, जब कृष्ण की शर्त पूरी हो । वे कहते हैं, असंशय! | लेकिन असंशय कैसे आएगा? क्या मैं जबर्दस्ती कोशिश कर लूं कि संशय को छोड़ दूं? 324 Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनन्य निष्ठा > नहीं; आज इसका कोई उपाय नहीं है कि हम कोशिश करके बोलने और सुनने वाले भी खड़े हों। और अक्सर ऐसे ही खड़े होते संशय को छोड़ दें। आज कोशिश करके संशय नहीं छोड़ा जा | हैं, अपनी रक्षा में तत्पर! दोनों के द्वार बंद। आवाज गूंजती है, सकता। आज तो आप संशय पूरी तरह से कर लें, तो ही संशय | संवाद नहीं होता। शब्द बिखर जाते हैं, कोई प्रतीति नहीं आती। छूट सकता है। . . बहुत सुना जाता है, कुछ पल्ले नहीं पड़ता; सब खाली-खाली रह इतना पूरी तरह से संशय कर लें कि थक जाएं, एक्झास्टेड; ऊब | जाता है। जाएं, घबड़ा जाएं। और संशय इतना कर लें कि कहीं न पहुंचे यह शर्त कीमती है। और यह शर्त इसलिए है कि कृष्ण कुछ ऐसी सिवाय नर्क के, दुख ही दुख चारों तरफ खड़ा हो जाए। इतना संशय | बात कहना चाहते हैं अर्जुन से, जो तर्क और संशय से भरे चित्त को कर लें कि कांटे ही कांटे संशय के सब तरफ से छिद जाएं और | | नहीं कही जा सकती। सिर्फ उसे ही कही जा सकती है, जो बिलकुल भीतर जिंदगी में कोई सुख का फूल न खिले। संशय कर लें पूरा, | खुलकर बैठा है, ओपन। जिसकी कोई क्लोजिंग नहीं है। जिसका टोटल। तो शायद, तो शायद संशय से ऊब जाएं और पार हो जाएं। कोई डिफेंस, जिसकी कोई सुरक्षा नहीं है। जो इतने भरोसे से भरा तो शायद संशय किसी क्षण में गिर जाए और आप बाहर हो जाएं। | है कि अगर उसकी छाती में छुरा भी भोंक दो, तो वह उस छुरे को और वह निःसंशय स्थिति बन जाए, जो कृष्ण कहते हैं, पहली शर्त | | भी स्वीकार कर लेगा। अनन्य प्रेम, छाती में छुरा भी भोंक दो, तो है। और इतना निःसंशय हो जा अर्जुन, तू फिर इतना निःसंशय होकर | | स्वीकार कर लेगा। और सोचेगा कि मेरे हित में होगा, इसीलिए। मझेसन। | जो अपनी छाती में छुरा लेने को तैयार है, उसी की छाती में सत्य बड़ी मजे की बात है। सुनने के लिए इतनी शर्त! कहते हैं, इतना | भी प्रवेश करते हैं। निःसंशय होकर, इतना अनन्य होकर फिर तू मुझे सुन। अगर ___ कबीर ने कहा है, जो घर बारे आपना, चले हमारे संग। तैयारी सुनने के ऊपर इतनी शर्त है, तब तो हममें से कोई भी सुनने में | | हो अगर अपने घर को जला डालने की, तो आओ मेरे साथ। समर्थ नहीं है। कौन-सा घर? कबीर ने किसी का घर कभी जलवाया नहीं। एक हम सब सोचते हैं कि हम सब सुनने में समर्थ हैं, क्योंकि कान | और घर है हमारे चारों तरफ सुरक्षा का, जैसे कि सिपाही अपने हमारे पास हैं। क्योंकि ध्वनि हमारे कान में पहुंच जाती है, तो हम | चारों तरफ जिरह-बख्तर बांधकर युद्ध के मैदान पर जाता है। हम समझते हैं, हम सुनने में समर्थ हैं। हम सब सुनने में समर्थ नहीं हैं। सब भी एक बड़ा जिरह-बख्तर अपने चारों तरफ बांधे हुए तैयार कान पर आवाज पड़ती है जरूर, ध्वनि पैदा होती है जरूर, लेकिन रहते हैं कि कहीं कोई ऐसी बात प्रवेश न कर जाए कि हमारी सुरक्षा सनना और आंतरिक घटना है। खतरे में पड़ जाए। कहीं कोई ऐसा सत्य भीतर न चला जाए कि कृष्ण कहते हैं, इतनी शर्त तू पूरी कर, अनन्य भाव से भर जा; | हमारी जिंदगी हमें बदलनी पड़े। कहीं कोई ऐसी प्रेरणा न मिल जाए असंशय निष्ठा हो तेरी मुझमें, तो तू मुझे सुन पाएगा। फिर सुन! कि हमें कुछ और होना पड़े। कहीं कोई हमारा जो इस्टैब्लिश्ड, क्योंकि फिर मैं तुझे राज खोल सकता हूं वे, जो बुद्धि के लिए नहीं | | हमारा जो व्यवस्थित जगत है, उसमें कोई गड़बड़ न हो जाए। खोले जा सकते। फिर मैं वे रहस्य खोल सकता हूं तेरे समक्ष, जो | एक मित्र परसों मेरे पास आए थे। उन्होंने कहा कि मैं आपकी केवल हृदय के समक्ष खोले जाते हैं, तर्क के समक्ष नहीं खोले | बात सुनने आना चाहता हूं, लेकिन जब से आपने संन्यास की बात जाते। फिर मैं तुझसे कह सकूँगा वह आंतरिक बात, जो केवल प्रेम | की है, तब से मन में भय लगता है। क्या भय की बात है? उन्होंने में ही कही जाती है, जो विवाद में नहीं कही जाती। कहा, भय लगता है कि कहीं किसी दिन मुझे भी समझ में आ जाए __ और जिंदगी में गहरे जो सत्य हैं, वे विवाद में नहीं कहे जाते। वे | | कि संन्यास लेना है, तो फिर क्या होगा? प्रेम में ही कहे जा सकते हैं। एक सिम्पैथेटिक एटीटयूड, एक | | अब ये आदमी अगर मुझे सुनने आए होंगे—जरूर आए होंगे, सहानुभूति से भरे हुए हृदय से ही कहे जा सकते हैं। जीवन के जो सदा आते हैं तो जिरह-बख्तर बांधकर बैठे होंगे कि कहीं कोई भी गहन सत्य हैं, वे अनन्य भावदशा में ही कहे जा सकते हैं, | | बात भीतर न चली जाए। कैसा मजा है! बात सुननी भी है और क्योंकि तभी कम्युनिकेशन, तभी एक बात दूसरे तक पहुंचती है। भीतर नहीं भी जाने देनी है, तो व्यर्थ मेहनत क्यों करनी? मत सुनें, अन्यथा हम, जैसे युद्ध के मैदान पर सिपाही खड़े होते हैं, ऐसे बेहतर है। सुनें, तो फिर भीतर प्रवेश करने दें। 325 Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-3 - तो कृष्ण कहते हैं, यह पहली शर्त है। ा ब्द तो वही रहते हैं। रुख बदल जाए, तो सब बदल पुराने समस्त गुरु शर्ते पहले लगा देते थे। कहते थे, पहले ये | जाता है। शर्ते पूरी कर दो, फिर हम तुमसे कहेंगे। क्योंकि कहीं ऐसा न हो | परमात्मा में आसक्त मन वाला। और परमात्मा में कि तुम बेकार हमारा समय जाया करो। आसक्त मन वाला जब हम कहेंगे, तो आसक्त शब्द का वही अर्थ अगर सूफी फकीर के पास आप सीखने जाएं, तो कहेगा कि दो | न रह जाएगा, जो धन में आसक्ति वाला, यश में आसक्ति वाला। साल घर में झाडू-बुहारी लगाते रहो। आप कहेंगे, मैं सत्य खोजने | शब्द तो बदल जाते हैं तत्काल, जैसे ही उनका आयाम बदलता आया हूं, झाडू-बुहारी लगाने नहीं। तो वह कहेगा, सत्य की खोज | | है। हमारे पास शब्द तो थोड़े हैं। और हमारे सब शब्द जूठे हैं। का यह पहला चरण हुआ। तुम दो साल झाडू-बुहारी लगाओ। कृष्ण के पास भी कोई उपाय नहीं है नए शब्दों के बोलने का। बीच में मुझसे पूछना मत। लगाते रहना। जब मैं समझूगा कि वह | | हमारे ही शब्दों का उपयोग करना है। अगर कहेंगे प्रेम, तो हमारे वक्त आ गया, अब मैं तुमसे कहूं, दि टाइम इज़ राइप, समय पक | मन में जो खयाल आता है, वह हमारे ही प्रेम का आता है। अगर गया, तब मैं तुमसे कह दूंगा। भाग जाएंगे हम तो तभी! कहेंगे आसक्त, तो हमारे मन में जो अर्थ आता है, वह हमारी ही सुना है मैंने कि एक सूफी फकीर के पास एक आदमी आया और आसक्ति का आता है। लेकिन जो शर्त लगी है, परमात्मा में उसने कहा कि मैं सत्य की खोज में आया हूं। उस फकीर ने कहा, आसक्त मन वाला! यह खोज बड़ी कठिन है। तुम्हारी तैयारी पूरी है ? उसने कहा, मेरी परमात्मा में कौन होता है आसक्त? तैयारी पूरी है। तो फकीर ने कहा, अपना नाम-पता लिखा दो; | | तो कृष्ण ने पहले बहुत व्याख्या की है उसकी, कि जो सब भांति अगर इस खोज में तुम मर जाओ, तो तुम्हारे अस्थिपंजर में कहां अनासक्त हो गया, वही परमात्मा में आसक्त होता है। परमात्मा में भेजूं! व्हेयर शुड आई सेंड दि रिमेंस—जो बच रहे पीछे, उसे मैं | आसक्ति का मतलब है, पूर्ण अनासक्ति। पूर्ण अनासक्ति न हो, कहां भेजूं! उस आदमी ने कहा कि अगर आप बुरा न मानें, तो मैं | | तो परमात्मा में आसक्ति न होगी। जरा-सी भी आसक्ति कहीं बची अस्थिपंजर खुद ही लिए जाता हूं। और भाग खड़ा हुआ! आपको | | हो, तो परमात्मा में आसक्ति न होगी। कष्ट होगा भेजने का, मैं खुद ही लिए जाता हूं! तो चाहे हम कहें, आसक्ति। आसक्ति का अर्थ है, जिसमें हम उसने सोचा भी न था कि सत्य की खोज में अस्थिपंजर भी कभी आकर्षित हो रहे हैं. जिसमें हम खींचे जा रहे हैं. जिसमें हम बलाए भेजने की जरूरत पड़ सकती है। वह भी नहीं समझा। अस्थिपंजर जा रहे हैं; जिसमें हम पुकारे जा रहे हैं; जिसके बिना हम न जी से उस फकीर का मतलब बड़ा गहरा रहा होगा। सकेंगे। तो चाहे कहें आसक्ति, चाहे कहें प्रेम, चाहे कहें अनन्य वह जो हम अपने चारों तरफ बांधे हैं, जिसकी वजह से हम सब | राग, चाहे कहें भक्ति; इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। इतना ही तरफ से कट जाते हैं; एक आईलैंड, एक द्वीप की तरह बन जाते | प्रयोजन है कि जो परमात्मा की तरफ खिंचा जा रहा है; जिसके हैं; सब तरफ से टूटकर अलग खड़े हो जाते हैं। उसमें सत्य प्रवेश | आकर्षण का बिंदु परमात्मा हो गया। और परमात्मा का क्या अर्थ नहीं करेगा। सत्य के लिए द्वार चाहिए। | होता है? इसलिए कृष्ण कहते हैं, इतनी तैयारी हो अर्जुन, तो फिर सुन। परमात्मा का अर्थ है, सब कुछ। जो इस सब को घेरे हुए है, जो इस सब के भीतर छिपा है, वह निराकार और अरूप जो सब रूपों | में व्याप्त है, उसकी तरफ जो आकर्षित हो गया। जो अब बंद में प्रश्नः भगवान श्री, एक छोटा-सा प्रश्न है। अनन्य | आकर्षित नहीं है, बूंद में छिपे महासागर में आकर्षित है। जो व्यक्ति प्रेम को यहां मूल संस्कृत में कहा गया है, | में आकर्षित नहीं है, व्यक्ति के भीतर छिपे अव्यक्ति में आकर्षित आसक्तमना। मेरे में आसक्त मन वाले का कैसा | है। जो अब अगर अपनी पत्नी को भी प्रेम कर रहा है, तो पत्नी को आध्यात्मिक अर्थ होगा? इसे स्पष्ट करें। | प्रेम नहीं कर रहा है, पत्नी में छिपे परमात्मा को प्रेम कर रहा है। अब जो सब तरफ, उस परमात्मा से ही खींचा जा रहा है और बुलाया जा रहा है। जो सब भांति उसी की तरफ दौड़ रहा है, उसी 1326 Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < अनन्य निष्ठा > महासागर के मिलन की तरफ। तो मुझ परमात्मा में आसक्त मन | पागल, तू फिक्र कर रहा है उनकी, जो न ले सकेंगे; और तु अपनी वाला। तो प्रेम कहें, आसक्ति कहें, इससे फर्क नहीं पड़ता। फर्क | फिक्र कब करेगा, जो ले सकता है! इससे पड़ता है कि आप उसका उपयोग क्या कर रहे हैं। तो उस फकीर ने कहा कि जो गूगे हैं, वे तो गूंगे हैं ही; और जो शब्द अपने आप में अर्थहीन हैं। सब कुछ उपयोग पर निर्भर | | बहरे हैं, वे तो बहरे हैं ही; लेकिन तेरे बहरेपन को हम क्या करें? करता है। शब्दों में खुद कोई अर्थ नहीं है। अर्थ तो हम डालते हैं | तेरे गूंगेपन को हम क्या करें? और हम देते हैं। और अर्थ बदल जाता है तत्काल. जैसे ही शब्द __ कृष्ण, अर्जुन का गूंगापन, बहरापन टूट जाए, उसकी पीठ मुड़ का आयाम बदलता है, तब अर्थ बदल जाता है। जाए. वह परमात्मा की तरफ उन्मख हो जाए क्योंकि अभी तक यह शर्त है कृष्ण की कि परमात्मा की तरफ आ रहे मन वाला | | अर्जुन की जो उन्मुखता है, वह युद्ध से बचने की है। किसी तरह अगर तू है, तो मुझे सुन। क्योंकि वे जो कहने जा रहे हैं, वह जो युद्ध से बच जाए। यह हिंसा न हो। बस, इससे ज्यादा उसकी परमात्मा की तरफ पीठ करके चल रहा है, वह न सुन सकेगा; | | उत्सुकता नहीं है। उसके किसी काम का नहीं है। वह बहरे से बात करनी हो जाएगी। | यह बड़े मजे की बात है, अर्जुन किसी ब्रह्मज्ञान को लेने कृष्ण उसका कोई अर्थ नहीं है। | के पास गया नहीं था। ये कृष्ण जबर्दस्ती उसको ब्रह्मज्ञान दिए देते अभी मैं एक झेन फकीर का जीवन पढ़ता था। एक युवक आया हैं! कारण है। क्योंकि कृष्ण के पास जो है, वही दे सकते हैं। आप है उस फकीर के पास और उस युवक ने कहा कि मैंने सुना है, बुद्ध अगर अमृत के सागर के पास विष लेने भी जाएं, तो भी अमृत का ने कहा है कि मेरी बात सब के उपयोग की है। धर्म सब के लिए सागर क्या कर सकता है? वह आपको अमृत ही दे देगा। भला है। लेकिन, उस युवक ने कहा, इसमें मुझे बड़ी शंका होती है। मुझे. आप पीछे पछताएं कि गलत जगह पहुंच गए। फंस गए! शंका होती है कि बुद्ध के वचन अगर सब के उपयोग के लिए हैं, अर्जुन तो एक बहुत छोटा-सा सवाल लेकर गया था। उसने तो बहरों का क्या होगा? क्योंकि बहरे तो सुन ही न सकेंगे, तो सोचा भी न होगा कि इतनी बड़ी गीता उससे पैदा होगी। उसने सोचा उनके लिए उपयोग कैसे होगा? बुद्ध खड़े भी रहें, अंधे तो देख ही | | भी न होगा कि कृष्ण ज्ञान की इतनी गहराइयों में उसे ले जाएंगे। न सकेंगे, तो सत्संग कैसे होगा? मगर कृष्ण की भी अपनी मजबूरी है। कृष्ण के पास जो है, वे __ उस फकीर ने क्या किया? उस फकीर ने वही किया, जो फकीरों | वही दे सकते हैं। आगे वे कुछ ऐसी गहन बातें कहने वाले हैं, जो को करना चाहिए। पास में पड़ा था एक डंडा, उसने जोर से उस कि अर्जुन अगर पूरी तरह उन्मुख हो, तो ही समझ पाएगा, इसलिए आदमी के पेट में डंडे का जोर से धक्का दिया। उस आदमी ने चीख | | यह शर्त लगाई है। मारी। उसने कहा, आप यह क्या करते हैं? तो उस फकीर ने कहा, अहा! मैं तो समझता था कि तुम गंगे हो। तो तुम गूंगे नहीं हो, बोलते हो! जरा मेरे पास आओ। तो वह आदमी डरता हआ पास ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः । आया। उसने कहा, अहा! मैं तो सोचता था कि तुम लंगड़े हो। यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ।।२।। लेकिन तुम तो चलते हो! | मैं तेरे लिए इस रहस्यसहित तत्वजान को संपर्णता से कहंगा उस आदमी ने कहा, इन बातों से क्या मतलब जो मैं पूछने आया कि जिसको जानकर संसार में फिर और कुछ भी जानने हूं! तो उस फकीर ने कहा कि तुम इसकी फिक्र छोड़ो, दूसरे अंधे, योग्य शेष नहीं रहता है। लूले और गूगों की। अगर तुम गूंगे नहीं हो, लूले नहीं हो, अंधे नहीं हो, तो कम से कम तुम लाभ ले लो। और जब कोई अंधे आएंगे, तब उनसे मैं निपट लूंगा। जब कोई गंगे आएंगे, तब उनसे मैं निपट व हुत कुछ है, जो जान लिया जाए, तब भी सब कुछ लूंगा। तुम फिक्र छोड़ो। इतना तय है कि तुम अंधे, लूले, लंगड़े, प जानने को शेष रह जाता है। बहुत कुछ है, जो पूरा का गूंगे नहीं हो। तुमने क्या लाभ लिया बुद्ध के वचनों का? उसने | पूरा जान लिया जाए, तो भी जो जानने जैसी चीज है, कहा, अभी तक तो कुछ नहीं लिया! तो उस फकीर ने कहा कि वह शेष ही रह जाती है। 327 Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 उपनिषद में कथा है कि श्वेतकेतु वापस लौटा। तो उसके पिता होगा। तूने पूछा, नदियां कैसे बहती हैं, तो मैंने बताया होगा। तूने ने देखा कि श्वेतकेतु वापस लौट रहा है आश्रम से अध्ययन करके। | पूछा कि अन्न कैसे पचता है, तो मैंने बताया होगा। तूने जो पूछा, स्वभावतः, अकड़ उसमें रही होगी। जो भी थोड़ा-बहुत ज्ञान सीख वह मैंने तझे बताया। तने कभी यह पछा ही नहीं कि मैं कौन हं! ले, अकड़ पैदा होती है। श्वेतकेतु अकड़ता हुआ चला आ रहा है! और जब तक कोई स्वयं को न जान ले, तब तक वह ज्ञान नहीं सुबह सूरज निकला है और पिता श्वेतकेतु को आता हुआ | | मिलता, जिसे जानने से सब जान लिया जाता है। या जिसे जान लेने देखता है। सब कुछ जानकर लौट रहा है। अठारह शास्त्र, जो उन | | पर फिर जानने को कुछ शेष नहीं रह जाता है। दिनों प्रचलित थे, उन सबका ज्ञान लेकर आया है। अब अकड़ में तो कृष्ण कहते हैं, अब मैं वह रहस्य तुझसे कहूंगा अर्जुन, और और कोई कमी नहीं है। अब तो पिता भी उसके सामने कुछ नहीं | पूरा ही बता दूंगा तुझे तीन-चार बातें कहते हैं-अब मैं वह जानता। जैसा कि सभी बच्चों को लगता है, जब वे थोड़ा-सा जान | रहस्य तुझसे कहूंगा अर्जुन। लेते हैं। उस दिन के भी बच्चे ऐसे ही थे, जैसे आज के बच्चे हैं। रहस्य, मिस्ट्री। कह सकते थे कि वह सत्य मैं तुझसे कहूंगा। श्वेतकेतु अकड़ से घर में प्रवेश किया। पिता ने उससे पूछा, तू लेकिन कहते हैं, वह रहस्य मैं तुझसे कहूंगा। क्योंकि उस रहस्य सब जानकर आ गया, ऐसा मालूम पड़ता है। उसने कहा कि को कहने के लिए सत्य शब्द भी छोटा है। और उसे सत्य नहीं कहा निश्चित ही। आप पूछ देखें। सब परीक्षाओं में उत्तीर्ण हुआ। सब जानकर। क्योंकि उसे कितना ही जान लो, तब भी कभी दावा नहीं शास्त्र कंठस्थ हैं। गुरु ने जब प्रमाणपत्र दे दिया, तब मैं आया हूं। कर सकते कि जान लिया है। इसलिए कहा, रहस्य। पर उसके पिता ने पछा कि तने अपने गरु से वह भी जाना या नहीं. ! रहस्य का मतलब यह है. जानो. तो खद मिटते हो। और जानो. जिसको जान लेने से सब जान लिया जाता है? तो और मिटते हो। और जानो, तो और। और एक दिन आता है कि उसने कहा, वह क्या चीज है, जिसको जान लेने से सब जान जानना तो पूरा हो जाता है, लेकिन खुद बिलकुल नहीं रह जाते। लिया जाता है! ऐसी तो कोई चीज गुरु ने मुझे नहीं बताई, जिसको दावेदार खतम हो जाता है। वह जो क्लेम कर सकता था कि मैंने जान लेने से सब जान लिया जाता है। मैं तो वे ही चीजें जानकर आ जान लिया, सत्य मेरी मुट्ठी में है, वह बचता नहीं। न मुट्ठी बांधने रहा हूं, जिनको जान लेने से उन्हीं को जाना जाता है। सब का कोई वाला बचता है, न मुट्ठी बचती है। फिर जो बच रहता है, वह एक सवाल नहीं है! मिस्ट्री है, वह एक रहस्य है। तो पिता ने कहा, तू वापस जा। तू बेकार ही श्रम करके घर लौट इसलिए भी रहस्य कहा कि पूरी तरह जानकर भी, पूरी तरह आया। तेरी अकड़ ने ही मुझे कह दिया कि तू अज्ञानी का अज्ञानी परिचित होकर भी, वह ज्ञान तर्कबद्ध नहीं होता है। वह लाजिकल ही वापस आ रहा है। क्योंकि अकड़ अज्ञान का सबूत है। तू वापस नहीं है। वह एक रहस्य की भांति है; धुंधला है। जैसे सुबह, जब जा। तू शास्त्रों के बोझ से तो दब गया, लेकिन ज्ञान की किरण अभी सूरज नहीं निकला है, चारों तरफ कुहरा छाया हुआ है। चीजें तेरे जीवन में नहीं फटी। उसे जानकर आ. जिसे जान लेने के बाद रहस्यपूर्ण लगती हैं। या रात पूर्णिमा की चांदनी में, जब कि कहीं कुछ जानने को शेष नहीं रह जाता। वृक्षों के नीचे अंधेरा है, और कहीं धीमी चांदनी है, और सब वह बेचारा वापस लौटा, उदास। सब व्यर्थ हो गया, बरसों की रहस्यपूर्ण हो जाता है। एक मिस्ट, एक धुंध घेरे रहती है। मेहनत। गुरु से जाकर उसने कहा कि आपने भी क्या सिखाया! उस रहस्य में जब कोई पहुंचता है, तो एक गहन चांदनी रात में, पिता ने कहा कि यह तो कुछ भी नहीं है। और मैं तो यह मानकर | जहां सब चीजें रहस्यपूर्ण मालूम पड़ती हैं; कोई चीज अपने में पूरी लौटा कि सब जान लिया गया। और उन्होंने कहा है कि उसे जानकर नहीं मालूम पड़ती; प्रत्येक चीज किसी और चीज की तरफ इशारा आ, जिसे जान लेने से सब जान लिया जाता है। वह क्या है जिसे | करती है। गद्य की भांति नहीं है वह, पद्य की भांति है; काव्य की जान लेने से सब जान लिया जाता है? भांति है; जिसका ओर-छोर नहीं मिलता। जिसे एक तरफ से शुरू उसके गुरु ने कहा, वह तू स्वयं है। लेकिन तूने कभी मुझसे पूछा करें, तो दूसरा अंत नहीं आता। और जिसमें जितने भीतर प्रवेश ही नहीं कि मैं कौन हूं! तूने पूछा नहीं! तूने जो पूछा, वह मैंने तुझे | करें, उतनी ही पहेली बड़ी होती चली जाती है। बताया। तूने पूछा, आकाश में बादल कैसे बनते हैं, तो मैंने बताया | इसलिए नहीं कहा कि तुझे सत्य कहूंगा। कहा कि तुझे कहूंगा 328 Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < अनन्य निष्ठा - वह रहस्य। बुद्ध से पूछता है कि प्रभु! आज एकांत का क्षण है, एक बात पूछ और ध्यान रहे, संतों ने कभी भी सत्य का दावा नहीं किया, लूं। बहुत दिन से पूछने का मन करता है, लेकिन कोई न कोई मौजूद रहस्य की घोषणा की है। दार्शनिकों ने सत्य का दावा किया और | | होता है; मैं टाल जाता हूं। आज यहां कोई भी नहीं है, सिवाय इन रहस्य की हत्या की है। और इसलिए दर्शन, फिलासफी और धर्म | सूखे गिरते पत्तों के। मैं आपसे पूछ लूं एक बात। आप जो जानते में एक बुनियादी फर्क है। हैं, वह सभी कह दिया है, या कुछ बचा भी लिया है? आपने जो धर्म रहस्य की खोज है और दर्शनशास्त्र सत्य की। इसलिए | जाना, वह सभी कह दिया है, या कुछ बचा भी लिया है? . दार्शनिक गणित बिठाने में लगा रहता है, और धार्मिक गणित | तो बुद्ध अपना हाथ खोल देते हैं उसके सामने, और कहते हैं, उखाड़ने में लगा रहता है। दर्शनशास्त्री तर्क, कनक्लूजन, मैं खुली हुई मुट्ठी की तरह हूं, बंद मुट्ठी की तरह नहीं। मैंने तो सभी निष्पत्तियां निकालता रहता है। और संत, मिस्टिक, सब निष्पत्तियां | | कह दिया है, लेकिन तमने सभी सन लिया होगा, यह जरूरी नहीं तोड़कर, वह जो अनंत अज्ञात है, उसमें कूद जाता है। है। मैंने तो सब बता दिया है, लेकिन सब तुमने पा लिया होगा, यह इसलिए कृष्ण ने कहा, रहस्य। जरूरी नहीं है। मैंने तो कुछ भी नहीं छिपाया है, लेकिन सब प्रकट कृष्ण कोई फिलासफर नहीं हैं, कोई दार्शनिक नहीं हैं; उस अर्थों हो गया होगा, यह जरूरी नहीं है। मैं तो एक खुली किताब हूं, खुली में जिसमें प्लेटो या अरस्तू या हीगल दार्शनिक हैं। उस अर्थ में कृष्ण | मुट्ठी हूं। सब मेरा खुला है। द्वार-दरवाजे खुले हैं। तुम कहीं से भी दार्शनिक नहीं हैं। कृष्ण उस अर्थ में रहस्यवादी हैं, जैसे जीसस या | प्रवेश करो। तुम सब जान लो। कुछ भी छिपाया नहीं है। कुछ बुद्ध या लाओत्से। | छिपाने का सवाल नहीं है। लेकिन सब तुम्हें प्रकट हो गया होगा, रहस्यवादी का कहना यह है कि तुम्हारे ज्ञान की घोषणा सिर्फ | यह जरूरी नहीं है। तुम्हारे अज्ञान का सबूत है। काश, तुम सच में ही जान लो, तो तुम कृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि सभी कुछ कह दूंगा तुझे-सभी। जानने का दावा छोड़ दो। काश, तुम्हें पता चल जाए, तो जो सत्य जो कहा जा सकता है, वह भी कह दूंगा; जो नहीं कहा जा सकता है, वह इतना बड़ा है कि तुम उसमें कहीं पाओगे भी न कि तुम कहां | है, वह भी कह दूंगा। सभी में दोनों आ जाते हैं। जो कहा जा सकता खड़े हो। तुम उसमें डूब तो सकते हो, लेकिन उसको मुट्ठी में नहीं | | है, वह भी कह दूंगा; जो नहीं कहा जा सकता है, वह भी कह दूंगा। ले सकते हो। आप पूछेगे, जो नहीं कहा जा सकता है. उसको कैसे कहिएगा? इसलिए कृष्ण कहते हैं, रहस्य। शायद जो नहीं कहा जा सकता, उसको कहने की बहुत तरह की रहस्य वह है, जिसमें हम तो डूब सकते हैं, लेकिन जिसे हम कोशिशें दुनिया में की गई हैं अलग-अलग ढंग से। लेकिन कृष्ण अपनी मुट्ठी में बांधकर घर में लाकर तिजोड़ी में बंद नहीं करने जैसी कोशिश की है, वैसी बहुत मुश्किल से शायद ही कभी की सकते। और हम कितना ही उसे जान लें. और कितना ही उसे गई है। इसलिए कष्ण जब कह-कहकर थक गए तो फिर उन्होंने पहचान लें, और कितना ही उसके साथ एक हो जाएं, फिर भी हमारे | दिखाया। वह कहा, जो नहीं कहा जा सकता है। फिर अर्जुन को मन में अज्ञात का भाव बना ही रहेगा, दि अननोन मौजूद ही रहेगा। कहा कि अब तेरी समझ में नहीं आता शब्दों से, तो अब तू देख जानें कितना ही, पहचानें कितना ही, मिलन हो जाए कितना ही, ले। अब मैं तुझे दिव्य-दृष्टि दे देता हूं और तू देख ले मेरे पूरे विराट फिर भी कुछ अज्ञात, कुछ अननोन शेष रहेगा। को। वह जो नहीं कहा जा सकता है, वह दिखाया। वह अज्ञात जो शेष रह जाता है, सदा शेष रह जाता है, वही कृष्ण विट्गिंस्टीन का बहुत प्रसिद्ध वचन है, देयर आर थिंग्स, व्हिच को रहस्य कहने के लिए प्रेरित करता है। कैन नाट बी सेड, बट कैन बी शोड। विट्गिंस्टीन पश्चिम के दूसरी बात वे कहते हैं, सभी तुझसे कह दूंगा। आधुनिक मिस्टिक, आधुनिक रहस्यवादियों में कीमती आदमी था। इस पर भी विचार कर लेने जैसा है। कहता है, ऐसी चीजें हैं, जो नहीं कही जा सकती, लेकिन बताई जा एक दिन बुद्ध एक वृक्ष के नीचे से गुजर रहे हैं। पतझड़ हो रही सकती हैं। और अगर उसके वचन के लिए कोई गवाही है, तो वे है। पतझड़ है। वृक्षों से सूखे पत्ते नीचे गिरते हैं। हवाएं पत्तों को | | कृष्ण हैं। क्योंकि जब नहीं कह सके वे, तो उन्होंने बताया कि अब उड़ाती हैं। पत्तों की आवाज और ध्वनि जंगल में गूंज रही है। आनंद | तू देख ले। 329 Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 लेकिन कितना अभागा है हमारा मन ! कि कृष्ण जब शब्द का उपयोग करते हैं, तब अर्जुन समझ नहीं पाता। और जब स्थिति का उपयोग करते हैं, सिचुएशन का, प्रकट कर देते हैं पूरा का पूरा, तब वह कहता है, बंद करो! बंद करो! रोको यह रूप । मन बहुत घबड़ाता है। मेरे प्राण बहुत कंपते हैं। इस विराट को वापस ले लो। यह अपनी आंख वापस लो ! न सुनकर हम समझ पाते हैं, न देखकर हम समझ पाते हैं। इसलिए कृष्ण जैसे व्यक्ति की करुणा अपरिसीम है। यह जानते हुए कि हम सुनकर भी नहीं समझ पाएंगे, हम देखकर भी नहीं समझ पाएंगे, फिर भी एक असंभव प्रयास कृष्ण जैसे लोग करते हैं। उनकी वजह से जिंदगी में थोड़ा नमक है, उनकी वजह से जिंदगी में थोड़ी रौनक है, जिन्होंने असंभव प्रयास किया। कहते हैं, सब कह दूंगा अर्जुन तुझे, सब ! पूरा का पूरा कह दूंगा। बस, तू सुनने को राजी हो । और वह बात बताना चाहता हूं, जिसे जान लेने से सब जान लिया जाता है। इसको भी थोड़ा-सा खयाल में ले लें। क्योंकि इस भारत में हमने सर्वाधिक जिसकी खोज की है, वह इसी एक छोटी-सी बात की, जिसको जान लेने से सब जान लिया जाता है— मास्टर - की। एक तो ऐसी कुंजी होती है कि एक ताले में लगती है। दूसरे ताले के लिए दूसरी कुंजी की जरूरत होती है। तीसरे ताले के लिए तीसरी कुंजी की जरूरत होती है। लेकिन एक मास्टर- जो सब तालों लगती है। एक कुंजी मिल गई, तो फिर किसी कुंजी की कोई जरूरत नहीं रहती। सब ताले खुल जाते हैं। इस मुल्क ने मास्टर की खोजने की कोशिश की है। पश्चिम भी कुंजियां खोजता है, लेकिन कुंजियां । हमने कुंजी खोजने की कोशिश की है। पश्चिम भी खोजता है । वह कहता है, यह ताला कैसे खुलेगा ! तो फिजिक्स का ताला किसी और कुंजी से खुलता केमिस्ट्री का किसी और कुंजी से खुलता है। साइकोलाजी का किसी और कुंजी से खुलता है। गणित का किसी और से । हजार कुंजियां खोज लीं उन्होंने। अब तो हालत यह हो गई है कि कौन-सी कुंजी कौन-सी है, इसका हिसाब रखना मुश्किल हुआ जा रहा है। फिर एक-एक कुंजी को खोजने के बाद और हजार ताले मिल जाते हैं, तो फिर उसमें और सब-ब्रांचेज कुंजी की खोजनी पड़ती हैं। तो केमिस्ट्री कभी केमिस्ट्री थी, अब केमिस्ट्री में बायो-केमिस्ट्री भी है, आर्गेनिक केमिस्ट्री भी है। अब अलग कुंजियां हैं। और कितनी देर तक आर्गेनिक केमिस्ट्री आर्गेनिक रहेगी; उसमें और कुंजियां निकली आती हैं! अभी पश्चिम में एक बहुत होशियार बुद्धिमान आदमी ने स्नो एक किताब लिखी, जिसमें उसने घोषणा की कि पश्चिम अपने ज्ञान के दबाव में मर सकता है। क्योंकि ज्ञान इतना हो गया, और | उसके बीच कोई तालमेल नहीं है। सब के पास कुंजियां हैं, सब के पासताले हैं। यह पता ही नहीं चलता कि कौन-सा ताला खोलें, कौन-सा न खोलें ! कौन-सा क्यों खोलें ! और सब तरफ से ताले खुल रहे हैं, और आदमी है कि बिलकुल बंद है, और उसका कुछ खुलता हुआ मालूम नहीं पड़ता । ज्ञान बहुत; अज्ञान अपनी जगह कायम | ज्ञान का भार भारी । आज जमीन पर जितना ज्ञान है, पृथ्वी पर कभी नहीं था । और अगर इसी मात्रा में ज्ञान बढ़ता है, तो जो लोग हिसाब-किताब लगाते हैं, वे कहते हैं, कुछ ही दिन में पृथ्वी के वजन से ज्यादा पुस्तकें हमारे पास हो जाएंगी। पृथ्वी क्या करेगी उस वक्त, यह अपने को अभी पता नहीं है। ऐसा होने देगी, यह भी पक्का पता नहीं है। लेकिन इसी रफ्तार से बढ़ता है। क्योंकि प्रति सप्ताह दस हजार नए ग्रंथ प्रकाशित हो जाते हैं। यह बोझ बढ़ता चला जाता है। इसलिए अब सारी दुनिया में जहां बड़ी लाइब्रेरीज हैं, वे लोग चिंतित हैं कि इतनी बड़ी लाइब्रेरीज को अब बेचाया नहीं जा | सकता। इनको कैसे बचाएंगे? लोगों के लिए रहने की जगह नहीं है; किताबों के लिए कैसे जगह होगी? तो किताबों को माइक्रो बुक्स, . छोटी किताबें करो। तो जितनी एक किताब की जगह में कम से कम एक लाख किताबें बन सकें, इतनी छोटी करो। फिर पर्दे पर उसको बड़ा करके पढ़ लो। छोटी-छोटी करो। क्योंकि इतनी किताबें अब नहीं रखी जा सकतीं। इतना ज्ञान, और आदमी के अज्ञान का कोई हिसाब नहीं है ! आदमी निपट अज्ञानी है। मास्टर की की तलाश नहीं हुई है। कृष्ण कहते हैं, मैं तुझे मास्टर - की दूंगा। मैं तुझे वह कुंजी दूंगा, जिसे पा लेने के बाद किसी कुंजी की कोई जरूरत नहीं। मैं तुझे वह | कुंजी दूंगा कि ताले खोलने नहीं पड़ते, कुंजी को देखते हैं कि खुल जाते हैं। मैं तुझे वह बता दूंगा, जिसे जान लेने से सब जान लिया | जाता है। वह एक तत्व मैं तुझे कह दूंगा। वह अनिर्वचनीय, वह एक परम, अल्टिमेट, वह आखिरी सत्य, वह बुनियाद का सत्य, वह अनादि, अनंत मैं तुझे कह दूंगा । उसे जान लेने पर फिर कुछ और जानने को शेष नहीं रह जाता। 330 Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनन्य निष्ठा शेष हम कल बात करेंगे। लेकिन अभी उठेंगे नहीं। उस मास्टर-की का थोड़ा यहां प्रयोग करना है, इसलिए थोड़ा बैठेंगे। पांच मिनट कोई भी नहीं जाएगा। इतनी देर आप अपने मन से बैठे थे, पांच मिनट मेरे मन से। कोई उठेगा नहीं। पांच मिनट हमारे संन्यासी कीर्तन करेंगे। वह भी एक मास्टर-की है। और कोई अगर उसमें भीतर पूरा प्रवेश कर जाए, तो ताले बिना चाबी लगाए खुलते हैं। आप भी बैठे-बैठे थोड़ा खोलने की कोशिश करें। ताली भी बजाएं। गाएं भी। मस्त भी हों। आनंदित भी हों। पडोसी की फिक्र छोड दें। जिसको पडोसी की फिक्र है. उसको परमात्मा की फिक्र कभी नहीं होती। पड़ोसी की फिक्र छोड़ दें। परमात्मा की थोड़ी फिक्र करें। संन्यासी आनंदमग्न होंगे। आप भी पांच मिनट उनका प्रसाद लें। और फिर हम विदा होंगे। 331 Page #358 --------------------------------------------------------------------------  Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय7 दूसरा प्रवचन परमात्मा की खोज Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ << गीता दर्शन भाग-3> मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये। क्यों करोड़ों में कोई एक प्रयास करता है उसे पाने के लिए, जिसे यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः ।।३।। पाकर सब पा लिया जा सकता है? क्या होगा कारण? होना तो परंतु हजारों मनुष्यों में कोई ही मनुष्य मेरी प्राप्ति के लिए ऐसा चाहिए कि करोड़ों में कभी कोई एक प्रयास न करे, बाकी सारे यत्न करता है, और उन यत्न करने वाले योगियों में भी कोई लोग प्रयास करें। क्योंकि परमात्मा आनंद है, जीवन है, अमृत है। ही पुरुष मेरे परायण हुआ मेरे को तत्व से जानता है अर्थात | तो करोड़ों में कोई एक क्यों प्रयास करता है? इसके कारण को थोड़ा यथार्थ मर्म से जानता है। ठीक से समझ लेना जरूरी है, क्योंकि वह उपयोगी है। सबसे पहला कारण तो यह है कि जो हमें मिला ही हुआ है, उसे पाने के लिए हम क्यों कर चेष्टा करें? सागर की मछली सब कुछ 7 भु की यात्रा सरल भी है और सर्वाधिक कठिन भी। खोजती होगी, सागर को कभी नहीं खोजती है। सागर की मछली प्र सरल इसलिए कि जिसे पाना है, उसे हमने सदा से सब खोजों पर निकलती होगी, लेकिन सागर की खोज पर कभी पाया ही हुआ है। जिसे खोजना है, उसे हमने वस्तुतः नहीं निकलती है। उसी में पैदा होती है, उसी में जीती है, बड़ी होती कभी खोया नहीं है। वह निरंतर ही हमारे भीतर मौजूद है, हमारी | है, श्वास लेती है, उसी में समाप्त होती है। उसे पता भी नहीं चलता प्रत्येक श्वास में और हमारे हृदय की प्रत्येक धड़कन में। इसलिए कि सागर है। सरल है प्रभु को पाना, क्योंकि प्रभु की तरफ से उसमें कोई भी बाधा | मछली को भी सागर का तभी पता चलता है, जब उसे सागर के नहीं है। इसे ठीक से ध्यान में ले लेंगे। बाहर निकालो। अगर मछली सागर के बाहर न आए, तो उसे कभी प्रभु को पाना सरल है, क्योंकि प्रभु सदा ही अवेलेबल है, सदा | | भी पता नहीं चलता कि सागर है। असल में सागर के साथ इतनी ही उपलब्ध है। लेकिन प्रभु को पाना कठिन बहुत है, क्योंकि | एक है कि पता भी कैसे चले! पता चलने के लिए दूरी चाहिए। आदमी सदा ही प्रभु की तरफ पीठ किए हुए खड़ा है। आदमी की | तो मछली तो कभी-कभी सागर के बाहर भी आ जाती है, तरफ से सारी कठिनाइयां हैं, प्रभु की तरफ से कोई भी कठिनाई नहीं | आदमी तो परमात्मा के बाहर कभी नहीं आता है। मछली को तो है। उसके मंदिर के द्वार सदा ही खुले हैं, लेकिन हम उन मंदिर के | कोई मछुवा कभी फांस भी लेता है जाल में और सागर के तट पर द्वारों की तरफ पीठ किए हैं। पीठ ही नहीं किए हैं, पीठ करके भाग भी तड़फने को छोड़ देता है। आदमी के लिए तो ऐसा कोई तट नहीं ही नहीं रहे हैं, अपना पूरा जीवन, अपनी पूरी है, जहां परमात्मा मौजूद न हो। आदमी जहां भी जाए, वहां शक्ति, अपनी पूरी सामर्थ्य, किस भांति उस मंदिर से दूर निकल | परमात्मा मौजूद है। जो इतना ज्यादा मौजूद है, उसकी हम फिक्र जाएं, इसमें लगा रहे हैं। छोड़ देते हैं, उसका हमें खयाल भूल जाता है। यद्यपि हम निकल न पाएंगे। हजारों-हजारों जन्मों में दौड़कर भी ध्यान रहे, हमारे ध्यान की जो धारा है, वह जो गैर-मौजूद है, उस मंदिर से हम दूर न जा पाएंगे। और जिस दिन भी हम पीठ उसकी तरफ बहती है। जैसे आपका एक दांत टूट जाए, तो जीभ फेरकर देखेंगे, पाएंगे कि वह मंदिर वहीं का वहीं मौजूद है-वहीं, | उस दांत की तरफ चलने लगती है। जो दांत मौजूद हैं, उनकी तरफ जहां से हमने दौड़ना शुरू किया था। | नहीं चलती। और भलीभांति एक दफे पता लगा लिया कि टूट आदमी की तरफ से बहुत कठिनाइयां हैं। इसलिए कृष्ण के इस गया, खाली जगह छूट गई, फिर भी दिनभर जीभ वहीं दौड़ती रहती सूत्र में उन्होंने कहा, करोड़ों में कोई एक प्रयास करता है। और | | है! जहां अभाव है, वहां हम खोजते हैं। जिसका अति भाव है, जो प्रयास करने वाले करोड़ों में कोई कभी एक मुझे उपलब्ध होता है। | एकदम मौजूद है घना होकर, वहां हम नहीं खोजते। दो बातें। करोड़ों में कभी कोई एक प्रयास करता है। इसे समझें। मन के गहरे नियमों में एक यह है कि जो हमें उपलब्ध है, और फिर प्रयास करने वाले करोड़ों में भी कभी कोई एक मुझे | उसकी हम विचारणा छोड़ देते हैं। जो हमें उपलब्ध नहीं है, उसकी परायण हुआ, मुझे समर्पित हुआ, उपलब्ध होता है। हम खोज करते हैं। जो हमारे पास है, उसे हम भूल जाते हैं। जो । क्यों करोड़ों लोगों में कभी कोई एक प्रयास करता है उसे पाने | | हम से दूर है, उसकी हम स्मृति से भर जाते हैं। जिसे हम खो देते के लिए, जिसे पाए बिना कोई चारा नहीं, जीवन में कोई अर्थ नहीं?/ | हैं, उसका पता चलता है; और जिसे हम कभी नहीं खोते, उसका 334 Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~ परमात्मा की खोज > पता भी नहीं चलता। तो चर्च के जिस पादरी ने विवाह करवाया था, उसने पूछा कि इतने परमात्मा की खोज पर निकलने में जो सबसे बड़ी बाधा है, वह उदास क्यों हो गए हो? तुम्हें तो खुश होना चाहिए, क्योंकि जिसे मन का यह नियम है कि हमें उसका ही पता चलता है, जो नहीं है। तुमने चाहा था, वह स्त्री तुम्हें मिल गई! निगेटिव का पता चलता है, पाजिटिव का पता नहीं चलता। टूट | वह युवक कहने लगा, इसीलिए तो उत्साह एकदम क्षीण हो गया गया दांत, तो पता चलता है। वह दांत चालीस साल से आपके पास || है। उत्साह एकदम क्षीण हो गया है। जिसे चाहा था, वह मिल गई, था, तब इस जीभ ने कभी उसकी फिक्र न की। आज नहीं है, तो | इसीलिए तो उत्साह एकदम क्षीण हो गया है। उस युवक ने कहा कि उसकी तलाश है! आज मैं सोचता हूं कि मजनू के रास्ते में जिन लोगों ने बाधाएं डालीं मन निगेटिविटी, मन जो है नकार की तरफ दौड़ता है। वैसे ही और लैला को न मिलने दिया, उन्होंने बड़ी कृपा की। क्योंकि मजनू जैसे पानी गड्ढों की तरफ दौड़ता है, ऐसा ही मन अभाव की तरफ, लैला को याद तो करता रहा। जिन मजनुओं को उनकी लैलाएं मिल एब्सेंस की तरफ, जो नहीं है, उसकी तरफ दौड़ता है। जो है, उसकी जाती हैं, वे और दूसरों की लैलाओं की भला फिक्र करें, अपनी तरफ मन नहीं दौड़ता। लैलाएं भूल जाते हैं! और परमात्मा सर्वाधिक है। टू मच। इतना ज्यादा है कि उसके | मन का नियम है, जो मिल जाता है, वह भूल जाता है। और सिवाय और कुछ भी नहीं है। वही वही है। सब तरफ वही है। आंख परमात्मा तो मिला ही हुआ है। उसे तो याद करने की सुविधा भी खोलें तो, आंख बंद करें तो; जागें तो, सो जाएं तो। सब तरफ वही नहीं बनती। वही है। सागर की तरह हमें घेरे हुए है। इसलिए करोड़ों में एक तो मन के नियम को बदलना पड़ेगा। मन का नियम अभी गड्डों उसकी खोज पर निकलता है। | की तरफ दौड़ना है। मन को पर्वतों की तरफ दौड़ाना शुरू करना अगर परमात्मा की खोज पर निकलना हो, करोड़ों में एक बनना। | पड़ेगा। और कोई कठिनाई नहीं है। हो, तो इस सूत्र से विपरीत चलेंगे तभी, अन्यथा कभी नहीं। जो जिंदगी में बहुत कुछ मिला है, उसमें आह्लाद अनुभव करें। जो आपके पास हो, उसका स्मरण रखें; और जो आपसे दूर हो, उसे | मिला है, उसमें प्रसन्न हों। जो है पास, उसमें संतुष्ट हों। जो पास भूल जाएं। जो दांत अभी मुंह में हो, उसे जीभ से टटोलें; और जो | है, उसके लिए प्रभु को धन्यवाद दें। जो है, उसे देखें; और जो नहीं गिर जाए, उसे मत टटोलें। जो आज सुबह रोटी मिली हो, उसका | है, उसे छोड़ें। बहुत शीघ्र आप पाएंगे कि आपकी परमात्मा की आनंद लें; जो रोटी कल मिलेगी, उसके सपने मत देखें। जो नहीं | खोज शुरू हो गई। है, उसे छोड़ दें; और जो है, उसे पूरे आनंद से जी लें। तो आप ___ इसलिए जिन लोगों ने परमात्मा की खोज में संतोष को अनिवार्य करोडों में एक बनना शरू हो जाएंगे। बताया है, उसका कारण भी आप समझ लें, वह इस सूत्र में छिपा क्योंकि ध्यान रखना, यात्रा सीधी परमात्मा की नहीं हो सकती, हुआ है। संतोष में अपने आप कोई मूल्य नहीं है। संतोष अपने आप जब तक आपके मन का ढंग, आपके मन की व्यवस्था न बदले। में कोई वेल्यू नहीं है; उसकी अपने आप में कोई कीमत नहीं है। कभी आपने खयाल किया कि आप सोचते हैं, एक मकान बना क्योंकि मरा हुआ आदमी भी, मरा-मराया आदमी भी संतुष्ट दिखाई लें। जब तक नहीं बनाते, तब तक मन बिलकुल आर्किटेक्ट हो पड़ सकता है। ऐसा आदमी भी संतुष्ट मालूम पड़ सकता है, जाता है। कितनी कल्पनाएं करता है। कितने नक्शे बनाता है। फिर जिसमें जरा भी दौड़ने की हिम्मत नहीं है। कायर है, भयभीत है, मकान बन जाता है। फिर उसी मकान में जीने लगते हैं, और मकान चुनौती लेने से डरता है। नहीं; संतोष में अपने आप में मूल्य नहीं को भूल जाते हैं। हां, रास्ते से जो निकलते होंगे, उनके मन में है, लेकिन संतोष का एक ही मूल्य है, वह परमात्मा की तरफ आपके मकान के लिए विचार आता होगा। आपको भर नहीं आता, उन्मुख करने में कीमती है। जो उसके भीतर रहता है! इसलिए मैं आपको कहता हूं कि संतोष का अब तक जो भी पढ़ रहा था मैं, एक युवक का विवाह हो रहा है चर्च में। घंटियां | खयाल दुनिया में दिया गया कि संतोषी सदा सुखी, वह सब बच्चों बजी हैं, और मोमबत्तियां जली हैं। और मित्र उपहार लाए हैं, और की बातें हैं। सच तो यह है कि संतोषी के जीवन में एक नया दुख धन्यवाद दे रहे हैं। लेकिन तभी अचानक वह युवक उदास हो गया। पैदा होता है, वह दुख परमात्मा को पाने का दुख है। वह और किसी 335 Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 की जिंदगी में पैदा नहीं होता। हां, संतोषी की जिंदगी में आस-पास | निगेटिव माइंड है। जो नहीं है, बस, वह हमारे लिए महत्वपूर्ण की चीजों से सुख हो जाता है। क्योंकि जो उसे है, वह उसमें प्रसन्न हो जाता है। जो है, वह गैर-महत्वपूर्ण हो जाता है। है। वह उसे भोग रहा है। वह परमात्मा के प्रति अनगहीत है। इसीलिए दनिया में कोई आदमी अमीर नहीं हो पाता। कितना ही लेकिन इस संतोषी के जीवन में एक नई आग जलनी शुरू होती धन मिल जाए, गरीबी नहीं मिटती। क्योंकि निगेटिव माइंड गरीब है, वह परमात्मा की खोज है। क्योंकि जब वह पाता है कि साधारण है। निगेटिव माइंड कभी अमीर नहीं हो सकता। क्योंकि जो भी मिल से भोजन में जो मुझे उपलब्ध है, अगर मैं उस पर ध्यान देता हूं, तो | जाएगा, वह भूल जाएगा; और सदा मिलने को बाकी रहेगा, वह इतना रस मिलता है; साधारण-सा झोपड़ा जो मुझे उपलब्ध है, जब याद रहेगा। मैं उस पर ध्यान देता हूं, तो इतना रस मिलता है; साधारण-सा | भिखमंगे तो भिखमंगे होते ही हैं, अरबपति भी उतने ही भिखमंगे जीवन जो मुझे उपलब्ध है, जब मैं उस पर ध्यान देता हूं, तो इतना | होते हैं। जहां तक भिखमंगेपन का सवाल है, भिखमंगे को जो रस मिलता है तो वह जो जीवन का मूलाधार है, जो मेरे होने के | उसके पास है, वह दिखाई नहीं पड़ता; अरबपति को भी, जो उसके पहले से मेरे पास है, और मेरे न हो जाने पर भी मेरे पास होगा, | पास है, वह दिखाई नहीं पड़ता। भिखमंगे को भी उसकी मांग रहती मेरी लहर बनेगी और मिटेगी, और वह रहेगा, उसे पा लेने से क्या | है, जो पास नहीं है; अरबपति को भी उसकी ही मांग रहती है, जो होगा! उसको पा लेने की एक नई पीड़ा, एक नई प्रसव-पीड़ा शुरू उसके पास नहीं है। फर्क क्या है? होती है। इतना ही फर्क है कि भिखमंगे के पास जो है, वह कम है भूलने संतोष को योग ने एक अनिवार्य सूत्र माना है परमात्मा की को; अरबपति के पास भूलने को ज्यादा है। लेकिन भूलने को ही तलाश के लिए। अगर आप सोचते हों कि संतोष केवल संसार की | ज्यादा है, और तो कुछ अर्थ नहीं है। भिखमंगा अपने भिक्षा के पात्र दौड़ से बच जाने की तरकीब है, तो आपको संतोष की कीमिया का को भूलता है, अरबपति अपनी तिजोड़ी को भूलता है। लेकिन कोई पता नहीं। वह तो बड़ी गौण बात है। महत्वपूर्ण बात यह है कि | भूलने में आप तिजोड़ी भूलें कि भिक्षा का पात्र भूलें, इससे कोई जो अपने चारों तरफ जो मौजूद है, उससे संतुष्ट हो जाता है, उसके फर्क नहीं पड़ता। न तो भिखमंगा अपने भिक्षा के पात्र का आनंद भीतर उसकी खोज शुरू होती है, जो सबसे ज्यादा गहराई में सदा ले पाता है, न करोड़पति अपनी तिजोड़ी का आनंद ले पाता है। से मौजूद है। उसके रस की खोज शुरू हो जाती है। जो है, वह हमें दिखाई नहीं पड़ता। और परमात्मा अतिशय है। करोड़ों में इसीलिए एक आदमी! वह जिसके पास पाजिटिव एक इंचभर जगह नहीं है, जहां वह नहीं है। इसीलिए करोड़ में कभी माइंड है। कोई एक उसकी खोज पर निकलता है। पाजिटिव माइंड, एक हमारे सबके पास निगेटिव माइंड है, हमारे पास नकारात्मक मन विधायक चित्त ही परमात्मा की खोज पर जा सकता है। है। हमें मित्र तब दिखाई पड़ता है, जब वह घर से जा चुका होता । उसे देखना शुरू करें, जो है। उसे भूलना शुरू करें, जो नहीं है। है। हमें सुख का भी तब पता चलता है, जब वह हाथ से छूट गया खाली स्थानों में मत भटकें; भरे स्थानों में जीएं। और ध्यान रहे, होता है। हमें प्रेम का भी तब पता चलता है, जब प्रेम का दीया बुझने | हर आदमी के पास इतना है कि काश, वह देखने लगे, तो शायद लगता है। हमें पता ही तब चलता है, जब कोई चीज समाप्त होती | | इस जमीन पर गरीब आदमी खोजना मुश्किल है। है। जब कोई मरता है, तभी हमें पता चलता है कि वह था। जब सुना है मैंने कि एक आदमी रो रहा है, छाती पीट रहा है। और तक वह था, तब तक हमें पता ही नहीं चलता। एक फकीर उसके पास से निकला है और उसने पूछा कि तुम इतने पिता घर में मौजूद है, बेटे को बिलकुल पता नहीं चलता कि है। | परेशान हो रहे हो कि मुझे मालूम पड़ता है कि तुम बड़े गरीब आदमी जिस दिन मरेगा पिता, उस दिन पता चलेगा। उस दिन रोएगा, छाती हो। लेकिन मेरे गुरु ने कहा है कि इस जमीन पर कोई आदमी गरीब पीटेगा। और जब तक पिता मौजूद था, तब कभी दो क्षण भी उसके नहीं है। या तो मेरे गुरु गलत हैं, या तुम कुछ गलती समझे हो। पास नहीं बैठा था। बड़े आश्चर्य की बात है। तब तक कभी फुर्सत उस आदमी ने कहा, मुझसे गरीब आदमी खोजना मुश्किल है। न मिली थी कि दो क्षण उसके पैरों पर हाथ रखकर बैठ जाए। अब | आज मैं दो दिन से भूखा हूं। मेरे पास कुछ भी नहीं है। उस फकीर मुर्दे की छाती पर सिर पटकेगा। ने कहा, लेकिन मेरे गुरु ने कुछ जांचने की तरकीबें बताई हैं; मैं पहले 3361 Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स परमात्मा की खोज - उनका प्रयोग कर लूं। उस आदमी ने कहा, तुम कब प्रयोग करोगे? और क्षण में कर लेते हैं। कंसीडर्ड, सोच-विचारकर कभी भी कोई मैं मरने के करीब हूं। मैं नदी में जा रहा हूं गिरने के लिए। आत्महत्या आत्महत्या नहीं कर पाता। की तैयारी करके निकला है। अब मेरे पास कछ भी नहीं है। इस पृथ्वी पर कुछ बहुत विचारशील लोग हुए हैं, जिन्होंने उस फकीर ने कहा, तुम थोड़ा समय मुझे दो। तुम थोड़ी देर बाद आत्महत्या की तारीफ की है। उनमें यूनान का एक विचारक था, भी मर जाओगे, तो दुनिया का कोई हर्ज होने वाला नहीं है। तुम मेरे पिरहो। पिरहो कहता था कि आत्मघात एकमात्र करने जैसी चीज साथ आओ। कम से कम मैं अपने गुरु की परीक्षा कर लूं। | है, क्योंकि जिंदगी बेकार है। लेकिन वह नब्बे वर्ष का होकर मरा। उस आदमी को ले गया सम्राट के पास। और सम्राट से जाकर | और जब वह मर रहा था, तब किसी ने संदेह उठाया कि आश्चर्य भीतर उसने कुछ बात की। लौटकर उस आदमी को ले गया और | | कि कम से कम पचास साल से आप लोगों को समझा रहे हैं कि रास्ते में उससे कहा कि सम्राट से मैंने तय कर लिया है; तुम्हारी | | जिंदगी-मौत सब बराबर हैं। मर जाने के सिवाय कोई ठीक काम एक-एक आंख के लिए वह एक-एक लाख रुपया देने को तैयार नहीं है। देअर इज़ नो डिफरेंस बिटवीन लाइफ एंड डेथ। आप यह है। तुम दोनों आंखें बेच दो। दो लाख रुपए तुम्हारे हाथ में पड़ते हैं। | समझाते रहे, कोई अंतर नहीं जीवन और मृत्यु में। आप नब्बे साल उस आदमी ने कहा, तुमने मुझे क्या पागल समझा हुआ है? मैं और | | तक कैसे जीए? आप मर क्यों न गए? आंखें बेच दूं! उस फकीर ने कहा, लाख रुपए मिल रहे हैं, अगर पिरहो ने आंख खोली और उसने कहा, बिकाज देअर इज़ नो तुम्हारा इरादा कुछ और ज्यादा का हो, तो बोलो। उसने कहा, तुम | डिफरेंस, क्योंकि कोई अंतर नहीं है मरने-जीने में। मैंने बहुत सोचा करोड़ भी दो, तो मैं आंख नहीं बेच सकता। और पाया, कोई अंतर नहीं है। तो मरने से भी क्या फायदा! तो मैंने क्योंकि जैसे ही खयाल आया अंधे होने का, तब पता चला कि | | कहा, ठीक है, जो होता है, होने देना। आंख है। जब तक आंख थी, तब तक थी; बेकार थी। वह मरने जा | पिरहो बहुत विचारशील आदमी था। और जिंदगीभर मरने के रहा था। मरने में आंख भी मिट जाती। और भी सब कुछ मिट जाता। | संबंध में सोचता रहा। मरा नब्बे वर्ष का होकर! तो फकीर ने कहा, छोड़ो आंख को। हो सकता है, तुम्हें मरने | । बहत सोच-विचार वाले लोग आत्मघात नहीं करते। तीव्र भाव जाना है नदी पर. तो आंख की जरूरत पडे। इतना रास्ता पार करना के क्षण में घटना घट जाती है। क्योंकि उस भाव के क्षण में आप इतने पड़े। लेकिन कई चीजें ऐसी हैं, जो बिलकुल बेकार हैं; मरने के | आविष्ट होते हैं कि आपका निगेटिव माइंड सोच नहीं पाता कि लिए जिनका कोई उपयोग नहीं है। कान ही बेच दो। हाथ ही बेच | कितना बड़ा गड्डा पैदा होने जा रहा है। बस एक क्षण में हो जाता है। दो। कुछ तो बेच दो। क्योंकि मैं तुम्हारे लिए ग्राहक खोज लिया हूं। कृष्ण कहते हैं, करोड़ में कोई एक कभी प्रभु की खोज पर उस आदमी ने कहा कि तू आदमी किस तरह का है! मैं नहीं मरना | निकलता है। क्योंकि करोड़ में एक आदमी के पास विधायक चित्त चाहता हूं। क्योंकि उस आदमी को पहली दफा खयाल आया कि अगर हाथ कल मैंने कहा था, संदेह से भरा चित्त। आज आपको और मैं भर कट जाए, तो कितनी कमी हो जाएगी। तो मौत कितनी बड़ी | संदर्भ बता दूं। संदेह से भरा चित्त निगेटिव होगा, नकारात्मक कमी होगी। | होगा। श्रद्धा से भरा चित्त विधायक होगा, पाजिटिव होगा। अगर मरने वालों को, स्युसाइड करने वालों को करने के बाद | अगर संदेह से भरे चित्त वाले आदमी को हम कहें कि दुनिया के एक मौका और दिया जाए, तो वे सब पछताते हुए वापस लौटेंगे। संबंध में कुछ वक्तव्य दो, तो वह जो वक्तव्य देगा, वे नकारात्मक लेकिन मौका नहीं मिलता, इसलिए नहीं लौटते हैं। इसलिए अगर | होंगे। वह कहेगा, दुनिया बिलकुल बेकार है। यहां दो अंधेरी रात आपको स्युसाइड करनी हो, तो जल्दी कर लेना; देर मत लगाना। | के बीच में एक छोटा-सा उजाले का दिन होता है। दो अंधेरी रात क्योंकि पांच-सात मिनट भी रुक गए, फिर आप न कर पाएंगे। | बड़ी घटना मालूम होगी। अगर हम विधायक चित्त के व्यक्ति से उतनी देर में तो शायद अभाव का खयाल आ जाएगा कि यह मैं पूछे, तो वह कहेगा, यह दुनिया बड़ी अदभुत है। यहां दो उजेले क्या कर रहा हूं! सब मिट जाएगा।' दिनों के बीच में एक छोटी-सी अंधेरी रात होती है! इसलिए जो लोग भी आत्मघात करते हैं, वे तीव्र भावावेश में अगर हम निषेधात्मक चित्त के व्यक्ति से पूछे, तो वह गुलाब 337 Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 - के फूल के पास खड़े होकर सिवाय परमात्मा की निंदा के और | भाइयों को संन्यास के जगत में तो मुझे प्रणाम करना पड़ेगा। क्योंकि कुछ न कर पाएगा। क्योंकि वह कहेगा, जहां इतने कांटे हैं, वहां | | वे मुझसे अग्रणी हो गए। उनके संन्यास की यात्रा बड़ी हो गई। मुश्किल से एक फूल खिलता है। फूल बेकार हो गया इतने कांटों अपने से छोटों को और मैं नमस्कार करूं, यह न हो सकेगा! तो की वजह से। अगर हम विधायक चित्त के आदमी से पूछे, तो वह | उसने सोचा, ऐसी भी क्या जरूरत है। मैं खुद ही साधना क्यों न कहेगा, आश्चर्य! प्रभु का धन्यवाद है। वह गुलाब के पास खड़े कर लूं! होकर घुटने टेककर प्रभु की प्रार्थना में लीन हो जाएगा। और वह बलशाली व्यक्ति था। कमजोर तो हारते ही हैं, कभी-कभी कहेगा, अदभुत है तेरी लीला कि जहां इतने कांटे हैं, वहां भी फूल बलशाली बुरी तरह हारते हैं। बल ही उनके हारने का कारण हो पैदा होता है। चमत्कार है, मिरेकल है। जाता है। तो विधायक चित्त जिस व्यक्ति के पास है, वह प्रभु की खोज तो बाहुबली एकांत में जाकर गहन तपश्चर्या में, सघन पर निकलता है। तपश्चर्या में लीन हुए। शायद इस पृथ्वी पर कम ही लोगों ने ऐसी लेकिन कृष्ण फिर एक और बात कहते हैं कि करोड़ लोग प्रयत्न तपश्चर्या की होगी और ऐसी साधना की होगी। सब कुछ दांव पर करें, तो कभी एक मुझे उपलब्ध होता है। लगा दिया। सब कुछ। बस, एक छोटी-सी चीज छोड़कर; वह इसका क्या अर्थ होगा? इसे भी ठीक से समझ लें। मैं पीछे खड़ा रहा। जो लोग भी प्रभु की दिशा में यात्रा शुरू करते हैं, करोड़ में से उनकी तपश्चर्या की ख्याति कोने-कोने तक पहुंच गई। जहां भी एक ही समर्पण करता है। करोड़ में से एक यात्रा करता है। अगर लोग सोचते-समझते थे, वहां तक बाहुबली की खबर पहुंची। और करोड़ यात्रा करें, तो एक समर्पण करता है। बाकी लोग संकल्प | लोग हैरान हए कि इतना पवित्रतम व्यक्ति. इतना शद्धतम व्यक्ति, करते हैं, समर्पण नहीं। बाकी लोग कहते हैं, हम प्रभु को पाकर सब कुछ दांव पर लगाए खड़ा है, फिर भी कोई दर्शन नहीं हो रहा रहेंगे। तू कहां है, हम खोजकर रहेंगे। हम अपनी पूरी ताकत | है सत्य का! क्या बात है? लगाएंगे। जीवन लगा देंगे दांव पर, लेकिन तुझे पाकर रहेंगे। | ऋषभ के पास भी खबर पहुंची। ऋषभ मुस्कुराए और उन्होंने __ कभी एक आदमी ऐसा होता है, जो कहता है कि मेरी क्या | बाहुबली की एक बहन को, जो दीक्षित हो गई थी, बाहुबली के पास सामर्थ्य ! मैं असहाय हूं। मेरी कोई शक्ति नहीं है। मैं तुझे कैसे खोज भेजा और कहा, बस, जरा-सा तिनका अटका हुआ है। लेकिन वह पाऊंगा! अगर तू ही मुझे खोज ले, तो शायद घटना घट जाए। मैं तिनका पहाड़ों से भी भारी है। सब दांव पर लगा दिया है, सिर्फ मैं तुझे कैसे खोज पाऊंगा! मेरी शक्ति बड़ी छोटी है। एक छोटी-सी को बचा लिया है! बूंद हूं। न मालूम किस रेगिस्तान में खो जाऊं! अगर सागर ही मुझ | और आप कुछ भी दांव पर न लगाएं, सिर्फ मैं को दांव पर लगा तक आ जाए, तो ठीक। अन्यथा मैं सागर को खोज पाऊं, इसकी | | दें, तो हल हो जाए। लेकिन सब दांव पर लगा दें–धन, दौलत, कोई संभावना नहीं है। यश, शरीर, मन–लेकिन एक पीछे मैं बच जाए, तो सब बेकार जो लोग प्रभु की खोज पर निकलते हैं, वे भी अस्मिता को, है। वह दांव पर लगाने वाला पीछे बच जाए, तो आप परमात्मा से अहंकार को लेकर निकलते हैं। वे कहते हैं, हम प्रभु को पाकर संघर्ष कर रहे हैं; आप परमात्मा से प्रार्थना नहीं कर रहे हैं। तो आप रहेंगे। साधना करेंगे। योग करेंगे। आसन करेंगे। ध्यान करेंगे। सत्य को भी विजय करने निकले हैं; सत्य के साथ एक होने नहीं लेकिन पीछे वह मैं खड़ा रहेगा। निकले हैं। यह कोई प्रेम की यात्रा नहीं है; यह कोई युद्ध, आक्रामक जैन परंपरा में एक बहुत मीठी कथा है। ऋषभ के सौ पुत्र थे। चित्त की दशा है। अनेक पुत्रों ने ऋषभ से दीक्षा ले ली। वे संन्यास की यात्रा पर | सब दांव पर है बाहुबली का। कुछ बचा नहीं लगाने को। वह निकल गए। बाहुबली भी ऋषभ के एक पुत्र थे। उन्होंने जरा देर की भी चिंता में पड़ा, अब और क्या करने को बचा है? जितने उपवास दीक्षा लेने में; कुछ सोच-विचार किया। लेकिन तब तक बाहुबली | कहे हैं तीर्थंकरों ने, सब पूरे कर डाले। जितने जागरण के लिए कहा से छोटे बेटे दीक्षित हो गए। और जब बाहुबली के मन में दीक्षा का | है, उतनी रातें जागकर बिता दीं। कहा है खड़े रहो, तो महीनों खड़ा खयाल आया, तो उसके अहंकार को बड़ी पीड़ा हुई कि अपने छोटे रहा हूं। कहा है कि चित्त को एकाग्र कर लो, तो चित्त एकाग्र है। 338/ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 परमात्मा की खोज > सब शर्ते पूरी हैं। फिर कुछ हो तो नहीं रहा है। कहीं कोई कमी तो मजबूत कर दे। पहुंच पाता है वह, जो मैं को समर्पित कर देता है। नहीं दिखाई पड़ती। तब फिर, तब फिर कोई बाधा नहीं रह जाती। फिर ऋषभ के द्वारा भेजी गई बाहुबली की बहन ने बाहुबली परमात्मा की तरफ से कोई बाधा नहीं है। आदमी की तरफ से दो आंख बंद किए। विशालकाय व्यक्ति था। सुंदरतम शरीर वाला बाधाएं हैं। एक, नकारात्मक मन; और दूसरा, अस्मिता से भरा व्यक्ति था। गोमटेश्वर में बाहुबली की प्रतिमा है, कभी आपने चित्र हुआ भाव, अहंकार से भरा हुआ भाव। इन दो दरवाजों को जो पार देखे होंगे। विशालकाय! जिसमें शरीर पर बेलाएं चढ़ गई हैं। और | कर जाता है, कृष्ण कहते हैं, वह मुझको उपलब्ध हो जाता है। पक्षियों ने कान में घोंसले बना लिए थे। और शरीर पर बेलाएं चढ़ गई थीं, उसका उन्हें पता भी नहीं था। क्योंकि वह तो अंतर के संघर्ष में इतना लीन था कि शरीर पर क्या घट रहा है, उसे पता भी नहीं था। भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च । बहन ने चारों तरफ से जाकर बाहुबली को देखा। इतना घोर अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ।। ४ ।। तपस्वी तो कभी देखा नहीं गया! कान पर पक्षियों ने घोंसले बना लिए और हे अर्जुन, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तथा हैं; अंडे रख दिए हैं। सुरक्षित जगह है। बाहुबली हिलता भी नहीं। मन, बुद्धि और अहंकार भी, ऐसे यह आठ प्रकार से विभक्त बेलाएं चढ़ गई हैं। बेलाओं में फूल आ गए हैं। न मालूम कब से हुई मेरी प्रकृति है। बाहुबली ऐसा ही खड़ा है पत्थर की तरह। अब और क्या बाकी है? और तब गहरे और गहरे घमकर बहन ने भीतर तक झांकने की कोशिश की। और उसे दिखाई पड़ा कि भीतर बस एक चीज बाकी - स सूत्र में दो-तीन बातें समझने जैसी हैं। पहली बात, रह गई, वह मैं। तो एक गीत बाहुबली की बहन ने गाया कि सब र कृष्ण ने प्रकृति को आठ हिस्सों में विभाजित किया। कर चुके तुम, अब जरा सिंहासन से नीचे उतर आओ। बस. और पंच महाभूत-पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश। कुछ न करो, जरा सिंहासन से नीचे उतर आओ। यह हाथी की पहले तो पंच महाभूत को थोड़ा समझ लें, क्योंकि पंच महाभूत पालकी पर कब तक बैठे रहोगे! जरा नीचे उतर आओ। की धारणा के कारण भारतीय चिंतन को पश्चिम में बहुत धक्का और बाहुबली को यह सुनाई पड़ा कि हाथी की पालकी पर कब | पहुंच रहा है। इस मुल्क में भी जो लोग सुशिक्षित हैं, उनको भी तक बैठे रहोगे! जरा नीचे उतर आओ। सब शुद्ध था। बस, वह बड़ी कठिनाई होती है। चूंकि अब तो पंच महाभूत का कोई सवाल एक पालकी अहंकार की भारी थी। और उसी क्षण घटना घट गई। न रहा। अब तो वैज्ञानिक कहते हैं कि एक सौ आठ तत्व हैं। फिर इतनी बड़ी तपश्चर्या से जो न हुआ था, पालकी से उतरते ही हो और थोड़े गहरे गए हैं, तो वे कहते हैं, एक ही तत्व है—एक सौ गया। बाहुबली ने झुककर बहन को नमस्कार कर लिया। बात | आठ तो उसके प्रकार हैं-वह है विद्युत। समाप्त हो गई। घटना घट गई। कृष्ण जैसा व्यक्ति जब कहता है, पंच महाभूत, तो यह सिर्फ करोड़ लोग प्रयास करते हैं, एक पहुंचता है। क्योंकि वह एक कोई लोकोक्ति नहीं हो सकती। लोग सदा ऐसा कहते रहे हैं, पांच ही अपनी अस्मिता को और अहंकार को खोता है। | महाभूत। मोटा हिसाब है कि इन पांच चीजों से सारा जगत बना इसलिए कृष्ण ने कहा, मुझको परायण हुआ, मेरी तरफ झुक हुआ है। लेकिन कृष्ण जब ऐसा वक्तव्य देते हैं, तो उस वक्तव्य गया, समर्पित हुआ, मेरे चरणों में आ गया! के पीछे थोड़ा गहरे उतरना पड़ेगा। कृष्ण का वक्तव्य बहुत यहां सवाल बड़ा यह नहीं है कि कृष्ण के चरणों में आ जाओ। वैज्ञानिक है। और इसलिए इन पंच महाभूत की व्याख्या जैसी मैं बड़ा सवाल यह है कि झुक जाओ। ध्यान रहे, असली सवाल है देखता हूं, और जैसी आज के पूरे वैज्ञानिक चिंतन के बाद की जानी झुका हुआ मन, समर्पित, सरेंडर्ड। |चाहिए, वह मैं आपसे कहना चाहता हूं। करोड़ में से एक करता है कोशिश। करोड़ कोशिश करते हैं, पंच महाभूत केवल लोगों की प्रचलित शब्दावली का उपयोग एक पहुंच पाता है। कोशिश करता है वह, जिसके पास विधायक है। और इसलिए भारत के भी जो लोग सिर्फ शब्दों को सोचते हैं, मन है। लेकिन विधायक मन का खतरा है कि वह अहंकार को | शास्त्रों को सोचते हैं, वे भी इस पंच महाभूत की धारणा में गहरे 339 Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-3 - नहीं उतर सके। जाएं, नाक चलने भी दी जाए, तो भी आप पंद्रह मिनट से ज्यादा अगर ठीक से समझें, तो पश्चिम में विज्ञान ने जो तत्वों की जिंदा नहीं रह पाएंगे। क्योंकि आपका रोआं-रोआं श्वास ले रहा धारणा पैदा की है, वह तो प्रयोगशालाओं में की गई है। और भारत | है। वह श्वास जाकर आपके भीतर की जीवन अग्नि को जला रही ने जो पंच महाभत की धारणा की है. वह प्रयोगशालाओं में नहीं है। और अगर श्वास बंद कर दी जाए, तब तो आप अभी ही समाप्त अंतस अनुभूति में की गई है। जो लोग भी अंतस जीवन की | हो जाएंगे। क्योंकि भीतर भी जीवन एक दीए की भांति है, जिसको गहराइयों में उतरेंगे, उन्हें एक तत्व का साक्षात्कार जरूर ही होगा; पूरे समय आक्सीजन चाहिए। वह है फायर, वह है अग्नि। जो लोग भी अपने भीतर गहरे में जो अग्नि के जलने का नियम है, वही जीवन के जलने का नियम जाएंगे, अंततः उन्हें अग्नि का अनुभव होगा, विराट अग्नि का | भी है। जीवन की गहराई में, समस्त तत्वों की गहराई में अग्नि है। अनुभव होगा। अग्नि महाभूत है। आधारभूत है। इसीलिए जैसे-जैसे व्यक्ति ध्यान में भीतर प्रवेश करता है, आज विज्ञान की खोज इलेक्ट्रिसिटी पर ले गई है। वे जिसे आज प्रकाश, और ऐसे जैसे हजारों सूरज उतर आए हों, दिखाई पड़ने | विद्युत कह रहे हैं, भारत के अंतर्मनीषी ने उसे अग्नि कहा था। और लगते हैं। ध्यान में प्रकाश का अनुभव अंतर्गमन की सूचना है। यह ठीक था, क्योंकि अग्नि उन दिनों सुपरिचित शब्द था। और उसी प्रकाश उस अंतर-अग्नि की बहुत दूर की किरण है। जब हम बहुत से बात प्रकट की जा सकती थी। गहरे में पहुंचेंगे, तभी हमें पूरी अग्नि का आभास होगा। विद्युत भी अग्नि का ही रूप है। तो अग्नि मूल तत्व है। पृथ्वी हां, अग्नि शब्द से सिर्फ आपके घर में जो आग जलती है, उससे | अग्नि का एक रूप है, सालिड। अग्नि का ठोस रूप पृथ्वी है। ही कृष्ण का प्रयोजन नहीं है। अग्नि से अर्थ है, जीवन का समस्त अग्नि का दूसरा रूप है, जल, लिक्विड, प्रवाह। अग्नि का तीसरा रूप अग्नि का ही रूप है। रूप है, वायु। अब तो वैज्ञानिक कहते हैं कि आपके भीतर भी जो जीवन चल विज्ञान कहता है, पदार्थ की तीन स्थितियां हैं, सालिड, लिक्विड रहा है, वह भी आक्सीडाइजेशन से ज्यादा नहीं है। पूरे समय | और गैसीय। पदार्थ की तीन स्थितियां हैं, या तो ठोस, जैसे कि हवाओं में से जाकर आक्सीजन आपके भीतर की जीवन-ज्योति को पत्थर है या पानी का बर्फ। फिर जलीय, द्रवीय, जैसे कि जल है। जला रही है। और फिर वायुवीय, जैसे कि पानी की भाप है। प्रत्येक अस्तित्ववान अगर आप, एक दीया जल रहा हो और उसके ऊपर एक कांच चीज तीन रूपों में प्रकट हो सकती है। का बर्तन ढांक दें, तब आपको पता चलेगा। कभी ऐसा हो जाता है पृथ्वी, जिसे आज विज्ञान कहता है, सालिड। उन दिनों पृथ्वी से कि तूफान जोर का होता है, तो घर में कोई कांच के गिलास को दीए| सालिड और कोई चीज खयाल में आ भी नहीं सकती थी। वह पर ढांक दे। एक क्षण को तो लगेगा कि दीए को आपने बचा लिया | प्रतीक शब्द है। जल, जल से ज्यादा और प्रवाहवान कोई चीज तूफान से। लेकिन ध्यान रखना, तूफान में तो दीया बच भी सकता | खयाल में नहीं आ सकती थी। और वायु; वायु से ज्यादा वाष्पीय, था, गिलास के भीतर दीया नहीं बचेगा। क्योंकि थोड़ी ही देर में | गैसीय और कोई तत्व खयाल में नहीं आ सकता था। आक्सीजन चुक जाएगी। और आक्सीजन के बिना दीया जल नहीं हां, अग्नि है मूल तत्व। अग्नि जब प्रकट होती है, तो तीन रूपों सकेगा। थोड़ी ही देर में ग्लास के भीतर जितनी हवा है, उसकी | | में प्रकट होती है। पदार्थ का एक रूप ठोस, दूसरा रूप जलीय, आक्सीजन जल जाएगी। और फिर तो कार्बन डाइ आक्साइड रह तीसरा रूप गैसीय। जाएगा, जो दीए को बुझा देगा। तूफान तो झेल सकता है दीया, और यह अग्नि के प्रकट होने के लिए जो जगह चाहिए, वह लेकिन आक्सीजन की कमी नहीं झेल सकता। क्योंकि आक्सीजन | | जगह है आकाश। आकाश से अर्थ है, स्पेस। आकाश से अर्थ ही फायर है, अग्नि है। स्काई नहीं है। आकाश से, आपके ऊपर जो चंदोवा तना हुआ है, __ आप भी नहीं झेल सकते। आपकी भी श्वास बंद कर दी जाएः । | उससे प्रयोजन नहीं है। आकाश शब्द बहुत अदभुत है। आकाश नाक तो छोड़िए, अगर नाक आपकी चलने भी दी जाए, और पूरे का कुल अर्थ होता है, जिसमें अवकाश मिले, जिसमें जगह मिले, शरीर पर ठीक से डामर पोत दिया जाए; रोएं-रोएं सब बंद कर दिए जिसके बिना कोई चीज न हो सके। जगह तो चाहिए। और जगह 340 Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा की खोज > के दो प्रकार हैं। है। वह गणित की भाषा है। अगर मैं आपसे कहूं कि हत्या हो गई; तो आप पूछेगे, कहां और कृष्ण जो भाषा बोल रहे हैं, वह लोक-भाषा है। कृष्ण की बात कब? आप दो शब्द पठेंगे, कहां और कब? कहां का मतलब है, सब की समझ में आ सकती है। लोक-भाषा में बोलने का एक किस स्थान में, एक्जेक्ट प्लेस, कौन-सी जगह। अगर मैं कहूं, | | खतरा है कि चीजें कभी बहुत तर्कबद्ध और सूक्ष्म नहीं हो सकतीं। नहीं; जगह कोई भी नहीं है, सिर्फ फलां आदमी की हत्या हो गई | | लेकिन सूक्ष्म और तर्कबद्ध और गणित की भाषा में बोलने का है। तो आप कहेंगे कि गलत कह रहे हैं। क्योंकि बिना किसी जगह | दूसरा खतरा है कि चीजें किसी की समझ में नहीं आतीं; समझ के में हुए हत्या नहीं हो सकती। जगह तो चाहिए। लेकिन अकेली बाहर खो जाती हैं। जगह में भी हत्या नहीं हो सकती, टाइम भी चाहिए। तो आप पूछते । तो जिनकी दृष्टि केवल तत्व-अन्वेषण की है, वे तो गणित की हैं, कब ? व्हेन? किस समय हुई? अगर मैं कहूं, नहीं, समय में | भाषा भी बोल सकते हैं। इसलिए आइंस्टीन का खयाल है कि नहीं हुई। स्थान में तो हुई, समय में नहीं हुई। तो आप कहेंगे, नहीं | | भविष्य की विज्ञान की भाषा, आम भाषा नहीं रहेगी, सिर्फ गणित हो सकती है। किसी भी वस्तु को होने के लिए दो आयामों में स्थान | की भाषा हो जाएगी। अंकों में बात होगी, शब्दों में नहीं। क्योंकि चाहिए, समय और स्थान, क्षेत्र। शब्दों में गड़बड़ होती है। प्रतीकों में बात होगी, शब्दों में नहीं। पूछा जा सकता है कि इस पंच महाभूत की धारणा में आकाश | क्योंकि शब्दों के अनेक अर्थ होते हैं। को तो गिनाया, स्पेस को; टाइम को, काल को क्यों नहीं गिनाया? लेकिन कृष्ण जो बोल रहे हैं, वह तत्व-अन्वेषण के लिए नहीं, तो एक और मजे की बात आपसे कहना चाहता हूं कि आइंस्टीन तत्व-साधना के लिए बोल रहे हैं। अर्जुन को समझ में आ सके, के पहले तक ऐसा खयाल था कि टाइम और स्पेस दो चीजें हैं, उस भाषा में बोल रहे हैं। तो उन्होंने लोक-प्रचलित पंच महाभूत वैज्ञानिकों को। लेकिन आइंस्टीन ने यह सिद्ध करने का भगीरथ की बात कही। लेकिन उस पंच महाभूत की बात में पूरी वैज्ञानिक प्रयास किया, और बात सिद्ध हो गई, कि टाइम और स्पेस दो चीजें दृष्टि है। नहीं हैं। एक ही चीज है, टाइम-स्पेस या स्पेस-टाइम-कंटीनम। ये|| आधारभूत तो एक ही है, अग्नि, तेज। इसलिए अग्नि को देवता दो चीजें नहीं हैं। समय और स्थान एक ही चीज के दो पहलू हैं। | कहा। इसलिए सारे जगत में अग्नि की पूजा हुई। अभी भी पारसी ___ इसलिए कृष्ण के समय तक भी यह खयाल था कि समय अलग अपने मंदिर में चौबीस घंटे अग्नि को जलाए हुए है। शायद उसे नहीं है। समय भी स्थान का ही एक हिस्सा है। इसलिए अलग से | | ठीक पता भी नहीं कि किसलिए जलाए हुए है। रीति है, प्रचलित उसे नहीं गिनाया गया। पंच महाभूत में अवकाश देने के लिए है, जलाए हुए है। उसका मंदिर तो अग्नि का ही मंदिर है। लेकिन जरूरी—आकाश; अस्तित्व के लिए आधारभूत-अग्नि; और खयाल नहीं है कि क्यों? प्रकट अस्तित्व के तीन रूप-पृथ्वी, जल और वायु; इन पंच | __ अग्नि जीवन का आधारभूत तत्व है; वही देवता है। उससे ही महाभूतों की धारणा है। जीवन का सब रूप विकसित होता है। मंदिर में अग्नि जलाकर लेकिन कृष्ण जैसे व्यक्ति जब बात करते हैं, तो जिनसे बात | | बैठने से कुछ हल न होगा। इस जीवन में सब तरफ अग्नि को ही करते हैं, उनके ही शब्दों का उपयोग करते हैं। यही उचित भी है। | जलते हुए देखने से अग्नि के देवता का दर्शन होता है। इसीलिए आज कठिनाई हो गई है। आइंस्टीन मजाक में कहा करता ___ जहां भी जो कुछ है, वह अग्नि का ही रूप है। और उस अग्नि था कि मेरी बात को समझने वाले इस जमीन पर बारह लोगों से के तीन रूप हैं प्रकट–ठोस, फिर जलीय, फिर वायवीय। और ज्यादा नहीं हैं। वह भी अनुमान था उसका कि बारह लोग इस जमीन | | उसकी जगह जिसमें मिली है, समय और स्थान, उसका नाम पर हैं साढ़े तीन अरब आदमियों में, जो मेरी बात समझ सकते हैं। | आकाश है। इन पंच महाभूतों की कृष्ण ने बात कही। इनसे प्रकृति हालांकि उसकी पत्नी ने शक जाहिर किया है कि बारह लोग भी हो बनी है। और तीन और अंतर-रूपों की बात कही। और इन आठों सकते हैं। | को इकट्ठा गिनाया। तीन कहा-मन, बुद्धि, अहंकार। क्या बात है? आइंस्टीन की बात को समझने के लिए बारह | - सबसे ज्यादा पहली चीज कही, पृथ्वी। और सबसे अंतिम चीज लोग! आइंस्टीन जो भाषा बोल रहा है, उस भाषा में सारी कठिनाई | कही, अहंकार। पृथ्वी सबसे मोटी और स्थूल चीज है। अहंकार 341 Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 सबसे सूक्ष्म और बारीक और डेलिकेट चीज है। इस जगत में जो सूक्ष्मतम अस्तित्व है, वह अहंकार है । और जो स्थूलतम अस्तित्व है, वह पृथ्वी है। इसलिए इस तरह । और एक-एक के बाद। सबसे पहले भीतर की यात्रा में कहा, मन । मन का अर्थ है, हमारे भीतर वह जो सचेतना है, वह जो कांशसनेस है। मन का है, सचेतना । वह जनरलाइज्ड हमारे भीतर जो मनन की शक्ति है, उसका नाम मन है। मन का बहुत रूप जानवरों में भी है। जानवर भी मन से जीते हैं, लेकिन बुद्धि उनके पास नहीं है। बुद्धि मन का स्पेशलाइज्ड रूप है। सिर्फ मनन नहीं, बल्कि तर्कयुक्त तर्कसरणीबद्ध चिंतन का नाम बुद्धि है। और बुद्धि के भी पीछे जब कोई बहुत बुद्धि का उपयोग करता है, तभी भीतर एक और सूक्ष्मतम चीज का जन्म होता है, जिसका नाम अहंकार है, मैं । ये आठ तत्वों से मैंने यह सारी प्रकृति रची है, कृष्ण कहते हैं। यह किसलिए कहते हैं? यह वे इसलिए कहते हैं कि इन आठ तत्वों में तू प्रकृति को जानना। और जब इन आठ के पार चला जाए, तब तू जान पाएगा। इन आठ के भीतर तू जब तक रहे, तब तक तू जानना कि संसार में है; और जब इन आठ के पार हो जाए, तब तू जानना कि तू परमात्मा में है। सर्वाधिक कठिनाई और आखिरी मुसीबत तो अहंकार के साथ होगी, क्योंकि बहुत ही बारीक है। हवा को तो मुट्ठी में हम बांध भी थोड़ा-बहुत उसको मुट्ठी में बांधने का भी उपाय नहीं । हवा तो चलती है, तो उसका धक्का भी लगता है; अहंकार चलता है, तो उसका स्पर्श भी मालूम नहीं पड़ता। इसीलिए तो दुरूह हो जाता है अहंकार से ऊपर उठना। क्योंकि इतना सूक्ष्म है कि आप कुछ भी करो, उसी में प्रवेश कर जाता है। आप त्याग करो, वह उसी के पीछे खड़ा हो जाता है। वह कहता है, मैंने त्याग किया! आप किसी के चरण छुओ, समर्पण करो। वह पीछे से कहता है कि देखो, मैं कितना विनम्र हूं। मैंने चरण छुए ! आप प्रार्थना करो, परमात्मा के मंदिर में सिर पटको। वह कहता है कि देखो, मैं कितना धार्मिक हूं! मैंने प्रभु की प्रार्थना की। जब ि दूसरे अधार्मिक सड़कों से जा रहे हैं दूकानों की तरफ; मैं धार्मिक, प्रभु की प्रार्थना कर रहा हूं! वह मैं आपकी प्रत्येक क्रिया के पीछे खड़ा हो जाता | आप कुछ भी करो, वह सदा पीछे है। वह इतना बारीक है कि आप कहीं सेद्वार - दरवाजे बंद नहीं कर सकते, जहां वह न आ जाए। जहां भी आप होंगे, वहां वह पहुंच जाएगा। जब तक आप होंगे, तब तक वह पहुंच जाएगा। तो कृष्ण ने यह विभाजन जो करके कहा, वह इसीलिए कहा है कि मोटी से मोटी चीज है पृथ्वी, और सूक्ष्म से सूक्ष्म चीज है अहंकार | पदार्थ से तो मुक्त होना ही है, अंततः अस्मिता से भी मुक्त होना है। क्योंकि अहंकार भी पदार्थ का ही सूक्ष्मतम रूप है। अगर ठीक से समझें, तो जैसा कहा कि अग्नि के ही रूप हैं सब बाह्य पदार्थ, वैसे ही अग्नि के ही रूप हैं भीतर के पदार्थ । जिसको हम मनन कहते हैं, वह भी अग्नि का ही एक रूप है। और जिसे हम बुद्धि कहते हैं, वह भी अग्नि का ही एक रूप है। और इसीलिए मैं आपसे कहूं कि अगर पश्चिम में आज सफलता मिल गई है कंप्यूटर बनाने में, और जो बुद्धि से आप काम करते थे, वह पेट्रोल या बिजली से चलने वाली मशीन करने लगी है, तो बहुत | चकित होने की जरूरत नहीं। क्योंकि आप भी जो काम कर रहे हैं, वह भी सिर्फ नेचरल कंप्यूटर का है। आपके भीतर भी जो चल रहा | है काम, वह भी अग्नि से ही चल रहा है। ठीक वैसी ही मशीन बाहर भी अग्नि से काम कर सकती है। और काम करने लगी है। और आदमी से ज्यादा कुशल काम करती है। क्योंकि उस मशीन के पास कोई अहंकार नहीं है, जो बीच में बाधा डाले। कोई अहंकार नहीं है; वह बिलकुल कुशलता से काम करती रहती है। ठीक फ्यूल मिल जाए, ईंधन मिल जाए, मशीन काम करती रहती है। आपकी बुद्धि का काम तो मशीन करने लगी है। आज नहीं कल, | शायद हम किसी दिन ऐसी मशीन भी ईजाद करने में सफल हो जाएंगे...। अभी किसी वैज्ञानिक को सूझा नहीं है, और न उन लोगों को सूझा है, जो विज्ञान के संबंध में उपन्यास और कल्पनाएं लिखते हैं। लेकिन मैं कहता हूं, किसी दिन यह भी संभव हो जाएगा कि हम ऐसी मशीन बनाने में सफल हो जाएंगे, जिस मशीन को आप जरा पैर की चोट मार दे, तो वह कहेगी, देखते नहीं; मैं कौन हूं! तो मशीन | कह सकती है। क्योंकि अहंकार भी बहुत सूक्ष्म अग्नि है। | अगर हमने विचार पैदा कर लिया मशीन से, अगर हमने विचार का काम ले लिया मशीन से, अगर हमने बुद्धि का काम ले लिया मशीन से, तो बहुत देर नहीं लगेगी कि उसमें हम अस्मिता को भी | जन्म दे दें। और मशीनें भी अकड़कर बैठ जाएं। कुछ मशीनें राष्ट्रपति हो जाएं, कुछ मशीनें प्राइम मिनिस्टर हो जाएं। कुछ कठिनाई नहीं है। मशीनें दावे करने लगें। मशीनें कभी न कभी दावे करेंगी, क्योंकि हमारे भीतर भी मशीनें दावे कर रही हैं। हमारे भीतर 342 Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा की खोज भी दावे मशीनों के हैं। लेकिन वह है मशीन, है पदार्थ, है प्रकृति | सुना है मैंने, एक अदालत में एक आदमी पर एक गरीब आदमी | पर मुकदमा चल रहा हैं। और मजिस्ट्रेट उससे पूछता है कि क्या तुमने नेताजी बदमाश कहा ? | गांव में कोई नेताजी हैं, सभी गांव में हैं। मानहानि का मुकदमा चल रहा है उस आदमी पर । नेताजी ने मानहानि का मुकदमा चलाया है। कमजोर नेताजी रहे होंगे। नहीं तो नेता लोग मानहानि की फिक्र नहीं करते; चौबीस घंटे सहनी पड़ती है। जिसको मान चाहिए, उसे मानहानि सहनी ही पड़ेगी। जिसे सिंहासन पर चढ़ना है, उसे गालियों के रास्ते से गुजरना ही पड़ेगा। कोई उपाय नहीं है। कमजोर नेताजी रहे होंगे, या सिक्खड़, एमेच्योर । अभी नए-नए होंगे। मुकदमा चला दिया। गुस्से में आ गए। मजिस्ट्रेट उस आदमी से पूछ रहा है - नेताजी सामने खड़े हैं- कि क्या तुमने नेताजी को बदमाश कहा ? उसने कहा, जी हां। नेताजी सोचते थे, शायद मना करेगा। मजिस्ट्रेट भी सोचता था कि मना करेगा। मजिस्ट्रेट भी चौंका। कहा कि क्या तुमने चोर भी कंहा? उस आदमी ने कहा, जी हां। कहा, तुमने डाकू भी कहा ? उसने कहा, जी हां। कहा, तुमने हत्यारा भी कहा ? उसने कहा, जी हां। मजिस्ट्रेट ने कहा, क्या तुमने गधा भी कहा ? उसने कहा, कहना चाहता था। लेकिन माफ करिए, कहा नहीं। पूछा, क्यों ? उसने कहा कि जब मैं कहने के करीब आया, तो तुझे खयाल आया कि कहीं गधे नाराज न हो जाएं। क्योंकि न तो गधे चोर होते, न बेईमान होते, न बदमाश होते, न हत्यारे होते। पहले तो मैंने तय किया था कि कहूंगा। लेकिन पीछे मैं, माफ करिए, मैं छोड़ गया। कहा नहीं मैंने। आदमी जो भी कर रहा है, उसमें और पशुओं में बड़ा भेद नहीं है । सिर्फ थोड़ी-सी सूक्ष्मता का भेद पड़ता है, और कुछ भेद नहीं पड़ता । पशु उसे ही जरा अनगढ़ ढंग से करते हैं; आदमी गढ़कर करता है! सब पशु की प्रवृत्तियां आदमी में सूक्ष्म हो जाती हैं, बस । सूक्ष्म होने से और जटिल हो जाती हैं। सूक्ष्म होने से और कनिंग, और चालाक हो जाती हैं। पशु में एक सरलता भी दिखाई पड़ती है, आदमी में वह भी खो जाती है। क्योंकि वह जटिलता का बिंदु भीतर, अस्मिता, अहंकार पैदा हो जाता है; वह सारी चीजों को उलझा देता है। और जिसको परमात्मा की यात्रा पर जाना हो, उसे पदार्थ के उस 343 > सूक्ष्मतम रूप, अग्नि के उस सूक्ष्मतम खेल, प्रकृति के उस सूक्ष्मतम रहस्य के ऊपर जाना पड़ेगा। इसलिए कृष्ण कहते हैं, यह विभाजन है। यह मैंने रची प्रकृति । इस तरह आठ हिस्सों में मैंने इस प्रकृति को रचा है। जोर यह है कि तू समझ ले कि यह प्रकृति है; यह तू नहीं है। और जोर यह है कि तू समझ ले कि यह प्रकृति है; यह परमात्मा नहीं है। जो भी रचा जाता है, वह प्रकृति है; और जो भी रचा नहीं जाता है, वही परमात्मा है। जो भी बनता है, वह प्रकृति है; और जो कभी नहीं बनाया जाता, वही परमात्मा है। जो निर्मित होता है, वह प्रकृति है; और जो सदा अनिर्मित है और है— अनक्रिएटेड, अस्रष्ट - वही परमात्मा है। अहंकार भी निर्मित होता है। बच्चों में अहंकार नहीं होता; धीरे-धीरे निर्मित होता है। बुद्धि भी निर्मित होती है। बच्चों में बुद्धि नहीं होती। और आप ऐसा सोचते हों कि आप बुद्धि लेकर पैदा हुए हैं, तो आप बड़ी गलती में हैं। सिर्फ आप संभावना लेकर पैदा होते हैं, बाद में सब निर्मित होता है। अगर आपको जंगल में भेड़ियों के पास रख दिया जाए और बड़ा किया जाए, तो आपके पास कोई बुद्धि नहीं होगी। हां, भेड़ियों के पास जितनी बुद्धि होती है, उतनी बुद्धि आपके पास होगी। उससे ज्यादा नहीं। अगर आप सोचते हैं कि आपको एकांत में रखा जाए... । अकबर ने ऐसा प्रयोग किया। अकबर को किसी फकीर ने कहा कि आदमी वही हो जाता है, जो उसे बनाया जाता है। इसलिए बनाया हुआ आदमी झूठा है। हम तो उस आदमी की तलाश में हैं, जो अनबनाया है, जो अनबना है। अकबर ने कहा, मैं यह नहीं मान सकता कि आदमी में सब बनाया हुआ है। उस फकीर ने कहा, कौन-सी चीज आपको गैर-बनाई दिखती है? अकबर ने कहा कि जैसे आदमी की बुद्धि, विचार । ये आदमी के बनाए हुए नहीं हैं। ये तो भीतर से आते हैं। सबको हमको खयाल है कि भीतर से आते हैं। इसीलिए तो हम लड़ पड़ते हैं। कोई आदमी अगर कहे कि आपका विचार गलत, तो आप कहते हैं, मेरा विचार गलत ! कभी नहीं। मेरा विचार! ऐसा लगता है, जैसे कि मेरे साथ नहीं, सब विचार बाहर से भीतर डाले जाते हैं। तो उस फकीर ने कहा, आप एक प्रयोग कर लें। एक बच्चे को, जन्मजात बच्चे को, अभी पैदा हुआ और उठाकर कारागृह में रखा गया। सब तरह उसकी सेवा की जाती; उसे दूध पहुंचाया जाता; Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग - 3 सब किया जाता। लेकिन कहा गया पहरेदारों को कि वे बोलें न उस बच्चे के सामने कभी भी। उनके मुंह बंद, सी दिए गए। वह बच्चा बड़ा हुआ। और अकबर मुसीबत में पड़ने लगा। जैसे-जैसे वह बड़ा हुआ, उसमें आदमी जैसा कुछ भी प्रकट न हुआ। न तो वह चलना सीख पाया, न वह बैठना सीख पाया, न वह बोलना सीख पाया। वह कुछ भी नहीं सीख पाया । वह दस | साल का हो गया, उससे एक शब्द न फूटा। वह बारह साल का हो गया, उससे एक शब्द न फूटा। वह सत्रह साल का होकर मरा। और अकबर सत्रह साल तक उसकी प्रतीक्षा करता रहा । आखिर उसने कहा कि नहीं; उसमें कुछ न आया। वह सब बाहर से डाला गया है । वह सब बनावट है। सब आदमी बनाए हुए हैं, मैन्युफैक्चर्ड। हां, कोई मेड इन इंडिया, कोई मेड इन जापान । वह अलग बात है। बाकी सब आदमी मैन्युफैक्चर्ड हैं। कोई हिंदू, कोई मुसलमान, कोई जैन – सब मैन्युफैक्चर्ड हैं। क्योंकि अहंकार तक जो भी है, वह सब प्रकृति है । बुद्धि भी प्रकृति है, मन भी प्रकृति है। जैसे बाहर पड़ा हुआ पत्थर है, ऐसे ही भीतर पड़ा हुआ अहंकार है । इनमें कोई सूक्ष्म अंतर नहीं है। ये दोनों एक ही चीज हैं। यह सब बना-बनाया है। इसके पार है वह, जो अस्रष्ट, अनक्रिएटेड है। इन सबके पार जाए कोई, तो उसका दर्शन है। अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् । जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् । । ५ । । सो यह आठ प्रकार के भेदों वाली तो अपरा है अर्थात मेरी जड़ प्रकृति है । और हे महाबाहो, इससे दूसरी को मेरी जीवरूप परा अर्थात चेतन प्रकृति जान कि जिससे यह संपूर्ण जगत धारण किया जाता है। य जो आठ अंगों वाली प्रकृति है, यह अपरा है। अपरा का अर्थ होता है, निम्न, नीचे की, इस पार और इन आठ पार मेरी वह प्रकृति है, जो परा है, दि बियांड, उस पार की। ये आठ विभाजन इस किनारे के हैं । और एक मैं हूं, उस पार, इन सबसे दूर और ऊपर उठकर - परा । इन सबके पार, इन सबको ट्रांसेंड कर जाता हूं। उस चैतन्य को, उस चेतना को, जो इन सबके पार है, तू इन सबको धारण करने वाली समझ । वह जो पार है, क्या है? उस संबंध में थोड़ा-सा समझें। क्योंकि वही सबको धारण करने वाली है। वही धर्म है। वही सबको सम्हाले है। यह इतना विराट विस्तार उसकी ही छाती पर है, उस परा । उस पार की चेतना । वह पार की चेतना क्या है ? और हमारे भीतर उस पार की चेतना की तरफ जाने वाला द्वार कहां है? समस्त योग का सार, उस परा को पहचानने की प्रक्रिया, टेक्नीक है। स्वयं के भीतर वह परा, वह बियांड कहां शुरू होता है ? शरीर में नहीं, क्योंकि शरीर पदार्थ है। मन में नहीं, क्योंकि मन भी बाहर से संगृहीत विचारों का जोड़ है। बुद्धि में नहीं, क्योंकि बुद्धि भी सूक्ष्मतम अग्नि का रूप है। अहंकार में नहीं, क्योंकि अहंकार भी स्वनिर्मित धारणा है। फिर कहां ? फिर किस में हम उस सेतु को पाएं, उस द्वार को, जहां से सबको धारण करने वाली चेतना | का साक्षात और मिलन है ? इन सबके साक्षित्व में। मैं अपने शरीर का साक्षी हो सकता हूं। | यह रहा मेरा हाथ; मैं इस हाथ को देख सकता हूं। यह हाथ मेरा काट दिया जाए, तो मैं इस हाथ की पीड़ा को देख सकता हूं। यह हाथ कट जाए, तो भी मैं देखूंगा कि मैं नहीं कटा, हाथ ही कटा है। इस हाथ के कट जाने के बाद भी मुझे जरा भी न लगेगा कि मेरे बीइंग, मेरे | अस्तित्व में कुछ टुकड़ा अलग हो गया है। मैं उतना का उतना ही रहूंगा। मेरे होने की जो धारणा है, उसमें खंड जरा-सा भी अलग नहीं | होगा। मैं उतना ही रहूंगा। मेरे पैर भी कट जाएं, तो भी मैं उतना ही | रहूंगा। मेरी आंख भी फूट जाएं, तो मेरे शरीर में कमी पड़ती जाएगी, लेकिन मेरे होने में, मेरे अस्तित्व में कोई भेद न पड़ेगा। 344 सोचें ऐसा, आप रात सोए, रात आपकी आंख चली जाए नींद में। सुबह जब आपको पहली दफा पता चलेगा कि आप जाग गए हैं.. ...क्या आपको पता चल सकेगा आंख बंद में कि आपकी आंख चली गई? अगर आपके भीतर कुछ कम हो गया हो, तो जरूर पता चलना चाहिए। लेकिन कुछ कम हुआ नहीं है, इसलिए पता नहीं चलेगा। आंख खोलेंगे, और जब कुछ न दिखाई पड़ेगा, तब पता चलेगा कि कुछ कमी हो गई। भीतर कोई कमी न होगी। बाहर के संबंध का एक द्वार टूट गया, भीतर आप पूरे के पूरे हैं। भीतर आपको कोई फर्क नहीं पड़ेगा। अगर आपको बेहोश करके आपका पैर काट दिया जाए, और जब तक पैर का दर्द न चला जाए, तब तक आपको बेहोश और डीप फ्रीज में रखा जाए। फिर आपके पैर का दर्द जा चुका हो, Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - परमात्मा की खोज > आपको होश में लाया जाए। शरीर पर कंबल पड़ा हो। आपको भीतर | | आप अकेले थे, तो आप कुछ और थे। अब दो आदमी सड़क पर से जरा भी पता नहीं चलेगा कि पैर कट गया है, जब तक कि कंबल आ गए, तो आप कुछ और क्यों हो गए? यह कुछ और क्या है? न उठाया जाए, जब तक आप देखें न। जब तक आप चलें और गिर यह भीतर मैं का भाव खड़ा हो गया। न पड़े, तब तक आपको पता नहीं चलेगा कि पैर कट गया। क्योंकि ___ कोई आदमी आपको गाली देता है, तब जरा भीतर गौर से देखना भीतर कुछ कटता ही नहीं। तो भीतर पता कैसे चलेगा? पता तो तभी कि कोई सांप फन उठाता है, जैसे फुफकारता हो, जैसे सोए सांप चलेगा, जब बाहर प्रयोग करेंगे शरीर का और कोई कमी मालूम को चोट मार दी हो, कोई आपके भीतर उठकर खड़ा हो जाता है। पड़ेगी; तभी पता चलेगा, अन्यथा पता नहीं चलेगा। जरा उसे गौर से देखना। जब आप सुंदर कपड़े पहनकर निकलते शरीर के हम साक्षी हो सकते हैं, विटनेस हो सकते हैं। जान | हैं सड़क पर, तब आप वही नहीं होते, जब आप दीन-हीन कपड़े सकते हैं कि यह मैं नहीं हूं। क्योंकि जिसको भी मैं देख पाता हूं, पहनकर निकलते हैं। भीतर थोड़ा-सा फर्क होता है। वह मैं नहीं हो सकता। जो भी दृश्य बन गया, वह मैं नहीं हो | आज मैं छोटी-सी कहानी एक मित्र को लिख रहा था। लिख सकता। मैं आपको देख रहा हूं; एक बात पक्की हो गई कि वह जो रहा था कि एक हाथी ने एक दिन एक चहे को देखा। चहे जैसा आप वहां बैठे हुए हैं, वह मैं नहीं हूं। अन्यथा मैं आपको देख न | छोटा प्राणी हाथी ने कभी देखा नहीं था। इसलिए नहीं कि छोटे पाता। देखने के लिए दूरी चाहिए; परसेप्शन के लिए पर्सपेक्टिव | प्राणी नहीं हैं, बाकी हाथी जैसे प्राणी को कहां ये छोटे-छोटे प्राणी चाहिए, फासला चाहिए, नहीं तो मैं देख न पाऊंगा आपको। । | दिखाई पड़ें! चूहे को एक दिन देख लिया; ऐसे ही फुर्सत में रहा आपको देख पाता हूं, क्योंकि मैं अलग हूं। दूर खड़ा हूं। मैं | होगा, विश्राम में रहा होगा। चूहे को देखकर बड़ा हैरान हुआ। उसने अपने शरीर को भी देख पाता हूं। आप बच्चे थे, तब भी अपने | | कहा कि तुझसे क्षुद्र प्राणी मैंने अपने जीवन में नहीं देखा! बड़ी शरीर को देखा। जवान हो गए, तब भी अपने शरीर को देखा। फिर अकड़ से कहा कि तुझसे क्षुद्र प्राणी मैंने कभी नहीं देखा। क्षुद्रतम भी आपको खयाल न आया कि शरीर तो बिलकुल बदल गया है, | है तू। लेकिन आप? आप तो वही के वही हैं! आपके भीतर कुछ भी नहीं । चूहे ने पता है क्या कहा? चूहे ने ऊपर हाथी को देखा और कहा, बदला, रत्तीभर। आप बूढ़े भी हो जाएंगे, तब भी आपके भीतर माफ करें। ऐसा मैं सदा नहीं होता। जरा मेरी तबियत खराब थी। आप वही होंगे, जो बच्चे थे तब थे। भीतर, वह जो चेतना है, वह यह मेरा सदा का रूप नहीं है। आई हैव बीन सिक। यह मेरी सदा अछूती गुजर जाती है। की स्थिति नहीं है। जरा मैं बीमार पड़ गया था। शरीर मैं नहीं है, यह हम शरीर के साक्षी होकर जान सकते हैं। हाथी का होगा अहंकार. तो चहे का भी है। वह भी अपने फिर हम विचारों के भी साक्षी हो सकते हैं। आप भीतर देख सकते | | अहंकार को बचाने की कोशिश करेगा। हम सब कर रहे हैं। फर्क हैं कि यह क्रोध चल रहा है। आप भीतर देख सकते हैं, यह लोभ | कुछ भी नहीं है। वही चूहे वाली बुद्धि है। इसको थोड़ा अगर सरक रहा है। आप भीतर देख सकते हैं कि यह काम यात्रा कर | जागकर देखते रहेंगे कि कब-कब खड़ा होता है ! जब कोई आपसे रहा है। कहता है कि अरे...। तब कई बार आपका मन भी ऐसा होता है न विचार को आप देख सकते हैं वैसे ही, अपने भीतर के पर्दे पर, | कहने का, कि यह मेरी सदा की हालत नहीं है, मैं जरा बीमार रहा! जैसे आप फिल्म को देखते हैं। उसके भी आप साक्षी हो सकते हैं। वह जो भीतर मैं है, उसको जरा जागकर खोजते रहेंगे कि वह तो फिर आप उससे भी अलग हो गए। कठिनाई थोड़ी-सी पड़ेगी| कहां-कहां खड़ा होता है, तो जल्दी आपकी उससे मुलाकात होने मैं को देखने में, क्योंकि वह सूक्ष्मतम है और हम उससे | | लगेगी; जगह-जगह मुलाकात होगी। आईने के सामने खड़े होंगे, आइडेंटिफाइड हैं। तो शक्ल कम दिखाई पड़ेगी, अहंकार ज्यादा दिखाई पड़ेगा। किसी लेकिन मैं को भी आप देख सकते हैं। जब आप सड़क पर चलते | से हाथ मिलाएंगे, तो आप कम मिलते हुए मालूम पड़ेंगे, अहंकार हैं; एकांत सड़क; कोई भी नहीं है। फिर अचानक दो आदमी सड़क | | ज्यादा मिलता हुआ मालूम पड़ेगा। किसी से बात करेंगे, तो आप पर निकलते हैं, तब आपने खयाल किया है कि कोई सांप आपके संवाद करते हुए नहीं मालूम पड़ेंगे, अहंकार भीतर खड़ा हुआ भीतर सरककर फन उठा लेता है। उसे जरा गौर से देखना। जब मालूम पड़ेगा। 3451 Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < गीता दर्शन भाग-3> थोड़ा होश का प्रयोग करेंगे, तो धीरे-धीरे आपके और आपके अहंकार के बीच एक गैप, एक फासला पैदा हो जाएगा। और आप देख पाएंगे, यह अहंकार है; यह रहा अहंकार। और जिस दिन आप अहंकार को भी देख पाएंगे, उसी दिन, उसी दिन छलांग। उसी दिन आप इस आठ वाली प्रकृति से छलांग लगाकर उस भीतर की परा प्रकृति में पहुंच जाएंगे, जिसे कृष्ण कहते हैं, मेरा स्वरूप, मेरी चेतना। और उसी चेतना ने सब धारण किया हुआ है। तब आप पाएंगे कि आपके शरीर को भी उसी ने धारण किया हुआ है। तब आप पाएंगे कि आपकी बुद्धि को भी उसी ने धारण किया हुआ है। तब आप पाएंगे कि आप कभी भीतर गए ही नहीं, उसको कभी आपने देखा ही नहीं, जो प्राणों का प्राण है। आपने उसे देखा ही नहीं, जो सारी परिधि का केंद्र है। आपने कभी मालिक को देखा ही नहीं; आप नौकरों से ही उलझे रहे। और अनेक बार आपने नौकरों को ही समझ लिया कि यह मैं हूं। आप मालिक तक कभी पहुंचे नहीं। कृष्ण अर्जुन को उस मालिक की तरफ ले जाने की एक-एक कदम कोशिश कर रहे हैं। कहा, यह है आठ की प्रकृति अर्जुन। तू इसे ठीक से समझ ले। और फिर इसके पार होने के लिए मैं उस बात की तुझे खबर दं, जो परा है, वह जो चैतन्य है, पीछे सबसे छिपा, जो सबका निर्माता, जो सबका आधार और जो सबको फिर अपने में आत्मसात कर लेता है। आज इतना ही। उठेंगे नहीं। पांच मिनट बैठे रहें। प्रसाद लेकर जाएं। हमारे संन्यासियों के पास कुछ और देने को आपके लिए नहीं है। इसलिए आप उठेंगे, तो उनके मन को पीड़ा होगी। बैठे रहें। और सिर्फ बैठे न रहें। प्रसाद तभी मिल सकता है यह, अगर आप इसमें कोआपरेट करें, अन्यथा आप खाली हाथ चले जाएंगे। गीत गाएं। उनके धुन के साथ धुन गाएं। ताली बजाएं। बगल वाले की फिक्र छोड़ दें। वह बगल वाला क्या कहेगा, उसकी फिक्र छोड़ दें। थोड़े आनंदित हों। पांच मिनट इस आनंद को लेकर जाएं। ___ हो सकता है, इस कीर्तन की धुन में आप पूरे आनंदित हो जाएं, तो परा की तरफ थोड़ा-सा इशारा आपको दिखाई पड़े। 346 Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 7 तीसरा प्रवचन अदृश्य की खोज Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +गीता दर्शन भाग-3 → एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय। जीवन में डूब जाता है। जो दिखाई पड़ता है, उसके भीतर जिसने अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ।।६।। जड़ों को खोजा, अदृश्य को खोजा, मनकों के भीतर धागे को मत्तः परतरं नान्यत्किंचिदस्ति धनंजय । | खोजा, वह जीवन में धर्म की यात्रा पर निकल जाता है। मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ।।७।। | अदृश्य की खोज धर्म है और दृश्य में उलझ जाना संसार है। जो और हे अर्जुन, तू ऐसा समझ कि संपूर्ण भूत इन दोनों | दिखाई पड़ता है, उसको सब कुछ मान लेना संसार है। और जो प्रकृतियों से ही उत्पत्ति वाले हैं और मैं संपूर्ण जगत का | नहीं दिखाई पड़ता है, उसे दिखाई पड़ने वाले का भी मूल आधार उत्पत्ति तथा प्रलयरूप हूं, अर्थात संपूर्ण जगत का मूल्न जानना धर्म है। कारण हूं। कष्ण इसमें दो-तीन बातें कहते हैं। एक तो वे अपने अदश्य रूप हे धनंजय, मेरे सिवाय किंचितमात्र भी दूसरी वस्तु नहीं है। | की बात करते हैं। वे कहते हैं, छिपा हुआ हूं मैं, दि हिडेन, गुप्त हूं यह संपूर्ण जगत सूत्र में सूत्र के मणियों के सदृश मेरे में | मैं, प्रकट नहीं हूं। और जो प्रकट है, वह केवल प्रकृति है। और वह गुंथा हुआ है। जो प्रकट है, वह जो मैंने अष्टधा, आठ तरह की प्रकृति की बात . कही, उसका ही खेल है। वह सब मेरा बनाया हुआ खेल है। वे सब मनके मैंने निर्मित किए हैं, मैं तो धागा ही हूं। ज गत प्रकट है, ऐसे ही जैसे माला के मनके प्रकट होते | __ अदृश्य है परमात्मा, इस सत्य के ऊपर इस सूत्र में जोर दिया है। UI हैं। परमात्मा अप्रकट है, वैसे ही जैसे मनकों में पिरोया | | हम सब निरंतर पूछते हैं, कहां है परमात्मा? कैसा है परमात्मा? हुआ धागा अप्रकट होता है। पर जो अप्रकट है, उसी | | जब भी हम ऐसे सवाल उठाते हैं, तो हम गलत सवाल उठाते हैं। पर प्रकट सम्हला हुआ है। जो नहीं दिखाई पड़ता उसी पर, जो | और जो भी इन गलत सवालों के जवाब देता है, वे जवाब सवालों दिखाई पड़ता है, आधारित है। से भी ज्यादा गलत होते हैं। ये जो हमने सारी प्रतिमाएं खड़ी कर जीवन के आधारों में सदा ही अदृश्य छिपा होता है। वृक्ष दिखाई | | रखी हैं परमात्मा की, ये हमारे प्रश्नों के जवाब हैं, जो हमने पूछे हैं, पडता है. जडें दिखाई नहीं पड़ती हैं। फल दिखाई पड़ते हैं. पत्ते कहां है। तो हमने प्रतिमाएं बना ली हैं बताने को. कि यह रहा।' दिखाई पड़ते हैं, जड़ें पृथ्वी के गर्भ में छिपी रहती हैं-अंधकार में, लेकिन ध्यान रखना, जो मूर्ति में उलझा, वह इस अदृश्य की अदृश्य में। पर उन अदृश्य में छिपी जड़ों पर ही प्रकट वृक्ष की | खोज पर न निकल पाएगा। हां, अगर मूर्ति सिर्फ द्वार बनती हो जीवन की सारी लीला निर्भर है। अमूर्त का, अगर वृक्ष केवल जड़ों की सूचना बनता हो, और मनके यदि हम ऊपर से ही देखें, तो शायद समझें कि फूलों में प्राण | अगर धागे की खबर लाते हों, तब तो ठीक है। अन्यथा मनकों में होंगे; तो शायद हम समझें कि पत्तों में प्राण होंगे; तो शायद हम | जो उलझा, वह धागे से वंचित रह जाएगा। समझें कि वृक्ष की शाखाओं में प्राण होंगे। ऊपर से जो देखेगा, उसे | | और मजे की बात यह है कि हर मनके में धागा मौजूद है। हर ऐसा ही दिखाई पड़ेगा। लेकिन प्राण तो उन जड़ों में हैं, जो नीचे | मूर्ति में भी अमूर्त मौजूद है। हर पत्थर में भी अमूर्त मौजूद है। वह अंधकार में, अदृश्य में छिपी और दबी हैं। जो दिखाई पड़ रहा है, सब जगह न दिखाई पड़ने वाला मौजूद है। इसलिए कोई पत्तों को तोड़ डाले, फूलों को तोड़ डाले, शाखाओं | लेकिन वह न दिखाई पड़ने वाला उसी को स्मरण में आएगा, जो को काट डाले-वृक्ष का अंत नहीं होता। फिर नए अंकुर फूट जाते दिखाई पड़ने वाले से थोड़ा भीतर प्रवेश करे। हैं, फिर नए पत्ते आ जाते हैं, फिर नए फूल खिल जाते हैं। लेकिन दिखाई पड़ने वाला मैं नहीं हूं, कोई जडों को काट डाले. तो वक्ष का अंत हो जाता है। फिर पराने कृष्ण कहते हैं, जो दिखाई पड़ता है वह प्रकृति है। फूल भी मौजूद हों, तो थोड़ी ही देर में कुम्हला जाते हैं और पुराने | दिखाई पड़ता है, इससे क्या अर्थ है? दिखाई पड़ने से अर्थ है, पत्ते भी थोड़ी ही देर में पतझड़ को उपलब्ध हो जाते हैं। इंद्रियों की पकड़ में आता है जो। चाहे आंख से दिखाई पड़े, चाहे जीवन का विराट रूप भी ऐसा ही है। जो दिखाई पड़ता है, | कान से सुनाई पड़े, चाहे हाथ से स्पर्श हो जाए। जो भी इंद्रियों की जिसने भूल से यह समझ लिया कि वही प्राण है, वह अधार्मिक पकड़ में आता है, वह, वह प्रकृति है। और जो इंद्रियों के पार रह |348| Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदृश्य की खोज जाता है, वह परमात्मा है। मनके वही हैं, जो इंद्रियों की पकड़ में आ जाते हैं; और धागा वही है, जो इंद्रियों की पकड़ के बाहर छूट जाता है। क्या जीवन में हमने कोई ऐसी चीज जानी है, जो इंद्रियों की पकड़ के बाहर हो ? कोई ऐसा स्वाद जाना है, जो जीभ से न लिया गया हो ? अगर नहीं जाना, तो परमात्मा की हमें कोई खबर नहीं है। कोई ऐसा दृश्य देखा है, जो आंख से न देखा गया हो ? अगर नहीं देखा, तो हमें उन जड़ों की कोई खबर नहीं है, जिनकी कृष्ण बात करते हैं। क्या कोई ऐसी ध्वनि सुनी है, जो कानों से न सुनी गई हो? ऐसी ध्वनि, जिसे बहरा भी सुन सके ! अगर नहीं सुनी है ऐसी कोई ध्वनि, तो हमें धागे की कोई भी खबर नहीं है; हम मनकों से ही खेल रहे हैं। और जब तक कोई आदमी मनकों से खेलता है, तब तक बचकाना है, जुवेनाइल है। और जैसे ही उसे मनकों के भीतर छिपे | हुए धागे के रहस्य का पता चल जाता है, उसी दिन प्रौढ़ होता है। सिर्फ धार्मिक व्यक्ति ही मैच्योर होता है, प्रौढ़ होता है । अधार्मिक व्यक्ति बचकाने ही रह जाते हैं। इसलिए जिस समाज में जितना ज्यादा अधर्म होगा, उतना बचकानापन और चाइल्डिशनेस बढ़ जाएगी। आज अगर अमेरिका में जुवेनाइल बच्चे पागल की तरह व्यवहार कर रहे हैं, तो उसके लिए जिम्मेवार बच्चे नहीं हैं। अगर आज अमेरिका के बच्चे हिप्पी, और बीटल, और सब तरह की नासमझियों को उपलब्ध हो रहे हैं, तो उसके लिए बच्चे जिम्मेवार नहीं हैं। उसके लिए वे मां-बाप जिम्मेवार हैं, जिन्होंने प्रौढ़ होने का रास्ता ही तोड़ दिया है। क्योंकि प्रौढ़ होने का एक ही रास्ता है, मैच्योरिटी का इस जगत में, वह धर्म है। एक बार धर्म हट जाए, तो बूढ़े भी बचकाने होंगे। और एक बार जीवन में धर्म प्रवेश कर जाए, तो बच्चे में भी उतनी ही प्रज्ञा उत्पन्न होती है, जितनी वृद्धतम व्यक्ति को हो सके। लाओत्से के संबंध में कहा जाता है कि वह बूढ़ा ही पैदा हुआ। बड़ी अजीब-सी बात है। कोई आदमी बूढ़ा कैसे पैदा होगा ! लेकिन अजीब न लगेगी, अगर दूसरे छोर से सोचें। कई लोग बच्चे ही मर जाते हैं न! अगर कोई आदमी बच्चा ही मर जाता है, तो किसी आदमी के बूढ़े पैदा होने में अड़चन क्या है ? अनेक लोग जब अपनी कब्र में जाते हैं, तब अगर गौर से देखें, तो उनके हाथ में घुनघुने होते हैं, और कुछ भी नहीं। जिन चीजों से हम भी खेल रहे हैं, वे घुनघुनों से ज्यादा नहीं हैं। बच्चों के घुनघुने जरा ज्यादा रंगीन होते हैं, हमारे जरा कम रंगीन, पर उससे हम प्रौढ़ नहीं हो जाते हैं। और बच्चों के घुनघुने सुबह आते हैं और सांझ टूट जाते हैं। और हमारे घुनघुने जिंदगीभर चलते हैं, ज्यादा मजबूत होते | हैं | इससे कोई भेद नहीं पड़ता है। लेकिन खेलते हम घुनघुनों से रहते हैं। अधिक लोग मरते वक्त वहीं होते हैं, जहां पैदा होते वक्त खटोले में थे। कब्र और खटोले में कोई विकास नहीं होता। 349 लाओत्से की बात मजाक की तो है, लेकिन अर्थपूर्ण है। वह यही कहने को यह कहानी गढ़ी गई है कि अधिक लोग कब्र में जाते वक्त घुनघुने हाथ में रखते हैं और मुंह में उनके दूध की चूसनी होती है। इसलिए उलटी बात लाओत्से के लिए कही गई कि वह जन्म से ही बूढ़ा पैदा हुआ। और जब लोग लाओत्से से पूछते कि तुम्हारे जन्म से बूढ़े होने का क्या मतलब है? तो लाओत्से कहता कि जन्म से ही मुझे, जो दिखाई पड़ता है, उसमें कोई रस नहीं है; जो नहीं दिखाई पड़ता, उसी में मेरा रस है। तो कृष्ण कहते हैं, मैं छिपा हूं। धर्म जो है, वह साइंस आफ दि हिडेन, छिपे हुए का विज्ञान है। विज्ञान जो है, वह प्रकट जगत की खोज है। लेकिन जो भी प्रकट है, वह ऊपर है, सतह पर है; और जो अप्रकट है, वह गहरा है। खजाने तो छिपाकर ही रखे जाते हैं। आप भी अपनी तिजोड़ी कहां रखते हैं? द्वार पर नहीं रखते हैं। न ही सड़क पर रख देते हैं। न घर की दीवाल पर रखते हैं । न घर की फेंसिंग के पास रखते हैं। तिजोड़ी आप वहीं रखते हैं, जो घर का अंतरतम स्थान है। जीवन की भी सारी संपदा अंतरतम स्थानों में छुपी होती है । जितनी बड़ी चीज खोदनी हो, उतने गहरे उतरना पड़ता है। अगर परमात्मा को खोजना हो, तो बहुत गहरे उतरना पड़ेगा। और गहरे उतरने का एक ही अर्थ है कि इंद्रियां जब तक ह पकड़े हैं, तब तक हम गहरे नहीं जा सकते। इंद्रियों की पकड़ की हालत वैसी है, जैसे कोई आदमी किसी नदी के किनारे को पकड़े हो और कहता हो, मुझे नदी की गहराई की खोज करनी है। और किनारे को जोर से पकड़े हो, और कहता हो कि कहीं मैं डूब न जाऊं, इसलिए किनारा नहीं छोडूंगा। यद्यपि मुझे | उन हीरों की खोज करनी है, जो मैंने सुने हैं कि नदी के अंतर्गर्भ में हैं, नदी की गहराई में पड़े हैं। मुझे वे हीरे खोजने हैं, लेकिन किनारा मैं न छोडूंगा। क्योंकि किनारा छोड़ दूं, तो कहीं मैं डूब न जाऊं ! Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +गीता दर्शन भाग-3 - लेकिन किनारा छोड़ना ही पड़ेगा। हुई, दि क्रिएटर। बट दि डिस्ट्रायर, विनाश करने वाले की तरह की कबीर ने मजाक की है हम सबके बाबत। और कहा है, मैं बौरी | धारणा भारत की अपनी अनूठी खोज है। खोजन गई, रही किनारे बैठ। गई तो खोजने, गई खोजने हीरों को, सारी दुनिया में परमात्मा को कहा जाता है, स्रष्टा, बनाने वाला। लेकिन पागल ऐसी कि किनारे पर बैठ रही। लेकिन इतने हिम्मतवर धार्मिक लोग पृथ्वी पर कहीं न हुए कि बनाने कोई पूछ सकता है कि कबीर ने स्त्रीलिंग शब्द का क्यों प्रयोग वाले के भीतर जो छिपा हुआ तर्क है, उसकी आत्यंतिक बात को किया? मैं बौरी खोजन गई, रही किनारे बैठ। क्यों न कहा कि मैं | भी स्वीकार कर लेते; क्योंकि जो बनाएगा, वही मिटाएगा भी। जो बौरा खोजन गया, रहा किनारे बैठ! कोई अड़चन न थी। मैं पागल | स्रष्टा होगा, वही विनाश भी कर सकेगा। और जिससे जगत पैदा खोजने गया और किनारे बैठ गया। कहते हैं, मैं पागल खोजने गई होगा, उसी में लीन भी होगा। और जो जन्मदाता है, वही मृत्युदाता और किनारे बैठ रही। भी होगा। कबीर जानते हैं कि परमात्मा के सिवाय पुरुष कोई भी नहीं है। दूसरी बात अप्रीतिकर है, इसलिए दुनिया में कहीं भी खयाल में क्योंकि पुरुष का ठीक-ठीक अर्थ यही है गहरे में कि जो मालिक नहीं आई। पहली बात बड़ी प्रीतिकर है कि हे, तू पिता है, तू गोद . है। तो मालिक तो कभी खोजने नहीं जाता; भिखारी खोजने जाते है। लेकिन तू कब्र भी है, इसे कहने की हिम्मत! तूने जन्म दिया, हैं। अगर मालिक ही होते, तो खोजने क्यों जाते? मालिक नहीं हैं, तूने बनाया, तू दयालु है। लेकिन तू मिटाएगा भी, तू तोड़कर इसलिए खोजने गए। खंड-खंड करके विनष्ट भी कर देगा! और फिर भी कहने की ___ इसलिए कबीर स्त्रीलिंग शब्द का प्रयोग करते हैं। वे कहते हैं, हिम्मत की कि तू दयालु है, बड़ी मुश्किल है। बनाने वाला दयालु मैं बौरी खोजन गई। मालिक तो एक ही है, वह परमात्मा। पर | है, लेकिन मिटाने वाला ? मिटाने वाले से हमें डर लगता है। जन्म पागल की तरह किनारे पर बैठ रही। .. | दिया तूने, बड़ी कृपा की। लेकिन मृत्यु! किनारे पर जो बैठ रहेगा, वह पागल ही है। क्योंकि किनारे पर | | तो सारी दुनिया में मृत्यु के लिए लोगों ने दूसरा तत्व खोजाबैठे आदमी को हाथ में क्या लग सकता है ज्यादा से ज्यादा। हां, डेविल. शैतान. इबलीस. अलग-अलग नाम टिप। परमात्मा से कभी-कभी नदी की छाती पर सफेद झाग हीरों का धोखा देती है। विपरीत एक और शक्ति की कल्पना की. जो मिटाएगी। यह सिर्फ समुद्र के तट पर टकराकर पत्थरों से, पानी झाग बना लेता है। सूरज इस देश में एक ठीक, संगत विचार की व्यवस्था हुई, और वह यह की किरणें कभी झाग से गुजरती हैं, तो रंग-बिरंगा हो जाता है। दूर | कि जो बनाएगा, वही मिटाएगा। से कभी बहुत प्यारा भी लगता है। पास जाकर हाथ-मुट्ठी में लो, | लेकिन हमारी धारणा यह है कि बनाना भी उसकी कृपा है और तो सिवाय पानी के कुछ भी हाथ नहीं आता। मिटाना भी उसकी कृपा है। और जो बनाने में ही कृपा देखता है, नदी के तट पर तो झाग ही हाथ लग सकती है, फोम। हां, हीरों वह धार्मिक नहीं है। जो मिटाने में भी कृपा देख पाता है, वही का धोखा हो सकता है। नदी में गहरे उतरें, तो ही हीरे हाथ लग धार्मिक है। सकते हैं। इसलिए कृष्ण कहते हैं कि सृजन भी मेरा, विनाश भी मेरा; तो कृष्ण कहते हैं, इंद्रियों के पार जो है, वह मैं हूं। और इंद्रियों | निर्मित भी हुआ सब मुझसे और प्रलय को भी उपलब्ध होगा मुझमें। से जो पकड में आता है. वह जगत है, जो मैंने तझसे कहा आठ सब मुझमें ही आता है और मझमें ही खो जाता है। प्रकार का। इसमें बड़ा वैज्ञानिक दृष्टिकोण है। जीवन की सारी गति एक और बात कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं। यह बात बहुत सोचने वर्तुलाकार है। और चीजें जहां से शुरू होती हैं, वहीं समाप्त होती जैसी है। इसलिए भी सोचने जैसी है कि भारतीय प्रज्ञा ने ही इस हैं। जैसे कि एक हम वर्तुल बनाएं, एक सर्किल बनाएं, तो जहां से बात की जगत में उदघोषणा की है। कहते हैं, मैंने ही बनाई है यह | हम बनाना शुरू करें, वहीं फिर दूसरी रेखा आकर जोड़ें, तब वर्तुल प्रकृति। मैंने ही रचा है यह सब। यह मुझसे ही स्रष्ट हुआ, और। पूरा बने। मुझमें ही प्रलय को उपलब्ध हो जाएगा। सारा जीवन वर्तुलाकार है। बचपन में जहां से हम यात्रा करते हैं, परमात्मा की स्रष्टा की तरह धारणा तो जगत में सब जगह पैदा जवानी के बाद उसी दुनिया में वापस सीढ़ियां उतरते हैं। और जन्म 330 Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < अदृश्य की खोज > जिस बिंदु पर घटित होता है, उसी बिंदु पर मृत्यु भी घटित होती है। | प्रकाश संयुक्त हैं। और अगर कोई परमात्मा कहता हो, प्रकाश हूं वर्तुल पूरा हो गया। और मृत्यु जन्म से विपरीत नहीं है, बल्कि जन्म | मैं और अंधेरा कोई और, तो वह परमात्मा भी बेईमान है। अंधेरा के साथ ही जुड़ा हुआ दूसरा कदम है। और विनाश, सिर्फ विश्राम | | कौन होगा और ? और अगर परमात्मा प्रकाश है और अंधेरा कोई है। इसे समझ लेना जरूरी है। | और, तो इस जगत में शक्ति-विभाजन हो जाएगा। रात किसी और इस मुल्क में ही विनाश को विश्राम समझने की सामर्थ्य पैदा हुई। | की, और दिन किसी और का।। विनाश विश्राम है। सृष्टि तो श्रम है, और प्रलय? प्रलय विश्राम सुना है मैंने कि एक आदमी मर रहा है, एक ईसाई मर रहा है। है। इसलिए सृष्टि को हमने कहा, ब्रह्मा का दिन। और प्रलय को | पादरी उसे आखिरी पश्चात्ताप करवाने और प्रार्थना करवाने आया हमने कहा, ब्रह्मा की रात्रि। श्रम हो गया। सुबह हम उठे। दौड़े, | है। पादरी उससे कहता है, बोल कि शैतान, अब मुझे तुझसे कोई जीए, हारे, जीते, अज्ञानी-ज्ञानी बने, समझ-नासमझ झेली। और वास्ता नहीं; अब मैं परमात्मा की शरण जाता हूं। हे दुष्ट शैतान, फिर सांझ आई। और अंधेरा उतरा। और सो गए। और फिर वापस | अब तुझसे मेरा कोई संबंध नहीं; अब मैं प्रभु की शरण जाता हूं। वहीं खो गए, जहां से सुबह उठे थे। लेकिन वह आदमी सुनता है और आंख बंद कर लेता है और दिन है श्रम, रात्रि है विश्राम। जीवन है श्रम, मृत्यु है विश्राम। कुछ बोलता नहीं। पादरी और जोर से कहता है कि शायद मृत्यु सजन है श्रम, विनाश है विश्राम। विनाश को हमने कभी शत्र की | ज्यादा निकट है और उसे सुनाई नहीं पड़ रहा है। वह फिर भी सुन तरह नहीं देखा, मृत्यु को हमने कभी शत्रु की तरह नहीं देखा। । लेता है, फिर आंख बंद कर लेता है। पादरी और जोर से कहता है और ध्यान रहे. जिसने भी मत्य को शत्र की तरह देखा. उसका उसे हिलाकर। वह कहता है, हिलाओ मत। मैं अच्छी तरह सुन रहा जीवन नष्ट हो जाएगा। यह बड़ी उलटी दिखाई पड़ेगी बात। पर | हूं। तो पादरी पूछता है कि तू बोलता क्यों नहीं! ऐसा ही है। वह कहने लगा कि मरते वक्त किसी को भी नाराज करना ठीक . जिसने भी मृत्यु को शत्रु की तरह देखा, वह जी न पाएगा; वह नहीं। पता नहीं, किसकी शरण जाऊ! आखिरी वक्त में किसी की जिंदगीभर मृत्यु से डरेगा और बचेगा। जीना असंभव है। लेकिन | झंझट में मैं नहीं पड़ना चाहता। पता नहीं, सच में किसकी शरण जिसने मृत्यु को भी मित्र माना, वही जी पाएगा। क्योंकि जिसे मृत्यु जाऊं! इसलिए मुझे चुपचाप मर जाने दो। जिसकी शरण पहुंच भी दुख नहीं दे पाती, उसे जीवन कैसे दुख देगा! और जिसे मृत्यु | जाऊंगा, उससे ही कह दूंगा। अगर शैतान के पास पहुंच गया, तो भी मित्र है, उसे जीवन तो महामित्र हो जाएगा। और जिसे जीवन कह दूंगा कि हे ईश्वर, तुझसे मेरा कोई वास्ता नहीं। क्योंकि जिसके से विपरीत नहीं दिखाई पड़ती मृत्यु, बल्कि जीवन की ही पूर्णता | | साथ रहना है, उसी के साथ दोस्ती बतानी उचित है। और अभी मुझे दिखाई पड़ती है जैसे कि वृक्षों पर फल पक जाते हैं, ऐसे ही | | कुछ पता नहीं। जीवन पर मृत्यु पकती है-जिसे मृत्यु जीवन की ही परिपूर्णता | डिवाइडेड, अगर हम जगत को दो सत्ताओं में तोड़ दें, तो हमारी दिखाई पड़ती है और प्रलय भी सृजन का अंतिम चरण मालूम होता | निष्ठा भी विभाजित होती है। और विभाजित निष्ठा कभी भी निष्ठा है, उसका जीवन आह्लाद से भर जाए, तो कोई आश्चर्य नहीं है। नहीं है। अविभाजित निष्ठा ही निष्ठा है, अनडिवाइडेड। और आह्लाद से न भरे जीवन, तो धर्म का हमें कोई भी पता नहीं है। अगर पश्चिम में धर्म इस बुरी तरह नष्ट हुआ, तो उसके नष्ट इसलिए कृष्ण जब कहते हैं, मैं ही हूं सृजन और मैं ही विनाश। होने का अकेला कारण नास्तिक नहीं है; उसका बहुत गहरा कारण इस तरह की हिम्मत की घोषणा कहीं भी नहीं की गई है। अगर कहीं पश्चिम में धर्म का विभाजित निष्ठा का नियम है। घोषणाएं भी की गई हैं, तो कहा गया है कि मैं हूँ स्रष्टा, और वह दो के प्रति निष्ठा खतरनाक है; दो नावों पर यात्रा है। जीवन की जो शैतान है, वह है दुष्ट। वह कर रहा है विनाश। तू उससे | कोई यात्रा दो नावों पर नहीं हो सकती। और जीवन के सभी द्वंद्व सावधान रहना। संयुक्त हैं। यहां जीवन और मृत्यु एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। लेकिन अमृत भी मैं और जहर भी मैं; इन दोनों की एक साथ | और अंधेरा और प्रकाश भी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यहां, स्वीकृति बड़ी अदभुत है। और सचाई है उसमें। क्योंकि जीवन के | | जिसे हम विरोध कहते हैं, वह विरोध भी विरोध नहीं है, केवल समस्त द्वंद्व संयुक्त होते हैं, अलग-अलग नहीं होते। अंधेरा और | दूसरा अंग है। 351 Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-3 इसलिए कृष्ण बड़ी सरलता से कह पाते हैं कि मैं ही हूं सृजन, मैं अपने को भला कहने की बात तो बड़ी आसान है। अपने को ही प्रलय। सब मुझसे ही पैदा होता और मुझमें ही लीन हो जाता है। महात्मा कहने की बात तो बड़ी आसान है। लेकिन अपने को यहां हमने परमात्मा को अविभाजित, अनडिवाइडेड जाना है। दुरात्मा कहने की हिम्मत बड़ी है। और ध्यान रहे, अगर हम परमात्मा को अविभाजित न जानें, तो कृष्ण कहते हैं, दोनों ही मैं हूं। वह जो तुम्हें अच्छा लगता है, वह हमारे भीतर अविभाजित श्रद्धा होने की कोई संभावना नहीं है। और | भी मैं हूं। वह जो तुम्हें बुरा लगता है, वह भी मैं हूं। दोनों ही मैं हूं। हमने एक बार जगत को दो हिस्सों में तोड़ा कि हमारे भीतर का जिसको यह समग्र स्वीकृति, यह टोटल एक्सेप्टेबिलिटी समझ हृदय भी दो हिस्सों में टूट जाएगा। | में आ जाए, वही कृष्ण के तत्व-दर्शन को ठीक से समझ पाएगा। इसलिए पश्चिम में आज जो मनोवैज्ञानिकों के सामने सबसे | ___ इसलिए कृष्ण के साथ बहुत अन्याय भी हुआ है। क्योंकि कृष्ण बड़ी बीमारी है, वह है, स्प्लिट पर्सनैलिटी, व्यक्तित्व का टूटा हुआ का व्यक्तित्व समाहित, समग्र को इकट्ठा लिए हुए है। तो किसी को होना, विखंडित होना। लेकिन पश्चिम के मनोवैज्ञानिक को भी कोई शक होता है कि कृष्ण दोनों काम कैसे कर पाते हैं। इनकंसिस्टेंट खयाल नहीं है कि मनुष्य का मन दो में क्यों टूट गया। और यह | मालूम पड़ते हैं, असंगत मालूम पड़ते हैं। एक तरफ परमात्मा की पश्चिम में ही विखंडित, स्लिट पर्सनैलिटी क्यों पैदा हुई? उसका | बात करते हैं, दूसरी तरफ युद्ध में उतार देते हैं। परमात्मवादी को तो कारण उसके खयाल में नहीं है। पैसिफिस्ट होना चाहिए, उसको तो शांतिवादी होना चाहिए। उसका कारण है कि निष्ठा जब दो में टूट जाए, और निष्ठा जब | अशांति तो दुष्टों का काम है, युद्ध तो दुष्टों का काम है! ' विभाजित हो, तो भीतर हृदय भी दो में टूट जाता है और विभाजित __ कृष्ण कैसे आदमी हैं! एक तरफ परमात्मा की बात, और दूसरी हो जाता है। जब निष्ठा एक में हो और अविभाज्य हो. तो निष्ठावान तरफ अर्जन को यद्ध में जाने की प्रेरणा। ये दनिया के जितने हृदय भी अविभाजित हो जाता है और एक हो जाता है। एक | शांतिवादी हैं, उनको बड़ी बेचैनी होगी। वे तो कहेंगे, कृष्ण जो हैं, परमात्मा, तो भीतर एक आत्मा का जन्म होता है। और अगर दो | ठीक आदमी नहीं हैं। कृष्ण को तो मौका चूकना नहीं था। अर्जुन शक्तियां हमने स्वीकार की, तो भीतर भी चित्त डांवाडोल, और दो | भाग रहा था, शांतिवादी बन रहा था। फौरन रास्ता बनाना था कि में टूट जाता है। और आज तो हालत ऐसी है कि स्वीकृत हो गया | भाग जा। आगे-आगे दौड़ना था। लोगों से कहना था, हटो! अर्जुन है पश्चिम में कि हर आदमी खंड-खंड होगा। को निकल जाने दो, यह शांतिवादी हो गया है। एक आदमी तो एक मनोवैज्ञानिक के पास गया और उसने कहा | कृष्ण बेबूझ हैं। क्योंकि कृष्ण कहते हैं, दोनों ही मैं हूं, युद्ध भी कि कोई तरकीब करो कि मेरी पर्सनैलिटी को स्लिट कर दो, मेरे | मैं और शांति भी मैं। दोनों ही मैं हूं, अंधेरा भी मैं, प्रकाश भी मैं। व्यक्तित्व को दो हिस्सों में तोड़ दो। मनोवैज्ञानिक हैरान हुआ। और जब दोनों की तरह तू मुझे देख पाएगा, तभी तू मुझे देख उसने कहा, तुम पागल तो नहीं हो? क्योंकि हमारे पास तो जो लोग | पाएगा। अगर तू बांटकर देखेगा, आधे को देखेगा, चुनकर देखेगा, आते हैं, वे इसलिए आते हैं कि हम उनके व्यक्तित्व को इकट्ठा कैसे तो तू मुझे कभी नहीं देख पाएगा। कर दें! तुम्हारा दिमाग ठीक तो है न! तुम यह क्या कह रहे हो कि परमात्मा में चुनाव नहीं किया जा सकता। यू कैन नाट चूज। तुम्हारे व्यक्तित्व को दो हिस्सों में तोड़ दें! तुम्हारा प्रयोजन क्या है? | और अगर आपने चुनाव किया, तो वह परमात्मा आपके घर का उस आदमी ने कहा, मैं बहुत अकेलापन अनुभव करता हूं। दो | होममेड परमात्मा होगा, घर का बनाया हुआ। वह परमात्मा असली हो जाऊंगा, तो कम से कम कोई साथ तो होगा! आई फील टू मच | नहीं होगा। लोनली, बहुत अकेला लगता हूं। तो मुझे दो हिस्सों में तोड़ दो। तो परमात्मा तो जैसा है, उसके लिए वैसे ही होने के लिए राजी होना कम से कम मेरा एक हिस्सा तो मेरे साथ हो सकेगा! | पड़ेगा। अगर वह प्रलय है तो सही। अगर वह मृत्यु है तो सही। पश्चिम में दोनों घटनाएं घटी हैं। आदमी बिलकुल अकेला है, | राजी हैं। अगर आपने कहा कि नहीं, हम तो जरा परमात्मा के चेहरे और टूट गया है। और इस टूटने की जड़ उस विचार में है, जिसमें | पर रंग-रोगन करेंगे। हम तो जरा शक्ल को संदर बनाएंगे। मेकअप हमने जगत को ही दो हिस्सों में तोड़ दिया। में हर्ज भी क्या है ? हम थोड़ा इसकी शक्ल को ठीक कर लें। अगर कृष्ण कहते हैं, दोनों ही मैं हूं। बुरा भी मैं हूं, भला भी मैं हूं। | आपने ऐसा किया, तो जो आपके हाथ में लगेगा, वह आपके हाथ 352 Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + अदृश्य की खोज > का बनाया हुआ परमात्मा होगा। उससे परमात्मा का कोई भी संबंध और यहां से वृक्ष शुरू होता है। कोई डिसकंटिन्यूटी नहीं है। दोनों नहीं है। के बीच सातत्य कहीं भी नहीं टूटता। कहां जड़ें समाप्त होती हैं और धार्मिक आदमी दुस्साहसी है। दुस्साहस उसका यह है कि जैसा कहां वृक्ष शुरू होता है? है, ऐज इट इज़, वह उसे स्वीकार करता है। वह कहता है, यह भी ___ अगर कोई जोर से आपको पकड़ ले, तो आप मुश्किल में पड़ तेरा और यह भी तेरा। जन्म भी तेरा और मृत्यु भी तेरी। दोनों के जाएंगे। ऐसे आप जानते हैं कि जड़ें अलग और वृक्ष अलग। वृक्ष लिए मैं राजी हूं। ऊपर और जडें भीतर। लेकिन अगर कोई जिद करे और कहे कि इसलिए कृष्ण अर्जुन को कहते हैं, प्रलय भी मैं, सृजन भी मैं। ठीक-ठीक बताइए, कहां से होती है जड़ शुरू ? और कहां से होता दोनों ही मैं हूं। है वक्ष शरू? तो आप बहत मश्किल में पड़ जाएंगे। ऐसी कोई विरोधों को आत्मसात करने की यह घोषणा वेदांत का सार है। | जगह आप न खोज पाएंगे। वृक्ष और जड़ एक है। अविरोध पैदा होता है फिर। और जब जीवन की दृष्टि अविरोध की लेकिन जिस आदमी ने सिर्फ वृक्ष देखा और जड़ें नहीं देखीं, होती है, तो आपके भीतर अविरोधी हृदय का जन्म होता है। जो उससे कहना पड़ेगा कि यह जो तुझे दिखाई पड़ रहा है, यह आपके परमात्मा का रूप होगा, वही आपके हृदय का रूप बन ऊपर-ऊपर है। एक और भी है जो नीचे है, जो सबको सम्हाले हुए जाएगा। आपका हृदय ढलता है उसी रूप में, जिस रूप में आप है, वह जड़ है। परमात्मा को स्वीकार करते हैं। तोड़कर नहीं, जोड़कर, इकट्ठा, | न दिखाई पड़ने वाले आदमी से कहना पड़ता है कि जो तुझे सबको लिए हुए। | दिखाई पड़ रहा है, वह अपरा है, वह नीचे का जगत है, स्थूल जगत और जब सुबह आपके पैर में कांटा गड़े, तो यह मत सोचना कि | | है, इंद्रियों का जगत है। और एक जगत है परा का, जो तुझे दिखाई शैतान ने गड़ाया। तब उसको भी सोचना कि परमात्मा ने गड़ाया; नहीं पड़ रहा है। हम तुझे उस तरफ ले चलते हैं। लेकिन जिस दिन और परमात्मा ने आपको इस योग्य समझा कि कांटा गड़ाया, उसके | दिखाई पड़ेगा, उस दिन दोनों जगत एक हो जाएंगे। उस दिन दोनों लिए भी धन्यवाद दे देना। | के बीच एक सातत्य। और जिस दिन फूल के लिए ही नहीं, कांटे के लिए भी परमात्मा | फिर जो फर्क है, वह ऐसा ही है जैसे वृक्ष के ऊपर होने का और को कोई धन्यवाद दे पाता है, उस दिन उसे मंदिरों में जाने की | जड़ों के नीचे होने का है। फिर भी फर्क तो है। फर्क तो है। अगर जरूरत नहीं रह जाती। वह जहां है, वहीं मंदिर आ जाता है। जड़ें उखाड़कर फेंक दें, तो वृक्ष न बचेगा। वृक्ष उखाड़कर फेंक दें, तो जड़ें बचेंगी, और जड़ों से फिर वृक्ष पैदा हो जाएगा। | फर्क नहीं है सातत्य में, लेकिन फर्क मल शक्ति में है। जडे प्रश्नः भगवान श्री, एक छोटा-सा प्रश्न है। यदि सत्य | ज्यादा शक्तिशाली हैं; उनके पास जीवन की केंद्रीय ऊर्जा है। वृक्ष अद्वैत है, तो अपरा और परा को भिन्न कहने का क्या केवल फैलाव है। अगर ठीक से समझें, तो जड़ें एसेंशियल हैं, और अर्थ है? और क्या अपरा और परा आपस में वृक्ष नान-एसेंशियल है। क्योंकि जड़ों का होना वृक्ष के बिना भी परिवर्तनशील हैं? हो सकता है, लेकिन वृक्ष का होना जड़ों के बिना नहीं हो सकता। फिर भी दोनों एक हैं। वह जो आखिरी पत्ता है वृक्ष का, वह भी जड़ का ही फैला हुआ हाथ है। वह भी जड़ ही है फैल गई आकाश तक। सत्य एक है, लेकिन जिन्हें पूरा सत्य दिखाई पड़ता है | । नहीं जानते हैं जो, अज्ञान में हैं जो, जिन्हें परमात्मा की समग्रता रा उन्हें। जिन्हें नहीं दिखाई पड़ता, उनके लिए एक नहीं का कोई भी पता नहीं, कृष्ण उनके लिए विभाजन कर रहे हैं। सब है। उन्हें जो दिखाई पड़ता है, अंधों को जो दिखाई विभाजन बच्चों के लिए किए जाते हैं। सत्य तो अविभाज्य है। पड़ता है, उसका नाम, अपरा। हम जो नहीं जानते, हमें जो दिखाई लेकिन अविभाज्य सत्य की कोई शिक्षा नहीं दी जा सकती। शिक्षा पड़ता है, आधा-आधा। वृक्ष और जड़ तो एक हैं। आप कहीं वह देने के लिए विभाजन करना पड़ता है। कहीं से तो शुरू करना रेखा न खींच पाएंगे, जहां आप कहें कि यहां से जड़ शुरू होती है, पड़ेगा, वन हैज टु बिगिन समव्हेअर। और जहां से भी शुरू करेगा, 353 Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < गीता दर्शन भाग-3 - वहीं से विभाजन करना पड़ेगा। उपाय भी नहीं है। वह समझौता करेगा किस बात के लिए! अज्ञानी कहां से शुरू करें? तो ऊपर से ही शुरू करना उचित है, क्योंकि | तो डटकर अपने अज्ञान में खड़ा रहता है। वह तो कहता है, यही अर्जुन को पता है ऊपर का। वह समझेगा कि पृथ्वी क्या है, वह ठीक है। समझौता करना पड़ता है ज्ञानी को। वह नीचे उतरता है; समझेगा कि जल क्या है, वह समझेगा कि अग्नि क्या है। फिर अज्ञानी की जगह आता है। उसका हाथ पकड़ता है। यात्रा पर धीरे-धीरे उसकी समझ बढ़ेगी। जैसे-जैसे समझ बढ़ेगी, भीतर की | निकलता है। हाथ पकड़ता है, तो अज्ञानी की भाषा का उसे उपयोग बात कृष्ण उससे कहेंगे। कहेंगे, बुद्धि क्या है, विचार क्या है, मन | करना पड़ता है। क्या है। कहेंगे, अहंकार क्या है। और जब उसे अहंकार की सूझ सब विभाजन अज्ञानी की भाषा है। ज्ञानी की भाषा में तो कोई खयाल में आ जाएगी, तब कहेंगे, इसके पार, बियांड दिस, परा | | विभाजन नहीं है, अद्वय है, एक है। लेकिन उस एक को कहने का का लोक है। इसके पार मैं हूं, इसके पार भागवत चैतन्य है। कोई उपाय नहीं; मौन रह जाना ही काफी है। लेकिन उस मैं तक लाने के लिए यह मिट्टी-पदार्थ से लेकर, अगर कृष्ण ज्ञानी की भाषा का उपयोग करते, तो चुप रह जाते। पृथ्वी से लेकर आठ तत्वों की यात्रा कृष्ण को करवानी पड़ेगी। और | फिर गीता पैदा नहीं होती। तो अर्जुन की बुद्धि से चल रहे हैं। भलीभांति जानते हुए कि सब जुड़ा है, सब इकट्ठा है। | इसलिए बहुत स्थूल से शुरू किया, पृथ्वी; स्थूलतम। फिर सूक्ष्म सब इकट्ठा है। कहीं कुछ टूट नहीं गया है। सब संयुक्त है। | के पास आए, अहंकार। निम्नतम, बाह्यतम वस्तु भी अंतरतम से जुड़ी है। निम्नतम श्रेष्ठतम | | और अर्जुन का अहंकार भारी रहा होगा। क्षत्रिय था। क्षत्रिय तो का ही नीचे का फैलाव है। सब संयक्त है। अस्तित्व संयक्त है। जीता ही अहंकार पर है। उसकी तो सारी चमक और रौनक अहंकार लेकिन जिन्हें कुछ भी पता नहीं है, उनसे करनी है बात। और जिन्हें की है। उसकी तो सारी धार अहंकार की है। अगर एकदम से कह पता है, उनसे बात करने का कोई अर्थ नहीं है। | देते कि अहंकार, तो शायद वह नाराज ही होता, समझ न पाता। तो एक बात ध्यान में रख लेंगे और वह यह कि दो ज्ञानी अगर एकदम से कह देते कि यह अहंकार सब प्रकृति है; कुछ भी नहीं, मिलें, तो बातचीत का कोई उपाय नहीं है। दो अज्ञानी मिलें, तो | सब बेकार है। तो अर्जुन और कृष्ण के बीच संवाद की संभावना बातचीत बहुत होगी, हो बिलकुल न पाएगी। दो ज्ञानी मिलें, टूटती, और कुछ न होता। क्रमशः! । बातचीत बिलकुल न होगी, फिर भी हो जाएगी। दो अज्ञानी मिलें, । और अहंकार तलाश में रहता है इस बात की कि मुझे चोट पहुंचा बातचीत बहुत चलेगी, भारी चलेगी, हो न पाएगी बिलकुल। फिर | दो। खोज में रहता है। बहुत सेंसिटिव है। छुई-मुई। जरा-सा इशारा बातचीत कहां हो पाती है? लगा दो, जरा-सा, जरा तिरछी आंख से देख दो, तो वह दिक्कत एक ज्ञानी और एक अज्ञानी के बीच बातचीत हो पाती है। | में पड़ जाता है। और दिक्कत में इसलिए पड़ जाता है कि उसके लेकिन समझौते करने पड़ते हैं, कंप्रोमाइज करनी पड़ती है। ज्ञानी | | पास वस्तुतः कोई आधार तो हैं नहीं, हवाई किला है। ताश का घर को ही करनी पड़ती है, क्योंकि अज्ञानी तो क्या करेगा, अज्ञानी है। जरा-सी फूंक, और सब गिर जाएगा। कैसे करेगा? ज्ञानी को ही करनी पड़ती है। उसे ही अज्ञानी की सुना है मैंने, एक फकीर ठहरा था एक महानगरी के बाहर। भाषा में बोलना शुरू करना पड़ता है। इस आशा में कि धीरे-धीरे, | अमावस की रात। महानगरी में विद्युत के दीए पूरे नगर में जल रहे क्रमशः, एक-एक कदम वह राजी कर लेगा, और उस जगत तक | थे, जैसे दीवाली हो। फकीर लेटा था अंधेरे में एक वृक्ष के तले। ले जाएगा, जहां शब्द के बिना कहने की संभावना है। उस परा | एक जुगनू उड़ती हुई आकर फकीर के पास बैठ गई। बैठकर उसने तक इशारा कर पाएगा। पंख बंद कर लिए। उसकी चमकती हुई रोशनी बंद हो गई। तभी इसलिए सारी चर्चा, जब भी होती है—चाहे कृष्ण और अर्जुन | अचानक बिजली के कारखाने में कुछ गड़बड़ हुई होगी, और सारे के बीच, और चाहे बुद्ध और आनंद के बीच, और चाहे महावीर नगर की बिजली चली गई। और गौतम के बीच, और चाहे जीसस और ल्यूक के बीच–सारी उस जुगनू ने फकीर से कहा, एक्सक्यूज मी फार मेंशनिंगचर्चा एक ज्ञानी और एक अज्ञानी के बीच है। कहने के लिए क्षमा करें। बट डू यू सी इन व्हाट शेप दिस ग्रेट सिटी और ध्यान रहे, अज्ञानी बिलकुल समझौता नहीं करता। कोई विल बी, इफ आई एम गान समव्हेयर एल्स-अगर मैं कहीं और 354 Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < अदृश्य की खोज > चली जाऊं, तो इस बड़े नगर का क्या होगा, देखते हैं। कहने के | रस बहुत अदभुत शब्द है, और बहुत सूक्ष्म और बहुत अदृश्य। लिए क्षमा करें। क्योंकि जुगनू ने सोचा कि चूंकि मैंने पंख बंद किए दिखाई जो पड़ता है—कोई पेय आप पीते हैं, अमृत भी पीएं-तो और मेरी चमक बंद हुई, सारा नगर अंधकार में डूब गया! जो दिखाई पड़ता है, जब आप पीते हैं, तो जो अनुभव में आता है, फकीर मन ही मन में हंसा; ऊपर नहीं, क्योंकि ऊपर हंसे, तो | क्या वह वही है, जो दिखाई पड़ता था? जब पीते हैं, तो जो अनुभव जुगनू से फिर बातचीत नहीं हो सकती। उसने कहा कि तेरी सूचना | में आता है, वह तो दिखाई बिलकुल न पड़ता था। जो दिखाई पड़ता के लिए धन्यवाद। मैं तो सदा से ही ऐसा जानता था। तेरी बड़ी कृपा था, वह तो कुछ और दिखाई पड़ता था। और जो फिर अनुभव में है कि तू इस नगर को छोड़कर नहीं जाती। नगर की तो बात दूर, | आता है पीने पर, वह कुछ और ही है। वह जो अनुभव में आता है अगर तू इस विश्व को छोड़कर चली जाए, तो आकाश में जो तारे | पीने पर, वह है रस। वह रस आंतरिक अनुभूति है। टिमटिमा रहे हैं, ये भी एकदम बंद हो जाएं। ये भी एकदम बंद हो | ऐसा ही नहीं; जहां भी...। आपका प्रेमी आपके पास है, आप जाएं और बुझ जाएं। जुगनू पास सरक आई और उसने कहा, | | हाथ में हाथ लेकर बैठ गए हैं। हाथ तो प्रेमी का हाथ में है, लेकिन आदमी तुम काम के मालूम पड़ते हो। कुछ और बातें करें। | भीतर जो एक स्वाद उत्पन्न होता है प्रियजन के पास होने का, वह कहते हैं, सुबह तक जुगनू फकीर हो गई। मगर फकीर को जुगनू | रस है। वह अगर हम वैज्ञानिक के पास दोनों के हाथ लेबोरेटरी में होने से शुरू करना पड़ा। रातभर चली बात; सुबह तक जुगनू पहुंचा दें और कहें कि काट-पीटकर पता लगाओ कि इनको कैसा फकीर हो गई। रस उपलब्ध हुआ! क्योंकि ये दोनों कह रहे थे कि जन्म-जन्म तक ऐसा ही होने वाला है इस कथा में भी। यह अर्जुन बेचारा बचेगा हम ऐसे ही हाथ में हाथ लिए बैठे रहें, कि चांद-तारे बुझ जाएं और नहीं। यह कृष्ण हो जाने वाला है। लेकिन अभी लंबी है दूरी। अभी हमारे हाथ अलग न हों! ये कुछ ऐसी बातें सुनी हैं इनकी हमने। वह सुबह है दूर। अभी तो जुगनू की भाषा में कृष्ण को बोलना है। जरा कृपा करके इन दोनों के हाथ का पता तो लगाओ खोजबीन कर उसके सिवाय कोई उपाय नहीं है। कि इसमें रस कहां है? खून मिलेगा बहता हुआ। पानी मिलेगा बहता हुआ। हड्डी, मांस, मज्जा, सब मिल जाएगी। रस नहीं मिलेगा। रस अदृश्य है। रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः । उन्हें जरूर मिल रहा था। उन्हें जरूर मिल रहा था। भ्रांत हो. सपना प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नूषु ।। ८।। हो, उन्हें जरूर मिल रहा था। प्रत्येक वस्तु के भीतर जो आंतरिक 'पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ। अनुभव में उतरता है स्वाद, उसका नाम रस है। जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ।। ९ ।। तो कृष्ण कहते हैं, समस्त जलीय द्रव्यों में, समस्त पेय पदार्थों हे अर्जुन, जल में मैं रस हूं; चंद्रमा और सूर्य में प्रकाश हूं में, वह जो तुम पीते हो, वह मैं नहीं हूं; वह जो तुम पीकर अनुभव संपूर्ण वेदों में ओंकार हूं तथा आकाश में शब्द और पुरुषों करते हो, वह मैं हूं। रस हूं मैं। में पुरुषत्व हूं। तथा पृथ्वी में पवित्र गंध और अग्नि में तेज ___ रस अदृश्य है। सभी रस अदृश्य हैं। फूल है खिला गुलाब का। हूं, और संपूर्ण भूतों में उनका जीवन हूं अर्थात जिससे वे गए आप उसके पास। कहा, बहुत सुंदर है। लेकिन कोई पकड़ ले जीते हैं, वह मैं हूं, और तपस्वियों में तप हूं। आपको, मिल जाए कोई तार्किक, और पूछे, कहां है सौंदर्य ? जरा मुझे भी दिखाओ। तो आप पड़ेंगे कठिनाई में। कितना ही बताएंगे, | नहीं बता पाएंगे। और जितना बताएंगे, उतना ही पाएंगे कि बताने में 7 स अदृश्य की ओर इशारा कृष्ण ने शुरू किया। दृश्य असमर्थ हैं। और आप हारेंगे। आपकी हार निश्चित है। वह तार्किक को बताया, और कहा, उस दृश्य में मैं कौन हूं। इशारा जीतेगा। उसकी जीत निश्चित है। क्योंकि उसने दृश्य को पकड़ा, किया दृश्य की तरफ, और फिर भी इशारा किया और आपने अदृश्य की घोषणा की है, जिसको आप न बता पाएंगे। अदृश्य की तरफ। कहा, जल में मैं रस। सौंदर्य बताया नहीं जा सकता। असल में फूल में नहीं है सौंदर्य, जल में रस! रस को थोड़ा समझना पड़े। फूल के अनुभव में आपके भीतर जो बोध पैदा होता है, उस रस में 1355 Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < गीता दर्शन भाग-3 - है। इसलिए फूल को तोड़कर अगर आप पता लगाने चलेंगे, तो | लेकिन कृष्ण जैसे लोग तो बहुत टेलीग्रैफिक होते हैं। अगर एक भी हां, केमिकल्स मिलेंगे, रस न मिलेगा। रासायनिक मिल जाएंगी। शब्द जरूरी न होता, तो वे उपयोग करते न। लेकिन इससे बड़ी वस्तुएं, रस न मिलेगा। रंग मिल जाएंगे; सब कुछ मिल जाएगा। उलझन खड़ी हो गई है। फूल की पूरी एनालिसिस हो जाएगी, पूरा विश्लेषण। और। कहा, पवित्र सुगंध, तो इसका यह अर्थ हुआ कि अपवित्र सुगंध वैज्ञानिक एक-एक शीशी में अलग निकालकर रख देगा कि भी होती है। और कहा, पवित्र सुगंध, तो इसका अर्थ हुआ कि यह-यह, लेबल लगाकर। लेकिन कोई ऐसी शीशी न होगी, जिसमें पवित्र दुर्गंध, अपवित्र दुर्गंध, इनकी संभावना है क्या? . वह एक लेबल लगाए कि यह रहा सौंदर्य। सौंदर्य के लेबल वाली इनकी संभावना है। इसलिए जानकर लगाया, पवित्र सुगंध। शीशी खाली रह जाएगी। वह कहेगा, कोई सौंदर्य नहीं है। सभी सुगंधे पवित्र नहीं होतीं। उस सुगंध को पवित्र कहा है कृष्ण असल में फूल में कोई सौंदर्य नहीं था। सौंदर्य तो आपको जो । | ने, जिसकी भनक पड़ते ही जीवन की ऊर्जा ऊपर की तरफ प्रवाहित रस उपलब्ध हुआ फूल को देखकर, उसमें आया। वह आपका होती है। आंतरिक रस है। लेकिन मजे की बात है, फूल को भी तोड़कर देख ऐसी सुगंधे भी हैं, जिनकी भनक पड़ते ही जीवन की ऊर्जा नीचे लो, तो भी रस न मिलेगा; आपको तोड़कर देख लें, तो भी रस न | की तरफ प्रवाहित होती है। जगत के कोने-कोने में अनुभवी मिलेगा। फिर रस कहां था? वह अदृश्य है। वह धागे की तरह वेश्याओं से पूछे आप। या पेरिस के बाजार में, जहां दुनियाभर की भीतर मनकों के छिपा है। मनके पकड़ में आ जाएंगे और धागे का अपवित्र सुगंधे पैदा की जाती हैं, परफ्यूम। और सब तरह की आपको कोई पता न चलेगा। | जांच-परख की जाती है कि कौन-सी परफ्यम आदमी में इसलिए कृष्ण कहते हैं, पेय पदार्थों में मैं रस, जल में मैं रस। सेक्सुअलिटी ज्यादा पैदा करेगी। सुगंध है वह। लेकिन आपके लेकिन उदाहरण लेते हैं जल का। वह अर्जुन को समझ में आएगा, भीतर कामवासना को जगाने में कौन-सी सुगंध काम करेगी, उसके और रस की तरफ इशारा हो सकेगा। एक्सपर्ट हैं, उसके विशेषज्ञ हैं। वे खबर लाते हैं कि कौन-सी जीवन में जो भी हमारे गहरे अनुभव हैं, रस के अनुभव हैं। चाहे सुगंध वेश्या के द्वार पर हो, तो ग्राहक के आने में सुविधा बनेगी। हो सौंदर्य, चाहे हो प्रेम, चाहे हो संगीत, जो भी हमारे अनुभव हैं, कौन-सी सुगंध स्त्री के कपड़ों पर हो, तो स्त्री गौण हो जाएगी और वे रस के अनुभव हैं। अनुभव रस रूप है। या ऐसा कहें कि समस्त पुरुष का मन सुगंध की वजह से आंदोलित होगा। अनुभवों का जो निचोड़ है, उसे हमने रस कहा है। अपवित्र सुगंधे हैं। जो सुगंध जीवन ऊर्जा को नीचे की ओर ले रस की धारणा भारत में अनूठी है। रस की धारणा ही अनूठी है। जाती है, कामवासनाओं के मार्गों की ओर ले जाती है, वह दुनिया में कोई भी रस के करीब इतना नहीं पहुंचा। सौंदर्य की उन्होंने | अपवित्र है। व्याख्याएं कीं; लेकिन उनकी व्याख्याएं बड़ी ऊपरी हैं। पश्चिम ने फिर पवित्र सुगंध कौन-सी है? अभी तक किसी बाजार में तो सौंदर्य का बड़ा शास्त्र, एस्थेटिक्स पैदा किया। लेकिन उनकी | कहीं पैदा होती दिखाई नहीं पड़ती। कभी-कभी पवित्र सुगंध की सौंदर्य की परिभाषा बड़ी ऊपरी है। घटना घटती है, वह मैं आपसे कहूं, तब आपको यह सूत्र समझ में सौंदर्य रस है। प्रेम रस है। आनंद रस है। और उपनिषद ने तो आएगा। अन्यथा यह समझ में नहीं आएगा। और गीता पर हजारों घोषणा की कि ब्रह्म रस है। ब्रह्म रस है! टीकाएं लोगों ने लिखी हैं। लेकिन पवित्र सुगंध के बाबत कुछ वह कृष्ण वही घोषणा कर रहे हैं। जलों में मैं रस! फिर वे ध्यान नहीं दिया है। कभी आती है वह। एक-एक उदाहरण लेते चलते हैं। कहते हैं, पृथ्वी में मैं गंध, महावीर के संबंध में कहा जाता है कि महावीर जहां खड़े हो जाएं, पवित्र गंध। वहां एक सुगंध व्याप्त हो जाएगी। चलेंगे तो, उठेंगे तो, चारों तरफ यह भी थोडा कठिन होगा। रस से कम कठिन नहीं होगा। | की हवाओं में एक सुगंध चलेगी। महावीर का शरीर भी पृथ्वी का ही क्योंकि पवित्र कृष्ण न लगाते तो आसानी पड़ जाती। लेकिन गंध | बना हुआ है, जैसा हमारा बना हुआ है। महावीर के शरीर से जो में पवित्र लगाने का क्या प्रयोजन? सुगंध काफी न था कहना? | सुगंध उठती है, उस सुगंध का नाम है-पृथ्वी में मैं सुगंध हूं। कहते हैं, पृथ्वी में पवित्र सुगंध। सुगंध काफी मालूम पड़ता है। जरूरी नहीं है कि महावीर आपके पास से निकलें, तो आपको 356] Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अदृश्य की खोज > सुगंध का पता चले। क्योंकि जो दुर्गंध के आदी हैं, उन्हें सुगंध का | | बात के लिए राजी होने में बहुत देर नहीं है कि ध्यान की गहराइयों पता चलना मुश्किल होता है। और जो अपवित्र सुगंध के आदी हैं, | | में शरीर से एक तरह की सुगंध निकलती है। क्योंकि तब ऊर्जा उनके पास से पवित्र सुगंध गुजर जाएगी, स्पर्श भी न होगा। क्योंकि | | ऊपर की तरफ जाती है और शरीर की दूसरी ग्रंथियां काम करती हैं, खुले द्वार भी चाहिए। लेकिन जिनके द्वार खुले हैं, और जिनका जो बिलकुल ही कामवासना से दूसरे छोर पर हैं। हृदय संवेदनशील है, वे महावीर की सुगंध को पकड़ पाएंगे। । तो महावीर जैसे व्यक्ति का जब पूरा जीवन का फूल खिलता है तो महावीर जैसे शरीर से जब सुगंध उठती है, उस सुगंध का | | ध्यान का, तो आस-पास एक सुगंध फैलनी शुरू हो जाती है। नाम है, पृथ्वी में पवित्र सुगंध। मैं पृथ्वी में पवित्र सुगंध हूं अर्जुन। | यद्यपि उन्हीं को पता चलेगा, जो सौभाग्यशाली हैं। कभी आपने खयाल किया कि पृथ्वी में दुर्गंध-सुगंध सबकी अगर आपको महावीर के शरीर से सुगंध का पता चले, तो अनंत संभावना है। एक ही बगीचा है आपके घर में छोटा-सा। एक किसी और को मत बताना, नहीं तो वह कहेगा कि हमें नहीं पता छोटा-सा किचन गार्डन है। उसमें आप नीम का झाड़ लगा देते हैं। चलता। गलत कहते हो। किसी भ्रम में पड़ गए हो। कोई इलूजन और हवाओं में चारों तरफ कड़वाहट फैलनी शुरू हो जाती है। वह में आ गए हो। धोखा खा गए हो। . नीम उस जमीन से ही रस लेती है। उसी के बगल में आप गुलाब लेकिन एकाध आदमी को ही पता चलता हो, ऐसा नहीं है। का एक पौधा लगा देते हैं। वह गुलाब का पौधा भी उसी जमीन से महावीर के पास लाखों लोगों को पता चलता है। महावीर के निकट रस लेता है। लेकिन गुलाब के फूल में सुगंध कोई और, और नीम जो लोग रहते थे, वे कहते थे कि हम अगर दूर भी हों, अंधेरे में भी के पत्तों में और नीम की बौरियों में सगंध कछ और। बात क्या है? बैठे हों. और महावीर एक विशेष सीमा के भीतर आ जाएं, तो हम जमीन एक, सूरज एक, हवाएं एक, मालिक बगीचे का एक, कह सकते हैं कि वे सीमा के भीतर आ गए। उनकी सुगंध उनके माली एक, पानी एक, पृथ्वी एक। गुलाब का बीज कुछ और चुनाव | पहले ही चली आती है। सैकड़ों बार लोगों ने प्रयोग करके देखे। करता है। नीम का बीज कुछ और चुनाव करता है। नीम का बीज । जब कृष्ण कहते हैं, पृथ्वी में मैं पवित्र सुगंध, तो सिर्फ सुगंध नहीं उसी पृथ्वी में से कड़वाहट को इकट्ठा कर लेता है। गुलाब का बीज | | कहते, नहीं तो गुलाब के फूल की सुगंध काम कर जाती। पवित्र उसी पृथ्वी में से कुछ और इकट्ठा करता है। सुगंध फूल में पैदा नहीं होती। पवित्र सुगंध तो मनुष्य नाम के फूल शरीर हमारा भी वही, महावीर का भी वही, कृष्ण का भी वही, में पैदा होती है कभी-कभी। वही हूँ मैं अर्जुन। बहुत रेयर फिनामिनन क्राइस्ट का भी वही। लेकिन जरूरी नहीं है कि हम सबके शरीर से | है। मुश्किल से कभी घटता है। लेकिन घटता है। और एक शरीर में जो गंध निकले, वह एक हो। घट सकता है, तो सब शरीर में घटने की खबर लाता है। इस संबंध में और भी कुछ बातें आपसे कहूं। जिन लोगों ने | तो कहते हैं, पृथ्वी में मैं पवित्र सुगंध। चंद्र-ताराओं में, सूरज कामवासना के संबंध में गहरी खोजबीन की है, वे कहते हैं कि जब में, ग्रहों में—आभा, प्रकाश। संभोग के क्षण में स्त्री-पुरुष अति आकुल हो जाते हैं, तो दोनों के इसे भी थोड़ा खयाल में ले लें। क्योंकि आप कहेंगे, प्रकाश तो शरीर से विशेष दुर्गंध निकलनी शुरू हो जाती है। आपके अनुभव बड़ी दृश्य बात है। में भी आती है। तीव्र कामवासना के क्षण में शरीर से दुर्गध निकलनी | नहीं। प्रकाश बहुत अदृश्य घटना है। आप कहेंगे, सरासर कैसी शुरू हो जाती है। बात मैं कह रहा हूं! आपने देखा है प्रकाश। अभी देख रहे हैं। सुबह क्या हुआ? शरीर वही है। लेकिन कामवासना में आप और नीचे सूरज निकलता है, आप प्रकाश देखते हैं। आपसे प्रार्थना करता हूं, उतरे, नीम की तरफ गए। आपके शरीर का चुनाव बदल गया। पुनर्विचार करना। आपने प्रकाश अभी तक नहीं देखा है; केवल उसकी अलग ग्रंथियां काम करने लगी, और आपके शरीर से दुर्गंध प्रकाशित चीजें देखी हैं। प्रकाश आपने कभी नहीं देखा। प्रकाश को फैलने लगी। देखना असंभव है। प्रकाश अदृश्य चीज है। अगर कामवासना में शरीर से दुर्गंध निकल सकती है—इसके | । जब आप कहते हैं, प्रकाश है, तो उसका कुल मतलब इतना लिए फिजियोलाजिस्ट राजी हैं। इसके लिए शरीरशास्त्री सहमत हो| होता है कि नहीं होता। गए हैं कि कामवासना में शरीर से दुर्गंध निकलती है तो दूसरी और जब चीजें नहीं दिखाई पड़तीं, आप कहते हैं, अंधेरा है। 357 Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-3> आपको बल्ब दिखाई पड़ रहा है। बल्ब एक चीज है। मैं दिखाई पड़ कि एक टांग पर खड़ा है; कि कांटे बिछाए है; कि शरीर को सता रहा हूं। यह टेबल, कुर्सी, तख्त दिखाई पड़ रहा है; ये सब चीजें रहा है, धूप में खड़ा है; कि पानी में गला रहा है शरीर को। तपस्वी हैं। आपको प्रकाश नहीं दिखाई पड़ रहा है; केवल प्रकाशित चीजें दिखाई पड़ जाता है। लेकिन कृष्ण कहते हैं, मैं तपस्वी नहीं हूं; दिखाई पड़ रही हैं। प्रकाश जिनके ऊपर आकर लौट रहा है, वे | तपस्वियों में तेज! लोग दिखाई पड़ रहे हैं। प्रकाश आपको दिखाई नहीं पड़ रहा है। यह तेज क्या है? आमतौर से हम सबने अपनी-अपनी घरेलू प्रकाश आज तक किसी मनुष्य को साधारणतः दिखाई नहीं पड़ा है, व्याख्याएं कर रखी हैं। तेज से हम क्या मतलब समझते हैं? हम जिस तरह हम सोचते हैं। प्रकाश अदृश्य चीज है। समझते हैं कि चेहरे पर कुछ रौनक दिखाई पड़े, तो तेज हो गया। तो कृष्ण कहते हैं, सूर्यो, ताराओं, चंद्रों में मैं प्रकाश। सूरज | | कि स्वास्थ्य दिखाई पड़े, तो तेज हो गया। कि आदमी शक्तिशाली नहीं, चांद नहीं, तारा नहीं; जो तुम्हें दिखाई पड़ता है, वह नहीं। मैं दिखाई पड़े, तो तेज हो गया। वह प्रकाश हं. जिसके कारण तम्हें दिखाई पडता है. लेकिन जो तम्हें | जो आपको दिखाई पडे, वह तो तेज होगा ही नहीं। क्योंकि कष्ण कभी दिखाई नहीं पड़ता। प्रकाश अदृश्य उपस्थिति है। सिर्फ प्रेजेंस बात कर रहे हैं अदृश्य की। तपस्वियों में तेज! इसकी खोज की . है। कभी दिखाई नहीं पड़ता। विधि है। आप सोचते होंगे, अंधे को नहीं दिखाई पड़ता। मैं कह रहा हूं, | अगर किसी तपस्वी में तेज देखना हो, तो तपस्वी पर ध्यान आंख वालों को भी प्रकाश नहीं दिखाई पड़ता। अंधे और आंख करना पड़ता है। महावीर बैठे हैं आपके सामने, आप भी उनके वालों में फर्क यह नहीं है कि एक को प्रकाश दिखाई पड़ता, और सामने बैठ गए हैं और महावीर को देखें। कि बुद्ध बैठे हैं। देखें, एक को प्रकाश नहीं दिखाई पड़ता। फर्क इतना है, एक को और देखते चले जाएं अपलक। एक ऐसी घड़ी आएगी कि महावीर प्रकाशित चीजें दिखाई पड़ती हैं, एक को प्रकाशित चीजें नहीं खो जाएंगे, सिर्फ तेज-पुंज रह जाएगा। तभी आप समझना। दिखाई पड़तीं। प्रकाश तो दोनों को नहीं दिखाई पड़ता है। | अन्यथा नहीं। महावीर बचेंगे ही नहीं। कोई रूपरेखा न बचेगी। कोई प्रकाश तो उसे दिखाई पड़ता है. जो इन आंखों को छोड़कर शरीर, देह न दिखाई पड़ेगी। आदमी खो जाएगा बिलकुल, सिर्फ भीतर की और भी अंतरतम की आंखें हैं, उनको खोलता है, उसे | तेज-पुंज रह जाएगा, सिर्फ आभा। प्रकाश दिखाई पड़ता है। फिर चांद-तारे नहीं दिखाई पड़ते। यह भी | ___ और ऐसी आभा, जिसमें स्रोत नहीं होता। दीए में आभा होती बड़े मजे की बात है। | है, तो दीए में स्रोत होता है। उसके चारों तरफ आभा होती है, एक जब तक चांद-तारे दिखाई पड़ते हैं, तब तक प्रकाश दिखाई नहीं | सेंटर होता है। तेज अगर महावीर में दिखाई पड़ेगा, तो उसमें कोई पड़ता; और जिस दिन प्रकाश दिखाई पड़ता है, उस दिन चांद-तारे | न दीया होगा, न तेल होगा, न बाती होगी, न कोई स्रोत होगा। सिर्फ दिखाई नहीं पड़ते। उस दिन यह सारा जगत प्रकाश ही रह जाता है। केंद्ररहित परिधि होगी। फिर कोई प्रकाशित वस्त नहीं रह जाती. कोई आब्जेक्ट नहीं रह इसलिए हम महावीर बद्ध.कष्ण और क्राइस्ट और नानक और जाता। सिर्फ प्रकाश का सागर. सिर्फ अनंत प्रकाश। न कोई सर्य कबीर के आस-पास सिर के वह जो गोल घेरा बनाते हैं. वह कोई जिससे निकलता है, न कोई और विषय जिस पर पड़ता है, सिर्फ कैमरे की पकड़ में आने वाली चीज नहीं है। प्रकाश ही प्रकाश रह जाता है। और बड़े मजे की बात है। हम जो भी करते हैं, वह गलत ही इसलिए कृष्ण कहते हैं, चांद-ताराओं में, सूर्यों में अर्जुन, तू करते हैं। असल में हम इतने गलत हैं कि हमसे ठीक कुछ हो नहीं मुझे प्रकाश जान। चांद-तारे तुझे दिखाई पड़ते हैं, मैं तुझे दिखाई | सकता। अगर वह गोल घेरा बनाना हो, तो कृपा करके भीतर नहीं पड़ता। महावीर को खड़ा मत करो, सिर्फ गोल घेरा रहने दो। क्योंकि दोनों तपस्वियों में तेज। घटनाएं एक साथ कभी नहीं घटी। जिनको महावीर दिखाई पड़े, सोचने जैसा है, तपस्वियों में तेज! तपस्वी तो दिखाई पड़ते हैं उनको वह आभा नहीं दिखाई पड़ी। और जिनको आभा दिखाई सभी को। और तपस्वी को देखना बहुत कठिन नहीं है। बड़ी छोटी पड़ी, उनको महावीर दिखाई नहीं पड़े। ये दोनों एक साथ नहीं परीक्षाएं हैं. उससे पता चल जाता है। आदमी उपवास कर रहा है। घटतीं। यह असंभव है। ये कभी घटती ही नहीं। क्योंकि वह आभा 358 Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदृश्य की खोज दिखाई ही तब पड़ती है, जब आकार खो जाता है। हो, वह ठीक; लेकिन अभी तपस्वी नहीं हुए। क्या मापदंड है तो तपस्वियों में मैं तेज! जानने का? तपश्चर्या नहीं उन्होंने कहा। महात्माओं के साथ बड़ी ज्यादती | ___ जानने का एक ही मापदंड है, बुद्ध जैसे आदमी, जैसे ही आंख कर दी। कहना चाहिए था, तपस्वियों में तपश्चर्या। लेकिन कहा, | किसी पर डालते हैं वे, तत्काल दिखाई पड़ता है कि तेज है या नहीं। तपस्वियों में तेज। कितनी ही तपश्चर्या करो, अगर वह अनुभव की | वही तेज, जानने का माध्यम है। और कोई जानने का माध्यम नहीं स्थिति नहीं आती, जहां कि मैं बिलकुल खो जाता है और सिर्फ | है। और कोई मेजरमेंट का उपाय भी नहीं है कि किस आदमी को प्रकाश का पुंज रह जाता है। आपसे मैंने कहा, आप देखो महावीर | ज्ञान उपलब्ध हो गया। को, यह तो आपकी बात है। आप तो कभी देखोगे, बहुत मेहनत बुद्ध कह देते हैं, फलां आदमी को ज्ञान उपलब्ध हो गया; फलां करोगे, तब दिखाई पड़ेगा। आदमी को ज्ञान उपलब्ध हो गया। लोग उनसे आकर पूछते हैं कि लेकिन जहां तक महावीर का संबंध है, जिस दिन से ज्ञान हुआ, | आपने उस आदमी को ज्ञान-उपलब्ध कह दिया! वह तो अभी छ: कोई चालीस साल की उम्र में, उसके बाद वे चालीस साल और दिन पहले आया था। मैं तो छः साल से तपश्चर्या कर रहा हूं। आपने जिंदा थे। फिर चालीस साल वे जो जिंदा थे, उसमें वे शरीर नहीं | मेरी अभी तक घोषणा नहीं की! तो बुद्ध कहते हैं, अभी तुम ठहरो, थे। उसमें वे सिर्फ एक प्रकाशपुंज थे, जो चल रहा था, डोल रहा अभी तुम तपश्चर्या ही कर रहे हो। अभी तेज पैदा नहीं हुआ है। था; आ रहा था, जा रहा था; बोल रहा था, सो रहा था; उठ रहा उस तेज की बात है। कृष्ण कहते हैं, तपस्वियों में तेज। था, बैठ रहा था। लेकिन उसमें फिर कोई शरीर नहीं था। एक-एक चीज में वे अदृश्य का इशारा करते हैं। कहते हैं, जिस दिन बुद्ध मरे, किसी ने उनसे पूछा कि मरने के बाद आप | आकाश में शब्द। कहां होंगे? तो बुद्ध ने कहा कि चालीस साल से मैं जहां था, वहीं। आकाश दिखाई पड़ता है, आकाश में सब चीजें दिखाई पड़ती पर उन्होंने कहा कि नहीं, हम कैसे मानें। क्योंकि शरीर तो आपका | हैं, सिर्फ एक शब्द दिखाई नहीं पड़ता। खयाल किया आपने! खो जाएगा। और इस देह को तो हमें जला देना पड़ेगा, गड़ा देना आकाश दिखाई पड़ता है, विस्तार, एक्सपैंशन। और आकाश में पड़ेगा। यह तो मिट्टी हो जाएगी। तो बुद्ध ने कहा, मेरे लिए तो यह | सब चीजें दिखाई पड़ती हैं, शब्द दिखाई नहीं पड़ता। फिर भी चालीस साल पहले खो चुकी है। चालीस साल से तो मैं सिर्फ एक आकाश शब्दों से भरा हुआ है; शब्द से भरा हुआ है। शब्द की शून्य की भांति, एक बातीरहित दीए की भांति, एक प्रकाश की | तरंगों से भरा हुआ है। भांति जी रहा हूं। और अब मेरे मिटने का कोई उपाय नहीं, क्योंकि । अब तो वैज्ञानिक कहते हैं कि आज नहीं कल, कृष्ण ने जो गीता जो भी मिट सकता था, वह मिट चुका है। और अब तो मौत आए कही है, वह हम फिर पकड़ लेंगे यंत्रों के द्वारा। क्योंकि अगर वह . कि महामृत्यु, जो है, वह रहेगा। कभी भी कही गई है, तो शब्द कभी मरता नहीं; वह मौजूद है। हम तेज अमृतत्व है; शरीर मरणधर्मा है। तपस्वियों में तेज, उसका | | उसको पकड़ लेंगे। जरा वक्त लगेगा। अर्थ है, तपस्वियों में वह, जो कभी नहीं मरता। लेकिन आपने | ___ अगर दिल्ली से एक शब्द बोला जाता है रेडियो स्टेशन पर, और अगर चेहरे पर रौनक देखी, वह तो मर जाएगी तपस्वी के साथ। | आठ सेकेंड या दस सेकेंड बाद बंबई में पकड़ा जा सकता है। अगर अगर शरीर में थोड़ी लाली दिखाई पड़ी है, तो वह तो जरा इंजेक्शन दस सेकेंड बाद पकड़ा जा सकता है, तो दस साल बाद पकड़ने में लगाकर खून बाहर निकाल लो, तो निकल जाएगी। उससे तेज का | | कोई वैज्ञानिक बाधा नहीं है, दस करोड़ साल बाद पकड़ने में कोई कोई संबंध नहीं है। वैज्ञानिक बाधा नहीं है। चाहे हम अभी जल्दी यंत्र बना पाएं या न तेज एक बहुत आकल्ट, एक गुप्त रहस्य है। और उसको देखने बना पाएं। दिल्ली में बोला गया शब्द या लंदन में बोला गया शब्द की विधियां हैं। और जब तक वह न दिखाई पड़े, तब तक कोई | अगर एक क्षण के बाद भी बंबई में पकड़ा जाता है, तो उसका तपस्वी नहीं है। तप कितना ही करे कोई। मतलब यह है कि शब्द जब पैदा होता है, उसके बाद मर नहीं महावीर के पास भिक्षु आएंगे, साधक आएंगे; बुद्ध के पास | | जाता; होता है। और जब वह आपके बंबई से गुजर गया, तब भी आएंगे। बुद्ध उनको देखेंगे और कहेंगे कि तुम तपश्चर्या कर रहे मर नहीं जाता; तब भी मौजूद होता है। सूक्ष्म होता चला जाता है; 359 Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 - सूक्ष्म होता चला जाता है; सूक्ष्म होता चला जाता है। ही बात स्मरण है कि वह आदमी अपने घर से नदी तक स्नान करने यह सारा अस्तित्व शब्दों की पर्तों से भरा हुआ है। अदृश्य पर्ते सुबह जाता था, तो घर से नदी तक का फासला पैदल चलने में जो भी शब्द कभी बोला गया है, वह रिकार्डेड है। मुश्किल से पांच मिनट का था। लेकिन उसको नदी तक पहुंचने में वह रिकार्ड के बाहर कभी नहीं जा सकता। दो घंटे लगते थे। नदी में स्नान करने में मुश्किल से, वह जिस ढंग इसलिए धर्म कहता है, ऐसा कोई बुरा शब्द मत बोलना, जो से स्नान करता था, पांच मिनट से ज्यादा लगने की कोई जरूरत न तुम्हारा रिकार्ड बन जाए। क्योंकि वह अनंत यात्रा तक तुम्हारा थी। लेकिन नदी में उसको स्नान करने में दो घंटे लगते थे। घर रिकार्ड होगा। उससे बच नहीं सकते हो फिर। उससे बचने का कोई लौटने में पांच मिनट का फासला था, लेकिन फिर दो घंटे लगते उपाय नहीं है। वह आपकी कथा है। कोई खाता-बही लिए हुए नहीं थे। असल में उस आदमी की जिंदगी सुबह और शाम नहाने में बैठा है परमात्मा कि उसमें लिख रहा है कि फलां आदमी ने क्या जाती थी। सुबह छः घंटे नहाने में, और शाम छः घंटे नहाने में! बोला। यह अस्तित्व शब्द को विनाश नहीं करता। अस्तित्व शब्द मामला क्या था? को पी जाता है और समाहित कर लेता है। मामला यह था कि वह आदमी घर से निकला कि बस, बच्चों कृष्ण कहते हैं, आकाश में मैं शब्द। की और लोगों की भीड़ उसके चारों तरफ! और लोग चिल्ला रहे सर्वाधिक आकाश में व्याप्त जो वस्तु है, वह शब्द है और सबसे हैं, राधेश्याम! राधेश्याम! और वह पत्थर फेंक रहा है। नाराज हो कम दिखाई पड़ती है। इसलिए गलत बोलने से तो बेहतर है, चुप रहा है। चिल्ला रहा है। दौड़ रहा है। राधेश्याम का दुश्मन था। रह जाना, न बोलना। तो न बोलना रिकार्ड में रहेगा कि यह आदमी | | कहता कि कहो, राम! और लोग चिल्लाते, राधेश्याम! बस, दो मौन था। जरूरी नहीं है कि मौन में जो आदमी था, वह अच्छा ही | घंटे उसको नदी तक जाने में लगते। आदमी रहा हो। लेकिन इतना तो कम से कम पक्का है कि सक्रिय | तो वह नहा रहा है, और लोग चिल्ला रहे हैं। और वह रूप से बुरा नहीं था। बीच-बीच में निकलकर आ रहा है, आधा नहाया हुआ। वह कपड़ा सुना है मैंने कि एक जहाज पर जो आदमी पहरेदारी का काम धो रहा है, और लोग चिल्ला रहे हैं। और भीड़ लगी है, और वह करता था, नया-नया आदमी, वह पहरेदारी कर रहा था। पहरेदारी भाग रहा है। न वह कपड़ा धो पाता है, न वह नहा पाता है। उसकी के बाद दूसरे दिन उसने देखा, तो कैप्टन ने जहाज के उसके रिकार्ड मुझे याद है। में लिखा हुआ है कि यह आदमी आज शराब पीए हुए था। रिकार्ड | मैं भी उसके पीछे बहुत बार नदी तक उसे छोड़ने गया हूं, और सारा खराब हो गया। नदी से उसको वापस घर तक लाया हूं। उसके पीछे मेरे भी छः घंटे आठ दिन बाद वह आदमी चुपचाप रहा-आठ दिन बाद बहुत दफे खराब हुए हैं। कैप्टन ड्यूटी पर था, तो उस आदमी ने जाकर रिकार्ड की किताब में लेकिन धीरे-धीरे मुझे खयाल आना शुरू हुआ कि वह आदमी लिखा कि आज कैप्टन शराब नहीं पीए हुए है। आज कैप्टन शराब | हाथ में पत्थर भी उठाता है, मारने को दौड़ता भी है. लेकिन जब भी नहीं पीए हुए है। लिखा तो यही कि नहीं पीए हुए है, लेकिन पता | राधेश्याम कहो, तो उसकी आंखों में कोई चमक आ जाती है। तब उससे सिर्फ इतना ही चलता है कि बाकी छः दिन पीए रहा होगा। | मुझे शक पैदा हुआ। आप चुप हैं, इससे कुछ पक्का पता नहीं चलता कि आप अच्छे | __ गांवभर में खबर थी कि वह राम का भक्त है। वह गया था एक ही आदमी हैं। छः दिन पता नहीं क्या रहे हों! बुरे होने की वजह से | | दिन नदी। मैं अपने टेंपटेशन को रोककर-क्योंकि उस आदमी को ही चुप रहे हों। लेकिन एक बात तय है कि कम से कम निष्क्रिय हैं। | । नदी तक पहुंचाना बड़ा टेंपटेशन था—किसी तरह रोककर, वह शुभ शब्दों को बोलने के लिए बड़े प्रयास किए गए हैं। मुझे | । नदी गया; मैं चोरी से उसकी दीवाल को छलांग लगाकर उसके घर अपने बचपन की एक स्मृति है, जो कभी नहीं भूलती। मेरे गांव में में गया। अपने घर में वह किसी को कभी घुसने नहीं देता था। कहते जिस आदमी का मुझे सबसे पहला स्मरण है, और शायद मरते | | हैं, जिस दिन वह मरा, उसी दिन लोग उसके घर में घुसे। वर्षों से वक्त सबसे आखिरी स्मरण रहेगा; उस आदमी का मुझे नाम भी उसके दरवाजे से किसी ने भीतर प्रवेश नहीं किया था। पता नहीं; क्योंकि बहुत छोटा था, तभी वह आदमी मर गया। एक मैंने जाकर उसके घर के भीतर देखा, तो राधाकृष्ण की मूर्ति 360 Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदृश्य की खोज > उसके घर में रखी है, और फूल चढ़े हैं! फिर मैं वहीं बैठा रहा। उस ओंकार, सिर्फ ओम। बस, उतना हूं मैं। बाकी मैं नहीं हूं। बाकी तो आदमी ने आकर दरवाजा खोला। मुझे भीतर देखकर तो एकदम सब जगत है। सिर्फ ओम! पागल हो गया। उसने कहा, भीतर कैसे आए? क्योंकि मेरे घर में | अगर कष्ण से पछा जाए, तो वे कहेंगे. सब शास्त्र नष्ट हो जाएं, कभी मैंने किसी को प्रवेश नहीं करने दिया। मैंने उससे कहा कि अकेला ओम बच जाए, तो सब शास्त्र बच गए। और सब शास्त्र अब तो मैं भीतर आ गया। और अब चाहें तो बाहर निकाल दें। बच जाएं, अकेला ओम खो जाए, तो सब शास्त्र खो गए। लेकिन राज मेरे हाथ में आ गया है। और बड़े मजे की बात है, यह ओम बिलकुल ही अर्थहीन शब्द उस आदमी की आंखों में आंसू आ गए। उसने कहा, इस गांव | है, मीनिंगलेस। इसमें कोई अर्थ नहीं है। इसमें कोई फिलासफी, में इतने लोग हैं, लेकिन किसी ने कभी मेरे हृदय में भीतर प्रवेश | कोई दर्शन नहीं है। यह शब्द एक अर्थ में बिलकुल एब्सर्ड है; इसमें करके नहीं देखा। मैं सिर्फ इसीलिए नाराज होता हूं कि लोग कुछ अर्थ नहीं है। और कृष्ण इतना मोह दिखलाते हैं कि वेदों में राधेश्याम का नाम ही ले लें। मेरी जिंदगी इसी में बीत रही है। ओंकार! बस, वेद में मैं ओम हूं! क्यों? बहुत पूरी प्रक्रिया है। लेकिन मैं प्रसन्न हूं। क्योंकि मैं जानता हूं कि शब्द के जगत में मैंने थोड़ी-सी बात आपसे कह दूं। बहुत-से राधेश्याम की ध्वनियों को संगृहीत करवा दिया है। और | - इस एक छोटे-से शब्द में, ओम में, भारत ने समस्त मंत्र-योग कोई मुझे चिढ़ाने को ही नाम लेता होगा राधेश्याम का, तो भी लेता | की साधना को बीज की तरह बंद कर दिया। जैसे आइंस्टीन का तो राधेश्याम का ही नाम है। अभी चिढ़ाता रहेगा, चिढ़ाता रहेगा, | रिलेटिविटी का फार्मूला है, छोटा-सा, दो-तीन शब्द, दो-तीन चिढ़ाता रहेगा; किसी दिन...! आखिर तुम भी तो चिढ़ाते-चिढ़ाते | अक्षर-पूरा हो जाता है। ऐसे भारत ने जो भी अंतर-जीवन में नदी छोड़कर-छोड़कर एक दिन मेरे घर के भीतर आ गए हो। अनुभव किया है, और जितनी विधियां मनुष्य ने विकसित की हैं 'वह आदमी जिस दिन मरा, उसी दिन गांव को पता चला। | सत्य की तरफ यात्रा करने की, वे सब की सब बीज-मंत्र की तरह लेकिन उसने मुझसे प्रार्थना की, और मेरे पैर पकड़कर प्रार्थना की। ओम में रख दी हैं। मैं तो बहुत छोटा था, वह तो बूढ़ा था। उसने पैर पकड़कर प्रार्थना | यह ओम अ, उ और म, इन तीन मूल ध्वनियों का जोड़ है। सारे की कि तम आ गए, सो ठीक। जब भी आना हो, दीवाल कदकर शब्दों का विस्तार ओम का विस्तार है। सब वेदों में ओम। ओम आ जाना। लेकिन किसी को बताना मत कि मेरे घर में राधेश्याम होगा. तो सब वेद पनः निर्मित हो सकते हैं। सीक्रेट-की आपके की प्रतिमा हैं। नहीं तो गांव में खबर हो गई, तो मुझे कोई चिढ़ाएगा हाथ में है। ये तीन अ, उ और म, अगर ये तीन हों, तो जगत के नहीं। बात ही समाप्त हो जाएगी। इस राज को राज ही रहने देना, सब शास्त्र निर्मित हो सकते हैं। लेकिन सब शास्त्र बच जाएं और जब तक मैं मर न जाऊं! कुंजी खो जाए, तो सब शास्त्र बेकार हो जाएंगे। ताले रह जाएंगे, बुद्ध कहते थे अपने भिक्षुओं से कि प्रार्थना शुरू करना, जगत चाबी खो गई। के मंगल की कामना के साथ। प्रार्थना पूरी करना, जगत के मंगल विज्ञान भैरव में शिव ने पार्वती को कहा है कि तू ज्यादा न पूछ। की कामना के साथ। शायद प्रार्थना तो बेकार चली जाए, लेकिन ज्यादा में तुझे अड़चन होगी। थोड़े में तुझे कह दूं। अउ म—यह मंगल का जो उदघोष है, वह रिकार्ड हो जाएगा। क्योंकि प्रार्थना तो जो ओम है, इसमें तू अ को भी भूल जा; इसमें तू म को भी भूल बेकार जा सकती है, उसको तो करने वाले की सामर्थ्य चाहिए, जा; वह जो बीच में बचता है, ओम के बीच में; अभी छूट जाए, लेकिन मंगल का उदघोष तो कोई भी कर सकता है। म भी छूट जाए, वह जो बीच में बचता है उ, उस उ में तू डूब जा। आकाश में मैं शब्द। सूक्ष्मतम जो आकाश में संगृहीत होता है | तो मैं तुझे उपलब्ध हो जाऊंगा। रूप-अदृश्य, अरूप कहना चाहिए-वह है शब्द, वह मैं हूं। | यह तो टेक्नीक की बात है। अगर आप उ में डूब सकें...। आप वेदों में ओंकार। कभी जोर से कहें उ, तो आपको पता चलेगा कि पूरी नाभि भीतर वेद में कितना क्या है! कहा जाए, करीब-करीब सब कुछ है।। । सिकुड़ गई। जितने जोर से उ कहेंगे, उतने ही जोर से नाभि पर जोर जो जगत में धर्म की दिशा में जो भी खोजा गया है, करीब-करीब पड़ेगा। और नाभि जीवन का मूल ऊर्जा-स्रोत है। उसको ठीक टैप सब है। लेकिन उस सबको छोड़कर कृष्ण कहते हैं, वेदों में करना जिसको आ जाए...। ओम, उसको ही हैमर, उसको ही चोट 361] Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 पहुंचाने की तरकीब है। और उस पर जो विधिवत चोट पहुंचा दे, वह जीवन की ऊर्जा उठनी शुरू हो जाती है। कुंडलिनी जागने लगती है। ऊपर की यात्रा पर आदमी निकल जाता है। सुना है मैंने कि एक छोटे से गांव में एक बहुत बड़े कारखाने में एक नई मशीन लगाई गई। महीनेभर ठीक चली और फिर अचानक बंद हो गई। कोई खराबी भी न थी । कोशिश करके हार गए इंजीनियर उस कारखाने के, लेकिन कोई रास्ता न निकला। फिर तो बड़े शहर से, राजधानी से विशेषज्ञ को बुलाना पड़ा। हजार रुपया उसके आने-जाने का खर्च हुआ। वह विशेषज्ञ आया; एक छोटी-सी हथौड़ी उसने अपनी पेटी में से निकाली और मशीन को तीन जगह, ठक ठक ठक - तीन जगह उसने किया; मशीन चल पड़ी। मालिक ने कहा कि बड़ी कृपा आपकी । आपका बिल क्या हुआ? उसने लिखा, एक हजार रुपया। मालिक ने कहा, मजाक तो नहीं कर रहे आप? तीन जगह ठक ठक ठक करने का एक हजार रुपया? आइटमवाइज बिल बनाइए। आपने और तो कुछ किया भी नहीं । ठक ठक ठक ! इसमें पहली ठक का कितना रुपया, दूसरी ठक का कितना रुपया, तीसरी ठक का कितना रुपया? आंख से मैं देख रहा हूं। उस आदमी ने बिल बनाया। उसने लिखा कि तीन ठकों का एक रुपया, टैपिंग - रुपी वन। एंड नोइंग व्हेयर टु टैप - रुपीज नाइन हंड्रेड नाइनटी नाइन । कहां — उसके नौ सौ निन्यानबे रुपए; और जहां तक ठोंक का सवाल है, एक रुपए से चल जाएगा। और उसने नीचे लिखा कि अगर आपको ज्यादा तकलीफ हो रही हो, तो टैपिंग का आप छोड़ भी सकते हैं। वह एक रुपया न भी दें। बाकी नोइंग व्हेयर टु टैप ... । ओम जो है, वह सीक्रेट है समस्त वेदों का । वह व्यक्ति के भीतर जो परमात्मा की ऊर्जा बीज में छिपी है, उसको टैप करने की तरकीब है; उसको चोट करने की तरकीब है । तो कृष्ण कहते हैं, वेदों में ओंकार। ऐसा मैं अदृश्य हूं। ऐसे दृश्य में तू मुझ अदृश्य को खोज। आज इतना ही। लेकिन कोई उठेगा नहीं। थोड़ी टैपिंग थोड़ी आपके भीतर छिपी ऊर्जा को यह संकीर्तन करके थोड़ा चोट पहुंचाएं। आप से नौ सौ निन्यानबे रुपए नहीं लिए जाएंगे। वे भी छोड़ दिए जाते हैं। रुपया तो छोड़ा ही, नौ सौ निन्यानबे भी छोड़ते हैं। लेकिन आप बैठे रहें पांच मिनट । और बैठे न रहें; ताली बजाएं। गाएं। डोलें। आनंदित हों। 362 Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 7 चौथा प्रवचन आध्यात्मिक बल Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-3> बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् । | है; लेकिन अंगुली चांद की तरफ इशारा कर सकती है। लेकिन यह बुद्धिबुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ।। १० ।। इशारा उसी की समझ में आएगा, जो अंगुली को छोड़ दे और भूल बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम् । जाए, और चांद की तरफ देखे। और मैंने अंगुली उठाई चांद की धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ।।११।। तरफ, और आपने सोचा कि शायद मैं अंगुली उठा रहा हूं, तो हे अर्जुन, तू संपूर्ण भूतों का सनातन कारण मेरे को ही अंगुली में कुछ होगा। और आप मेरी अंगुली से अटक गए, तो जान । मैं बुद्धिमानों की बुद्धि और तेजस्वियों का तेज हूं। आप चांद तक कभी भी न पहुंच पाएंगे। और हे भरत श्रेष्ठ, मैं बलवानों का आसक्ति और अंगुली चांद को बताती है, चांद नहीं है। उसे छोड़ ही देना कामनाओं से रहित बल अर्थात सामर्थ्य हूं, और सब भूतों में पड़ेगा। उसे भूल ही जाना पड़ेगा। उसे तो बिलकुल पीछे छोड़कर धर्म के अनुकूल अर्थात शास्त्र के अनुकूल काम हूं। जब आंख आकाश की तरफ उठेगी, वहां तो कोई अंगुली न होगी, वहां तो चांद होगा। तो कृष्ण ये जो बातें कह रहे हैं, वे अंगुलियां हैं। अधूरे इशारे 17 रमात्मा स्वयं अपना परिचय देना चाहे, तो निश्चित ही हैं, आंशिक। उनमें सूचना है। जो उनको पकड़ लेगा, वह खतरे में प बड़ी कठिन बात है। आदमी भी अपना परिचय देना | | पड़ेगा। जो उनको छोड़ देगा, उनके ऊपर उठेगा, पार जाएगा, वह चाहे, तो कठिन हो जाती है बात। और परमात्मा । | इशारे को समझने में समर्थ हो सकता है। अपना देना चाहे, तो और भी कठिन हो जाती है। कल रात्रि भी उन्होंने कुछ इशारे किए। उसमें एक इशारा छूट एक तो इसलिए कठिन हो जाती है कि परमात्मा भी अपना स्वयं | गया था, वह भी हम बात कर लें। परिचय दे, तो सदा ही अधूरा होगा; पूरा नहीं हो सकता। अस्तित्व उन्होंने कहा, पुरुषों में मैं पुरुषत्व हूं। इतना विराट है, और शब्द इतने छोटे पड़ जाते हैं। परमात्मा भी पुरुषों में पुरुषत्व, पुरुष नहीं। पुरुषत्व क्या है? यह संस्कृत का कहना चाहे, तो कहकर पाएगा कि जो कहना था, वह नहीं कहा जा | शब्द बहुत कीमती है। और इस शब्द की थोड़ी-सी पर्तों को सका है। कहना चाहा था, वह छूट गया है। और जो कहा गया है, | उघाड़ना जरूरी है। वह बहुत दूर की खबर लाता है। हम सभी जानते हैं कि पुर कहते हैं नगर को, बस्ती को। जिन्होंने कृष्ण को भी वैसी ही कठिनाई है। और जब भी किसी व्यक्ति | पुरुष शब्द का उपयोग किया है, उन्होंने कहा है कि यह आदमी तो के भीतर से परमात्मा ने स्वयं को अभिव्यक्त किया है, तब सदा ही | एक नगर है, एक पुर है। और इसके भीतर एक मालिक बस रहा ऐसी ही कठिनाई हुई है। कृष्ण की पीड़ा हम समझ सकते हैं। वे जो | है, वह पुरुष है। इस नगरी के भीतर जो छिपा है, वह। उदाहरण ले रहे हैं, वे जिन बातों के सहारे समझाने चल रहे हैं, वे | - तो पुरुष से अर्थ, स्त्री के विपरीत जो है, वैसा नहीं है। पुरुष का बातें बहुत साधारण हैं। लेकिन इसके अतिरिक्त कोई उपाय नहीं, | | अर्थ मेल नहीं है। पुरुष तो स्त्री के भीतर भी है। स्त्री और पुरुष, कोई विकल्प नहीं। आदमी से बात करनी हो, तो आदमी की भाषा जैसा हम प्रयोग करते हैं, ये तो नगर की खबर देते हैं। स्त्री की बस्ती में ही बात करनी पड़ेगी। अलग है, उसका शरीर अलग है। और जिसे हम पुरुष कहते हैं, इशारे करते हैं। इशारों से ज्यादा नहीं है यह बात। और जो उसकी भी बस्ती अलग है और शरीर अलग है। लेकिन भीतर जो आदमी इशारे को पकड़ लेगा, वह भटक जाएगा। और हम सबकी | बस रहा है पुरुष, उस नगर के बीच में जो बस रहा है मालिक, वह आदत इशारों को पकड़ने की है। हम मील के पत्थरों को छाती से | एक है। लगाकर बैठ जाते हैं, यह सोचकर कि यह मंजिल हुई। हालांकि हर | इसलिए कई को यह खयाल हो सकता है कि कृष्ण ने स्त्रियों की मील का पत्थर, केवल एक तीर का इशारा है आगे की तरफ, कि | जरा भी बात न कही। कुछ तो कहना था कि स्त्रियों में मैं कौन! मंजिल आगे है। ज्यादती मालूम पड़ती है। सबकी बात कर रहे हैं, और स्त्री कोई और मैं चांद को अंगुली से बताऊं, तो बहुत डर है कि अंगुली | | छोटी घटना नहीं है कि उसकी बात छोड़ी जा सके। जिसे हम पुरुष पकड़ ली जाए और चांद समझ ली जाए। यद्यपि अंगुली चांद नहीं कहते हैं, उससे तो थोड़ी बड़ी ही घटना है। क्योंकि जीवन के इस 1364 Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आध्यात्मिक बल - सृजन में पुरुष तो सांयोगिक है, एक्सिडेंटल है; स्त्री आधारभूत है। चाहिए, लहरों के दर्शन करके आ रहा हूं। सागर तो दिखाई नहीं लेकिन कृष्ण ने स्त्री की बात नहीं की, जानकर, क्योंकि पुरुष में | पड़ता। दिखाई तो लहरें पड़ती हैं। फिर भी आप कहते हैं कि सागर स्त्री सम्मिलित हो गई है। अगर नगर की बात करते, तो फासला | का दर्शन करके आ रहा हूं। इसी खयाल से कि लहर की क्या था स्त्री और पुरुष का। वे तो उसकी बात कर रहे हैं, जो नगर के | | गिनती करनी! लहर तो आप देख भी नहीं पाए और मिट गई होगी, बीच में बसा है। स्त्री के भीतर भी वह पुरुष है; पुरुष के भीतर भी | | और दूसरी बन गई। जो मिट गई लहर, उसमें भी जो था, और जो वह पुरुष है। बन गई लहर, उसमें भी जो है हालांकि वह आपको दिखाई नहीं फिर भी पुरुष की बात नहीं कर रहे हैं। कह रहे हैं, पुरुषों में | | पड़ा है। लेकिन आप खबर यही देते हैं कि मैं सागर के दर्शन करके पुरुषत्व। जैसे कि हजारों फूल को निचोड़कर हम थोड़ा-सा इत्र बना आ रहा हूं। लें। ऐसा ही समस्त पुरुष जहां-जहां हैं, उनके भीतर जो पुरुषत्व | तो कृष्ण लहरों की बात नहीं कर रहे हैं; वे सागर की बात कर है, वह जो निचोड़ है, वह जो इत्र है, वह मैं हूं। | रहे हैं। वे पुरुषों की बात नहीं कर रहे, पुरुषत्व की बात कर रहे हैं। यह भी सोचने जैसा है। क्योंकि जब हम कहते हैं पुरुष, तो एक | | जिसके ऊपर सारा खेल निर्मित होता है। एक रूप, दूसरा रूप, पर्टिक्युलर, एक विशेष व्यक्तित्व का खयाल आता है। जब हम | | हजार रूप वह पुरुषत्व लेता चला जाता है; और फिर भी अरूप कहते हैं पुरुषत्व, तो युनिवर्सल, सार्वभौम सत्य का खयाल आता | | है। न मालूम कितने आकार बनते हैं और विसर्जित होते हैं, फिर है। जब हम कहते हैं पुरुष, तो सीमा बनती है; और जब हम कहते | भी वह निराकार है। हैं पुरुषत्व, तो असीम हो जाता है। तो पुरुषों में मैं पुरुषत्व हूं! __ यूनान में प्लेटो ने जिसे आइडिया कहा है, प्रत्यय कहा है। इस सूत्र में भी उन्होंने कुछ बातें कही हैं, और कुछ कीमती बातें पुरुषत्व एक प्रत्यय है, एक आइडिया है। जब हम कहते हैं प्रेमी, कही हैं। कहा है, वासना से रहित, काम से रहित वीरों का वीर्य हूं। तो एक सीमा बन जाती है। लेकिन जब हम कहते हैं प्रेम, तो सब | वासना से रहित, कामना से रहित वीरत्व हूं, वीरता हूं। सीमाएं टूट जाती हैं, तब असीम हो जाता है सब। जब हम कहते __ आदमी वासना में डूबकर बड़े वीरता के कार्य कर सकता है। हैं पुरुष, तो एक रेखा खिंच जाती है चारों ओर। जब हम कहते हैं | | लेकिन कृष्ण कह रहे हैं कि मनुष्य के भीतर वह जो वीर्य की ऊर्जा पुरुषत्व, तो विराट आकाश की तरह सब विस्तीर्ण हो जाता है। । घटित होती है, मैं तब वह हूं, जब वहां काम न हो, वासना न हो। पुरुषत्व की कोई सीमा नहीं है। पुरुष आएंगे और जाएंगे, पुरुष । आपको खयाल दिलाना चाहूंगा। महावीर का जन्म का नाम बनेंगे और मिटेंगे। परुषत्व तो शाश्वत है। शक्लें बदलेंगी. घर वर्द्धमान था। बाद में दिया गया नाम. महावीर और महावीर नाम बदलेंगे, नगर बसेंगे और उजड़ेंगे। आज आपका एक नाम है, दिया गया, उस वीरता की वजह से, जिसकी कृष्ण चर्चा कर रहे हैं। पिछले जन्म में दूसरा था, अगले जन्म में और तीसरा होगा। | महावीर किसी से लड़े नहीं। लड़ने की बात दूर, पांव फूंककर रखा कितने-कितने पुरुष होने का आपको खयाल पैदा होगा कि मैं यह कि कोई चींटी न दब जाए। किसी से कोई स्पर्धा न की, किसी से हूं, मैं यह हूं, मैं यह हूं। लेकिन भीतर वह जो निर्गुण, वह जो भीतर | कोई प्रतियोगिता न की। कैसी वीरता है उनकी? निराकार है, वह एक है। अगर महावीर को हम देखेंगे, तो उनके चारों तरफ कोई भी तो इसलिए भी कहा पुरुषत्व। जब हम लहरों की बात करते हैं, तो | घटना घटती हुई मालूम नहीं पड़ती, जिसमें कि वीरता का पता अक्सर डर होता है कि सागर कहीं भूल न जाए। कृष्ण यह कह रहे | चलता हो। न युद्ध के मैदान पर लड़ते हैं, न तलवारों-भालों के हैं कि लहरों में मैं सागर। लहर भला दिखाई पड़ती हो, लेकिन सिर्फ | बीच में खड़े होते हैं। कैसे वीर होंगे! लेकिन इस मुल्क ने उनकों दिखाई पड़ती है, एपियरेंस है, सिर्फ एक आभास है। सत्य तो | महावीर कहा। इस मुल्क ने इस सूत्र की वजह से महावीर कहा। सागर है, जो नीचे है। वासना बिलकुल नहीं है, फिर एक वीर्य का नव उदय हुआ है। उस बड़ी मजे की बात है, सागर के किनारे जाएं, तो लहरें ही दिखाई वीर्य को हम थोड़ा पहचानें कि वह कैसा है। पड़ती हैं, सागर कभी दिखाई नहीं पड़ता। अक्सर आप कहते हैं कि __महावीर साधना में लगे। कठोर तपश्चर्या में डूबे। भूल गए मैं सागर के दर्शन करके आ रहा हूं। लेकिन गलत कहते हैं। कहना जगत को, याद रखा अपने को ही। नग्न खड़े होते थे गांव के बाहर। 365 Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-3 लोग सताने लगे। के मैदान में। लेकिन युद्धों में जो वीर हैं, वे बच्चे हैं। महावीर की एक दिन सुबह ऐसी घटना हुई। एक ग्वाले ने आकर अपनी | वीरता यह है कि वे कहते हैं, अब संगी और साथी न बनाऊंगा। गायों को वहां चराने के लिए छोड़ा। फिर उसे कुछ काम आ गया, | अब अकेला काफी हूं। जन्मों-जन्मों बहुत संगी-साथी बनाए, सब तो उसने खड़े हुए महावीर से कहा कि सुनो! जरा मेरी गायों को | व्यर्थ हो गए। पाया आखिर में कि अकेला हूं। अब मुझे तुम देखते रहना, मैं अभी लौटकर आता हूं। जल्दी में था; उसने यह अकेला ही होने दो। और एक तरह से वह विचलित करने आया भी फिक्र न की कि यह नग्न खड़ा हुआ साधु कुछ बोला नहीं। या । | था; तुम दूसरी तरह से विचलित करने आए हो। सोचा होगा कि मौन सम्मति का लक्षण है; चला गया। इंद्र ने कहा, आप हमें गलत न समझें। हम आपको विचलित दोपहर जब वापस लौटा, तो महावीर तो अपने दूसरे ही लोक करने नहीं; सिर्फ रक्षा करने आए हैं। में थे। लौटा, तब तक गाएं चरती हुई दूर निकल गई थीं। महावीर | महावीर ने कहा कि जिन्होंने भी मेरे लिए सदा वचन दिए रक्षा से बहुत पूछा, वे कुछ न बोले। आंख बंद किए खड़े थे, खड़े रहे। करने के और जिन्होंने कहा, हम रक्षा करेंगे, वे ही थोड़े दिन में मेरे सोचा कि या तो यह आदमी पागल है, या चालाक है। गाएं या तो | । कारागृह बन गए। जिन्होंने भी कहा था कि हम रक्षा करेंगे, जिन्होंने चोरी चली गईं; इस आदमी का हाथ है कुछ। और या फिर यह । | भी कहा था कि हम साथ देंगे, संगी बनेंगे, दुख से बचाएंगे, आखिर आदमी पागल है, या गूगा है, या बहरा है। में मैंने पाया कि वे ही मेरे दुख के कारण बने, और वे ही मेरे कारागृह वह गायों को ढूंढ़ने गया, जंगलभर में घूम आया, लेकिन गाएं न | की दीवालें बने। अब नहीं। अब मैं अकेला काफी हूं। अब सुख हो मिलीं। और जब सांझ महावीर के पास से निकलता था, तो गाएं। | कि दुख, मैं अकेला काफी हूं। तुम मुझे मुझ पर छोड़ दो। चरकर लौट आई थीं और महावीर के पास वापस बैठी हुई थीं। तब महावीर ने कहा है, एक ही वीरता है इस पृथ्वी पर, अकेले होने तो पक्का शक हो गया। सोचा कि यह आदमी बेईमान है। मुझे धोखा का साहसदि करेज टु बी अलोन।' दिया। गायों को छिपाए रहा। अब रात में लेकर निकल जाएगा। | बहादुर से बहादुर आदमी भी अकेला नहीं हो सकता। कम से उसने महावीर को गालियां दीं। मारा। कान में लकड़ियों की | | कम तलवार तो साथ में रखता ही है। इसलिए जिसके हाथ में खूटियां ठोंक दीं। क्योंकि यह देखकर कि तू समझ रहा है कि तू बहरा तलवार देखें, समझ लेना कि भीतर कायर छिपा है। नहीं तो तलवार है; सुनता नहीं। तो हम तेरे बहरेपन को पूरा किए देते हैं! कान में किसके लिए! महावीर नग्न खड़े हैं; हाथ में एक लकड़ी का टुकड़ा उसने खूटियां ठोंक दीं। खून, लहूलुहान, महावीर के कान से खून भी नहीं है। बहने लगा। वह खूटियां ठोंककर अपनी गायों को लेकर चला गया। कृष्ण कहते हैं, जिसकी वासना हट गई, जिसका काम हट गया, मीठी कथा है कि देवता पीड़ित और परेशान हुए। और इंद्र ने उसमें मैं वीर्य हूं। उसमें मैं बल हूं। उसका मैं बल हूं। आकर महावीर से कहा कि क्षमा करें! हमें आज्ञा दें, ताकि हम । इसमें एक बात और समझ लेने जैसी है। जहां भी कामवासना आपकी रक्षा कर सकें। ऐसा दुबारा न हो, अन्यथा बदनामी हमारी है, वहां वीर होना उसी तरह आसान है, जैसे किसी आदमी को होगी कि भले लोग जमीन पर थे और महावीर के कान में खूटियां | शराब पिला दी जाए और लड़ने को भेज दिया जाए। नशे में बहादुर ठोंक दी गईं! हमें आज्ञा दें। हो जाना आसान है, क्योंकि नशे में आदमी मूछित होता है। महावीर ने आंख खोली और कहा, वह ग्वाला भी अपने ढंग से इसलिए हाथियों को जब युद्ध पर भेजते हैं, तो शराब पिलाकर मुझे विचलित करने आया था; तुम अपने ढंग से मुझे विचलित भेजते हैं। क्योंकि मरने का खयाल ही नहीं रह जाता; होश ही नहीं करने आए हो। मुझे छोड़ दो मुझ पर। जो भी होना है, मुझ अकेले रह जाता। पर होने दो। जन्मों-जन्मों बहुत तरह के साथ मैंने लिए, सब साथ कामवासना भी एक जहर है, एक इंटाक्सिकेंट है। और जब व्यर्थ गए। अब मैं अकेला हूं। जन्मों-जन्मों न मालूम कितने कंधों आप कामवासना से भरते हैं, तो कामवासना से भरा हुआ आदमी पर हाथ रखे, और सोचा कि वे साथी बनेंगे; कोई साथी कभी बना | आग लगे मकान में प्रवेश कर सकता है। नहीं। अब मैं अकेला हूं। तुलसीदास की कहानी हम सबने सुनी है। कामवासना से भरा अब यह वीर्य, यह वीरता दिखाई नहीं पड़ेगी बाहर किसी युद्ध हुआ आदमी नदी में मुर्दे को हाथ का सहारा लगाकर पार हो गया। |366 Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आध्यात्मिक बल > उसे पता न चला कि मुर्दा है। उसने समझा कि कोई लकड़ी का | कहती है कि वह सारा का सारा अमृत जहर हो जाएगा, अगर एक टुकड़ा है, इसके सहारे मैं पार हो जाऊं। | बूंद जहर की पड़ गई। क्योंकि जहर से ही हम परिचित हैं; अमृत तलसीदास बरसा की अंधेरी रात में छज्जे से लटके हए सांप को से हम परिचित नहीं है। हमने जहर ही जाना है। हमने अमत जाना रस्सी समझकर ऊपर चढ़ गए! रस्सी दिखाई पड़ी; सांप दिखाई न | नहीं है। सच बात तो यह है कि अमृत की कसौटी और परीक्षा ही पड़ा। आंखें अंधी थीं। वासना ही क्या जो अंधा न कर जाए। यही है कि वह जहर को अमृत बना पाए। अन्यथा उसकी कोई कोई कह सकता है कि बड़े बहादुर रहे होंगे तुलसीदास। सांप कसौटी नहीं, कोई परीक्षा नहीं। को पकड़कर चढ़ गए; कम बहादुर हैं! लेकिन तुलसीदास नहीं चढ़े धर्म की कसौटी ही यही है कि आपके भीतर जो जहर है, वह सांप को पकड़कर। सांप को पकड़कर वासना चढ़ी। और वासना | | अमृत हो जाए। आपके भीतर जो यौन है, जो वासना है, कामना अंधी है। उसमें कोई बहादुरी नहीं होती। तुलसीदास नहीं चढ़े सांप | है, वह भी राम-अर्पित हो जाए, वह भी प्रभु-समर्पित हो जाए। वह को पकड़कर। तुलसीदास को सांप दिख जाता, तो भाग खड़े होते। ऊर्जा भी ब्रह्म की ऊर्जा बन जाए। वह दिखाई नहीं पड़ा। आंखें अंधी थीं। जब आंखें खुलीं, तब पता क्या होता होगा? जब कोई व्यक्ति धर्म से भरता होगा, तो चला कि क्या किया है! उसकी कामवासना की गति क्या होती होगी? उसकी कामवासना तीव्र वासना के क्षण में आप मूर्छित होते हैं, बेहोश होते हैं। की गति आमूल बदल जाती है। बेहोशी में बल का कोई अर्थ नहीं है। पागल होते हैं। पागलपन में अभी आप कामवासना से भरते हैं अचेत होकर, मूर्छित होकर, बल का कोई अर्थ नहीं है। विक्षिप्त होकर। निर्णय करते हैं हजार बार कि कामवासना से इसलिए कृष्ण उसे काट देते हैं। वे कहते हैं, कामवासना को बचूंगा, बचूंगा, बचूंगा! और आप निर्णय करते रहते हैं, और भीतर छोड़कर, बलवानों का मैं बल हूं। वासना संगृहीत होती चली जाती है। और एक क्षण आता है, और भी एक बात कहते हैं, इसी संदर्भ में। यह भी कहते हैं कि आपके निर्णय का पत्थर उठाकर फेंक दिया जाता है और वासना जो धर्म से भरा है, उसकी मैं कामवासना भी हूं। ये उलटे दिखाई | का झरना फूट पड़ता है। फिर कल से आप पछताएंगे और फिर पड़ेंगे वक्तव्य। बलवान के लिए कहा, जो कामवासना से रहित है, पछताकर यही करेंगे कि फिर वासना को दबाकर इकट्ठा करेंगे। उसका मैं बल हूं। लेकिन तब सवाल उठ सकता है कि फिर यह | और फिर वह वक्त आएगा कि आपका संकल्प तोड़कर वासना कामवासना का क्या होगा? कृष्ण कहते हैं, कामवासना भी मैं हूं, पुनः बह उठेगी। की. जो धर्म से भरा है। इसका क्या अर्थ होगा? धर्म से भरी अभी वासना का हम पर हमला होता है. वी आर दि विक्टिम्स। कामवासना का क्या अर्थ होगा? अगर इसे ठीक से समझें, तो हम वासना के मालिक नहीं हैं, जैसे ही व्यक्ति के जीवन में धर्म उतरता है, वैसे ही कामवासना | | शिकार हैं। वासना हमें पकड़ लेती है भूत-प्रेत की भांति; और वासना नहीं रह जाती। वैसे ही काम, सेक्स, यौन, यौन नहीं रह हमसे कुछ करा डालती है, जो कि शायद हमने अपने होश में कभी जाता। इसे थोड़ा समझना जरूरी है। न किया होता। और जब हम होश में आते हैं, तो पछताते हैं, दुखी कुछ ऐसा है कि जिस व्यक्ति के जीवन में धर्म का अवतरण | | और पीड़ित होते हैं कि हमने ऐसा सोचा, ऐसा किया! लेकिन फिर हुआ, उस व्यक्ति के जीवन का सभी कुछ धार्मिक हो जाता है। धर्म | वही होता है। इतना डुबाने वाला है कि सिर्फ आपकी बुद्धि को ही डुबाएगा, ऐसा | हम वासना के हाथ में धागे बंधी हुई गुड्डियों की तरह हैं, जो नहीं; सिर्फ आपके हृदय को ही डुबाएगा, ऐसा नहीं; आपके शरीर | नाचते हैं। प्रकृति हम से काम लेती है। हम प्रकृति के गुलाम हैं। को भी डुबा लेगा। धर्म इतनी बड़ी घटना है कि घटे तो आप पूरे के | प्रकृति आज्ञा देती है, और हम काम में लग जाते हैं। पूरे उसमें डूब जाएंगे। आपकी कामवासना कहां बचेगी! वह भी | धर्म से भरे हुए व्यक्ति को प्रकृति आज्ञा देना बंद कर देती है। उसमें डूब जाएगी। कहना चाहिए कि धर्म का अमृत ऐसा है कि । असल में जो व्यक्ति धर्म को उपलब्ध होता है, प्रकृति की अगर जहर की बूंद भी उसमें पड़ जाए, तो अमृत हो जाएगी। आज्ञा-सीमा के बाहर हो जाता है। प्रकृति उसे कोई भी आज्ञा नहीं हमें समझना बहुत कठिन होगा। हमारी सामान्य समझ तो यह दे सकती। और एक नई घटना घटती है कि धर्म को उपलब्ध व्यक्ति 367 Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 प्रकृति को आज्ञा देने लगता है। एक आमूल रूपांतरण होता है। जब तक हम अधर्म में जीते हैं, तब तक प्रकृति हमें आज्ञा देती है; हम गुलामों तरह होते हैं। हम चलाए जाते हैं, चलते नहीं । हम खींचे जाते हैं, चलते नहीं। हम धकाए जाते हैं, हम चलते नहीं। हमारी जिंदगी हमारी वृत्तियों का जबर्दस्ती दबाव है। न तो आपने कभी क्रोध किया है; क्रोध करवाया गया है। न आपने कभी कामवासना की है; कामवासना करवाई गई है। आप सिर्फ एक विक्टिम हैं, एक शिकार हैं। चारों तरफ से आपको धक्के दिए जा रहे हैं। जैसे हवा में पत्ता कंपता है। बाएं हवा बहती है, तो बाएं; और दाएं बहती है, तो दाएं। वह पत्ता भी शायद मन में सोचता होगा कि अब बाएं बहुत थक गया, अब जरा दाएं बहूं। जब हवा दाएं चलने लगती है, तब वह सोचता होगा, अब दाएं चलूं। वैसे ही आप सोचते हैं कि मैं क्रोध कर रहा हूं; कि मैं वासना से भर रहा हूं। नहीं; आप सिर्फ भरे जाते हैं। आप बिलकुल हेल्पलेस विक्टिम, असहाय शिकार हैं। धर्म से भरा हुआ व्यक्ति प्रकृति के ऊपर उठता है, वह प्रकृति आज्ञा देना शुरू करता है। वैसे व्यक्ति के जीवन में कामवासना वासना नहीं रह जाती। हां, वैसे व्यक्ति के जीवन में यदि काम की कोई घटना भी घटे – जैसे कि कुछ घटनाएं घटी हैं - तो उनके कारण बहुत ही दूसरे होते हैं। जैसे जीसस के बाबत कहा जाता है कि वह क्वांरी मरियम से पैदा हुए। यह उदाहरण मैं दे रहा हूं, ताकि आपकी समझ में आ सके कृष्ण की बात । जीसस के बाबत कहा जाता है, वे क्वांरी मरियम से, वर्जिन मैरी से पैदा हुए। अब क्वांरी लड़की से कोई कैसे पैदा होगा ? लेकिन हो सकता है। अगर कृष्ण के सूत्र को समझें, तो हो सकता है। मैरी, वह जीसस की मां, किसी कामवासना से भरकर अगर संभोग में न उतरी हो, वरन जीसस की आत्मा को जन्म देने के लिए ही अपने शरीर की प्रकृति को उसने आज्ञा दी हो, तो वह क्वांरी है। और आपसे मैं कहूं कि आप जब किसी बच्चे को जन्म देते हैं, तब भी आपको पता नहीं होता कि उस बच्चे की आत्मा आपके चारों तरफ मंडरा रही है और आपको प्रेरित कर रही है कि आप उसे जन्म दें। लेकिन आप बेहोश हैं। उसके लिए प्रकृति आपको धक्के दिलाती और बच्चे का जन्म करवाती है। लेकिन कामवासना जिस दिन धर्म से रूपांतरित होती है, उस दिन आप सचेत रूप से एक आत्मा से बात कर पाते हैं, जो आपके द्वारा जन्म लेना चाहती है। और अगर आप जन्म देना चाहते हैं, तो आप अपने शरीर को आज्ञा देते हैं कि वह वासना में उतरे, वह काम-कृत्य में उतरे। लेकिन यह आज्ञा होती है। और इसलिए इसमें | बुनियादी फर्क है। जब आप कामवासना में उतरते हैं, तो आप बेहोश होते हैं। और जब ऐसा व्यक्ति कभी कामवासना में उतरता है, तो बिलकुल होश में होता है। वह अपने शरीर का उपयोग एक उपकरण, एक यंत्र की भांति कर रहा होता है। मालिक होता है। शरीर उसका उपयोग नहीं कर रहा होता है। तो कृष्ण कहते हैं, मैं कामवासना भी हूं, लेकिन उनकी, जो धर्म से भरे हैं। जीवन ने बहुत-से सत्य खोज लिए थे, जो धीरे-धीरे बार-बार खो जाते हैं, उनमें से एक सत्य यह भी था। इस संदर्भ में एक बात आपको कहना चाहूंगा। आज सारी पृथ्वी पर संतति निरोध का आंदोलन है। सब जगह, किसी भी तरह आने वाले बच्चों को रोकना है। लेकिन एक ही उपाय मालूम पड़ता है और वह यह कि हमारे शरीर में कुछ फर्क किया जाए। और कोई उपाय नहीं मालूम पड़ता। एक ही उपाय मालूम पड़ता है कि हमारे शरीर की ग्रंथियां काट डाली जाएं, या | शरीर में ऐसे रासायनिक द्रव्य डाले जाएं, या ऐसा इंतजाम किया | जाए, कि आने वाली आत्मा जो हमारे भीतर प्रवेश करती है, वह अवसर न पा सके और प्रवेश न कर पाए। यह बड़ी असहाय स्थिति है। इससे अन्यथा नहीं हो सकता क्या ? लेकिन आदमी देखकर नहीं कहा जा सकता है कि हो सकती है। सकता है। दूसरी बात कृष्ण के इस सूत्र से वह बात दूसरी निकलती है। हम व्यक्तियों को इतना सचेतन बना सकते हैं- शरीर को बदलकर नहीं, उनकी चेतना को बदलकर - कि जब कोई आत्मा उनसे निवेदन करे कि वे जन्म देने वाले बनें, तो वे इनकार कर सकें; या जरूरत हो, तो जन्म दे सकें। 368 इस संबंध में मैं आपसे यह भी कहना चाहता हूं कि हजारों वर्ष | तक भारत ने इसका प्रयोग किया है। इस बात के सैकड़ों प्रमाण हैं। इस बात का प्रयोग किया गया है। इस प्रयोग की पूरी की पूरी साइंस विकसित की गई थी। Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आध्यात्मिक बल > जैसे कि आपने अगर महावीर या बुद्ध का जीवन पढ़ा हो, तो बुद्ध ने घोषणा की है कि दो हजार साल बाद मैं पुनः एक नए इस मुल्क ने एक पूरा का पूरा ड्रीम एनालिसिस, एक स्वप्न-विज्ञान रूप में, मैत्रेय के रूप में पृथ्वी पर उतरूंगा। दो हजार साल पूरे हो निर्मित किया था। फ्रायड ने तो अभी-अभी स्वप्न के लक्षणों को गए, लेकिन मैत्रेय को ठीक गर्भ नहीं मिल पा रहा है। इसलिए एक समझना शुरू किया है। वह भी समझ अभी बहुत बालपन की है। अड़चन खड़ी हो गई है। इसलिए जो लोग जीवन की गहराइयों से वह अभी बहुत गहरी नहीं है। संबंधित हैं उनकी इस वक्त सबसे बडी बेचैनी यही है कि कोई मां लेकिन जैन परंपरा कहती है कि जब तीर्थंकर किसी मां के गर्भ मैत्रेय को ग्रहण करने के लिए तैयार हो जाए। लेकिन कोई मां पृथ्वी में प्रवेश करता है, तो इस-इस तरह के स्वप्न इस-इस समय पर पर दिखाई नहीं पड़ती है। उस मां को आने शुरू होते हैं। वह इस बात की खबर है कि तीर्थंकर बुद्ध का वचन खाली न जाए, इसलिए और तरह के प्रयोग भी की कोटि की आत्मा उस मां के गर्भ में प्रवेश करना चाहती है। वे | किए गए। वे भी असफल हो गए। कोई गर्भ देने वाली मां नहीं स्वप्न सूचनाएं हैं। उन स्वप्नों से खबर मिलती है कि कोई एक मिलती है, तो कोशिश यह की गई कि किसी व्यक्ति के शरीर में, विराट आत्मा मां के भीतर प्रवेश करना चाहती है। वे स्वप्न जो हैं, जीवित व्यक्ति के शरीर में ही बुद्ध की आत्मा को प्रवेश करा दिया सिंबालिक मैसेजेस हैं। जाए। और एक ही शरीर से दोनों आत्माएं काम कर लें। यह आत्मा और यह बड़े मजे की बात है कि जैनों के चौबीस तीर्थंकर बहुत | जो मौजूद है, सिकुड़ जाए और उस आत्मा को जगह दे दे। वे प्रयोग लंबे फासले पर हुए; अंदाजन कम से कम दस हजार साल का भी सफल नहीं हो सके। कृष्णमूर्ति के साथ भी वही प्रयोग किया फासला-कम से कम; इससे ज्यादा हो सकता है लेकिन गया था; वह सफल नहीं हो सका। उनकी माताओं को आने वाले स्वप्नों का क्रम एक है। वे स्वप्न एक और गहरे तल पर गर्भ का विज्ञान सोचा, समझा और सूचक हैं। वे इस बात की खबर दे रहे हैं कि इनकार मत कर देना। | पहचाना गया था। कृष्ण उसी की बात कर रहे हैं। वे कह रहे हैं कि क्योंकि जो व्यक्ति पैदा होने वाला है, वह तुम्हें सिर्फ मार्ग बना रहा | | जिस दिन धर्म से भरा हुआ होता है चित्त, उस दिन काम की वासना है, लेकिन इस जगत के लिए बहुत काम का है, उसको इनकार मत | भी मैं ही हूं। कर देना। वह कोई साधारण आत्मा नहीं, जो तुमसे आ रही है। और बुद्ध के मामले में तो यह भी जाहिर था कि बुद्ध जिससे भी जन्म लेंगे, वह मां जन्म देकर तत्काल मर जाएगी जी न सकेगी। प्रश्नः भगवान श्री, बुद्धिमानों में बुद्धि और संपूर्ण भूतों क्योंकि बुद्ध जैसे व्यक्तित्व को जन्म देना! । का सनातन कारण, इसे भी स्पष्ट करने की कृपा करें। हम जानते हैं, साधारण बच्चे को जन्म देने में कितनी प्रसव-पीड़ा होती है। साधारण बच्चे को जन्म देने में कितनी प्रसव-पीड़ा होती है। लेकिन शरीर को ही पीड़ा होती है। बुद्ध जैसे पूर्ण भूतों का सनातन कारण! व्यक्ति को जन्म देने में आत्मा तक प्रसव-पीड़ा का प्रवेश होता है। I कारण दो तरह के होते हैं। एक तो, जिन्हें हम कारण वह कोई छोटी घटना नहीं है। एक बहुत महान घटना, एक विराट कहते हैं। हम कहते हैं, पानी भाप बन गया। कारण ? घटना घट रही है शरीर के भीतर। क्योंकि गर्मी मिल गई। हम कहते हैं, आदमी मर गया। क्यों? तो यह जाहिर थी बात कि बुद्ध की मां जन्म देने के बाद बचेगी कारण? क्योंकि हृदय की धड़कन बंद हो गई। ये कारण नहीं हैं नहीं। फिर भी बुद्ध की मां राजी थी। क्योंकि बुद्ध जैसा व्यक्ति पैदा वस्तुतः। ये तो अस्थायी, ऊपर, सतह पर घटने वाली घटनाओं का होता है, यह सौभाग्य छोड़ने जैसा नहीं है। और कहा जाता है कि तारतम्य हैं। यह वैसा ही झूठ है, जैसे कि कोई आदमी दो घड़ियां देवताओं ने बुद्ध की मां को न मालूम कितनी-कितनी तरह से राजी अपने घर में लगा ले...। किया। और कहा कि इनकार मत कर देना। क्योंकि जो व्यक्ति आ डेविड ह्यूम, एक अंग्रेज विचारक, इसकी बात हमेशा किया रहा है, वह करोड़ों के जीवन को प्रकाशमान कर देगा। उसके लिए करता था। क्योंकि वह कार्य-कारण के सिद्धांत के बड़े खिलाफ इतना कष्ट झेलने की तैयारी रखना। था। वह कहता था कि तुम कहते हो, पानी गर्म करने से भाप बन 369 Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-3> गया, मेरी समझ में नहीं आता! मैंने तुम्हें गर्म करते भी देखा, आग | है। मित्रों ने आग्रह किया। मित्र आग्रह करने से नहीं बच सकते थे, जलाते भी देखा, पानी को भाप बनते भी देखा, लेकिन मैं यह अभी | । क्योंकि यह मित्र पहले उनको कई दफा आग्रह करके पिला चुका था। तक नहीं देख पाया कि गर्म करने से पानी कब भाप बना! गर्मी और आप पीछे हटते चले जाएं, तो शायद सड़क पर जो आज देखी, आग देखी, भाप बनते देखा पानी। लेकिन पानी गर्मी से कब आपको एक कार आकर टकराकर लग गई है, इसके पीछे आपको भाप बना, यह मैंने देखा नहीं अभी तक। उतने ही कारण मिल जाएंगे, जितने जगत में हो सकते हैं, सब। इस __आप कहते हैं, हृदय की धड़कन बंद हो गई, इसलिए यह | | छोटी-सी घटना के पीछे यह पूरा जगत कारणों का एक जाल आदमी मर गया। ह्यूम कहेगा कि यह भी हमने देखा कि धड़कन | बिछाकर खड़ा होगा। अगर आप थोड़ा भीतर उतरते जाएं, उतरते बंद हो गई, और यह भी हमने देखा कि आदमी मर गया। लेकिन | जाएं, तो आप घबड़ा जाएंगे, और आप कहेंगे कि बस, अब खोज फिर भी मैंने वह घटना नहीं देखी कि हृदय की धड़कन बंद होने से | | करनी बेकार है। इस खोज का कहीं अंत नहीं हो सकता। यह तो मर गया। उन दोनों के बीच का संबंध मैंने नहीं देखा। कारणों का जाल है। राम कहा करता था कि एक आदमी अपने घर में दो घड़ियां बना कृष्ण इन कारणों की बात नहीं कर रहे। वे कह रहे हैं, एक सकता है। ऐसी घड़ियां बना सकता है कि एक घड़ी में बारह बजे | कारण, सनातन कारण। सनातन कारण का अर्थ होता है, यह सब और दूसरी घड़ी में बारह का घंटा बजे। इसमें कोई कठिनाई तो नहीं | मुझसे निकला और मुझमें लीन होगा। यह सब मुझसे आया और है। एक घड़ी में सात बजे, दूसरे में सात का घंटा बजे। एक में आठ मुझमें वापस लौट जाएगा–सब। सनातन कारण का अर्थ होता बजे और दूसरे में आठ का घंटा बजे। फिर कोई आदमी, जो घड़ी है, मेरे बिना कुछ भी नहीं हो सकता है। अगर मैं नहीं है, तो कुछ को न जानता हो, पीछे से वह उस घर में आ जाए, तो वह सोचेगा भी नहीं है। मैं हूं, तो सब है। मेरे हटते ही सब शून्य हो जाएगा। कि जब इस घड़ी में सात बजते हैं, तो सात बजने के कारण उस मेरी नजर फिरी कि सब शून्य हो जाएगा। सब मेरा खेल है। सनातन घड़ी में सात का घंटा बजता है। जब कि उनमें कोई भी संबंध नहीं | | कारण का अर्थ होता है, जिससे सब चीजें आती हैं, और जिसमें है ऊपर से। हम जिनको कारण कहते हैं, वे ऐसे ही ऊपर से जुड़ी | वापस लौट जाती हैं। बीच में जो कारणों का जाल है, उससे कोई हुई घटनाएं हैं। संबंध नहीं है। इसलिए कृष्ण ने इतना ही नहीं कहा कि सब भूतों का कारण; | हम सब ऊपर के कारणों को देखते हैं, इसलिए मुश्किल में पड़ते कहा, सनातन कारण—दि अल्टिमेट काज–आखिरी, प्रथम, हैं। अर्जुन भी ऊपर के कारण देखने वाला है। वह कह रहा है, मैं अंतिम, अनादि। | इनको छुरा मारूंगा, तो ये मर जाएंगे। अगर हम एक-एक कारण को खोजने जाएं, तो जगत में अनंत कृष्ण कहते हैं, तू फिक्र मत कर, क्योंकि मैं जानता हूं। ये मेरी कारण हैं। हर चीज के अनंत कारण हैं। और एक चीज भी एक वजह से जी रहे हैं। और जब तक मैं जी रहा हूं, ये कोई मर सकते कारण से नहीं होती, मल्टी-काजल होती है, अनेक कारण से | | नहीं। तू बेफिक्री से युद्ध कर। मैं तुझे सनातन कारण कहता हूं। तेरे होती है। छुरे मारने से ये मरने वाले नहीं हैं; और न तेरे छुरे के बचने से ये आप सड़क पर जा रहे हैं और एक कार आपसे आकर टकरा गई, | बचने वाले हैं। इनका होना और न होना मुझ पर निर्भर है, मैं तो आप जानते हैं, कितने कारण होते हैं? हजार कारण होते हैं। सनातन कारण हूं। आप रास्ते पर जिस भांति जा रहे थे, अगर घर से पत्नी से अगर यह बात ठीक से समझ ली जाए कि परमात्मा सभी चीजों लड़कर न चले होते, तो शायद इस भांति न चल रहे होते, जैसे चल का सनातन कारण है, तो आप कर्ता बनने के मोह से गिर जाएंगे। रहे थे। लेकिन पत्नी आपसे न लड़ती, अगर बच्चा स्कूल से वक्त | वह कर्ता बनने का मोह फिर न रह जाएगा। आप कहेंगे, ठीक है। पर घर आ गया होता। बच्चा स्कूल से वक्त पर घर आ सकता था, | जो हो रहा है, ठीक है। जो हो जाए, ठीक है। जो न हो, ठीक है। लेकिन रास्ते में मित्र मिल गए। और जिस दिन आप इतनी सरलता से सब स्वीकार कर लेंगे, उस वह जो आदमी चलाकर आ रहा है कार और आपसे टकरा गया दिन आपके भीतर अहंकार को खड़े होने की कोई जगह न रह है, वह भी शायद न टकराता, लेकिन किसी ने उसे शराब पिला दी| | जाएगी। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आध्यात्मिक बल > अपने नाटाहता था। वक्षक ग परमात्मा सनातन कारण है, ऐसा बोध आपके कर्तापन को गिरा | हमारे पास न दाना है इसको देने को, न अनाज है। उस आदमी ने जाएगा, मिटा जाएगा, धूल में डाल जाएगा। और कर्तापन का बोध | | कहा, रुको। अगर तुम मेरी मानो, तो मैं सालभर के लिए अनाज गिर जाए, तो ही हम परमात्मा की दिशा में एक कदम ऊपर उठते इसको दिए देता हूं। तुम इसे छोड़ दो। हैं। और ध्यान रहे, आलसी हम ऐसे हैं कि परमात्मा अगर कहे कि - इसके पहले कि गांव के लोग कुछ बोलते, अर्थी से आवाज आई एक कदम जरा-सा उठा लो, तो भी हम कदम नहीं उठाते। कि पहले बात साफ हो जानी चाहिए। अनाज साफ-सुथरा है न? सुना है मैंने, एक गांव में एक आदमी से गांव परेशान हो गया | नहीं तो पीछे कौन झंझट करेगा! पहले कुछ निर्णय करें गांव के था। परेशान इसलिए हो गया था कि न तो वह कमाता, न कुछ पैदा | लोग, अर्थी से आवाज आई, साफ कर लेना। अनाज साफ-सुथरा करता। फिर गांव यह भी नहीं देख सकता था कि वह भूखा मरता | है? एक, और दूसरी बात कि ये लोग मुझे यहीं छोड़कर चले रहे। तो गांव को उसे देना पड़ता था। वह अपने वक्ष के नीचे, या जाएंगे, तो मुझे घर कौन पहुंचाएगा? | जिस आदमी के बाबत यह कहानी है, वह एक सूफी फकीर था। उसे ले आते थे, तो आ जाता था। और वृक्ष के पास से, बाहर से वह कोई साधारण आदमी नहीं था। जब उसकी अर्थी नीचे उतारी उसको झोपड़े के भीतर लोग ले जाते थे, तो चला जाता था। अगर और अजनबी आदमी ने जब उसकी यह बात सुनी, तो उसने सोचा किसी दिन पड़ोस के लोग उसको झोपड़े के बाहर न निकालते, तो | कि आदमी तो असाधारण है, उसके दर्शन करने चाहिए। उसको वह झोपड़े के भीतर से ही नाराजगियां जाहिर करता था। देखा तो उस अजनबी ने कहा, हैरान करते हो तुम मुझे! फिर गांव परेशान हो गया, और गांव ने सोचा कि इस आदमी तो उस आदमी ने कहा कि तुम थोड़ा मेरी आंखों में झांककर को कब तक ढोएंगे? फिर अकाल पड़ा और गांव ने सोचा कि अब समझ पा रहे हो, इसलिए मैं तुमसे राज की बात कहता हूं। ये सारे तो इसको जिंदा या मुर्दा दफना देना चाहिए। वैसे इसके जीने से कोई लोग समझते हैं कि मैं आलसी हूं। लेकिन मैं उस यात्रा पर निकल फर्क भी नहीं पड़ता। पर उन्होंने सोचा, क्या वह राजी होगा? उन्होंने गया, जो कठिनतम है। और ये सारे लोग समझते हैं कि बड़े श्रमी कहा, चलकर हम देख लें। हैं। लेकिन ये जो भी कर रहे हैं, दो कौड़ी का कर रहे हैं। तुम सोचते वे गांव के लोग उसके पास गए और उससे पूछा कि हमने यह होगे कि मैं एक कदम घर जाने को राजी नहीं। मैं तुमसे कहता हूं, तय किया है कि हम तुम्हें दफना दें। क्योंकि तुम्हारे होने, न होने से ये भी कोई अपने असली घर जाने को एक कदम राजी नहीं। और कोई फर्क नहीं पड़ता। एक दिन तो दफनाना ही पड़ेगा, जब तुम जिस घर तुम मुझे ले जा रहे हो, वह मेरा कोई असली घर नहीं है। मरोगे। लेकिन हमारे लिए तुम मरे ही जैसे हो। और तुम्हारे लिए इसलिए मैं कब्र में भी जाने को राजी हूं। क्योंकि मेरे लिए कब्र और भी, जीते हुए हो, ऐसा हमारा अनुभव नहीं। क्या तुम राजी हो? | वह घर बराबर है। और जिस शरीर को बचाने की तुम बात कर रहे उसने कहा, मैं राजी हो सकता हूं। लेकिन मरघट तक ले कौन | हो, इसलिए मैंने पूछा कि अनाज साफ-सुथरा है न! क्योंकि इसको कत नहीं है। बाकी ले जाना तुम्हीं को पड़ेगा। बचाने के लिए इतनी मेहनत करने की मैं कोई जरूरत नहीं समझता। उन्होंने कहा, हमने तो यह सोचा भी नहीं था कि तुम इतने जल्दी | लेकिन मैं एक और घर को बचाने में लगा हूं। और मैं तुमसे कहता राजी हो जाओगे! हूं कि तुम सब अलाल हो। और तुम सब समझते हो कि मैं अलाल उन्होंने अर्थी बनाई। उस आदमी को अर्थी पर रखा। वे उसको | हूं। और ध्यान रखो, तुम मुझे जिंदा दफना रहे हो। जब तुम दफना लेकर चले। वह आदमी अर्थी में लेट गया। थोड़े वे भी चिंतित हुए। | दिए जाओगे, तब मैं तुम्हें बताऊंगा। तब तुम मुझसे मिलना। और इतना भरोसा न था उसका। तब मैं तुम्हें बताऊंगा कि असली आलसी कौन था। गांव में कोई परदेशी आया हुआ था। उसे यह खबर मिली कि | | पता नहीं, उस गांव के लोग समझे या नहीं समझे, लेकिन गांव में कौन-सी घटना घट रही है कि जिंदा आदमी को लोग ले आपसे मैं कहता हूं, एक कदम भी हम उस दिशा में उठाने की जा रहे हैं दफनाने! उसने बीच रास्ते पर आकर रोका कि भाइयो, हिम्मत नहीं करते हैं। यह क्या कर रहे हो? उन्होंने कहा, हम परेशान हो गए हैं। अब तो कृष्ण कह रहे हैं, सनातन हूं मैं कारण। इसीलिए कह रहे हैं और कोई उपाय नहीं बचा। हम इसे जिंदा ही दफनाने जा रहे हैं। ताकि आपको बस एक ही कदम उठाने को बाकी रह जाए। वह एक 1371 Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < गीता दर्शन भाग-3 कदम, कि आप कर्ता नहीं हैं, परमात्मा कारण है। अगर आप सब करिक्युलम लाया था अपने विश्वविद्यालय का। उसने निशान लगा छोड़ पाएं उस सनातन कारण पर...। रखे थे कि मैंने क्या-क्या पढ़ा। उसने सब बताया। लेकिन हम सनातन कारण पर नहीं छोड़ते। किसी आदमी ने परीक्षा के लिए बूढ़े ने क्योंकि उसने कहा कि मैं अदृश्य चीजों गाली दे दी, तो हम क्रोध से भर जाते हैं। जरा पैर में चोट लग गई, को भी देख पाता हूं, उनका भी अंदाज लगा पाता हूं, उनका भी तो हम परेशान हो जाते हैं। अगर हम सनातन कारण को देख अनुमान कर पाता हूं-उस बूढ़े ने बातचीत करते-करते अपने हाथ पाएं-जो उस पत्थर के पीछे भी है, और मेरे पीछे भी; और जो || का छल्ला निकालकर अपनी मुट्ठी में अंदर कर लिया। बंद मुट्ठी उस गाली देने वाले के भी पीछे है, और मेरे पीछे भी: और कांटे के लड़के के सामने की और कहा कि मझे बताओ. इस मट्टी के भीतर पीछे है, और मेरे दर्द के पीछे भी; अगर हम उस सनातन कारण क्या है? को देख पाएं, जो सुख के पीछे भी है और दुख के पीछे भी; जन्म उस लड़के ने एक सेकेंड आंख बंद की और कहा कि एक ऐसी में भी और मृत्यु में भी; सम्मान में और अपमान में भी अगर वह चीज है जो गोल है और जिसमें बीच में छेद है। बूढ़ा हैरान हुआ। सनातन हमें दिख जाए, तो हमारी उत्तेजना का जगत तत्काल शांत | बूढ़े ने समझा कि लड़का सचमुच ही बुद्धिमान होकर लौट आया हो जाए। फिर उत्तेजना का कोई कारण नहीं है। है। सब शास्त्र उसने जान लिए हैं। फिर भी उसने एक सवाल और उत्तेजना के सब कारण तात्कालिक हैं। जिसे अनुत्तेजना के | पूछा कि कृपा करके उस चीज का नाम भी तो बताओ! . जगत में प्रवेश करना है शांति के, उसे सनातन कारण को स्मरण तो उस युवक ने आंखें बंद की, बहुत देर तक नहीं खोलीं। और कर लेना चाहिए। फिर कहा कि मैंने जो शास्त्रों का अध्ययन किया, उसमें नाम बताने और कृष्ण कहते हैं, बुद्धिमानों की मैं बुद्धि। का कहीं भी कोई आधार नहीं मिलता है। फिर भी मैं अपने कामन बुद्धिमानों की बुद्धि! सभी बुद्धिमानों में बुद्धि नहीं होती। सेंस से, अपनी बुद्धि से कहता हूं कि आपके हाथ में गाड़ी का चाक अधिक बुद्धिमानों में तो केवल संग्रह होता है सूचनाओं का, शास्त्रों | होना चाहिए। का। जरूरी नहीं कि बुद्धिमान में बुद्धि भी हो। वह जो बेचारा पहले बताया था, वह शास्त्र था। अब जो बता एक मित्र को कल ही पत्र लिख रहा था। तो उसे मैंने एक कहानी | रहा है, वह खुद है! लिखी है, वह मैं आपसे कहूं। उस बुद्धिमान ने अपने मन में ही सोचा, उसने अपने मन में ही उसे मैंने लिखा है, एक सम्राट का बेटा था, जो मूढ़ था। और कहा कि यू कैन एजुकेट ए फूल, बट यू कैन नाट मेक हिम सम्राट परेशान हो गया। बुद्धिमानों से सलाह ली, तो उन्होंने कहा वाइज-मूढ़ को भी शिक्षित किया जा सकता है, लेकिन बुद्धिमान कि यहां तो कोई उपाय नहीं है। दूर देश किसी और राजधानी में एक नहीं बनाया जा सकता। विश्वविद्यालय है, वहां भेजो। भेज दिया गया। सभी बुद्धिमानों में बुद्धि होती है, इस भ्रम में मत पड़ना। अधिक वर्षों की शिक्षा के बाद बेटे ने खबर भेजी कि अब मैं बिलकुल बुद्धिमानों में बुद्धि का सिर्फ धोखा होता है; उधार होता है। निष्णात हो गया, दीक्षित हो गया। सब शिक्षा मैंने पा ली। अब मुझे कृष्ण कहते हैं, बुद्धिमानों में बुद्धि! वापस लौटने की आज्ञा दे दी जाए। सम्राट ने उसे वापस बुला यह जो बुद्धि है, जिसके लिए कृष्ण जोर देते हैं, जिसे विजडम लिया। सम्राट भी खुश हुआ। वह सभी शास्त्रों का ज्ञाता होकर आ कहते हैं, प्रज्ञा। जरूरी नहीं है कि बुद्धिमान बहुत कुछ जानता हो। गया। वह ज्योतिष भी जानता है। वह भविष्यवाणी भी कर सकता यह जरूरी नहीं है। क्योंकि बहुत कुछ जानने वाला जरूरी रूप से है। वह लोगों के पीछे अतीत में भी देख सकता है। उन दिनों जो-जो बुद्धिमान नहीं होता। लेकिन बुद्धिमान जो जानता है, वह उसके विज्ञान था, वह सब जानकर आ गया। जीवन को एक फूल की तरह खिला जाता है। . सम्राट बहुत खुश हुआ। उसने देश के सभी बुद्धिमानों को स्वागत एक और इस तरह की कहानी आपसे कहूं, जो खयाल में आ के लिए बुलाया। अपने बेटे के स्वागत का समारंभ किया। बड़े-बड़े | जाए। एक वृद्ध बुद्धिमान के संबंध में बड़ी खबर थी। एक बुद्धिमान आए। एक बूढ़ा भी आया। उस बूढ़े ने उस बेटे से कई विश्वविद्यालय के दो युवकों ने सोचा–पिछली कहानी में सवाल पूछे। पूछा कि तुमने क्या-क्या अध्ययन किया? तो वह विश्वविद्यालय के युवक की परीक्षा बूढ़े ने की; इस कहानी में बूढ़े 372 Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आध्यात्मिक बल की परीक्षा दो विश्वविद्यालय के युवकों ने की। उन्होंने सुना है कि उस आदमी के पास जाओ, तो वह कुछ भी बता देता है। आपका नाम भी बता देता है। जैसे मुट्ठी में बंद चीज को बूढ़े ने जानना चाहा था, खबर थी कि वह बूढ़ा भी बता देता है; वह बड़ा बुद्धिमान है। तो वे दोनों युवक एक कबूतर को अपने कोट के भीतर छिपाकर आए हैं । और उस बूढ़े के सामने आकर कहा, क्या आप सकते हैं कि हमारे कोट के भीतर क्या है? उसने कहा, मैं बता सकता हूं। वे तैयारी करके आए थे। हाथ भीतर रखा था। उन्होंने पूछा, क्या आप बता सकते हैं कि वह जिंदा है या मुर्दा ? उन्होंने सोचा था कि अगर वह कहे जिंदा, तो अंदर ही गर्दन मरोड़कर बाहर निकालना है। अगर वह कहे मुर्दा, तो जिंदा बाहर निकाल देना है। गर्दन पर हाथ था मजबूत । बूढ़े ने एक क्षण आंख बंद की और कहा, इट डिपेंड्स । उसने कहा कि यह कई बातों पर निर्भर करेगा कि वह जिंदा है कि मुर्दा । उन्होंने कहा, क्या मतलब? उस बूढ़े ने कहा कि अगर मैं कहूं, वह जिंदा है, तो गर्दन दबाई जा सकती है। अगर मैं कहूं, वह मुर्दा है, तो उसे ऐसे ही बाहर निकाला जा सकता है। लेकिन तुम्हारी मैं फिक्र छोड़ता हूं; कबूतर की फिक्र करता हूं। मैं कहता हूं, वह मुर्दा है। बाहर निकालो। क्योंकि कबूतर न मर जाए नाहक । बूढ़े ने कहा कि मेरी तुम फिक्र छोड़ो। कबूतर की फिक्र करता हूं। मैं कहता हूं, वह मुर्दा है। बाहर निकालो। यह विजडम है। यह बहुत और बात है। यह बुद्धि और बात है। यह केवल जानकारी नहीं है; यह जीवन के रहस्य का बोध है। यह केवल संग्रह नहीं है ऊपर से; यह भीतर से आया हुआ आविर्भाव है। यह अंतःजागरण है, अंतःस्फूर्ति है। यह कुछ ऐसा नहीं है कि कल जो मैंने जाना था, उस पर निर्भर है। बल्कि आज भी मेरी चेतना जाग रही है और देख रही है; और जो कहेगी, वह मैं जानूंगा। बुद्धिमान, तथाकथित बुद्धिमान, अतीत के ज्ञान पर निर्भर होते हैं – दूसरों के, खुद के । वस्तुतः बुद्धि सदा सजग वर्तमान में जीती है— अभी, जागरूक, जैसे दर्पण। जो सामने आ जाता है, दिखाई पड़ जाता है। कृष्ण कहते हैं, बुद्धिमानों की बुद्धि हूं मैं । बुद्धिमत्ता नहीं, बुद्धिमानी नहीं, नालेज नहीं, ज्ञान नहीं - बुद्धि, इंटेलिजेंस। इंटलेक्ट नहीं, इंटेलिजेंस; सिर्फ बुद्धि । हम जो-जो जानकारियां भर लेते हैं...। फर्क समझ लें, थोड़ा बारीक है। एक कमरा है आपके पास । उसमें आप फर्नीचर भर लेते हैं। कभी आपने खयाल किया कि जितना फर्नीचर भरते जाते हैं, कमरा उतना छोटा होता जाता है ! क्योंकि कमरे का मतलब ही जगह है। अंग्रेजी का शब्द अच्छा है, रूम। उसका मतलब होता है, जगह, स्थान । तो जितना आप फर्नीचर भरते जाते हैं, कमरा कम होता | चला जाता है। इसलिए बड़े आदमियों के कमरे दिखाई ही बड़े पड़ते हैं, होते गरीबों से भी छोटे हैं। चीजें तो बढ़ती जाती हैं। एक बहुत अमीर के घर में ठहरा हुआ था। तो उन्होंने कमरे में इतनी चीजें भर दी हैं कि वे उसमें कैसे अंदर आते-जाते | हैं, मुझे कुछ पता नहीं। मुझे उसमें प्रवेश कराने लगे, मैंने कहा कि | आप मुझे बाहर ही रहने दो। इतनी चीजें हैं! यह रूम तो है ही नहीं । यह तो कबाड़खाना है । जो भी आता है, खरीदकर ले आते हैं और रखते चले जाते हैं! पैसा पास है। पैसे के साथ बुद्धि जरूरी रूप से आती हो, ऐसा नहीं है। तो जितने माडल हो सकते हैं फर्नीचर के, सब उसी कमरे में इकट्ठे हैं! कमरे में आप जब फर्नीचर भर देते हैं, तो कमरा छोटा हो जाता है। बुद्धि में जितनी आप सूचनाएं भर देते हैं, बुद्धि छोटी हो जाती है । बुद्धि तो रूम है, बुद्धि तो एक स्पेस है, खाली जगह है। बुद्धिमान वह है, जो अपनी बुद्धि को सदा खाली, और ताजी, और सजग रखता है। भर नहीं लेता सिर्फ । भरकर तो सब बासा हो | जाता है। कुछ नहीं भरता; खाली रखता है; ताजी रखता है; खुली | रखता है। सूचनाएं जितनी इकट्ठी हो जाती हैं भीतर, उतनी ही बुद्धि की कम जरूरत पड़ने लगती है। क्योंकि आप सूचनाओं से ही काम चला लेते हैं। 373 कृष्ण कहते हैं, बुद्धिमानों में मैं बुद्धि हूं। में वह खाली जगह, वह स्पेस । उपनिषदों में जिसे इनर स्पेस आफ दि हार्ट कहा है – हृदय की अंतर्जगह, अंतर्गुहा । हृदय में एक जगह है, जो बिलकुल खाली है। और जो व्यक्ति उस खाली जगह खड़ा हो जाए, वह परमात्मा के मंदिर में प्रवेश कर जाता है। तो यहां बुद्धि से मतलब इंटलेक्ट का नहीं है। यहां बुद्धि से मतलब चालाकी का नहीं है। यहां बुद्धि से मतलब दो और दो चार जोड़ लेने का नहीं है। यहां बुद्धि से मतलब है, उस भीतर के अंतर-आकाश में खड़े हो जाने का, जो बिलकुल खाली है, शून्य है । उस शून्य में जो खड़ा है, वही बुद्धिमान है। क्योंकि उस शून्य में खड़े होकर ही सत्य का दर्शन उपलब्ध होता है। कृष्ण कहते हैं, बुद्धिमानों में मैं बुद्धि हूं। Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-3 - प्रश्नः भगवान श्री, एक छोटा-सा प्रश्न है। कल उसने कहा, लेकिन आप कर क्या रहे हैं? आपने दिव्य व्यक्तित्व में अर्थात योगी में मैं तेजस हूं, । आधे बाल उसने साफ कर दिए और आधी खोपड़ी पर लिख इसकी चर्चा की। पिछले श्लोक में कहे गए, मैं | दिया राबर्ट रिप्ले! तेरा नाम, तू जा। पूरे गांव में घूम आ। पर उसने तपस्वियों में तप हूं, इसका भी अर्थ स्पष्ट करने की कहा, इसमें बड़ा डर लगता है। उसने कहा, डर मत। अगर तू इतना कृपा करें। भी नहीं कर सकता, तो फिर अब मैं क्या करूं! तुझे मैं मिनिस्टर का भतीजा नहीं बना सकता। किसी धनपति से अचानक तेरा कोई रिश्ता जड़वा नहीं सकता। यूनिवर्सिटी में दाखिला मैं करवा नहीं - तपस्वियों में तप हूं। तपश्चर्या नहीं। शब्द तो दोनों एक | सकता। पर तू मेरी मान। 01 से हैं। लेकिन तपश्चर्या का जोर होता है कृत्य पर, एक्ट । रिप्ले ने लिखा है कि पहले तो बड़ी हिम्मत जुटाई। फिर किसी पर। और तप का जोर होता है आंतरिक उपलब्धि पर। तरह निकला। लेकिन सच, दो दिन में सब अखबारों में मेरे फोटो एक तपस्वी है, तपश्चर्या कर रहा है। जो वह तपश्चर्या करता छप गए। और जहां से निकल जाता, वहां लोग काम-धंधा बंद है, वह तो बाहरी कृत्य है, वह तो बाह्य कृत्य है कि उपवास करके बाहर आ जाते। और दो दिन में पूरे गांव में लोग मुझे जान करता है, कि प्राणायाम करता है, कि आसन करता है, कि धूप में | गए। न केवल गांव में, बल्कि गांव के बाहर खबरें पहुंचने लगीं। खड़ा होता है, कि शीत में खड़ा होता है—वह तो बाहरी कृत्य है, राजधानी तक खबरें पहुंचने लगीं। और कुछ मैंने किया नहीं था, एक्ट है। और यह भी हो सकता है कि वह यह सब करता रहे, और सिर्फ बाल काट लिए थे। भीतर कोई भी तप फलित न हो। क्योंकि यह कोई अज्ञानी भी कर फिर रिप्ले ने कहा, फिर तो ट्रिक मेरे हाथ लग गई। फिर तो मैं सकता है, कोई अहंकारी भी कर सकता है, कोई एक्जीबिशनिस्ट, जिंदगीभर ऐसे ही काम करता रहा। जिसको प्रदर्शन का शौक है, वह भी कर सकता है। उसने पूरे अमेरिका की यात्रा उलटे चलकर की। सारी दुनिया में और अगर आप अपने तपश्चर्या करने वाले लोगों में खोजबीन खबर हुई और कहा गया कि इतिहास का पहला मनुष्य है, जिसने करने जाएं, तो सौ में से नब्बे एक्जीबिशनिस्ट मिलेंगे, जो अपने अमेरिका की यात्रा उलटे चलकर की। एक आईना बांध लिया प्रदर्शन को उत्सुक हैं। और जब भी प्रदर्शन करना हो, तो इस तरह सामने और चल पड़ा! जुलूस चलता था साथ में। के काम बहुत अच्छे होते हैं। । रिप्ले ने लिखा है, लेकिन मेरी जिंदगी बेकार में गई; भीड़ को राबर्ट रिप्ले ने एक घटना लिखी है। कि रिप्ले युवक था, और इकट्ठा करने में गई। एक्जीबिशनिस्ट माइंड! प्रदर्शनकारी मन! प्रसिद्ध होना चाहता था। लेकिन प्रसिद्ध होने के लिए उसके पास तो तपश्चर्या बहुत कुछ तो प्रदर्शन होती है। अगर आप किसी कोई सीढ़ी न थी। न तो वह किसी मिनिस्टर का रिश्तेदार था; न तपस्वी की बहुत पूजा वगैरह करते हों, तो जरा पूजा वगैरह पंद्रह किसी धनी का भाई-भतीजा था; न किसी यूनिवर्सिटी में प्रवेश के दिन के लिए हालीडे पर छोड़ दें, बंद कर दें। पंद्रह दिन में तपस्वी लिए पैसे थे उसके पास। उसके पास कुछ भी नहीं था; लेकिन भाग जाएगा। क्योंकि जब देखेगा, कोई पूछता नहीं, कोई फिक्र नहीं प्रसिद्ध होना था। करता, कोई पैर नहीं दबाता, कोई फूल नहीं चढ़ाता, कोई कुछ नहीं तो उसने गांव के एक बहुत कुशल विज्ञापनदाता से जाकर पूछा करता। अब क्या मतलब है! भागो इस गांव से; कहीं और जाओ। कि मुझे प्रसिद्ध होना है, मैं क्या करूं? कोई ऐसी सरल तरकीब तपश्चर्या तो अहंकार की तृप्ति भी हो सकती है। तप क्या है? बताओ, क्योंकि मेरे पास कोई सहारा नहीं है, कोई सीढ़ी नहीं है, तप तो सारभूत है। कृत्य नहीं है, आत्मा है। तप का अर्थ है, जब सीधा प्रसिद्ध हो जाऊं। उसने कहा, इसमें कौन-सी बड़ी बात है! कोई व्यक्ति दुख को दुख नहीं मानता। और ध्यान रखना, दुख को तू इधर आ, मेरे पास आ। वह अंदर गया और एक उस्तरा उठाकर दुख न मानना बहुत बड़ा तप नहीं है। दूसरी बात आपसे कहता हूं, लाया। और उसने रिप्ले की आधी खोपड़ी के बाल छांट दिए। आधे जब कोई व्यक्ति सुख को सुख नहीं मानता है। बाल अलग कर दिए। रिप्ले ने कहा, यह आप क्या कर रहे हैं? दुख को दुख न मानना बहुत बड़ी बात नहीं है, क्योंकि हम उसने कहा, तू घबड़ा मत। दो दिन में तुझे प्रसिद्ध किए देता हूं। सभी चाहते हैं कि दुख दुख न हो। लेकिन सुख को भी जो सुख 374 Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आध्यात्मिक बल > नहीं मानता। दुख को दुख नहीं मानता; सम्मान को सम्मान नहीं | ठीक आंक रहा है। मानता; अपमान को अपमान नहीं मानता; जीवन को जीवन नहीं असल में हमारे भीतर हमारी कोई कीमत ही क्या है? असल में मानता; मृत्यु को मृत्यु नहीं मानता-तब उसके भीतर एक नए हम ही कहां हैं? बीइंग कहां है? हमारे भीतर आत्मा जैसी चीज जीवन का संचार शुरू होता है। उसके भीतर तप नाम का तत्व पैदा कहां है? . होता है। उसके भीतर क्रिस्टलाइजेशन-गुरजिएफ ने जो शब्द गुरजिएफ जब कहता है क्रिस्टलाइज्ड, तो उसका मतलब है कि प्रयोग किया है, क्रिस्टलाइजेशन-कि वह क्रिस्टल बन जाता है भीतर कुछ पैदा हुआ। और वह पैदा तभी होता है, जब सुख और उसके भीतर एक। दुख की संवेदनाएं छूती नहीं। वह पैदा तभी होता है, जब तप का ठीक अर्थ वही है। तप का अर्थ है, वह व्यक्ति पहली अनुकूल-प्रतिकूल बराबर हो जाता है। वह पैदा तभी होता है, जब दफे भीतर आत्मवान बनता है। जब तक दुख आपको हिला देता द्वंद्वों के बीच में थिरता और समता आती है। समत्व ही तप है। है, आप दुख से कमजोर हैं। सुख हिला देता है, सुख से कमजोर कठिन है। तपश्चर्या बहुत आसान है; तप बहुत कठिन है। हैं। कोई एक फूल की माला गले में डाल देता है और आप कंप कृष्ण कहते हैं, तपस्वियों में तप। जाते हैं, तो आप फूल की माला से कम कीमती हैं। आपकी कीमत वे अनेक-अनेक मार्गों से खबर दे रहे हैं कि मुझे तू कहीं से भी बहुत ज्यादा नहीं है। | पहचान, और कहीं से भी खोज। बहुत हैं द्वार मेरे। बहुत हैं मार्ग। - मैंने सुना है कि एक करोड़पति एक तालाब में गिर गया था।., लेकिन अगर तू कहीं से भी दृश्य को छोड़कर अदृश्य में उतर अनेक लोग खड़े होकर देख रहे थे। एक अजनबी आदमी भी भीड़ | सके-तपश्चर्या दृश्य है, तप अदृश्य है-अगर तू कहीं से भी में था, वह चिल्लाया कि तुम खड़े होकर क्यों देख रहे हो? आदमी | | दृश्य को छोड़कर अदृश्य में उतर सके; अगर कहीं से भी रूप को मर रहा है। उसे कुछ पता नहीं था कि वह आदमी कौन है। वह छोड़कर अरूप में; आकार को छोड़कर निराकार में; व्यर्थ को बेचारा कूद पड़ा। उस करोड़पति को, बड़ी मुश्किल से, अपनी जान | | छोड़कर सारभूत में अगर तू जा सके कहीं से भी...। को जोखिम में डालकर, बचाकर बाहर लाया। जब वह होश में | - तो सब तरफ से वे बात कर रहे हैं। वे कह रहे हैं, कहीं से भी आया धनपति, तो उसने कहा, बहत-बहत धन्यवाद। खीसे में| तेरी समझ में आ जाए। उसने हाथ डालकर कुछ खोजा, फिर एक नया पैसा निकालकर उस फिर देअर आर मोमेंट्स, कुछ क्षण होते हैं जीवन में, जब समझ आदमी को भेंट किया। पकड़ में आती है। सदगुरु जो है, उसे निरंतर खयाल रखना पड़ता सारी भीड़ चिल्लाने लगी कि इसीलिए तो हममें से कोई कूदकर है कि कभी-कभी ऐसा क्षण आता है। नहीं बचा रहा था। आदमी देखते हैं। एक नया पैसा! उस आदमी क्योंकि हमारा चित्त फ्लक्चुएशन में है। हमारा चित्त कभी एक ने जिंदगी, जान लगा दी; जोखम में डाला अपने को; और यह एक जगह नहीं है। कभी नीचे खाई छूता है, कभी ऊपर शिखर छू लेता पैसा उसको इनाम दे रहा है! है। हमारा चित्त पूरे वक्त नीचे-ऊंचे होते जा रहा है। हमारा चित्त एक और आदमी, एक फकीर इस बीच उस भीड़ के पास आकर कभी एक तल में नहीं है। सुबह हम नर्क में होते हैं; सांझ हम स्वर्ग खड़ा हो गया था। उसने कहा, नाराज मत होओ। नो वन नोज दि | में हो जाते हैं। घड़ीभर पहले हम रोते हैं; घड़ीभर बाद हंसी के फूल वेल्यू आफ हिज लाइफ मोर दैन हिमसेल्फ, उसकी जिंदगी की | खिल जाते हैं। हमारा चित्त पूरे वक्त नीचे-ऊंचे हो रहा है। कीमत उसके सिवाय और किसको ज्यादा मालूम हो सकती है। वह ___ कृष्ण जैसे व्यक्ति को स्मरण रखना पड़ता है। बहुत-बहुत बार बिलकुल ठीक दे रहा है। एक नया पैसा! वह अपनी जिंदगी की वही-वही बात कहनी पड़ती है, अलग अलग रूपों में। पता नहीं कीमत ही चुका रहा है। और किसी की जिंदगी का कोई सवाल नहीं | | अर्जुन का चित्त कब पीक पर हो, कब शिखर पर हो! और जब वह है। अगर मर जाता, तो एक नए पैसे का नुकसान हो रहा था दुनिया शिखर पर हो, तभी बात छुएगी। जब वह नीचे घाटी में होगा, तब में। और तो कोई खास नुकसान नहीं था। कोई बात छुएगी नहीं, बात ऊपर से निकल जाएगी। इसलिए बहुत उस फकीर ने कहा, नाराज मत होओ। उसके सिवाय कोई भी पुनरुक्ति भी करनी पड़ती है। नहीं जानता कि उसकी जिंदगी की असली कीमत कितनी है। वह अनेक लोग गीता के इस हिस्से को पढ़ते हैं, तो वे सोचते हैं कि 375 Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-3 यह कृष्ण क्या कहे चले जा रहे हैं! यह एक या दो दफे कह देना | कृष्ण की हवा अर्जुन के घर के चारों तरफ घूम रही है कि कहीं काफी था। यह बार-बार क्या कह रहे हैं कि मैं इसमें यह, और | कोई द्वार, कहीं कोई खिड़की, कहीं कोई रंध्र भी मिल जाए, तो उसमें वह। एक दफा कह देते कि मैं सनातन कारण हूं; बात तो पूरी | प्रवेश कर जाए। इसलिए वे बार-बार कहे चले जाते हैं। हो गई। यह क्यों बार-बार कहे चले जा रहे हैं! आज इतना ही। ___ यह बार-बार इसलिए कहे चले जा रहे हैं कि पता नहीं वह क्षण पर उठेंगे नहीं, क्योंकि इतनी देर में हो सकता है कोई रंध्र, कोई अर्जुन के मन का कब हो, जब प्रवेश मिल जाए। द्वार सदा बंद होते खिड़की आपके भीतर थोड़ी-सी खुली हो। तो एकदम जल्दी न उठ हैं, कभी खुले होते हैं। और जब खुले होते हैं, तब प्रवेश हो जाता जाएं, नहीं तो बंद हो जाएगी। है। कब खुले होते हैं, कहना कठिन है। एकदम कठिन है। • इधर ये कीर्तन हमारे संन्यासी करेंगे, तो आपकी खिड़की को इसलिए पुराने गुरु अपने शिष्यों को सदा पास रखने की कोशिश जरा थोड़ी देर, पांच मिनट, जितना खुला रख सकें, रखें। शायद करते थे। पता नहीं कब, किस क्षण में...। यह हवा आपके भीतर जाए, और जो कृष्ण अर्जुन को कह रहे थे, एक सफी फकीर बायजीद तो कभी दिन में शिक्षा ही नहीं देता वह आपको भी सनाई पड सके। था। रात जब सब शिष्य सो जाते, तब वह घूमता रहता। शिष्यों के और बैठे ही न रहें। ताली बजाएं। धुन में साथ दें। डोलें। पास आकर उनकी हृदय की धड़कनें सुनता। शायद उनके सपनों | आनंदित हों। में झांकता। शायद उनके विचारों की पर्तों में उतरता। और जब कभी पाता कि कोई शिष्य उस गहराई में है या उस ऊंचाई में, जहां बात प्रवेश कर सकती है, तो तत्काल उसे उठा लेता और कहता, सुन! और सुनाना शुरू कर देता। उसके शिष्य कई बार कहते भी उससे कि आप भी क्या पागलपन करते हैं! हम दिनभर बैठे रहते हैं तुम्हारे पास। और यह क्या हिसाब आपने निकाला है कि कभी रात दो बजे उठा लिया! कभी रात तीन बजे उठा लिया! तो बायजीद कहता कि मैं जानता हूं कि कब तुम सुन पाओगे! कब! तुम जब बैठे होते हो, तब जरूरी नहीं कि तुम वहां मौजूद भी हो। तुम जब मुझे देखते होते हो, तब जरूरी नहीं कि तुम भीतर भी मुझे ही देख रहे हो। किसी और को देखते होओ! तुम्हारे कान जब मेरी तरफ लगे होते हैं, तब जरूरी नहीं कि तुम मुझे सुनो। तुम न मालूम क्या सुन रहे होओ! मैं उस क्षण की तलाश में होता हूं, जब मैं पाऊं कि हां. ठीक! अब उस जगह तुम हो, जहां मेरी बात तुम तक पहुंच पाएगी। एक तो रास्ता यह है जो बायजीद का है। दूसरा रास्ता कृष्ण का है। युद्ध के मैदान पर इसका तो कोई उपाय नहीं था जो बायजीद ने किया। तो कृष्ण बहुत बार, बहुत बार, वही-वही बात, अलग-अलग ढंग, अलग-अलग मार्ग से कहे चले जाते हैं। इस आशा में कि कहीं से द्वार खुला मिल जाए। बाएं नहीं मिलता हवा को मार्ग, चलो दाएं घूमें। दाएं न मिले, तो और कहीं घूमें। आगे से नहीं मिलता, तो पीछे के द्वार से मिल जाए। 376 Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय7 पांचवां प्रवचन प्रकृति और परमात्मा Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग - 3 > ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये । मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ।। १२ ।। और भी जो सत्व गुण से उत्पन्न होने वाले भाव हैं और जो रजोगुण से तथा तमोगुण से होने वाले भाव हैं, उन सबको तू मेरे से ही होते हैं ऐसा जान, परंतु वास्तव में उनमें मैं और वे मेरे में नहीं हैं। परमात्मा में लेकिन परमात्मा प्रकृति में नहीं प्र है। यह विरोधाभासी, पैराडाक्सिकल सा दिखने वाला वक्तव्य अति गहन है। इसके अर्थ को ठीक से समझ लेना उपयोगी है। कृष्ण कहते हैं, सत्व, रज, तम, तीनों गुणों से बनी जो प्रकृति है, वह मुझमें है। लेकिन मैं उसमें नहीं हूं। ऐसा करें कि एक बड़ा वर्तुल खींचें अपने मन में, एक बड़ा सर्किल । उसमें एक छोटा वर्तुल भी खींचें। एक बड़ा वर्तुल खींचें, और उसके भीतर एक छोटा वर्तुल खींचें, तो छोटा वर्तुल तो बड़े वर्तुल में होगा, लेकिन बड़ा वर्तुल छोटे वर्तुल में नहीं होगा । प्रकृति तो दिखाई पड़ती है कि असीम है, बहुत विराट; ओर-छोर का कुछ पता नहीं चलता; लेकिन परमात्मा के खयाल से प्रकृति ना कुछ है । बहुत छोटा वर्तुल है, बहुत सीमित घटना है। ऐसी अनंत प्रकृतियां परमात्मा में हो सकती हैं, होती हैं; बनती हैं, बिखर जाती हैं। परमात्मा के भीतर ही सब कुछ घटित होता है। इसलिए यह ठीक है कहना, सब कुछ मुझमें है, लेकिन मैं उस सब कुछ में नहीं हूं। विराट क्षुद्र में नहीं होता, क्षुद्र तो विराट में होता ही है । लहर सागर में होती है, तो सागर कह सकता है, सब लहरें मुझमें हैं, लेकिन मैं लहरों में नहीं हूं। क्योंकि लहरें न रहें तो भी सागर रहेगा, लेकिन सागर न रहे तो लहरें न बचेंगी। हम सोच सकते हैं, सागर का होना बिना लहरों के, लेकिन लहरों का होना नहीं सोच सकते बिना सागर के । लहरें सागर में ही उठती हैं, सागर में ही होती हैं, फिर भी इतनी छोटी हैं कि उस सागर में उठकर भी सागर को घेर नहीं पातीं। घेर भी नहीं सकती हैं। इस वक्तव्य को देने के कुछ कारण हैं । और साधक के लिए बहुत अनिवार्य है। कृष्ण जब कहते हैं, यह सारी प्रकृति मुझमें है, फिर भी मैं इस प्रकृति में नहीं हूं, तो दो बातें ध्यान में रख लेने जैसी हैं। एक तो यह कि जो परमात्मा में प्रवेश कर जाए, उसमें प्रकृति होगी। लेकिन जो प्रकृति में ही खड़ा रहे, उसमें परमात्मा नहीं होगा। जैसे कि कृष्ण को भी भूख लगती है, और कृष्ण को भी नींद आती है, और कृष्ण के भी पैर में चोट लगती है, तो दर्द और पीड़ा होती है। कृष्ण की मृत्यु हुई; पैर में तीर लगने से हुई। प्रकृति अपना पूरा काम करती है— कृष्ण में भी, महावीर में भी, बुद्ध में भी, जीसस में भी। जब जीसस को सूली पर लटकाया गया, तो प्रकृति ने पूरा काम किया। हम में भी प्रकृति काम करती है । हम भी खाना खाते हैं, हमारे पैर में भी दर्द होता है, पीड़ा होती है। हमें भी कोई सूली पर लटका दे, तो हम भी मर जाएंगे। लेकिन हमारा सूली पर लटकना और क्राइस्ट के सूली पर लटकने में बुनियादी फर्क होगा। क्योंकि जब | क्राइस्ट से प्रकृति छूट रही होगी, तब क्राइस्ट परमात्मा में प्रवेश कर रहे होंगे। और जब हमसे प्रकृति छूट रही होगी, तो हम कहीं प्रवेश नहीं कर रहे होंगे, सिर्फ प्रकृति छूट रही होगी। इसलिए तो मरते समय हम इतने पीड़ित और परेशान हो जाते हैं। क्योंकि प्रकृति के अतिरिक्त हमने कुछ और जाना नहीं। और जब शरीर छूटता है, तो प्रकृति छूट रही है। हम मरे, हम मिटे | जब क्राइस्ट की प्रकृति छूट रही है, वह छोटा वर्तुल छूट रहा है, तो क्राइस्ट भयभीत नहीं हैं, आनंदित हैं, क्योंकि वे बड़े वर्तुल में प्रवेश कर रहे हैं। लहर मिट रही है, और सागर में प्रवेश हो रहा है। जब हमारी लहर मिटती है, तो सिर्फ लहर मिटती है; सागर का हमें कुछ पता नहीं है। सागर में कोई प्रवेश नहीं होता । जब आपको भूख लगती है, तो आपको भूख लगती है। और | जब कृष्ण को भूख लगती है, तो प्रकृति को भूख लगती है। और जब आपके पैर में पीड़ा होती है, तो आपको पीड़ा होती है। और | जब कृष्ण के पैर में पीड़ा होती है, तो प्रकृति को पीड़ा होती है। कृष्ण तो साक्षी ही होते हैं। जिस व्यक्ति ने परमात्मा को जाना, वह प्रकृति का साक्षी मात्र रह जाता है। वह छोटा वर्तुल उसे दिखाई पड़ता है, लेकिन वह | स्वयं बड़े वर्तुल के साथ एक हो जाता है। लेकिन जिसने परमात्मा को नहीं जाना, उसे तो छोटा वर्तुल ही सब कुछ दिखाई पड़ता है। उसके पार कुछ भी नहीं है। और जब हमारा ध्यान प्रकृति में अतिशय लग जाता है, तो अतिशय लग जाने के कारण ही परमात्मा की तरफ ध्यान जाना मुश्किल हो जाता है। 378 Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकृति और परमात्मा अठारह सौ अस्सी में यूरोप में अल्तामिरा की गुफाएं खोजी गईं और उन गुफाओं की खोज वक्त एक बहुत मजेदार घटना घटी। एक बहुत बड़े जमींदार डान मार्शिलानो की जमीन पर अचानक पहाड़ियों में ये गुफ़ाएं मिल गईं। एक कुत्ता भूल से गुफा के भीतर कूद गया। वर्षा में कुछ मिट्टी गलकर गिर गई; गड्डा हो गया; और कुत्ता उसके अंदर चला गया, फिर निकल न पाया। वहां उसने बहुत शोरगुल मचाया। तब मार्शिलानो के किसान, मजदूर जाकर किसी तरह खोदकर कुत्ते को निकाले । कुत्ता तो निकल आया, साथ में गुफाओं का आविष्कार हो गया। बड़ी गहरी और बड़ी अदभुत गुफाएं थीं। मनुष्य के पूरे इतिहास की दृष्टि उन गुफाओं ने बदल दी । मार्शिलानो को पता चला, तो वह इतिहास का विद्यार्थी था, उसने तत्काल सब इंतजाम किया। विशेषकर वह मनुष्य की हड्डियों का अध्ययन कर रहा था वर्षों से। तो उसने सोचा कि ये गुफाएं न मालूम कितनी पुरानी होंगी, तो हड्डियां, कीमती हड्डियां इसमें मिल सकती हैं, और किसानों ने खबर दी कि बहुत अस्थिपंजर हैं। तो मार्शिलानो ने सर्चलाइट लेकर गुफाओं को खुदवाया और उनमें प्रवेश किया। छः दिन तक रोज घंटों वह सरककर गुफाओं में जाता, एक-एक हड्डी पर नजर रखता । हड्डियां खोजीं उसने बहुत। सातवें दिन उसकी छोटी लड़की ने, जो सात-आठ साल की लड़की थी, उसने कहा, मैं भी अंदर चलना चाहती हूं। वह लड़की को ले गया। आप जानकर हैरान होंगे कि अल्तामिरा की असली गुफाएं उस लड़की ने खोजीं सात साल की । सर्चलाइट लेकर वह जो इतिहासज्ञ पिता था, वह नहीं खोज पाया। बड़ी अदभुत घटना घटी। जब वह लड़की को लेकर गया, तो वह अपना सरककर अपनी हड्डियों की जांच-पड़ताल में लग गया कि जमीन में एक हड्डी भी चूक न जाए; सर्चलाइट पास था। अचानक लड़की चिल्लाई, पिताजी, पिताजी, ऊपर देखिए! छः दिन से वह जा रहा था रोज, लेकिन उसने ऊपर आंख ही नहीं उठाई थी। वह नीचे हड्डियां बीनने में इतना व्यस्त था कि गुफाओं के ऊपर सीलिंग पर क्या है, उसने नजर न डाली थी। सीलिंग पर तो इतने अदभुत चित्र थे, जैसे कल रंगे गए हों। और ठेठ बीस हजार साल पुराने चित्र निकले। अल्तामिरा की गुफाएं सारे जगत में प्रसिद्ध हो गईं उन चित्रों के कारण । इतने अदभुत चित्र थे कि जिसने भी उन्हें बनाया होगा, पिकासो से कम सामर्थ्य का चित्रकार नहीं था। तो सारा इतिहास बदलना पड़ा। क्योंकि खयाल था कि पुराने जमाने में तो किसी आदमी के पास इतनी बड़ी कला नहीं हो सकती। लेकिन पाया यह गया कि वे जो अल्तामिरा की गुफाओं पर जो जानवरों के चित्र हैं, सांड के चित्र हैं, वे इतने कलात्मक हैं और इतने अदभुत हैं कि आज भी कोई चित्रकार उनका मुकाबला नहीं कर सकता । हैरान हुआ मार्शिलानो कि वह छः दिन से रोज सर्चलाइट लेकर आ रहा था, लेकिन सर्चलाइट उसका जमीन पर लगा था। वह हड्डियां खोज रहा था कि कोई हड्डी चूक न जाए। तो ऊपर नजर नहीं गई। यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि हम सब भी जब तक प्रकृति में हड्डियां खोजते रहते हैं...। बड़ा सर्चलाइट हमारे पास है। लेकिन ऊपर सीलिंग की तरफ नहीं उठ पाता, वह परमात्मा की तरफ नहीं | उठ पाता। टू मच आक्युपाइड जमीन पर सरकने में और प्रकृति में खोज करने में । हड्डियों की ही खोज है; कुछ और बहुत खोज नहीं | है | जब आप कामवासना में खोज रहे हैं, तो हड्डियों से ज्यादा कुछ भी नहीं खोज रहे हैं । और जब आप सिंहासनों पर चढ़ने में खोज कर रहे हैं, तब भी हड्डियों से ज्यादा कुछ नहीं खोज रहे हैं। हड्डियों को ही चढ़ा रहे हैं सिंहासनों पर। जब आप धन खोज रहे हैं, तो | सिर्फ हड्डियों की सुरक्षा खोज रहे हैं; और कुछ भी नहीं खोज रहे हैं। जब आप शक्ति खोज रहे हैं, तो हड्डियों के लिए केवल इंतजाम कर रहे हैं सिक्योरिटी का; और कुछ भी नहीं कर रहे हैं। प्रकृति में उलझा हुआ मन ऊपर की तरफ नहीं उठ पाता। उसे नहीं देख पाता वह, जो वृहत वर्तुल है, वह जो ग्रेटर सर्किल है। जिसकी कृष्ण बात कर रहे हैं, मुझमें है प्रकृति, लेकिन मैं प्रकृति में नहीं हूं। उस तरफ नजर नहीं उठ पाती है। तो जो प्रकृति में उलझा है, वह कृष्ण के वचन से ठीक से समझ | ले, क्योंकि इस बात की भ्रांति है कि अगर कृष्ण यह कहते कि मैं प्रकृति में हूं और प्रकृति मुझमें है, तो भी गलत नहीं था। क्योंकि छोटा वर्तुल अगर बड़े वर्तुल में है, तो बड़ा वर्तुल भी किसी न किसी अर्थ में छोटे वर्तुल में है। अगर लहर सागर में है, तो सागर कितने ही क्षुद्रतम अर्थों में, लहर के भीतर है। तर्क किया जा सकता है। क्योंकि यह असंभव है कि बड़ा वर्तुल छोटे वर्तुल में न हो, तो छोटा वर्तुल बड़े वर्तुल में कैसे हो सकेगा ? माना कि पूरा बड़ा वर्तुल छोटे वर्तुल में नहीं हो सकेगा, अंश ही होगा; लेकिन होगा तोही लेकिन कृष्ण उस तर्क को मद्देनजर कर रहे हैं, जानकर । 379 Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 क्योंकि एक बार आदमी को यह पता चल जाए और यह खयाल में आ जाए कि प्रकृति में परमात्मा है और परमात्मा में प्रकृति है, शायद हम प्रकृति से ऊपर नजर उठाने को कभी राजी न हों। कभी राजी न हों। क्योंकि हम कहें कि जब प्रकृति में ही परमात्मा है — खाने-पीने में, कपड़े पहनने में, मकान बनाने में - तो फिर और परमात्मा की खोज की जरूरत क्या है? जब इस शरीर में ही परमात्मा है, तो फिर शरीर ही परमात्मा हो जाएगा। हम तत्काल इस बात को अपने मतलब की तरफ झुका लेंगे। और आदमी बड़ा कुशल है, वह सब चीजों के अर्थ अपनी तरफ झुका लेता है। क्योंकि दो ही रास्ते हैं। या तो अर्थ की तरफ आप झुकिए, या तो सत्य की तरफ आप झुकिए; या सत्य को अपनी तरफ झुका लीजिए। अन्यथा बेचैनी अनुभव होगी। जिस दिन कोई जानेगा बड़े वर्तुल को, परमात्मा को, उस दिन वह शायद यह भी जान ही लेगा कि प्रकृति भी उसमें ही है, वह भी प्रकृति में है। लेकिन हमसे यह कहना, यह सत्य कहना, खतरनाक है । कहना इसलिए खतरनाक है कि अगर हमें यह बात पक्की हो जाए कि हम जो कर रहे हैं, उसमें भी परमात्मा है, तो फिर शायद परमात्मा की तरफ नजर उठाने का खयाल ही मिट जाए। जरूरत भी नहीं रह जाती। इसलिए कृष्ण बहुत सोच-विचारकर कहते हैं, प्रकृति मुझमें है अर्जुन, लेकिन मैं प्रकृति में नहीं हूं। तो तू प्रकृति में कितना ही खोजता रहे, मुझे न पा सकेगा। हां, मुझे पा ले, तो प्रकृति तो पाई यह भी बहुत मजे की बात है। कोई आदमी कितना ही धन खोजे, धनी नहीं हो पाता। लेकिन कोई आदमी परमात्मा को खोज ले, तो दरिद्रता भी धन हो जाती है। जीसस का वचन है, सीक यी फर्स्ट दि किंगडम आफ गॉड, देन आल एल्स विल बी एडेड अनटु यू । खोज लो पहले प्रभु के राज्य को, और फिर सब - सब - साथ में मिल जाएगा। लेकिन हम सबको खोजने चलते हैं, प्रभु को छोड़कर। तब प्रभु तो मिलता ही नहीं, सबमें से भी कुछ नहीं मिलता है। सिर्फ दौड़-धूप और आखिर में राख हाथ में लगती है— सपनों की राख, आशाओं की राख । यश कोई कितना ही खोजे, यश हाथ लगेगा नहीं। और कोई परमात्मा को खोज ले, तो यशस्वी हो जाता है, तत्क्षण | कोई कितना ही प्रेम खोजे, प्रेम मिलेगा नहीं। और कोई प्रार्थना को खोज ले, तो जीवन प्रेम की सुगंध से भर जाता है; ऐसी सुगंध से, जो फिर कभी चुकती नहीं । हम कुछ भी खोजें प्रकृति में, हमारे हाथ में कुछ लगेगा नहीं; मिट्टी - पत्थर ही लगेंगे। यद्यपि प्रत्येक मिट्टी- पत्थर के भीतर परमात्मा छिपा है। लेकिन जो प्रकृति में खोजने चला है, वह परमात्मा के प्रति अंधा होता है। वह नैरोड, उसकी कांशसनेस तो हड्डियों में अटकी रहती है, नीचे। वह ऊपर की तरफ नहीं उठ पाता है। कितनी निकट थीं अल्तामिरा की वे चित्रावलियां ! जरा-सा तो सर्चलाइट ऊपर उठाना था। सर्चलाइट हाथ में था । जरा तो आंख ऊपर करनी थी। लेकिन जो नीचे खोजने में लगा है, उसकी आंख ऊपर नहीं उठ पाती। इसलिए कृष्ण कहते हैं, सत्व, रज, तम, सब मुझमें हैं अर्जुन, लेकिन मैं उनमें नहीं हूं। बड़ी मजेदार बात है। अगर कोई आदमी परमात्मा के बिना सात्विक भी हो जाए, तो भी धार्मिक नहीं हो सकता। अगर कोई व्यक्ति परमात्मा के बिना सात्विक भी हो जाए, परम सात्विक हो जाए, तो भी धार्मिक नहीं हो सकता। और कोई व्यक्ति कितना ही तामसिक और कितना ही राजसिक हो, अगर परमात्मा में प्रवेश कर जाए, तो तत्काल सात्विक हो जाता है। अगर आदमी अपने ही बल से सात्विक हो जाए, तो सिवाय अहंकार के और कुछ निर्मित नहीं होता । पायस, पवित्र अहंकार निर्मित होता है। और कोई व्यक्ति कितना ही बुरा हो, दीन हो, हीन हो, पापी हो, और परमात्मा में छलांग लगा जाए, तो तत्काल, जैसे आग में कचरा जल जाए, ऐसे परमात्मा की आग में सब पाप जाते हैं। और परमात्मा में जब कुछ जलता है, तो अहंकार नहीं बचता, | वह भी जल जाता है। और आदमी जब कुछ भी जलाए, कुछ भी | मिटाए, कुछ भी बनाए, एक चीज पीछे बची रह जाती है- मैं पीछे बचा रह जाता है। इसलिए सात्विक से सात्विक व्यक्ति भी एक सूक्ष्म अहंकार से पीड़ित रहता है। और परमात्मा तभी उपलब्ध होता है, जब अहंकार की पतली से पतली, बारीक से बारीक दीवाल भी बीच में न रह जाए। और कोई बाधा नहीं है। कृष्ण का भी मतलब वही है, जो क्राइस्ट का है, कि पहले तू परमात्मा को खोज। 380 अर्जुन क्या कह रहा है? अर्जुन यह कह रहा है कि मुझे इस युद्ध से जाने दो। यह तामसिक, राजसिक मालूम पड़ता है। मैं सात्विक Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ <प्रकृति और परमात्मा > होना चाहता हूं। मुझे हट जाने दो। यह सब बात बड़ी गड़बड़ | वह अपने साथ भी चोरी कर जाएगा। मालूम पड़ती है। यह लोगों को मारना-यश के लिए, धन के ___ एक आदमी क्रोधी है और वह कह रहा है, मैं क्रोध नहीं करूंगा। लिए, राज्य के लिए क्षुद्र मालूम पड़ता है। यह मेरे सात्विक मन | | लेकिन उसे पता नहीं है कि जो यह कह रहा है, नहीं करूंगा, यह को प्रीतिकर नहीं लगता; यह श्रेयस्कर नहीं है। मुझे जाने दो कृष्ण, | | भी उसका क्रोधी स्वभाव है, जो कसम ले रहा है, जो संकल्प बांध मुझे हट जाने दो, इस युद्ध से। इससे तो बेहतर भीख मांगकर जी | रहा है कि मैं क्रोध नहीं करूंगा। सौ में सौ ही मौके इस बात के हैं लेना होगा। इससे तो बेहतर भिखारी हो जाना होगा। इससे तो कि यह क्रोध ही बोल रहा हो कि मैं क्रोध नहीं करूंगा। अब वह बेहतर किसी वृक्ष के नीचे, किसी अरण्य में बैठ जाऊंगा, प्रार्थना | दिक्कत में पड़ेगा। में डूब जाऊंगा। यह सब मैं नहीं करना चाहता हूं। यह बड़ा | जैसे कभी-कभी कुत्ते को आपने देखा हो कि अपनी पूंछ पकड़ने तामसिक मालूम पड़ता है। की दिक्कत में पड़ जाता है। जोर से छलांग लगाता है। पूंछ कृष्ण कहते हैं, सत्व, रज, तम, सब मुझमें हैं, लेकिन मैं उनमें बिलकुल पास मालूम पड़ती है। जरा सा मुंह पास पहुंच जाए, तो नहीं हूं। इसलिए अगर तू सात्विक भी हो जाए मेरे बिना, मुझे | पूंछ पकड़ में आ जाए। लेकिन बेचारे कुत्ते को पता नहीं; कुत्ते को समर्पित हुए बिना, तो तेरे सत्व से भी कुछ हल न होगा। अगर तू क्या, हमारे तथाकथित तपस्वियों, नैतिक साधकों को भी पता नहीं, अपने ही हाथ से स्वर्ग में भी पहुंच जाए, तो तेरा अहंकार साथ होगा तो कुत्ते का तो कोई कसूर नहीं है। और सब स्वर्ग नर्क हो जाएंगे। क्योंकि असली नर्क तेरे पीछे ही जब पूंछ बिलकुल करीब दिखाई पड़ती है, तो कुत्ता सोचता है चलता रहेगा; तेरे साथ ही चलता रहेगा। तू पहले मुझे पा ले और कि जरा ही मुंह बढ़ा लूं, तो पूंछ पकड़ में आ जाए। मुंह बढ़ाता है, फिर तू बात करना सत्व, रज और तम की; फिर तू बात करना लेकिन तब तक पूंछ हट जाती है। क्योंकि वह मुंह से ही पीछे जुड़ी प्रकृति की। पहले तू मुझे पा ले। | है, यह उसे पता नहीं है। जब छूटती है, तो और जोर से कूदता है। - धर्म की और नीति की यही बुनियादी दूरी है। नीति कहती है, सोचता है कि शायद थोड़ा कम कूदा, इसलिए पूंछ पकड़ में नहीं सात्विक हो जाओ। धर्म कहता है, धार्मिक हो जाओ। नीति कहती | | आ सकी। पर जितने जोर से कूदता है, पूंछ भी उतने ही जोर से है, पहले अपने कर्म बदलो, आचरण बदलो। धर्म कहता है, पहले | कूदती है। अब एक विसियस सर्किल, एक दुष्टचक्र पैदा होता है, प्रभु में प्रवेश कर जाओ। क्योंकि तुम क्या आचरण बदलोगे और | जिसमें कुत्ता दिक्कत में पड़ेगा, थकेगा, परेशान होगा; कभी पूंछ तुम्हारा बदला हुआ आचरण तुम्हारा ही बदला हुआ होगा। वह | | पकड़ में आएगी नहीं। तुमसे बड़ा नहीं हो सकता। तुम क्या सदाचरण करोगे? वह तुमसे जब कोई हिंसक आदमी कहता है कि अब मैं अहिंसक होने की ही निकलेगा। वह तुमसे महत्वपूर्ण नहीं हो सकता। जैसे कोई कोशिश करूंगा, तब वह आदमी कुत्ते के तर्क पर चल रहा है। आदमी अपने जूते के बंद पकड़कर खुद को नहीं उठा सकता, ऐसे | | नहीं; आप अपने में बदलाहट न ला सकेंगे। क्योंकि लाएगा कौन ही कोई आदमी अपने ही द्वारा सदाचरण को उपलब्ध नहीं हो | बदलाहट? आप ही! सकता। आप ही तो सदाचरण करेंगे-आप ही। यह थोडा समझने - इसलिए कृष्ण कहते हैं, या क्राइस्ट कहते हैं, कि परमात्मा की जैसा है। | तरफ पहले नजर उठा लो, फिर बदलाहट आ जाएगी। क्योंकि तब एक आदमी चोर है। और वह चोर कहता है कि मैं कोशिश कर | | तुम परमात्मा के हाथ में होओगे, और उसके हाथ में पड़ते ही रहा हूं कि अचोर हो जाऊं, चोरी छोड़ दूं। अब चोर ही तो चोरी | बदलाहट शुरू हो जाती है। उसकी तरफ आंख उठाते ही बदलाहट छोड़ने की कोशिश करेगा! चोर ही कोशिश करेगा चोरी छोड़ने शुरू हो जाती है, क्योंकि आप दूसरे ही आदमी हो जाते हैं। उसकी की। यह जूते के बंद पकड़कर अपने को उठाने से भी कठिन काम तरफ नजर पड़ते ही सब कुछ बदल जाता है। क्योंकि जैसे ही विराट है। यह होने वाला नहीं है। क्योंकि अगर चोर इस योग्य होता कि दिखाई पड़ता है, वैसे ही हमारी क्षुद्रताएं गिर जाती हैं, कि हम भी चोरी उससे न होती होती, तब तो बात ही और थी, लेकिन यह बात कैसे पागल थे! हम खोज क्या रहे थे? हम पाने की कोशिश क्या नहीं है। कर रहे थे? चोर चोर है। और कसम खा रहा है कि मैं चोरी नहीं करूंगा। बुद्ध के पास एक स्त्री सुबह-सुबह आई है। उसका लड़का मर 381 Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 - गया है और बुद्ध गांव में रुके हैं। तो वह छाती पीटती हुई आई और बुद्ध ने कहा, दिनभर में तेरी इतनी बड़ी बदलाहट। वह तो सांझ उसने कहा कि मैं तुम्हारी बातें तभी सुनूंगी, जब तुम मेरे लड़के को संन्यासिनी हो गई। उसने बुद्ध से उसी सांझ दीक्षा ली। जिंदा कर दो। लोग कहते हैं, तम भगवान हो। तो भगवान ने तो किस बात से यह बदलाहट हई? एक तथ्य की तरफ दष्टि इतना बड़ा जगत बनाया, तुम मेरे इस लड़के को ही जिंदा कर दो। उठी-एक बड़े तथ्य की तरफ–कि मृत्यु जीवन का हिस्सा है। बुद्ध के संन्यासी, भिक्षु मुश्किल में पड़ गए। अब क्या होगा! | जिस दिन परमात्मा की तरफ दृष्टि उठेगी, कि प्रकृति परमात्मा बुद्ध ने कहा, कर दूंगा सांझ तक। एक छोटा-सा काम तू पहले मेरे | का हिस्सा है; जिस दिन ऊपर की तरफ देखेंगे, उस विराट की लिए कर ला। गांव में जा—मैं इसे जिंदा करने की दवाई बुला रहा | | तरफ, जिसमें सारी प्रकृति समाई हुई है; उस दिन आप दूसरे आदमी हूं और किसी भी घर से सरसों के बीज ले आ, उस घर से, | हो जाएंगे। उस दिन चोरी असंभव होगी। उस दिन क्रोध असंभव जिसमें कोई कभी मरा न हो। जा, सांझ तक लेकर आ जाना। बस, होगा। उस दिन बेईमानी मुश्किल हो जाएगी। उस दिन बेईमानी तू सरसों के बीज ले आना उस घर से जिसमें कोई कभी न मरा हो; ऐसी ही होगी, जैसे कोई आदमी अपने एक खीसे से रुपए चुराकर मैं इसे सांझ जिंदा कर दूंगा। दूसरे खीसे में रख ले। बस! ऐसे कुछ लोग हैं कि अपने ही एक . औरत खुशी से भागी पागल होकर, जरूर किसी न किसी के घर खीसे से चुराकर अपने ही दूसरे खीसे में रख लेते हैं। सभी लोग में सरसों के बीज मिल जाएंगे, और उसका बेटा जिंदा हो जाएगा। ऐसे हैं, अगर सत्य दिखाई पड़े तो। क्योंकि आपका खीसा भी सिर्फ लेकिन एक-एक घर के द्वार पर उसने दस्तक दी। जिस घर में भी थोड़ी दूर, मेरा ही खीसा है। गई, वहीं लोगों ने कहा, सरसों के बीज तो हैं। अभी-अभी फसल - जिस दिन परमात्मा दिखाई पड़े, उस दिन चोरी असंभव है, कटी है। तो बुद्ध ने कोई बड़ी कठिन दवाई नहीं मांगी है। लेकिन | क्योंकि सबमें ही परमात्मा दिखाई पड़ेगा। अपनी ही चोरी कौन हमारे घर के सरसों के बीज काम न पड़ेंगे। हमारे घर में तो बहत करता है? वह तो चोरी हम करते इसलिए हैं कि दूसरा दुसरा है। लोग मरे हैं। और जिस दिन परमात्मा दिखाई पड़े, उस दिन सब मालकियत का सांझ तक एक-एक घर छान डाला। और सांझ तक हर घर पर खयाल खो जाता है। क्योंकि जब असली मालिक का पता चल यही बात सुनकर कि हर घर में कोई मरा है, और मृत्यु जीवन का | गया, तो हमें पता चल जाता है कि हम मालिक नहीं हैं, और हम नियम है, वह स्त्री सुबह रोती हुई आई थी, सांझ हंसती हुई आई। मालिक नहीं हो सकते। जब मालकियत ही नहीं हो सकती, तो क्या बद्ध ने कहा. ले आई सरसों के बीज ? उस स्त्री ने कहा, सरसों चोरी? क्योंकि चोरी तो मालकियत की व्यवस्था है, किसी तरह के बीज तो नहीं लाई, लेकिन बड़ी बुद्धिमत्ता लेकर आई हूं। बच्चे मालकियत कायम करने की चेष्टा है। को लौटा दें। मैं अपनी प्रार्थना वापस लेती हूं। उसे जिंदा करने की कृष्ण कहते हैं, मुझमें तो सारी प्रकृति है, लेकिन मैं प्रकृति में कोई जरूरत नहीं। बुद्ध ने कहा, इतनी जल्दी कैसे तू बदल गई? नहीं हूं। तू मुझे खोज ले, तो पूरी प्रकृति तुझे मिल जाए। और तूने उस स्त्री ने कहा कि जिस तथ्य की तरफ मेरी कभी आंख ही न प्रकृति खोजी, तो तू मुझे न पा सकेगा। इसलिए तू सत्व गुण की उठी थी, उस तथ्य का दर्शन होते ही सब बदल गया। जब सभी बात मत कर। तू यह तम और रज की निंदा मत कर। येत मरते हैं, और जब सभी को मरना है, तो मेरे बेटे के साथ भी हैं। पर तू मेरी बात कर; तू मेरी शरण आ। टुकड़ों की बात मत कर; अपवाद कैसे हो सकता है! नहीं; अब मैं दुखी नहीं हूं। और अब पूरे की बात कर। खंडों की बात मत कर; पूर्ण की बात कर। मैं लड़के को जिलाने की प्रार्थना वापस लेने आई हूं। और आपसे खंडों में पूर्ण है, लेकिन पूर्ण में खंड नहीं है। यह आध्यात्मिक यह भी प्रार्थना करने आई हूं कि आज से मैं भी समझिए कि मर गई, गणित का एक कीमती सूत्र है। कहां से शुरू करनी है यात्रा, उसे क्योंकि मर ही जाऊंगी। मरने के पहले जीवन को जानने की कोई स्मरण दिलाने के लिए कृष्ण ने ऐसा कहा है। . विधि हो, तो मुझे बताएं। अब सदा जीने की कोई आकांक्षा नहीं है, एक छोटी-सी घटना मुझे याद आती है। सुना है मैंने कि क्योंकि मृत्यु तथ्य है; इसलिए अब मृत्यु का कोई भय भी नहीं है। कनफ्यूसियस के जमाने में चीन में दो चीनियों ने आमने-सामने लेकिन जब तक जी रही हूं, तब तक जीवन को जानने की कोई विधि दुकान खोली, होटल। एक का नाम था यिन और दूसरे का नाम था हो, तो मुझे बताएं। यांग: उन दोनों ने दुकानें खोलीं। दोनों की दकानें अच्छी चलने Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < प्रकृति और परमात्मा > लगी, बहुत जोर से चलने लगीं। धन इकट्ठा होने लगा, तिजोड़ी | कि ठीक! काफी लोग जा रहे हैं अपनी दुकान में। वह दूसरे की भरने लगी। लेकिन दोनों का दुख भी बड़ा होने लगा, जैसा कि | दुकान अपनी हो गई अब। अक्सर होता है। सफलता के साथ न मालूम कैसी गहरी उदासी जिस दिन कोई परमात्मा को झांक लेता है, उस दिन सब दुकानें आने लगती है। क्योंकि आप अकेले ही सफल नहीं होते, दूसरा भी | | अपनी हो जाती हैं, सब कुछ अपना हो जाता है। उस दिन भीतर की सफल हो रहा होता है। प्रफुल्लता का कोई अंत नहीं है। उस दिन फूल खिलते हैं भीतर के। दोनों परेशान हो गए। दोनों की दुकान अच्छी चलती है। सहस्र पंखुड़ियों वाला फूल उस दिन खिलता है भीतर का, क्योंकि भीड़-भड़क्का होता है। ग्राहक काफी आते हैं। लेकिन दोनों उस दिन हम परम आनंद में विराजमान हो जाते हैं। सब अपने हैं। परेशान हो गए। दोनों का हृदय-चाप बढ़ गया। दोनों की नींद हराम | सब अपना है। सारा विराट अपना है। हो गई। अनिद्रा पकड़ गई। दोनों चिकित्सकों का चक्कर लगाने । लेकिन जो प्रकृति में खोजने जाएगा, वह न खोज पाएगा इसे। लगे, लेकिन कोई रास्ता न सूझे। धन बढ़ता गया और बेचैनी बढ़ती | इसे तो परमात्मा में कोई खोजने जाएगा, तो प्रकृति में भी पा लेगा। चली गई। बेचैनी यह थी कि दोनों अपने-अपने काउंटर पर बैठकर टेनिसन ने कहा है, एक वृक्ष के पास से निकलते हुए, एक देखते थे कि दूसरे की दुकान में कितने ग्राहक जा रहे हैं, उनकी दीवाल के पास से निकलते हुए, जिसमें एक छोटा-सा घास का गिनती करते थे। रात परेशान होते थे कि इतने ग्राहक चूक गए; | फूल खिला है; निकलते वक्त उसने कहा है कि अगर मैं इस अपने पास भी आ सकते थे। छोटे-से फूल के राज को समझ लूं, तो मुझे सारी दुनिया का राज चिकित्सकों ने कहा कि हम तुम्हारा इलाज न कर पाएंगे, क्योंकि | | समझ में आ जाए। यह बीमारी शारीरिक नहीं है। तुम कनफ्यूसियस के पास चले लेकिन अगर वह कृष्ण से पूछे, तो कृष्ण कहेंगे, तू कभी इस जाओ। उन्होंने कहा, कनफ्यूसियस इसमें क्या करेगा? वह उपदेश फूल के राज को न समझ पाएगा। अगर तुझे सारी दुनिया का राज देगा। उपदेश से कुछ होने वाला नहीं है। सवाल असल यह है कि | समझ में आ जाए, तो इस फूल का राज समझ में आ सकता है। दूसरे की दुकान पर ग्राहक बहुत जा रहे हैं, और उन्हें हम देखते हैं। । धर्म की दृष्टि पूर्ण से नीचे की तरफ यात्रा करती है। अधर्म की आंख बंद कर नहीं सकते हैं। सामने ही दुकान है। छाती पर चोट | दृष्टि खंड से ऊपर की तरफ यात्रा करती है। धर्म अवतरण है पूर्ण लगती है। हर बार एक आदमी भीतर प्रवेश करता है, फिर छाती | से नीचे की ओर। और हमारी सब सोच-समझ, हमारी तथाकथित पर चोट लगती है। नींद न जाएगी, तो होगा क्या! सांसारिक समझ, नीचे से ऊपर की तरफ चढ़ाव है-एक-एक फिर भी, चिकित्सकों ने कहा, तुम कनफ्यूसियस के पास कदम, एक-एक सीढ़ी। जाओ। वह आदमी होशियार है, और वह आदमी की गहरी ध्यान रहे, पर्वत से उतरना सदा आसान है; पर्वत पर चढ़ना बीमारियों को जानता है। बहुत कठिन है। सबसे बड़ी कठिनाई तो यही होती है पर्वत पर वे दोनों गए। कनफ्यूसियस ने तरकीब बताई और वह काम कर चढ़ने में कि जिस कदम पर आप खड़े होते हैं, वहां आपने जो गई और दोनों स्वस्थ हो गए। बड़ी मजेदार तरकीब थी। शायद ही | | इकट्ठा कर लिया होता है, वही अगले कदम उठाने में बाधा बनता इस जमीन पर किसी और होशियार आदमी ने ऐसी तरकीब कभी है। और हर कदम पर आप कुछ इकट्ठा करते चले जाते हैं। यश, बताई हो। धन, मान, सम्मान, मित्र, प्रियजन इकट्ठा करते हैं हर कदम पर। कनफ्यूसियस ने कहा, पागलो। बड़ा सरल-सा इलाज है। फिर हर अगले कदम पर यही फांसी बन जाते हैं; यही बोझ की तरह दुकानें चलने दो, तुम एक-दूसरे के काउंटर पर बैठने लगो। यिन चारों तरफ लटक जाते हैं। ये कहते हैं, कहां जाते हो? हमें छोड़कर यांग के काउंटर पर बैठे, यांग यिन के काउंटर पर बैठे, तब तुम कहां जाते हो? ये सब तिजोड़ियां छाती से अटक जाती हैं। दोनों का चित्त बड़ा प्रसन्न होगा। दूसरे की दुकान में जो घुस रहे हैं, ऊपर से नीचे की तरफ उतरना बड़ा ही सुगम है, जैसे सूरज की वे अपनी ही दुकान में जा रहे हैं! तुम ऐसा कर लो। | किरण उतरती है। नीचे से ऊपर की तरफ जाना बहुत कठिन है। और कहते हैं, उन दोनों ने ऐसा कर लिया और उस दिन से कृष्ण यह कह रहे हैं कि प्रकृति की तरफ अगर तूने ध्यान दिया, उनकी सब बीमारियां समाप्त हो गईं। वे दिनभर बैठे मजा लेते रहते तो तू मुझ तक न आ पाएगा। यद्यपि प्रकृति मुझमें है, फिर भी तू | 383| Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 मुझ तक न आ पाएगा, क्योंकि मैं छिपा हूं। और जो तुझे दिखाई पड़ेगा, वह मैं नहीं हूं; जो नहीं दिखाई पड़ेगा, वह मैं हूं। , तू मुझे देख ले, अदृश्य को; जब तू अदृश्य को देख लेगा, तो दृश्य में देख लेना तो बहुत सरल है। जब कोई आदमी ध्वनिरहित ध्वनि को सुन ले, तो फिर ध्वनि को सुनना कठिन नहीं है । और जब कोई शब्दरहित शब्द को जान ले, तो फिर शब्दों को पहचानना कठिन नहीं है । और जब कोई विराट को देख ले, तो क्षुद्र को देखने में क्या अड़चन है ! इसलिए कृष्ण का तर्क, या कृष्ण की पद्धति पूर्ण से शुरू करने की है। समस्त धर्म की पद्धति पूर्ण से शुरू करने की है । समस्त विज्ञान की पद्धति खंड से, टुकड़े से शुरू करने की है, फ्राम दि पार्ट | और धर्म की पद्धति, फ्राम दि होल। वही विज्ञान और धर्म की पद्धतियों का बुनियादी भेद है। विज्ञान शुरू करता है एटम से, अणु से । और अणु से छोटी चीज मिले, तो उससे । और भी छोटी चीज मिल जाए, तो उससे । जितनी क्षुद्र मिल जाए, विज्ञान उससे शुरू करेगा। क्योंकि जितनी क्षुद्र हो, आदमी अपने हाथ में उसे उतनी ही आसानी से ले सकता है । जितनी क्षुद्र हो, उतना ठीक से विश्लेषण हो सकता है। जितनी क्षुद्र हो, प्रयोगशाला में प्रयोग हो सकता है । जितनी क्षुद्र हो, आदमी उसका मालिक हो सकता है। और धर्म शुरू करता है विराट से । निश्चित ही फर्क पड़ेगा। विराट को आप अपने हाथ में नहीं ले सकते। अगर विराट को जानना है, तो आपको स्वयं ही विराट के हाथों में गिर जाना होगा। क्षुद्र को आप अपने हाथ में ले सकते हैं। प्रयोगशाला की परखनली में जांच सकते हैं। काट-पीट कर सकते हैं। क्षुद्र के आप मालिक हो सकते हैं। लेकिन विराट के मालिक आप नहीं हो सकते हैं। विराट को ही आपको अपना मालिक बना लेना होगा । इसलिए पूर्ण से जब धर्म शुरू होता है, तो समर्पण उसकी विधि हो जाती है। और चूंकि विज्ञान क्षुद्र से शुरू होता है, इसलिए संघर्ष उसकी विधि होती है। इसलिए विज्ञान सोचता है इन टर्म्स आफ कांकरिंग, जीतने की भाषा में। और धर्म सोचता है हारने की भाषा में, आदमी कैसे हार जाए परमात्मा के चरणों में। इसलिए कृष्ण कहते हैं कि मैं तो छिपा हूं इस सब क्षुद्र में भी, लेकिन तू मुझसे शुरू कर । त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत् । मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ।। १३ । । गुणों के कार्यरूप सात्विक, राजस और तामस, इन तीनों प्रकार के भावों से यह सब संसार मोहित हो रहा है, इसलिए इन तीनों गुणों से परे मुझ अविनाशी को तत्व से नहीं जानता । के में सारे ही प्र होगे मोह के, अलग-अलग बहाने होंगे । बस, बहाने ही अलग-अलग होते हैं, मोह का परिणाम एक ही | होता है। बड़ा क्रांतिकारी सूत्र है! सत्व, रज, तम, तीनों से ही जो मोहित हैं, वे मेरे तत्व को न जान पाएंगे, क्योंकि मैं बियांड हूं, मैं पार हूं तीनों के। इसको समझना पड़ेगा। क्योंकि हमें लगता है, चोर नहीं जान पाएगा, बेईमान नहीं जान पाएगा; लेकिन हमें लगता है, सज्जन तो जान लेगा! सज्जन तो सत्व से मोहित है। हम कहते हैं, वह आदमी नहीं जान पाएगा, जो सिर्फ धन कमा रहा है। वह आदमी तो जान | लेगा, जो जाकर मरीजों की सेवा कर रहा है ! हम कहते हैं, वह आदमी भला न जान पाए, जो आदमी सिर्फ राजनीति की सीढ़ियां | चढ़ रहा है। लेकिन वह आदमी तो जान लेगा, जो दीन-दुखियों के पैर दाब रहा है। कृष्ण कहते हैं, सत्व, रज, तम, तीनों ही वह जो बुरा दिखाई | पड़ता है, वह तो मोहित है ही । वह जो भला दिखाई पड़ता है, वह भी मेरी ही प्रकृति के सत्व गुण से हिप्नोटाइज्ड है, वह भी मोहित है। यह बड़े मजे का है, और कठिन है थोड़ा; और थोड़ा जटिल है जानना | 384 समझिए कि आप अपनी दुकान पर हैं, और आज अगर ग्राहक न आए, तो आप दुखी होते हैं। लेकिन आपको पता है कि किसी सेवक को अगर कोई सेवा करवाने वाला न मिले, तो आपसे कम दुख नहीं होता। इतना ही दुख हो जाता है। फर्क क्या हुआ ? माना कि वह काम अच्छा कर रहा था, लेकिन परिणाम तो एक ही है। अगर समाज इतना सुखद हो जाए, इतना मंगल को उपलब्ध हो जाए कि किसी व्यक्ति को समाज में समाज-सुधार के काम करने Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकृति और परमात्मा > का मौका न मिले, तो आप जानते हैं, समाज-सुधारकों की कैसी हालत हो जाए! बड़ी मुश्किल में पड़ जाएं, बड़ी बेचैनी में। वह बेचैनी ठीक वैसी ही होगी, जैसे अचानक धंधा डूब जाए; ग्राहक न आएं; फैशन बदल जाए; आपकी दुकान की चीजें बिकनी बंद । वह पीड़ा उतनी ही होगी। सत्व भी, अच्छा काम भी बिना परमात्मा को समर्पित हुए सिर्फ एक मोह है, और उससे भी अहंकार ही निर्मित होता है। इसलिए जिनको हम सात्विक लोग कहते हैं, वे भी अपने ढंग से अपनी अस्मिता को मजबूत करने में लगे रहते हैं। के परमात्मा के अतिरिक्त — वह जो पार है, वह जो परा है प्रकृति ऊपर, उसके अतिरिक्त - सभी सम्मोहन है। सभी मोह के आधार बन जाते हैं; सभी मन को पकड़ लेते हैं, और सभी मन को मूर्च्छित कर देते हैं। कृष्ण को यह कहने की जरूरत क्या है अर्जुन से ? अर्जुन सत्व से मोहित हो रहा है, इसलिए कहने की जरूरत है। बुद्ध के पास एक आदमी आया है एक सुबह और बुद्ध के चरणों में सिर रखकर उसने कहा, मुझे कुछ बताएं कि मैं दुनिया का कल्याण कर सकूं। बुद्ध ने उसकी तरफ नीचे देखा और कहा तू अपना ही कर ले, तो काफी है। तू दुनिया को क्यों मुसीबत में | डालना चाहता है! तू अपना ही कर ले तो काफी है। तेरा कल्याण हो चुका ? उसने कहा कि मैं कोई स्वार्थी आदमी नहीं हूं। मुझे मेरी फिक्र ही नहीं है, मुझे तो दुनिया की फिक्र है। बुद्ध ने कहा, जिसका खुद का दीया बुझा हो, वह किसके दीए जला सकेगा ! 'मगर वह आदमी कह रहा है, मैं स्वार्थी नहीं हूं, मुझे दुनिया की फिक्र है। लेकिन यह आदमी अगर कल्याण करने जाए, तो किसी के जले दीए और बुझा देगा। इससे कल्याण हो नहीं सकता। परमात्मा के सिवाय कल्याण हो नहीं सकता। आदमी कैसे कल्याण करेगा? आदमी होना ही एक बीमारी है, एक डिसीज । और वह कहता है कि नहीं, मेरी उत्सुकता मुझमें, अपने आपमें नहीं है। मेरी उत्सुकता तो यह है कि दूसरों का भला कैसे हो ! बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को कहा कि देखो, यह एक पवित्र अहंकारी है। इसको यह भी अहंकार है कि यह स्वार्थी नहीं है। तो बुद्ध ने कहा, पहले तू अपना स्वार्थ तो साध ले । तू पहले स्वयं को तो जान ले। उसने कहा कि इन सब बातों में मुझे मत डालें। दुनिया में बड़ी तकलीफ चल रही है और मुझे सब बदलना है और सब ठीक कर देना है। ये ठीक करने वाले हजारों साल से ठीक कर रहे हैं, दुनिया की तकलीफ बढ़ती जाती है, कम नहीं होती। अब तो ऐसा लगने लगा है कि किसी तरह समाज का समाज-सुधारकों से छुटकारा हो जाए, तो थोड़ी राहत मिले। असल में दूसरे को बदलने और ठीक करने का भी एक रस है । और सारी दुनिया को ठीक कर देने में भी एक बड़ी मौज है, बड़ा रस है । और हरेक इस खयाल से जीता है कि मैं सारी दुनिया को | ठीक कर दूंगा। | खुद को ठीक करना बहुत मुश्किल पाकर लोग दुनिया को ठीक करने निकल जाते हैं! खुद से बचने के लिए लोग हजार उपाय खोज लेते हैं। खुद की बीमारियां दिखाई न पड़ें, खुद की परेशानियां दिखाई न पड़ें, खुद की परेशानियों से पलायन हो जाए, तो दूसरे की परेशानियों में लग जाते हैं । भुलाने की तरकीबें हैं; लेकिन सात्विक हैं बातें, इसलिए मजा भी है। 385 चोर को तो आप कह भी दें कि तू बुरा काम कर रहा है, नष्ट कर रहा है अपने को । साधु को कैसे कहिएगा? वह तो सेवा कर रहा है। वह तो कोई बुरा काम कर नहीं रहा है। वह तो स्कूल खोल रहा है; धर्मशाला बना रहा है; अस्पताल बना रहा है। कोई बुरा काम नहीं कर रहा है। कोढ़ियों की मालिश कर रहा है; कोई बुरा काम नहीं कर रहा है। लेकिन कृष्ण कहते हैं, सत्व, रज, तम, तीनों चाहे कोई ऐसा कृत्य, जो बुरा हो; और चाहे कोई ऐसा कृत्य, जो भला हो; और भले |और बुरे की तरफ दौड़ने की जो प्रवृत्ति है, वे तीनों ही प्रकृति हैं। और अर्जुन, तू ठीक से समझ ले कि जब तक इन तीन से कोई मोहित | हुआ जी रहा है, तब तक वह मुझ पार को, वह जो अतीत है, वह जो अतिक्रमण कर जाता है, उसको उपलब्ध नहीं हो सकेगा। इसका अर्थ ? इसकी निष्पत्ति ? इसकी निष्पत्ति यह हुई कि परमात्मा को पाने के लिए बुरे के तो ऊपर उठना ही पड़ता है, भले के भी ऊपर उठ जाना पड़ता है। परमात्मा को पाने के लिए असदवृत्तियों को तो छोड़ ही देना पड़ता है, सदवृत्तियों को भी छोड़ देना पड़ता है। असल में उस परम स्वतंत्रता के लिए लोहे की जंजीरें तो तोड़नी ही पड़ती हैं, सोने की जंजीरें भी तोड़ देनी पड़ती हैं। और ध्यान रहे, लोहे की जंजीरों से अक्सर ही सोने की जंजीरें | ज्यादा जंजीरें सिद्ध होती हैं। क्योंकि लोहे की जंजीर को तो तोड़ने का मन भी होता है; सोने की जंजीर को बचाने का भी मन होता है। Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < गीता दर्शन भाग-3 - सोने की जंजीर आभूषण मालूम पड़ने लगती है। इसलिए बुराई से | खिलाफ एक संघर्ष होती है, एक सतत संघर्ष। असाधु भीतर मौजूद तो कोई आदमी उठने की तैयारी दिखलाता है, लेकिन भलाई से तो रहता है। वह तमस भीतर मौजूद रहता है। सत्व की लड़ाई चलती उठने की तैयारी भी नहीं दिखलाता। रहती है। तो कृष्ण कहते हैं, तू सत्व की बातों में मत पड़ अर्जुन। तू यह साधु का मतलब है, जिसने क्रोध को भीतर दबाया है; अक्रोधी साधुता की बातें मत कर। क्योंकि मुझे पाए बिना कोई भी साधु नहीं | | हुआ। जिसने चोरी को भीतर दबाया; अचोर हुआ। जिसने परिग्रह है। उसके पहले सिर्फ धोखा है मन का। कुछ लोग बुरे ढंग से अपने को दबाकर छोड़ा; अपरिग्रही हुआ। जिसने अहंकार को दबाया, को धोखा देते हैं, कुछ लोग भले ढंग से अपने को धोखा देते हैं। और विनम्र हुआ। लेकिन वे सब भीतर बीमारियां कतारबद्ध मौजूद कुछ लोग दूसरों को नुकसान करके अपने को धोखा देते हैं, कुछ हैं. और प्रतीक्षा कर रही हैं कि कब आप विश्राम करिएगा। कब। लोग दूसरों को लाभ पहुंचाकर अपने को धोखा देते हैं। लेकिन कब थोड़ा-सा अवकाश लेंगे अपने संघर्ष से! धोखा तब तक जारी रहता है, जब तक कोई प्रकृति के गुणों के ऊपर । इसलिए साधु रात सोने तक में डरते हैं, क्योंकि सोने में विश्राम न उठ जाए। | हो जाता है। और जिस-जिस को दिन में दबाया है, वह सब सपना नहीं; चित्त ऐसी अवस्था में चाहिए जहां न बुरा खींचता हो, न बनकर छाती पर घूमने लगता है। इसलिए साधु जरा भी विश्राम लेने भला खींचता हो। न आकर्षित करती हों बीमारियां-क्रोध, काम, | में डरते हैं कि कहीं भी जरा विश्राम लिया और वह संघर्ष अगर लोभ; न आकर्षित करते हों तथाकथित फूल–सेवा, सदभाव, | | थोड़ा भी शिथिल हुआ, तो मालूम है उन्हें भलीभांति कि दुश्मन मंगल, कल्याण। नहीं; कोई भी आकर्षित न करता हो। मौजूद है। और जब दोनों में से कोई भी आकर्षित नहीं करता, तो चित्त ठहर सब साधु अपने भीतर असाधु को दबाए हुए हैं। और जब तक जाता है। नहीं तो दौड़ता रहता है। कभी बुरे के लिए, कभी भले के | असाधु मौजूद है, साधु सिर्फ सतह है। भीतर तो सब उबल रहा है लिए; कभी साधु होने के लिए, कभी असाधु होने के लिए; दौड़ लावे की तरह। ज्वालामुखी की तरह भीतर आग लगी है। अभी जारी रहती है। चित्त तो रुकता ही तब है, जब दोनों से मुक्त हो जाता | | धुआं दिखाई नहीं पड़ रहा; अभी ज्वालामुखी फूटा नहीं; लेकिन है। और जब चित्त दोनों से मुक्त होता है, तब एक नए आयाम में | इससे ज्वालामुखी नहीं है, ऐसा कहने की कोई जरूरत नहीं। यात्रा शुरू होती है, अंतर्यात्रा या ऊर्ध्वयात्रा शुरू होती है। तब ज्वालामुखी भीतर तैयारी कर रहा है। व्यक्ति प्रकृति के ऊपर उठकर परमात्मा को अनुभव कर पाता है। संत हम उसे कहते हैं, जो असाधुता से लड़कर साधु नहीं है। इसलिए हमने इस देश में साधु को वह मूल्य नहीं दिया, जो संत संत हम उसे कहते हैं, जिसने परमात्मा को देखा, और परमात्मा को को दिया। साधु और असाधु ठीक है; एक ही दुनिया के रहने वाले | देखने से साधु हो गया। कोई संघर्ष नहीं है। किसी को दबाया नहीं, लोग हैं। एक के हाथ में लोहे की जंजीरें हैं। एक के हाथ में सोने | किसी से लड़ा नहीं। इसलिए संत विश्राम से नहीं डरेगा। डरने का की जंजीरें हैं। एक बुरे कामों में उलझा है, लेकिन व्यस्त है उसी | कोई सवाल ही नहीं है। उसे विपरीत की संभावना ही नहीं है। उसके तरह, जैसा दूसरा भले कामों में उलझा है और व्यस्त है, भीतर से, परमात्मा को देखने से, असाधुता गिर गई। आक्युपाइड है। लेकिन दोनों की नजरें जमीन पर लगी हैं। दोनों में संत वह है, जिसकी असाधुता गिर गई; और साधुता पनपी, से कोई आकाश की तरफ नहीं देख रहा है। . प्रकट हुई। और साधु वह है, जिसने असाधुता को दबाया, और हमने उसे संत कहा है, जो न भले में उलझा है, न बरे में। जो साधता को कल्टिवेट किया. साधता का अभ्यास किया: साधता उलझा ही नहीं है; जिसने जमीन से नजर ऊपर उठा ली; जिसने को थोपा, आरोपित किया। साधु की तरह अपने को नियोजित आकाश को देखा है; जिसने परमात्मा को पहचाना है। | किया, संयमित किया; अपने को बनाया, तैयार किया। साधु की इसका यह मतलब नहीं है कि परमात्मा को पहचानने के बाद | तरह जिसने अपने ऊपर मेहनत की। इसमें आदमी की मेहनत है। वह साधु नहीं होगा। वह साधु होगा। वही साधु होगा। लेकिन | आदमी की मेहनत ज्यादा दूरगामी नहीं हो सकती। आदमी हमेशा बुनियादी अंतर पड़ जाएंगे। | प्रकृति से हार जाएगा। आदमी प्रकृति से बहुत कम है। जिसने परमात्मा को नहीं पहचाना, उसकी साधुता असाधुता के मैंने आपसे कहा, अब मैं एक और छोटा वर्तुल आपसे बनाने 386 Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकृति और परमात्मा को कहता हूं। मैंने कहा, एक बड़ा वर्तुल खींचें, वह परमात्मा है। उसमें एक छोटा वर्तुल खींचें, वह प्रकृति है । उसमें और एक छोटा-सा वर्तुल खींचें, वह आदमी है। मैंने आपसे कहा कि प्रकृति परमात्मा में है, लेकिन परमात्मा प्रकृति में नहीं है। अब मैं आपसे दूसरी बात कहता हूं। आदमी प्रकृति में है, लेकिन प्रकृति आदमी में नहीं है। वह आदमी और छोटा वर्तुल है। तो आदमी प्रकृति के खिलाफ लड़ेगा अगर, तो हारेगा। प्रकृति लड़ नहीं सकता; वह बड़ी है, उससे विराट है। प्रकृति आदमी में है, छिपी पूरी भीतर, गहरे में । आदमी उसका छोटा-सा हिस्सा दबाए हुए है। इसलिए आप रोज प्रकृति से हारते हैं, लेकिन आपको खयाल नहीं आता कि आप अपने से बड़ी शक्ति से लड़ रहे हैं; हारेंगे ही। जब आप क्रोध से हारते हैं, तो आपको पता है, आप किससे लड़ रहे हैं? आप सोचते हैं कि क्रोध छोटी-मोटी चीज है। क्रोध छोटी-मोटी चीज़ नहीं है; प्रकृति का हिस्सा है। उसकी जड़ें गहरी हैं; आपके खून से ज्यादा गहरी; आपकी हड्डियों से ज्यादा गहरी; आपकी बुद्धि से ज्यादा गहरी | इसलिए आप हजार दफे तय कर ते हैं बुद्धि से कि अब क्रोध नहीं करूंगा, और जब क्रोध आता है, तो पता नहीं बुद्धि कहां फिंक जाती है, और क्रोध आ जाता है। क्रोध गहरा है। आप ऊपर-ऊपर निर्णय करते रहते हैं, भीतर प्रकृति आपकी फिक्र नहीं करती। अगर प्रकृति से आपने अपने ही भरोसे जीतने की कोशिश की, तो आप रोज हारेंगे। कभी-कभी साधु मालूम पड़ेंगे, फिर असाधुता प्रकट हो जाएगी। फिर साधु बनेंगे, फिर असाधुता प्रकट हो गी। प्रकृति आपको हराती ही रहेगी। अगर प्रकृति को हराना है, तो आदमी के भरोसे नहीं, बड़े वर्तुल, परमात्मा के भरोसे हराया जा सकता है। आदमी के भरोसे नहीं। तब सहारा उसका लें; उस बड़े वर्तुल के साथ सहारा लें। उसके साथ तत्काल जीत हो जाती है। उसके साथ प्रकृति उसी तरह हार जाती है, जैसे आपके साथ प्रकृति से आप हार जाते हैं। प्रकृति से आप लड़ेंगे, तो आप हारेंगे। अगर परमात्मा को लड़ाएंगे, तो प्रकृति हारी ही हुई है; कोई सवाल नहीं है । कोई सवाल नहीं है, क्योंकि परमात्मा और भी प्रकृति के गहरे में है । आप, जैसा मैंने कहा, सागर, सागर पर उठी लहरें, लहरों पर तैरता हुआ एक तिनका, ऐसा समझ लें। सागर परमात्मा, लहरें प्रकृति, और आप एक छोटे-से तिनके हैं लहरों के ऊपर। आप लहरों से भी नहीं लड़ सकते हैं । लहर से भी हार जाएंगे। आप कितना ही निर्णय करें कि हम तो लहर के ऊपर रहेंगे; लहर की | मर्जी कि कब नीचे गिरा दे। लेकिन सागर का सहारा ले लें, तो फिर | लहर कुछ भी नहीं है। क्योंकि सागर के सामने लहर की क्या औकात! क्या वश ! परमात्मा में निष्ठा का अर्थ, या परमात्मा के प्रति परायण होने का अर्थ, या परमात्मा में समर्पित होने का इतना ही अर्थ है कि प्रकृति से मनुष्य की सीधी लड़ाई असंभव है। हम परमात्मा में समर्पित होते हैं, समर्पित होते ही लड़ाई समाप्त हो जाती है । | परमात्मा को देखते ही प्रकृति शांत हो जाती है— देखते ही । यह करीब-करीब ऐसा ही घटित होता है, जैसे कि स्कूल के | क्लास के बच्चे खेल रहे हैं, शोरगुल कर रहे हैं, और शिक्षक भीतर आया, और सब शांति हो गई। बच्चे अपनी जगह बैठ गए हैं; उन्होंने किताबें खोल लीं; अपना काम करने लगे। अभी शोरगुल था, अब सब शांत हो गया। ठीक ऐसे ही परमात्मा की तरफ आंख उठते ही प्रकृति एकदम शांत हो जाती है। मालिक आ गया। प्रकृति का कोई उपाय नहीं रह | जाता। लेकिन आप ! आप तो प्रकृति के एक छोटे-से टुकड़े हैं, तिनके, और प्रकृति से लड़ने की कोशिश कर रहे हैं। | सात्विक होने की चेष्टा बिना धार्मिक हुए, बिना परमात्मा में समर्पित हुए, प्रकृति से लड़ने की चेष्टा है। इन तीनों के पार है प्रभु । जब आपके चित्त में तीन चीजें न हों, तब आपका चित्त परमात्मा की तरफ उठेगा; सत्व न हो, तम न हो, रजस न हो। इनको थोड़ा-सा समझ लें कि कैसी स्थिति होगी, जब ये तीनों न होंगे। बुरा करने की भावना न हो, भला करने की भावना न हो, जब | ये दोनों भावनाएं नहीं होतीं, तो वह जो करने वाली ऊर्जा है, वह जो रजस है, वह जो शक्ति है...। ये दो काम करने के केंद्र बिंदु हैं। वह जो शक्ति है, जो करती है, जब ये दोनों नहीं रहते - बुरा करने का भाव नहीं, भला करने का भाव नहीं - तब वह जो शक्ति | है, वह कहां जाए? और शक्ति तो कहीं जाएगी ही। अगर आप मार्ग न देंगे, तो भी जाएगी। अब न बुरे की तरफ जा सकती है, न भले की तरफ जा सकती है, तो अब कहां जाए? जब दोनों दिशाएं बंद हो जाती हैं, तो शक्ति ऊपर की तरफ, तीसरे, थर्ड डायमेंशन में, तीसरी यात्रा पर उठने लगती है। और वह तीसरी यात्रा पर परमात्मा है, जहां न शुभ है, न अशुभ है। जहां 387 Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 गक्ति कैसाथ दोनों नहीं, जहां द्वंद्व नहीं; जहां अद्वय है, जहां अद्वंद्व है, जहां अद्वैत कठिन है, अगर आदमी अपने बलबूते लड़े। कठिन है, अगर है। उसकी एक झलक, और सारी प्रकृति शांत हो जाती है। अपने पर ही भरोसा रखकर लड़े। अगर सोचता हो कि मैं ही पार फिर कृष्ण कहते हैं कि तू उस झलक को पा ले और फिर तू बात कर लूंगा, तो कठिन है। करना साधुता की। करने की जरूरत न रहेगी; तू साधु हो जाएगा। लेकिन कृष्ण कहते हैं, कठिन नहीं भी है, संभव भी है, अगर तू साधु हो ही जाएगा। उसकी नजर पड़ी, कि तू बदला; तेरी नजर कोई मेरा सहारा ले ले। अगर कोई दिन-रात मुझे ही भजे, अगर उस पर पड़ी, कि तू बदला। एक दफा उस दर्शन को...। । कोई दिन-रात मुझको ही समर्पित रहे, अगर कोई मेरे ही हाथ में यह दर्शन शब्द बड़ा अदभुत है। इसका अर्थ है, एक दफा सारी बात छोड़ दे और कहे कि ठीक, अब तुम्ही नाव को खेओ। उसका दीदार, उसका दर्शन, एक दफे वह दिख जाए, बस। और अब मैं छोड़ता हूं; अब तुम मुझे ले चलो, जहां ले चलना हो। अगर उसे देखने के लिए इन तीन के ऊपर जाना जरूरी है। | कोई मुझ पर भरोसा कर सके, ट्रस्ट कर सके, तो बड़ी सरल है। इसलिए कष्ण कहते हैं. मैं इन तीनों के पार हैं। इन तीनों तक है। प्रकृति है, ऐसा तू जानना। और जब इन तीनों के पार उठे, तब तू | खुद आदमी लड़ने की कोशिश करे, तो लड़ाई बहुत कठिन है; . मुझे देख, और जान पाएगा। जीतना करीब-करीब असंभव है; हारना ही सुनिश्चित है। विराट के साथ हार असंभव है; विराट के साथ जीत सुनिश्चित है। लेकिन विराट के हाथों में अपने को छोड़ने के लिए कृष्ण कहते दैवी होषा गुणमयी मम माया दुरत्यया। हैं, दिन-रात मुझे ही भजे। क्या मतलब होगा दिन-रात भजने का? मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ।। १४ ।। क्या कोई आदमी कृष्ण-कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण कहता रहे? कई लोग यह अलौकिक अर्थात अति अदभुत त्रिगुणमयी मेरी कह रहे हैं। कुछ दिखाई नहीं पड़ता कि कुछ हुआ हो। योगमाया बड़ी दुस्तर है, परंतु जो पुरुष मेरे को ही निरंतर नहीं; भजना इतनी साधारण बात नहीं है। इसका यह मतलब भी भजते हैं, वे इस माया का उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात नहीं है कि कोई कृष्ण-कृष्ण न कहे। भजना बहुत भाव की दशा है। संसार से तर जाते हैं। भजने का अर्थ है, एक अंतःस्मरण। जहां भी, जो भी दिखाई पड़ जाए, उसमें कृष्ण का ही स्मरण। फूल दिखे, तो पहले फूल का खयाल न आए, पहले खयाल कृष्ण का आए। फिर कृष्ण फूल में न स्तर है, कठिन है, आडुअस है, अलौकिक है, बड़ी | खिल जाए; फिर फूल कृष्णरूप हो जाए। भोजन को बैठे, तो पहले ५ शक्ति है प्रकृति की, क्योंकि है तो परमात्मा की ही खयाल भोजन का न आए, कृष्ण का आए। पेट में भूख लगे, तो शक्ति। कठिन है, क्योंकि हम उसी शक्ति से निर्मित | पहले खयाल यह न आए कि मुझे भूख लगी है; पहले खयाल आ हैं, हमारा सब कुछ। सिर्फ हमारे भीतर जो परमात्मा है, उसे | जाए, कृष्ण को भूख लगी है। ऐसा रोएं-रोएं में, उठते-बैठते, छोड़कर। चलते-सोते; सांझ जब रात बिस्तर पर गिरने लगें, तो ऐसा खयाल __ हमारा शरीर, हमारा मन, हमारी बुद्धि, हमारा सब कुछ प्रकृति न आए कि मैं सोने जा रहा हूं; ऐसा खयाल आए कि मेरे भीतर वह से ही निर्मित है। जब हम मिट्टी से लड़ते हैं, तो हम मिट्टी को ही जो कृष्ण है, अब विश्राम को जाता है। लड़ा रहे हैं। हम प्रकृति से ही प्रकृति को लड़ा रहे हैं। तो हम न जीत और यह शब्द से नहीं, यह भाव से। मैं तो आपसे कहूंगा, तो पाएंगे। बहुत दुस्तर हो जाएगी बात। शब्द से ही कहूंगा। लेकिन यह भाव से खयाल आए। घर में कृष्ण कहते हैं, विचित्र है, अदभुत है, अलौकिक है, असाधारण आपके एक बच्चा पैदा हो, तो ऐसा न लगे कि बच्चा पैदा हुआ है; है यह शक्ति! क्योंकि शक्ति तो आखिर परमात्मा की ही है। माना ऐसा लगे कि कृष्ण आए, या परमात्मा आया। कोई भी नाम से कोई कि कितनी ही छोटी लहरें हों, फिर भी हैं तो सागर की। यह अंतर नहीं पड़ता, क्योंकि सभी नाम उसी के हैं। लेकिन भाव यह सोचकर कि लहरें हैं, उनसे जूझ मत जाना। हमें डुबाने को तो वे हो कि परमात्मा है। सभी स्थितियों में-सुख में, दुख में, विपदा लहरें भी काफी हैं। क्योंकि हम तो लहरों में भी और छोटी लहर हैं। में, संपदा में सभी स्थितियों में उसका ही स्मरण बना रहे। सभी 388| Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रकृति और परमात्मा - कुछ उसको ही समर्पित हो जाए। व्यक्ति उस प्रेम को खोज रहा है, जो उसने मां से पाया था। ऐसा जो दिन-रात भजे कोई, तो विराट से सम्मिलन शुरू हो मनोवैज्ञानिक इसको ऐसा कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी पत्नी जाता है। क्योंकि हमारी चेतना उसी तरफ बहने लगती है, जिस में अपनी मां को खोज रहा है, जो कि बहुत मुश्किल मामला है। तरफ हमारी स्मृति होती है। स्मृति चेतना के लिए चैनेलाइजेशन है। मिल नहीं सकता! इसलिए कभी तृप्ति नहीं हो सकती। जैसे हम नहर बनाते हैं नदी में। नहर नहीं बनाते, तो नदी बहती वह जो अनूठा प्रेम था-शब्दहीन, निःशब्द, मौन; जाना था है, जहां उसे बहना होता है। नहर बना देते हैं, तो फिर नदी नहर से जिसे, किसी ने कहा नहीं था कभी; किसी ने दावा नहीं किया था; बहती है। और जहां हमें ले जाना होता है, नदी वहां पहुंच जाती है। लेकिन फिर भी बहा था और पहचाना था—उसी प्रेम की तलाश स्मरण या जिसे संतों ने स्मृति कहा है, सुरति कहा है, बुद्ध ने चल रही है जिंदगीभर। वह प्रेम फिर दुबारा नहीं मिलेगा, इसलिए राइट माइंडफुलनेस कहा है, सम्यक स्मृति; या और कोई सुमिरन बेचैनी है, इसलिए कठिनाई है, इसलिए अड़चन है। या और भी नाम हैं हजार। भाव में प्रवेश कर जाए यह बात। सुबह । मां की खोज चल रही है। वह नहीं मिलती। वह नहीं पकड़ में जब नींद खुले, तो ऐसा न लगे कि मैं जग रहा हूं; ऐसा लगे कि आती फिर कभी। वह कहां मिलेगी? वह कैसे मिल सकती है? मेरे भीतर परमात्मा जागा। और यह शब्द से नहीं; ऐसा आप सुबह उसका उपाय भी न के बराबर है। फिलहाल तो नहीं है। पर उसने उठकर कहें कि मेरे भीतर परमात्मा जागा. उससे बहत अर्थ नहीं है। तो कभी कहा नहीं था। पत्र नहीं लिखे थे: कोई प्रेम-पत्र नहीं लिखे क्योंकि कहने का मतलब ही यह है कि आपको भाव पैदा नहीं हो थे, बड़े दावे नहीं किए थे। लेकिन फिर दावे करने वाले लोग आते रहा है। भाव पैदा हो, तो कहने की जरूरत नहीं है। | हैं। दावे बहुत होते हैं, और भीतर कुछ भी नहीं होता। भाव और शब्द में फर्क है। शब्द धोखा देते हैं। एक आदमी | सुना है मैंने कि एक प्रेमी अपनी प्रेमिका से कह रहा है कि अगर बार-बार किसी से कहता है, मैं बहुत प्रेम करता हूं; मैं बहुत प्रेम आग भी बरसती हो, तो भी तुझे बिना देखे मैं नहीं रह सकता। अगर करता हूं। तब वह धोखा देने की कोशिश कर रहा है। क्योंकि जब प्रलय भी आ जाए, तो भी तुझे बिना देखे मैं नहीं रह सकता। अगर प्रेम होता है, तो प्रेम शब्द-शून्य होता है; कहने की भी जरूरत नहीं | एटम बम भी बरसता हो, तो भी मैं तुझे देखे बिना नहीं रह सकता। होती पूरे प्राणों से प्रकट होता है; रोएं-रोएं से प्रकट होता है। फिर उसकी प्रेयसी ने, जब वह विदा हो रहा था, उससे पूछा कि मां बच्चे से कह भी नहीं सकती कि मैं तुझे प्रेम करती हूं। कैसे कल आने वाले हो या नहीं? उसने कहा कि देखो; अगर सांझ वर्षा कहेगी! बच्चा भाषा भी नहीं जानता। फिर भी बच्चा पहचानता है। | न हुई, तो मैं जरूर आ जाऊंगा। रोएं-रोएं से, मां के चारों तरफ, प्रेम बहने लगता है। कोई भाषा __ वह जो बेचारा कह रहा था, प्रलय आ जाए, आग बरसती हो, नहीं है। | वह कह रहा है, कल अगर वर्षा न हुई, तो जरूर आ जाऊंगा! दावे और बड़े मजे की बात है, मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अगर बच्चे | हैं फिर, लेकिन दावों के पीछे कोई भाव नहीं है। को मां के पास बड़ा न किया जाए, तो फिर वह जिंदगी में किसी यह जो स्मरण है, यह जो प्रभु-परायण होने की बात है, यह जो को भी प्रेम न कर पाएगा-किसी को भी। और मजा यह है कि मां कृष्ण कहते हैं, मुझे ही जो भजे चौबीस घंटे, इसका अर्थ? इसका कभी बच्चे से कहती नहीं कि मैं तुझे प्रेम करती हूं, क्योंकि वह तो अर्थ है, जो भाव से मुझमें जीए। उठे-बैठे कहीं भी, भाव से मुझमें भाषा भी नहीं जानता; उससे कहने का कोई उपाय नहीं है। लेकिन रहे। चले-फिरे कहीं भी, भाव से मुझमें रहे। करे कुछ भी, भाव से उसे छाती से लगा लेती है। भाव की कोई धारा दोनों की छातियों मुझमें रहे। एक अंतर्धारा भाव की मेरी तरफ बहती रहे, बहती रहे, के बीच आदान-प्रदान हो जाती है। उसकी आंखों में झांकती है। बहती रहे। धीरे-धीरे वह नहर खुद जाती है, जिससे व्यक्ति और भाव की कोई धारा एक-दूसरे की आंख से उतर जाती है। उसका परमात्मा के बीच सेतु बन जाता है। हाथ हाथ में लेती है, और भाव की कोई धारा हाथ-हाथ के पार और एक बार वह सेतु निर्मित हो जाए, फिर इस प्रकृति से ज्यादा चली जाती है। शब्द नहीं। निर्बल कोई चीज नहीं है। यह बहुत निर्बल है। बहुत दीन है प्रकृति। इसलिए मनोवैज्ञानिक यह भी कहते हैं कि कोई भी व्यक्ति लेकिन जब तक वह सेतु न बने, महाशक्तिशाली है प्रकृति। क्योंकि अपनी पत्नी से तृप्त नहीं हो पाएगा। उसका कारण है कि प्रत्येक | | ये सब तुलनात्मक वक्तव्य हैं। हमारी तुलना में प्रकृति बहुत 389 Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < गीता दर्शन भाग-3 शक्तिशाली है। परमात्मा की तुलना में कोई सवाल ही नहीं उठता। एक आदमी का आखिर धीरज टूट गया और उसने जाकर पास कोई प्रश्न ही नहीं है। पछा कि माफ करना, इस गधे का नाम क्या है? उसने कहा. इसका इसलिए आदमी अगर अपने पर भरोसा करे, तो उलझाएगा नाम कल्लू है। तो इतने नाम क्यों ले रहे हो? उसने कहा, ताकि अपने को। और जब से आदमियत ने, पूरी आदमियत ने अपने पर | | इसको भरोसा बना रहे कि और भी गधे लदे हैं। और सब चल रहे भरोसा करना शुरू किया है, और जब से ऐसा लगा है कि ईश्वर | हैं, तो मैं भी क्यों परेशान! चलता रहूं। उस कुम्हार ने कहा कि जरा को बीच में आने की कोई भी जरूरत नहीं है, हम काफी हैं; मैन | मास-साइकोलाजी का उपयोग कर रहा हूं, भीड़ का मनोविज्ञान। इज़ इनफ, पर्याप्त है आदमी; तब से हमने आदमी की समस्याएं अगर गधे को पता चले कि अकेले कल्लू ही चल रहे हैं, तो करोड़ गुना गहरी और गहन कर दी हैं। और सुलझाव कुछ भी बहुत मुश्किल में पड़ जाएंगे। वे बैठ जाएं, कि नहीं चलते! कोई दिखाई नहीं पड़ता। रोज उलझाव बढ़ता चला जाता है। | दुनिया में नहीं चल रहा है, हम ही क्यों परेशान हों! लेकिन चारों एक समस्या सुलझाते हैं, तो सुलझाने में पच्चीस नई समस्याएं तरफ गधे चल रहे हैं—माणिक भी, हीरा भी—सब चल रहे हैं, खड़ी कर लेते हैं। उनको सुलझाने जाते हैं कि और हरेक समस्या | | तो कल्लू भी चल रहे हैं। वे प्रसन्न हैं, क्योंकि अकेले तो लदे नहीं; से पच्चीस समस्याएं खड़ी होती हैं। सारा मनुष्य एक समस्या हो | सब लदे हैं। और जरूर कहीं पहुंच जाएंगे। गया है; सिर्फ एक समस्या; जिसे कहीं से भी छुओ, और समस्या! कहीं पहुंचना नहीं है। कहीं पहुंचना नहीं है। जैसे सागर को कहीं से भी चखो, और नमकीन, नमक। ऐसे | अरब में एक छोटी-सी कहावत है। एक बूढ़े ऊंट से किसी ने आदमी को कहीं से भी छुओ, और समस्याएं निकल आती हैं। कुछ पूछा कि तुम पहाड़ पर जाते वक्त ज्यादा आनंद अनुभव करते हो भी करो, और समस्याएं। सब तरफ समस्याएं फैल गई हैं। क्या | | कि पहाड़ से नीचे जाते वक्त? उसने कहा, ये दोनों बातें फिजूल बात हो गई है? हैं। असली सवाल यह है कि मेरे ऊपर बोझ है या नहीं। ऊपर-नीचे ___ असल में प्रकृति से लड़कर हम जो कर रहे हैं, उससे यही होना | | का कोई सवाल नहीं है। मेरा दोनों वक्त एक ही काम रहता है। चाहे निश्चित था। प्रकति दस्तर है. उससे लड़ा नहीं जा सकता। उससे पहाड़ के नीचे जाऊं, तो बोझ ले जाता है। चाहे पहाड़ के ऊपर लड़कर हम सिर्फ अपने ऊपर मुसीबत बुला सकते हैं। हां, थोड़ी | | जाऊं, तो बोझ ले जाता हूं। उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। सदा बोझ देर हम अपने को भ्रम में रख सकते हैं कि हम लड़ रहे हैं, और ही ढोता हूं। जीत जाएंगे। हम थोड़ी देर आशाएं बांध सकते हैं। लेकिन सब लेकिन हमें फर्क लगता है। कभी हम जब सफलता की तरफ जा आशाएं धूल-धूसरित हो जाती हैं; सब मिट्टी में मिल जाती हैं। | रहे होते हैं, तो बोझ हम आसानी से ढोते हैं, क्योंकि हमें लगता है, फिर भी आदमी अजीब है, अब तक उसे खयाल नहीं आया। | पहाड़ उतार पर है। जल्दी पहुंच जाते हैं। पर हमें पता नहीं कि पहाड़ और हम एक-दूसरे को हिम्मत बढ़ाए चले जाते हैं। बाप बेटे को के नीचे जाकर करना क्या है ? फिर नया बोझ लादना है, फिर पहाड़ कहता है, कोई फिक्र नहीं; मैं नहीं जीता, तू जीत जाएगा। जरा | | पर चढ़ना है! परिस्थितियां ठीक न थीं। शिक्षक विद्यार्थी को कहे जाता है, कोई - हर सफलता नई असफलता का बोध देगी। हर सफलता नई फिक्र नहीं। हम नहीं जान पाए कि सत्य क्या है, लेकिन तुम जान सफलता के लिए यात्रा बनेगी। हर सफलता पड़ाव होगी, मंजिल लोगे, क्योंकि अब ज्ञान और काफी विकसित हो गया है। तो नहीं। मगर जब सफल होता है मन, तो हम ज्यादा बोझ ढो लेते सना है मैंने, एक आदमी एक रास्ते से गुजर रहा है, एक गरीब हैं; और जब असफल होता है, तो जरा पीड़ित अनुभव करते हैं। गधे को लिए हुए है। उसके ऊपर सामान काफी लादा हुआ है। | लेकिन हम जिंदगीभर करते क्या हैं? शाबाश कल्लू! शाबास जितना गरीब गधा हो, उतना ज्यादा सामान लाद देते हैं लोग! | हीरा! शाबास माणिक! और चले जा रहे हैं। . लेकिन रास्तेभर के लोग बड़े हैरान हैं, क्योंकि वह चिल्ला-चिल्ला ___ यह जो हमारी, आदमी की आज की दशा है। और हम सब कर कई नाम ले रहा है, और गधा एक है। कभी कहता है, शाबाश | एक-दूसरे को कहे चले जाते हैं कि बढ़े जाओ, मंजिल बहुत पास कल्लू! कभी कहता है, शाबास हीरा! कभी कहता है, शाबास | है। बढ़े जाओ, मंजिल बहुत पास है। न हमें कोई मंजिल मिली माणिक! गधा एक है, और नाम इतने ले रहा है! है; न जिनसे हम कह रहे हैं, उन्हें कोई मिलेगी; लेकिन चलाए 390 Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < प्रकृति और परमात्मा - चले जाते हैं। से भी स्मरण मिलता हो! कृष्ण कह रहे हैं, मुझको परायण को उपलब्ध हो जा, मेरे प्रति । लेकिन हमारी तो बड़ी अजीब हालतें हैं। यहां कुछ संन्यासी मेरे समर्पित हो जा। इस दौड़ से बच। ये तीन प्रकृति के गुण और यह नाम के साथ भगवान लगाकर चिल्ला देते हैं। मैं चुप रह जाता हूं प्रकृति का पूरा का पूरा सम्मोहन का जाल, यह मेरी योगमाया है। यह सोचकर कि आज नहीं कल वे मेरा नाम भी छोड़ देंगे और सिर्फ यह मेरे हिप्नोसिस, यह मेरे सम्मोहन की शक्ति है। और इस सब में भगवान का नाम ही उच्चारित करेंगे। क्योंकि उसमें भगवान शब्द सारा जगत चल रहा है और दौड़ा चला जा रहा है। शाबास कल्लू! झूठ नहीं है, उसमें मेरा नाम ही झूठ है। और दौड़े चले जा रहे हैं। रुक। और तू मेरे स्मरण में लग। अगर | लेकिन मेरे पास चिट्ठियां आती हैं लोगों की कि आप लोगों को तुझे सम्मोहन के बाहर आना है, तो परमात्मा के स्मरण में लगा । | मना क्यों नहीं करते कि भगवान लगाना बंद करें; सिर्फ रजनीश परमात्मा का सम्मोहन डी-हिप्नोटाइजिंग है; वह सम्मोहन को | कहें; आचार्य रजनीश कहें; भगवान लगाना बंद करें। लोगों की तोड़ता है, वह एंटीडोट है। देखें, उदाहरण के लिए मैं आपको कहूं | चिट्ठियां आती हैं! वे समझते हैं बहुत होशियार लोग हैं, जो मुझे कि वह कैसे एंटीडोट है। चिट्ठियां भेजते हैं। रास्ते पर एक खूबसूरत स्त्री आपको दिखाई पड़ी। आपने अपने | एक आदमी ने चिट्ठी नहीं भेजी कि वह कहता कि रजनीश कहना मन में कहा, शाबाश कल्लू! और चले। चल पड़े आप। उस वक्त | | बंद कर दें, क्योंकि दोनों बात एक साथ नहीं हो सकतीं। जब तक थोड़ा स्मरण करें। स्मरण करें कि वह जो स्त्री है सामने, वहां भी | | रजनीश हूं, तब तक भगवान होना मुश्किल। जब भगवान हो कष्ण हैं। और स्मरण करें अपने भीतर कि वहां जो. जिसको आप जाऊं तो रजनीश होना मश्किल। ये दोनों कंटाडिक्टरी हैं। कल्लू कह रहे हैं, वहां भी कृष्ण हैं। और फिर देखें कि बीच में लेकिन वे चिट्ठियां, होशियार लोग जो हैं-होशियार का वह जो सम्मोहन पैदा हुआ था वासना का, वह एकदम गिर जाता मतलब कि जिनके पास कोई यूनिवर्सिटी का कागज का टुकड़ा है या नहीं! वगैरह है-वे फौरन चिट्ठी भारी...। मुझे कई चिट्ठियां, दस-पांच फौरन गिर जाएगा। अचानक आप पाएंगे कि कोई अंधेरा बीच चिट्ठियां आई कि फौरन बंद करवाइए! यह क्या हो रहा है? से उठ गया; कोई पर्दा बीच से हट गया। कोई चीज बीच से टूट | अक्ल के तो हम जैसे दुश्मन हैं। लट्ठ लेकर अक्ल के पीछे पड़े गई, सरक गई, तत्काल। हुए हैं। चलो, यही बहाना अच्छा; भगवान का ही तो नाम ले लेते एक आदमी ने आपको गाली दी है और आपके भीतर क्रोध का | | हैं। खूटी मेरी भी सही, तो क्या हर्जा! खूटी तुड़वा लेंगे। खूटी कोई धुआं उठा। वह सम्मोहन है प्रकृति का। बटन दबा दी उसने | | बड़ी चीज नहीं है। भगवान जैसा भजन रखोगे, खूटी कितनी देर आपकी। बस, अब आपका पंखा भीतर चलने लगा। उस वक्त | बचेगी! खूटी गिर ही जाएगी। लेकिन नहीं; जिनको यह तकलीफ जरा स्मरण करें, उस ओर भी कृष्ण हैं, इस ओर भी कृष्ण हैं। और होती है, उनकी तकलीफ का कारण है। स्मरण जैसी चीज का उन्हें तब आप अचानक पाएंगे कि भीतर क्रोध जो पंख फैलाता था उड़ने कोई पता नहीं है। के लिए, उसने पंख सिकोड़ लिए। एक और मजे की बात है कि मैं सदा आपके भीतर बैठे परमात्मा डी-हिप्नोटाइजिंग है स्मरण। परमात्मा का स्मरण सम्मोहन- को प्रणाम करता रहा। तब किसी ने मुझे चिट्ठी लिखकर नहीं भेजी तोड़क है। और अगर परमात्मा को भूले और अपना ही स्मरण रखा | कि हमको आप परमात्मा क्यों कहते हैं? किसी आदमी ने चिट्ठी कि मैं ही सब कुछ हूं, तो यह मैं जो है, यह बहुत मादक है। और लिखकर नहीं भेजी मुझे कि आप हमको परमात्मा क्यों कहते हैं? यह सम्मोहन को गहन करता है, और मूर्छित करता है, बेहोश | मैंने बहुत दिन कहकर देख लिया। मैंने सोचा कि वह कुछ सुनाई करता है। फिर हम दौड़े चले जाते हैं। यह तीन का खेल चलता नहीं पड़ता आपको। मैंने बंद कर दिया। रहता है चारों तरफ। यह प्रकृति की तीन की लीला चलती रहती है; | अब यह दूसरे छोर से इन लोगों ने शुरू कर दिया। यह छोर ट्राएंगल; हम दौड़ते रहते हैं उसमें। | दूसरा है; बात वही है। लेकिन अब उनको बड़ी बेचैनी हो रही है। इससे कब ऊपर उठेंगे? इससे उठने का द्वार कहां है? इससे | | उन्हीं सज्जनों को, जिनको कि मैं निरंतर कहता रहा कि आपके उठने का द्वार है, प्रभु-स्मरण। कहीं से भी स्मरण मिलता हो! कहीं भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। उन्होंने बड़े मजे से 391 Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग- 31 स्वीकार किया था। उनको अब बड़ी अड़चन हो रही है कि ये भगवान का नाम क्यों ले रहे हैं? - स्मरण का हमें कोई पता नहीं है। अच्छा ही है, इस बहाने आपके कान में पड़ गया। __कल तो एक मित्र ने आकर कहा कि अगर अब दोबारा इन्होंने लिया, तो मैं सुनने ही नहीं आऊंगा। बहुत मजेदार है। वे मुझे सुनने आते हैं। कहते हैं, सुनना मुझे प्रीतिकर है। आपकी बात ठीक लगती है। लेकिन यह भर नहीं होना चाहिए, यह भगवान का नाम। भगवान से ऐसी क्या दुश्मनी है? मुझसे तो दुश्मनी नहीं मालूम पड़ती उनकी। क्योंकि कहते हैं, आपको सुनने में अच्छा लगता है। हम रोज आना चाहते हैं। भगवान से दुश्मनी मालम पड़ती है। मत आएं। बिलकल न आएं। और पिछली दफे भी जो आए हों. उसको बिलकुल भूल जाएं। क्योंकि वह बेकार है। क्योंकि मैं जो बोल रहा हूं, वह सिर्फ इसलिए बोल रहा हूं कि मुझमें ही नहीं सब जगह, जहां भी कभी कुछ दिखाई पड़े, भगवान ही दिखाई पड़े; उसके लिए बोल रहा हूं। और मुझे सुनने का कोई प्रयोजन नहीं है। आप बिलकुल मत आएं। क्या जरूरत है? यहां कोई शाबाश कल्लू, आपको कोई दौड़ तो लगवानी नहीं है मुझे। आज इतना ही। लेकिन उठना मत। जो उठ जाएगा मैं समझूगा, शाबाश कल्लू! आप बैठे रहेंगे अपनी जगह। थोड़ा हम भगवान का स्मरण करते हैं। उसमें आनंदित हों। 392 Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय7 छठवां प्रवचन जीवन अवसर है Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < गीता दर्शन भाग-3> न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः। मूढ़ किसे कहते हैं? मूढ़ विशेष शब्द है। मूढ़ का अर्थ सिर्फ माययापहतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः । । १५ ।।। | मूर्ख नहीं होता। इसे थोड़ा समझ लेना पड़ेगा। मूढ़ पारिभाषिक चतविधा भजन्ते मां जनाः सुकतिनोऽर्जुन।। | शब्द है। अगर मनसविद से पूछेगे, तो मनसविद जिसे ईडियट आतों जिज्ञासुरार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ।। १६ ।। कहता है, उसे संस्कृत में मूढ़ कहा जाता है। उसका मतलब फुलिश माया द्वारा हरे हुए ज्ञान वाले और आसुरी स्वभाव को धारण | नहीं है, उसका मतलब मूर्ख नहीं है। क्योंकि मूर्ख और बुद्धिमान किए हुए तथा मनुष्यों में नीच और दृषित कर्म करने वाले | में जो अंतर होता है, वह गुणात्मक होता है, डिग्री का होता है। मूढ़ लोग तो मेरे को नहीं भजते हैं। | जिसको आप मूर्ख कहते हैं, वह थोड़ा कम बुद्धिमान है; बस। और और हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन, उत्तम कर्म वाले अर्थार्थी, | जिसको आप बुद्धिमान कहते हैं, वह थोड़ा कम मूर्ख है; बस। उन आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी अर्थात निष्कामी, ऐसे चार प्रकार | दोनों के बीच जो अंतर है, वह मात्रा का है, गुण का नहीं है। के भक्तजन मेरे को भजते हैं। | क्वालिटी का नहीं है, क्वांटिटेटिव है। फिर दो शब्द और हैं, एक जिसको हम कहते हैं मूढ़ और दूसरा, जिसको हम कहते हैं मेधावान। उनके बीच जो अंतर है, वह का न करता है प्रभु का स्मरण, इस संबंध में कृष्ण ने कुछ क्वालिटी का है, गुण का है, क्वांटिटी का नहीं है। DIबातें कही हैं। मूढ़ से मतलब है, ऐसा आदमी, जो जिस शाखा पर बैठा हो, मनुष्य जाति को दो भागों में विभाजित किया जा | उसी को काटता हो। सकता है। और जब दुनिया से सारे वर्ग मिट जाएंगे, तब भी वही | कालिदास की कथा हमने पढ़ी है। वे मूढ़ के प्रतीक हैं। बैठे हैं विभाजन अंतिम सिद्ध होगा। | वृक्ष पर, शाखा को काट रहे हैं। और जिस शाखा को काट रहे हैं, बहुत तरह से आदमी को हम बांटते हैं। धन से बांटते हैं; गरीब | | उसी पर बैठे हुए हैं। गिरेंगे ही। और कोई और जिम्मेवार न होगा। है, अमीर है। शिक्षा से बांटते हैं; शिक्षित है, अशिक्षित है। चमड़ी | खुद ही शाखा को काट रहे हैं। और जितनी शाखा कटती है, के रंगों से बांटते हैं; गोरा है, काला है। हजार तरह से आदमी को कालिदास उतने प्रसन्न हो रहे होंगे, क्योंकि सफलता मिल रही है। हम बांटते हैं। लेकिन जो परम विभाजन है, जो अंतिम विभाजन है, हालांकि सफलता कुल इसमें मिल रही है कि वे थोड़ी देर में गिरेंगे वह न तो चमड़ी से तय होता, न धन से तय होता, न यश से तय और हाथ-पैर तोड़ लेंगे। होता, न शिक्षा से तय होता। ये सब बातें बहुत ऊपर और बहुत मूढ़ से मतलब है, ऐसा व्यक्ति, जो आत्मघात में लगा हो; बाहर हैं, बहुत सतह पर। अंतिम विभाजन तो एक ही है, वे जो | स्युसाइडल। मेहनत भी करता हो, तो अपने को ही नुकसान प्रभु-उन्मुख हैं, और वे जो प्रभु-उन्मुख नहीं हैं। वे जिनकी आंखें | पहुंचाता हो। श्रम भी करता हो, तो अपना ही घात करता हो। परमात्मा की तरफ उठ गई हैं; और वे जो पीठ किए हुए परमात्मा निश्चित ही, परमात्मा के खिलाफ जो पीठ करके खड़े हैं, उनसे की तरफ खड़े हुए हैं। बड़ा मूढ़ कोई भी नहीं हो सकता। क्योंकि शाखाओं पर से कोई कृष्ण कहते हैं, मूढजन मुझे नहीं भजते हैं। काटकर गिर भी पड़े, तो कितना नुकसान होने वाला है! लेकिन कठिन लगेगा यह शब्द। और कृष्ण किसी को मूढ़ कहें, तो | परमात्मा की तरफ पीठ करके खड़ा हुआ आदमी तो सब भांति के लगेगा, गाली दे रहे हैं। लेकिन जहां तक कृष्ण का संबंध है, वे नुकसान में पड़ जाएगा। केवल एक तथ्य की सूचना कर रहे हैं। एक फैक्ट। और मूढ़ कहना इसलिए कृष्ण जब मूढ़ कहते हैं, तो आप मत सोचना कि गाली गाली नहीं है, मढ़ कहना केवल एक तथ्य की घोषणा है। दे रहे हैं। वे केवल सचना दे रहे हैं कि ऐसे व्यक्ति को हम मढ सच ही वह आदमी मूढ़ है, जो परमात्मा की तरफ पीठ किए। | कहते हैं। क्योंकि परमात्मा है हमारी परम संपदा। उसके बिना हम खड़ा है। इसलिए नहीं कि इससे परमात्मा की कोई हानि है और | दरिद्र ही रहेंगे, चाहे हम कितनी ही संपत्ति इकट्ठी कर लें। और इसलिए कृष्ण नाराज होकर उसे मूढ़ कह रहे होंगे। बल्कि इसलिए | परमात्मा है परम यश। उसके बिना हम पदहीन ही रहेंगे, क्योंकि कि वह अपना ही घात कर रहा है, आत्मघात कर रहा है। | वह है परम पद, चाहे हम कितने ही बड़े पदों पर पहुंच जाएं। और 394 Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन अवसर है - परमात्मा के बिना हम कहीं भी नहीं पहुंच सकते हैं, चाहे हम लेकिन उसी दिन से बेल बड़ी बेचैन हो गई। क्योंकि भीतर तो कितनी ही यात्रा करें। हम आखिर में पाएंगे कि हम वहीं खड़े हैं, | प्राणों की ऊर्जा बढ़ना चाहती थी। भीतर तो रस चल रहा था। जमीन जहां जन्म ने हमें खड़ा किया था। मौत के वक्त हम वहीं खड़े हुए से रस अपशोषित किया जा रहा था। सूरज से किरणें पीयी जा रही मिलेंगे। हमारी सब दौड़ व्यर्थ जाने वाली है। थीं। हवाओं से आक्सीजन लिया जा रहा था। पानी की धार भीतर असल में परम शक्ति को इनकार करना वैसा है, जैसा मैंने सुना | बह रही थी। यह सब जारी था। और बेल ने कहा, मैं बढुंगी नहीं। है कि एक बेल एक भवन पर चढ़ती थी। लेकिन एक दिन एक समझ सकते हैं, मुसीबत शुरू हो गई। भीतर से बढ़ने का धक्का नास्तिक से उस बेल का मिलना हो गया और उस नास्तिक ने कहा प्राणों में, और बेल अपने को बाहर से रोके। भीतर तो सुगंध जमीन कि यह तेरी मजबूरी है कि तुझमें फूल आते हैं। यह कोई तेरा गौरव से इकट्ठी होने लगी और फूल खिलने को मचलने लगे, और बेल नहीं है। ने इनकार किया कि फूल मैं खिलने न दूंगी। बेल को तो पता ही न था। वह तो फूल खिलते थे, तो आनंद से | जिस बेल में बड़ी बढ़ती होती थी और जो आकाश की तरफ नाचती थी; पक्षियों को निमंत्रण देती थी। सूरज की किरणें आती | | उठती थी, वह जमीन की तरफ झुक गई। उसमें गांठें पड़ गईं। जो थीं, तो सुगंध बिखेरती थी। उस नास्तिक ने कहा, पागल, यह तेरी शक्ति बीज बन सकती थी, वह गांठ बन गई। और जिससे फूल कोई गरिमा और कोई गौरव नहीं है। तू तो मजबूर है बढ़ने को। पैदा होते, उससे बेल सिर्फ बेचैन, परेशान हो गई। रात की नींद खो फूल खिलाने के लिए मजबूरी है तेरी। यह तेरी गुलामी है। तू चाहे | गई, सुबह का आनंद खो गया। पक्षी अब भी गीत गाते, तो बेल तो भी फूल खिलना रुक नहीं सकता। को बुरे मालूम पड़ते। क्योंकि पक्षियों के गीत वसंत की याद जैसा कि सार्त्र ने कहा है। सार्च का प्रसिद्ध वचन है, मैन इज़ | दिलाते, जब फूल खिलते थे। और जब सूरज निकलता, तो बेल कंडेम्ड टु बी फ्री। शायद स्वतंत्रता के साथ कंडेम्ड का प्रयोग | बेचैन होती, उसे याद आती उन दिनों की, जब बेल बढ़ती थी। और दुनिया में किसी दूसरे आदमी ने इसके पहले नहीं किया था। सात्र | जब आकाश में बादल घूमते, तो बेल कष्ट पाती, क्योंकि इन कह रहा है, मनुष्य स्वतंत्र होने के लिए बाध्य है। या कहना चाहिए, | बादलों से उस सब की याद जुड़ी थी, जब इनसे बरसा होती थी और मनुष्य स्वतंत्र होने के लिए निंदित है। उसे स्वतंत्र होना ही पड़ेगा। बेल तृप्त होती थी। स्वतंत्रता उसकी गुलामी है। कोई उपाय नहीं है; स्वतंत्र होना ही अब बेल बिलकुल पागल हो गई। एक दिन घबड़ाकर उसने पड़ेगा। जबर्दस्ती स्वतंत्र किया जा रहा है। परमात्मा से कहा कि मैं बिलकुल पागल हुई जा रही हूं। परमात्मा ऐसा उस नास्तिक ने कहा, यू आर कंडेम्ड टु ग्रो एंड टु फ्लावर। ने कहा, जैसी तेरी मर्जी। मैंने तुझे कभी पागल होने को नहीं कहा। तुम निंदित हो कि तुममें फूल खिलें और तुम बढ़ो। इसमें तुम्हारा | तू अपने ही हाथ से और तू अपने ही आंतरिक स्वभाव से लड़ रही कोई गौरव नहीं है। है। क्योंकि परमात्मा से लड़ना, अपने ही स्वभाव से लड़ना है। निश्चित ही, बेल को बड़ी तकलीफ हुई। फूल तो उसकी छाती जब भी कोई आदमी परमात्मा के खिलाफ खड़ा होता है, तो पर अब भी खिले थे, लेकिन बेकार हो गए। पहली बार अहंकार किसी गहरे अर्थों में अपने खिलाफ खड़ा हो जाता है। वह उन्हीं जागा। और उसने आकाश की तरफ सिर उठाकर परमात्मा से कहा शाखाओं को काटने लगता है, जो उसके प्राण हैं। और जब भी कोई कि बस, अब मैं बढ़ने से इनकार करती हूं। अब मैं इनकार करती | व्यक्ति परमात्मा के विपरीत पीठ करता है, तो वह अपने से ही हूं; ठीक से सुन लो कि अब मैं नहीं बदूंगी। और अब मैं इनकार अजनबी हो जाता है। क्योंकि वह अपने ही तरफ पीठ कर रहा है। करती हूं कि अब मैं फूल नहीं खिलाऊंगी। और अब मैं इनकार | ___ परमात्मा ने कहा कि तू अपने हाथ से मुसीबत में पड़ गई है। ये करती हूं कि मुझमें फल नहीं लगेंगे। जो गांठें तुझे दर्द दे रही हैं, ये तेरे भीतर बीज बन सकती थीं। और परमात्मा ने कहा, जैसी तेरी मर्जी। क्योंकि प्रेम का अर्थ ही यह ये जो पत्ते कुम्हलाकर जमीन की तरफ झुक गए हैं, ये आकाश में है कि वह आपको अपनी मर्जी पर पूरी तरह छोड़ दे। प्रेम का अर्थ | खिले हुए फूल बन सकते थे। और आज पक्षियों के गीत कष्ट देते ही यह है कि वह अपनी मर्जी आपके ऊपर न थोपे। परमात्मा ने हैं, और सुबह की सूरज की किरणें भी प्राणों में भालों की तरह छिद कहा, जैसी तेरी मर्जी। जाती हैं। और आकाश में बादल उठते हैं, पहले भी उठते थे, तब 13951 Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < गीता दर्शन भाग-3 तू नाचती थी मोरों के साथ; लेकिन अब तू नाचती नहीं, तू अपने | आकांक्षा से भर जाता है, वह परमात्मा की तरफ विमुख हो जाता है। को सम्हालकर खड़ी रहती है। तू अपने ही खिलाफ हो गई है! यह | यह जो फ्रायड ने बहुत गहरी खोज की, और फ्रायड को खुद भी अपने से विरोध छोड़। क्योंकि परमात्मा से विरोध अपने से ही | | मुसीबत पड़ी। क्योंकि जिंदगीभर से कहता था, आदमी जीने के विरोध है। लिए आतुर है। लेकिन बुढ़ापे में उसे समझ में आया कि सिर्फ जीने कृष्ण कह रहे हैं, वह आदमी मूढ़ है। के लिए आतुर नहीं है। क्योंकि आदमी हजार ऐसे काम कर रहा है, इस बेल की तरह है वह आदमी, जो परमात्मा का भजन नहीं | जो गवाही देते हैं कि आदमी मरने को भी आतुर है। आदमी कर रहा है। भजन का अर्थ है. जो परमात्मा और अपने बीच कोई कभी-कभी मरना भी चाहता है। आप अपने ही तरफ सोचेंगे. तो सेतु नहीं बना रहा है; जो परमात्मा की शक्ति को अपनी शक्ति नहीं | समझ में आएगा। मान रहा है; जो परमात्मा और अपने बीच किसी तरह का विरोध | | मनोवैज्ञानिक कहते हैं, ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जो और रेजिस्टेंस खड़ा कर रहा है, वह आदमी मूढ़ है। क्योंकि वह | | जिंदगी में दस-पांच बार स्वयं की हत्या का विचार न करता हो। किसी और से नहीं लड़ रहा है, वह अपने से ही लड़ रहा है। और | | यह दूसरी बात है कि आप हत्या न करते हों, क्योंकि हत्या करने हारेगा, क्योंकि बड़ी विराट ऊर्जा से लड़ रहा है। लहर सागर से | के लिए और सब इंतजाम चाहिए, जो आपके पास न हो। हिम्मत लड़ने चल पड़ी! चाहिए, जो न हो। लेकिन हत्या का विचार आदमी करता है। और तो कृष्ण एक तथ्य की बात कहते हैं। कहते हैं, मूढ़ है वह ऐसा नहीं कि बूढ़े ही करते हैं। छोटे-से बच्चे को बाप जोर से डांट आदमी। मूढ़ मुझे नहीं भजते हैं। | दे और बच्चा अपने भीतर सोचता है, इससे तो मर ही जाऊं। इसमें कई दफे पढ़कर ऐसा लगता है कि जो कृष्ण को नहीं | | छोटा-सा बच्चा, अभी जो जीवन की यात्रा पर निकला भी नहीं है; भजता है, कृष्ण उसको गाली दे रहे हैं कि तुम मढ़ हो। नहीं, ऐसा उसके भीतर भी मरने का भाव पकड़ता है। वह भी सोचता है, नहीं है। नहीं भजते हो, इसलिए मूढ़ हो, ऐसा नहीं। मूढ़ हो, | खतम कर दो अपने को, नष्ट कर दो। इसलिए नहीं भजते हो। और इस मूढ़ता में आत्मघात छिपा है, ___ अगर मनुष्य के भीतर कोई मरने की वृत्ति न हो, तो इतनी जल्दी अपना ही विनाश छिपा है। सेल्फ-डिस्ट्रक्टिव, आत्मविनाश की | मरने का खयाल नहीं आ सकता है। और जो गहरे खोजते हैं, वे वृत्ति छिपी है। और हम सबके भीतर आत्मविनाश की वृत्ति है। कहते हैं कि हम दूसरे को भी मारने के लिए इसलिए उत्सुक हो जाते फ्रायड ने तो अपने जीवन के अंतिम दिनों में, मनुष्य के भीतर | हैं, क्योंकि हमें डर है कि अगर हम दूसरे को न मारें, तो कहीं अपने एक डेथ विश, मृत्यु की आकांक्षा भी है, इसकी खोज की है। को मारना शुरू न कर दें। यह बहुत उलटा लगेगा। फ्रायड ने जिंदगीभर एक ही चीज की बात की थी. वह थी ईरोज. | नीत्से से किसी ने पछा कि तम सदा हंसते रहते हो. बात क्या कामवासना, जीवन की इच्छा। लेकिन अंत में उसे लगा कि यह है? नीत्से ने कहा, सिर्फ इसलिए हंसता रहता हूं कि कहीं रोने न अधूरी बात है। आदमी के भीतर मरने की इच्छा भी छिपी हुई है। | लगू। क्योंकि दो के सिवाय कोई उपाय नहीं दिखाई पड़ता। या तो उसे उसने थानाटोस, डेथ विश, मृत्यु की आकांक्षा कहा। उसने | | हंसू, या रोऊ। दो के बीच कोई जगह नहीं है, जहां आदमी खड़ा कहा कि आदमी के भीतर कोई ऐसा तत्व भी है, जो स्वयं को भी | हो जाए। खड़े होने के लिए जगह नहीं है। या तो हंसूं या रोऊं। तो नष्ट करने के लिए आतुर रहता है। मैं हंसता ही रहता हूं, कि अगर हंसना रोका, तो फिर रोना पड़ेगा। इस खोज ने सारे पश्चिम में हैरानी पैदा कर दी थी। लेकिन पूरब | | रोने पर विकल्प बदल जाएगा। इसे सदा से जानता है। सदा से जानता है कि आदमी के भीतर जीवन | इसलिए हर आदमी दूसरे की हत्या का विचार करता रहता है कि की आकांक्षा भी है, और मरने की आकांक्षा भी है। स्वस्थ आदमी | | कहीं अपनी हत्या का विचार न करने लगे। और हर आदमी दूसरे वह है, जो जीवन की आकांक्षा पर यात्रा करता है। अस्वस्थ, रुग्ण को नुकसान पहुंचाने की धारणा बनाता रहता है, ताकि अपने को आदमी वह है, जो मृत्यु की आकांक्षा पर यात्रा करने लगता है। नुकसान न पहुंचाने लगे। हर आदमी आक्रामक है, ताकि कहीं ध्यान रहे, जो आदमी जीवन की आकांक्षा से जीता है, वह | आत्महिंसा में न लग जाए। परमात्मा की तरफ उन्मुख हो जाता है; और जो आदमी मृत्यु की और यह बड़े मजे की बात है, जो लोग आक्रमण छोड़ देते हैं, 3961 Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन अवसर है या जो लोग चेष्टा करके दूसरे की हिंसा छोड़ देते हैं, वे आत्महिंसा में फौरन लग जाते हैं। इसलिए तथाकथित अहिंसा आत्म-हिंसा में लग जाते हैं, वे अपने को सताने लगते हैं। साधक यह बहुत मजे की बात है कि जो आदमी दूसरे को सताना छोड़ता है, वह फौरन अपने को सताने के उपाय करने लगता है। दो में से कोई और रास्ता दिखाई नहीं पड़ता । कृष्ण उसे मूढ़ कहते हैं, जो अपने को सता रहा है। और अपने को सताने के लिए सबसे बड़ी विधि अगर जगत में कोई है, तो वह प्रभु को भूल जाना है। आप कहेंगे, यह कैसी विधि ? छाती में छुरा भोंक लो, ज्यादा तकलीफ होगी। कांटों पर लेट जाओ। जहर पी लो। नहीं । परमात्मा के विस्मरण से बड़ी तकलीफ इस जगत में कोई भी नहीं हो सकती है। परमात्मा के विस्मरण से बड़ी तकलीफ इसलिए नहीं हो सकती है, क्योंकि परमात्मा के विस्मरण के साथ ही जीवन के सब आनंद की धाराएं अवरुद्ध हो जाती हैं। आदमी जीता भी है मरा हुआ । ध्यान रहे, मर जाना उतना बुरा नहीं है, जितना मरे हुए जीना बुरा है। सुना है मैंने, ईरान के एक बादशाह का वजीर एक जुर्म में पकड़ा गया। और जुर्म यह था कि उसने कानून के खिलाफ तीन विवाह कर लिए थे और तीनों औरतों को धोखा दिया था। एक ही विवाह कर सकता था, तीन विवाह कर लिए थे और हर स्त्री को धोखा दिया था कि मैं अविवाहित हूं। तो यह बात पकड़ गई और सम्राट ने उस वजीर को कहा कि यह बहुत ही खतरनाक जुर्म है। अपने न्यायाधीशों से कहा, कठिन से कठिन सजा खोजो। अगर यह भी सजा हो कि इसको फांसी देनी पड़े, तो फांसी दो । लेकिन न्यायाधीशों ने एक सप्ताह विचार किया और कहा कि नहीं, फांसी देने को हम बड़ी कठिन सजा नहीं मानते। हमने और दूसरी सजा खोजी है। बादशाह ने कहा, हैरान करते हो मुझे तु । फांसी से और कठिन सजा क्या हो सकती है? उन्होंने कहा कि तीनों औरतों के साथ इस आदमी को इकट्ठा रहने दो। तीनों औरतों को साथ रहने दो इसके साथ । कहते हैं, इक्कीसवें दिन उस आदमी ने आत्महत्या कर ली। और वह चिट्ठी लिखकर रख गया कि यह सजा मुझे तो दी, लेकिन कभी अब किसी और को मत देना। इससे तो फांसी बेहतर थी। मौत इतनी बुरी नहीं है, जीवन जितना बुरा हो सकता है। जीवन के बुरे होने की संभावना बहुत ज्यादा है। मौत के बुरे होने की संभावना बहुत ज्यादा नहीं है। मौत तो सिर्फ द्वार का बंद हो जाना जीवन, प्रभु से हीन, ऐसा जीवन है, जिसमें चारों तरफ हमारे सब तरह के दुश्मन इकट्ठे हो जाते हैं। उसके पास तो तीन औरतें थीं; हमारे पास तीन हजार औरतें इकट्ठी हो जाती हैं। औरतों का मतलब, क्रोध इकट्ठा हो जाता है, बेईमानी इकट्ठी हो जाती है, चोरी इकट्ठी हो जाती है, हिंसा इकट्ठी हो जाती है, सब उपद्रव इकट्ठे हो जाते हैं। और उनके बीच हमें जीना पड़ता है। एक प्रभु का साथ छूटा कि चारों तरफ जीवन में सिवाय उपद्रव के और कुछ नहीं बचता। क्योंकि जो आदमी प्रभु की तरफ पीठ करेगा, उसने अपने आप अंधेरे की तरफ आंखें कर लीं। अब वह अंधेरे में, और अंधेरे में, और अंधेरे में उतरेगा। जिसने प्रभु का | साथ छोड़ा, उसने अपने हाथ से दुर्गुणों को निमंत्रण दिया। जिसने | प्रभु का साथ छोड़ा, उसने अपने हाथ से गड्ढों में, पतन में और नर्कों में उतरने का इंतजाम किया। 397 तो कृष्ण कहते हैं, मूढ़ हैं जगत में ऐसे, दुष्टजन हैं वे, नासमझ हैं, असात्विक भावनाओं से भरे हुए हैं, वे मेरी प्रार्थना नहीं करते। लेकिन आपसे मैं एक बात कह दूं। इससे आप यह मत समझना कि जो-जो प्रार्थना करते हैं, वे इन मूढ़ों में नहीं हैं। क्योंकि जरूरी नहीं है कि आप प्रार्थना करते वक्त प्रार्थना ही कर रहे हों । प्रार्थना करनी बड़ी कठिन है। इसलिए आप एकदम निश्चित होकर मत बैठ जाना कि यह किसी और की बात हो रही है, मैं तो रोज मंदिर जाता हूं। मैं तो प्रार्थना करता हूं। जरूरी नहीं है, आपकी प्रार्थना प्रार्थना हो । मैंने सुना है, एक स्त्री के पास एक तोता था, नर तोता; लेकिन वह गाली-गलौज सीख गया था। जिससे खरीदा था, वह एक होटल थी और वहां सब तरह के लोग आते-जाते थे। वह गाली-गलौज सीख गया था। वह स्त्री बड़ी परेशान थी, क्योंकि घर में मेहमान आते और वह बेहूदी बातें बोल देता । उसने अपने पड़ोस के पादरी को, चर्च के पादरी को कहा कि कुछ उपाय करो। तुम तो सब कुछ जानते हो । आदमियों तक को बदल देते हो, तो यह तो तोता है । फिर से दोहराऊं, उसने कहा, आदमियों तक को बदल देते हो, तो यह तो तोता है। इसे थोड़ा उपदेश दो कि यह बदल जाए। पादरी ने कहा, यह तो मेरी भाषा न समझेगा, लेकिन मेरे पास एक मादा तोता है। वह दिन-रात प्रार्थना किया करती है। चौबीस घंटे चर्च में उसकी प्रार्थना गूंजती रहती है। तुम इसे ले आओ; दोनों Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 गीता दर्शन भाग-3 को सत्संग में रख दें। है। जितना दिया है, वह इतना ज्यादा है कि उसे धन्यवाद देने की सत्संग का असर तो पड़ता ही है। निश्चित पड़ता है। लेकिन | बात है, वह बैंक्स गिविंग। किस तरफ से पड़ेगा, कहना मुश्किल है। गुरु शिष्य को ले जाएंगे लेकिन उसको धन्यवाद देने हम कभी नहीं जाते कि तने हमें स्वर्ग की तरफ, कि शिष्य गुरु को ले जाएंगे नर्क की तरफ, कहना | इतना दिया है। हम जाते हैं कहने कि क्या मारे डाल रहा है। कछ मुश्किल है! प्रभाव तो जरूर पड़ता है। भी नहीं है पास। लड़के की नौकरी नहीं लग रही। लड़की की शादी खैर, स्त्री को बात जंच गई। वह अपने नर तोते को ले आई। | नहीं हो रही। परीक्षा में फेल हुए जा रहे हैं। धंधा बिगड़ा जा रहा है। एक ही पिंजरे में दोनों को बंद कर दिया। दोनों दूर बैठ गए; देखें | | सब इस तरह की बातें लेकर हम परमात्मा के सामने जाते हैं। कि क्या चर्चा चलती है! मादा तोता थोड़ी देर चुपचाप बैठी रही; | । मूढ़ भी प्रार्थना करता है, लेकिन कृष्ण उसकी प्रार्थना को प्रार्थना नर तोता भी थोड़ी देर चुपचाप बैठा रहा। फिर उस नर तोते ने नहीं मानते। क्योंकि वह परमात्मा को नहीं भजता, वह परमात्मा के कहा, क्या खयाल है? हे डियर बेबी, व्हाट डू यू थिंक अबाउट बहाने जगत की चीजों को ही भजता है; वह जगत को ही भजता है। लविंग-प्रेम के बाबत क्या खयाल है? उस मादा तोते ने कहा, कठिनाई है। हमारा चित्त जैसा है, वह केवल सांसारिक वस्तुओं . इट इज़ ओ के किड। बिलकुल ठीक। व्हाट डू यू थिंक, आई वाज | को ही भज पाता है। कभी देखा, एक आदमी एक नई कार खरीदने प्रेइंग फार आल दीज इयर्स? क्या सोचते हो तुम, मैं प्रार्थना | | की सोचता है, तो रातभर नींद नहीं आती। करवटें बदलता है, फिर किसलिए कर रही थी इतने वर्षों से? एक तोता मिल जाए। । | कार दिखाई पड़ने लगती है। फिर करवट बदलता है, फिर कार यह प्रार्थना जो वर्षों से चल रही थी चर्च में उस मादा तोते की, | | दिखाई पड़ने लगती है। हजार रंग दिखाई पड़ते हैं, हजार ढंग वह यही प्रार्थना थी कि कहीं से एक तोता मिल जाए। चर्च का पादरी | दिखाई पड़ते हैं। महीनों सो नहीं पाता। धोखे में था। अधिक चर्चों के पादरी धोखे में है कि जो लोग प्रार्थना | यह जो चित्त है, अगर इसको आप मंदिर में ले जाएं, तो प्रार्थना करने आते हैं, वे किसलिए आ रहे हैं। | तो जरूर करेगा, लेकिन इसे दिखाई कार ही पड़ेगी। इसे कुछ और असली सवाल यह नहीं है कि आप प्रार्थना करते हो; असली | | दिखाई नहीं पड़ सकता। चित्त की भाषाएं हैं। सवाल यह है कि किसलिए करते हो। अगर परमात्मा के अतिरिक्त सुना है मैंने, एक आदमी ने एक घोड़ा खरीदा। बेचने वाले ने और कोई भी मांग बीच में है, तो वह प्रार्थना परमात्मा की प्रार्थना बहुत दाम बताए। आदमी ने पूछा, इतने दाम की बात क्या है? नहीं है। अगर बीच में धन है, पद है, यश है, स्वास्थ्य है, सुख है, उसने कहा, यह घोड़ा बहुत अदभुत है। एक तो, यह तूफान की तो आपको परमात्मा से कोई भी प्रयोजन नहीं है। आपको प्रयोजन चाल से चलता है। और इससे भी बड़ी बात यह है कि इसकी अपने सुख से है। प्रार्थना करते हैं कि शायद परमात्मा से मिल जाए, चाल तो तेज है ही, तो अक्सर सवार गिर जाता है-अगर कभी तो परमात्मा को भी एक इंस्ट्रमेंट, एक साधन–सच, परमात्मा से तुम गिर जाओ, तो यह तुम्हें वहीं स्थान पर सुलाकर, डाक्टर को भी थोड़ी सेवा लेने की उत्सुकता है, और कुछ भी नहीं है। | भी बुला लाता है। उस आदमी ने कहा, चमत्कार! उसके दिल में प्रार्थना कर लेने से प्रार्थना नहीं हो जाती। तो इसलिए जरूरी नहीं भी बहुत दिन से घोड़ा तो लेने का इरादा था। उसने घोड़ा खरीद है कि मढ़ लोग प्रार्थना न करते हों। मढ़ लोग प्रार्थना करते हैं, लिया। दाम भी चकाए। और उसने सोचा कि पहले दिन प्रयोग लेकिन प्रार्थना कभी नहीं करते। कुछ मांग ही होगी उनकी, | करके भी देख लें। छोटी-मोटी, क्षुद्र। और कभी सोचेंगे भी नहीं कि क्या मांगने ___घोड़े पर बैठा। घोड़ा सचमुच तूफान की तरह दौड़ा। और दौड़ा, परमात्मा के सामने खड़े हैं! | तो उसने जाकर एक गड्ढे में उस आदमी को गिराया। जब वह आदमी __असल में कुछ भी मांगने अगर कोई परमात्मा के सामने खड़ा | गिरा, तो उसने सोचा कि आधी बात तो पूरी हो गई, अब आधी देखें। है, तो प्रार्थना नहीं होगी; क्योंकि प्रार्थना मांग नहीं है। प्रार्थना का घोड़ा उसे गिराकर फौरन वापस लौटा। उसने सोचा, हैरानी की बात : अर्थ ही है, बिना मांगा धन्यवाद; मांग नहीं है। प्रार्थना बड़ी उलटी है! और थोड़ी देर में घोड़ा डाक्टर को लेकर आ गया। चीज है। वह किसी चीज की मांग नहीं है, बल्कि जो परमात्मा ने फिर दो-दिन बाद जब उस आदमी को होश आया, तो घोड़े का दिया है, उसके लिए धन्यवाद है, अनुग्रह का भाव है, ग्रेटिटयूड मालिक उसके पास आया और उसने कहा, कहो भाई, संतुष्ट तो 398 Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन अवसर है >> हो ? उसने कहा, संतुष्ट तो बहुत हूं। हाथ-पैर टूट गए। पर, उसने कहा कि देखा, घोड़ा डाक्टर को बुलाकर लाया । उसने कहा कि बिलकुल लाया। लेकिन एक ही गलती हो गई । वेटरनरी डाक्टर बुला लाया। उसने कहा, घोड़ा तो घोड़ा ही है। उसको आदमियों डाक्टर का कोई भी पता नहीं है। वह घोड़ों के डाक्टर को लिवा लाया। तो यह तो तुम्हें पहले ही समझ लेना था। उस बेचने वाले ने कहा, यह तो साफ ही है। वह जो हम सबकी भाषाएं हैं। घोड़ा ठीक ही है कि वेटरनरी डाक्टर को बुला लाए। वह हमारा जो चित्त है, वह जब प्रार्थना करने जाएगा, तो उसकी अपनी भाषा है; वह वेटरनरी डाक्टर को बुला लाएगा। वह परमात्मा तक नहीं पहुंचेगा। वह उन चीजों तक पहुंच जाएगा, जिन चीजों से उसके संबंध रहे हैं, जिन चीजों से उसका परिचय है, जिन चीजों को उसने चाहा है। हम अगर परमात्मा भी मिल जाए अचानक हमारे चित्त को, वही चीजें मांगेंगे, जो हम मांगते रहे हैं। उस मौके को भी हम खो देंगे। अगर ठीक परमात्मा...। सोचें जरा अपने मन में कि आज रात परमात्मा आपके बिस्तर के पास आकर खड़ा होकर जगाए कि उठिए । क्या चाहिए? तो जरा सोचें अपने मन में। आपको फौरन पता चल जाएगा कि आप क्या मांगेंगे। परमात्मा को कोई मांगेगा, इसमें बहुत संदेह है। क्योंकि जिसने कभी नहीं मांगा उसे, वह अचानक आज रात नहीं मांग पाएगा। कृष्ण कहते हैं, मूढ़ है वह व्यक्ति । मूढ़ मुझे नहीं भजते हैं। फिर मुझे कौन भजता है? जिज्ञासु, मुमुक्षु, वे सात्विक लोग, वे सदाचरण वाले लोग, बुद्धिमान मुझे भजते हैं। सच में ही, वही आदमी बुद्धिमान है, जो इस जगत के अवसर का उपयोग प्रभु की झलक पाने में कर ले। उसके अलावा कोई भी बुद्धिमान नहीं है। वही आदमी बुद्धिमान है, जो इस जीवन के अवसर का उपयोग जीवन के परम सत्य की खोज में कर ले। बाकी कोई आदमी बुद्धिमान नहीं है। बाकी सभी बुद्धिहीन हैं। जीवन उन चीजों को इकट्ठा करने में भी गंवाया जा सकता है, जिन चीजों को पाकर कुछ भी नहीं मिलता। और हम सब वैसा ही गंवाते हैं। जीवन उन चीजों की खोज में नष्ट किया जा सकता है, जिन्हें हम न पाएंगे, तो भी दुखी होंगे; और पा लेंगे, तो भी दुखी होंगे। सिकंदर जीत ले सारी दुनिया, तो भी सुखी नहीं हो पाया। क्योंकि सारी दुनिया को जीतने से सुख का कोई भी संबंध नहीं है। न जीते, तो दुखी हो। जीतने की कोशिश करे, तो परेशान हो । और फिर जीत ले, तो जीत से कुछ न पाए। सब मिल जाए- जो हमारा मन चाहता है, सब मिल जाए - तो भी हम अचानक पाएंगे कि भीतर सब कुछ खाली रह गया है। कुछ मिला नहीं। जीवन के गहरे मूल्य तृप्त नहीं हुए। और जीवन की गहरी प्यास, प्यास ही रह गई; और जीवन की असली भूख, भूख ही रह गई, और प्राण अब भी पुकार रहे हैं किसी वर्षा के लिए। बादल बहुत बरसे, बहुत गर्जन हुआ, बिजलियां चमकीं, सागर भर गए नीचे। लेकिन वह अमृत नहीं बरसा, जिसकी तलाश थी। परमात्मा के अतिरिक्त वह अमृत कहीं और नहीं है। परमात्मा से क्या मतलब? परमात्मा से मतलब है, जीवन का जो गहनतम सत्य है, वही । जन्म के पहले भी जो मेरे भीतर था, और मृत्यु के बाद भी जो मेरे भीतर होगा, वही । जब मैं जागता हूं, तब भी जो मेरे भीतर है; और जब मैं सो जाता हूं, तब भी मेरे भीतर होता है - वही । जब मैं बच्चा हूं तब, और जब मैं जवान हूं तब, और जब बूढ़ा हो जाऊंगा तब, तब भी जो नहीं बदलता मेरे भीतर - वही । वह जो सारे परिवर्तन | के बीच शाश्वत है; वह जो सारी उथल-पुथल के बीच स्थिर है; | वह जो सारी गतियों के बीच, सारी आंधियों के बीच अडिग है; वह जो सब जीवन और मृत्यु के बीच सदा एक-सा है— उस एक की | खोज परमात्मा की खोज है। 399 निश्चित ही, बुद्धिमान वही है, वाइज वही है, मेधावी वही है, जो इस जीवन से उसे पा ले। 1 हम करीब-करीब ऐसे लोग हैं कि सागर के तट पर गए हों, अवसर मिला हो, और सागर में हीरे पड़े हों, लेकिन हम किनारे पर रेत में जो सीप और चमकदार पत्थर पड़े रहते हैं, उनको बीनने में बिता रहे हैं। वह हम सब बीनकर इकट्ठा ढेर कर लेंगे। जीवन हाथ से जाएगा! ढेर वहीं पड़ा रह जाएगा। क्या खोज रहे हैं हम ? हमारी खोज वैसी है, रामकृष्ण कहा करते थे कि चील अगर आकाश में भी उड़ रही हो, तब भी तुम | यह मत सोचना कि वह आकाश में उड़ती है। उसकी नजर तो नीचे कचरेघरों में कोई मांस का टुकड़ा पड़ा हो, कोई हड्डी पड़ी हो, उस पर लगी रहती है। आकाश में उड़ती चील के धोखे में मत आ | जाना कि वह आकाश में उड़ रही है, इसलिए आकाश में उड़ रही होगी । उसका चित्त तो किसी हड्डी पर लगा रहता है, जो किसी कचरेघर पर पड़ी होगी। जीवन का विराट आकाश मिलता है हमें, जिसमें हम परमात्मा Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 के आलिंगन को उपलब्ध हो सकते हैं। बड़ी संपदा हमारी हो सकती | | पास। नाच-गान चल रहा है। यह सब क्या उपद्रव है! मैं संन्यासी, है, जिसका कोई अंत नहीं। कुबेर के खजाने चुक-चुक जाएं और मैं ब्रह्मचारी। मुझे यहां कहां भेज दिया! आपके पास किसलिए सोलोमन के खजाने छोटे पड़ जाएं। सीपियां सिद्ध होते हैं। नदी के भेजा है? और आप मुझे क्या खाक सिखाएंगे? अभी खुद ही तो किनारे बीने गए कंकड़-पत्थर रंगीन, बच्चों के खिलौने! लेकिन | सीखे नहीं! एक और संपदा है, जिसे पाते ही जीवन उस रौनक को उपलब्ध उस सम्राट ने कहा कि मैं तो भजन करता रहता हूं। उसने कहा, होता है, जिसका कोई अंत नहीं है; जिसे मृत्यु नहीं बुझाती; जिसे | क्या खाक भजन होता होगा! यह भजन हो रहा है ? शराब ढल रही अंधेरा नहीं मिटाता; जिसे दुख नहीं मिटाता; जिसे पीड़ा नहीं छूती; | है; प्याले सरक रहे हैं; स्त्रियां नाच रही हैं—यह भजन हो रहा है? जो अस्पर्शित रह जाती है। उस संपदा को पाया जा सकता है इसी तुम मुझे अभी चले जाने दो। ऐसा भजन मुझे नहीं सीखना। सम्राट जीवन में। ने कहा कि यह तो भजन नहीं है। लेकिन भजन जारी है। खैर, कल निश्चित ही, जो उस दिशा में न चले, उसे कृष्ण कैसे बुद्धिमान | सुबह हम बात कर लेंगे। कहें? वे कहेंगे, बुद्धिमान हैं वे, वे ही हैं बुद्धिमान, जो मुझे भजते | बहुत सुंदर बिस्तर पर उसे सुलाया, जैसे पर वह कभी न सोया हो। बहत सखद इंतजाम किया। सब सविधा की: जो सम्राट के यह भजने का, प्रभु को स्मरण करने का इतना आग्रह! क्या पास श्रेष्ठतम था। चाहते हैं? क्या इशारा है उनका? एक छोटी-सी कहानी से समझाने | सुबह जब उठा संन्यासी, सम्राट ने पूछा, प्रसन्न तो हैं। कोई की कोशिश करूं। | अड़चन, कोई तकलीफ तो न थी? उस संन्यासी ने कहा, तकलीफ सुना है मैंने, एक संन्यासी को उसके गुरु ने कहा कि तू अब यहां | तो कोई न थी, आराम तो पूरा था। लेकिन नींद नहीं लगी। नींद क्यों न सीख पाएगा। हम जो सिखा सकते थे, सिखाया; लेकिन उसके | | नहीं लगी? कहा कि आप भी अजीब आदमी हैं। अच्छा बिस्तर लिए तू बहरा है। तू यहां से जा और देश की राजधानी में सम्राट के दिया। सब दिया। यह ऊपर एक नंगी तलवार एक धागे से काहे के पास पहुंच जा। अगर कुछ सीख सकता है, तो अब वहीं। | लिए बांधकर लटका दी? तो रातभर प्राण संकट में रहे। आंख बंद वह संन्यासी यात्रा करके सम्राट के द्वार पर पहुंचा। बड़ी | करूं, तो तलवार दिखाई पड़े। पता नहीं धागा कब टूट जाए! और मश्किल में पड़ा। सम्राट को देखा। रात हो गई थी। दरबार भरा था। पतला धागा! करवट लू, तो प्राण संकट में, कि पता नहा, वह नर्तकियां नाचती थीं। अर्धनग्न स्त्रियां नाचती थीं। शराब ढाली जा तलवार कब टूट जाए। रातभर एक पल सो नहीं सका। रही थी। सम्राट बीच में बैठा था। उस संन्यासी ने कहा, यहां मुझे सम्राट ने कहा, मैं तुझे कहता हूं कि इसे ऐसा कह कि रातभर सीखने भेजा है! अपने मन में सोचा, अच्छा फंसा! अब कहां तूने तलवार का भजन किया। बिस्तर लुभा न सके। चारों तरफ इत्र भागकर जाऊं? अब इस रात कहां ठहरूंगा? की खुशबुएं थीं, वे सुला न सकीं। कुछ सुला न सका। तलवार का सम्राट ने कहा, इतने चिंतित मत होओ। इतने बेचैन मत होओ। भजन जारी रहा। तुझसे मैं कहता हूं, स्त्रियां नाचती थीं, माना कि ठीक जगह ही भेजे गए हो। आओ, विश्राम करो रात। जल्दी क्या वे अर्धनग्न थीं; शराब ढलकाई जाती थी, माना कि लोग शराब पी है लौट जाने की? दो दिन बाद लौट जाना। वह बहुत घबड़ाया। | रहे थे; लेकिन तुझे मैं कहता हूं, ठीक तलवार की तरह मौत मेरे उसने कहा, मैंने तो आपसे कुछ कहा नहीं! सम्राट ने कहा कि कहने ऊपर लटकी है। तेरे ऊपर ही कल रात लटकी थी, ऐसा नहीं; से ही कुछ सुनाई पड़ता हो, ऐसा कहां! तेरे गुरु ने कितना तुझसे सबके ऊपर लटकी है; कच्चे धागे में ही लटकी है। तुझे दिखाई कहा, तूने कुछ न सुना। जब कहने से सुनाई न पड़े, तो न कहने से | | पड़ रही थी, क्योंकि मैंने प्रत्यक्ष लटका दी थी। मौत की तलवार भी सुनाई पड़ सकता है। तू बैठ। तू जल्दी मत कर। | दिखाई नहीं पड़ती; सबके ऊपर लटकी है। . रात भोजन करवाया। भोजन के बाद फिर उस संन्यासी ने कहा, पर, उसने कहा, इससे भगवान के भजन का क्या मतलब? एक बात तो कम से कम बता दें! सम्राट ने कहा, जल्दी क्या है? | | | जिस तरह मैं तलवार का भजन करता रहा रातभर, अगर आपको कल सुबह पूछ लेना। उसने कहा कि नहीं; रातभर नींद न आएगी। मौत इस तरह लटकी हुई दिखाई पड़ती है, तो आप मौत का भजन यह क्या मजा है! मेरे गुरु ने आपके पास भेज दिया; शराबी के | | कर रहे होंगे? Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -जीवन अवसर है - उस सम्राट ने कहा, नहीं; जिस दिन मौत प्रतिपल दिखाई पड़ने | | बस, इतने में ही मूढ़ बुद्धिमान हो जाता है। इतनी-सी घटना से मूढ़ लगे, जिस ,जिस दिन शरीर बद्धिमान हो जाता है। जड़ता गिर जाती है. और चैतन्य का जन्म हो का सब कुछ मरेगा, यह दिखाई पड़ने लगे; जिस दिन पदार्थ के जाता है। पर्दे हट जाते हैं, और रहस्य के द्वार खुल जाते हैं। जगत में सब विनष्ट होगा, यह दिखाई पड़ने लगे-उस दिन | __ लेकिन हम हिप्नोटाइज्ड हैं, हम बिलकुल सम्मोहित हैं चीजों उसका स्मरण शुरू हो जाता है, जो विनष्ट नहीं होता, जो अमृत से। हम इस बुरी तरह से सम्मोहित हैं, जिसका कोई हिसाब नहीं! है। मौत तो तलवार की तरह लटकी है, लेकिन मेरे हृदय में अब | हाथ कुछ नहीं लगता; अनुभव तक नहीं लगता हाथ। जिंदगीभर मौत का स्मरण नहीं है, क्योंकि मौत तो है। अब मेरे मन में उसका | | इस उपद्रव के बाद अनुभव भी हाथ नहीं लगता। स्मरण है, जो मौत के भी पार है, और जो मौत से भी नष्ट नहीं | सुना है मैंने कि एक आदमी ने नई-नई किसी के साथ साझेदारी होता; जो मौत के बीच से भी गुजर जाता है, अस्पर्शित। की। कोई पूछता था कि फिर कोई साझेदार मिल गया तुम्हें? क्योंकि प्रभु-स्मरण का अर्थ है, अमृतत्व का स्मरण, चैतन्य का स्मरण, | वह आदमी कई साझेदारों को धोखा दे चुका है। फिर कोई साझेदार परम सत्ता का स्मरण। मिल गया तुम्हें ? उसने कहा, फिर कोई साझेदार मिल गया। जमीन और वह स्मरण ऐसा नहीं है कि आप पांच क्षण को घर में | | पर नासमझों की कोई कमी नहीं है। लेकिन कोई भी साझेदार मेरे बैठकर दोहरा लें और हो गया। वह स्मरण ऐसा है कि आपके साथ रहकर नुकसान में कभी नहीं पड़ता। उस आदमी ने कहा, यह रोएं-रोएं में, श्वास-श्वास में, हृदय की धड़कन-धड़कन में प्रवेश | तुम क्या कह रहे हो! हमने तो अब तक यही सुना कि जो भी तुम्हारे कर जाए। उठे, तो उस भजन में; सोएं, तो उस भजन में; चलें, तो | साथ रहता है, नुकसान में पड़ता है। उस भजन में तो बुद्धिमत्ता है। उसने कहा, तुम समझो, फिर तुम कभी ऐसा न कहोगे। अब यह · कृष्ण कहते हैं, दो तरह के लोग हैं इस जगत में। मूढजन हैं, जो | जो नया साझीदार है, पूरी पूंजी लगा रहा है। पूरी पूंजी वह लगा रहा मेरी तरफ आंख नहीं उठाते, जब कि मैं उन्हें निहाल कर दूं। | है, पूरा अनुभव मैं लगा रहा हूं। फिफ्टी-फिफ्टी समझो। आधा मेरा बुद्धिमान हैं, जो मेरे अतिरिक्त और कहीं नजर नहीं ले जाते। | है, आधा उसका। अनुभव मेरा, धन उसका। और तुमसे मैं कहता क्योंकि मेरी तरफ नजर उठी कि फिर और कोई जगह देखने योग्य हूं कि पांच साल में अनुभव उसके पास होगा और धन मेरे पास। नहीं रह जाती। मेरी तरफ नजर उठी कि फिर और कुछ पाने योग्य | | लेकिन तुम समझते हो कि मैं ही फायदे में रहूंगा, वह फायदे में नहीं नहीं रह जाता। मझे जिन्होंने पा लिया. उन्होंने सब पा लिया है। रहेगा? अनभव। यह कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से कि अर्जुन समझे, कि मूढ़ के | लेकिन हम जिंदगी में कई बार जीवन का धन गंवा चुके और जगत से यात्रा करे बुद्धिमान के जगत की तरफ। अब तक उस अनुभव को उपलब्ध नहीं हुए, जो वह साझीदार कह कोई मूढ़ ऐसा नहीं है कि बुद्धिमान न हो सके; और कोई | रहा था कि पांच साल में मेरा मित्र हो जाएगा। हमने न मालूम जीवन बुद्धिमान ऐसा नहीं है कि कभी न कभी मूढ़ न रहा हो। सब संतों | के धन को कितनी बार गंवाया है। हम किसी अनुभव को उपलब्ध का अतीत है, और सब पापियों का भविष्य है। और पाप से गुजरे | | नहीं हुए। हम फिर वही करते हैं। हम फिर वही करते हैं। हम फिर बिना कोई संतत्व तक नहीं पहुंचा है। और संतत्व तक जो भी पहुंचा | वही करते चले जाते हैं। जैसे अनुभव जैसी कोई चीज हमारे जीवन है, पाप की अग्नि से निकला है। | में पैदा ही नहीं होती। कल भी वही किया, परसों भी वही किया। इसलिए कभी ऐसा मन में सोचकर मत बैठ जाना कि मैं तो मूढ़ पिछले वर्ष भी वही किया था। आने वाले वर्षों में भी आप वही हूं। दुनिया में कोई मेधा नहीं है, जो मूढ़ता से न गुजरी हो। वह करेंगे। क्या मतलब है इसका? कहीं कोई चीज है, जैसे बिलकुल अनिवार्य शिक्षा है। और दुनिया में कोई ऐसा मूढ़ नहीं है, जिसके हम विक्षिप्त की तरह सम्मोहित हैं संसार के साथ। बिलकुल बंधे भीतर वह बीज न छिपा हो, जो मेधा बन जाए, प्रतिभा बन जाए; हैं पागल की तरह; आब्सेस्ड हैं। नजर नहीं हटती, जैसे किसी ने खिल जाए और बुद्धिमानी हो जाए। फर्क सिर्फ रूपांतरण का है, एक नजर बांध दी हो; वशीकरण हो गया हो। छलांग का। एक अबाउट टर्न, एक पूरा घूम जाना। जिस तरफ मुंह इसलिए कृष्ण कहते हैं कि मेरी माया में डूबे हुए, मेरे सम्मोहन है, उस तरफ पीठ; और जिस तरफ पीठ है, उस तरफ मुंह हो जाना। में डूबे हुए; प्रकृति की दुस्तर माया में डूबे हुए मूढजन, मेरा भजन 401 Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - < गीता दर्शन भाग-3 - नहीं कर पाते हैं। हिप्नोटाइज्ड बाई नेचर। बिलकुल हिप्नोटाइज्ड हैं; | यह दिखाने के लिए कि मैं कुछ हूं...! वह जो छोटे पैर थे, उनकी प्रकृति के गुणों से सम्मोहित हो गए हैं। और मेरा स्मरण नहीं कर हीनता मन में उसको भारी थी। पाते। बस, प्रकृति का ही स्मरण करते हैं। उन्हें कुछ मिलने वाला हिटलर ना-कुछ था। फौज में एक साधारण से सिपाही की तरह नहीं है। लेकिन अगर अनुभव भी मिल जाए, तो बहुत। और जिसे | उसे निकाला गया था। वह दिखाने को उत्सुक हो गया कि मैं भी अनुभव मिल जाता है, वह तत्काल रूपांतरित हो जाता है। कुछ हूं। एक मित्र मेरे पास आए थे, वे कह रहे थे कि दूसरी शादी करने जिन लोगों के भीतर बहुत हीनता की ग्रंथि है, वे किसी बड़े पद का विचार कर रहा है। मैंने उनसे कहा कि जहां तक मझे याद आती पर खडे होकर दनिया को दिखाना चाहते हैं. हम कछ हैं. समबडी। है, तुम छः महीने पहले भी आए थे, जब तुम्हारी पत्नी जिंदा थी, तब | लेकिन उससे कोई अंतर नहीं पड़ता। हीनता की ग्रंथि भीतर रहती तुम तलाक देने का सोचते थे। उन्होंने कहा, हां, इस स्त्री को तो है, सोना ऊपर सज जाता है; पद ऊपर हो जाते हैं; रेशम लग जाता तलाक देने की सोचता था, ऊब गया था। और मैंने कहा, जहां तक है; मखमल लग जाती है; गोटा-सितारा लग जाता है। वह भीतर मुझे याद है, तुमने कहा था कि अगर मेरा किसी तरह इस स्त्री से | जो हीन आदमी था, हीन का हीन बना रह जाता है। तलाक हो जाए, तो मैं संन्यास ही ले लूं। लेकिन अब यह स्त्री अपने | लेकिन कितने ही अनुभव के बाद भी हमारे हाथ अनुभव की आप विदा हो गई। अब तुम दूसरी शादी की क्यों सोच रहे हो? संपदा नहीं लगती। क्योंकि अनुभव की संपदा लग जाए, तो वह तो मैंने उन्हें कहा कि किसी मनोवैज्ञानिक से भी कोई यही पूछ | जो सम्मोहन है प्रकृति का, वह तत्काल टूट जाता है। और प्रकृति रहा था, तो उसे मनोवैज्ञानिक ने कहा कि इससे मालूम पड़ता है, | का सम्मोहन टूटा कि आपकी आंखें उस तरफ उठती हैं, जिस ओर यह अनुभव के ऊपर आशा की विजय है। अनुभव के ऊपर आशा | प्रभु है। की विजय! सम्मोहन से बंधे रहना मूढ़ता है। प्रभु की ओर आंखों का उठ अनुभव तो यही है। वह आदमी कह रहा है कि अब मैं बचना | जाना, उसका भजन शुरू हो जाए, उसका नर्तन शुरू हो जाए, चाहता हूं किसी तरह उस कलह से, जिसका नाम शादी था; उस | उसका कीर्तन भीतर जग उठे, जीवन एक नृत्य बन जाए-प्रभु को उपद्रव से। लेकिन फिर करने का मन हो रहा है। अनुभव के ऊपर समर्पित, उसके चरणों में झुका हुआ तो परम आनंद की आशा जीत रही है फिर। इस आशा में कि शायद दबारा वैसा न हो। उपलब्धि होती है। लेकिन वह सम्मोहन टटे. तभी संभव है इसी आशा में हम हजारों जन्म गंवा देते हैं। फिर खोजेंगे धन; शायद इस बार धन मिल जाए। फिर खोजेंगे पद; शायद इस बार पद मिल जाए। फिर खोजेंगे मकान; शायद इस बार मकान मिल तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिविशिष्यते। जाए। लेकिन कभी मकान नहीं मिलता, मौत मिलती है, कब्र प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः । । १७ ।। मिलती है। और कभी धन नहीं मिलता; ढेर जरूर लग जाता है धन | उनमें भी नित्य मेरे में एकीभाव से स्थिति हुआ अनन्य प्रेम का; भीतर आदमी निर्धन का निर्धन रह जाता है। कभी पद नहीं | भक्ति वाला ज्ञानी अति उत्तम है, क्योंकि मेरे को तत्व से मिलता; सब पद मिल जाते हैं; भीतर की हीनता उतनी की उतनी | जानने वाले ज्ञानी को मैं अत्यंत प्रिय हूं और वह ज्ञानी मेरे रह जाती है; उसमें कहीं कोई अंतर नहीं पड़ता। को अत्यंत प्रिय है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि राजनीतिज्ञ जितने ज्यादा इनफीरिआरिटी कांप्लेक्स से, हीनता की ग्रंथि से पीड़ित होते हैं, इतना कोई भी पीड़ित नहीं होता है। सच तो यह है कि हीनता की 7 की रूप से, अनन्य भाव से, तत्व को समझकर, मुझे ग्रंथि से पीड़ित होते हैं, इसीलिए पदों की तलाश पर निकलते हैं। ५ जो प्रेम करता है, वह ज्ञानी उत्तम है। लेनिन के पैर, कुर्सी पर बैठता था, साधारण कुर्सी पर, तो जमीन दो बातें। एकीभाव से; जरा भी फासला नहीं रखता जो तक नहीं पहुंचते थे। ऊपर का हिस्सा बड़ा था, नीचे का हिस्सा | | मेरे और अपने बीच; किंचित मात्र भेद नहीं मानता जो अपने और छोटा था। मनोवैज्ञानिक कहते हैं विशेषकर एडलर–कि लेनिन । | मेरे बीच। यह बड़ी कठिन बात है। इसे थोड़ा समझना होगा। | 402 Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन अवसर है। > क्या कभी आपने खयाल किया कि प्रेम जिससे भी हमारा होता है, हम उससे कुछ भी नहीं छिपाते ! अगर कुछ भी छिपाते हैं, तो वह मतलब यही हुआ कि नहीं है; पूरा नहीं है। और पूरा ही प्रेम होता है; अधूरा तो कोई प्रेम होता नहीं । प्रेम का अर्थ है, जिस व्यक्ति से मेरा प्रेम है, उसके साथ मैं ऐसे ही रहूंगा, जैसे मैं अपने ही साथ हूं। उससे मैं कुछ भी छिपाऊंगा नहीं । न मेरा कोई पाप, न मेरा कोई झूठ, न मेरी कोई वृत्ति। उससे मैं कुछ भी न छिपाऊंगा। उसके सामने मैं उघड़कर बिलकुल नग्न जाऊंगा, मैं जैसा हूं। क्या परमात्मा के सामने कभी आप उघड़कर पूरे नग्न हुए हैं? ईसाइयत ने, क्रिश्चियनिटी ने कन्फेशन ईजाद किया इसी सिद्धांत के आधार पर। आधार यही है कि तब तक प्रार्थना पूरी नहीं हो सकती, जब तक कि किसी ने अपने पापों को स्वीकार न कर लिया हो, अन्यथा पाप का छिपाना ही फासला रहेगा, डिस्टेंस रहेगा। एक आदमी खड़ा है भगवान के मंदिर में जाकर और वह जान रहा है कि मैंने चोरी की है। पुलिस से तो छिपा रहा है; घर के लोगों से छिपा रहा है; गांव के लोगों से भी छिपा रहा है; भगवान से भी छिपा रहा है! खड़ा है चंदन - तिलक वगैरह लगाकर । और उस चंदन - तिलक के पीछे चोर खड़ा है। और भगवान की प्रार्थना कर रहा है बड़े जोर-शोर से तो फासला भारी है। इसलिए ईसाइयत ने सच में कीमती तत्व विश्व के धर्म में जोड़ा, और वह तत्व था, कन्फेशन, स्वीकारोक्ति। पहले अपने पाप का स्वीकार, फिर पीछे प्रार्थना। ताकि कोई फासला न रह जाए। तुम नग्न और उघड़कर एक हो जाओ। कम से कम परमात्मा से तो पूरी बात कह दो। कम से कम उसके सामने तो वही हो जाओ, जो तुम हो ! सारी दुनिया में तो धोखा हम चलाते हैं। जो हम नहीं होते, वैसा दिखाते हैं। कमजोर आदमी सड़क पर अकड़कर चलता है। हालांकि सब अकड़ कमजोर आदमी की गवाही देती है । ताकतवर आदमी क्यों अकड़कर चलेगा? किससे अकड़कर चलेगा? कमजोर आदमी अकड़कर चलता है। निर्बल आदमी साहस की बातें करता है। कुरूप आदमी सौंदर्य के प्रसाधनों का उपयोग करता है। इसलिए दुनिया जितनी कुरूप होती जाती है, उतने सौंदर्य के साधन की ज्यादा जरूरत पड़ती है। क्योंकि वह कुरूपता को छिपाना है सब तरफ से । स्त्रियों को कुरूपता का बोध ज्यादा भारी है। क्योंकि शरीर का बोध थोड़ा पुरुष से ज्यादा है; बाडी कांशसनेस थोड़ी ज्यादा है। तो वे अपने बैग में ही सब सामान लिए हुए हैं। वहीं उनका सारा सौंदर्य उस बैग में बंद है। जरा मौका मिला कि उनको फिर अपने को तैयार कर लेना है! अपने पर जरा भरोसा नहीं है। वह जो बैग में थोड़ा-सा सामान पड़ा है, उस पर सारा भरोसा है। एक पतली पर्त है सौंदर्य की, जिसके पीछे कुरूपता अपने को ओट में लेती है। हम दुनिया को तो धोखा दे रहे हैं। पर यह धोखा क्या परमात्मा | के पास भी ले जाइएगा ? क्या वहां भी इसी धोखे की शक्ल को, इसी मास्क, इसी मुखौटे को लेकर खड़े होंगे? क्या वहां भी परमात्मा को दिखलाने की कोशिश करेंगे वह, जो कि आप नहीं हैं ? तो फिर एकीभाव न रहा। फिर प्रेम नहीं है, प्रार्थना नहीं है। कृष्ण कहते हैं, एकीभाव को उपलब्ध हुआ, जो छिपाता ही नहीं कुछ । जैसे छोटा बच्चा बगल के मकान से फल चुराकर खा आया है। और दौड़ता चला आ रहा है अपनी मां को कहने, कि देखा, आज पड़ोसी के घर में घुस गया और फल खाकर चला आ रहा हूं! ऐसा सरल, इतना इनोसेंट, जो परमात्मा के सामने अपने को बिलकुल | प्रकट कर देता है, तो एकीभाव निर्मित होता है; नहीं तो एकीभाव निर्मित नहीं होता । एक आदमी अपने विवाह का पच्चीसवां वर्ष दिन मना रहा था; | पच्चीस वर्ष पूरे हो गए थे। एक मित्र ने उससे पूछा कि पच्चीस वर्ष तुम पति और पत्नी दोनों इतनी शांति से साथ रहे हो; तुम दोनों के बीच भी कुछ ऐसी बातें हैं क्या, जो तुम्हारी पत्नी तुम्हारे बाबत न जानती हो, और तुम तुम्हारी पत्नी के बाबत न जानते हो? उस आदमी ने कहा कि ऐसी बहुत-सी बातें हैं, जो पत्नी सोचती | है कि उसके बाबत मुझे पता नहीं हैं, हालांकि मुझे पता हैं। और इसीलिए मैं सोचता हूं, ऐसी भी बहुत-सी बातें जरूर होंगी, जो मैं सोचता हूं, मेरी पत्नी को पता नहीं हैं, लेकिन उसे पता हैं। अगर तुम सच ही पूछ रहे हो, तो ये पच्चीस साल हम साथ रहे, यह कहना कठिन है। हम इन पच्चीस सालों में अपने-अपने मुखौटों को सम्हालने में लगे रहे। हम एक-दूसरे को वह दिखाने की कोशिश करते रहे हैं, जो हम नहीं हैं। और यही हमारा दुख है, यही हमारी पीड़ा है, यही हमारी परेशानी है। हालांकि पच्चीस साल जिसके साथ रहो, वह सब जान लेता है; मुखौटे के पीछे जो छिपा है, उसको भी जान लेता है। क्योंकि कभी | नींद में मुखौटा उखड़ जाता है। कभी क्रोध में उतर जाता है। कभी बाथरूम से एकदम जल्दी से बाहर निकल आए; खयाल न रहा, 403 Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < गीता दर्शन भाग-3 मुखौटा नहीं होता चेहरे पर। कभी मौके-बेमौके जिसके हम साथ | हैं, क्राइस्ट भी, मोहम्मद भी, सब कहते हैं कि उसे पा लेना परम रहते हैं, वह झांक ही लेता है कि पीछे कौन आदमी है! लेकिन फिर | आनंद है। आपके मन में लोभ जगा। भी कोशिश चलती है। लेकिन आपको पता नहीं कि वे सब कहते हैं कि लोभ जिसके बाप बेटे के सामने नहीं खुलता। पत्नी पति के सामने नहीं | मन में है, वह उसे न पा सकेगा। अब बड़ी कठिनाई हो गई। और खुलती। मित्र मित्र के सामने नहीं खुलता। सारी पृथ्वी एक बड़ा आप चले मंदिर की तरफ, मस्जिद की तरफ। आपने सोचा कि डिसेप्शन, एक बड़ा जाल है। और इसीलिए हम इतने परेशान, | चलो आनंद मिलता है, तो हम इसको भी पा लें। इतने चिंतित और बोझिल हैं, क्योंकि सारी दुनिया हमारे खिलाफ है| ___महावीर एक गांव में ठहरे हैं। उस गांव का सम्राटः श्रेणिक और हम अकेले लड रहे हैं। एक-एक आदमी इतनी बड़ी दनिया महावीर से मिलने आया। और उसने महावीर के चरणों पर सिर के खिलाफ लड़ रहा है। इतनी बड़ी दुनिया को धोखा देने में लगा | | रखा और उसने कहा कि आपकी कृपा से...। हुआ है, तो लड़ाई भारी है। झूठ बोल रहा था वह यह। महावीर के पास ऐसा झूठ नहीं परमात्मा के पास तो वही पहुंच सकेगा, जो अपने सब धोखे, बोलना चाहिए। क्योंकि वही मैं कह रहा हूं, एकीभाव नहीं है। वह अपने मुखौटे, अपनी शक्लें मंदिर के बाहर छोड़ जाए, भीतर | बोला, आपकी कृपा से! हालांकि उसकी आंखें, उसका सिर कह जाकर नग्न खड़ा हो जाए और कह दे कि मैं ऐसा हूं। रहा था कि मेरे सामर्थ्य से। लेकिन वह कह रहा था, आपकी कृपा एकीभाव बहुत वैज्ञानिक बात है। जब किसी से मैं कुछ भी नहीं | से। फार्मल। महावीर के पास फार्मेलिटी लेकर नहीं जाना चाहिए; छिपाता, तो एकीभाव उत्पन्न होता है। जब तक छिपाता हूं, तब तक औपचारिकता। दूजापन, दुई, द्वैत, दूसरापन मौजूद रहता है। एक। महावीर ने कहा, क्षमा करो। तुम क्या कहने जा रहे हो! मैंने तो दूसरा, कृष्ण कहते हैं कि ऐसा एकीभाव, अनन्य भाव और तत्व | तुम पर कभी कोई कृपा नहीं की! उसने कहा कि नहीं-नहीं, आपकी को समझकर, जो ज्ञानी मेरे पास आता है, मुझे प्रेम करता है, उसे | बिना कृपा के क्या हो सकता है! यह सब राज्य-वैभव सब आपकी मैं भी प्रेम करता हूं। तत्व को समझकर! क्योंकि बहुत बार ऐसा हो | कृपा से मिला है। महावीर ने कहा, मुझे मत घसीटो। क्योंकि तुमने जाता है कि कुछ लोग बिना तत्व को समझे...। | न मालूम कितने लोगों की हत्याएं की हैं, मेरा कोई इससे लेना-देना बिना तत्व को समझे! तत्व का अर्थ है, बिना जीवन के रहस्य नहीं है। तुम न मालूम कितने लोगों का लहू पी गए हो। इससे मेरा को समझे, बिना किसी गहरी अंडरस्टैंडिंग, बिना किसी समझ के, क्या संबंध है! धर्म की यात्रा पर निकल जाते हैं, तब बड़ी कठिनाई होती है। ऐसे नहीं, वह बोला, बिना आपकी कृपा के क्या हो सकता था। सब अप्रौढ़ चित्त, ऐसे जुवेनाइल, बचकाने चित्त, जिनमें अभी कोई | आपकी कृपा से हुआ है। लेकिन अभी-अभी मुझे पता चला कि यह प्रौढ़ता न थी और जो धर्म की यात्रा पर निकल जाते हैं, वे धर्म को | सब बेकार है, जब तक ध्यान का आनंद न मिल जाए। तो मैं आपसे तो उपलब्ध होते नहीं, सिर्फ धर्म को ही अप्रौढ़ बनाने में सफल हो | | पूछने आया हूं कि कितना खर्च पड़ेगा? मैं खरीद लूं। ध्यान का पाते हैं। आनंद खरीद लेंगे। ऐसी क्या चीज है, जो मैं नहीं खरीद सकता हूं? ऐसा हुआ है चारों तरफ। सारी दुनिया में ऐसा हुआ है। कई बार महावीर को कैसी मुसीबत हुई होगी, हम समझ सकते हैं। ऐसी तो आप जीवन के सत्य को समझकर धर्म की तरफ नहीं जाते; | मुसीबत महावीर जैसे लोगों को रोज होती है। वह बेचारा कुछ बल्कि धार्मिक बातें आपको प्रलोभनपूर्ण लगती हैं, इसलिए चले | | गलत नहीं कह रहा है। वही वेटरनरी डाक्टर की भाषा है। वह सब जाते हैं। इसका फर्क आप समझ लें। तत्व को समझकर जाने वाले | | चीजें खरीदता रहा है। जो भी चीज चाहिए, खरीद लेता है। सोचा और प्रलोभन से जाने वाले का क्या फर्क है? कि ध्यान, सामायिक। महावीर का ध्यान के लिए शब्द है, मैंने आपसे बात कही कि परमात्मा को पाना परम आनंद है। सामायिक। सामायिक कैसे मिल जाए? मैंने बड़ी तारीफ सुनी है आपके मन में ग्रीड पकड़ी, लोभ पकड़ा। आपको लगा कि अरे, | कि बड़ा आनंद है। इसको भी खरीद लेंगे! परमात्मा को पाना परम आनंद है, तो हम भी पा लें! आपने सोचा महावीर ने कहा, ऐसा करो। बड़ा कठिन है मामला। सौदा बहुत कि ठीक है। बुद्ध भी कहते हैं, महावीर भी कहते हैं, कृष्ण भी कहते मुश्किल है। लेकिन फिर अब तुम कहते हो, खरीद लोगे, तो तुम Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < जीवन अवसर है - ऐसा करो कि तुम्हारे गांव में एक मेरा भक्त रहता है। एक बहुत ठीक है, परमात्मा को और जोड़ लें इसी में थोड़ा-सा; उसका सुख गरीब आदमी का नाम महावीर ने लिया कि वह तुम्हारे गांव में रहता | | भी ले लें। यह तो मिल ही रहा है, उसे भी ले लें। वह आदमी सिर्फ है; बहुत गरीब आदमी है। वह ध्यान को उपलब्ध हो गया है; वह प्रलोभन से जा रहा है; तत्व को जानकर नहीं जा रहा है। थोड़ा-सा ध्यान तम्हें बेच देमा। तम चले जाओ: कीमत पछ लो। दनिया में अधिक लोग प्रभ के मंदिर की तरफ प्रलोभन से जाते ___ वह गया कि कोई हर्जा नहीं है। ध्यान क्या, मैं उस पूरे आदमी | | हैं या भय के कारण जाते हैं, जो कि प्रलोभन के सिक्के का दूसरा को ही खरीदकर महल लिए जाता हूं। उसकी क्या बात है, उठवा | पहलू है। भय के कारण, या लोभ के कारण। लेंगे घर पूरे आदमी को ही। उसने उस पूरे आदमी को घर उठवा मौत पास आती है, तो बूढ़ा आदमी घबड़ाने लगता है। वह लिया! आदमी तो आ गया। उसने कहा कि बोल भाई, क्या लेगा सोचता है, अब मरे! अब क्या होगा? अब होगा क्या? अब तो तू तेरे ध्यान का? जो तुझे लेना हो, ले जा। यह मौत चली आ रही है। अब कोई बचा नहीं सकेगा। अब कितने उस आदमी ने कहा कि आप बिलकुल नासमझ हैं। आप कुछ | | ही लोग मुझे वोट दे दें, तो भी मामला हल होगा नहीं। वह वोट समझे नहीं। ध्यान कहीं खरीदा जा सकता है! और मैं बेचना भी | पड़ी रह जाएगी, मैं मर जाऊंगा। अब कितनी ही तिजोड़ी मेरी बड़ी चाहूं, तो कैसे बेचूं! यह तो मेरी भीतरी दशा है। हो, अब वह किसी काम की नहीं है; अब मेरी मुट्ठी उसको बांध उसने कहा, यह बातचीत छोड़ो। ऐसी कौन-सी चीज है, जो मैं | नहीं पाएगी। अब मैं मरा। अब कोई बचा नहीं सकेगा। अब बेटे, नहीं खरीद सकता? मैंने तुझे ही उठवा लिया, तो तेरे ध्यान का क्या | | जिनके लिए मैंने जिंदगी गंवाई, अब मुझे बचा न सकेंगे। मित्र, वश है, जो नहीं आएगा। तेरा ध्यान क्या घर पड़ा रह गया? तू जिनके लिए मैंने सब लगाया, अब मुझे बचा न सकेंगे। समाज, जाकर वापस उठाकर ला। तू जो कहे, मैं देने को तैयार हूं। तू फिक्र जिससे मैं डरता था, अब मुझे बचा न सकेगा। अब इस भय की मत कर। लाख, दो लाख, दस लाख, करोड़-कितना तुझे थर्राहट की हालत में आदमी सोचता है, चलो, भगवान का सहारा चाहिए? तू बोल, और ले ले; और ध्यान दे जा। | ले लें। अब वही बचा सकेगा। उस आदमी ने कहा कि तुम मेरी जान ले लो; ध्यान बेचना भयभीत आदमी भगवान की तरफ चला जाता है। इसलिए मुश्किल है। क्योंकि तुम समझ ही नहीं पा रहे कि ध्यान क्या है। मंदिरों-मस्जिदों में, गिरजों में बूढ़े, वृद्ध इकट्ठे हो जाते हैं-भय उसने कहा, कुछ भी हो, इससे मुझे मतलब नहीं। लोग कहते हैं के कारण। भय के कारण। ये वे ही लोग हैं, जो जवान थे, तब नहीं कि ध्यान मिलने से बड़ा आनंद मिलता है; हमें आनंद से मतलब | आए। और ये वे ही लोग हैं, जो अपने घर के जवानों को भी अभी है। जाने दे ध्यान; ध्यान से तुझे जो आनंद मिला है, वह कोई और | | कह रहे होंगे कि अभी क्या जरूरत है तुम्हें जाने की। अभी तो तरकीब से मिल सकता हो, तो मुझे बता दे। जवानी है। हम में से अधिक लोग धर्म की तरफ लोभ के कारण उत्सुक होते आज एक वृद्ध महिला मेरे पास आई थी। उसकी लड़की ने हैं। एक। सुनते हैं खबर समाधि की, कि खिलते हैं फूल परम; सुनते | | संन्यास ले लिया, तो वृद्ध महिला बहुत परेशान है। वह कह रही हैं खबर ध्यान की, कि भीतर हो जाता है मौन आत्यंतिक; सुनते हैं, | है कि अभी तो इसकी उम्र अभी तो यह जवान है! मैंने उससे कि मृत्यु भी थक जाती है उसके सामने, जो स्वयं को जान लेता है, | | कहा कि यह जवान है, लेकिन तू तो बूढ़ी हो गई! तेरा इरादा कब हार जाती है। मन में लोभ पकड़ता है, हम भी क्यों न पा लें? संन्यास का है? इसका संन्यास रुकवाने आई थी वह कि इसका पर ध्यान रखना, लोभी नहीं पा सकेगा। इसलिए कृष्ण कहते हैं, संन्यास रोको; इसको संन्यास नहीं लेना है। यह तो अभी जवान तत्व को समझकर। है। मैंने कहा, तेरा क्या इरादा है ? तुझे तो संन्यास ले लेना चाहिए। परमात्मा में आनंद मिलता है, ऐसा जानकर जो चलेगा, वह तू तो बूढ़ी हो गई! उसने कहा, वह तो मैं सोचूंगी। लेकिन इसका लोभ से जा रहा है। संसार में दुख है, ऐसा समझकर जो जा रहा तो छुड़वा दो। है, वह तत्व को जानकर जा रहा है। इस फर्क को आप समझ लेना। तो बढे लोग जवानों को कहते हैं कि तम तो अभी जवान हो. संसार व्यर्थ है, ऐसा जानकर जो जा रहा है, वह तत्व को तुम्हें धर्म से क्या लेना-देना! क्योंकि धर्म को उन्होंने सिर्फ भय की जानकर जा रहा है। और जो मान रहा है कि संसार तो बिलकुल भाषा में समझा है। सिर्फ भय। जब भय पकड़ ले और पैर कंप 4051 Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 जाएं, और हाथ-पैर हिलने लगें, और मौत धक्के देने लगे, तब | | बरस रहे हैं; लेकिन वह भरेगा नहीं। सीधे घड़े रखे होंगे, वे भर आखिरी वक्त राम-राम कह लेना। | जाएंगे। फिर मेघ कह सकते हैं कि जो सीधे घड़े हैं, उन्हें मैं भर देता इसलिए तो हम, जब आदमी मर जाता है, तो राम-राम कहकर हूं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उलटे घड़ों पर बरसता नहीं उसको मरघट तक ले जाते हैं। बेचारा खुद नहीं कह पाया; हम कह | पानी। लेकिन उलटे घड़े खुद ही उलटे बैठे हैं; उसमें कोई क्या कर रहे हैं! उनको तो मौका नहीं मिला। अब हम तो कम से कम इतना | सकता है! और पक्की जिद्द करके बैठे हैं कि हम तो उलटे ही बैठे तो उनको साथ दें, कि उनको मरघट तक पहुंचा आएं राम-राम | रहेंगे; हम कभी सीधे न होंगे! कहकर। जिंदगी उनकी चूक गई; उन्होंने कभी राम-राम न कहा। | प्रभु को जो प्रेम करता है, उसे प्रेम मिलता है, उसका कुल अब मर गए हैं, तो अब हम उनको राम-राम कहने जा रहे हैं! | मतलब इतना ही है कि उसे ही पता चलता है कि मिल रहा है। जो मगर एक लिहाज से अच्छा है, क्योंकि आप भी जब मरेंगे, तो | प्रेम ही नहीं करता, उसे कभी पता नहीं चलता कि मिल रहा है। दूसरे आपको भी...! एक म्युचुअल कांसपिरेसी चल रही है, इसलिए जब हम कहते हैं, प्रभु की कृपा, तो ऐसा मत सोचना पारस्परिक षड्यंत्र, कि हम तुम्हें भेज आएंगे, तुम हमें भेज आना। कि किसी पर होती है और किसी पर नहीं होती है। प्रभु की कृपा तो राम-राम कह देना आखिरी वक्त। अगर कहीं कोई परमात्मा होगा, | ऐसे ही बरस रही है, जैसे सूरज निकला हो, और सभी घरों पर तो सुन लेगा कि बड़ा भक्त मर गया। देखो, राम-राम की आवाज | किरणें बरस रही हैं। लेकिन कुछ लोग अपने दरवाजे बंद किए बैठे आ रही है! जिंदगीभर जिनके हृदय से राम नहीं निकला, मरी-मराई | हैं। किन्हीं के दरवाजे भी खुले हैं, तो वे इतने होशियार हैं कि आंख लाश के चारों तरफ राम-राम कर रहे हैं! बंद किए बैठे हैं! क्या करिएगा? सूरज क्या करे? इनकी आंखों मरते दम तक धर्म का खयाल आना शुरू होता है-भय के | की पलकें खोले? खोले, तो ये नाराज होंगे। पुलिस में रिपोर्ट कारण, तत्व की समझ से नहीं। क्योंकि तत्व की समझ का फिर | लिखवाएंगे कि हम सो रहे थे, नाहक सूरज ने हमारी आंखें खोल जवानी, बुढ़ापे और बचपन से कोई संबंध नहीं है। तत्व की समझ दीं। क्या करे सूरज, इनके दरवाजे तोड़े? पुलिस में रिपोर्ट लिखवा बड़ी और बात है, उसका उम्र से कोई लेना-देना नहीं है। देंगे कि सूरज चोर हो गया; हमारे दरवाजे खोलकर भीतर घुसने इसलिए कृष्ण कहते हैं, वे हैं मेरे प्यारे, जो तत्व को समझकर लगा। सूरज बाहर खड़ा रहेगा; जब आप दरवाजा खोलेंगे, आ मेरी ओर आते हैं। उन्हें मैं ज्ञानी कहता हूं। भय से, लोभ इत्यादि से जाएगा। जब आप आंख खोलेंगे, तो किरण भीतर पहुंच जाएगी। जो आ जाते हैं, उनका कुछ मतलब नहीं है। और वे मुझे प्रेम करते परमात्मा का प्रेम तो सब पर बरस रहा है समान। लेकिन इसका हैं, मैं भी उन्हें बहुत प्रेम करता हूं। यह मतलब नहीं कि आपको समान मिलता है। समान आपको इसका क्या मतलब होगा? क्या कृष्ण का प्रेम भी सशर्त है, | मिलता नहीं, क्योंकि आप लेते ही नहीं। बरसता समान है, मिलता कंडीशनल है, कि जब आप उनको प्रेम करेंगे, तभी वे आपको प्रेम | अलग-अलग है। मिलता अपनी-अपनी पात्रता से है। मिलता करेंगे? क्या परमात्मा भी कोई शर्तबंदी करता है कि तुम मेरा नाम अपनी-अपनी उन्मुखता से है। प्रेम करूंगा? तुम तत्व को समझकर आओगे, अब जो आदमी लोभ के कारण परमात्मा की तरफ गया, उसका तो मैं तुम्हें प्रेम करूंगा? क्या परमात्मा भी इस तरह की शर्त रखता | घड़ा उलटा रहेगा। वह कितनी ही प्रार्थना करे, कितनी ही प्रार्थना है? तब तो प्रेम बड़ा छोटा हो जाएगा। करे, उसे प्रेम परमात्मा का मिलेगा नहीं। जो भय के कारण परमात्मा नहीं, कृष्ण का यह मतलब नहीं है कि जो मुझे प्रेम करते हैं, मैं की तरफ गया, उसका घड़ा उलटा रहेगा। वह कितना ही उन्हें प्रेम करता हूं। मतलब यह है कि परमात्मा का प्रेम तो सबके चीखे-चिल्लाए, उसकी चीख-चिल्लाहट परमात्मा के लिए नहीं ऊपर बरसता है। लेकिन जो परमात्मा को प्रेम नहीं करते, उन्हें उस है, भय की वजह से है। प्रेम से कभी संबंध नहीं हो पाता, मिलन नहीं हो पाता। लेकिन जो जीवन के तत्व को समझकर गया कि ठीक है। यह जैसे एक उलटा घड़ा रखा है और बरस रही है वर्षा आकाश से। जीवन, यह सारा खेल, यह सारा नाटक दो कौडी का है, इसका बादल घनघोर बरस रहे हैं, उलटा घड़ा रखा है। रखा रहे। कोई | कोई मूल्य नहीं है। अब मैं उसकी तलाश में चलूं, जो इस जीवन ऐसा नहीं है कि उलटे घड़े पर बादल नहीं बरस रहे हैं। उस पर भी के पार है। इस जीवन के किसी प्रलोभन की वजह से नहीं; यह 406 Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन अवसर है जीवन, टोटल, पूरा का पूरा बेकार हुआ, इसलिए; नाटक हुआ, व्यर्थ हुआ, इसलिए; यह सारा अनुभव सारहीन हुआ, इसलिए अब मैं हदूं और उस तरफ खोजूं। क्या है वहां ? कौन है वहां ? कौन-सी संपदा है वहां ? खोजूं ! इस जिज्ञासा से जो गया ज्ञानी, तत्व को जानकर, एकीभाव को उपलब्ध हुआ, अनन्य होकर मुझे प्रेम करता है, मैं भी उसे प्रेम करता हूं। आज इतना ही। लेकिन जाएंगे नहीं। थोड़ी देर आपके घड़े को सीधा करने की कोशिश करें। ये नाचेंगे फकीर हमारे; थोड़ा आपके घड़े में भी गिर जाए, इसका खयाल रखें। उलटे न बैठे रहें। उलटे बैठे का मतलब कि बैठे हैं अकड़कर कि कहीं कोई चीज भीतर न चली जाए। ताली बजाएं। धुन में साथ दें। बैठे-बैठे आनंदित होकर मगन हों। ये पांच मिनट का पूरा आनंद लेकर जाएं। 407 > Page #434 --------------------------------------------------------------------------  Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय7 सातवां प्रवचन मुखौटों से मुक्ति Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < गीता दर्शन भाग-3 - उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् । युक्त पुरुष इससे विपरीत होता है। युक्त पुरुष का अर्थ है, वह आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् ।। १८।। | जो भीतर एक ही है। कहीं से चखो उसे, स्वाद उसका एक। कहीं बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते । | से बजाओ उसे, आवाज उसकी एक। कहीं से खोजो उसे, वही वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः । । १९ ।।। मिलेगा। किसी द्वार से, किसी दरवाजे से, किसी स्थिति में, वही यद्यपि ये सब ही उदार हैं अर्थात श्रद्धासहित मेरे भजन के मिलेगा। लिए समय लगाने वाले होने से उत्तम है, परंतु ज्ञानी तो यहां जरा-सी धूप बदल जाती है और छाया हो जाती है, तो हम साक्षात मेरा स्वरूप ही है, ऐसा मेरा मत है, क्योंकि वह | बदल जाते हैं। यहां जरा-सा अंतर पड़ता है परिस्थिति में, और स्थिर बुद्धि ज्ञानी भक्त अति उत्तम गति-स्वरूप मेरे में ही हमारे भीतर का आदमी दूसरा हो जाता है। खीसे में पैसे हों थोड़े, अच्छी प्रकार स्थित है। और जो बहुत जन्मों के अंत के | तो हृदय की धड़कन और कुछ होती है। खीसे में पैसे थोड़े कम हो जन्म में तत्वज्ञान को प्राप्त हुआ ज्ञानी, सब कुछ वासुदेव ही | | जाएं, हृदय की धड़कन और कुछ हो जाती है। हम हैं, ऐसा कहना है, इस प्रकार मेरे को भजता है, वह महात्मा अति दुर्लभ है। ही शायद ठीक नहीं है। गुरजिएफ के पास कोई जाता था और कहता था कि मुझे आत्मा को खोजना है, तो गुरजिएफ पूछता था, आत्मा तुम्हारे पास है? 17 भुको जो जानता है, वह उस जानने में ही उसके साथ | बड़ा अजीब सवाल पूछता था। पूछता था, डू यू एक्झिस्ट-तुम प्र एक हो जाता है। सब दूरी अज्ञान की दूरी है। सब हो भी? कोई भी कहेगा कि मैं हूं, नहीं तो आता कौन! गुरजिएफ ____ फासले अज्ञान के फासले हैं। परमात्मा को दूर से कहता, जो घर से निकला था, वही पहुंचा है मेरे पास कि रास्ते में जानने का कोई भी उपाय नहीं है, परमात्मा होकर ही जाना जा | बदल गया? सकता है। अनेकों को उसकी बात समझ में न आती थी। जो भी बात इसलिए कृष्ण कहते हैं, जो मुझे जान लेता है, वह ज्ञानी, समझने योग्य है, वह बहुत कम लोगों की समझ में आती है। जो वासुदेव ही हो गया, वह भगवान ही हो गया, वह कृष्ण ही हो गया, नहीं समझने योग्य है, वह सबकी समझ में आ जाती है। सिर्फ वह मैं ही हो गया। नासमझी ही सबकी समझ में आती है। लेकिन कैसा ज्ञानी कृष्ण को जानता है? दो बातें कही हैं। कहा तो गुरजिएफ कहता था, पहले तुम सोचकर खोजकर आओ कि है, युक्त आत्मा, जिसकी आत्मा युक्त हो गई, इंटिग्रेटेड हो गई। तुम हो भी! अन्यथा मैं मेहनत करूं और तुम बदल जाओ! ऐसे हम सबकी आत्मा खंड-खंड है, अयुक्त है, टुकड़े-टुकड़े है। | कैनवास पर चित्र बनाने का तो कोई मतलब नहीं है, कि हम चित्र हम एक आदमी नहीं हैं; बहुत आदमी हैं एक साथ। नाम हमारा बना न पाएं और कैनवास बदल जाए। ऐसे पत्थर में तो मूर्ति तोड़ने एक है, इससे भ्रम पैदा होता है। एक नाम के लेबिल के पीछे बहुत | का कोई प्रयोजन नहीं है, कि हम पत्थर में मूर्ति तोड़ भी न पाएं कि निवासी हैं। क्षण-क्षण में हमारे भीतर बदलते रहते हैं लोग। हम | पत्थर बदल जाए। एक भीड़ हैं, एक समूह–प्रत्येक आदमी—क्योंकि बहुत खंड हैं | आदमी के साथ करीब-करीब मेहनत ऐसी ही खराब होती है। हमारे। खंड ही हैं, ऐसा नहीं, विपरीत खंड भी हमारे भीतर हैं। जो जो आदमी के साथ मेहनत करते हैं, वे जानते हैं कि किस बुरी तरह हम एक हाथ से करते हैं, उसे ही दूसरे हाथ से मिटा देते हैं। । खराब होती है। सुबह जिसके साथ मेहनत की थी, वह सांझ मिलता एक क्षण हम प्रेम से भर जाते हैं, दूसरे क्षण घृणा से भर जाते | नहीं खोजे से कि कहां गया। चेहरे हैं। हैं। वह जो प्रेम में मंदिर बनाया था, घृणा में मिट्टी में मिल जाता है। लेकिन एक मजे की बात है कि हमारे पास एक चेहरा हो, तो एक क्षण क्रोध में जलते हैं, और फिर क्षमा से भर जाते हैं। वह जो | भी ठीक। झूठा ही सही; एक हो, तो भी ठीक। झूठे चेहरे हैं, वे भी आग जलाई थी अपने ही प्राणों की, उसे अपने ही प्राणों के पानी से | बहुत हैं। और कितनी कुशलता से हम उन्हें बदलते हैं कि हमें कभी बुझाते हैं। क्षण-क्षण हमारे भीतर बदलता रहता है सब कुछ। हम | पता नहीं चलता कि हमने चेहरा बदल लिया। क्षणभर में बदल एक प्रवाह हैं। जाता है। 1410 Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखौटों से मुक्ति > सुना है मैंने कि फकीर नसरुद्दीन के गांव में उस देश का सम्राट आने वाला था। तो गांव में कोई इतना बुद्धिमान आदमी नहीं था, जितना कि नसरुद्दीन । तो लोगों ने कहा कि तुम्हीं गांव की तरफ से उनसे मिल लेना, क्योंकि दरबारी शिष्टता, सदाचार का हमें कुछ पता नहीं। नसरुद्दीन ने कहा, मुझे ही कहां पता है! अधिकारियों ने कहा, घबड़ाओ मत, हम राजा को प्रश्न भी समझा देंगे कि वह तुमसे क्या पूछे और तुम्हें जवाब भी समझा देते हैं कि तुम क्या जवाब दो; फिर कोई दिक्कत न रहेगी। नसरुद्दीन ने कहा कि बिलकुल ठीक है। सब बना हुआ खेल था। राजा को समझा दिया गया था कि गरीब गांव है, बेपढ़े-लिखे लोग हैं। एक नसरुद्दीन भर है, जो थोड़ा-सा लिख-पढ़ लेता है । तो यही सवाल पूछना, क्योंकि इसी के जवाब उसने तैयार कर रखे हैं । और कोई सवाल मत पूछना। लेकिन बड़ी गड़बड़ हो गई । सम्राट ने पूछा... नसरुद्दीन को सिखाया था कि तेरी उम्र कितनी है ? नसरुद्दीन की जितनी उम्र थी, साठ वर्ष, उसने तय कर रखा था। सम्राट को पूछना था कि कितने दिन से धर्म के अध्ययन और साधना में लगा है ? तो पंद्रह वर्ष, उसने याद कर रखा था। लेकिन सब गड़बड़ हो गया । सम्राट ने पूछा, तेरी उम्र कितनी है ? नसरुद्दीन ने कहा, पंद्रह | वर्ष। थोड़ा सम्राट हैरान हुआ। साठ साल का बूढ़ा था, लेकिन पंद्रह वर्ष कह रहा था। फिर उसने पूछा कि और तुम धर्म की साधना में कितने दिन से लगे हो ? नसरुद्दीन ने कहा, साठ वर्ष । सम्राट ने कहा कि तुम पागल तो नहीं हो ? नसरुद्दीन ने कहा, वही मैं सोच रहा हूं कि आप पागल तो नहीं हैं! क्योंकि मुझे जिस क्रम में समझाया गया था, मालूम होता है कि तुम्हें किसी और क्रम समझाया गया है। तुम भी रटे-रटाए सवाल पूछ रहे हो, मैं भी रटे-रटाए जवाब दे रहा हूं। बीच का आदमी गड़बड़ कर गया। बड़ी मुश्किल हो गई। पूरा गांव इकट्ठा था । दरबारी इकट्ठे थे । अब क्या हो? नसरुद्दीन ने कहा, ऐसा करें, तुम यह राजा होने का जरा नकाब उतार लो, और मैं बुद्धिमान होने का नकाब उतार लूं। फिर हम दोनों बैठकर दिल खोलकर बात करें, तो कुछ मजा आए। यह चेहरा तुम जरा अलग कर दो सम्राट होने का, और मैं भी चेहरा अलग कर दूं बुद्धिमान होने का । इसी में सब गड़बड़ हो गई। ये चेहरे दिक्कत दे रहे हैं। पता नहीं, वह सम्राट समझा या नहीं । नसरुद्दीन तो मजाक कर रहा था। वह सच में ही बुद्धिमान लोगों में से एक था। नसरुद्दीन ने कहा कि अच्छा न हो कि हम आदमी आदमी की तरह बैठकर बात कर लें ! ये चेहरे अलग कर दें। सम्राट को बड़ा कठिन पड़ा होगा। | सम्राट जैसा चेहरा उतारना बड़ा मुश्किल होता है। सम्राट का चेहरा उतारना तो दूर है, भिखारी को भी अपना चेहरा उतारना मुश्किल होता है, फिक्स्ड हो जाता है सब; बंध जाता है। अमेरिका में एक बहुत बड़ा अरबपति था, रथचाइल्ड। एक दिन एक भिखारी भीतर घुस गया उसके मकान के और जोर-शोर से | शोरगुल करने लगा कि मुझे कुछ मिलना ही चाहिए। बिना लिए मैं जाऊंगा नहीं। जितना दरबानों ने अलग करने की कोशिश की, | उतनी उछलकूद मचा दी। आवाज उसकी इतनी थी कि रथचाइल्ड के कमरे तक पहुंच गई। वह निकलकर बाहर आया । उसने उसे पांच डालर भेंट किए और कहा कि सुन, अगर तूने शोरगुल न मचाया होता, तो मैं तुझे बीस डालर देने वाला था। 411 मालूम है उस भिखमंगे ने क्या कहा ? उसने कहा, महानुभाव, अपनी सलाह अपने पास रखिए। आप बैंकर हो, मैं आपको बैंकिंग की सलाह नहीं देता । मैं जन्मजात भिखारी हूं, कृपा करके भिक्षा के संबंध में कोई सलाह मत दीजिए। रथचाइल्ड ने अपनी आत्मकथा में लिखवाया है कि उस दिन मैंने पहली दफा देखा कि भिखारी का भी अपना चेहरा है। वह कहता है, जन्मजात भिखारी हूं! मैं कोई छोटा साधारण भिखारी नहीं हूं ऐसा ऐरा - गैरा, कि अभी-अभी सीख गया हूं। जन्मजात हूं। और तुम बड़े बैंक हो, मैं तुम्हें सलाह नहीं देता बैंकिंग के बाबत | कृपा करके तुम भी मुझे भीख मांगने के बाबत सलाह मत दो। मैं अपनी कला अच्छी तरह जानता हूं। रथचाइल्ड ने लिखा है अपनी आत्मकथा में कि उस दिन मैंने उस भिखारी को गौर से देखा और मैंने पाया कि सम्राटों के ही चेहरे नहीं होते; भिखारियों के भी अपने चेहरे हैं। लेकिन भिखारी भी एक ही चेहरा लेकर नहीं चलता। जब वह अपनी पत्नी के पास पहुंचता है, तो चेहरा बदलता है। जब अपने बेटे के पास जाता है, तो चेहरा बदल लेता है। जब पैसे वाले के पास से निकलता है, तो चेहरा और होता है। जब गरीब के पास से निकलता है, तो चेहरा और होता है। जिससे मिल सकता है, उसके पास चेहरा और होता है। जिससे नहीं मिल सकता है, उसके पास चेहरा और होता है। उसके पास भी एक फ्लेक्सिबल, एक लोचपूर्ण व्यक्तित्व है, जिसमें वह चेहरे अपने बदलता रहता है। ये चेहरे हमें बदलने इसलिए पड़ते हैं, क्योंकि हमारे भीतर Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-3> मुश्किल है। अपना कोई चेहरा नहीं है, कोई ओरिजिनल फेस नहीं है। | उसने कहा, बहुत अनुभव है। स्कूल सिवाय सर्कस के और कुछ कृष्ण कहते हैं, युक्त आत्मा, स्थिर बुद्धि हुई जिसकी, ऐसा भी नहीं है। मुझे जगह दे दो। कोई और जगह तो न थी, लेकिन एक व्यक्ति ही मुझे जान पाता है। जगह सर्कस वालों ने खोज ली, उसे जगह दे दी गई। और काम परमात्मा के पास झूठे चेहरे लेकर नहीं जाया जा सकता। हां, | यह था कि उसके शरीर पर शेर की खाल चढ़ा दी, पूरे शरीर पर; कोई चाहे तो बिना चेहरे के भला पहुंच जाए; लेकिन झूठे चेहरों के और उसे एक शेर का काम करना था। एक रस्सी पर उसे चलना साथ नहीं जा सकता। पर बिना चेहरे के वही जा सकता है, जिसके | था शेर की तरह। पास भीतर एक युक्त आत्मा हो। तब शरीर के चेहरों की जरूरत | चल जाता, कोई कठिनाई न आती। लेकिन जब वह पहले ही नहीं रह जाती। दिन बीच रस्सी पर था, तभी उसे दिखाई पड़ा कि उसके स्कूल के लेकिन बड़े मजे की बात है कि हम सब झूठे चेहरे लगाकर जीते दस-पंद्रह लड़के सर्कस देखने आए हैं और उसे गौर से देख रहे हैं। हमें अच्छी तरह पता है कि हम झूठे चेहरे लगाकर जिंदगी में हैं। नर्वस हो गया। मास्टर लड़कों को देखकर एकदम नर्वस हो जीते हैं। और हमारे पास कई चेहरे हैं, हमारे पास एक व्यक्तित्व | जाते हैं। घबड़ा गया और गिर पड़ा। गिर पड़ा नीचे, जहां कि नहीं, एक आत्मा नहीं। चार-आठ दूसरे शेर गुर्रा रहे थे, और चिल्ला रहे थे, और गरज रहे महावीर ने कहा है, मल्टी-साइकिक, बहुचित्तवान है आदमी। थे, और घूम रहे थे नीचे के कठघरे में। जब शेरों के बीच में घुसा, बहुत चित्त हैं उसके भीतर। यह मल्टी-साइकिक शब्द तो अभी गिरा, तो घबड़ा गया। भूल गया कि मैं शेर हूं। याद आया कि जुंग ने विकसित किया, लेकिन महावीर ने पच्चीस सौ साल पहले मास्टर हूं। दोनों हाथ ऊंचे उठाकर चिल्लाया कि मरा, अब बचना जो शब्द उपयोग किया है, वह ठीक यही है। वह शब्द है, | बहुचित्तवान। बहुत चित्त वाला है आदमी। जनता उसके उस चमत्कार से उतनी चमत्कृत नहीं हुई थी, रस्सी कृष्ण भी वही कह रहे हैं कि जब वह एक चित्त वाला हो जाए, | पर चलने से, जितनी इससे चमत्कृत हुई कि शेर आदमी की तरह तभी मुझ तक आ सकता है; उसके पहले मुझे न जान पाएगा। | बोल रहा है दोनों हाथ उठाकर! हम दूसरे को तो धोखा देते हैं, लेकिन बड़ा मजा तो यह है कि बाकी एक शेर, जो पास ही गुर्रा रहा था, उसने धीरे से कहा कि हमें कभी यह खयाल नहीं आता है कि दूसरे भी ऐसे ही चेहरे | मास्टर, घबड़ा मत। तू क्या सोचता है, तू ही अकेला बेकार है गांव लगाकर हमें धोखे दे रहे हैं। और हम चेहरों के एक बाजार में हैं, में? घबड़ा मत। तू अकेला ही थोड़े बेकार है गांव में, और लोग जहां आदमी को खोजना बहुत मुश्किल है। जब हम हाथ बढ़ाते हैं, भी बेकार हैं। वे जो चार शेर नीचे घूम रहे थे, वे भी आदमी ही थे! तो हमारा एक चेहरा हाथ बढ़ाता है; दूसरी तरफ से भी जो हाथ हम सबकी हालत वैसी ही है। आप ही झूठा चेहरा लगाकर घूम आता है, वह भी एक चेहरे का हाथ है। सिर्फ इमेजेज, प्रतिमाएं | रहे हैं, ऐसा नहीं है। आप जिससे बात कर रहे हैं, वह भी घूम रहा मिलती हैं; आदमी नहीं मिलते। मुलाकात अभिनय में होती है; | | है। आप जिससे मिल रहे हैं, वह भी घूम रहा है। आप जिससे डर मुलाकात प्राणों की नहीं होती। बातचीत दो यंत्रों में होती | रहे हैं, वह भी घूम रहा है। आप जिसको डरा रहे हैं, वह भी घूम है—सधे-सधाए, रटे-रटाए जवाब-सवालों में। भीतर की आत्मा का सहज आविर्भाव नहीं होता। लेकिन हम खुद अपने को धोखा ___ आप ही अकेले नहीं हैं, यह पूरा का पूरा समाज, चेहरों का देते-देते इ वे में डब गए होते हैं कि यह खयाल ही नहीं होता समाज है। इतने चेहरों की जरूरत इसलिए पड़ती है कि हमें अपने कि दूसरे लोग भी ऐसा ही धोखा दे रहे हैं। | पर कोई भरोसा नहीं। हम भीतर हैं ही नहीं। अगर हम इन चेहरों को ___ सुना है मैंने कि एक गांव में बड़ी बेकारी के दिन थे। अकाल | | छोड़ दें, तो हम पैर भी न उठा सकेंगे, एक शब्द न निकाल सकेंगे। पड़ा था और लोग बहुत मुश्किल में थे। एक सर्कस गुजर रहा था | | क्योंकि भीतर कोई है तो नहीं मजबूती से खड़ा हुआ, कोई गांव से। स्कूल का एक मास्टर नौकरी से अलग कर दिया गया | | क्रिस्टलाइज्ड बीइंग, कोई युक्त आत्मा तो भीतर नहीं है। तो हमें था। उसने सर्कस वालों से प्रार्थना की कि कोई काम मुझे दे दो। सब पहले से तैयारी करनी पड़ती है। सर्कस के लोगों ने कहा कि सर्कस का तुम्हें कोई अनुभव नहीं है। हमें सब पहले से तैयारी करनी पड़ती है। नाटक में ही रिहर्सल 1412 Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखौटों से मुक्ति नहीं होता, हमारी पूरी जिंदगी रिहर्सल है। पति घर लौटता है, तो तैयार करके लौटता है कि पत्नी क्या पूछेगी और वह क्या जवाब देगा। पत्नी भी तैयार रखती है कि पति क्या जवाब देगा और किस तरह से उसके जवाबों को गड़बड़ करेगी। सब तैयार है। और रोज यह हो रहा है, और रोज यह होगा । जिंदगी में भी रिहर्सल! पहले से तैयार करना पड़ता है कि मैं क्या जवाब दूंगा। क्या पूछा जाएगा, फिर मैं क्या कहूंगा। फिर क्या बचाव निकालूंगा। देर तो हो गई है रात घर लौटने में। अब क्या - क्या मुसीबत आने वाली है, वह सब जाहिर है । वह सब तैयार है। भीतर हमारे पास कोई ऐसी चेतना नहीं है क्या, जो स्पांटेनियस, सहज हो सके ! जब सवाल उठे, तब जवाब दे सके ! और जब मुसीबत आए, तब हमारे भीतर से उत्तर आ सके ! और जब घटना घटे, तब हमारे भीतर से कर्म पैदा हो सके ! और जब जैसी जरूरत हो, हमारे प्राण वैसा कर सकें ! लेकिन हमें भरोसा नहीं है कि भीतर कोई है। हमें तैयारी करनी पड़ती है; चित्त में ही तैयारी करनी पड़ती है। कृष्ण कहते हैं, युक्त आत्मा, थिर हो गई जिसकी चेतना, जिसकी लौ चेतना की ठहर गई, वही केवल मुझे उपलब्ध हो पाता है । जो एक हो गया भीतर, जो यूनि साइकिक हो गया, मल्टी-साइकिक नहीं रहा; बहुचित्त न रहे, एक चेतना का जन्म हो गया; एक विराट चेतना ने उसे सब ओर से घेर लिया - वैसा व्यक्ति मेरे पास आ पाता है। और वैसे व्यक्ति को कृष्ण ने कहा है ज्ञानी । और वैसे व्यक्ति को कहा है कि ऐसा व्यक्तित्व पाने में अनेक-अनेक जन्म लग जाते हैं अर्जुन ! मालूम कितने जन्मों की यात्रा के बाद आदमी को यह अनुभव उपलब्ध हो पाता है कि मैं कब तक धोखा देता रहूंगा? मैं आथेंटिक, प्रामाणिक कब बनूंगा? मैं वही कब घोषणा कर दूंगा | जगत के सामने, जो मैं हूं? कब तक मैं छिपाऊंगा? कब तक मैं प्रवंचना दूंगा? और मैं किसको धोखा दे रहा हूं? सब धोखा अपने को ही धोखा देना है; सब वंचनाएं आत्मवंचनाएं हैं। लेकिन अनंत जन्मों के बाद भी याद आ जाए, तो जल्दी याद आ गई। अनंत जन्मों के बाद भी आ जाए, तो जल्दी आ गई याद । क्योंकि अनंत जन्म हम सबके हो चुके हैं। वह याद अब तक आई नहीं है। कहीं से कोई पीका नहीं फूटता भीतर से, कि वह हमें कहे कि उतार फेंको इस सब धोखेधड़ी को, जिसे तुमने जिंदगी बना रखा है । उतार दो इन नकली चेहरों को; अलग कर दो इनको, जो तुमने पहन रखे हैं। हटा दो यह सब जाल अपने आस-पास से, जो बेईमानी का है। बेईमानी का, जिसमें कि हम दूसरों को धोखा दिए जा रहे हैं वह होने का, हम नहीं हैं। दूसरे भी हमें दिए चले जा रहे हैं। धार्मिक आदमी वह है, जो एक छलांग लगाकर इस सब उपद्रव के बाहर हो जाता है और जिंदगी जैसी है, उसकी सहज स्वीकृति की घोषणा कर देता है। उस स्वीकृति साथ ही भीतर आत्मा युक्त हो जाती है। जिस व्यक्ति ने भी अपने होने को अंगीकार कर लिया, जैसा है स्वीकार कर लिया; जैसा है, बुरा-भला, स्वीकार कर लिया। इसका यह मतलब नहीं है कि बुरा आदमी अपने को स्वीकार कर लेगा, तो बुरा ही रह जाएगा। यह बड़ी अदभुत घटना घटती है। जैसे ही कोई व्यक्ति, जैसा है, अपने को स्वीकार कर लेता है, तत्क्षण उसके जीवन में वह क्रांति घटित हो जाती है, जिसमें सब | बुराइयां जल जाती हैं। 413 बुराइयां बचती हैं चेहरों की आड़ में, नग्नता में कोई बुराई नहीं बच सकती। जब कोई आदमी प्रकट अपने को, सहज जैसा है, जाहिर कर देता है सब भय छोड़कर...। क्योंकि सब भय ही तो है कि हम चेहरे लगाए फिरते हैं। डर ही तो है कि कोई क्या कहेगा, तो हम लगाए फिरते हैं। संन्यासी मैं उसी को कहता हूं, जो इस बात की घोषणा कर दे जीवन के प्रति कि अब मैं धोखा नहीं दूंगा अपने चेहरे से; मास्क, कोई मुखौटा नहीं लगाऊंगा। जैसा हूं, हूं; उसकी खबर कर दूंगा। मैं जैसा हूं, वैसा होने की तैयारी करता हूं। ऐसा व्यक्ति एक दिन | युक्त आत्मा को उपलब्ध हो जाता है। युक्त आत्मा पर्मात्मा के साथ एक हो जाती है। यह दूसरी बात इसमें समझने जैसी है। जो अपने साथ एक हुआ, वह सर्व के साथ एक हो जाता है। जिसने इस भीतर के एक के साथ एकता बांधी, उसकी बाहर की, विराट यह जो ऊर्जा का विस्तार है, इससे भी एकता सध जाती है। जो अपने भीतर टूटा है, वही परमात्मा से टूटा रहता है। इसलिए भक्त भगवान को जब जानता है, तो भक्त नहीं रहता, भगवान ही हो जाता है। कोई संधि नहीं बचती बीच में, जरा-सा कोई सेतु नहीं बचता । सब टूट जाता है। कोई फासला नहीं रह जाता । फासला है भी नहीं । हमने फासला बनाया है, इसलिए Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < गीता दर्शन भाग-3 - दिखाई पड़ता है। झूठा फासला है। हमारा बनाया हुआ फासला है। जाऊंगा। और सागर में गिरते ही गंदगी कहां खो जाती, नदी कहां कृष्ण कहते हैं, वह वासुदेव ही हो जाता है। खो जाती, कुछ पता नहीं चलता। विराट ऊर्जा में जब भी हमारे क्षुद्र बड़े हिम्मत के लोग थे। आदमी को भगवान बनाने की इतनी | मन की बीमारियां गिरती हैं, तो ऐसे ही खो जाती हैं, जैसे सागर में सहज बात! आदमी प्रभु को भजे और प्रभु ही हो जाए! जो जानते | नदियां खो जाती हैं। थे, वही कह सकते हैं ऐसा। हमारा मन मानने को राजी नहीं होता। बड़ी शक्ति छोटी शक्ति को पवित्र करने की सामर्थ्य रखती है। नहीं होता इसीलिए कि हमने सिवाय अपनी क्षुद्रता के और कुछ भी लेकिन हमें बड़े का कोई पता ही नहीं है। हम तो छोटे में ही जीते नहीं देखा है। हमारे भीतर वह जो विराट का बीज छिपा है, वह हैं। हम बड़ी छोटी पूंजी से काम चलाते हैं। सच बात यह है कि छिपा ही पड़ा है। तो जब भी हम सोचते हैं कि आदमी, और जितनी जीवन ऊर्जा से शरीर चलता है, हम उतने को ही अपनी भगवान हो जाएगा. तो हमें भरोसा नहीं आता। क्योंकि हम अपने आत्मा समझते हैं। और शरीर को चलाने के लिए तो जीवन ऊजा भीतर जिस आदमी को जानते हैं, वह शैतान तो हो सकता है, का अत्यल्प, छोटा-सा अंश काफी है। शरीर को चलाने के लिए भगवान नहीं हो सकता। तो सुई काफी है, तलवार की कोई जरूरत नहीं पड़ती। और शरीर हम अपने को अच्छी तरह जानते हैं। हमें पक्की तरह पता है कि जितनी जीवन ऊर्जा से चलता है, उसके साथ ही हम तादात्म्य कर अगर कोई कहे कि आदमी शैतान है, तो हमारी समझ में आता है। लेते हैं कि यह मेरी आत्मा है। फिर शैतान पैदा हो जाता है। लेकिन कोई कहे, आदमी भगवान है, तो समझ में बिलकुल नहीं क्षुद्र के साथ संबंध शैतान को पैदा कर देता है; विराट के साथ आता। क्योंकि हमारे पास जो नापने का आयोजन है, वह अपने से | संबंध भगवान को पैदा कर देता है। संबंध पर निर्भर करता है कि ही तो नापने का आयोजन है। हम अपने से ही तो नाप सकते हैं। आप कौन हैं। अगर आपने क्षुद्र से संबंध बांधा, तो शैतान। अगर और हम जब अपनी तरफ देखते हैं, तो सिवाय शैतान के कुछ भी | | विराट से संबंध बांधा, तो भगवान। आप वही हो जाते हैं, जिससे नहीं पाते। आप संबंध बांधते हैं; वही हो जाते हैं, जिसके साथ जुड़ जाते हैं। लेकिन मैं आपसे कहता हूं और सारे धर्मों का यही कहना कृष्ण कहते हैं, जो मुझे जान लेता है, वह वासुदेव ही हो जाता है कि वह जो आपको अपने भीतर शैतानियत दिखाई पड़ती है, है। वह मैं ही बन जाता है। जो ब्रह्म को जान लेता है, वह ब्रह्म ही वह आप नहीं हैं। वह शैतानियत केवल इसीलिए है कि जो आप हो जाता है। हैं, उसका आपको पता नहीं है। जिस क्षण आपको अपने असली | यह जानना भी बहुत अदभुत है, जिसमें जानने से आदमी एक होने का पता चलेगा, उसी दिन आप पाएंगे कि शैतानियत कहां खो हो जाता है उससे, जो ज्ञेय है। गई! कभी थी भी या नहीं, या कि मैंने कोई सपना देखा था! ___ हमने बहुत चीजें जानी हैं। आपने गणित जाना है, लेकिन आप बुद्ध को जब ज्ञान हुआ है, और कोई उनसे पूछता है कि अब | गणित नहीं हो गए।आपने भूगोल पढ़ी है, लेकिन आप भूगोल नहीं आप क्या कहते हैं कि इतने दिनों तक आप अज्ञान में कैसे भटके? | हो गए। आप हिमालय को देखकर जान आएंगे, लेकिन हिमालय तो बुद्ध कहते हैं, आज तय करना मुझे मुश्किल है कि वह जो अनंत नहीं हो जाएंगे। अगर कोई आकर कहे कि मैंने हिमालय को देखा जन्मों का भटकाव था, वह असली में घटा या मैंने कोई लंबा सपना | और मैं हिमालय हो गया, तो आप उसे पागलखाने में बंद कर देंगे। देखा! कोई लंबा सपना! क्योंकि आज मैं तय ही नहीं कर पाता कि हम जिंदगी में जो भी जानते हैं, उसमें जानना दूर रहता है; हम वह घट सकता है। वह असलियत में घट कैसे सकता है? क्योंकि कभी जानने वाली चीज के साथ एक नहीं हो पाते। इसलिए हमें आज मैंने जिसे अपने भीतर जाना है. उसे देखकर अब मैं मान नहीं कृष्ण के इस वचन को समझने में बड़ी कठिनाई पड़ेगी। क्योंकि सकता कि वह कभी भी घट सकता है। | हमारे अनभव में यह कहीं भी नहीं आता कि जो भी हम जानें. उसके जैसे ही हम उस भीतर के विराट को जानते हैं, वैसे ही सब | साथ एक हो जाएं। हमारा सब जानना, द्वैत का जानना है। हम दूर क्षुद्रताएं उसमें खोकर ऐसे ही शुद्ध हो जाती हैं, जैसे कितनी ही गंदी ही खड़े रहते हैं। नदी सागर में आकर गिर जाए और शुद्ध हो जाए। सागर । इसलिए अगर कृष्ण से पूछे, तो कृष्ण कहेंगे, जिसे तुम जानना चीख-पुकार नहीं करता कि गंदी नदी मुझमें मत डालो, गंदा हो कह रहे हो, वह जानना नहीं है, केवल परिचय है। वह नोइंग नहीं 4141 Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < मुखौटों से मुक्ति - है, सिर्फ एक्वेनटेंस है। हमारा सब जानना, मात्र परिचय है- नहीं किया है। किन्हीं क्षणों में आपको लगता है कि आप वही हो ऊपरी, बाहरी। गए जिसे आपने प्रेम किया है। और अगर ऐसा न लगा हो. तो जैसे किसी के घर के बाहर से हम उसका घर घमकर देख आएं | आप प्रेम के नाम पर परिचय को ही जान रहे हैं। अभी प्रेम की और सोचें कि हमने उसके घर को जान लिया। और उसके भीतर नोइंग, प्रेम का ज्ञान अभी घटित नहीं हो पाया। हमारा कोई प्रवेश नहीं हुआ। जैसे हम सागर के किनारे खड़े होकर यह जो हमारी जानने की दुनिया है, वहां परिचय ही जानना सोचें कि हमने सागर को जान लिया। और सागर के भीतर हमारा समझा जाता है। कृष्ण तो उस बात को उठा रहे हैं, जहां होना ही कोई प्रवेश नहीं हुआ। यह जानना जानना नहीं है, यह एक्वेनटेंस ज्ञान है; टु बी इज़ टु नो। उसके अतिरिक्त कोई ज्ञान नहीं है। है, सिर्फ परिचय मात्र है–थोथा, ऊपरी, बाह्य। मैं एक कहानी निरंतर कहता रहा हूं। मैं कहता रहा हूं कि जापान ज्ञान हमारी जिंदगी में कोई है नहीं । और अगर आपकी जिंदगी का एक चित्रकार बांसों का एक झुरमुट बना रहा है, वंशीवट बना में कोई ज्ञान है, तो आप कृष्ण की बात समझ पाएंगे। तो मैं दो-तीन | रहा है; एक झेन फकीर। लेकिन उसका गुरु कभी-कभी पास से आपसे बात कहूं, शायद किसी की जिंदगी में वैसा ज्ञान हो, तो निकलता है और कहता है कि क्या बेकार! और वह बेचारा अपने उसकी उसको झलक मिल सकती है। बनाए हुए चित्रों को फेंक देता है। फिर एक दिन वह गुरु के पास वानगाग, एक बहुत बड़ा चित्रकार, आरलीज में एक खेत में जाता है कि मैं कितना ही सुंदर बनाता हूं, लेकिन तुम हो कि कह खड़े होकर चित्र बना रहा है। कैनवास पर अपना ब्रुश लेकर काम ही देते हो कि बेकार! और मुझे फाड़ना पड़ता है। मैं क्या करूं? में लगा है। दोपहर है, सूरज ऊपर सिर पर जल रहा है। वह भरी उसके गुरु ने कहा, पहले तू बांस हो जा, तब तू बांस का चित्र दोपहर का चित्र बना रहा है। उसकी जिंदगी में एक लालसा थी कि बना पाएगा। उसने कहा कि यह कैसे हो सकता है कि मैं बांस हो 'मैं सूर्य के जितने चित्र बना सकू, बनाऊ। उसने जितने सूर्य के चित्र | जाऊं? उसके गुरु ने कहा, तू जा। आदमी की दुनिया को छोड़ दे; बनाए, किसी और आदमी ने नहीं बनाए। बांसों की दुनिया में चला जा। उन्हीं के पास बैठना, उन्हीं के पास - कोई किसान गुजरता है और वानगाग से पूछता है, तुम कौन | सोना; उनसे बात करना चीत करना, उन्हें प्रेम करना; उनको हो? वानगाग कहता है, मैं? मैं सर्य है। वह सर्य बना रहा है। आत्मसात करना, इंबाइब करना, उनको पी जाना, उनको खन और किसान अपना सिर पीटकर चला जाता है। सोचता है कि दिमाग हृदय में घुल जाने देना। उसने कहा कि मैं तो बातचीत करूंगा, खराब होगा। और ऐसा किसान ही सोचता है, ऐसा नहीं। सालभर | लेकिन बांस ? उसने कहा, तू फिक्र तो मत कर। आदमी भर बोले, तक वानगाग सूर्य के चित्र बनाता रहा। और फिर उसे पागलखाने वृक्ष तो बोलने को सदा तैयार हैं। लेकिन इतने सज्जन हैं कि अपनी में लोगों ने रख दिया। क्योंकि वह सूर्य के साथ आत्मसात हो गया। तरफ से मौन नहीं तोड़ते। तू जा। लोग उसकी चिकित्सा में लग गए। मित्र चिंतित हो गए। एक साल गया। एक वर्ष बीता। दो वर्ष बीते। तीन वर्ष बीते। गुरु ने खबर उसे पागलखाने में रखा कि उसका इलाज करें। | भेजी कि जाकर देखो, उसका क्या हुआ? ऐसा लगता है कि वह काश, उसके मित्रों को कृष्ण की इस बात का पता होता या | बांस हो गया होगा। आश्रम के अंतेवासी खोज करने गए। बांसों वानगाग को पता होता, तो यह दुर्घटना बच सकती थी। निश्चित की एक झुरमुट में वह खड़ा था। हवाएं बहती थीं। बांस डोलते थे। ही, पागल हो गया; कहता है, मैं सूर्य हूं! लेकिन अगर सालभर वह भी डोलता था। इतना सरल उसका चेहरा हो गया था, जैसे वानगाग की तरह किसी ने सूर्य को देखा हो, जाना हो, पहचाना | बांस ही हो। उसके डोलने में वही लोच थी, जो बांसों में है। जैसे हो, सूर्य की किरणों में उतरा हो, सूर्य की किरणों में नाचा हो, सूर्य हवा का तेज झोंका आता और बांस झुक जाते, ऐसे ही वह भी झुक की किरणों को पीया हो, तो कुछ आश्चर्य नहीं है कि इतना तादात्म्य | | जाता। कोई रेसिस्टेंस, कोई विरोध, कोई अकड़, जो आदमी की बन जाए कि वानगाग को लगे कि मैं सूर्य हूं। | जिंदगी का हिस्सा है, नहीं रह गई थी। बांस जमीन पर गिर जाते, अगर आपने कभी किसी को प्रेम किया है. तो किन्हीं-किन्हीं | जोर की आंधी आती, तो वह भी जमीन पर गिर जाता। आकाश से क्षणों में आपको लगता है कि आप वही हो गए, जिसे आपने प्रेम बादल बरसते और बांस आनंदित होकर पानी को लेते, तो वह भी किया है। और अगर आपको ऐसा नहीं लगा, तो आपने कभी प्रेम | आनंदित होकर पानी को लेता। 415 Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < गीता दर्शन भाग-3 > लोगों ने उसे पकड़ा और कहा, वापस चलो। गुरु ने स्मरण जाता है। श्वेतकेतु वापस चला गया। वर्षों के बाद वह जानकर किया है। अब तुम वह बांस के चित्र कब बनाओगे? लौटा। अब वह बिलकुल दूसरा आदमी होकर आ रहा था। पिता उसने कहा, लेकिन अब चित्र बनाने की जरूरत भी न रही। अब ने अपने झोपड़े की खिड़की से झांककर देखा, श्वेतकेतु चला आ तो मैं खुद ही बांस हो गया हूं। फिर उसे लाए और गुरु ने उससे कहा रहा है। कि अब तू आंख बंद करके भी लकीर खींच, तो बांस बन जाएंगे। पिता ने अपनी पत्नी को कहा, उस बेटे की मां को कहा श्वेतकेतु उसने आंख बंद करके लकीरें खींची और बांस बनते चले गए। और | की, कि अब मैं भाग जाता हूं पीछे के दरवाजे से, क्योंकि श्वेतकेतु गुरु ने कहा कि अब आंख खोल और देख। तूने पहले जो बनाए थे, | ब्रह्म को जानकर लौट रहा है। पत्नी ने कहा कि तुम क्यों भागते बड़ी मेहनत थी उनमें, लेकिन झूठे थे वे, क्योंकि तेरा कोई जानना । हो? तुम्हीं ने तो उसे भेजा था जानने को कि उसे जानकर आ, जिसे नहीं था। अब तुझसे बांस ऐसे बन गए हैं, जैसे बांस की जड़ से बांस | जान लेने से सब जान लिया जाता है। अब वह आ रहा है। निकलते हैं, ऐसे ही अब तुझसे बांस निकल रहे हैं। पहली बार जब आया था, तो अकड़ से भरा था। शास्त्रों का दंभ एक ज्ञान है, जहां हम एक होकर ही जान पाते हैं। था। अस्मिता थी, अहंकार था। अकड़ रही होगी। नशा है शास्त्रों यह मैंने आपको उदाहरण के लिए कहा। यह उदाहरण भी का भी। जानकारी का भी नशा है। और जब नशा पकड़ जाता है, तो बिलकुल सही नहीं है। क्योंकि जिसकी बात कृष्ण कर रहे हैं, उसके बड़ी दिक्कतें देता है। देख लिया था दूर से, अकड़कर आ रहा है। लिए कोई उदाहरण काम नहीं देगा। वह अपना उदाहरण खुद ही है। अब तो वह ऐसे आ रहा था, जैसे हवा का एक झोंका हो। और कोई चीज का उदाहरण काम नहीं करेगा। लेकिन यह खयाल चुपचाप आ जाए घर के भीतर और किसी को पता न चले। पैरों के में अगर आपको आ जाए कि एक ऐसा जानना भी है, जहां होना | पदचाप भी न हों, ऐसा चला आता था। जैसे एक छोटा-सा सफेद और जानना एक हो जाते हैं, तो ही आप ब्रह्मतत्व को समझने में | बादल का टुकड़ा हो, तैर जाए चुपचाप, किसी को पता न चले। समर्थ हो पाएंगे। | या जैसे कि कभी आकाश में कोई चील पर तौलकर पड़ी रह जाती कृष्ण कहते हैं, फिर वह ज्ञानी, वह मुझे भजने वाला, वह युक्त | | है; हिलती भी नहीं, उड़ती है, उड़ती नहीं, पंख नहीं हिलाती; तिर चित्त हुआ, वह स्थिर बुद्धि हुआ भक्त, वासुदेव हो जाता है। वह | जाती है। ऐसा चला आता था, शांत। उसके पैरों में चाप नहीं रह भक्त नहीं रहता, भगवान हो जाता है। गई, क्योंकि जब अहंकार नहीं रह जाता, तो पैर चाप खो देते हैं। और एक क्षण को भी आपको अपने भगवान होने का स्मरण आ | पिता ने कहा कि मैं भाग जाता हूं पीछे के दरवाजे से, तू तेरे बेटे जाए, तो आपकी सारी जिंदगी, अनंत जिंदगियां स्वप्नवत हो को सम्हाल। तो उसने कहा कि आप क्यों भाग जाते हैं? आपने ही जाएंगी। तो भेजा था। उसके पिता ने कहा—अदभुत लोग थे, इसलिए इसे आप व्यवस्था भी दे सकते हैं। अभी आप जिस जिंदगी में कहता हूं-उसके पिता ने कहा कि नहीं, अब मुझे पीछे से चले जीते हैं, अगर उसे आप स्वप्नवत मानकर जीने लगें, तो दूसरे छोर जाना चाहिए। क्योंकि मैंने अभी ब्रह्म को नहीं जाना, और श्वेतकेतु से यात्रा हो सकती है। या तो परमात्मा के साथ एक होने के अनुभव को आकर मेरे पैर पड़ने पड़ें, तो यह उचित न होगा। मैं भाग जाऊं की यात्रा पर निकलें, तो यह जिंदगी स्वप्नवत हो जाएगी। या इस पीछे के दरवाजे से, तू सम्हाल। अब तो मैं जब तक न जान लूं, जिंदगी को स्वप्नवत मानकर जीना शुरू कर दें, तो आप अचानक तब तक श्वेतकेतु के सामने आना उचित नहीं है, क्योंकि वह बेटा पाएंगे कि आप परमात्मा के साथ एक हो गए हैं। होने की वजह से पैर में झुकेगा। अब तो वह ब्रह्म हो गया, क्योंकि लेकिन इसे आप सिर्फ बुद्धि से समझने चलेंगे, तो समझ तो | ब्रह्म को जानकर लौट रहा है। जाएंगे, लेकिन वह समझ नासमझी से ज्यादा न होगी। समझ तो पिता भाग गया। जब तक मैं न जान लूं, तब तक अब बेटे के जाएंगे, लेकिन एक न हो पाएंगे। और जब तक एक न हो जाएं, | सामने खड़े होने का कोई मुंह भी तो नहीं रहा। तब तक मत मानना कि वह समझ है। ऐसे पिता थे, तो दूसरे ही ढंग के बेटे भी दुनिया में पैदा होते थे। मैंने पहले दिन आपको श्वेतकेतु की कथा कही, कि पिता ने | आज सभी पिता शिकायत कर रहे हैं बेटों की, बिना इस बात की कहा कि तू उसको जानकर लौट, जिसे जानने से सब जान लिया | फिक्र किए कि पिता कैसे हैं। यह खयाल पिता को, कि उसे पैर में 16 Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < मुखौटों से मुक्ति - झुकना पड़ेगा, अब तो वह ब्रह्म होकर लौट रहा है, अनुचित हो मुश्किल है। यहां तो बन जाएगा। और आप चाहो, तो एकाध-दो जाएगा। या तो में उसके पैर पडूं, तो वह पड़ने न देगा; और या वह और आपके मित्रों का भी बनवा दूं। मेरे पैर पड़े, जो कि उचित नहीं है। अब मैं भाग जाऊं। अब तो मैं वह जो हमारे भीतर नशा है, बहुत तरह का है। पद का भी होता तभी उसके सामने आऊं, जब मैं भी जान लूं। है, ज्ञान का भी होता है, त्याग का भी होता है। सब शराब बन जाती वह जो ज्ञान की किरण है, जब उतरती है, तो भीतर ज्ञानी नहीं | है, भीतर आदमी अकड़कर खड़ा हो जाता है। वह अकड़ अगर है, बचता, ज्ञान ही बचता है। वह जब परमात्मा का साक्षात्कार होता तो परमात्मा से मिलन न होगा। और परमात्मा से मिलन हुआ, तो है, तो साक्षात्कार करने वाला नहीं बचता, परमात्मा ही बचता है। | वह अकड़ तो बह जाती है। उस अकड़ की जगह, परमात्मा ही शेष मिट जाता है वह, जो खोजने निकला था। वही बचता है, जिसे | रह जाता है। लहरें खो जाती हैं और सागर ही बचता है। खोजा है। लेकिन शास्त्र, जानकारी, परिचय, इनसे कुछ भी नहीं मिटता; बल्कि आप और घने हो जाते हैं, और मजबूत हो जाते हैं। प्रश्न : भगवान श्री, पिछले श्लोक में कृष्ण चार प्रकार सुना है मैंने कि एक रात एक घर में कुछ मित्र बैठकर शराब पीते | के भक्तों की बात कहते हैं। अर्थार्थी-सांसारिक रहे। और कुछ शराब फर्श पर पड़ी छूट गई। रात एक चूहा बाहर पदार्थों के लिए भजने वाला। आर्त-संकट निवारण आया; शराब की सुगंध उसको पकड़ी। थोड़ा उसने शराब को के लिए भजने वाला। जिज्ञासु और ज्ञानी भक्त। चखकर देखा। फिर रस आया। फिर और चखा। थोड़ी देर में नशे इनके अर्थ संक्षिप्त में कहें। और पहले दो लोगों को से भर गया। दोनों पिछले पैरों पर खड़ा हो गया और चिल्लाकर भक्त कैसे कहा, इस पर भी कुछ कहें। 'उसने कहा कि लाओ उस बिल्ली की बच्ची को, कहां है? चूहा। लेकिन शराब! कई दिन से दिल में रहा होगा कि एक दफा बिल्ली की बच्ची को मजा दिखाया जाए। आज मौका आ गया। ष्ण चार विभाजन करते हैं भक्तों के। आज चूहे ने अपने को समझा होगा कि न मालूम वह क्या है! वह qp अर्थार्थी—जो अर्थ के लिए, सांसारिक वस्तुओं के नशा है। ८ लिए प्रार्थना में रत होते हैं। अधिक लोग। अधिक मैंने सुना है कि खुश्चेव को किसी ने कुछ कोई कीमती कपड़ा लोग लोभ से, कुछ पाने के लिए प्रार्थना में रत होते हैं। भेंट किया था; जब प्रधान मंत्री था खुश्चेव। उसने मास्को में | | फिर आर्त-दुख से, पीड़ा से, भय से, कठिनाइयों से परेशान बड़े-बड़े दर्जियों को बुला भेजा। उन्होंने कहा कि नहीं, पूरा सूट न | | होकर अधिक लोग परमात्मा की प्रार्थना में रत होते हैं। बन सकेगा। या तो पैंट बनवा लो, या कोट बनवा लो, लेकिन पूरा तीसरे जिज्ञासु-जो जानना चाहते हैं; कुतूहल है जिन्हें; सूट नहीं बनता। पर जिसने भेजा था, सोच-समझकर भेजा था। | उत्सुकता है, क्यूरिआसिटी है। जैसे कि दार्शनिक, सारी दुनिया के खुश्चेव ने उसे सम्हालकर रख लिया। कीमती कपड़ा था, सूट बने | दार्शनिक, पता लगाना चाहते हैं कि क्या है? अल्टिमेट काज क्या तो ही मतलब का था, नहीं तो बेजोड़ हो जाए। है दुनिया का? यह दुनिया कहां से आई, कहां जा रही है ? क्यों चल फिर खुश्चेव इंगलैंड घूमने आया था, तो कपड़ा साथ ले आया। | रही है, क्यों नहीं चल रही है? प्रश्न जिनके मन में भारी हैं, लेकिन और लंदन के एक दर्जी को उसने बुलाकर कहा कि तुम कपड़ा | जिज्ञासा मात्र है। स्वयं को बदलने का सवाल नहीं है। जानने भर बनवा दो। उसने कहा कि तैयार हो जाएगा आठ दिन बाद पूरा सूट। का सवाल है। खुश्चेव ने कहा, लेकिन आश्चर्य! मास्को में कोई भी दर्जी पूरा सूट और चौथे ज्ञानी–जो सिर्फ जानने के लिए नहीं, बल्कि होने के बनाने को तैयार न हुआ। कहते थे, या तो पैंट बनेगा या कोट। तुम लिए आतुर हैं। परमात्मा को जानने की जिनकी उत्सुकता सिर्फ कैसे बना सकोगे? उस दर्जी ने कहा, मास्को में आप जितने बड़े | कुतूहल नहीं है। ऐसा कुतूहल नहीं, जैसा बच्चों में होता है, कि आदमी हैं, उतने बडे आदमी आप लंदन में नहीं हैं। साइज। मास्को दरवाजा लगा है. तो उसे खोलकर देख लें कि में आपकी साइज बहुत ज्यादा है। उधर पैंट भी बन जाता, तो बहुत | कोई और प्रयोजन नहीं है। बस, दरवाजा लगा है, तो मन होता है है। 417 Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < गीता दर्शन भाग-3 - कि खोलकर देख लें कि उस तरफ क्या है! कीड़ा चला जा रहा है, स्वभावतः, चूंकि उसने कभी कुछ नहीं मांगा था, इसलिए उसकी तो टांग तोड़कर भीतर देख लें कि कौन-सी चीज चला रही है! प्रार्थना में बड़ा बल था। और स्वभावतः, क्योंकि उसने अपने लिए बच्चों जैसा कुतूहल, तो जिज्ञासु है। प्रार्थना नहीं की थी, इसलिए भी बड़ा बल था। लेकिन जानी का अर्थ है. जो सिर्फ मात्र कतहल से नहीं, बल्कि कहानी कहती है कि परमात्मा ने उसकी प्रार्थना सुन ली। और जीवन को आमूल रूपांतरित करने की प्रेरणा से भरा है। जिसके सबह जब नगर के लोग उठे. तो चमत्कत रह गए। जहां झोपडे थे. लिए जानना कुतूहल नहीं है, जीवन-मरण का सवाल है। न तो धन | वहां महल हो गए। जहां बीमारियां थीं, वहां स्वास्थ्य आ गया। वृक्ष के लिए, न किसी दुख के कारण, न किसी कुतूहल से, बल्कि | फलों से लद गए। फसलें खड़ी हो गईं। सारा गांव धनधान्य से जीवन के सत्य को जानने की जिसके प्राणों की आंतरिक पुकार है, परिपूर्ण हो गया। प्यास है। जिसके बिना नहीं जी सकेगा। जान लेगा, तो ही जी . यह तो चमत्कार हुआ; पूरे गांव ने देखा। इससे भी बड़ा सकेगा। ऐसे चार भक्त कृष्ण ने कहे। चमत्कार पादरी ने देखा, कि चर्च में सदा भीड़ होती थी, वह मन में सवाल उठ सकता है कि पहले दो तरह के या पहले तीन | बिलकुल बंद हो गई; कोई चर्च में नहीं आता। पादरी दिनभर बैठा . तरह के लोगों को क्यों भक्त कहा! भक्त तो आखिरी ही होना रहता है बाहर, कोई चर्च में नहीं आता। कभी कोई नमस्कार नहीं चाहिए, चौथा ही। करता। कभी कोई निमंत्रण नहीं भेजता। प्रार्थना के लिए कोई आता नहीं; तीनों को भी भक्त सिर्फ शब्द के कारण कहा। वे भी भक्ति | | नहीं। चर्च गिरने लगा। ईंटें खिसकने लगीं। पलस्तर टूटने लगा। करते हैं। भक्त नहीं हैं, यह तो कृष्ण जाहिर करते हैं, लेकिन वे भी | | एक साल, दो साल; लोग गांव के भूल गए कि चर्च भी है। भक्ति करते हैं। दो साल बाद उस बूढ़े फकीर ने एक रात फिर परमात्मा से प्रार्थना महावीर ने भी इसी तरह ध्यान करने वालों के चार वर्ग किए। की कि हे प्रभु, एक प्रार्थना और पूरी कर दे। परमात्मा ने कहा कि उनमें जो आदमी आर्त ध्यान कर रहा है...। जब आप क्रोध में होते | | अब तेरी क्या कमी रह गई! और तूने जो चाहा था, सब कर दिया। हैं, तब आपका ध्यान एकाग्र हो जाता है। उसको भी कहा, वह भी | | उसने कहा, अब एक ही प्रार्थना और है कि मेरे गांव के लोगों को ध्यानी है, आर्तध्यानी। क्योंकि क्रोध में मन एकाग्र हो जाता है। | वैसा ही बना दे, जैसे वे पहले थे। उन्होंने कहा, तू यह क्या कह लोभ में मन एकाग्र हो जाता है। कामवासना में मन एकाग्र हो जाता रहा है! है। तो उसको कहा, वह भी ध्यानी है; कामवासना का ध्यान कर ___ उसने कहा कि मैं तो सोचता था कि वे चर्च में परमात्मा की रहा है। लेकिन अंतिम ध्यान, शुक्ल ध्यान ही असली ध्यान है; जब प्रार्थना के लिए आते हैं, वह मेरा गलत खयाल सिद्ध हुआ। कोई कि बिना प्रयोजन के, बिना कारण के, बिना कुछ पाने की आकांक्षा अर्थ के कारण आता था। कोई दुख के कारण आता था। कोई लोभ के, कोई ध्यान करता है। के कारण, कोई भय के कारण। अब उनका लोभ भी पूरा हो गया; इसलिए कृष्ण ने चार भक्तों की बात कही। उनके भय भी दूर हो गए; उनके दुख भी दूर हो गए। तब मैंने यह याद मुझे आता है, एक गांव में बड़ी तकलीफ है। भूख है, न सोचा था कि परमात्मा को वे इतनी सरलता से भूल जाएंगे। बीमारी है, परेशानी है। लोगों के पास दवा नहीं, खाना नहीं, कपड़े | तो तीन तरह के लोग हैं। अर्थार्थी को अर्थ मिल जाए, धन मिल नहीं। गांव के चर्च का जो पादरी है, उसने कभी परमात्मा से कोई जाए, भूल जाएगा। दुखी को, कातर को, आर्त को, दुख दूर हो ऐसी प्रार्थना नहीं की, जिसमें कुछ मांगा हो। वह सत्तर साल का जाए, भूल जाएगा। जिज्ञासु को उसके प्रश्न का उत्तर मिल जाए, बूढ़ा है। गांवभर की तकलीफ; और चर्च में बड़ी भीड़ होती है। समाप्त हो जाएगा। असली भक्त तो चौथा ही है। कुछ भी मिल फटे-चीथड़े पहनकर, भूखे बच्चे और भूखे बूढ़े इकट्ठे होते हैं। | जाए, वह तृप्त नहीं होगा। जब तक कि वह स्वयं परमात्मा ही न हो और वे रोते हैं। उनके आंसू देखकर एक रात वह रातभर नहीं | जाए, इसके पहले कोई तृप्ति नहीं है। सोया। और उसने परमात्मा से प्रार्थना की, मैंने कभी तुझसे कुछ | लेकिन उन तीन को भक्त केवल शब्द की वजह से कहा। और मांगा नहीं। एक बात मांगता हूं, वह भी अपने लिए नहीं; मेरे गांव | | उनकी गिनती करा देनी उचित है, क्योंकि वही तीन तरह के भक्त के लोगों की हालत सुधार दे। | हैं जमीन पर; चौथी तरह का तो कभी-कभी, शायद ही कभी, 478 Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < मुखौटों से मुक्ति - चौथी तरह का आदमी पैदा होता है। अगर चौथे की ही बात करनी | बड़ी भीड़ उन्हीं की है। वह एक तो अपवाद है; उसे पीछे से गिना हो, तो बिलकुल बेकार हो जाए, क्योंकि असली भीड़ तो इन तीन | दिया है। की है। ये नियम हैं; वह चौथा तो अपवाद है। इसलिए गिनती कर लेनी उचित समझी कि इनकी गिनती कर ली जाए। यद्यपि पीछे कह दिया जाएगा कि ये तीनों सिर्फ धोखे के भक्त हैं; दिखाई ही कामैस्तैस्तैर्हतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः । पड़ते हैं, हैं नहीं। तं तं नियमास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ।। २० ।। और कई बार बिलकुल उलटी घटना घटती है। वह चौथा जो है, और हे अर्जुन, जो विषयासक्त पुरुष हैं, वे तो अपने स्वभाव शायद दिखाई न पड़े, और हो। और ये तीन दिखाई पड़ें, और हों से प्रेरे हुए तथा उन-उन भोगों की कामना द्वारा ज्ञान से न। क्योंकि वह चौथा क्यों दिखाई पड़ेगा! वह कोई सड़क पर खड़े | भ्रष्ट हुए, उस-उस नियम को धारण करके अन्य देवताओं होकर चिल्ला नहीं देगा। वह किसी मंदिर में हाथ जोडकर खडा को भजते हैं अर्थात पूजते हैं। होगा, जरूरी नहीं है। हो भी सकता है, न भी खड़ा हो। क्योंकि उसके तो प्राणों में रम जाएगी बात; उसके श्वास-श्वास में समा जाएगी बात। गह भी कहा कृष्ण ने कि वे जो कामासक्त हैं, एक मुसलमान फकीर हुआ है। सत्तर साल तक मस्जिद जाता प विषयासक्त हैं, भोगों की आकांक्षाओं से भरे हैं, भोग रहा। एक दिन न चूका। बीमार हो, परेशान हो, बरसा होती हो, | से सम्मोहित हैं, वे ज्ञान से च्युत होकर मेरा स्मरण नहीं धूप जलती हो, पांच नमाज पूरी मस्जिद में करता रहा। एक दिन | करते, अन्य-अन्य देवताओं का स्मरण करते हैं। अचानक सबह की नमाज में नहीं आया: मस्जिद के लोगों ने समझा। इसमें दो बातें हैं। कि शायद मर गया। इसके सिवाय कोई सोचने का कारण ही न था। ___ एक तो यह कि जो व्यक्ति भी कामासक्त हुआ, विषयासक्त क्योंकि किसी भी हालत में वह आया था। इन पचास वर्षों में जितने हुआ, वह ज्ञान से च्युत होता है। वह जो भीतर ज्ञान की धारा है, लोग उसे जानते थे, वह नियमित आया था। गांव में कुछ भी हुआ | जैसे ही जरा-सा भी विषय की तरफ मन दौड़ा कि वह धारा पतित हो, वह पांच बार मस्जिद में आया था; आज नहीं आया। होती है, स्खलित होती है। एक क्षण को भी मन किसी विषय के सारी मस्जिद नमाज के बाद भागी हुई फकीर के घर पहुंची। वह प्रति प्रेरित हुआ, कि इसे पा लं, यह मेरा हो जाए, इसे भोग लं: अपने दरवाजे पर बैठकर खंजड़ी बजा रहा था। उन्होंने कहा कि जैसे ही भोग का कोई खयाल आया कि वह भीतर की जो क्या दिमाग खराब हो गया या मरते वक्त नास्तिक हो गए! क्या चेतन-धारा है, वह जो करंट है चेतना की, वह तत्काल डांवाडोल कर रहे हो यह? नमाज चूक गए! सत्तर साल का बंधा हुआ क्रम होकर अधोगति की यात्रा करने लगती है। हर विषयासक्ति चेतना तोड़ दिया? आज मस्जिद क्यों न आए? की धारा को पतित करती है। उस फकीर ने कहा कि जब तक नमाज करनी न आती थी, तब | ___ एक बात तो यह इसमें खयाल ले लेने जैसी है। तक मस्जिद में आता था। अब नमाज करनी आ गई। अब यहीं बैठे जरा-सा, जरा-सा भी खयाल! रास्ते पर गुजरते हैं, और दुकान हो गई। अब कहीं जाने की कोई जरूरत नहीं। सच तो यह है, उस पर दिख गई कोई चीज, और खयाल आया-मिल जाए, मेरी हो फकीर ने कहा कि अब करने की भी कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि जाए, मैं मालिक हो जाऊं। जरा-सी झलक, एक जरा-सी किरण अब करने वाला भी कहां बचा; नमाज ही बची। भीतर प्रार्थना ही वासना की, और आप जरा रुककर खड़े होकर वहीं देखना कि रह गई है; अब प्रार्थना करने वाला भी नहीं है। आपके भीतर अज्ञान घना हो गया और ज्ञान फीका हो गया। इसे तो बहुत संभावना तो यह है कि वे तीन ही तरह के भक्त आपको आप अनुभव करेंगे, तो खयाल में आएगा। जरा-सी वासना, और दिखाई पड़ेंगे; चौथा तो शायद दिखाई नहीं पड़ेगा। लेकिन वह आप अचानक पाएंगे कि मूर्छा घिर गई, बेहोशी आ गई, अज्ञान चौथा ही है। वे तीन तो सिर्फ नाम मात्र को. फार नेम्स सेक. भक्त भर गया. और क्षणभर को जैसे बि हैं। कृष्ण ने उनको गिना दिया कि कहीं वे नाराज न हो जाएं! क्योंकि लेकिन हम तो चौबीस घंटे विषय की कामना से भरे हुए हैं। Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < गीता दर्शन भाग-3 > शायद इसीलिए हमें पता भी नहीं चलता कि हमारी ज्ञानधारा पतित | एकदम मूर्खतापूर्ण। लेकिन उन्हें नहीं मालूम पड़ रहा है। वे तो बड़े होती है। क्योंकि पतित होने का पता तो उन्हें चले, जो ज्ञानधारा में | स्वर्ग में जी रहे हैं! वे भी अगर लौटकर देखें, तो उन्हें भी मूढ़ता थोड़े-बहुत कभी भी होते हों, तो पतित होने का पता चले। जिनके दिखाई पड़ेगी। असल में जैसे ही हम कामातुर और वासना से भरते पास धन है, उन्हें दिवालिया होने का पता चलता है। भिखारियों को | हैं, किसी भी विषय की आसक्ति से, वैसे ही हमारे भीतर की तो दिवालिया होने का पता नहीं चलता। जो कभी थोड़ा ऊपर जीते | चेतना-धारा नीचे गिर जाती है। हैं, उन्हें नीचे आने का पता चलता है। लेकिन जो नीचे ही जीते हैं, | सुना है मैंने, एक फकीर, नाम था उसका फरीद, शेख फरीद। घाटियों को जिन्होंने अपनी जिंदगी बना लिया, शिखरों की तरफ जो | कोई लोग उसके पास आते। समझो, कोई आदमी उससे मिलने कभी उठकर भी नहीं देखते, उनको तो फिर पतन का भी पता नहीं आया। वह आकर बैठा नहीं कि फरीद जाएगा उसके पास, उसका चलता। अंधेरा ही जिनका घर है, उन्हें कैसे पता चलेगा कि उजेला | | सिर हिला देगा जोर से। कई दफे तो लोग घबड़ा जाते। और वह थोड़ा फीका हो गया, कि दीए की लौ थोड़ी कम हो गई। आदमी कहता कि आप यह क्या कर रहे हैं? तो फरीद हंसने लेकिन अगर फिर भी थोड़ा स्मरणपूर्वक खोज करें, तो जब भी लगता। कभी बैठा रहता पास में, डंडा उठाकर उसके पेट में इशारा . मन को कोई वासना तीव्रता से पकड़े, तब आप जरा अपने भीतर कर देता। वह आदमी चौंक जाता। वह कहता, आप यह क्या कर देखना कि आपके ज्ञान की जो क्वालिटी है, आपके ज्ञान का जो गुण रहे हैं। वह हंसने लगता। क्या वह बदला? क्या वह निम्न हआ? क्या वह नीचे गिरा? बहत बार लोगों ने पछा कि आप यह करते क्या हो? तो फरीद इसलिए हर वासना, चाहे तृप्त ही क्यों न हो जाए, एक सूक्ष्म | बोला कि एक दफा मैं यात्रा पर गया था। बहुत-से खच्चर साथ विषाद में छोड़ जाती है। क्योंकि वह आपको पतित कर जाती है।। थे। बड़ा सामान था। बहुत बड़ा कारवां था। वह जो खच्चरों का हर वासना, चाहे मिल ही क्यों न जाए, मिल जाते ही आपके मुंह | | मालिक था, बड़ा होशियार था। जब कभी कोई खच्चर अड़ जाता में एक कड़वा स्वाद छूट जाता है। वह कड़वा स्वाद इस बात का | और बढ़ने से इनकार कर देता...। होता है कि भीतर आपकी चेतना-धारा पतित हुई। आपने जो पाया, | और खच्चर अड़ जाए, तो बढ़ाना बहुत मुश्किल है। बढ़ता रहे, वह तो ना-कुछ; लेकिन जो गंवाया, वह बहुत कुछ; एट ए वेरी | उसकी कृपा। अड़ जाए, तो फिर बढ़ाना बहुत मुश्किल। क्योंकि न ग्रेट कास्ट। वह जो कृष्ण कह रहे हैं, वह यह कह रहे हैं कि तुम उन्हें बेइज्जती का कोई डर, क्योंकि वे खच्चर हैं। उन्हें कोई अड़चन पाओगे क्या? नहीं है। उन्हें आप गालियां दो, उन्हें कोई मतलब नहीं। एक आदमी सड़क पर चला जा रहा है, और देखता है कि एक फरीद ने कहा, लेकिन वह बड़ा कुशल मालिक था। कभी कोई अच्छा कपड़ा पहने हुए कोई गुजरा; वे कपड़े मुझे चाहिए! कपड़े खच्चर अड़ जाए, तो एक सेकेंड न लगता था चलाने में। तो मैंने की मांग, बड़ी छोटी-सी मांग है। लेकिन उसे पता नहीं कि इस मांग उससे पूछा कि तेरी तरकीब क्या है? तो उसने मुझे बताया कि वह ने उसकी चेतना को कितना नीचे गिरा दिया, तत्काल! जैसे टेंपरेचर | थोड़ी-सी मिट्टी उठाकर खच्चर के मुंह में डाल देता है। खच्चर उस नीचे गिर गया हो थर्मामीटर में; उसके भीतर ज्ञान की धारा नीचे | मिट्टी को थूक देता है और चल पड़ता है। तो फरीद ने पूछा, मैं गिर गई। | समझा नहीं कि मिट्टी उसके मुंह में डालने और खच्चर के चलने इसलिए वासना से भरे हुए व्यक्ति अक्सर छोटे बच्चों, का संबंध क्या है? नासमझों जैसा व्यवहार करने लगते हैं। कभी आपने खयाल किया | तो उस आदमी ने कहा कि मैं ज्यादा तो नहीं जानता, मैं इतना ही कि जब आप वासना में होते हैं, तो आप जो व्यवहार करते हैं, समझता हूं कि मुंह में मिट्टी डालने से उसके भीतर की जो विचारों वह करीब-करीब स्टुपिडिटी का होता है; करीब-करीब मूढ़ता का | की धारा है, वह टूट जाती है; वह जो अंडर करंट है! खच्चर सोच होता है! | रहा है, खड़े रहेंगे! अब मुंह में मिट्टी डाल दी। इतनी बुद्धि तो नहीं अगर हम दो प्रेमियों को आपस में बातचीत करते देखें, जो | है कि इन दोनों को फिर से जोड़ सके। मुंह में मिट्टी डाल दी, तो वे वासनातुर हैं, तो उनकी बातचीत हमें कैसी मालूम पड़ेगी! उनका भूल गए जाने-आने की बात। मुंह की मिट्टी साफ करने में लग एक-दूसरे से व्यवहार देखें, तो वह कैसा मालूम पड़ेगा! स्टुपिड, गए, तब तक उसने हांक दिया; वह चल पड़ा। उसने कहा, जहां 420| Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < मुखौटों से मुक्ति > तक मैं समझता हूं...। ज्यादा मैं नहीं जानता, क्योंकि खच्चर के | जाकर मंदिर में लेट जाओ चरणों में परमात्मा के साष्टांग, सब अंग भीतर क्या होता है, पता नहीं। अनुमान मेरा यह है कि उसकी जमीन को छूने लगें; सिर जमीन पर पटक दो। वह जो अकड़ा हुआ विचारधारा खंडित हो जाती है, गड़बड़ हो जाती है। बस, उसी में सिर है, चौबीस घंटे अकड़ा रहता है। शायद...। वही खच्चर वह चक्कर में आ जाता है; चल पड़ता है। बाकी यह दवा मेरी | वाला काम किया जा रहा है। आपके भीतर वह जो अंडर करंट है, कारगर है। शायद...। लोग कहते, आपने हमें खच्चर समझा है क्या? फरीद कहता लेकिन कई बड़े कुशल खच्चर हैं; उन खच्चरों का मुझे पता कि बिलकुल खच्चर समझा है। अभी तुझे मैंने देखा। तू भीतर | नहीं। कितना ही घंटा बजाओ, उनके भीतर कुछ भी नहीं बजता। आया, तब मैंने देखा कि तेरे भीतर क्या चल रहा था। कुछ बजता ही नहीं! __ कठिन नहीं है देखना कि दूसरे के भीतर क्या चल रहा है। लेकिन मनुष्य को सहायता पहुंचाने के लिए जिनकी आतुरता शिष्टतावश अनेक लोग, जो जानते भी हैं कि दसरे के भीतर क्या रही है, उन्होंने बहत-सी व्यवस्थाएं हैं। चल रहा है, कहते नहीं हैं। लेकिन दूसरे के भीतर क्या चल रहा है, | ___ कृष्ण कह रहे हैं, एक बात तो यह कि च्युत हो जाता है वासना यह जानना बड़ी ही सरल बात है। जब आप भीतर आते हैं, तो की धारा में दौड़ता हुआ चित्त ज्ञान से। आपके भीतर क्या चल रहा है, उसके साथ आपके चारों तरफ रंग, ज्ञान स्वभाव है। और आपके चारों तरफ गंध, और आपके चारों तरफ विचार का इसे ऐसा समझें, तो ठीक होगा, हम आमतौर से कहते हैं कि एक वातावरण भीतर प्रवेश करता है। | वासना को छोड़ दो, तो ज्ञान मिल जाएगा। कहना चाहिए, वासना तो फरीद कहता, जैसे ही मैं देखता हूं, इसके भीतर कोई वासना को पकड़ा है, इसलिए ज्ञान खो गया है। ज्यादा एक्जेक्ट और सही 'चल रही है, उचककर मैं उसकी गर्दन को जोर से हिला देता हूं। जो कहना होगा। यह कहना उतना ठीक नहीं है कि वासना को छोड़ वही खच्चर वाला काम कि शायद करंट...! और अक्सर मेरा | | दो, तो ज्ञान मिल जाएगा। इसमें ऐसा लगता है कि वासना हमारा अनुभव है कि करंट टूट जाती है। वह चौंककर पूछता है, क्या कर | स्वभाव है, छोड़ेंगे, तो ज्ञान, कोई उपलब्धि हो जाएगी। असलियत रहे हैं? कम से कम वहां से चौंक जाता है; दूसरी यात्रा पर ले जाया | उलटी है। ज्ञान हमारा स्वभाव है, वासना को पकड़कर हमने उसे जा सकता है। खोया है। वासना हट जाए, वह हमें फिर मिल जाएगा। बहुत-से धर्म की जो विधियां हैं, वे सारी विधियां ऐसी हैं कि और इसीलिए वासना कभी तृप्त नहीं होगी, क्योंकि वासना किसी तरह आपकी जो वासना की तरफ दौड़ती हुई स्थाई हो गई | हमारा स्वभाव नहीं है, हमारा पतन है। हम कितने ही दौड़ते रहें, धारा है, वह तोड़ी जा सके। पतन से हम कभी राजी न हो पाएंगे, तृप्त न हो पाएंगे। पतन विषाद आप मंदिर जाते हैं। आपने घंटा लटका हुआ देखा है मंदिर के ही बनेगा, पतन हमें पीड़ा ही देगा, संताप ही देगा, नर्क ही देगा। सामने। कभी खयाल नहीं किया होगा कि घंटा किसके लिए बजाया और एक न एक दिन नर्क की पीड़ा से हमें लौट आना पड़ेगा। और जाता है। आप सोचते होंगे, भगवान के लिए; तो आप गलती में हैं। उस शिखर की तरफ देखना पड़ेगा, जो हमारे प्राणों का आंतरिक वह आपके खच्चर के लिए है। वह जो घंटनाद है, भगवान से उसका शिखर है, कैलाश। कोई लेना-देना नहीं है। वह आपकी खोपड़ी में जो चल रहा है, जोर : कैलाश हिमालय में नहीं है। जाते हैं लोग; सोचते हैं, वहां का घंटा बजेगा, मिट्टी थूककर आप मंदिर के भीतर चले जाएंगे। होगा। कैलाश हृदय के उस शिखर का नाम है, ज्ञान के उस शिखर वह अंतर-धारा जो चल रही है, वह एक झटके में टूट जाए। का नाम है, जहां से कभी भगवान च्युत नहीं होता। आपके भीतर टूटती है, अगर समझ हो, तो बराबर टूट जाती है। | का भगवान भी कभी च्युत नहीं होता जहां से। कहते हैं, मंदिर स्नान करके चले जाओ; ऐसे ही मत चले जाना। जिस दिन उस शिखर पर हम पहुंच जाते हैं भीतर के सब वह अंतर-धारा तोड़ने के लिए जो भी हो सकता है, कोशिश की | घाटियों को छोड़कर, घाटियों की वासनाओं को छोड़कर—उस जाती है। बाहर ही जूते निकाल दो; वह अंतर-धारा तोड़ने के लिए। दिन ऐसा नहीं होता कि हमें कुछ नया मिल जाता है। ऐसा ही होता आपके जितने एसोसिएशन हैं, वह तोड़ने की कोशिश की जाती है। है कि जो हमारा सदा था, उसका आविष्कार, उसका उदघाटन हो 421] Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3> जाता है। हम जानते हैं, हम कौन थे। और हम जानते हैं कि हम सिर्फ इसलिए कि वे देवताओं की मूर्तियां थीं। मोहम्मद कोई किस तरह च्युत होते रहे, किस तरह भटकते रहे। किस कीमत पर परमात्मा की प्रतिमा को मनुष्य के हृदय से नहीं हटाना चाहते थे। हमने अपने को गंवाया और क्षुद्र चीजों को इकट्ठा किया। लेकिन बड़ी गलत-समझी पैदा हो गई। मोहम्मद कोई परमात्मा की कंकड़-पत्थर बीने और आत्मा बेची। प्रतिमा को नहीं हटाना चाहते थे। परमात्मा की प्रतिमा मनुष्य के तो एक बात तो कृष्ण यह कहते हैं। दूसरी बात यह कहते हैं कि | हृदय में स्थापित हो, इसलिए देवताओं की जो तथाकथित प्रतिमाएं वे जो और अर्थार्थी, और आर्त, और जिज्ञासु, उस तरह के जो लोग थीं काबा के मंदिर में हर दिन के लिए अलग देवता था, तीन सौ हैं, वे मेरी नहीं, और देवताओं की पूजा में संलग्न होते हैं। क्यों? पैंसठ देवता थे एक-एक दिन के लिए, हर दिन अलग देवता पर ठीक परमात्मा की प्रार्थना में वे लोग संलग्न नहीं होते, क्योंकि | | पूजा होती थी-मोहम्मद ने हटवा दिया, फिंकवा दिया, कि हटा परमात्मा की प्रार्थना की शर्त ही वे लोग पूरी नहीं करते। शर्त ही यह है कि सब वासनाएं छोड़कर आओ। ब्रह्म को पाने की शर्त तो यही __ क्योंकि इन देवताओं की वजह से जो लोग आते हैं, वे कृष्ण है कि सब वासनाएं छोड़कर आओ, तब प्रार्थना पूरी होगी। वे वहां | के तीन वर्ग पहले जो हैं, वही लोग होंगे-आर्त, अर्थार्थी, कैसे जाएंगे? | जिज्ञासु–वही आएंगे। वह जो चौथा है, वह तो उस परम एक की तो वे छोटे-मोटे अपने देवी-देवता निर्मित कर लेते हैं, जो उनसे तरफ ही जाता है। लेकिन उस एक की तरफ जाने की शर्त पूरी करनी शर्त नहीं बांधते। बल्कि शर्त ऐसी बांधते हैं, जो सस्ती होती हैं; पूरी | पड़ती है। वह शर्त महंगी है, कठिन है, दुर्धर्ष है, दुस्तर है। क्योंकि कर देते हैं। कोई देवता मांगता है कि नारियल चढ़ा दो। कोई देवता स्वयं को ही दांव पर लगाना पड़ता है, नारियल को नहीं। , मांगता है कि फूल-पत्ती रख दो। कोई देवता मांगता है कि ऐसा कर । हालांकि आपने कभी खयाल किया हो या न किया हो, आदमी दो. बलि चढ़ा दो, या यज्ञ कर दो, या हवन कर दो। सस्ती मांग बड़ा होशियार है। नारियल, आपने कभी खयाल किया, आदमी की वाले भी देवता हैं। सस्ती दुकानें भी हैं। खोपड़ी की शक्ल की चीज है। आंख भी होती है, नाक भी होती तो कृष्ण कहते हैं, फिर उस तरह के लोग मेरी तरफ नहीं आते, | है, खोपड़ी भी होती है। जोर से पटको, तो खोपड़ी की तरह फूटता क्योंकि मेरी शर्त उनसे पूरी नहीं होती। वे खुद ही अपने देवता गढ़ भी है। आपने कभी खयाल किया कि नारियल किन लोगों ने लेते हैं। खोजा? आदमी की खोपड़ी की शक्ल में खोजा गया है। यह बहुत मजे की बात है। हमने बहुत देवता हमारे गढ़े हुए हैं। अपने को चढ़ाना पड़ता है परमात्मा के दरवाजे पर; अपनी गर्दन अपनी जरूरतों के अनुसार हमने उन्हें गढ़ा है। जिस चीज की काटनी पड़ती है। प्रतीकात्मक अर्थों में, सिंबालिकली, अपनी ही जरूरत होती है, हम गढ़ लेते हैं। गर्दन काटकर चढ़ानी पड़ती है। अपने को नहीं काटेगा, वह क्या सारा आविष्कार तो जरूरत से होता है न। देवताओं का चढाएगा। वह क्या परमात्मा को पाएगा। आविष्कार भी जरूरत से होता है। आवश्यकता कोई वैज्ञानिक - पर होशियार है आदमी; उसने सोचा, गर्दन वगैरह तो बहुत खोजों की ही जननी नहीं है, देवताओं की भी जननी है। इसलिए तो महंगी पड़ती है। पांच आने में नारियल मिलता है; बिलकुल आदमी इतने देवता! हिंदुस्तान में तैंतीस करोड़ आदमी थे, तो तैंतीस करोड़ की खोपड़ी जैसा लगता है। आंख भी हैं; सब हिसाब-किताब पूरा देवता। अब आदमी तो थोड़े ज्यादा बढ़ गए हैं, देवता भी हमें बढ़ाने | है। फिर असली भी खरीदने की जरूरत नहीं है, सड़ा-सड़ाया भी चाहिए। नहीं तो बहुत मुश्किल पड़ जाएगी; कुछ लोग बिना मिल जाता है। देवताओं के पड़ जाएंगे। __ हर मंदिर के सामने दुकान होती है। और करीब-करीब मैंने सुना हरेक अपना देवता खड़ा कर लेता है, जो उसकी जरूरत है, है कि मंदिर के पास जो दुकान होती है, जो नारियल उन्होंने पहली उसके मुताबिक। और फिर उस देवता से प्रार्थना करने लगता है। दफे खरीदे थे, उनसे ही काम चलता चला जाता है। क्योंकि अंदर कृष्ण कहते हैं, वे दूसरे देवताओं के पास चले जाते हैं। जाकर चढ़ जाते हैं, पुजारी रात को बेच जाता है। सुबह फिर मंदिर परमात्मा तो एक है और हम उसे गढ़ नहीं सकते। में चढ़ने लगते हैं, रात फिर लौट आते हैं। इसलिए दुनियाभर में मोहम्मद ने अगर काबा की तीन सौ पैंसठ मूर्तियां हटवाईं, तो नारियल के दाम बढ़ जाएं, मंदिर की दुकान वाला नारियल पुराने Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < मुखौटों से मुक्ति - दाम से भी चलता है; कोई हर्जा नहीं! उसके भीतर कुछ बचा भी | तो देवता के पीछे से घटनाएं घटती हैं, इसमें कोई शक नहीं है। है, यह संदिग्ध है। सब सड़ चुका होगा कभी का। लेकिन उसके घटने का कारण बहुत दूसरा है। वह दया है किन्हीं लेकिन आदमी कितना कुशल है। उसने नारियल खोजा; उसने | शुभ आत्माओं की। सिंदूर खोजा। सिंदूर-खून। खून अपने प्राणों का जो लगाए; वह लेकिन कृष्ण जिस परम उपलब्धि की बात कर रहे हैं, उसके प्रतीक है कि अपने खून को जो चढ़ा दे। तो उसने देखा, खून से लिए तो देवताओं के पास जाने से नहीं होगा। क्योंकि कोई कितनी मिलती-जुलती चीज बाजार में कोई मिलती है ? मिलता है। सिंदूर । ही शुभ आत्मा क्यों न हो, किसी को परमात्मा नहीं दिला सकती। मिल गया। उसने सिंदूर लगा दिया। नारियल चढ़ा दिया। हां, धन दिला सकती है। वह कोई बड़ी कठिन बात नहीं है। दो-चार-आठ आने में निपटाकर वह अपने घर वापस आया। नौकरी दिला सकती है। किसी की शादी करवा सकती है। किसी निश्चित, यह पूजा परमात्मा तक नहीं पहुंचती। यह पूजा सिर्फ की बीमारी ठीक करवा सकती है। वह कोई कठिन बात नहीं है। जो हमारी वासनाओं की सेवा है। और यह आपको कहूं कि इसमें आदमी कर सकता है, वही अच्छी आत्मा भी कर सकती है, कभी-कभी परिणाम आते हैं, इसलिए और कठिनाई है। ऐसा नहीं सरलता से। है कि यह चूंकि बिलकुल थोथी है, इसमें कभी परिणाम नहीं आते। लेकिन परमात्मा से कोई अच्छी आत्मा आपको मिलवा नहीं इसमें परिणाम आते हैं। उसी से तो झंझट है। अगर परिणाम सकती। परमात्मा से मिलने तो आपको ही जाना पड़ेगा। और चौथे बिलकुल न आते होते, तो आदमी कभी का ऊब गया होता। तरह के ज्ञानी होकर जाना पड़ेगा, तो ही आप पहुंच पाएंगे। परिणाम आते हैं। वासनाओं से हटे चित्त, आसक्तियों से टूटे चित्त, ज्ञान में थिर. परिणाम इसलिए आते हैं कि जब भी आप किसी देवता की पूजा | हो, समर्पित एकीभाव से प्रभु की तरफ भजन करे, दौड़े, गति करे, 'शुरू करते हैं, या कोई देवता निर्मित कर लेते हैं...। अक्सर देवता तो एक दिन भक्त भगवान हो जाता है। इस तरह निर्मित होते हैं, कोई आदमी मरा, कोई संत मरा, कोई सब भक्त भगवान हैं। उन्हें पता हो, न पता हो। फर्क पता होने फकीर मरा. कोई महात्मा मरा: वेदी बन गई: मर्ति बन गई। कछ का और न पता होने का है। लेकिन कोई भक्त भगवान से वंचित आस-पास पूजा-प्रार्थना शुरू हो गई। देवता निर्मित हो गया। नहीं है। प्रत्येक भक्त भगवान है। कभी जब ऐसा कोई देवता निर्मित हो जाता है, तो परिणाम भी आज इतना ही। आते हैं। क्योंकि बहुत-से अच्छे लोग, जिनकी आत्माएं लेकिन उठेंगे नहीं पांच मिनट। यह प्रार्थना किसी आर्त कारण से आस-पास भटकने लगती हैं, अशरीरी हो जाती हैं, आपके द्वारा नहीं की जा रही है। ये संन्यासी किसी दुख में नहीं हैं। और न ये किसी की गई प्रार्थनाओं में सहायता पहुंचा सकते हैं। वह सहायता उनकी लोभ और किसी मांग के लिए परमात्मा से प्रार्थना कर रहे हैं। एक दया से निकलती है। लेकिन आपको मिल जाती है सहायता. तो इनका आनंद का भाव है उसे धन्यवाद देने के लिए। आप भी आप सोचते हैं कि देवता ने सहायता की, तो प्रार्थना करता चला सम्मिलित हो जाएं। और प्रार्थना में भी जो कंजूसी करे, उससे कंजूस जाऊं, करता चला जाऊं। आदमी खोजना बहुत मुश्किल है। थोड़ी कंजूसी न करें। आपके हर देवता के आस-पास ऐसी आत्माएं मौजूद हैं, जो आपको सहायता कर सकती हैं। भले लोगों की आत्माएं हैं। देखें, एक आदमी परेशान आया है, उसकी लड़की की शादी नहीं हो रही है। कोई मूर्ति सहायता नहीं करेगी, कोई नारियल सहायता नहीं करेगा। लेकिन उस मूर्ति और उस मंदिर के वातावरण में निवास करने वाली कोई भली आत्मा सहायता कर सकती है। और वह सहायता आपको मिल जाए, तो आपका तो गणित पूरा हो गया कि मेरी मांग पूरी हुई, मेरी प्रार्थना पूरी हुई, देवता सच्चा है। अब तो इसको कभी छोड़ना नहीं है। फिर आप उसको पकड़े चले जाते हैं। भी उसमें 423 Page #450 --------------------------------------------------------------------------  Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय7 आठवां प्रवचन श्रद्धा का सेतु Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ << गीता दर्शन भाग-3 > यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति । भुलाने के लिए, मिटाने के लिए, वे विश्वास करते हैं। लेकिन तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ।। २१।। | भीतर का अविश्वास और गहरे उतर जाता है, मिटता नहीं है। स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते। विश्वासी कभी भी अविश्वास को नहीं मिटा पाता। क्योंकि लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान् ।। २२ । । । | विश्वास होता ही किसी अविश्वास के खिलाफ है। विश्वास की जो-जो सकामी भक्त जिस-जिस देवता के स्वरूप को जरूरत ही इसलिए पड़ती है कि भीतर अविश्वास है। श्रद्धा से पूजना चाहता है, उस-उस भक्त की मैं उस ही श्रद्धा बड़ी और बात है। श्रद्धा विश्वास नहीं है, अविश्वास का देवता के प्रति श्रद्धा को स्थिर करता हूं। तथा वह पुरुष उस अभाव है। श्रद्धा से युक्त हुआ उस देवता के पूजन की चेष्टा करता है इस बात को ठीक से समझ लें। और उस देवता से मेरे द्वारा ही विधान किए हुए उन इच्छित श्रद्धा विश्वास नहीं है, अविश्वास का अभाव है। जिसके हृदय भोगों को निःसंदेह प्राप्त होता है। | में अविश्वास नहीं है, वह विश्वास भी नहीं करता, क्योंकि | विश्वास किसलिए करेगा! एक आदमी जब कहता है कि मैं ईश्वर में विश्वास करता हूं, तब वह जितना जोर लगाकर कहता है कि मैं 7 भु की खोज में किस नाम से यात्रा पर निकला कोई, | विश्वास करता हूं, जानना कि उतना ही ताकतवर अविश्वास भीतर प्र यह महत्वपूर्ण नहीं है; और किस मंदिर से प्रवेश किया बैठा है। वह उसी अविश्वास को इतना जोर लगाकर दबाता है। उसने, यह भी महत्वपूर्ण नहीं है। किस शास्त्र को अन्यथा अविश्वास न हो, तो विश्वास करने का कोई कारण नहीं माना, यह भी महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण सिर्फ इतना है कि उसका रह जाता। भाव श्रद्धा का था। वह राम को भजता है, कि कृष्ण को भजता है, ___ आप कभी भी ऐसा नहीं कहते कि मैं सूरज में विश्वास करता कि जीसस को भजता है, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता। वह भजता हूं। लेकिन आप कहते हैं, मैं ईश्वर में विश्वास करता हूं। आप है, इससे फर्क पड़ता है। किस बहाने से वह प्रभु और अपने बीच कभी नहीं कहते कि यह आकाश, जो चारों तरफ है मेरे, इसमें मैं सेतु निर्मित करता है, वे बहाने बेकार हैं। असली बात यही है कि विश्वास करता हूं। लेकिन आप कहते हैं, मैं ईश्वर में विश्वास वह प्रभु-मिलन के लिए आतुर है; वह श्रद्धा ही सार्थक है। करता हूं। और अगर कोई आदमी आकर कहे कि मैं सूरज में इसे ऐसा समझें कि यदि परमात्मा का सवाल भी न हो, और कोई | विश्वास करता हूं, तो क्या उसका विश्वास इस बात की खबर न व्यक्ति परम श्रद्धा से आपूरित हो; किसी के प्रति भी नहीं, सिर्फ होगा कि वह आदमी अंधा है। सिर्फ अंधे ही सूरज में विश्वास कर श्रद्धा का उसके हृदय में आविर्भाव होता हो, श्रद्धा उसके हृदय से सकते हैं। जिनके पास आंख है, उनकी सूरज में श्रद्धा होती है। विकीर्णित होती हो; किसी के चरणों में भी नहीं, लेकिन उसके श्रद्धा का अर्थ है, अविश्वास नहीं होता। भीतर से श्रद्धा का झरना बहता हो, तो भी वह परमात्मा को उपलब्ध आप सूरज में विश्वास नहीं करते हैं, आप जानते हैं कि सूरज हो जाएगा। नास्तिक भी पहुंच सकता है वहां, अगर उसके हृदय है। संदेह ही नहीं किया कभी, तो विश्वास करने का कोई सवाल से श्रद्धा के फूल झरते हैं। और आस्तिक भी वहां नहीं पहुंच पाएगा, नहीं है। बीमार ही नहीं हुए कभी, तो किसी दवा लेने की कोई अगर उसके जीवन में श्रद्धा का झरना नहीं है। जरूरत नहीं है। तो श्रद्धा को थोड़ा इस सूत्र में ठीक से समझ लेना जरूरी है। विश्वास जो है, एंटीडोट है डाउट का। वह जो संदेह भीतर बैठा श्रद्धा से क्या अर्थ है? श्रद्धा से अर्थ. विश्वास नहीं है. बिलीफ है. उसको दबाने का इंतजाम है विश्वास। इसलिए आदमी कहता नहीं है। है, मैं ईश्वर में विश्वास करता हूं। लेकिन कभी नहीं कहता कि मैं यह बहुत मजे की बात है कि जो लोग भी विश्वास करते हैं, वे पदार्थ में विश्वास करता हूं। पदार्थ में कोई अविश्वास ही नहीं है, अविश्वासी होते हैं। उनके भीतर अविश्वास छिपा होता है। उसी इसलिए विश्वास की कोई जरूरत नहीं पड़ती है। और अगर कोई अविश्वास को दबाने के लिए वे विश्वास करते हैं। भीतर कहता हो, तो उसे शक होगा कि वह आदमी अंधा है। आंख वाला अविश्वास होता है, उसे दबाने के लिए, उसे झुठलाने के लिए, आदमी सूरज में विश्वास नहीं करता, श्रद्धा करता है। Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < श्रद्धा का सेतु - इस फर्क को आप ठीक से समझ लें। अभय, फियरलेस, इस जगत में कोई भी चीज नहीं है। खुद श्रद्धा का अर्थ है, अविश्वास उठता ही नहीं। विश्वास का अर्थ | भगवान भी आकर किसी श्रद्धावान हृदय को कहे कि भगवान नहीं है, अविश्वास मौजूद है। किसी भय के कारण, किसी लोभ के | है, तो वह कहेगा कि रास्ते से हटो! लेकिन आपके विश्वास को कारण, वह जो अविश्वास मौजूद है, उसे हम दबा लेना चाहते हैं, तो एक छोटा-सा बच्चा डिगा सकता है। एक छोटा-सा बच्चा तर्क छिपा लेना चाहते हैं, झुठला देना चाहते हैं, भुला देना चाहते हैं। | उठा दे, और आपके विश्वास मिट्टी में लोट जाते हैं। धर्म की यात्रा पर विश्वास से काम नहीं चलता। विश्वास इसलिए कोई आदमी अपने विश्वासों की चर्चा नहीं करना सब्स्टीटयूट है श्रद्धा का; लेकिन इमिटेशन, नकली; उससे काम | चाहता। क्योंकि विश्वास की चर्चा करनी खतरनाक है। उसके नीचे नहीं चलता। इसीलिए तो दुनिया में इतने विश्वासी लोग हैं, फिर कोई जड़ नहीं है। ऊपर-ऊपर है सब। जरा में गिर जाएगा। भी धर्म कहीं दिखाई नहीं पड़ता। विश्वासियों की कोई कमी है? | | कृष्ण कहते हैं, श्रद्धा जो करता है। फिर वे कहते हैं कि वह श्रद्धा सच पूछा जाए, तो अधिकतम लोग विश्वासी हैं। वे जो अविश्वास | | चाहे किसी कामना से प्रेरित होकर किसी देवता में ही क्यों न करता करते हुए मालूम पड़ते हैं, वे भी विश्वासी हैं। सिर्फ उनके विश्वास हो। और यहां एक बहुत कीमती बात वे कहते हैं! कहते हैं, किसी नकारात्मक हैं। कामना से प्रेरित होकर ही, अर्थार्थी, किसी वासना से प्रेरित होकर पृथ्वी विश्वासियों से भरी है, लेकिन धर्म की कोई रोशनी नहीं ही किसी देवता में श्रद्धा क्यों न करता हो, मैं उसकी श्रद्धा नहीं दिखाई पड़ती। मंदिर, मस्जिद और चर्चों में विश्वासी प्रार्थना कर | मिटाता। मैं उसकी श्रद्धा को परिपुष्ट और मजबूत करता हूं। रहे हैं, लेकिन प्रार्थना का आनंद कहीं विकीर्णित होता नहीं दिखाई दो रास्ते संभव हैं। पड़ता। वह हरियाली जो प्रार्थना से हमारे हृदय पर छा जानी | कृष्ण भलीभांति जानते हैं कि देवता की श्रद्धा मुक्ति तक, सत्य चाहिए, नहीं छाती दिखाई पड़ती। हम रूखे के रूखे, सूखे के तक, परम सत्य तक नहीं ले जाएगी। यह भी भलीभांति जानते हैं सखे मरुस्थल रह जाते हैं। कहते हैं कि प्रार्थना कर आए. लेकिन कि कामना से प्रेरित होकर जो आदमी श्रद्धा कर रहा है. उसकी मरुस्थल का मरुस्थल रह जाता है, कोई वर्षा नहीं होती उस पर। श्रद्धा बड़ी सांसारिक है। उसके लगाव में परमात्मा की तरफ बहाव विश्वास धोखा है श्रद्धा का, लेकिन धोखे से कुछ काम नहीं | कम है, संसार में ही बहने के लिए परमात्मा की सहायता की अपेक्षा चलेगा। ज्यादा है। यह भलीभांति जानते हैं। एक व्यक्ति संध्या अपने घर लौटा है। उसकी पत्नी का जन्मदिन दो रास्ते हैं। या तो कृष्ण कह सकते हैं कि छोड़ो कामवासना, है। आते ही उसने कहा कि देखती हो, हीरे की अंगूठी लाया हूं छोड़ो वासनाएं, हटाओ वासनाओं को, और छोड़ो देवताओं को, तुम्हारे लिए। पत्नी ने कहा, हीरे पर इतना खर्च क्यों किया? इतने क्योंकि देवताओं से परम मुक्ति नहीं होगी। आओ मेरे पास, सब दिन से हम सोचते थे, अच्छा होता कि तुम एक कार ही खरीद लाते वासनाओं को छोड़कर, परम ऊर्जा के पास। वही मुक्ति है, वही और मुझे भेंट कर देते। उस आदमी ने आंख बंद कर ली और फिर स्वातंत्र्य है, वही अमृत है। एक रास्ता तो यह है। सिर ठोंका, और उसने कहा कि क्या करूं, इमिटेशन कार मिलती | लेकिन कृष्ण भलीभांति जानते हैं कि ऐसा कहकर इस बात की नहीं; नकली कार मिलती नहीं। नकली हीरा मिल जाता है। नकली | | तो सौ में एक ही संभावना है कि कोई देवताओं को और वासनाओं कार मिलती होती, तो वह ले आता। को छोड़कर कृष्ण के पास आए। सौ में निन्यानबे संभावना यह है श्रद्धा की जगह जिसने भी विश्वास को पकड़ा है, वह नकली | कि कृष्ण के पास तो आए ही नहीं, देवता के पास भी जाना बंद कर हीरे को पकड़े हुए है। असली हीरे का उसे पता ही नहीं है। इसलिए दे। इसकी संभावना सौ में निन्यानबे है। विश्वासी बहुत डरता है कि कोई उसके विश्वास का खंडन न कर इसलिए कृष्ण कहते हैं, मैं उसके ही देवता में उसकी श्रद्धा को दे; कोई विपरीत तर्क न दे दे; कोई उलटी बात न कह दे; कहीं| स्थापित करता हूं। क्योंकि श्रद्धा आज देवता में स्थापित हो जाए, विश्वास डगमगा न जाए। | तो कल एक कदम आगे उसे और बढ़ाया जा सकता है। कृष्ण ध्यान रहे, विश्वास डगमगाता ही रहेगा, क्योंकि विश्वास की कहते हैं, वह कामवासना से भरे व्यक्ति को भी मैं एकदम से नहीं कोई जड़ ही नहीं है। श्रद्धा नहीं डगमगाती। इसलिए श्रद्धा से ज्यादा कहता कि तेरी कामवासना गलत है। मैं कहता हूं कि ठीक है। मेरी 427 Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग - 3 > शक्ति तेरी वासनाओं की पूर्ति में भी सहयोगी बनेगी। इतने भरोसे के साथ उसकी कामवासना में भी सहायता देने की जो बात है, वह सोचने जैसी है, उसमें कुछ राज है। उसमें राज यह है कि तू अपनी कामवासना पूरी कर ले। पूरी करके तू पाएगा कि कुछ पूरा नहीं हुआ। तू अपनी वासनाओं को पूरा कर ले। पूरा करके तू पाएगा कि तूने व्यर्थ की मांग की। पूरा करके तू पाएगा कि परमात्मा की जो शक्ति तेरी वासनाओं की पूर्ति के लिए मिली, उस शक्ति से तो स्वयं तू परमात्मा हो सकता था। तूने उसे व्यर्थ गंवाया है। इस भरोसे के साथ, कृष्ण कहते हैं, मैं उसकी श्रद्धा को मजबूत करता हूं उसी देवता में, जिसकी तरफ उसका लगाव है । और उसी वासना के लिए कहता हूं कि ठीक। चलो, यही सही । शायद परमात्मा की शक्ति मिलनी शुरू हो। आपने भला किसी और चीज के लिए मांगी हो, लेकिन जब वह मिलेगी और उसके आनंद की चारों तरफ वर्षा होने लगेगी, तो वह घटना भी घट सकती है कि जिसके लिए आपने मांगा था, वह आप ही भूल जाएं, और जो बरस रहा है, वही स्मरण में रह जाए, और उसी तरफ यात्रा शुरू हो जाए। दो रास्ते हैं। एक रास्ता तो यह है कि पहले आपसे गलत छुड़ाया जाए और तब आपको सही दिया जाए। दूसरा रास्ता यह है कि आपको सही दिया जाए, ताकि गलत आपसे छूटे। कृष्ण सही को देने के लिए अति आतुर हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि सही मिलना शुरू हो, तो गलत छूटना शुरू होता है। और गलत छुड़वाना बहुत मुश्किल है, क्योंकि जिनके हाथ में सही नहीं है, वे गलत के सहारे जीते हैं। अगर हम उनसे उनका गलत छुड़वाना शुरू करें, तो इसकी बहुत कम संभावना है कि वे गलत को छोड़ें और सही की यात्रा पर निकलें। इस बात की ही संभावना ज्यादा है कि वे हमारी बात सुनना बंद कर दें, और अपने गलत को पकड़े रहें। या यह भी डर है कि वे गलत को भी छोड़ दें, और सही की यात्रा पर भी न निकलें। तब एक त्रिशंकु की हालत में, बीच में, अधर में लटक जाएं। जैसा कि आज करीब-करीब पश्चिम में हुआ है। इन पिछले तीन सौ वर्षों में पश्चिम के विचारकों ने क्या गलत है, इस पर इतनी चर्चा की कि गलत तो छूट गया; क्या सही है, उसका कुछ पता नहीं रहा। पश्चिम में तीन सौ साल के अच्छे लोगों का परिणाम यह हुआ है कि आज पश्चिम का मन, एंटी आल एंड 428 प्रो नथिंग, हर चीज के खिलाफ और किसी चीज के पक्ष में नहीं रह गया है। जो लोग कृष्णमूर्ति को सुनते रहे हैं, उनकी स्थिति भी ऐसी ही बन जाती है - एंटी आल, प्रो नथिंग । हर चीज के विरोध में, हर चीज के निषेध में । यह भी गलत, यह भी गलत, यह भी गलत; और सही क्या है, उसकी कोई किरण उतरती नहीं। तब व्यक्ति बीच में अटका रह जाता है। कृष्ण की पद्धति बिलकुल दूसरी है। वे कहते हैं कि तुम गलत हो, गलत होओगे ही। क्योंकि जब तक परमात्मा न मिले, तब तक सही हो भी कैसे पाओगे ? तुम कंकड़-पत्थर पकड़े हो, स्वाभाविक है। क्योंकि जब तक हीरे न मिलें, कंकड़-पत्थर छोड़ोगे कैसे? तुम मिट्टी के घर बना रहे हो, स्वाभाविक है। क्योंकि जब तक तुम्हें अमृत का घर न मिल जाए, तुम और करोगे क्या ? कृष्ण की करुणा अपरिसीम है। वे कहते हैं कि ठीक है, तुम बच्चे हो, इसलिए सीप और पत्थर इकट्ठे कर रहे हो। ठीक है । मैं तुमसे सीप नहीं छीनता; मैं तुम्हें प्रौढ़ करने की कोशिश करूंगा, ताकि एक दिन तुम्हारे हाथ से सीपें छूट जाएं, और तुम हीरों की खदान को खोदने में लग जाओ। ध्यान रहे, कृष्ण की विधि पाजिटिव है, विधायक है। इधर इन तीन सौ वर्षों में सारी दुनिया की बुद्धि नकारात्मक ढंग से सोचने की आदी बनी है। और हमें ऐसा लगता है कि हम अंधेरे को मिटा | दें, तो प्रकाश आ जाएगा। जब कि बात उलटी है। प्रकाश आ जाए, तो अंधेरा मिटता है। एक आदमी अंधेरे में बैठकर अब दीया जलाने की कोशिश कर रहा है; अंधेरे में ही करेगा, क्योंकि दीया अभी जला नहीं। और अंधेरे में जो कोशिश होंगी, भूल-चूक से भरी होंगी, यह निश्चित है। कभी बाती ठीक जगह न लगेगी, कभी तेल ढुल जाएगा, कभी माचिस ढूंढ़ने निकलेगा और नहीं मिलेगी, क्योंकि अंधेरा है, दीया जला हुआ नहीं है। अंधेरे में भूल-चूक बिलकुल स्वाभाविक है। अगर हम भूल-चूक पर बहुत नाराज हो जाएं और उस आदमी से कहें कि बंद करो। पहले अंधेरे को मिटा लो, फिर दीए को जलाना; तब भूल-चूक बिलकुल नहीं होगी। होगी तो नहीं बिलकुल भूल-चूक, लेकिन अंधेरे को मिटाया नहीं जा सकता, और दीए को जलाया नहीं जा सकता। अंधेरे में टटोलकर, भूल-चूक करते हुए ही दीया जलता है । यद्यपि दीया Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धा का सेतु जल जाए, तो भूल-चूक बंद हो जाती है। भगवान श्री बोलना जारी रखते हैं।) जीवन को पाजिटिवली, जीवन को विधायक दृष्टि से देखने का घबड़ाएं न। थोड़ा पानी गिरेगा, तो इतने घबड़ा न जाएं। कृष्ण रुख यह है। इसलिए कृष्ण गलत को भी समर्थन दे रहे हैं। | की बात सुनने आए हों, तो थोड़ा-सा इतना परेशान न हों कि भलीभांति जानते हुए कि वासनाओं से भरा हुआ चित्त गलत है। | दो-चार बूंदें आपके कपड़े पर गिरेंगी, तो आप मिट जाएंगे, कि मर यह भी जानते हुए कि देवताओं की शरण में गया चित्त वासनाओं जाएंगे, कि समाप्त हो जाएंगे। दो-चार बूंदे गिरती हैं, उन्हें गिर जाने की पूर्ति के लिए ही जाता है। यह भी जानते हुए कि जो आदमी | दें। इतने कमजोर लोगों को गीता सुनने नहीं आना चाहिए। देवताओं के चरणों में बैठ रहा है, उस आदमी की अभी परम खोज | वे कृष्ण समझा रहे हैं कि आग से जलती नहीं आत्मा। आपकी शुरू नहीं हुई। और यह भी जानते हुए कि वह जो मांगने आया है, । तरफ देखेंगे, तो उनको बड़ी निराशा होगी कि पानी से गल जाती वह बहुत बच्चों जैसी चीज है; देने योग्य भी नहीं है। लेकिन कृष्ण है! अभी कोई दो-चार बूंद! अभी कोई पानी भी नहीं आ गया। कहते हैं, वह हम तुझे देंगे। तेरे ही देवता में तेरी प्रतिष्ठा कर देंगे। अभी सिर्फ आसार हैं पानी के। बादल थोड़ी आवाज दे रहे हैं, तेरा और लगाव बढ़ाएंगे तेरे ही देवता में। तेरे देवता में भी मेरी आपको देखने के लिए कि आदमी किस तरह के इकट्ठे हैं यहां! शक्ति प्रवाहित होकर, तेरे देवता से ही तुझे मिल जाएगी, ताकि तू तो अपनी जगह बैठे रहें। कोई भी आदमी उठे, तो पास के लोग अपनी श्रद्धा में दृढ़ हो जाए। | उसे पकड़कर नीचे बिठाल दें। क्योंकि नाहक इतने लोग उसको और आदमी एक-एक कदम अगर श्रद्धा में दृढ़ होता जाए, तो देखेंगे कि इतना कमजोर आदमी है। उस पर थोड़ी दया करें, उसे एक दिन वह अनिर्वचनीय घटना भी घटती है, वह विस्फोट भी, जब | | पकड़कर वहीं के वहीं बिठा दें। कुछ कहने की जरूरत नहीं; उसे श्रद्धा पूर्ण होती है, जब कोई संदेह की रेखा भी नहीं रह जाती भीतर। चुपचाप बिठा दें। उस निस्संदिग्ध श्रद्धा में परम की यात्रा अपने आप हो जाती है। पानी गिरेगा, कृष्ण की बात का पता चल जाएगा, कि आत्मा इस कमजोर आदमी को देखकर दिया गया यह वक्तव्य है। | गलती है कि नहीं गलती है। नहीं गले, तो समझना कि कृष्ण ठीक - कृष्णमूर्ति जैसे व्यक्ति कमजोर आदमी की जरा भी फिक्र करते कहते हैं। और गल जाए, तो समझना कि कृष्ण गलत कहते हैं। तो हुए मालूम नहीं पड़ते हैं। उनके वक्तव्य उनके लिए हैं, जो कभी आज प्रयोग करके ही चलेंगे। पानी को गिरने दें। देखें कि गलते हैं भूल नहीं करते। लेकिन जो कभी भूल नहीं करते, उनके लिए किसी कि नहीं गलते हैं। के वक्तव्यं की कोई भी जरूरत नहीं है। वे जो भूल करते हैं, वे जो ___बच्चों जैसे काम न करें। और बच्चों जैसे काम करने हों, तो अंधेरे में खड़े हैं, उनके लिए वे वक्तव्य खतरनाक हैं। खतरनाक जगत में जो थोड़े-से बुद्धिमान हुए हैं, उन लोगों की बातें सुनने नहीं इसलिए हैं कि उस तरह की बातें उन्हें बौद्धिक रूप से स्मरण हो| आना चाहिए। जाएंगी। वे रट लेंगे उन बातों को। वे कहेंगे कि दीए को जलाया। कृष्ण की करुणा उन लोगों पर है, जो हर तरह से भूल से भरे नहीं जा सकता, जब तक अंधेरा है। क्योंकि अंधेरे में जो भी दीया हैं; हर तरह से जिनसे गलत ही होने का डर है; जिनसे सही न हो जलाया जाएगा, वह गलत होगा। | पाएगा। कहते हैं, तुम्हारी गलती को भी मैं स्वीकार कर लूंगा। तुम कृष्णमूर्ति कहते हैं, यू कैन नाट टेक एनी स्टेप इन कनफ्यूजन, भूल से जाओगे मंदिर में, वह भी मैं मान लूंगा। तुम नासमझी से बिकाज ए स्टेप टेकेन इन कनफ्यूजन मस्ट बी कनफ्यूज्ड। प्रार्थना करोगे, वह भी मैं स्वीकार कर लूंगा। कनफ्यूजन में आप कोई कदम नहीं उठा सकते, भ्रमित दशा में, __बिठा दें; जो भी आपके पास भागता हो, उसे पास के लोग क्योंकि भ्रमित दशा में उठाया गया कोई भी कदम और भ्रम में ही ले | | पकड़कर बिठा दें। और आप घबड़ाएं नहीं। मैं यहां मंच पर बैठा जाएगा। वही बात, अंधेरे में आप दीया नहीं जला सकते, क्योंकि | हुआ हूं, तो यहां पानी नहीं गिर रहा है। बाथरूम में जाकर खड़ा हो अंधेरे में जो आप दीया जलाएंगे, अंधेरे में भूल-चूक हो ही जाएगी। | जाऊंगा कपड़े पहने आधा घंटा, आपकी तरफ से। तो उसको झेल लेकिन सब दीए अंधेरे में जलाए जाते हैं; और दुनिया में सब लूंगा। आप परेशान न हों। एक पांच मिनट में पानी चला जाएगा कदम कनफ्यूजन में ही उठाए जाते हैं। और आनंद दे जाएगा। (अब वर्षा की कुछ बूंदें प्रवचन स्थल पर गिरने लग गई हैं। तो दूसरा सूत्र पढ़ो, हूं। 429 Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-3> प्रश्नः भगवान श्री, पिछले श्लोक में कृष्ण कहते हैं कि व्यक्ति वासनाओं की पूर्ति के लिए जिन देवताओं को पूजते हैं, वे देवता मेरे द्वारा विधान किए हुए फलों को प्रदान करते हैं। मेरे द्वारा विधान किए हुए फलों को, कृपया इसका अर्थ स्पष्ट करें। ट स जगत में कुछ भी ऐसा नहीं होता है, जो परमात्मा इ के विधान से विपरीत हो। ऐसा कुछ भी नहीं होता है, जो उसके नियम के बाहर हो। ऐसा कुछ भी हो नहीं सकता है, जो उसकी शक्ति से ही, उसकी ऊर्जा से ही संचालित न होता हो। इसलिए कृष्ण कहते हैं, जो भी देवता मनुष्यों की वासनाओं से भरी चित्त दशा में भी, उनकी प्रार्थनाओं को पूरा करते हैं, वे भी मेरे ही द्वारा किए हुए विधान के माध्यम से! मैं ही, मेरी शक्ति ही, उस सारे विधान के पीछे सक्रिय होती है। अब बैठे रहे हैं। अब तो भागने से भी कुछ न होगा। आप भीग ही गए हैं। अब भागने से कुछ भी ज्यादा होने का नहीं है। अब बैठे रहें। कीर्तन कर लेते हैं आनंद में, और फिर बंद कर देते हैं। कल बात कर लेंगे। 430 Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 7 नौवां प्रवचन निराकार का बोध Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 गीता दर्शन भाग-3 - अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्। है। अभी जो लगता है जरूरी, वह मांग लेते हैं। देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ।। २३ ।। । बुद्धिमान वही है, जो जीवन की परम आवश्यकता को मांगता है। परंतु उन अल्पबुद्धि वालों का वह फल नाशवान है तथा वे सुनी है हम सबने कथा, बहुत प्यारी और मधुर है। नचिकेता देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे अपने पिता के पास बैठा है। पिता ने किया है बड़ा यज्ञ। ब्राह्मणों भक्त मेरे को ही प्राप्त होते हैं। को दान कर रहे हैं वे। पिता ने नचिकेता से कहा है, मैं अपना सब दान कर दूंगा। छोटा बच्चा है, और छोटे बच्चों से कभी-कभी जो सवाल उठते हैं, वे बड़े गहरे और आत्यंतिक होते हैं। वह बैठा हुआ कामनाओं से प्रेरित होकर की गई प्रार्थनाएं जरूर ही फल | है पास में, जब ब्राह्मणों को दान दिया जा रहा है। और नचिकेता पण लाती हैं। लेकिन वे फल क्षणिक ही होने वाले हैं; वे का पिता पुरानी बूढ़ी गाएं दे रहा है, जिनसे दूध मिलने को नहीं। फल थोड़ी देर ही टिकने वाले हैं। कोई भी सुख सदा | इस तरह की चीजें दे रहा है, जिनकी अब कोई जरूरत नहीं रही। नहीं टिक सकता, न ही कोई दुख सदा टिकता है। सुख और दुख | तो नचिकेता बार-बार पछता है कि मैं भी तो आपका हं न. तो मझे लहर की तरह आते हैं और चले जाते हैं। कब दान देंगे? मुझे किसे दान देंगे? क्योंकि कहा आपने कि मैं देवताओं की पूजा से जो मिल सकता है, वह क्षणिक सुख का | अपना सब कुछ दे डालूंगा। मैं भी तुम्हारा बेटा हूं न! आभास ही हो सकता है। वासनाओं के मार्ग से कुछ और ज्यादा | पिता को क्रोध आ जाता है। वह क्रोध में कहता है कि तुझे भी पाने का उपाय ही नहीं है। दे दूंगा; घबड़ा मत। लेकिन तुझे मृत्यु को, यम को दे दूंगा। इसलिए कृष्ण कहते हैं, लेकिन जो मेरे निकट आता है-और नचिकेता, मानकर कि यम को दान कर दिया गया, यम के द्वार उनके निकट आने की शर्त है, वासनाओं को छोड़कर, विषयासक्ति पर पहुंच जाता है। लेकिन यम घर के बाहर है। तो वह तीन दिन को छोड़कर वह उसे पाता है. जो नष्ट नहीं होता. जो खोता नहीं, भूखा बैठा रहता है, फिर यम आते हैं। उसका तीन दिन भूखा बैठा जो शाश्वत है। इसलिए उन्होंने दो बातें इस सत्र में कही हैं। रहना, उस छोटे-से बच्चे का, और इतनी सरलता से मृत्यु के द्वार अल्पबुद्धि वाले लोग! पर स्वयं आ जाना! क्योंकि यम का अनुभव तो यही है कि वह अल्पबुद्धि वाले लोग कौन हैं? अल्पबुद्धि वाले लोग वे हैं, जो जिसके द्वार पर जाता है, वही घर छोड़कर भागता है। यम के द्वार कि अपने ही हाथों, बहुत बड़े मूल्य पर बहुत छोटी चीज खरीदने पर आने वाला यह पहला ही व्यक्ति है, जो खुद खोजबीन करके को राजी हो जाते हैं। बहुत बड़े मूल्य पर बहुत छोटी चीज खरीदने आया। और फिर यह देखकर कि यम घर पर नहीं है, भूखा-प्यासा को राजी हो जाते हैं। प्रार्थना से तो मिल सकता है परम सत्य, बैठा है। तो यम कहते हैं कि तू कुछ मांग ले, तू वरदान ले ले। मैं लेकिन वे मांग लेते हैं कुछ क्षुद्र वस्तुएं। प्रार्थना से मिल सकता है तुझ पर प्रसन्न हुआ हूं। मैं तुझे हाथी-घोड़े, धन-दौलत, सुंदर परम जीवन, लेकिन वे मांग लेते हैं शरीर की कुछ जरूरतें। स्त्रियां, राज्य निश्चित ही, अल्पबुद्धि हैं इस कारण। और इसलिए भी नचिकेता कहता है, लेकिन जो धन आप देंगे, उससे मुझे तृप्ति अल्पबुद्धि हैं कि जो भी वे मांगते हैं, वह मिल भी जाए, तो भी मांग मिल पाएगी, ऐसी, जो कभी नष्ट न हो? वह यम उदास होकर का कोई अंत नहीं होता। जो वे पाना चाहते हैं, पा लें, तब भी वे कहता है, ऐसी तो कोई तृप्ति धन से कभी नहीं मिलती, जो समाप्त उतने ही अतृप्त, उतने ही दीन और उतने ही अधूरे होते हैं, जितना न हो। वे जो स्त्रियां आप मुझे देंगे, उनका सौंदर्य सदा ठहरेगा? मिलने के पहले थे। यम कहता है कि कुछ भी इस जगत में सदा ठहरने वाला नहीं है। __ मांगना ही हो, तो उसे मांग लेना चाहिए, जिसे मांगकर फिर और | | वह जो आप मुझे लंबी उम्र देंगे, क्या उसके बाद फिर आप मुझे कोई मांग शेष न रह जाए। पाना ही हो, तो उसे पा लेना चाहिए, | लेने न आएंगे? तो यम कहता है, यह तो असंभव है। कितनी ही जिसे पाकर तृप्ति हो जाती है, और पाने की दौड़ समाप्त हो जाती हो लंबी उम्र, अंत में तो मैं आऊंगा ही। वह जो बड़ा राज्य आप है। लेकिन अल्पबुद्धि लोग दूर तक नहीं देख पाते। विस्तीर्ण, मुझे देंगे, क्या उसे पाकर मैं वह पा लूंगा, ऋषियों ने जो कहा है कि जीवन के पूरे पहलू को नहीं समझ पाते। क्षणिक उनकी बुद्धि होती जिसे पा लेने से सब पा लिया जाता है? यम कहता है, उससे तो 432 Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < निराकार का बोध > कुछ भी नहीं मिलेगा, क्योंकि बड़े-बड़े सम्राट वह सब पा चुके हैं कृष्ण वही हमसे कह रहे हैं। हम सब कागज की नावों पर जीवन और फिर भी दीन-हीन मरे हैं। तो नचिकेता कहता है, ये चीजें फिर | में यात्रा करते हैं। हमारी नावें सपनों से ज्यादा नहीं। और हमारे मैं न लूंगा। मुझे तो इतना ही बता दें कि मृत्यु का राज क्या है, ताकि | भवन ताश के पत्तों के घर हैं। और सब, रेत पर हमारे हस्ताक्षर हैं। मैं अमृत को जान सकूँ। हवा के झोंके आएंगे और सब बझ जाएगा. और सब मिट जाएगा। नचिकेता को बहुत समझाता है यम। यम बहुत बुद्धिमान है। मृत्यु अल्पबुद्धि हैं हम। पर बुद्धि हम में है, अल्प ही सही। बीज ही से ज्यादा बुद्धिमान शायद ही कोई हो। अनंत उसका अनुभव है सही, पोटेंशियलिटी ही सही। हम इतना तो तय है कि सुख चाहते जीवन का। हर आदमी की नासमझी का भी मृत्यु को जितना पता है, हैं। हां, इतना तय नहीं है कि सुख क्या है, वह हम नहीं समझ पाए उतना किसी और को नहीं होगा। क्योंकि जिंदगीभर दौड़-धूप करके हैं। हम जो इकट्ठा करते हैं, मृत्यु उसे बिखेर जाती है। और एक बार नहीं, सुख चाहते हैं, यह तय है। सुख चाहकर भी दुख पाते हैं, यह हजार बार हमारा इकट्ठा किया हुआ मौत बिखेर देती है। हम फिर हमारा अनुभव है। लेकिन सुख की चाह हमारे भीतर है, वह दुबारा मौका पाकर, फिर वही इकट्ठा करना शुरू कर देते हैं। । बुद्धिमानी की सूचक है। लेकिन अत्यल्प बुद्धि की सूचक है। आदमी की नासमझी का जितना पता मौत को होगा, उतना किसी | क्योंकि फिर जो हम करते हैं, उससे दुख हाथ में आता है। शायद और को नहीं है। इतने लोगों की नासमझी से गुजरकर मौत | | हम ठीक से नहीं देख पाते कि सुख क्या है और दुख क्या है। समझदार हो गई हो, तो आश्चर्य नहीं। लेकिन यह बच्चा बहुत ___ यह बहुत मजे की बात है। जो व्यक्ति भी थोड़ी दूर तक सोचेगा, अडिग है। वह कहता है कि मुझे तो वही बता दें, जिससे अमृत को | वह हमेशा ऐसे सुख को चुन लेगा, जो बाद में दुख बन जाए। और जान लूं। मृत्यु को समझा दें मुझे। और आप तो मृत्यु को जानते ही | जो व्यक्ति दूर तक सोचेगा, वह ऐसे दुख को चुनेगा, जो बाद में ' हैं, आप मृत्यु के देव हैं। आप नहीं बताएंगे, तो मुझे कौन बताएगा! सुख बन जाए। बुद्धिमान होगा नचिकेता, कृष्ण के अर्थों में। हम बुद्धिमान नहीं | | भोग और तपश्चर्या का इतना ही फर्क है। भोगी, आज जो सुख हो सकते; हम अल्पबुद्धि हैं। खयाल रखें, कृष्ण कह रहे हैं, मालूम पड़ता है, उसे चुन लेता है; कल वह दुख हो जाता है। अल्पबुद्धि; बुद्धिहीन भी नहीं कह रहे हैं। बुद्धिहीन भी नहीं कह रहे तपस्वी, आज जो दुख मालूम पड़ता है, उसे चुनता है, लेकिन कल हैं, अल्पबुद्धि। वह सुख हो जाता है। अगर मनुष्य बिलकुल बुद्धिहीन हो, तब तो कोई संभावना नहीं और यह बड़े मजे की बात है, जो दुख को चुन सकता है आज, रह जाती। बुद्धि तो है; बहुत छोटी है। बड़ी हो सकती है, विकसित वह कल सुख का मालिक हो सकता है। और जो सुख को ही चुन हो सकती है। जो बीज की तरह है, वह वृक्ष की तरह हो सकती है। सकता है आज, कल वह सिवाय दुख के गड्ढों के और किन्हीं चीजों जो आज बहुत छोटी है, वह कल विराट बन सकती है। को उपलब्ध नहीं होगा। सुख पर जिसकी नजर है, वह दुख में पड़ कहते हैं, अल्पबुद्धि है आदमी। दुख तो नहीं चाहता आदमी, | जाएगा। उसकी नजर बहुत ओछी है, बहुत पास ही वह देखता है। नहीं तो बुद्धिहीन होता। सुख चाहता है, लेकिन अल्पबुद्धि है। इतने पास देखता है कि आगे के रास्ते का कुछ पता नहीं चलता। क्योंकि ऐसा सुख चाहता है, जो अंत में दुख ही लाता है, और कुछ दूर-दृष्टि चाहिए; दूर तक देखने की सामर्थ्य चाहिए। और अगर लाता नहीं। हम जरा भी दूर देख पाएं, तो हम जिन्हें सुख मानकर चलते हैं, अल्पबुद्धि कहना प्रयोजन से है। और अगर इस बात को हम | उनकी खोज में हम अपने जीवन को नष्ट नहीं करेंगे। ठीक से समझें, तो हम सभी अल्पबुद्धि मालूम पड़ेंगे। हमने जो भी | सना है मैंने कि एक अमेरिकी फिल्म निर्माता नई अभिनेत्री की चाहा, जो भी मांगा, जो भी खोजा, जीवन के मंदिर में हमने जो भी तलाश में था। अपने एक कवि मित्र को पकड़ लाया, जिसकी प्रार्थनाएं की हैं, वे हमारी सब ऐसी प्रार्थनाएं हैं, जैसे कोई रेत पर सौंदर्य के संबंध में बड़ी सुरुचि थी, जो सौंदर्य का पारखी था, और मकान बनाए; ताश के पत्तों का घर बनाए; कागज की नावें बनाएं, | | जिसने सुंदरतम स्त्री को खोजकर विवाह किया था। सौंदर्य पर और सोचे कि सागर में यात्रा पर निकल जाएगा। कागज की नाव पर उसने कविताएं लिखी थीं और सौंदर्य पर शास्त्र लिखे थे। कोई बैठकर सागर की यात्रा पर जा रहा हो, तो हम उसे क्या कहेंगे? | | एस्थेटिक्स पर उसकी बड़ी प्रसिद्ध किताबें थीं। उस फिल्म निर्माता 1433] Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 - ने सोचा कि इस मित्र कवि को ले चलूं; वह एक नई अभिनेत्री की कि दूसरी स्त्री सुंदर दिखाई पड़े और सुंदर सिद्ध न हो। दूसरी स्त्री तलाश में था। सुंदर सिद्ध हो सकती है। यही हमारा तर्क है। एक विश्व सौंदर्य प्रतियोगिता हो रही थी, जहां दुनियाभर से कोई अल्पबुद्धि का तर्क यही है कि कोई फिक्र नहीं, एक मकान सुख तीन दर्जन सुंदर युवतियां पुरस्कार लेने आई थीं। तो उसने कहा न दे पाया, तो दूसरा देगा। कोई फिक्र नहीं, एक पद पर शांति न अपने मित्र को कि तुम बैठकर एक-एक स्त्री को ठीक से देखते मिली, तो और दूसरे पद पर मिलेगी। कोई फिक्र नहीं, छोटी जाना और जो स्त्री तुम्हें ठीक जंच जाए, मुझे इशारा कर देना, तो तिजोड़ी भर गई पूरी, फिर भी मन न भरा; शायद बड़ी तिजोड़ी भर मैं उसे अपनी नई फिल्म के लिए प्रमुख पात्र बना लूं। जाए, तो मन भर जाए। लेकिन फिल्म निर्माता बड़ी मुश्किल में पड़ गया। पहली ही अल्पबुद्धि का तर्क है कि वह एक अनुभव को जीवन की सुंदर युवती आई; सभी स्त्रियां एक से एक ज्यादा सुंदर थीं; चिरस्थायी निधि नहीं बना पाता। वह अपने को धोखा दिए चला एक-एक राष्ट्र से चुनकर भेजी गई थीं। पहली स्त्री सामने | जाता है। वह कहता है, नहीं, कोई बात नहीं; यह अनुभव गलत आई-बगल में कवि बैठा था-अर्धनग्न, करीब-करीब नग्न। | | हुआ, दूसरा अनुभव ठीक होगा, तीसरा अनुभव ठीक होगा, चौथा कवि ने उसे देखा और कहा, फूः। वह बहुत हैरान हुआ; निर्माता | | अनुभव ठीक होगा। बहुत हैरान हुआ। उसने इतनी सुंदर स्त्री देखी नहीं थी। पर कवि ने | लेकिन इस जगत में एक अनुभव, उससे मिलते-जुलते सारे कहा, फूः। वह स्त्री चली गई, दूसरी स्त्री आई। और भी सुंदर थी। अनुभव की खबर दे जाता है। पर उसके लिए बहत दूर तक देखने पर कवि ने कहा, फूः। वे तीन दर्जन स्त्रियां सामने से जो गुजरती | | वाली दृष्टि, मेधा चाहिए। अल्पबुद्धि नहीं, गहरी दृष्टि चाहिए, गईं और वह एक ही काम करता रहा, फः! फः! महाबुद्धि चाहिए। तब एक अनुभव समस्त अनुभवों के लिए मार्ग वह चित्र निर्माता तो बहुत घबड़ा गया। और जब तीनों दर्जन बन जाता है, द्वार बन जाता है। स्त्रियां निकल गईं, तो उसने पूछा, आश्चर्य, मैं तो तुम्हें लाकर बड़ी लेकिन बहुत कठिन है। अगर आपके हाथ में एक रुपया आया मुश्किल में पड़ गया। कोई भी स्त्री पसंद नहीं पड़ी! जो भी स्त्री और आपके हाथ में कुछ न आया, तो आप यह मानने को कभी राजी तुमने देखी, कहा, फूः। तो क्या मतलब है तुम्हारा? क्या चाहते हो न होंगे कि दूसरा आएगा और कुछ न आएगा, तीसरा आएगा और तुम? क्या मापदंड है तुम्हारा? कुछ न आएगा। आपका मन धोखा दिए चला जाएगा। वह कहेगा, उस कवि ने कहा, यू हैव मिसअंडरस्टुड मी सर; आप मुझे गलत एक से नहीं मिला; तो वह कहेगा, दूसरा पाने की शीघ्रता करो। दूसरे समझे। आई वाज़ नाट सेइंग फू:-फूटु दीज गर्ल्स। आई वाज़ सेइंग | से नहीं मिला, तो तीसरा पाने की शीघ्रता करो। बस, मन इतना ही फू: टु माई वाइफ। यह मैं इन लड़कियों के लिए फू:-फू: नहीं कह रहा | कहेगा, और तेजी से दौड़ो, और तेजी से दौड़ो; कभी तो वह दिन आ था; यह तो मैं अपनी पत्नी के लिए फू:-फू: कर रहा था। | जाएगा, जब उतने रुपए हाथ में होंगे, जब तृप्ति हो जाए। पर उसने कहा कि पत्नी का इससे क्या संबंध? तो उसने कहा, | __ लेकिन कभी लौटकर इतिहास में भी तो लोगों से पूछे कि वह जब मैंने पत्नी को पहली दफा देखा था, तो वह भी ऐसी ही अतीव तृप्ति कभी आई? सुंदरी मालूम पड़ी थी। फिर जैसे-जैसे पास आई, सब फूः-फूः। अशोक युद्ध पर गया था। अल्पबुद्धि आदमी नहीं था। कलिंग सिद्ध हो गया। तो मैं जानता हूं कि यह सब जो रूपरेखा दिखाई पड़ के युद्ध पर लड़ा। एक लाख आदमी मारे गए। अशोक के पहले भी रही है, यह पीछे फू:-फूः सिद्ध हो जाने वाला है। अब इस जगत में सम्राट लड़े हैं, बाद में भी लड़ते रहे हैं, सदा लड़ते रहेंगे। लेकिन जो दुबारा शरीर की रेखाएं मुझे आकर्षित न कर पाएंगी। अब दुबारा | अशोक को दिखाई पड़ा, वह पहले के सम्राटों को भी कभी दिखाई शरीर का अनुपात मेरे लिए सौंदर्य न बन सकेगा। एक ही अनुभव नहीं पड़ा, बाद के सम्राटों को भी कभी दिखाई नहीं पड़ा। ने मुझे बहुत कुछ कह दिया है। अशोक कलिंग के युद्ध से वापस लौटा, जीतकर लौटा था, निश्चित ही, यह कवि सौंदर्य का पारखी रहा हो या न रहा हो, लेकिन उदास लौटा। अल्पबुद्धि नहीं था। अल्पबुद्धि होता, तो सोचता कि एक पत्नी, जीतकर दुनिया में बहुत कम लोग हैं, जो उदास लौटते हैं। सुंदर दिखाई पड़ी, फिर सुंदर नहीं सिद्ध हुई, तो जरूरी तो नहीं है जीतकर तो आदमी प्रसन्न होकर लौटता है, अल्पबुद्धि का लक्षण 1434 Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निराकार का बोध - है वह। जब कोई जीतकर प्रसन्न होकर लौटे, तो समझना कि वह युद्ध के एक अनुभव ने उसे मन का पूरा रहस्य समझा दिया। अल्पबुद्धि है। और जब कोई हारकर प्रसन्न लौट आए, तो समझना | ___ आपने कितनी बार क्रोध किया है, लेकिन क्रोध का रहस्य आप कि वह अल्पबुद्धि नहीं है। जीतकर कोई उदास लौटे, तो समझना | समझ पाए? कितनी बार कामवासना में उतरे हैं, कामवासना का कि वह अल्पबुद्धि नहीं है। और जीतकर कोई हंसता हुआ लौटे, रहस्य समझ पाए? कितनी बार प्रेम किया है, प्रेम का रहस्य समझ तो समझना कि वह अल्पबुद्धि है। पाए? कितनी बार घृणा की है, घृणा का रहस्य समझ पाए? अशोक उदास लौट आया। उसे नाम ही उसके माता-पिता ने | नहीं, रोज वही करते रहे हैं, लेकिन हाथ में कोई भी निष्पत्ति. अशोक इसलिए दिया था कि वह कभी उदास नहीं होता था; सदा | | कोई भी कनक्लूजन नहीं है। हाथ खाली का खाली है, और कल प्रफुल्लित था, चियरफुल था। उसे नाम ही इसलिए दिया था कि आप फिर बच्चे जैसा ही व्यवहार करेंगे। अल्पबुद्धि है चित्त। वह सदा आनंदित और प्रफुल्लित रहता था। लेकिन इतने बड़े राज्य __कृष्ण कहते हैं, अल्पबुद्धि लोग सुख की मांग करते हैं देवताओं को जीतकर लौटा है, कलिंग की विजय करके लौटा है, और उदास | से। देवताओं से ही की जा सकती है मांग सुख की। सुख भी उन्हें लौटा आया है। चिंता फैल गई है। उसके मित्रों ने पूछा, इतने उदास | मिल जाते हैं, लेकिन क्षणभंगुर सिद्ध होते हैं। हां, जो मेरे पास हो जीतकर! हार जाते तो क्या होता? स्वभावतः, अल्पबुद्धि के | आता है, परम ऊर्जा के द्वार पर जो आता है, वह अनंत आनंद का लिए यह सवाल उठा होगा। जीतकर इतने उदास हो, हार जाते तो मालिक हो जाता है। क्या होता! अगर प्रभु के द्वार पर ही जाना हो, तो क्षुद्र वासना लेकर मत अशोक ने कहा, युद्ध अब असंभव है, एक अनुभव काफी | जाना। वासना पूरी भी हो जाए, तो भी कुछ हाथ नहीं लगने वाला सिद्ध हुआ। अब नहीं युद्ध कर सकूँगा, अब नहीं जीतने जा है। प्रभु के द्वार पर तो खाली होकर जाना, बिना कोई वासना लिए। 'सकूँगा। क्योंकि कितनी कामना की थी कि कलिंग को जीत लूंगा, । प्रभु से तो यही कहते जाना कि जो तूने दिया है, वह जरूरत से तो इतना आनंद मिलेगा। लेकिन कलिंग हाथ में आ गया, आनंद ज्यादा है। तो हाथ में नहीं आया। हालांकि मेरा मन फिर धोखा दे रहा है कि सुना है मैंने कि एक भिखारी एक वृद्ध महिला के सामने हाथ अभी और भी जीतने को जगह पड़ी है, उनको भी जीत लो। लेकिन फैलाकर भीख मांग रहा है। लंगड़ा है, घसिट रहा है। उस वृद्ध इस मन की अब दुबारा नहीं मानूंगा। मानकर देख लिया एक बार; | महिला को बहुत दया आ गई है और उसने कहा कि दुख होता है एक लाख आदमियों की लाशें बिछा दीं। सिर्फ खून बहा; हाथ में | तुम्हें देखकर; पीड़ा होती है तुम्हें देखकर। परमात्मा न करे, कोई खून के दाग लगे। करुण चीत्कारें सुनाई पड़ीं; रोना; और न मालूम | लंगड़ा हो। लेकिन फिर भी मैं तुमसे कहती हूं कि लंगड़े ही हो न, कितने घरों के दीए बुझ गए। और इस मन ने मुझे कहा था, आनंद | | परमात्मा को धन्यवाद दो, क्योंकि अंधे होते तो और मुसीबत होती। मिलेगा; वह मैं भीतर खोज रहा है, वह मझे कहीं मिला नहीं। उस आदमी ने कहा कि आप ठीक कहती हैं। जब मैं अंधा होता लाखों लोग मर गए, लाखों परिवार उजड़ गए, और जिस सुख के हूं, तो लोग नकली सिक्का मेरे हाथ में पकड़ा देते हैं! लिए इस मन ने मुझे कहा था, उसकी रेखा भी मुझे दिखाई नहीं | ___ लंगड़ा होना भी उसके लिए एक काम था, अंधा होना भी एक पड़ती। युद्ध समाप्त हो गया; मेरे लिए अब कोई युद्ध नहीं है। काम था। उसने कहा, आप बिलकुल ठीक कहती हैं। अंधे होने में और उसी दिन से अशोक ने भिक्षु की तरह रहना शुरू कर दिया। बड़ी मुसीबत होती है, लोग नकली सिक्के पकड़ा देते हैं। इसीलिए उसने कहा कि जब युद्ध मेरे लिए नहीं है, तो अब सम्राट होने का तो मैंने अंधा होना बिलकुल बंद कर दिया। अब मैं लंगड़े होने से कोई अर्थ नहीं रहा। वह तो युद्ध के साथ जुड़ा हुआ भाव ही काम चलाता हूं। था-सम्राट होने का। उस वृद्ध स्त्री को खयाल भी न रहा होगा, कल्पना भी न रही एच.जी.वेल्स ने विश्व इतिहास में लिखा है कि दुनिया में बहुत होगी। उसने तो कहा था इस खयाल से कि वह आदमी शायद अपने सम्राट हुए, लेकिन अशोक जैसा चमकता हुआ तारा विश्व के लंगड़ेपन में भी प्रभु को धन्यवाद दे पाए। लंगड़ा भी प्रभु को इतिहास में दूसरा नहीं है। कारण है उसका। महाबुद्धि है। और धन्यवाद दे सकता है। काश, जो उसे मिला है, वह दिखाई पड़ जाए। उसके महाबुद्धि होने की बात क्या है ? राज क्या है ? राज यह है कि लेकिन हम सब उस भिखारी जैसे ही हैं। जो हमें मिला है, उसके 435 Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-3 लिए हम धन्यवाद नहीं दे पाते। जो नहीं मिला है, उसकी शिकायत | | आदमी, क्योंकि थोड़ी ही देर में वह फिर पाएगा कि वे सब सुख कर पाते हैं। उस आदमी ने कहा कि ठीक कहती है तू; क्योंकि जब जो पाए थे, खो गए। मैं अंधा होता हूं, तो लोग नकली सिक्के हाथ में रख देते हैं! | प्रार्थना तो वही सार्थक है, जो वहां पहुंचा दे, जिसे मिलने पर नकली भी कोई हाथ में रखता है, इसका भी धन्यवाद हो सकता फिर खोना नहीं है; जिसके मिलन में फिर विछोह नहीं है। पर वह है। पर उसके लिए बड़ी दूर-दृष्टि, उसके लिए बड़ी महाबुद्धि देवताओं की पूजा से नहीं, वह तो परम सत्ता की तरफ समर्पण से चाहिए। इतना भी क्या कम है कि किसी ने नकली सिक्का भी | | संभव है। आपके हाथ में रखा! यह भी कहां जरूरी था? इसकी भी शिकायत करने कहां जा सकते हैं? उसने हाथ पर खाली हाथ भी रखा, तो भी क्या कम है! क्योंकि वह न रखता तो कोई सवाल तो न था। अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः । लेकिन जिंदगी हमारी ऐसी ही है। जो हमें मिला है, उसका हमें परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ।। २४ ।। कोई भी स्मरण नहीं है। जो हमें नहीं मिला है, उसका हमें बहुत तीव्र नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः। बोध है। वह कांटे की तरह छाती में चभता रहता है। धार्मिक आदमी मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् । । २५ ।। ऐसी प्रार्थना करने नहीं जाता मंदिर में, जिसमें कुछ मांगता हो। इस बुद्धिहीन पुरुष मेरे अनुत्तम अर्थात जिससे उत्तम और कुछ बात का धन्यवाद देने जाता है कि जो तूने दिया है, वह मेरी सामर्थ्य भी नहीं है, ऐसे अविनाशी परम भाव को अर्थात अजन्मा से भी ज्यादा है। अविनाशी हुआ भी अपनी माया से प्रकट होता हूं, ऐसे और जो उसने दिया है, उसका हमने उपयोग क्या किया है? प्रभाव को तत्व से न जानते हुए मन-इंद्रियों से परे मुझ कभी आपने सोचा? आपको आंखें दी हैं, आंखों से आपने ऐसा सच्चिदानंदघन परमात्मा को मनुष्य की भांति जन्म कर क्या देखा है, जो आप न देखते तो कुछ हर्जा हो जाता? कभी इस व्यक्तिभाव को प्राप्त हुआ मानते हैं। पर सोचा है! परमात्मा ने आपको आंखें दी हैं। आपने इन आंखों | तथा अपनी योगमाया से छिपा हुआ मैं सबके प्रत्यक्ष नहीं से ऐसा क्या देखा है, जो न देखते तो कुछ हर्जा हो जाता? शायद होता हूं। इसलिए ये अज्ञानी मनुष्य मुझ जन्मरहित ही आपको याद आए। उसने आपको कान दिए हैं। ऐसा क्या सुना अविनाशी परमात्मा को तत्व से नहीं जानते हैं। है, जो न सुनते तो कोई हर्जा हो जाता? उसने आपको हाथ दिए हैं। ऐसा आपने क्या स्पर्श किया है, जो स्पर्श न किया होता तो कुछ आप खो देते? उसने आपको पैर दिए हैं। आपने ऐसी कौन सी ना बातें इस सूत्र में कृष्ण कह रहे हैं। एक, साकार शरीर तीर्थयात्रा की है, जो कि अगर पैर न होते और आप न कर पाते, तो ५। में मैं खड़ा हूं, आकार लिया है। जो नहीं जानते हैं, वे प्राणों में कसक रह जाती? सोचते हैं, मेरा आकार ही मैं हूं। वे मेरे भीतर छिपे नहीं, पैर किसी तीर्थ तक नहीं पहुंचे, आंखें किसी दृश्य को नहीं निराकार को नहीं देख पाते हैं। रूप लिया है मैंने। जिनके पास देखने देख पाईं, कान ने कोई अमृत नहीं सुना। और ऐसा नहीं है कि अमृत | की आंखें नहीं हैं, सोचने के लिए मेधा नहीं है, वे मेरे रूप को ही चारों तरफ मौजूद नहीं है, और ऐसा भी नहीं है कि तीर्थ बहुत दूर देख पाते हैं। उस अरूप को, जो भीतर छिपा है, उससे अपरिचित है, और ऐसा भी नहीं है कि वह दृश्य दिखाई न पड़ जाए, जिसे | | रह जाते हैं। मेरा वह सच्चिदानंद रूप है जो, मेरा वह जो देख लेने पर आंखें सार्थक हो जाती हैं; वह भी निकट है। | सच्चिदानंद स्वभाव है, वह उनकी आंखों से ओझल रह जाता है। पर जो हमें मिला है, हम उसकी तरफ ध्यान ही नहीं देते, उपयोग ___ इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी है। की तो बात दूर है। उपयोग का तो कोई सवाल नहीं है। हम उस पर | ___ पहली बात, परमात्मा जब भी प्रकट होगा, तब रूप में प्रकट ध्यान ही नहीं देते। हम उसे मांगते चले जाते हैं, जो नहीं मिला है। होगा, आकार में प्रकट होगा। प्रकट होने का अर्थ है, रूपायित हमारी सारी प्रार्थनाएं, जो नहीं मिला है, उसकी मांग है। पूरी हो । होना, टु बी इन दि फार्म। प्रकट होने का अर्थ ही होता है, रूप जाएंगी वे मांग, कृष्ण कहते हैं, लेकिन फिर भी वह अल्पबुद्धि है | लेना। प्रकट होने का अर्थ ही होता है, आकार लेना। प्रकट होने 436 Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < निराकार का बोध - का अर्थ होता है, सीमा में खड़े होना। प्रकट होने का अर्थ है, पृथ्वी लगे, और अमूर्त को भूल जाए, वह नासमझ है। पर, शरीर में, देह में अभिव्यक्त होना। लेकिन हमें बडी कठिनाई | | एक तो नासमझी यह है, जो प्रेमी कर लेता है। दूसरी नासमझी होती है। यह है कि लोग पूछेगे कि भगवान कैसे हैं! धूप पड़ती है, तो पसीना यह बल्ब है बिजली का, जलता है। बिजली प्रकट नहीं हो आता है; दौड़ें, तो सांस चढ़ जाती है; थक जाते हैं, तो इन्हें भी नींद सकती है बिना इस बल्ब के। बल्ब का तो रूप होगा, आकार आती है। हम आदमियों जैसे ही हैं। इसलिए हम कैसे स्वीकार करें होगा; बिजली का कोई रूप और आकार नहीं है। वह आदमी | कि ये भगवान हैं ? वह एक दूसरा वर्ग है जो कहेगा, हम स्वीकार नासमझ है, जो बल्ब को बिजली समझ ले। लेकिन वह नासमझ नहीं कर सकते। उसकी भी नासमझी वही है, जो उस भक्त की है, भी तर्क दे सकता है। वह डंडा उठाकर ट्यब के ऊपर पटक दे. तो जो आकार में देख रहा है। वह भी आकार में देख रहा है। टयूब फूट जाए और बिजली बंद हो जाए। तो वह कहे कि देखो, । कृष्ण कहते हैं, निराकार को जो देख पाए. वही बद्धिमान है। मैंने कहा था न कि यह बल्ब ही बिजली है। मारा डंडा, टूट गया असल में बुद्धि की परीक्षा ही यही है कि वह निराकार को देख पाए। बल्ब; नहीं बची बिजली। आकार को तो निर्बुद्धि भी देख पाता है। आकार को देखने में कोई फिर भी हम जानते हैं कि बल्ब बिजली नहीं है। बल्ब पूरी तरह | बुद्धिमत्ता नहीं है। आकार तो सभी को दिखाई पड़ता है। वह जो बना रहे और बिजली जा सकती है; और बल्ब पूरी तरह मिट जाए, | नहीं दिखाई पड़ता है, वह जो पीछे छिपा खड़ा है, उसे जो देख पाए, तो भी बिजली रहती है। बल्ब केवल अभिव्यक्त होने की व्यवस्था उसे जो पहचान पाए वही बद्धिमान है। लेकिन ष्ण में ही कोई है, मैनिफेस्टेशन है। जब भी किसी शक्ति को प्रकट होना हो, तो निराकार को देख लेगा, यह संभव नहीं है, जब तक वह सब जगह रूप और आकार के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं है। निराकार को देखना शुरू न कर दे। __कृष्ण कहते हैं, जो नासमझ हैं, वे मेरी देह को ही समझ लेते हैं। जब आप एक वृक्ष को देखते हैं, तो आपको आकार ही दिखाई कि यह मैं हूं। | पड़ता है। आपको वह जीवन ऊर्जा, जो वृक्ष के भीतर बहती है और इन नासमझों में दो तरह के लोग हैं। एक तो वे नासमझ, जो | | आकार लेती है, वह आपको दिखाई नहीं पड़ती। जब एक फूल कृष्ण को प्रेम करने लगेंगे, लेकिन वे कृष्ण की देह को ही प्रेम करते | खिलता है, तो आकार ही दिखाई पड़ता है। उस फूल के भीतर जो चले जाएंगे। वे कष्ण को. वह जो अरूपी भीतर छिपा है. उसको ऊर्जा खिलती है और पंखडियों में फैलती है. और जिस शक्ति के नहीं देख पाएंगे। और एक वे नासमझ, जो दुश्मन हो जाएंगे। वे कारण पंखुड़ियां बंद थीं और खुल जाती हैं, उस शक्ति को आप कहते रहेंगे कि यह आदमी तो शरीरधारी है, यह भगवान कैसे हो नहीं देख पाते। जब एक बीज टूटता है, तो आप बीज को देखते हैं; सकता है ? यह आदमी उठता है, बैठता है, सोता है, भूख लगती लेकिन जो उसके भीतर भरा था और टूटना चाहता था, और तोड़ है, खाना खाता है। यह भगवान कैसे हो सकता है? | दिया बीज को और बाहर आया, वह आपको नहीं दिखाई पड़ता। ___ उन दोनों की बुद्धि में बहुत भेद नहीं है। जो कृष्ण को प्रेम | हम देखते ही आकार को हैं सब तरफ। जब हम सब तरफ करेंगे, वे इस शरीर को ही भगवान मान लेंगे। फिर वे कृष्ण की | | आकार को देखते हैं, तो यह संभव नहीं है कि विशेष रूप से कृष्ण मूर्ति बना लेंगे, फिर वे उस कृष्ण की मूर्ति को सुबह दातुन | | या क्राइस्ट या मोहम्मद के संबंध में हम आकार को न देखें और कराएंगे, पानी पिलाएंगे, स्नान करवाएंगे, फिर वे उस कृष्ण की निराकार को देख लें। आकार को देखने की हमारी जड़बद्ध आदत मूर्ति को शयन करवाएंगे; दोपहर को द्वार बंद करके बिस्तर पर है। हम जो चौबीस घंटे देखते हैं, वही हम कृष्ण में भी देख पाएंगे। लिटाएंगे; फिर उस मूर्ति को कपड़े पहनाएंगे। हम दूसरी बात न देख पाएंगे। फिर यह सब चलेगा। इस बात को भूल जाएंगे कि जिस कृष्ण | | सुना है मैंने, एक जहाज पर, पानी के जहाज पर बहुत-से यात्री का हमने आविर्भाव देखा था, वह यह मूर्ति नहीं है। वह आविर्भाव हैं और एक जादूगर भी है। और एक तोता भी है एक आदमी के तो अमूर्त का था; इस मूर्ति से हुआ था, इस रूप में हुआ था। इस | | पास। वह जादूगर समय काटने के लिए जहाज के यात्रियों को मर्ति का उपयोग किया जा सकता है। इस मर्ति के प्रति श्रद्धा भी बिठाकर कछ ट्रिक्स, कुछ अपना काम दिखाता है, कुछ हाथ की प्रकट की जा सकती है। लेकिन इसी मूर्ति के आस-पास जो घूमने सफाइयां दिखाता है। लेकिन वह तोता भी उसी जादूगर के गांव का 4371 Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ + गीता दर्शन भाग-3 - है और जादूगर के घर के सामने का ही है। जब भी वह जादूगर कुछ दिखता है, मेरी पत्नी में मुझे शरीर दिखता है, मेरे पिता में मुझे शरीर दिखाता है, तो वह तोता जोर से चिल्लाता है, फोनी फोनी; सब दिखता है और राम में मुझे भगवान दिखते हैं, तो गलत कहता है। झूठ है, सब झूठ है; सब तरकीब है, सब हाथ की सफाई है। जब | यह नहीं हो सकता। यह संभव नहीं है। क्योंकि एक बार राम के भी जादूगर कभी कुछ दिखाता है, वह तोता जरूर चिल्लाता है कि शरीर में अगर निराकार दिखाई पड़ जाए, तो सभी शरीरों में दिखाई सब हाथ की सफाई है, सब धोखा है। सावधान! पड़ना शुरू हो जाएगा। फिर जहाज डूब जाता है। एक बड़ा तूफान आया और जहाज दिखाई पड़ जाए, तो बात खुल गई। वह हमारा पुराना तर्क टूट डूब गया। संयोग की बात, एक लकड़ी के पटिए को जादूगर गया। वह हमारे पुराने देखने का ढांचा, व्यवस्था मिट गई। अब पकड़कर अपने को बचाने की कोशिश करता है। वह तोता भी उसी हमने नए ढंग से चीजों को देखा। अब हमें आकार दिखाई पड़ेगा, लकड़ी के पटिए पर आकर बैठ गया है। अब वे दोनों ही समुद्र में लेकिन आकार के पीछे निराकार सदा ही छिपा हुआ मालूम चलते हैं। दो दिन तक जादूगर भी गुस्से में उससे नहीं बोला, पड़ेगा। उसका एहसास होगा, उसकी एक छाया हर आकार का क्योंकि वह उससे दुश्मनी कर रहा था रोज। और तोता भी दो दिन | पीछा करेगी। तक नहीं बोला। क्योंकि उसकी भी हिम्मत न पड़ी कहने की। किसी व्यक्ति को हम गले मिलाएं, हड्डियां ही गले मिलेंगी, लेकिन दो दिन बाद उसने कहा जादूगर से, अच्छी बात है। माना | | लेकिन फिर हम भीतर से जानेंगे कि कुछ और निराकार भी मिल कि तुम बड़े बुद्धिमान हो। लेकिन जरा यह तो बताओ कि उस | रहा है। तब वह आत्मा का मिलन बन जाएगा। जहाज का तुमने क्या किया? कृष्ण कहते हैं, बुद्धिहीन जो हैं, वे मेरे शरीर को ही देख पाते, ___ वह समझा कि कोई ट्रिक की है; इसी की शरारत है। उस तोते रूप को ही देख पाते, आकार को ही देख पाते। वे मेरी निराकार ने समझा कि इसी की कोई शरारत है, हरकत है। लेकिन दो दिन विभूति का अनुभव नहीं कर पाते। और उस निराकार में ही मैं छिपा तक उसने देखा कि ऐसी कैसी ट्रिक कि दो दिन हो गए, अभी तक हूं; वही मैं हूं। वह जहाज नहीं लौटा। उसने कहा कि माना कि तुम बड़े बुद्धिमान ___ अब यह कठिनाई है। अभिव्यक्त होने की कठिनाइयां हैं। सबसे हो, लेकिन कृपा करके अब इतना तो बता दो कि उस जहाज का बड़ी कठिनाई यह है कि अभिव्यक्त होते ही आकार लेना पड़ेगा। क्या किया? आकार के बिना कोई अभिव्यक्ति संभव नहीं है। चौबीस घंटे, वर्षों से वह तोता जादूगर के घर के सामने उसके अगर मुझे बोलना है, तो शब्द का उपयोग करना पड़ेगा। लेकिन हाथ की सफाइयां देख रहा था। उसके सोचने का एक ढंग बना। शब्द का उपयोग करते ही डर यह है कि अर्थ आपके पास पहुंचे ही फिर जहाज पर भी वह हाथ की सफाइयां देख रहा था। उसके नहीं, सिर्फ शब्द पहुंच जाए। जैसा कि रोज होता है; शब्द ही पहुंच सोचने का एक ढंग निश्चित हो गया था। वह यह सोच ही नहीं | जाते हैं, अर्थ नहीं पहुंचता। अर्थ तो पीछे पड़ा रह जाता है। अर्थ पाया तोता कि जहाज डूब गया। उसने समझा कि इसी की शरारत निराकार है; शब्द साकार है। है। इसी ने कोई ट्रिक, कोई हाथ की सफाई दिखलाई है। इसलिए । जब मैं एक शब्द बोलता हूं, आपके पास शब्द जाकर आपकी दो दिन तक वह चुप रहा कि कब तक यह हाथ की सफाई दिखलाता मेमोरी में, आपकी स्मृति के बैंक में जमा हो जाता है। आप समझे रहेगा। आखिर थोड़ी-बहुत देर में जहाज प्रकट होगा, तब मैं | कि समझ गए; शब्द पास आ गया; अब आप उसका उपयोग कर चिल्लाऊंगा, फोनी! फोनी! सब झूठा है। लेकिन वह मौका आया | सकते हैं। कोई चाहे तो आप बता सकते हैं कि मैं क्या-क्या बोला। नहीं दो दिन में। आप बता भी दें कि मैं क्या-क्या बोला, तब भी जरूरी नहीं है हम सब के भी मन की आदतें हैं, सोचने के ढंग हैं। बंध जाते | कि आप वह समझ गए हों, जो मैंने बोला है। क्योंकि वह अर्थ है, हैं। जब पत्थर में नहीं दिखता कुछ, तो मूर्ति में नहीं दिखेगा। पत्थर | | वह पीछे छिपा पड़ा है। उस अर्थ को जानने के लिए निराकार की में दिखे, तो मूर्ति में भी दिख जाएगा। कोई कहता हो कि पत्थर में पकड़ चाहिए। तो मुझे पत्थर ही दिखता है और मूर्ति में भगवान दिखते हैं, तो झूठ । अब बोलना है, तो शब्द का उपयोग करना पड़ेगा; और जो कहता है। कोई अगर कहता हो कि मेरे बेटे में तो मुझे शरीर ही | | | बोलना है, वह निःशब्द है। कठिनाई है, अड़चन है, मुसीबत है। 438 Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < निराकार का बोध लेकिन ऐसा तथ्य है; जीवन का ऐसा तथ्य है। यहां सभी चीजें जब कि यह बुद्ध नाम का आदमी कभी हुआ ही नहीं। चौंके वे। समझे भी प्रकट होंगी, रूप लेंगी। रूप लेते ही रूप दिखाई पड़ेगा, अरूप | कि कुछ मस्तिष्क में खराबी तो नहीं आ गई! तीस साल से देखते छिप जाएगा। वह अरूप नहीं दिखाई पड़े, तो हमारे जीवन में हैं इस आदमी को बुद्ध के चरणों में सिर रखते; आज अचानक भागवत चैतन्य का कोई संस्पर्श नहीं हो पाता है। इसको क्या हो गया। उन्होंने कहा, क्या कहते हैं आप? कृष्ण कहते हैं, मुझ सच्चिदानंद को जानना हो, तो रूप से आंखें रिझाई ने कहा, बुद्ध नाम का आदमी न कभी हुआ, न इस जमीन उठानी पड़ें, आकार से ऊपर उठना पड़े, शरीर के पार झांकने की पर कभी चला, न कभी बोला। ये सब शास्त्र झूठे हैं। उन्होंने कहा, कोशिश करनी पड़े। यह कहीं से भी शुरू की जा सकती है। जरूरी | हमें थोड़ा समझाएं, अन्यथा हम मुश्किल में पड़ गए हैं। रिझाई ने नहीं है कि कोई कृष्ण के पास ही जाए, क्योंकि अब कैसे जाएंगे| कहा कि मैं तुमसे कहता हूं, मैं भी कभी नहीं हुआ। मैं भी कभी नहीं कृष्ण के पास! कहीं से भी शुरू कर सकते हैं। एक गेस्टाल्ट है बोला। मैं भी कभी नहीं चला। ये सब बातें झूठी हैं। तब उन्हें मस्तिष्क में। हम जिस ढंग की देखने की आदत से बंध गए हैं, उसी | | थोड़ा-सा भरोसा आया कि वह आदमी क्या कह रहा है। तो उन्होंने तरह देखे चले जाते हैं। हमें दूसरी चीज दिखाई नहीं पड़ती। पूछा कि आप कहना क्या चाहते हैं? __ हम सब कंडीशंड हैं। एक मजबूत यंत्र की तरह हमारा मन काम _ रिझाई ने कहा कि आज मुझे पता चला कि चलना केवल शरीर करता है। कृष्ण इस यंत्र को तोड़ने के लिए कह रहे हैं। वे कह रहे | का है, बोलना केवल शरीर का है। भूख, प्यास, नींद शरीर की है। हैं कि कोई भी प्रेमी, कोई भी भक्त, जो मुझे जानना चाहता हो, उसे | वह जो भीतर है, उसे कभी भूख नहीं लगती, नींद नहीं आती। वह मेरे सच्चिदानंद रूप की, अरूप की, निराकार की दिशा में खोज कभी चलता नहीं, बैठता नहीं, उठता नहीं। वह कभी जन्म नहीं करनी चाहिए। मेरे रूप पर मत रुक जाना। मेरे शब्द पर मत रुक लेता, वह कभी मरता नहीं। वह इन सारी घटनाओं के पार है। ये जाना। मेरे शरीर पर मत ठहर जाना। थोड़ा हटना, ट्रांसेंड करना, | सारी घटनाएं आकार के भीतर हैं और वह निराकार है। पार, थोड़े ऊपर उठकर जाने की कोशिश करना। दूसरे दिन सुबह वह फिर बुद्ध के चरणों में सिर रखे पड़ा था। तो बुद्ध मर रहे हैं; आखिरी क्षण है। कोई उनसे पूछता है कि आप उन भिक्षुओं ने पूछा कि अब आप यह क्या कर रहे हैं? जो कभी मरने के बाद कहां जाएंगे? तो बुद्ध कहते हैं, तो फिर तुम मुझे समझ हुआ ही नहीं, उसके चरणों में सिर क्यों रखे हुए हैं? रिझाई ने कहा नहीं पाए। क्योंकि में जीते जी ही कहीं नहीं गया। निश्चित ही, कि कहां का सिर? कोन रखे हुए है? वह भी नहीं हुआ कभी, जो कठिनाई हो गई होगी पूछने वाले को। उसने कहा, कैसी आप बात सामने है; और यह जो सामने पड़ा हुआ है, यह भी कभी नहीं हुआ। करते हैं। कई गांव तो मैं आपके पीछे गया हूं! कई यात्राओं पर तो अरूप की खोज करनी पड़ेगी। और सबसे सरल है कि अपने मैं सम्मिलित रहा हूं। बुद्ध ने कहा, तू भला गया हो, लेकिन मैं भीतर शुरू करें। दूसरे के पास जाकर अरूप को खोजना बहुत तुझसे कहता हूं कि मैं अपने जीवन में कहीं नहीं गया। यात्रा मैंने कठिन होगा। अपने भीतर आसानी से खोज हो सकती है। कभी कभी की ही नहीं। आंख बंद करके भीतर देखने की कोशिश किया करें कि क्या मैं मजाक समझी होगी, कि बुद्ध मजाक कर रहे हैं। उनके चेहरे की शरीर के रूप में बंधा हूं? कभी आंख बंद करके कोशिश करें कि तरफ देखा होगा। लेकिन वे मजाक नहीं कर रहे हैं। बुद्ध ने कहा, | मेरी सीमा क्या है? और आप बहुत हैरान हो जाएंगे। अगर आप मैं हंसता नहीं। मजाक नहीं करता। मैं अपने जीवन में कहीं गया तीन महीने एक छोटा-सा प्रयोग करें, तो यह सूत्र आपको खुल नहीं। और जो गया, वह मैं नहीं हूं। यह शरीर चलता था; तूने इसी जाएगा। तीन महीने आधा घंटा रोज आंख बंद करके यही केवल को देखा है। इसके भीतर एक अचल भी बैठा हुआ है; जो सोचें कि मेरी सीमा कहां है? बिलकुल नहीं चलता, वह तूने नहीं देखा है। आज सोचेंगे तो आपको शरीर ही अपनी सीमा मालूम पड़ेगी। जापान में एक फकीर हुआ, रिझाई। उसने एक दिन | | लेकिन पंद्रह दिन से ज्यादा नहीं लगेगा कि आपको एक अदभुत सुबह-बुद्ध का भक्त है, रोज बुद्ध की प्रार्थना करता है, पूजा | | अनुभव होना शुरू हो जाएगा। कभी शरीर बहुत बड़ा होता हुआ करता है, फूल चढ़ाता है, मूर्ति के सामने सिर टेकता है-एक दिन मालूम पड़ेगा, कभी बहुत छोटा होता हुआ मालूम पड़ेगा, सिर्फ सुबह अपने भिक्षुओं को इकट्ठा करके कहा कि मैं तुमसे कहता हूं पंद्रह दिन के भीतर। कभी लगेगा, शरीर पहाड़ जैसा हो गया और 439 Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 > सीमा बड़ी हो गई। और कभी लगेगा, शरीर चींटी जैसा हो गया, सीमा बड़ी छोटी हो गई । घबड़ा मत जाना, क्योंकि बहुत घबड़ाहट का अनुभव होता है। जब पहलीं दफा सीमा का भाव टूटता है, तो फ्लक्चुएशन होता है। कभी लगता है, बहुत बड़ा हो गया; कभी लगता है, बिलकुल छोटा हो गया। अगर आप पीछे पड़े ही रहे, तो एक महीना पूरा होते-होते अचानक कभी-कभी ऐसे क्षण आ जाएंगे, जब लगेगा कि शरीर है ही नहीं—न छोटा, न बड़ा। और तब आपको पहली दफा पता चलेगा कि मेरी कोई सीमा नहीं। मैं हूं, और सीमा कोई भी नहीं है। अपने ही भीतर अगर तीन महीने इस प्रयोग को करें, तो आप असीम की और निराकार की छोटी-सी झलक को पा लेंगे। और जिस दिन आप अपने भीतर जान लेंगे, उस दिन आप दूसरे के भीतर भी जान लेंगे। क्योंकि हम दूसरे के भीतर जो भी जानते हैं, वह अनुमान है, इनफरेंस है। ज्ञान तो अपने भीतर होता है, दूसरे की तरफ तो अनुमान होता है। आपको पता है कि जब आप क्रोध में होते हैं, तो आंखें लाल हो जाती हैं, मुट्ठी भिंच जाती है। तो दूसरा आदमी अगर क्रोध में न भी हो — जैसा कि फिल्म का एक्टर या नाटक का पात्र क्रोध में नहीं होता — आंखें लाल कर लेता है, मुट्ठी भींच लेता है; आप समझ जाते हैं कि यह क्रोध में है। भीतर क्रोध बिलकुल नहीं होता। क्योंकि आपको पता है कि जब आप मुट्ठी बांधते हैं और आंखें मींचते हैं, और दांत दबाते हैं, और लहू उतर आता है, चेहरा लाल हो जाता है, तब आप जानते हैं कि आप क्रोध में हैं। फिल्म का अभिनेता या नाटक का पात्र वही करके दिखला रहा है; आप समझ जाते हैं कि वह क्रोध में है। क्रोध आपका अनुमान है। वह है नहीं क्रोध में। लेकिन जो-जो घटना क्रोध में घटती है, वह घट रही है; आप अनुमान कर लेते हैं। दूसरे के बाबत हम अनुमान करते हैं। ज्ञान तो अपने ही बाबत होता है। अपने भीतर निराकार की थोड़ी-सी खोज हो...। कई तरह से हो सकती है। जैसे मैंने कहा कि शरीर की सीमा का चिंतन करें, मनन करें, मेडिटेट आन इट; ध्यान करें। तीन महीने में आपकी सीमा खो जाएगी और आपके असीम का अनुभव हो जाएगा। अगर इसमें कठिनाई मालूम पड़े, तो शरीर की उम्र, अपनी उम्र का भीतर अनुभव करें कि मेरी उम्र कितनी है ? तो अभी आज आप बैठेंगे, तो पता लगेगा कि चालीस साल है, तो चालीस साल | है | लेकिन यह असली पता नहीं है। यह तो सिर्फ आदत है रोज की कि आप चालीस साल के हैं। पंद्रह दिन बैठकर देखने पर आप | डांवाडोल होने लगेंगे। कभी लगेगा कि छोटा बच्चा हो गया, और कभी लगेगा कि बिलकुल बूढ़ा हो गया, यह फ्लक्चुएशन शुरू हो जाएगा। एक महीना पूरा होते-होते आपके भीतर यह सफाई हो जाएगी किन मैं बच्चा हूं, न मैं बूढ़ा हूं, न मैं जवान हूं। तीन महीने प्रयोग करने पर आप पाएंगे कि आप अजन्मा हैं; आपका कभी कोई जन्म नहीं हुआ। और आप अमृत हैं; आपकी कोई मृत्यु नहीं हो सकती। कहीं से भी शुरू करें, किसी भी आकार से शुरू करें, और धीरे-धीरे आप निराकार में उतर जाएंगे। ध्यान का अर्थ है, आकार से निराकार की तरफ यात्रा । कृष्ण वही कह रहे हैं। ज्ञान का अर्थ है, आकार से निराकार की तरफ यात्रा । बुद्धिहीन है, वह आकार में अटक जाता है। जो बुद्धिमान है, वह निराकार में डुबकी लगा लेता है। और एक बार निराकार की झलक मिल जाए, तो इस जगत में सब आकार मिट जाते हैं और निराकार ही रह जाता है । और जहां निराकार है, वहां आनंद है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, वह मेरा सच्चिदानंद स्वरूप है, वहां सत, चित, आनंद, तीनों का वास है। लेकिन निराकार में है। आकार में अगर खोजने जाएंगे, तो आकार में सत नहीं मिलेगा, मिलेगा असत। सत का अर्थ होता है, एक्झिस्टेंस, अस्तित्व असत का अर्थ होता है, आभास दिखता है, और नहीं है। अगर आकार में खोजने जाएंगे, तो चित नहीं मिलेगा । चित का अर्थ होता है, कांशसनेस, चैतन्य । आकार में खोजने जाएंगे, तो जड़ मिलेगा, चैतन्य नहीं मिलेगा। और तीसरा तत्व है, आनंद । आकार में खोजने जाएंगे, तो सुख मिलेगा, दुख मिलेगा, आनंद नहीं मिलेगा। आनंद तो निराकार में मिलेगा। इसलिए कृष्ण कहते हैं, मेरे सच्चिदानंद स्वरूप को वे बुद्धिमान जान पाते हैं, जो मेरे आकार और आकृति में नहीं उलझ जाते । जो पेनिट्रेट कर जाते हैं, जो पार चले जाते हैं, गहरे उतर जाते हैं और | निराकार को खोज लेते हैं। यह निराकार हमारे चारों तरफ सब तरह से मौजूद है; यहीं मौजूद है। लेकिन हम सबको आकार दिखाई पड़ते हैं। हमारी सिर्फ आदत | है देखने की। 440 Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निराकार का बोध > इसे ऐसा समझें कि एक आदमी अपने घर के भीतर बैठा है। कभी घर के बाहर नहीं गया। खिड़की से आकाश को देखता है। तो : आकाश निराकार दिखाई पड़ेगा कि साकार ? उसे साकार दिखाई पड़ेगा। क्योंकि खिड़की का ढांचा आकाश पर बैठ जाएगा। वह जो खिड़की का पैटर्न है, वह जो खिड़की का चौखटा है, आकाश उतना ही मालूम पड़ेगा, जितना खिड़की का चौखटा है। और अगर वह आदमी अपने घर के बाहर कभी न गया हो, तो क्या वह सोच सकेगा कि यह जो चौखट दिखाई पड़ रही है, मेरे मकान की है, आकाश की नहीं! कभी नहीं सोच सकेगा। इसके लिए बाहर जाना जरूरी है। हम अपने मकान के बाहर कभी नहीं गए। शरीर के भीतर हैं। और हर चीज पर चौखट है । हमारी आंख की चौखट चीजों को आकार दे देती है। कान की चौखट चीजों को आकार दे देती है। हमारी इंद्रियां आकार का निर्माण करती हैं। और हम अपने शरीर के बाहर कभी नहीं गए। शरीर के भीतर से ही सब चीजें देखते हैं। और इंद्रियां आकार देती हैं हरेक चीज को एक दफा हम शरीर के बाहर जाकर देख लें, तो भी काम हो जाए । तो आपको एक दूसरा प्रयोग भी कहता हूं। वह भी अगर संभव हो सके, तो जैसे मैंने दो प्रयोग आपको कहे, एक प्रयोग और आपको कहता हूं। वह भी एक रास्ता है कि आप घर के बाहर जाकर देख लें। आप पंद्रह दिन तक आधा घंटा रोज, पड़ जाएं जमीन पर मुर्दे की भांति और एक ही बात सोचते रहें कि मैं मर गया । कठिन पड़ेगा। खुद ही को डर लगेगा। बीच में एकाध दफे कह देंगे कि नहीं-नहीं; ऐसा नहीं; मैं जिंदा हूं! नहीं, ऐसा नहीं चलेगा। कहते रहें, मैं मर गया, मैं मर गया । इसको मंत्र की तरह भाव करते रहें। पंद्रह दिन में आप अचानक पाएंगे कि कई बार आपको ऐसा लगेगा कि थोड़ा-सा आप शरीर के बाहर गए । कभी बाहर निकल गए हैं, कभी भीतर आ गए हैं। कभी बाहर गए हैं, कभी भीतर आ गए हैं। एक महीना पूरा होते-होते आप इस स्थिति में आ जाएंगे कि आपको कई बार अपने शरीर को बाहर से देखने का मौका मिल जाएगा। एक क्षण को आप देखेंगे कि शरीर पड़ा है मुर्दे की तरह । आप पड़े हैं। घबड़ाकर आप फिर भीतर चले जाएंगे। तीन महीने आप प्रयोग करते रहें और आप उस स्थिति में आ जाएंगे कि बराबर बाहर खड़े होकर अपने शरीर को देख पाएं कि यह पड़ा है शरीर । और एक दफा आप अगर अपने शरीर के बाहर होकर अपने शरीर को देख पाएं, उस वक्त जरा लौटकर चारों तरफ देखना, सब निराकार दिखाई पड़ेगा, कहीं कोई आकार नहीं है। क्योंकि सब आकार शरीर की इंद्रियों के चौखटों का आकार है। आंख का आकार है, इसलिए आंख निराकार नहीं देख सकती। | कान का आकार है, इसलिए कान निराकार को नहीं सुन सकता। हाथ का आकार है, इसलिए हाथ निराकार को कैसे स्पर्श करे ! शरीर के बाहर, आउट आफ दि बाडी एक्सपीरिएंस, आपको खबर दिलाएगा कि सब निराकार है । उस दिन के बाद आपकी जिंदगी दूसरी हो जाएगी। कृष्ण जो भी ये कह रहे हैं, ये योग के गहरे प्रयोगों की तरफ इशारे हैं। निराकार को जो देख ले, वही बुद्धिमान है। आकार में जो उलझा रह जाए, वह बुद्धिहीन है । वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन । भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ।। २६ ।। और हे अर्जुन, पूर्व में व्यतीत हुए और वर्तमान में स्थित तथा आगे होने वाले सब भूतों को मैं जानता हूं, परंतु मेरे को कोई भी श्रद्धा-भक्तिरहित पुरुष नहीं जानता है। 441 जानता हूं, कृष्ण कहते हैं, वह जो पीछे हुआ वह, अभी हो रहा है वह, जो आगे होगा वह - मैं सब जानता हूं। इस सब जानने का अर्थ यह है - यह थोड़ी-सी कठिन बात है, थोड़ी समझ लेनी चाहिए - इस सब जानने का अर्थ यह है कि. कृष्ण जैसी निराकार चेतना के समक्ष समय जैसी कोई चीज नहीं होती। वर्तमान, अतीत और भविष्य हम लोगों की धारणाएं हैं। जैसे | ही कोई निराकार को जान लेता है, समय की सब सीमाएं गिर जाती हैं। और एक इटरनल नाउ, सब चीजें अभी हो जाती हैं। न कोई अतीत होता है, न कोई भविष्य होता है, न कोई वर्तमान होता है। समय का क्षण ठहर जाता है। अगर ठीक से समझें, तो हम निरंतर कहते हैं कि समय जा रहा है, समय बीत रहा है। स्थिति उलटी है। समय तो अपनी जगह Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < गीता दर्शन भाग-3> खड़ा है, हम जा रहे होते हैं, हम चल रहे होते हैं। हमारी स्थिति | जैसे आदमी को उस परम चेतना की स्थिति में, उस समाधि की दशा करीब-करीब वैसी है, जैसी ट्रेन में कभी छोटा बच्चा पहली दफा में, वर्तमान, अतीत, भविष्य का फासला गिर जाता है। बैठता है, तो उसे लगता है कि पास के वृक्ष पीछे जा रहे हैं। ट्रेन | समझें कि मैं एक बहुत बड़े दरख्त पर ऊपर बैठ गया हूं। आप चलती है आगे की तरफ, बच्चा ही आगे जा रहा है, लेकिन | दरख्त के नीचे बैठे हैं। मैं आपसे चिल्लाकर कहता हूं कि एक खिड़कियों से पीछे की तरफ भागते हुए वृक्ष दिखाई पड़ते हैं। और | बैलगाड़ी रास्ते पर आ रही है। आप कहते हैं, मझे नहीं दिखाई पता लगता है कि वृक्ष पीछे जा रहे हैं। पड़ती; भविष्य में होगी। लेकिन मुझे दिखाई पड़ती है। मैं थोड़ा हम सब कहते हैं कि समय जा रहा है। लेकिन असलियत | आपसे ऊंचाई पर बैठा हआ है। मैं कहता है, भविष्य में नहीं है, बिलकुल उलटी है। हम जा रहे हैं; समय अपनी जगह खड़ा है। वर्तमान में है। बैलगाड़ी आ गई है रास्ते पर। आप कहते हैं, कहीं इसे थोड़ा समझना पड़ेगा। नहीं दिखाई पड़ती। अभी नहीं आई है; भविष्य में है। समय अपनी ही जगह खड़ा है। समय कहीं नहीं जाता। समय फिर थोड़ी देर में बैलगाड़ी आपके सामने आ जाती है। आप जाएगा कैसे? जाएगा कहां? कल निकल गया, अब वह कहां कहते हैं, आ गई। वर्तमान हो गई। फिर थोड़ी देर बाद बैलगाड़ी . जाएगा? कहीं अस्तित्व में कोई जगह होनी चाहिए न! कल जो बीत | | आगे निकल जाती है। आप कहते हैं, अतीत हो गई; अब दिखाई गया, वह कहां इकट्ठा होगा? और कल जो अभी नहीं आया है, नहीं पड़ती। लेकिन मैं आपसे ऊपर के दरख्त से कहता हूं कि अभी वह कहां से आ रहा है? आने के लिए उसे कहीं होना चाहिए; और भी वर्तमान है; दिखाई पड़ती है। जाने के लिए भी कहीं पहुंच जाना चाहिए। इसका तो मतलब यह जितनी चेतना की ऊंचाई होगी, उतना ही वर्तमान, अंतीत और होगा कि पीछे एक अतीत इकट्ठा हो रहा है करोड़ों, अरबों, खरबों | भविष्य का फासला गिरता जाएगा। और जिस दिन कृष्ण जैसी परम वर्षों का। सब इकट्ठा होगा वहां। और आगे, भविष्य आगे है, वह | ऊंचाई होती है चेतना की, उस दिन सब चीजें जो हो गईं, दिखाई चला आ रहा है। पड़ती हैं; सब चीजें जो होने वाली हैं, दिखाई पड़ती हैं; सब चीजें यह नहीं हो सकता। न तो भविष्य आ रहा है, न अतीत चला जो हो रही हैं, दिखाई पड़ती हैं। गया है। सिर्फ हम गुजर रहे हैं। जैसे एक आदमी रास्ते से गुजर रहा इस अनुभव के आधार पर ही समस्त ज्योतिष का विकास हुआ है। लेकिन ट्रैफिक, वन वे ट्रैफिक है। क्योंकि हम समय में पीछे | था। लेकिन अब तो बाजार में कोई चार आने देकर ज्योतिषी को नहीं जा सकते हैं, इसलिए हमें लगता है कि जो चला गया, वह खो | दिखा रहा है। वह बेचारा कुछ बहुत नहीं बता सकता। उसे कुछ गया। चूंकि हम समय में आगे छलांग नहीं लगा सकते हैं, इसलिए पता नहीं है। हमें लगता है कि भविष्य अभी आया नहीं है। भविष्य आ चुका है | ज्योतिष का सारा विकास समाधिस्थ चेतना से हुआ था। उन उतना ही; भविष्य मौजूद है। लोगों को, जिनको समय के सब फासले मिट गए थे, जिन्हें सब मैं निकल रहा हूं एक रास्ते से। आगे का मकान मुझे दिखाई नहीं दिखाई पड़ रहा था। ज्योतिष ज्योतिर्मय चेतना के अनुभव से पड़ रहा है अभी, लेकिन वह अपनी जगह मौजूद है। थोड़ी देर बाद निकला था। मैं उसके सामने पहुंचूंगा। वह मुझे दिखाई पड़ेगा। पीछे का मकान, कृष्ण कहते हैं, मुझे सब दिखाई पड़ता है। लेकिन जो अज्ञानी जो थोड़ी देर पहले मुझे दिखाई पड़ता था, अब दिखाई नहीं पड़ हैं, वे मुझे नहीं देख पा रहे हैं, मैं उन सबको देख रहा हूं। रहा; वह खो गया। लेकिन खो कहीं नहीं गया; वह अपनी जगह । अब कृष्ण को भलीभांति दिखाई पड़ रहा है कि कौरव हार मौजूद है। | जाएंगे। यह बैलगाड़ी कृष्ण के लिए सामने आ गई है। अर्जुन को समय चलता नहीं, समय की चलने की धारणा ट्रेन में गुजरने दिखाई नहीं पड़ रहा है कि कौरव हार जाएंगे कि पांडव जीत जाएंगे। जैसी धारणा है, जैसे वृक्ष चलते हुए मालूम पड़ते हैं। आदमी | यह दुर्योधन को भी नहीं दिखाई पड़ रहा है कि कौरव हार जाएंगे चलता है, समय नहीं चलता है। | और पांडव जीत जाएंगे। अब यह अर्जुन भी डरा है कि पता नहीं इसलिए कृष्ण जब कहते हैं, मैं सब जानता हूं, वह जो पीछे, हम हार न जाएं! अभी कौरव भी इस खयाल में हैं कि हम जीत वह जो आगे, वह जो अभी; उसका कुल मतलब यह है कि कृष्ण लेंगे, क्योंकि शक्ति हमारे पास ज्यादा है। एक आदमी वहां मौजूद 442 Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - निराकार का बोध - था, उस महाभारत के युद्ध में, जिसे पता था कि क्या होने वाला है है, वह हो रहा है। कहना भी तुम्हारा जरूरी था; मेरा सुनना भी और क्या होगा। जरूरी था; और यह पकड़ा जाना भी जरूरी था। कृष्ण का अर्जुन से यह कहना कि तू भाग मत, बहुत दूर की फिर उनमें से एक ने कहा कि चाहे जान रहे, चाहे जाए, मैं तो जानकारियों से जुड़ा हुआ है। कृष्ण का यह कहना कि तू सोच रहा आपके साथ रहूंगा। जीसस ने कहा, तुझे पता नहीं; सुबह सूरज के है, जिन्हें तू मारेगा, मैं तुझसे कहता हूं, समय ने उन्हें पहले ही मार उगने के पहले तक तू तीन दफे मुझे इनकार कर चुका होगा। अभी डाला है। मैं उनकी लाशें देख रहा हूं। तुझे नहीं दिखाई पड़ता, मैं आधी रात है, सूरज के उगने तक तू तीन दफे मुझे इनकार कर चुका देख रहा हूं कि वे युद्ध के मैदान पर लाश होकर पड़े हैं। दो दिन होगा। उसने कहा, आप कैसी बातें करते हैं। मैं अपनी जान लगा बाद तुझे भी दिखाई पड़ेगा; बैलगाड़ी तेरे सामने आ गई होगी। तू दूंगा आपके लिए। मैं इनकार करूंगा? समझता है, तू मारेगा। मैं कहता हूं कि विधि ने उन्हें समाप्त कर जीसस मुस्कुराए। क्योंकि उस बेचारे को पता नहीं उसका भी कि दिया है; तू केवल निमित्त होगा। वह क्या कर सकता है सुबह तक। लेकिन जीसस को दिखाई पड़ कृष्ण कहते हैं, मैं देख रहा हूं दूर तक, चारों तरफ, आगे और रहा है कि वह क्या करेगा। पीछे, लेकिन फिर भी मेरे आस-पास सैकड़ों लोग हैं, जो मुझे नहीं | ___ फिर जीसस को पकड़कर दुश्मन ले चले। बाकी शिष्य तो भाग देख रहे हैं। गए; वह एक शिष्य पीछे हो लिया, जिसने कहा था, मैं आखिरी पहाड़ की ऊंचाई से नीचाइयों की तरफ देखना आसान है, | दम तक साथ रहूंगा। दुश्मनों ने देखा कि कोई एक अजनबी आदमी नीचाइयों से ऊंचाइयों की तरफ देखना कठिन है। जितने हम नीचे साथ में है। कौन है यह? उन्होंने अपनी मशालें उसके चेहरे की होते हैं, उतनी हमारी चेतना नैरोड, संकीर्ण हो जाती है; जितने हम तरफ कर दीं। उसको पकड़ लिया और कहा कि तू कौन है? तू 'ऊंचे होते हैं, उतनी विस्तीर्ण हो जाती है। जीसस का साथी तो नहीं है? उसने कहा, कौन जीसस! मैं तो तो कष्ण को तो देखना आसान है कि वे देख लें सबको। लेकिन पहचानता ही नहीं। सब को देखना कठिन है कि वे कृष्ण को देख लें। हां, जो कृष्ण की जीसस ने पीछे की तरफ देखा, मुस्कुराए और कहा, अभी सूरज थोड़ी-सी भी झलक देख ले, वह समर्पण के लिए राजी हो जाएगा। | नहीं उगा। और ऐसा तीन बार हुआ। फिर थोड़ी देर बाद रास्ते पर क्योंकि वह देखेगा कि पास में एक विराट खड़ा है। और तब वह | वे आए। और सैनिक आए और उन्होंने कहा, यह आदमी कौन है, अपने छोटे-से अहंकार और अपनी छोटी-सी बुद्धि से नहीं जो बीच में चल रहा है? अजनबी मालूम पड़ता है। फिर उन्होंने उसे जीएगा; तब वह समर्पण करके जीना शुरू कर देगा। और जब वह पकड़ा। उसने कहा, मुझे क्यों पकड़ते हो? मैं परदेसी हूं। तुम समर्पण करके जीएगा, तब वह जानेगा; तब वह जानेगा कि जो | जीसस के साथी हो? उसने कहा, कौन जीसस! मैं पहचानता भी कहा गया था, वही हुआ है। जो कहा गया था, वही हो रहा है। नहीं। जीसस फिर मुस्कुराए और उन्होंने जोर से कहा, देख! अभी अन्यथा कुछ होता नहीं है। अन्यथा कुछ भी नहीं होता है। सुबह नहीं हुई। ऐसा तीन बार रात में उसने इनकार किया। जीसस को जिस रात पकड़ा गया, तो जीसस के मित्रों ने कहा, __जीसस को पता है, क्या होने वाला है, क्या होगा। इसलिए जो हमें खबर मिली है कि दुश्मन पकड़ने आ रहे हैं। अच्छा हो कि हम | बहुत गहरे जीसस को पहचानते हैं, वे जीसस की मृत्यु को कहते हैं, यहां से भाग जाएं। तो जीसस मुस्कुराए। वह मुस्कुराहट अब तक क्राइस्ट ड्रामा। वे कहते हैं, उसको कोई ज्यादा गंभीरता से लेने की समझ के बाहर है। क्योंकि जीसस किसलिए मुस्कुराए होंगे? मैं जरूरत नहीं है; जीसस के लिए तो वह नाटक से ज्यादा नहीं था। कहता हूं, इसलिए कि जीसस जानते हैं, पकड़ा जाना जरूरी है; | क्योंकि जब पहले से ही पता हो, तो मामला नाटक हो जाता है। होने ही वाला है; इसलिए भागने का कोई अर्थ नहीं है। मुस्कुराए कृष्ण के लिए भी युद्ध नाटक से ज्यादा नहीं था। इसलिए कई होंगे इसलिए कि ये जो मित्र बेचारे चिंता से कह रहे हैं, इन्हें कुछ लोगों को कठिनाई होती है कि इस यद्ध में वे इतनी प्रेरणा दे रहे हैं। पता नहीं है। जो होने वाला है, होगा। अर्जुन को रोकते नहीं! फिर जीसस पकड़े गए। तो मित्रों ने कहा, हमने कहा था, आपने गांधीजी को बड़ी तकलीफ थी, कि इतना बड़ा युद्ध, इतनी हिंसा न सुना। फिर वे मुस्कुराए। क्योंकि उन्हें पता है कि जो होने वाला करवा देंगे! गांधी को बहुत प्रेम था गीता से, लेकिन फिर भी गीता 443 Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < गीता दर्शन भाग - 3 > पचती नहीं थी उनके मन को कहीं। गहरे में तो चोट लगती थी, क्योंकि है तो युद्ध का मामला । अहिंसा तो नहीं है कहीं भी । और हिंसा की इतनी सहज स्वीकृति किसी दूसरे आदमी ने कभी दी नहीं है। तो फिर गांधी के पास एक ही उपाय था, या तो गीता को छोड़ दें, या गीता की ऐसी व्याख्या कर लें कि मन में जम जाए। तो उन्होंने एक तरकीब निकाल ली। और वह तरकीब उन्होंने यह निकाल ली कि यह युद्ध कभी हुआ नहीं। यह तो प्रतीकात्मक, सिंबालिक युद्ध है; यह कभी हुआ नहीं। यह तो आदमी में बुरी शक्तियों और अच्छी शक्तियों का युद्ध है। कुरुक्षेत्र पर कभी कोई युद्ध हुआ नहीं। तब उनके मन को थोड़ी राहत मिली। यह तो आसुरी और सदवृत्तियों का संघर्ष है। सच में कभी युद्ध हुआ नहीं। जब गांधी को यह व्याख्या पकड़ ली उन्होंने मन में, तब उनको राहत मिली। लेकिन यह बात झूठ है। यह युद्ध हुआ है। इस युद्ध के होने के ऐतिहासिक प्रमाण हैं । और यह युद्ध प्रतीकात्मक नहीं है, यह युद्ध वास्तविक तथ्य है। फिर कृष्ण-कैसे इस वास्तविक युद्ध में अर्जुन को धक्का दे रहे हैं ? असल में अर्जुन को जो नहीं दिखाई पड़ता है, वह कृष्ण को दिखाई पड़ता है। यह युद्ध होकर रहेगा। यह युद्ध नियति है, यह डेस्टिनी है। इस युद्ध से बचा नहीं जा सकता; यह होगा ही । सारी ऐतिहासिक शक्तियां जिस जगह ले आई हैं, वहां यह युद्ध होकर रहेगा। इसलिए अब सवाल यह नहीं है कि युद्ध हो या न हो । सवाल यह है कि युद्ध पर अर्जुन जाए, तो किस भाव को लेकर जाए। वह परमात्मा के प्रति समर्पित होकर युद्ध करे कि अहंकार से भरा होकर युद्ध करे, असली सवाल इतना ही है। कृष्ण कहते हैं, मुझे तो सब दिखाई पड़ता है, लेकिन जो नहीं जानते, उन्हें मैं बिलकुल दिखाई नहीं पड़ता हूं। वहीं लोग खड़े होंगे, जो कृष्ण को सारथी से ज्यादा न समझते रहे होंगे। सारथी थे ही वे, जहां तक आकार का संबंध है। अर्जुन के घोड़ों को सांझ जाकर नदी पर पानी पिलाकर, उनकी सफाई कर लाते थे। घोड़ों को दिनभर हांकते थे, सांझ उनकी सेवा करते थे । सारथी तो वे थे ही। उस युद्ध में बहुत सारथी थे। उनसे कुछ विशेष स्थान उनका न रहा होगा। जो नहीं देख सकते थे, उनको तो सारथी ही दिखाई पड़ा होगा। लेकिन जो देख सकते थे, उनको तो, उनको जो दिखाई पड़ा होगा, वह निराकार है । जो देख सकते थे, उन्हें वे परम परमात्मा दिखाई पड़े। जो नहीं देख सकते थे, अंधे थे, उन्हें तो ठीक है, एक आदमी थे। आदमी थे ही, आकार था । आकार था निश्चित । इसलिए कृष्ण कहते हैं, आंख हो निराकार को खोजने की, | ही मुझे कोई देख पाता है। शेष हम कल बात करेंगे। लेकिन उठेंगे नहीं। कीर्तन हम करें। क्योंकि कीर्तन से संभावना है कि आकार थोड़ा टूटे और निराकार की थोड़ी दृष्टि उपलब्ध हो। कोई उठेगा नहीं। थोड़ा पानी गिरेगा, उसको आनंद से लें । परमात्मा थोड़ा पानी भेजता है, उसको आनंद से लें। 444 Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 7 दसवां प्रवचन धर्म का सार : शरणागति Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-3 - इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत । | में सफल हो जाएंगे। तुम्हारी अकेले की प्रार्थना पर्याप्त होगी, इन सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परंतप ।। २७ ।। सबके जीवन में भी प्रकाश डालने के लिए। मैं तुमसे प्रार्थना येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् । करूंगा, उस फकीर ने कहा कि तुम इन लोगों को भी बताओ कि ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः।। २८ ।। | तुमने अपनी घृणा पर विजय कैसे प्राप्त की? हे भरतवंशी अर्जुन, संसार में इच्छा और द्वेष से उत्पन्न हुए | और उस बूढ़े आदमी ने कहा, बड़ी सरलता से। क्योंकि वे सब सुख-दुख आदि द्वंद्व रूप मोह से संपूर्ण प्राणी अति अज्ञानता दष्ट जिन्होंने मझे सताया था. और वे सब मढ. जिन्होंने मझे को प्राप्त हो रहे हैं। परंतु निष्काम भाव से श्रेष्ठ कर्मों का परेशान किया था और जिनसे मझे घणा थी. वे सब मर चके हैं। आचरण करने वाले जिन पुरुषों का पाप नष्ट हो गया है, वे | अब कोई बचा ही नहीं, जिसे मैं घृणा करूं। आप ही बताइए मैं रागद्वेषादि द्वंद्व रूप मोह से मुक्त हुए और दृढ़ निश्चय वाले किसको घृणा करूं? पुरुष मेरे को सब प्रकार से भजते हैं। एक सौ चार वर्ष उसकी उम्र है; करीब-करीब वे सारे लोग मर चुके हैं, जिनसे जिंदगी में कोई कलह, कोई संघर्ष था। कहने लगा, अब कोई घृणा की जरूरत ही न रही। ऐसे तो सभी के जीवन से 17 भु का स्मरण भी उन्हीं के मन में बीज बनता है, जो राग-द्वेष चला जाता है; सभी के जीवन से। शरीर शिथिल होने प्र इच्छाओं, द्वेषों और रागों के घास-पात से मुक्त हो गए | लगता है, कामवासना शिथिल हो जाती है। जिंदगी की दौड़ हैं। जैसे कोई माली नई जमीन को तैयार करे, तो बीज | उतरकर मौत के करीब पहुंचने लगती है, तो बहुत-से वेग अपने नहीं बो देता है सीधे ही। घास-पात को, व्यर्थ की जड़ों को उखाड़कर | आप शिथिल हो जाते हैं। प्रतिस्पर्धा, जैसे-जैसे आदमी मौत के फेंकता है, भूमि को तैयार करता है, फिर बीज डालता है। | करीब पहुंचता है, कम होने लगती है। लेकिन इस भांति भी अगर इच्छा और द्वेष से भरा हुआ चित्त इतनी घास-पात से भरा होता | कोई सोचता हो कि प्रार्थना में सफल हो जाएगा, तो संभव नहीं है। है, इतनी व्यर्थ की जड़ों से भरा होता है कि उसमें प्रार्थना का बीज ___ऊर्जा हो पूरी, शक्ति हो पूरी, अवसर पूरा का पूरा ऐसा हो, जहां पनप सके, इसकी कोई संभावना नहीं है। कि द्वेष जन्मता हो और द्वेष न जन्मे; जहां घृणा पैदा होती हो और ___ यह मन की, अपने ही हाथ से अपने को विषाक्त करने की जो घृणा पैदा न हो; जहां राग का जन्म होता है और राग न जन्मता हो; दौड़ है, यह जब तक समाप्त न हो जाए, तब तक प्रभु का भजन जहां सारी प्रतिकूल परिस्थिति हो और मन, जीवन की जो सहज असंभव है। | पाशविक वृत्तियां हैं, उनकी तरफ न दौड़ता हो, तो ही जीवन में सुना है मैंने, एक चर्च में एक फकीर बोलने आया था। कोई एक | प्रार्थना का बीज अंकुरित हो पाता है। हजार लोग उसे सुनने को इकट्ठे थे। उसने उन एक हजार लोगों से लेकिन हम सारे ऐसे लोग हैं कि हम चाहते तो हैं कि जीवन में पूछा कि मैं तुमसे पूछना चाहूंगा, तुममें से कोई ऐसा है जिसने घृणा प्रार्थना खिल जाए, और प्रभु का मिलन हो जाए, और आनंद घटित के ऊपर विजय पा ली हो? क्योंकि जिसने अभी घृणा पर विजय | | हो। और हम उन पर्वत शिखरों को देखने में समर्थ हो जाएं, जिन नहीं पाई, वह प्रार्थना करने में समर्थ न हो सकेगा। इसके पहले कि | पर प्रकाश कभी क्षीण नहीं होता; और हम उन गहराइयों को जान मैं तुम्हें प्रार्थना के लिए कहूं, मैं यह जान लूं कि तुममें से कोई ऐसा लें अनुभव की, जहां अमृत निवास करता है; उन मंदिरों में प्रवेश है, जिसने घृणा पर विजय पा ली हो! कर जाएं, जहां परम प्रभु विराजमान है-ऐसी हम आकांक्षा करते ___ हजार लोगों में से कोई उठता हुआ नहीं मालूम पड़ा, लेकिन फिर | हैं। लेकिन चौबीस घंटे घृणा के बीज को पानी देते हैं, द्वेष को एक आदमी उठा। एक सौ चार वर्ष का एक बूढ़ा आदमी खड़ा हुआ। सम्हालते हैं, शत्रुता को पालते हैं। और सब तरह से जमीन जिस उस पादरी ने कहा, खुश हूं, प्रसन्न हूं, आनंदित हूं, क्योंकि हजार तरह खराब की जा सकती है, वह सब करते हैं। और फिर हम में भी एक आदमी ऐसा मिल जाए, जिसने घृणा पर विजय पा ली सोचते हों कि कभी भगवत-भजन का फूल खिल सके, तो वह है, तो थोड़ा नहीं। और अगर एक आदमी भी इस चर्च में ऐसा है, संभव नहीं है। जिसने घृणा पर विजय पा ली है, तो हम प्रभु को इस चर्च में उतारने | - कृष्ण कहते हैं, जो नासमझ हैं, जो अज्ञानीजन हैं, वे इच्छा और 446 Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < धर्म का सार ः शरणागति - द्वेष में ही अपने जीवन को समाप्त कर देते हैं। उनके पास न तो | हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम जीवन को कैसे देखते हैं। वर्षा शक्ति बचती है, न समय बचता है, न चेतना बचती है कि मेरी ओर रुकेगी नहीं आपके देखने से। पानी बंद नहीं होगा, बादल आपकी प्रवाहित हो सके। लेकिन जो ज्ञानीजन हैं...। | फिक्र न करेंगे। लेकिन आपके दृष्टिकोण का अंतर, आपके और ज्ञानी कौन है? ज्ञानी वही है, जो अपने जीवन को निरंतर एटिट्यूड का जरा सा बदल जाना, और सब बदल जाता है। आनंद की दिशा में प्रवाहित करने में समर्थ है। सुना है मैंने कि केलिफोर्निया के एक मोटेल में एक यात्री मेहमान और अज्ञानी वही है, जो अपने ही हाथों नर्क की यात्रा करता है। | है। सुबह सूरज निकल रहा है और पक्षी गीत गा रहे हैं। तो मोटेल जो अपने साथ अपना नर्क लेकर चलता है। कहीं भी पहुंच जाए, के मैनेजर ने उस यात्री को कहा कि आप कृपा करके बाहर आएं। तो वह नर्क को निर्मित कर लेगा। उसके पास बिल्ट-इन-प्रोग्रेम है। सूरज निकला है, पक्षी गीत गा रहे हैं, आकाश बहुत सुंदर है। उस उसके पास हमेशा तैयार है फार्मूला नर्क बनाने का। वह कहीं भी आदमी ने कहा, वह तो ठीक है। बट फर्स्ट लेट मी नो हाउ मच इट पहुंच जाए, ज्यादा देर न लगेगी, वह नर्क निर्मित कर लेगा। विल कास्ट-पहले मुझे बता दो कि कीमत क्या चुकानी पड़ेगी! ___ अज्ञानी वही है, जो अपने चारों तरफ नर्क की समस्त | हम जिस दुनिया में जीते हैं, वह बाजार की दुनिया है। वहां हर संभावनाओं को लेकर चलता है। और ज्ञानी वही है, जो अपने चारों चीज को हम मूल्य से आंकते हैं। अगर किसी दिन ऐसा हो जाए तरफ स्वर्ग की समस्त संभावनाओं को लेकर चलता है। स्वर्ग की कि वर्षा मुश्किल हो जाए, तो निश्चित ही हम पैसे चुकाकर शावर बड़ी से बड़ी संभावना प्रभु का स्मरण है। के नीचे खड़े होंगे। और जिन मुल्कों में सूरज नहीं निकलता, जब इसलिए कृष्ण कहते हैं, वह ज्ञानी जिसने अपने मन को निष्काम | सूरज निकल आता है, तो छुट्टी हो जाती है। अंग्रेजी में संडे के दिन कर डाला, पवित्र कर डाला, जिसके जीवन में पुण्य की गंध पैदा छुट्टी का कारण है, क्योंकि वह सन-डे है, वह सूरज का दिन है। 'हुई, जिसने व्यर्थ के घास-पात को उखाड़कर फेंक दिया, राग-द्वेष आकाश घिरा रहता है बादलों से; सूरज का कोई दर्शन नहीं होता। में जो अब जीता नहीं, जो अब भगवत-भजन की दिशा में निरंतर | जब सूरज निकल आए, तो आनंद से प्रफुल्लित होकर लोग सूरज चल रहा है; उठता है, बैठता है, चलता है, डोलता है, कुछ भी की धूप लेने के लिए लेट जाते हैं। करता है, प्रत्येक कृत्य जिसका प्रभु के लिए समर्पित है और प्रत्येक जो न्यून हो जाए, और जिसके लिए हमें पैसा देना पड़े, फिर हमें क्षण, वैसा व्यक्ति मुझे उपलब्ध होता है। लगता है, उसमें कुछ आनंद है। लेकिन जो हमें मुफ्त में मिल जाए, दो बातें स्मरणीय हैं। अगर परमात्मा भी मुफ्त हम पर बरसता हो, तो हम द्वार-दरवाजे अभी इस घटना का उपयोग करूं। अभी वर्षा पड़ रही है। हमारी बंद करके भीतर हो जाएंगे। दृष्टि पर सब निर्भर है। अगर हम सोचते हैं कि बहुत बड़ा दुख हमारे (वर्षा शुरू हो गई है और भगवान श्री अपना बोलना जारी ऊपर गिर रहा है, तो हमारी दृष्टि शत्रुता की हो जाती है। अगर हम रखते हैं।) सोचते हैं कि प्रभु की अनुकंपा बरस रही है, तो हमारी दृष्टि मित्रता मैं कहता हूं, इधर थोड़ी देर हम बैठेंगे ही। मुझे लगता है, कोई की हो जाती है। और तब यह पड़ती हुई बूंद, पानी की बूंद नहीं रह इनमें से जाने वाला नहीं है। जो जाने वाले थे, वे आए ही नहीं हैं। जाएगी, यह पड़ती बूंद भगवत चेतना की बूंद हो जाती है। वर्षा भी रुकेगी नहीं। वर्षा भी आपसे डरेगी नहीं। वर्षा भी जारी हम कैसे लेते हैं जीवन को, इस पर सब निर्भर करता है। हमें | | रहेगी। बादल अपने आनंद में मग्न रहेंगे। अब इतनी देर घंटेभर पता ही नहीं है कि काश, हमें जिंदगी को जीने का खयाल होता, तो | हमें यहां रहना है। आपकी दृष्टि पर निर्भर करेगा। हम जब आकाश से बादल बरसते हों और पानी नीचे गिर रहा हो, मैं चाहूंगा कि थोड़ा-सा खयाल करें कि प्रत्येक बूंद परमात्मा का तो हम नाच भी सकते हैं खशी में। मोर नाचते हैं, और कभी आदमी आशीष है। और यहां से जाते वक्त आपका शरीर ही नहीं गीला भी नाचता था, लेकिन अब आदमी सिर्फ बचता है। सूरज निकला | होगा, आपकी आत्मा भी भीग गई होगी। और वह आत्मा का भीग हो, तो उसकी रोशनी में हम सिर्फ धूप भी अनुभव कर सकते हैं, जाना ही प्रभु का भजन है। उसके भजन किन्हीं मंदिरों के कोने में और जीवन भी। अंधेरा घिरा हो, तो हम आने वाली सुबह की यात्रा | बैठकर नहीं किए जाते हैं; उसके भजन जीवन के हर कोने में और भी देख सकते हैं उसमें, और सिर्फ मृत्यु का अंधकार भी। | जीवन की हर दिशा में और हर आयाम में किए जाते हैं। 447 Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 . कृष्ण कहते हैं, जिनके मन में काम-द्वेष नहीं है, जो किसी के अज्ञात, अनंत शक्ति सब किए चली जाती है। मैं व्यर्थ अपने को लिए घृणा से नहीं भरे हैं, वे सरलता से ही मेरे भजन में लीन हो | बीच में क्यों लिए फिरूं! मैं अपने को छोड़ दूं; मैं बह जाऊं। इस पाते हैं। और उन ज्ञानियों को मैं उपलब्ध होता हूं। अनंत के साथ संघर्ष छोड़ दूं; इस अनंत के साथ सहयोगी हो (वर्षा जारी है और भगवान श्री अपना बोलना जारी रखते हैं।) जाऊं; इस अनंत के चरणों में अपने को डाल दूं और कह दूं, जो इधर घंटेभर अज्ञानी मत बनें। घंटेभर के लिए कम से कम ज्ञानी | तेरी मर्जी। बन जाएं। और एक क्षण के लिए भी कोई ज्ञान का आनंद ले ले, | एक बार भी अगर कोई पूर्ण हृदय से कह पाए, जो तेरी मर्जी, तो दबारा अज्ञानी होने की उसकी तैयारी न होगी। वह हर जगह प्रभ उसके जीवन से दुख विदा हो जाता है। मेरी मर्जी दुख है; उसकी के स्मरण को खोज पाएगा। मर्जी कभी भी दुख नहीं है। बूंद आपके ऊपर गिर रही है, वह सिर्फ पानी नहीं है, वह ऐसा नहीं कि फिर पैर में कांटे न गड़ेंगे, और ऐसा भी नहीं कि परमात्मा भी है। क्योंकि परमात्मा के सिवाय इस जगत में कुछ भी फिर कोई बीमारी न आएगी, और ऐसा भी नहीं कि फिर मृत्यु न नहीं है। जब बूंद आपके सिर पर गिरे और आपकी आंखों से नीचे आएगी। लेकिन मजे की बात यह है कि कांटे तो फिर भी पैर में उतरे, तो जानना कि परमात्मा अपनी पूरी शीतलता को लेकर गड़ेंगे, लेकिन कांटे नहीं मालूम पड़ेंगे। बीमारी तो फिर भी आएगी, आपके ऊपर गिरा है और नीचे उतरा है। और आप पाएंगे कि यहां लेकिन आप अछूते रह जाएंगे। मौत तो फिर भी घटेगी, लेकिन आप बैठे-बैठे इस वर्षा के क्षण में भी एक प्रार्थना की गहराई आपके नहीं मर सकेंगे। घटनाएं बाहर रह जाएंगी, आप पार हो जाएंगे। हृदय तक पहुंच गई है। और वह गहराई काम की हो जाएगी। ये | असल में मैं के अतिरिक्त इस जगत में और कोई दुखं नहीं है, कपड़े तो सूख जाएंगे, उस गहराई का सूखना मुश्किल है। और कोई पीड़ा नहीं है। और हम इतने मैं से भरे हैं कि अगर परमात्मा हमारे भीतर प्रवेश भी करना चाहे. तो जगह न मिल सकेगी। रोएं-रोएं से मैं बोल रहा है। वह मैं ही हमें समर्पित नहीं जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये। होने देता। वह मैं ही हमें कहीं शरण, सिर नहीं रखने देता। वह मैं ते ब्रह्म तद्विदः कृत्स्नमध्यात्म कर्म चाखिलम् ।। २९ ।। | कहता है कि तुम, और सिर झुकाओगे? वह मैं कहता है, सारी और जो मेरे शरण होकर जरा और मरण से छूटने के लिए। दुनिया से हम ही सिर झुकवा लेंगे। यत्न करते हैं, वे पुरुष उस ब्रह्म को तथा संपूर्ण अध्यात्म __ मैं नेपोलियन बोनापार्ट के बचपन की कुछ किताबें देखता था। को और संपूर्ण कर्म को जानते हैं। नेपोलियन बोनापार्ट जब पढ़ता था, तो अपनी एक स्कूल की एक्सरसाइज कापी में, एक छोटी-सी कापी में उसने एक वाक्य लिखा है। भूगोल के बाबत जानकारी ले रहा था। किसलिए? जो मेरी शरण होकर! भगोल के बाबत जानकारी ले रहा था कि सारी दनिया जीतनी है. इस छोटे-से शब्द शरण में, धर्म का समस्त सार तो भूगोल तो जानना ही पड़ेगा। बचपन से ही नेपोलियन के दिमाग समाया हुआ है। यह शरण इस पूरब में खोजी गई | | में सारी दुनिया को जीतने का खयाल था, तो भूगोल की जानकारी समस्त साधनाओं की आधारभूत बात है। जरूरी थी। एक बड़ी मजेदार घटना घटी। और इस जिंदगी में बड़ी जो मेरी शरण होकर! मजेदार घटनाएं घटती ही हैं। जिंदगी बड़ी गहरी मजाक है। शरण होने का अर्थ है, जो अपने को इतना असहाय पाता है, | सेंट हेलेना का छोटा-सा द्वीप है, बहुत छोटा। तो नक्शे पर इतना हेल्पलेस। और जो पाता है, मेरे किए कुछ भी न हो सकेगा। नेपोलियन बोनापार्ट ने उसके चारों तरफ एक गोल लकीर खींच दी और जो पाता है, मेरे किए कभी कुछ हुआ नहीं। और जो पाता है | और लिख दिया, यह इतनी छोटी जगह है कि इसे जीतने की कोई कि मैं हूं न होने के बराबर, नहीं ही हूं। जो पाता है, मैं कुछ भी नहीं जरूरत नहीं। और मजे की बात यह है कि नेपोलियन जब हारा, तो हूं। न श्वास मेरे कारण चलती है, न खून मेरे कारण बहता है; न सेंट हेलेना के द्वीप में ही बंद किया गया, कैदी किया गया। जिस बादल मेरे कारण इकट्ठे होते हैं, न वर्षा मेरी वजह से होती है। जगह को उसने जीतने के लिए छोड़ रखा था कि बेकार है; एक 448 Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म का सार ः शरणागति - छोटा-सा द्वीप है, जिस पर कुछ नहीं, घास ही उगती है। इसको रही है! एक क्षण को कहीं बुद्धि ने सवाल उठा दिया होगा। और नहीं जीतने की कोई जरूरत है। एक क्षण को जीसस ने आकाश की तरफ देखकर कहा कि यह तू सारी दुनिया जीतनी चाही थी उसने! लेकिन कभी-कभी जिंदगी क्या करवा रहा है? छोटी-सी शिकायत थी, बहुत बड़ी नहीं, कि बड़े मजाक करती है। सारी दुनिया तो हार गया, आखिर में सेंट यह तू क्या करवा रहा है? हेलेना का द्वीप ही बचा। और उस पर ही कैदी होकर नेपोलियन | ___ लेकिन तत्काल फिर खयाल आया कि यह तो शिकायत हो गई, आखिरी वक्त में था। शायद उसे खयाल भी न आया होगा कि कभी | | यह तो सलाह हो गई परमात्मा को। यह तो मैं सलाह देने लगा कि मैंने भूगोल की किताब पर निशान लगाया था कि सेंट हेलेना तू क्या करवा रहा है! इसका अर्थ तो यह हुआ कि मेरी इच्छा कुछ बिलकुल बेकार है। आखिर में वहीं शरण मिली। जो बिलकुल | | और थी, जो होना चाहिए, और तू कुछ और करवा रहा है। यह तो बेकार मालूम पड़ा था, वही शरण बना। सारी जमीन छिन गई हाथ मेरी इच्छा खड़ी हो गई! से, वह सेंट हेलेना का द्वीप ही छोटा-सा, कुल जमा शरण थी। । उनकी आंख से दो आंसू के बूंद टपक पड़े। और उन दो बूंदों ने जिंदगी में ऐसा रोज होता है। जिस परमात्मा को हम सदा छोड़े उन्हें वहां पहुंचा दिया, जिसको कृष्ण शरण कह रहे हैं। दो बूंद रहते हैं कि पाने योग्य नहीं है, और जिस परमात्मा को हम सदा | उनकी आंखों में आ गए। और उन्होंने जोर से कहा कि नहीं, नहीं, बाहर रखते हैं जिंदगी के, वही परमात्मा अंत में पता चलता है कि मुझे क्षमा कर; दाय विल बी डन—तेरी ही इच्छा पूरी हो। मैं कौन शरण होने योग्य था-वही परमात्मा। हूं! मुझे माफ कर दे। मुझसे भूल हो गई। मुझसे गलती हो गई। यह (पानी की बूंदें पड़ने लगी हैं, कुछ लोगों ने छाता खोल लिए मैंने क्या कहा तुझसे कि यह तू क्या करवा रहा है! हैं। और भगवान श्री अपना कहना जारी रखते हैं।) ___ इतनी-सी शिकायत जीसस के लिए बाधा थी। तो मैं निरंतर ' एक काम कछ भी करें, या तो छाता खोले ही रखें, नहीं तो कहता है कि इस आखिरी क्षण तक भी जीसस क्राइस्ट नहीं थे। इस बादल आपसे मजाक जारी रखेंगे; आप खोले ही रखें। और या | | आखिरी क्षण तक वे जीसस ही थे। लेकिन यह आखिरी वक्तव्य, फिर बंद ही कर लें। या तो बादलों से कह दें कि अब तुम बेफिक्र | | एक सेकेंड में सब दुनिया बदल गई। वह आंख से दो आंसू का गिर रहो. हम अब खोलने वाले नहीं। और या फिर उनसे कह दें कि जाना और जीसस का कहना. दाय विल बी डन. तेरी मर्जी परी हो। अब तुम बेफिक्र रहो, हम अब खोले ही रखेंगे। दो में से कुछ एक | और फिर प्रसन्न हो जाना और उस सूली पर ऐसे झूल जाना, जैसे कर लें; दोनों न करते रहें, अन्यथा बेकार समय जाया होगा। । वह झूला,हो। वह जीसस, क्राइस्ट हो गए उसी क्षण। उसी क्षण वे और जब भीग ही रहे हैं, तो पूरे ही भीग जाएं; इतनी कंजूसी भी मनुष्य न रहे, परमात्मा हो गए। क्या! कितना बचाएंगे! कितना बचाएंगे छाता-वाता लगाकर; कुछ जिस क्षण कोई व्यक्ति अपने को परमात्मा की शरण में छोड़ देता बचेगा? सिर्फ वहम है आदमी का कि हम बचा लेंगे! क्या, बचा है, उसी क्षण परमात्मा के साथ एक हो जाता है। क्या पाएंगे? भीग जाएंगे पूरी तरह, भीग ही जाएंगे न! हो क्या अब यह जिंदगी का पैराडाक्स है कि जब तक हम अपने को जाएगा? तो भीग जाएं। छाते बंद करके नीचे रख दें। इसमें न बचाते हैं, अपने को खोते हैं; और जिस दिन अपने को खो देते हैं, भीगने का मजा ले पाएंगे, न सूखने का मजा ले पाएंगे। दोनों तरफ उस दिन हम अपने को बचा लेते हैं। और जब तक हम अपने को से जाएंगे, न दीन के न दुनिया के, न घर के न घाट के हो जाएंगे। बचाएंगे, कुछ हमारे हाथ में आएगा नहीं; खाली होगी मुट्ठी। और शरण बड़ा अदभुत शब्द है। शरण का अर्थ है कि मैं कहता हूं | जिस दिन हम खोल देंगे, उस दिन यह सारी संपदा, यह सारा अब मैं नहीं हूं, तू ही है। और अब तू जो करेगा, जो करवाएगा, | जगत, यह सब कुछ, यह सब कुछ हमारा है। लेकिन जब तक मैं उससे मैं राजी हूं, स्वीकार करता हूं। मेरी एक्सेप्टेबिलिटी है। | है भीतर, तब तक यह सब हमारा नहीं हो सकता है। यह मैं ही जीसस मर रहे हैं, आखिरी क्षण में सूली पर लटके हैं। एक क्षण हमारा दुश्मन है, लेकिन मैं हमें मित्र मालूम पड़ता है। को उनके मन में, ऐसे ही आ गया होगा भाव, जैसे आपके मन में एक बहुत अदभुत आदमी हुआ है, इकहार्ट। उसने मजाक में छाता खोलने का आता है, आ गया एकदम एक क्षण को भाव. कि बह प्रार्थना की है। लेकिन उसकी प्रार्थना मैं परमात्मा के लिए जिंदगीभर जीया और आखिर मुझे सूली लग कीमती है और मन में रख लेने जैसी है। इकहार्ट ने एक दिन सुबह एक दिन 449 Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-3 → प्रार्थना की परमात्मा से कि हे प्रभु, मेरे दुश्मनों से तो मैं निपट लूंगा, आपको पता चलेगा कि शरण का क्या अर्थ है। आपके भीतर प्रभु मेरे मित्रों से तू निपट ले। मेरे दुश्मनों से मैं निपट लूंगा। उनकी तू की किरणें सब तरफ से प्रवेश करने लगेंगी। क्योंकि शरण का अर्थ फिक्र छोड़। मैं काफी हूं। लेकिन मेरे मित्रों से तू निपट ले; उनसे है, ओपनिंग। मैं बिलकुल नहीं निपट पाता। इंडोनेशिया में एक आंदोलन चलता है, कीमती आंदोलन है। इकहार्ट का शिष्य साथ में था। उसने यह प्रार्थना सुनी। वह बड़ा इस जमीन पर जो दो-चार कीमती बातें आज चल रही हैं, उनमें हैरान हुआ। हैरान इसलिए हुआ कि सवाल तो दुश्मनों से ही होता इंडोनेशिया में मोहम्मद सुबुद के द्वारा चलता हुआ एक छोटा-सा है निपटने का; मित्रों से तो कोई सवाल नहीं होता! और यह इकहार्ट ध्यान का आंदोलन भी है। उस आंदोलन का नाम है सुबुद। उस क्या पागलपन की बात कह रहा है। कहीं गलती तो नहीं हो गई आंदोलन की प्रक्रिया में कोई और विशेषता नहीं है, बस, इतनी ही शब्दों की जमावट में! कहना चाहता हो कि मेरे मित्रों से मैं निपट प्रक्रिया है कि वे व्यक्ति को राजी करते हैं कि तू अपने को छोड़ दे लूंगा, दुश्मनों से तू निपट ले। कहीं भूल तो नहीं हो गई! परमात्मा के हाथों में। इसको वे कहते हैं, ओपनिंग। इसको कृष्ण इकहार्ट जैसे ही प्रार्थना के बाहर हुआ, मित्र ने हाथ पकड़ा और | कहते हैं, सरेंडरिंग। इसको वे कहते हैं, खुले अपने सब दरवाजे कहा कि मालूम होता है, तुम कुछ भूल कर गए। यह तुमने क्या | छोड़ दें। परमात्मा से कोई बचाव तो नहीं करना है, इसलिए कहा! मित्रों से निपटने की कोई जरूरत ही नहीं है। और तुमने खिड़की-दरवाजे सब खुले छोड़ दें। और ऐसा पड़ जाएं, जैसे परमात्मा से कहा कि शत्रुओं से तो मैं निपट लूंगा, मेरे मित्रों से तू परमात्मा है और हम उसकी गोद में पड़े हैं। निपट ले। और एक तीन सप्ताह में परिणाम गहरे होने लगते हैं। जैसे ही इकहार्ट ने कहा कि मैं तुझसे कहता हूं कि जिन-जिन को हमने | | आप अपने को खुला छोड़ते हैं...। रेसिस्टेंस छोड़ने में थोड़ा वक्त मित्र समझा है, वे ही हमारे शत्रु हैं, और उनसे निपटना बड़ा मुश्किल लगता है। दो-चार दिन तो आप कहेंगे, लेकिन छोड़ न पाएंगे। है। और उनमें सबसे बड़ा मित्र है मैं, ईगो। यह बहुत मित्र मालूम | | धीरे-धीरे धीरे-धीरे छोड़ पाएंगे। जिस दिन भी छोड़ना हो जाएगा, पड़ता है। हम इसी को तो जिंदगीभर बचाते हैं। यही है जहर, क्योंकि उसी दिन आप पाएंगे, आपके भीतर कोई विराट ऊर्जा प्रवेश कर यही मैं शरण न जाने देगा। यही मैं सिर न झुकाने देगा। यही मैं छोड़ने रही है। आपकी मांसपेशियों में कोई और नई चीज बहने लगी। न देगा आपको कि आप लेट गो में पड़ जाएं। कह दें कि ठीक। आपकी हड्डियों के आस-पास किसी नई चीज ने प्रवाह लिया। कभी देखें। कभी देखें, जमीन पर ही लेट जाएं। किसी मंदिर में आपके हृदय की धड़कनों के पास कोई नई शक्ति आ गई। आपके जाने की उतनी जरूरत नहीं है। जमीन पर ही लेट जाएं चारों खून में कुछ और भी बह रहा है। आपकी श्वासों में कोई और भी हाथ-पैर छोड़कर, और कह दें परमात्मा से कि अब घंटेभर तू ही तिर रहा है। और आप एक तीन महीने के अनुभव में पाएंगे कि आप है, मैं नहीं। और पड़े रहें घंटेभर। अपनी तरफ से कोई बाधा न दें। नहीं बचे, परमात्मा ही बचा है। फिर तो यह भी कहने की जरूरत सिर्फ पड़े रहें, जैसे कि मुर्दा पड़ा हो या कोई छोटा बच्चा अपनी मां न रहेगी कि मैं शरण आता हूं। क्योंकि फिर इतना भी आप न बचेंगे की गोद में सिर रखकर सो गया हो। करते रहें, करते रहें। एक कि कह सकें कि मैं शरण आता हूं। पंद्रह-बीस दिन के भीतर आपको शरण का क्या अर्थ है, वह पता बुद्ध के पास एक युवक आया। उसने सुन रखा था कि बुद्ध चलेगा। यह शब्द नहीं है, यह अनुभव है। लोगों से कहते हैं, अप्प दीपो भव! अपने प्रकाश स्वयं बनो; बी जमीन पर पड़ जाएं; अपने कमरे को भी बंद कर लें, जमीन पर | ए लाइट अनटु योरसेल्फ। फिर जब वह युवक बुद्ध के पास आया, पड़ जाएं चारों हाथ-पैर छोड़कर। सिर रख लें जमीन पर, पड़ जाएं, तो उसे बड़ी बेचैनी हुई। वहां उसने देखा कि लोग कह रहे हैं, बुद्ध और कह दें, प्रभु, घंटेभर के लिए तू है, अब मैं नहीं हूं। पड़े रहें। शरणं गच्छामि, बुद्ध की शरण जाते हैं। उस युवक को तो बड़ी विचार चलते रहेंगे, भाव चलते रहेंगे। दो-चार-आठ दिन में | | परेशानी हुई। वह तो सुनकर आया था कि बुद्ध कहते थे कि अपने विचार, भाव विलीन हो जाएंगे। पंद्रह दिन में आपको लगेगा कि दीए स्वयं बनो। तो यह तो बात बड़ी उलटी मालूम पड़ती है, बुद्ध वह जमीन, जिस पर आप पड़े हैं, और आप अलग नहीं हैं; एक की शरण जाओ! अपने दीपक बनना है, तो किसी की शरण मत हो गए; किसी गहरी इकाई में जुड़ गए। एक महीना पूरा होते-होते जाओ, यही उसने मतलब लिया था। 450 Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म का सार : शरणागति स्वभावतः, हमारा अहंकार इसी तरह के मतलब लेता है। वह मतलब की बातें पकड़ लेता है। वह कहता है, किसी की शरण मत ओ। तो वह कहता है, ठीक यही तो हम कहते हैं, किसी की शरण जाने की कोई जरूरत नहीं है। उस युवक ने देखा कि यह क्या हो रहा है ! हजारों भिक्षु, और बुद्ध के चरणों में सिर रखते हैं, और कहते हैं, बुद्धं शरणं गच्छामि, बुद्ध की शरण जाता हूं। उस युवक ने बुद्ध के पास आकर कहा, माफ करिए! आप तो कहते हैं, अप्प दीपो भव, अपने प्रकाश स्वयं बनो; खुद खोजो सत्य को । और ये लोग क्या कर रहे हैं! ये कहते हैं, बुद्धं शरणं गच्छामि ; हम बुद्ध की शरण जाते हैं ! तो बुद्ध ने कहा, तू पहले शरण जा, तभी तो तू हो पाएगा। अभी तू है ही नहीं। अभी जिसे तूने समझा है मैं, वही तो तेरे होने में बाधा है । उस मैं को हम तोड़ दें। हां, उस दिन मैं मना कर दूंगा कि अब शरण मत जा, जिस दिन तेरे भीतर कोई शरण जाने को न बचे। उस दिन मैं कहूंगा, अब शरण जाने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन जब तक तेरे भीतर कोई शरण जाने के लिए बचा है, तब तक तू शरण जा । इन दोनों बातों में बुद्ध ने कहा, कोई विरोध नहीं है। कृष्ण ने कहा है, शरण । कृष्ण की पूरी गीता का सार है, शरणागति । महावीर ने ठीक उलटी बात कही है। महावीर ने कहा है, अशरण; किसी की शरण मत जाना। शब्द बिलकुल उलटे मालूम पड़ते हैं। लेकिन महावीर कहते हैं, अशरण तभी पूरा होगा, जब मैंन बचे। लेकिन मैं अगर भीतर है, तो अशरण कभी पूरा नहीं हो सकता। कृष्ण भी यही कहते हैं, शरणागति से मैं मिट जाएगा। और तब तो शरण जाने को कोई नहीं बचता । किसकी जाओगे ? कौन जाएगा? दोनों खो जाते हैं। बूंद सागर में गिर जाती है और एक हो है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, जो शरण चला जाता है, वह सब कुछ पा लेता है। साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः । प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः ।। ३० ।। और जो पुरुष अधिभूत और अधिदैव के सहित तथा अधियज्ञ के सहित सब का आत्मरूप मेरे को जानते हैं, वे > 451 युक्तचित्त वाले पुरुष अंतकाल में भी मुझको ही जानते हैं अर्थात प्राप्त होते हैं। छो टा-सा सूत्र; आखिरी और बहुत कीमती । कृष्ण कहते हैं, जो सब भूतों में मुझे ही जानते हैं, वे अंधकार में भी मुझे ही जानते हैं। हम सबने सुना है कि परमात्मा प्रकाश-स्वरूप है। हम सबने सुना है कि परमात्मा जीवन स्वरूप है। हम सबने सुना है कि परमात्मा आनंद स्वरूप है। कृष्ण यहां कहते हैं, लेकिन जो मुझे सबमें देख लेता है, वह अंधकार में भी मुझे ही देखता है। वह दुख में भी मुझे ही देखता है, वह मृत्यु में भी मुझे देखता है। और ध्यान रहे, जब तक मृत्यु में भी परमात्मा न दिखे, तब तक अमृत उपलब्ध नहीं होता है। और ध्यान रहे, जब तक दुख में भी परमात्मा न दिखे, तब तक आनंद उपलब्ध नहीं होता है। और ध्यान रहे, जब तक अंधकार भी प्रकाश न हो जाए, तब तक परमात्मा उपलब्ध नहीं होता है। यह तो हम नासमझों की मांग है कि हे प्रभु, हमें अंधकार से प्रकाश की तरफ ले चल। यह तो हम नासमझों की मांग है। क्योंकि हम जिंदगी को दो हिस्सों में तोड़कर देखते हैं। हम कहते हैं, हे प्रभु, हमें मृत्यु से अमृत की ओर ले चल । हम कहते हैं, हे प्रभु, हमें भय से अभय की ओर ले चल । दुख से सुख की ओर ले चल, आनंद | की ओर ले चल | ये तो हमारी प्रार्थनाएं हैं, उनकी प्रार्थनाएं, जिन्हें | कुछ भी पता नहीं है, जो जिंदगी को दो टुकड़ों में तोड़ लेते हैं। कृष्ण का वचन बड़ा अदभुत है। हम सबने सुना है ऋषि का वचन, अंधकार से प्रकाश की ओर ले चल । और कृष्ण कहते हैं, जो सब भूतों में मुझे देखते हैं, वे अंधकार में भी मुझे ही देखते हैं। अगर ठीक प्रार्थना हो, तो वह ऐसी होगी कि हे प्रभु, अंधकार में भी मुझे तू दिखाई पड़े। दुख में भी तू मुझे दिखाई पड़े। मृत्यु में भी तू मुझे दिखाई पड़े। अमृत की मेरी चाह नहीं मृत्यु में भी तू मुझे दिखाई पड़े। आनंद की मेरी चाह नहीं; दुख में भी तू ही मुझे मिले। प्रकाश की मेरी मांग नहीं; अंधकार भी मेरे लिए प्रकाश | यह मांग पहली मांग से ज्यादा गहरी है; और कृष्ण जो कहते हैं, उसके अनुकूल है। क्योंकि जगत में तत्व एक है, दो नहीं । और जिसे हम अंधकार कहते हैं, वह केवल प्रकाश का एक रूप है। और जिसे हम मृत्यु कहते हैं, वह अमृत का एक रूपांतरण है। और Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गीता दर्शन भाग-3 - जिसे हम दुख कहते हैं, जिसे हम दुख जानते हैं, जिसे हम पीड़ा सेलवीसियस बहुत दुखी और परेशान हुआ। आज भी उस सिर कहते हैं, संताप कहते हैं, वे भी आनंद की यात्रा के पड़ाव हैं। के टुकड़े, टूटे हुए, वेटिकन के पोप की लाइब्रेरी में नीचे दबे पड़े लेकिन यह हमें तब दिखाई पड़े, जब हम पूरे जीवन को हैं; आज भी। और भी बहुत-सी चीजें वेटिकन की लाइब्रेरी में दबी कांप्रिहेंसिवली, इकट्ठा देख सकें। | पड़ी हैं, जो कभी बड़ी काम की सिद्ध हो सकती हैं। सेलवीसियस हम तो खंड-खंड करके जीवन को देखते हैं। हमारी बुद्धि हर बहुत रोया, बहुत पछताया, बहुत जोड़ने की कोशिश की। सब चीज को खंड-खंड कर देती है। बुद्धि का एक ही काम है, चीजों | जोड़ा-जाड़ा। लेकिन जवाब फिर न आया। को तोड़ना। जोड़ना बुद्धि नहीं जानती। बुद्धि के पास जोड़ने का | बुद्धि तत्काल चीजों को तोड़कर देखना चाहती है कि भीतर क्या कोई भी उपाय नहीं है। | है। लेकिन भीतर जो भी है, वह सिर्फ जुड़े हुए में होता है, टूटे में आज से एक हजार साल पहले सेलवीसियस नाम का एक नहीं होता। जिस चीज को भी हम तोड़ लेते हैं, उसकी होलनेस, ईसाई, कैथोलिक फकीर हिंदुस्तान आया। सेलवीसियस बहुत | | उसकी पूर्णता नष्ट हो जाती है। और जीवन के सब रहस्य उसकी अदभुत आदमियों में से एक था। और बाद में वह कैथोलिक चर्च | पूर्णता में हैं। का पोप बना. हिंदस्तान से लौटने के बाद। और जितने पोप बने हैं. इसलिए विज्ञान कभी जीवन के परम रहस्य को उपलब्ध न हो उनमें सेलवीसियस का मुकाबला नहीं है। सेलवीसियस ने | | पाएगा। क्योंकि विज्ञान की पूरी प्रक्रिया तोड़ने की है, एनालिसिस हिंदुस्तान के बहुत-से राज समझने की कोशिश की और हिंदुस्तान की है, विश्लेषण की है। चीजों को तोड़ते चले जाओ। इसलिए की धार्मिक साधना में गहरा उतरा। हिंदुस्तान के फकीरों ने उसे एटम तो मिल गया; आत्मा नहीं मिलती। एटम मिल जाएंगा; वह बहुत-सी चीजें भेंट दी कि तुम ले जाओ। तोड़ने से मिलता है। आत्मा नहीं मिलती; वह जोड़ने से मिलती है। एक फकीर ने उसे एक चीज भेंट दी, एक तांबे का बना हुआ विद्युत के कण मिल जाएंगे, इलेक्ट्रांस मिल जाएंगे, लेकिन आदमी का सिर भेंट दिया। वह सिर बहुत अदभुत था। एक बड़ी | | परमात्मा नहीं मिलेगा। इलेक्ट्रांस तोड़ने से मिलते हैं; परमात्मा से बड़ी रहस्य और मिस्ट्री उस सिर के साथ जुड़ी है। उस सिर से | जोड़ने से मिलता है। कोई भी जवाब हां और न में लिया जा सकता था। उससे कुछ भी कृष्ण बड़े से बड़े जोड़ की बात कर रहे हैं। वे कह रहे हैं, अंधेरा पूछे, वह हां या न में जवाब दे देता था। वह था तो सिर्फ तांबे का और प्रकाश मैं ही हूं। जीवन और मृत्यु मैं ही हूं। सृष्टि और प्रलय सिर, आदमी की एक खोपड़ी पर चढ़ाया हुआ। वह अदभुत था। मैं ही हूं। और जो सब भूतों में मुझे देखता है, वह एक दिन अंधकार सेलवीसियस ने हजारों तरह के सवाल पूछे और सदा सही जवाब | | में-उसमें भी, जो अप्रीतिकर मालूम पड़ता है—मुझे देख पाएगा। पाए। पूछा कि यह आदमी मर जाएगा कल कि बचेगा? उसने | और जिस दिन अप्रीतिकर में भी परमात्मा दिखाई पड़ता है, उस कहा, हां, मर जाएगा, तो मरा। उसने कहा कि नहीं, तो नहीं मरा। | दिन क्या अप्रीतिकर बचता है? मेरा यह हाथ किसी को सुंदर मालूम न मालूम क्या-क्या पूछा और सही पाया। पड़ सकता है। इस हाथ को तोड़कर सड़क पर डाल दें, फिर यह सेलवीसियस बड़ी मुश्किल में पड़ गया। उस फकीर ने कहा था, | बिलकुल सुंदर नहीं मालूम पड़ेगा; बहुत कुरूप हो जाएगा। आपकी लेकिन एक खयाल रखना, बुद्धि की मानकर कभी इस सिर को । आंख किसी को सुंदर मालूम पड़ सकती है; निकालकर टेबल पर खोलकर मत देखना कि इसके भीतर क्या है। लेकिन जैसे-जैसे | | रख दें, तो दूसरा आदमी आंख बंद कर लेगा कि यह न करिए। सेलवीसियस को उत्तर मिलने लगे. वैसे-वैसे उसका मन बेचैन | क्या, बात क्या है? आंख सुंदर होती है, जब शरीर की पूर्णता होने लगा। उसकी रात की नींद खो गई। उसको दिनभर चैन न पड़े। में होती है; अलग होकर कुरूप हो जाती है। हाथ सुंदर होता है, कब इसको खोलकर देख लें, तोड़कर, इसके भीतर क्या है! जब शरीर की पूर्णता में होता है; अलग होकर सिर्फ गंदगी और वह बामुश्किल हिंदुस्तान से जा पाया। रोम पहुंचते ही उसने | दुर्गंध फैलाता है। पहला काम यह किया कि उसको तोड़कर, उसको खोलकर देख __यह पूरी जिंदगी, यह पूरा विराट एक है। और जब कोई इसे एक लिया। उसके भीतर तो कुछ भी न था। एक साधारण खोपड़ी थी। | की तरह देख पाता है, तो वह परम सौंदर्य के अनुभव को उपलब्ध कुछ भी न मिला। होता है। वही परम सौंदर्य भागवत सौंदर्य है। वही डिवाइन ब्यूटी है। 452 Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म का सार : शरणागति - लेकिन हम तो सब टुकड़ों में देखते हैं; हम पूरे में तो कुछ नहीं | उपलब्ध हो जाते हैं। यह पुनर्जन्म शरीर का नहीं, आत्मा का। यह देख पाते। वृक्ष को हम देखते हैं, तो सूरज को नहीं देख पाते, आत्मा नई होकर प्रकट होती है। हालांकि सूरज और वृक्ष जुड़े हुए हैं। सूरज को देखते हैं, तो जमीन __यह कृष्ण ने पूरा का पूरा विज्ञान आत्मा के नए जन्म को देने के को नहीं देख पाते; हालांकि जमीन और सरज जड़े हए हैं। रात लिए कहा है। आखिरी में शरण को याद रर याद रखना कि परमात्मा पर देखते हैं, तो दिन को नहीं देख पाते; हालांकि दिन और रात एक | छोड़ देना है सब। ही सिक्के के दो पहलू हैं। प्रकाश देखते हैं, तो अंधेरा खो जाता है। और दूसरी बात, अनुकूल में तो दिखाई ही पड़ेगा परमात्मा, अंधेरा देखते हैं, तो प्रकाश नहीं होता; हालांकि दोनों एक-दूसरे के | प्रतिकूल में भी परमात्मा को देखने की खोज जारी रखना। जो पहलू हैं। खोजता है, वह पा लेता है। सिर्फ वे ही वंचित रह जाते हैं, जो कभी __ आदमी कितना कमजोर है, कभी आपने खयाल किया है! एक खोज पर ही नहीं निकलते हैं। और कृष्ण जो कह रहे हैं, जितना छोटे-से नए पैसे को हाथ में लेकर कभी आपने कोशिश की कि | कहने से कहा जा सकता है, उतना वे कह रहे हैं। लेकिन कुछ है, दोनों पहलू एक साथ देख लें? तब आपको पता चलेगा, आदमी | जो चुप होकर ही जाना जा सकता है। कितना कमजोर है। एक छोटे-से सिक्के के एक पैसे के दोनों पहलू ___ दस दिन तक निरंतर मैं आपसे बात कर रहा था। अब मैं चाहूंगा आप एक साथ नहीं देख सकते। जब एक पहलू दिखाई पड़ता है, कि दस दिन कम से कम एक घंटे-दस दिन मैंने आपसे बात तब दूसरा खो जाता है। जब दूसरा दिखाई पड़ता है, तो पहला खो की-दस दिन आप इस गीता ज्ञान यज्ञ को और जारी रखना अपने जाता है। घर पर। एक घंटा रोज अब आप चुप बैठ जाना। और जो मैंने इसलिए जो बहुत तर्क में गहरे उतरते हैं, वे कहते हैं कि जब | | आपको कहकर समझाया है, और समझ में न आया होगा, वह उस 'किसी ने आज तक देखे ही नहीं दो पहलू एक साथ, तो यह कहना | एक घंटे की चुप्पी में आपकी समझ में उतरेगा और गहरा होगा। कहां तक उचित है कि पैसे में दो पहलू होते हैं? क्या पता, नीचे __ यह गीता ज्ञान यज्ञ आज समाप्त नहीं होता। आज सिर्फ गीता का पहलू बचा हो अब तक न बचा हो! क्या पक्का है? अनुमान | ज्ञान यज्ञ शब्द से समाप्त होता है, मौन से शुरू होता है। कल से है सिर्फ कि नीचे भी पहलू होगा। होगा या नहीं होगा, क्या पता! | आप दस दिन कम से कम एक घंटा मौन में बिता देना। आदमी की बुद्धि पूरे को नहीं देख पाती; दि होल, वह जो पूर्ण सुना है मैंने, एक अमेरिकन यात्री एक पहाड़ की यात्रा पर गया है, नहीं देख पाती। आदमी की बुद्धि खंड-खंड करके देखती है। | था। बड़ी मुश्किल में पड़ गया। गांव में कई लोगों से उसने बात खंड-खंड में सब सौंदर्य खो जाता है, खंड-खंड में सब चेतना खो | करने की कोशिश की, लेकिन किसी ने कोई जवाब न दिया। सांझ जाती है, खंड-खंड में सब सत्य खो जाता है। असत्य के टुकड़े ही को कुछ लोग एक कुएं की पाट पर बैठे थे, तो वह भी जाकर बैठ हाथ में लगते हैं-असुंदर, कुरूप। गया। उसने दो-चार दफे बात चलाने की कोशिश की। लोगों ने कृष्ण कहते हैं, जो सब भूतों में मुझे देखेगा। देखा, लेकिन चुप ही रहे। फिर उसने पूछा कि क्या मामला है? क्या सब भूतों में देखना शुरू करें। वर्षा में, बादल में, सूरज में, पानी | | इस गांव में कोई कानून है बोलने के खिलाफ? बोलते क्यों नहीं में, दुख में, सुख में, मित्र में, शत्रु में देखना शुरू करें। शब्द में, | | हो? इज़ देअर एनी ला अगेंस्ट स्पीकिंग? मौन में एक को ही देखना शुरू करें। और तब एक दिन जरूर | फिर भी थोड़ी देर चुप रहे लोग। फिर एक बूढ़े ने उससे धीरे से वह घटना घटती है कि विपरीत नहीं रह जाता, द्वैत नहीं रह जाता, उसके कान में कहा, देअर इज़ नो सच ला हियर, बट अप हियर दो नहीं बचते, एक ही बचता है। पीपुल स्पीक ओनली व्हेन दे फील दैट बाई स्पीकिंग दे कैन इम्प्रूव और जिस दिन प्राणों के सामने एक ही बचता है, उस दिन ऐसी | अपान साइलेंस। तभी बोलते हैं, जब उन्हें लगे कि बोलने से मौन छलांग लगती है कि एक नए आयाम में, एक नए जगत में प्रवेश के ऊपर कुछ कहा जा सकता है; अन्यथा नहीं बोलते। हो जाता है। फिर आप वही नहीं होते, जो आप कल तक थे। सब | हमने कभी खयाल ही नहीं किया है। तो यहां तो समाप्त हो कुछ वह वही होता है, फिर भी सब बदल जाता है। आप दूसरे ही जाएगा। आप दस दिन मौन में बैठना एक घंटा, और उस घंटे में आदमी हो जाते हैं। आपका नया जन्म, आप रि-बॉर्न, पुनर्जन्म को मैं फिर आपसे बोल सकूँगा; लेकिन वह बोलना बहुत गहरा हो |453 Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < गीता दर्शन भाग-3 जाएगा। और उस दस दिन के मौन में आप वह जान पाएंगे, जो शायद शब्द से न जान पाए हों। शब्द से बहुत थोड़ा कहा जा सकता है; मौन से बहुत ज्यादा कहा जा सकता है। शब्द से बहुत कम समझा जा सकता है; मौन से बहुत ज्यादा समझा जा सकता है। क्योंकि शब्द बुद्धि का उपकरण है; और बुद्धि तोड़ देती है। और मौन अखंड है; तोड़ता नहीं, जोड़ देता है। ये थोड़ी-सी बातें। अभी उठेंगे नहीं। और आज तो मैं चाहूंगा कि-छाते बंद कर लें आखिरी दिन है, हम सब कीर्तन में खड़े होकर सम्मिलित हो जाएं। हम ताली बजाकर कीर्तन कर लें और विदा हो जाएं। नहीं; कोई भी जाए न! छाते बंद कर लें, और पानी बरस रहा है तो और भी आनंद नाचने में आएगा। दस दिन आपने दूसरों को नाचते देखा। उससे पता नहीं चलेगा कि क्या है नाच। आप नाचें और देखें। 454 Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो - एक परिचय दर्शन, शिक्षा, परिवार, समाज, गरीबी, जनसंख्या-विस्फोट, पर्यावरण तथा संभावित परमाणु युद्ध के व उससे भी बढ़कर एड्स महामारी के विश्व-संकट जैसे अनेक विषयों पर भी क्रांतिकारी जीवन-दृष्टि उपलब्ध है। शिष्यों और साधकों के बीच दिए गए उनके ये प्रवचन छह सौ पचास से भी अधिक पुस्तकों के रूप में प्रकाशित हो चुके हैं और तीस से अधिक भाषाओं में अनुवादित हो चुके हैं। वे कहते हैं, “मेरा संदेश कोई सिद्धांत, कोई चिंतन नहीं है। मेरा संदेश तो रूपांतरण की एक कीमिया, एक विज्ञान है।" ओशो का जन्म मध्य प्रदेश के कुचवाड़ा गांव में 11 दिसम्बर 1931 में हुआ, 21 मार्च 1953 को उनके जीवन में परम संबोधि का विस्फोट हुआ, वे बुद्धत्व को उपलब्ध हुए और 19 जनवरी 1990 को, ओशो कम्यून इंटरनेशनल में देह-त्याग हुआ। ओशो की समाधि पर स्वर्ण अक्षरों में अंकित है : बुद्धपुरुषों की अमृत धारा में ओशो एक नया प्रारंभ हैं। वे अतीत की किसी भी धार्मिक परंपरा या श्रृंखला की कड़ी नहीं हैं। ओशो से एक नये युग का शुभारंभ होता है और उनके साथ ही समय दो सस्पष्ट खंडों में विभाजित होता है: ओशो-पूर्व तथा ओशो-पश्चात। ओशो के आगमन से एक नये मनुष्य का, एक नये जगत का, एक नये युग का सूत्रपात हुआ है, जिसकी आधारशिला अतीत के किसी धर्म में नहीं है, किसी दार्शनिक विचार-पद्धति में नहीं है। ओशो सद्यःस्नात धार्मिकता के प्रथम पुरुष हैं, सर्वथा अनूठे संबुद्ध रहस्यदर्शी हैं। ओशो एक नवोन्मेष हैं नये मनुष्य के, नयी मनुष्यता के। ओशो का यह नया मनुष्य ‘ज़ोरबा दि बुद्धा' एक ऐसा मनुष्य है जो ज़ोरबा की भांति भौतिक जीवन का पूरा आनंद मनाना जानता है और जो गौतम बुद्ध की भांति मौन होकर ध्यान में उतरने में भी सक्षम है-ऐसा मनुष्य जो भौतिक और आध्यात्मिक, दोनों तरह से समृद्ध है। 'ज़ोरबा दि बुद्धा' एक समग्र व अविभाजित मनुष्य है। ओशो का यह नया मनुष्य भविष्य की एकमात्र आशा है। इसके बिना पृथ्वी का कोई भविष्य शेष नहीं है। अपने प्रवचनों के द्वारा ओशो ने मानव-चेतना के विकास के हर पहलू को उजागर किया। बुद्ध, महावीर, कृष्ण, शिव, शांडिल्य, नारद, जीसस के साथ ही साथ भारतीय अध्यात्म-आकाश के अनेक नक्षत्रों-आदिशंकराचार्य, गोरख, कबीर, नानक, मलूकदास, रैदास, दरियादास, मीरा आदि पर उनके हजारों प्रवचन उपलब्ध हैं। जीवन का ऐसा कोई भी आयाम नहीं है जो उनके प्रवचनों से अस्पर्शित रहा हो। योग, तंत्र, ताओ, झेन, हसीद, सूफी जैसी विभिन्न साधना-परंपराओं के गूढ़ रहस्यों पर उन्होंने सविस्तार प्रकाश डाला है। साथ ही राजनीति, कला, विज्ञान, मनोविज्ञान, OSHO Never Born Never Died Only Visited this Planet Earth between Dec 11 1931-Jan 19 1990 ध्यान और सृजन का यह अनूठा नव-संन्यास उपवन, ओशो कम्यून, ओशो की विदेह-उपस्थिति में भी आज पूरी दुनिया के लिए एक ऐसा प्रबल चुंबकीय आकर्षण-केंद्र बना हुआ है कि यहां निरंतर नये-नये लोग आत्म-रूपांतरण के लिए आ रहे हैं तथा ओशो की सघन-जीवंत उपस्थिति में अवगाहन कर रहे हैं। 455 Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक निमंत्रण ओशो के प्रवचनों को पढ़ना, उन्हें सुनना अपने आप में एक आनंद है। इनके द्वारा आप अपने जीवन में एक अपूर्व क्रांति की पदचाप सुन सकते हैं। लेकिन यह केवल प्रारंभ है, शुभ आरंभ है। इन प्रवचनों को पढ़ते हुए आपने महसूस किया होगा कि ओशो का मूल संदेश है : ध्यान। ध्यान की भूमि पर ही प्रेम के, आनंद के, उत्सव के फूल खिलते हैं। ध्यान आमूल क्रांति है। निश्चित ही आप भी चाहेंगे कि आपके जीवन में ऐसी आमूल क्रांति हो; आप भी एक ऐसी आबोहवा को उपलब्ध करें जहां आप अपने आप से परिचित हो सकें, आत्म-अनुभूति की दिशा में कुछ कदम उठा सकें; कोई ऐसा स्थान जहां और भी कुछ लोग इस दिशा में गतिमान हों। ओशो ने एक ऐसी ही ध्यानमय, उत्सवमय आबोहवा वाला ऊर्जा-क्षेत्र निर्मित किया है पूना में: ओशो कम्यून इंटरनेशनल। यहां ओशो की उपस्थिति में हजारों लोगों ने ध्यान की गहराइयों को छुआ है। सतत ध्यान के द्वारा यह स्थान ध्यान की एक ऐसी सघन ऊर्जा से आविष्ट हो गया है कि ओशो के देह-त्याग के बाद, आज भी आप उनकी ऊर्जा से स्पंदित इस बुद्धक्षेत्र में ओशो की उपस्थिति की अनुभूति कर सकते हैं तथा रूपांतरित हो सकते हैं। विश्व के लगभग सौ देशों से लोग यहां आकर इस अंतर्राष्ट्रीय वातावरण में ध्यान का रसास्वादन करते हैं। दुनिया में जितने भी प्रकार के लोग हैं—अपनी आधारभूत कोटियों में-ओशो ने उन सब के लिए विशेष प्रकार की ध्यान-विधियों को ईजाद किया है। आज विश्व की समस्त साधना-पद्धतियों की विधियां यहां एक ही छत के नीचे मौजूद हैं। ओशो कम्यून इंटरनेशनल विश्व भर में एकमात्र ऐसा केंद्र है जहां पर सभी राष्ट्रों और धर्मों के लोग अपने अनुकूल ध्यान प्रयोगों के द्वारा एक साथ रूपांतरित हो सकते हैं। ओशो कम्यून ऐसे ही एक नये मनुष्य की जन्मभूमि है, एक क्रांति-स्थल है। इसमें आपका स्वागत है। अतिरिक्त जानकारी के लिए संपर्क-सूत्र : ओशो कम्यून इंटरनेशनल 17, कोरेगांव पार्क, पुणे-411001, महाराष्ट्र फोन : 0212-628562 फैक्स: 0212-624181. 456/ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो का हिन्दी साहित्य उपनिषद सर्वसार उपनिषद कैवल्य उपनिषद अध्यात्म उपनिषद कठोपनिषद ईशावास्य उपनिषद निर्वाण उपनिषद आत्म-पूजा उपनिषद केनोपनिषद मेरा स्वर्णिम भारत (विविध उपनिषद - सूत्र ) कृष्ण गीता-दर्शन (आठ भागों में अठारह अध्याय) कृष्ण-स्मृति अष्टावक्र अष्टावक्र महागीता (छह भागों में) लाओत्से ताओ उपनिषद (छह भागों में) कबीर सुनो भई साधो कहै कबीर दीवाना कहै कबीर में पूरा पाया न कानों सुना न आंखों देखा (कबीर व फरीद) महावीर महावीर वाणी (दो भागों में ) जिन सूत्र (दो भागों में ) महावीर या महाविनाश महावीर : मेरी दृष्टि में ज्यों की त्यों धरि दीन् हीं चदरिया 457 बुद्ध एस धम्मो सनंतनो (बारह भागों में) जगजीवन नाम सुमिर मन बावरे अरी, मैं तो नाम के रंग छकी दरिया कानों सुनी सो झूठ स अमी झरत बिगसत कंवल सुंदरदास हरि बोलौ हरि बोल ज्योति से ज्योति जले पलटू वार सपना यह संसार काहे होत अधीर धरमदास जस पनिहार धरे सिर गागर का सोवै दिन रैन दादू सबै सयाने एक मत पिव पिव लागी प्यास मलूकदास कथोरे कांकर घ रामदुवारे जो मरे Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांडिल्य अथातो भक्ति जिज्ञासा (दो भागों में) अन्य रहस्यदर्शी भक्ति -सूत्र (नारद) शिव-सूत्र (शिव) भजगोविन्दम् मूढ़मते (आदिशंकराचार्य) एक ओंकार सतनाम (नानक) जगत तरैया भोर की (दयाबाई) बिन घन परत फुहार (सहजोबाई) पद धुंघरू बांध (मीरा) नहीं सांझ नहीं भोर (चरणदास) संतो, मगन भया मन मेरा (रज्जब) कहै वाजिद पुकार (वाजिद) मरौ हे जोगी मरौ (गोरख) सहज-योग (सरहपा-तिलोपा) बिरहिनी मंदिर दियना बार (यारी) दरिया कहै सब्द निरबाना (दरियादास बिहारवाले) प्रेम-रंग-रस ओढ़ चदरिया (दूलन) हंसा तो मोती चुर्ग (लाल) गुरु-परताप साध की संगति (भीखा) मन ही पूजा मन ही धूप (रैदास) झरत दसहुं दिस मोती (गुलाल) जरथुस्त्रः नाचता-गाता मसीहा (जरथुस्त्र) जो बोलें तो हरिकथा बहुरि न ऐसा दांव ज्यूं था त्यूं ठहराया ज्यूं मछली बिन नीर दीपक बारा नाम का अनहद में बिसराम लगन महूरत झूठ सब सहज आसिकी नाहिं पीवत रामरस लगी खुमारी रामनाम जान्यो नहीं सांच सांच सो सांच आपुई गई हिराय . बहुतेरे हैं घाट कोंपलें फिर फूट आई फिर पत्तों की पांजेब बजी फिर अमरित की बूंद पड़ी क्या सोवै तू बावरी चल हंसा उस देस कहा कहूं उस देस की पंथ प्रेम को अटपटो माटी कहै कुम्हार सूं मैं धार्मिकता सिखाता हूं, धर्म नहीं झेन, सूफी और उपनिषद की कहानियां बिन बाती बिन तेल सहज समाधि भली दीया तले अंधेरा तंत्र प्रश्नोत्तर नहिं राम बिन ठांव प्रेम-पंथ ऐसो कठिन उत्सव आमार जाति, आनंद आमार गोत्र मृत्योर्मा अमृतं गमय प्रीतम छवि नैनन बसी रहिमन धागा प्रेम का उड़ियो पंख पसार सुमिरन मेरा हरि करें पिय को खोजन मैं चली साहेब मिल साहेब भये संभोग से समाधि की ओर तंत्र-सूत्र (पांच भागों में) योग पतंजलिः योग-सूत्र (पांच भागों में) योगः नये आयाम 458 Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचार - पत्र क्रांति - बीज पथ के प्रदीप पत्र - संकलन अंतर्वीणा प्रेम की झील में अनुग्रह के फूल ढाई आखर प्रेम का पद घुंघरू बांध प्रेम के फूल प्रेम के स्वर पाथेय ध्यान, साधना ध्यानयोगः प्रथम और अंतिम मुक्ति नेति नेति चेति सकै तो चेति हसिबा, खेलिबा, धरिबा ध्यानम् समाधि कमल साक्षी की साधना धर्म साधना के सूत्र मैं कौन हूं समाधि के द्वार पर अपने माहिं टटोल ध्यान दर्शन तृषा गई एक बूंद से ध्यान के कमल जीवन संगीत जो घर बारे आपना प्रेम दर्शन अंतरंग वार्ताएं संबोधि के क्षण प्रेम नदी के तीरा सहज मिले अविनाशी उपासना के क्षण 459 बोध कथा मिट्टी के दीये साधना शिविर साधना-पथ मैं मृत्यु सिखाता हूं जिन खोजा तिन पाइयां समाधि के सप्त द्वार (ब्लावट्स्की) साधना -सूत्र (मेबिल कॉलिन्स) ध्यान - सूत्र जीवन ही है प्रभु असंभव क्रांति रोम-रोम रस पीजिए राष्ट्रीय और सामाजिक समस्याएं देख कबीरा रोया स्वर्ण पाखी था जो कभी और अब है भिखारी जगत का शिक्षा में क्रांति नये समाज की खोज नये भारत की खोज नये भारत का जन्म नारी और क्रांति शिक्षा और धर्म भारत का भविष्य विविध अमृत-कण मैं कहता आंखन देखी एक एक कदम जीवन क्रांति के सूत्र जीवन रहस्य करुणा और क्रांति विज्ञान, धर्म और कला शून्य के पार प्रभु मंदिर के द्वार पर Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तमसो मा ज्योतिर्गमय प्रेम है द्वार प्रभु का अंतर की खोज की दिशा वर्षा अमृत अमृत अमृत द्वार चित चकमक लागे नाहिं एक नया द्वार प्रेम गंगा समुंद समाना बंद में सत्य की प्यास शून्य समाधि व्यस्त जीवन में ईश्वर की खोज अज्ञात की ओर धर्म और आनंद जीवन-दर्शन जीवन की खोज क्या ईश्वर मर गया है नानक दुखिया सब संसार ये मनुष्य का धर्म धर्म की यात्रा स्वयं की सत्ता सुख और शांति अनंत की पुकार ओशो के आडियो-वीडियो प्रवचन एवं साहित्य के संबंध में समस्त जानकारी हेतु संपर्क सूत्र: साधना फाउंडेशन, 17 कोरेगांव पार्क, पुणे 411001 फोन: 0212-628562 फैक्स : 0212-624181 हिंदी (मासिक पत्रिका) अंग्रेजी (त्रैमासिक पत्रिका) ओशो टाइम्स... विश्व का एकमात्र शुभ समाचार-पत्र एक प्रति का मूल्य 15 रुपये 55 रुपये वार्षिक शुल्क 150 रुपये 200 रुपये अधिक जानकारी हेतु संपर्क सूत्र: ताओ पब्लिशिंग प्रा.लि., 50 कोरेगांव पार्क, पुणे 411001 फोन: 0212-628562 फैक्स: T: 0212-624181 460 Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्ध पर बोल सकता हूं; महावीर पर बोल सकता हूं; कृष्ण पर, क्राइस्ट पर, लाओत्सू पर, कबीर पर, नानक पर। मेरे काम का ढंग सारे जगत के प्रज्ञापुरुषों ने जो कहा है, उसकी एक गंगा बना देना है।... मेरे काम करने का ढंग ऐसा है कि जो मेरे भीतर हुआ है, उसके माध्यम से समस्त इतिहास में जब-जब यह घटना घटी है, मैं उस सबका साक्षी हो जाना चाहता हूं। मेरा काम समग्र अतीत को इस क्षण में पुकार लेना है।... मेरी बात का एक लाभ है कि हिंदू आ सकता है, मुसलमान आ सकता है, ईसाई आ सकता है; जरा भी अड़चन नहीं है। इस मंदिर में सारे द्वार हैं। सारे द्वार मैंने इस मंदिर में इकट्ठे कर लिए हैं। यह एक महान समन्वय का प्रयास मेरे वक्तव्यों में कोई एक सिद्धांत नहीं है। जो सिद्धांत पकड़ने आया है, वह तो चला जाएगा। मैं तो सारे सिद्धांतों का सार बोल रहा हूं। इस सार को हृदय से ही समझा जा सकता है। -ओशो Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुद अपना उदाहरण देकर ओशो ने एक आजादी हमारे दिलों और दिमागों को दी है। एक पूरे दौर को उन्होंने मुक्ति दे दी है। इस मरी हुई दुनिया में उन्होंने जान डाल दी है, इसकी नसों में प्यार बहाकर। मैं तो बार-बार यही कहता हूं कि हमें धन्यवाद देना चाहिए इस आदमी का, जो यह अनमोल पूंजी युगों-युगों के बच्चों के लिए छोड़ गया है। डा. मुल्कराज आनंद सुप्रसिद्ध लेखक व समीक्षक A REDEL BOOK ISBN 81-7261-120-X