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+ अदृश्य की खोज >
का बनाया हुआ परमात्मा होगा। उससे परमात्मा का कोई भी संबंध और यहां से वृक्ष शुरू होता है। कोई डिसकंटिन्यूटी नहीं है। दोनों नहीं है।
के बीच सातत्य कहीं भी नहीं टूटता। कहां जड़ें समाप्त होती हैं और धार्मिक आदमी दुस्साहसी है। दुस्साहस उसका यह है कि जैसा कहां वृक्ष शुरू होता है? है, ऐज इट इज़, वह उसे स्वीकार करता है। वह कहता है, यह भी ___ अगर कोई जोर से आपको पकड़ ले, तो आप मुश्किल में पड़ तेरा और यह भी तेरा। जन्म भी तेरा और मृत्यु भी तेरी। दोनों के जाएंगे। ऐसे आप जानते हैं कि जड़ें अलग और वृक्ष अलग। वृक्ष लिए मैं राजी हूं।
ऊपर और जडें भीतर। लेकिन अगर कोई जिद करे और कहे कि इसलिए कृष्ण अर्जुन को कहते हैं, प्रलय भी मैं, सृजन भी मैं। ठीक-ठीक बताइए, कहां से होती है जड़ शुरू ? और कहां से होता दोनों ही मैं हूं।
है वक्ष शरू? तो आप बहत मश्किल में पड़ जाएंगे। ऐसी कोई विरोधों को आत्मसात करने की यह घोषणा वेदांत का सार है। | जगह आप न खोज पाएंगे। वृक्ष और जड़ एक है। अविरोध पैदा होता है फिर। और जब जीवन की दृष्टि अविरोध की लेकिन जिस आदमी ने सिर्फ वृक्ष देखा और जड़ें नहीं देखीं, होती है, तो आपके भीतर अविरोधी हृदय का जन्म होता है। जो उससे कहना पड़ेगा कि यह जो तुझे दिखाई पड़ रहा है, यह
आपके परमात्मा का रूप होगा, वही आपके हृदय का रूप बन ऊपर-ऊपर है। एक और भी है जो नीचे है, जो सबको सम्हाले हुए जाएगा। आपका हृदय ढलता है उसी रूप में, जिस रूप में आप है, वह जड़ है। परमात्मा को स्वीकार करते हैं। तोड़कर नहीं, जोड़कर, इकट्ठा, | न दिखाई पड़ने वाले आदमी से कहना पड़ता है कि जो तुझे सबको लिए हुए।
| दिखाई पड़ रहा है, वह अपरा है, वह नीचे का जगत है, स्थूल जगत और जब सुबह आपके पैर में कांटा गड़े, तो यह मत सोचना कि | | है, इंद्रियों का जगत है। और एक जगत है परा का, जो तुझे दिखाई शैतान ने गड़ाया। तब उसको भी सोचना कि परमात्मा ने गड़ाया; नहीं पड़ रहा है। हम तुझे उस तरफ ले चलते हैं। लेकिन जिस दिन
और परमात्मा ने आपको इस योग्य समझा कि कांटा गड़ाया, उसके | दिखाई पड़ेगा, उस दिन दोनों जगत एक हो जाएंगे। उस दिन दोनों लिए भी धन्यवाद दे देना।
| के बीच एक सातत्य। और जिस दिन फूल के लिए ही नहीं, कांटे के लिए भी परमात्मा | फिर जो फर्क है, वह ऐसा ही है जैसे वृक्ष के ऊपर होने का और को कोई धन्यवाद दे पाता है, उस दिन उसे मंदिरों में जाने की | जड़ों के नीचे होने का है। फिर भी फर्क तो है। फर्क तो है। अगर जरूरत नहीं रह जाती। वह जहां है, वहीं मंदिर आ जाता है। जड़ें उखाड़कर फेंक दें, तो वृक्ष न बचेगा। वृक्ष उखाड़कर फेंक दें,
तो जड़ें बचेंगी, और जड़ों से फिर वृक्ष पैदा हो जाएगा।
| फर्क नहीं है सातत्य में, लेकिन फर्क मल शक्ति में है। जडे प्रश्नः भगवान श्री, एक छोटा-सा प्रश्न है। यदि सत्य | ज्यादा शक्तिशाली हैं; उनके पास जीवन की केंद्रीय ऊर्जा है। वृक्ष अद्वैत है, तो अपरा और परा को भिन्न कहने का क्या केवल फैलाव है। अगर ठीक से समझें, तो जड़ें एसेंशियल हैं, और अर्थ है? और क्या अपरा और परा आपस में वृक्ष नान-एसेंशियल है। क्योंकि जड़ों का होना वृक्ष के बिना भी परिवर्तनशील हैं?
हो सकता है, लेकिन वृक्ष का होना जड़ों के बिना नहीं हो सकता। फिर भी दोनों एक हैं। वह जो आखिरी पत्ता है वृक्ष का, वह भी जड़
का ही फैला हुआ हाथ है। वह भी जड़ ही है फैल गई आकाश तक। सत्य एक है, लेकिन जिन्हें पूरा सत्य दिखाई पड़ता है | । नहीं जानते हैं जो, अज्ञान में हैं जो, जिन्हें परमात्मा की समग्रता रा उन्हें। जिन्हें नहीं दिखाई पड़ता, उनके लिए एक नहीं का कोई भी पता नहीं, कृष्ण उनके लिए विभाजन कर रहे हैं। सब
है। उन्हें जो दिखाई पड़ता है, अंधों को जो दिखाई विभाजन बच्चों के लिए किए जाते हैं। सत्य तो अविभाज्य है। पड़ता है, उसका नाम, अपरा। हम जो नहीं जानते, हमें जो दिखाई लेकिन अविभाज्य सत्य की कोई शिक्षा नहीं दी जा सकती। शिक्षा पड़ता है, आधा-आधा। वृक्ष और जड़ तो एक हैं। आप कहीं वह देने के लिए विभाजन करना पड़ता है। कहीं से तो शुरू करना रेखा न खींच पाएंगे, जहां आप कहें कि यहां से जड़ शुरू होती है, पड़ेगा, वन हैज टु बिगिन समव्हेअर। और जहां से भी शुरू करेगा,
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