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4 गीता दर्शन भाग-3
कीमत चुकानी पड़ती है। बिना कीमत कुछ भी नहीं मिलता, न रिकग्नीशन, प्रत्यभिज्ञा नहीं होती। उसे थोड़ा कष्ट देना ही पड़ेगा। मिलना चाहिए। क्योंकि बिना कीमत कुछ मिल जाए, तो खतरा इसलिए भी कष्ट देना पड़ेगा, ताकि उसे पता हो, जो उसे उपलब्ध यही है कि आप पहचान भी न पाएं कि आपको क्या मिला है। हो रहा है, वह आसान नहीं है, तपश्चर्या है। और इसलिए भी कष्ट
एक छोटी-सी घटना मुझे स्मरण आती है। नंदलाल बंगाल के देना होगा कि अभी उसकी और भी संभावना है। यह चित्र आखिरी एक बहुत अदभुत चित्रकार हुए। रवींद्रनाथ ने एक संस्मरण लिखा | नहीं है। अभी इससे बेहतर भी निकल सकता है। अगर वह मेरी है नंदबाबू के संबंध में कि जब नंदलाल बड़े चित्रकार नहीं थे, सिर्फ | आंखों में जरा-सा भी प्रशंसा का भाव देख लेता, तो यह अंतिम हो विद्यार्थी थे और अवनींद्रनाथ ठाकुर के पास पढ़ते थे। अवनींद्रनाथ | जाता। इसके आगे फिर नहीं निकल सकता था। एक दूसरे बड़े चित्रकार थे। अवनींद्रनाथ के पास पढ़ते थे। परमात्मा भी हमसे बड़ी संभावनाओं और अपेक्षाओं में है-बड़ी
एक दिन रवींद्रनाथ अवनींद्रनाथ के पास बैठे हैं। नंदलाल कृष्ण संभावनाओं में। इसलिए जल्दी प्रकट नहीं हो जाता। तपश्चर्या है, की एक तस्वीर बनाकर लाए। रवींद्रनाथ ने लिखा है कि मैंने अपने मूल्य चुकाना पड़ता है। और हम पर उसकी आस्था इतनी है, जितनी जीवन में कृष्ण की इतनी सुंदर तस्वीर नहीं देखी। बड़े से बड़े हममें से किसी की भी उस पर आस्था नहीं है। इसलिए तो हजार दफे . चित्रकारों ने बनाई है, लेकिन नंदलाल ने जो बनाई थी, वह बात ही भूल करते हैं, फिर भी माफ हुए चले जाते हैं। हजार जन्म लेते हैं, कुछ और थी। मैं तो एकदम विमुग्ध हो गया। मेरे मन में खयाल व्यर्थ गंवा देते हैं, फिर जन्म मिल जाता है। लेकिन खोजे बिना नहीं उठा कि अवनींद्रनाथ कितने प्रसन्न न होंगे, उनके विद्यार्थी ने कैसी मिलेगा। और खोज जब भी शरू होती है. तो जिसे हम खोजने जाते अदभुत तस्वीर बनाई है!
हैं, उससे उलटी चीजें पहले हाथ आती हैं। लेकिन अवनींद्रनाथ ने वह तस्वीर हाथ में उठाकर दरवाजे के __अगर मैं आपके पास परमात्मा खोजने गया, तो पहले आप बाहर फेंक दी और नंदलाल से कहा कि इसको चित्र कहते हो? | | मिलेंगे, जो कि परमात्मा नहीं हैं। पहले आपका शरीर मिलेगा, जो इसको कला कहते हो? शर्म नहीं आती? बंगाल में जो पटिए होते | कि निराकार नहीं है। फिर आपका मन मिलेगा, जो कि हजार हैं, जो दो-दो पैसे का कृष्ण-पट बनाकर जन्माष्टमी के समय बेचते | गंदगियों से भरा है। और अगर मैं इनको पार करने की सामर्थ्य नहीं हैं, अवनींद्रनाथ ने कहा कि तुमसे अच्छा तो बंगाल के पटिए बना | रखता हूं, तो मैं आपके बाहर से ही लौट आऊंगा और आपके उस लेते हैं!
| मंदिर के अंतर्कक्ष से वंचित ही रह जाऊंगा, जहां प्रभु विराजमान रवींद्रनाथ ने लिखा है कि मुझे जैसे किसी ने छाती में छुरा भोंक है। मैं कांटों से ही लौट आया, फूलों तक पहुंच ही न पाया, यद्यपि दिया हो। यह तो अपेक्षित ही न था। मुझे खयाल आया कि सभी फूलों की सुरक्षा के लिए कांटे होते हैं। अवनींद्रनाथ के भी मैंने चित्र देखे हैं, इतना सुंदर कृष्ण का चित्र प्रभु को भजना समस्त भूतों में, इसका अर्थ है, चाहे कितना ही उनका भी कोई नहीं है। यह क्या हो रहा है। लेकिन बोलना ठीक न विपरीत कुछ क्यों न हो, चाहे बिलकुल शैतान क्यों न खड़ा हो; था। शिष्य और गुरु के बीच बोलना उचित भी न था। जहां शैतान खड़ा हो, समझना कि साधना का और भी शुभ अवसर
नंदलाल पैर छूकर विदा हो गए। वह तस्वीर साथ में उठाकर उपलब्ध हुआ है; वहां भी प्रभु को भजना, वहां स्मरण करना कि बाहर ले गए। चले जाने पर रवींद्रनाथ ने कहा कि क्या किया प्रभु है।
पिने? देखा-मन था कि अवनींद्रनाथ से लडेंगे, जझ पडेंगे: जिस रात जीसस को पकड़ा गया, तो जिस व्यक्ति ने जीसस को लेकिन जूझने की हिम्मत टूट गई-आंख उठाकर देखा, तो देखा, | | पकड़वाया, जुदास ने, यहूदा ने, तो जीसस ने जाने के पहले उसके अवनींद्रनाथ की आंखों से आंसुओं की धारा बह रही है। और पैर अपने हाथों से धोए। उसी आदमी ने पकड़वाया जीसस को; मुश्किल में पड़ गए। कहा कि आप रो रहे हैं! बात क्या है? | उसी ने दुश्मन को खबर दी। उसी ने तीस रुपए की रिश्वत में जीसस अवनींद्रनाथ ने कहा कि बड़ा कष्ट होता है, इतना सुंदर चित्र मैं भी की खबर दी कि जीसस कहां हैं। और विदा होने के पहले आखिरी बना नहीं सकता! तो रवींद्रनाथ ने कहा कि यही मैं सोचता था। फिर रात सबसे पहले जीसस ने यहूदा के पैर अपने हाथ से धोए। फिर फेंका क्यों है?
बाकी शिष्यों के भी पैर अपने हाथ से धोए। अवनींद्रनाथ ने कहा कि बिना मूल्य के कुछ भी मिल जाए, तो एक शिष्य ने पूछा भी कि आप यह क्या करते हैं? हम तो आपके
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