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________________ गीता दर्शन भाग-3 प्रभु है, तो कुत्ते को बिना घी की बाटी कैसे खाने दीजिएगा ! ये दोनों विरोधी बातें नहीं हैं, ये एक ही प्रभु के भजन में लीन चित्त के दो रूप हैं। और संगतिपूर्ण हैं; इनमें कोई विरोध नहीं है। असल में जो शंकर की पिंडी पर पैर रख सकता है, वही कुत्ते को राम कह सकता है। और जो कुत्ते को राम कह सकता है, वही शंकर की पिंडी पर पैर रख सकता है। यह शंकर की पिंडी पर पैर रखने का साहस, सामर्थ्य, उसी का है, जो कुत्ते के सामने सिर झुका और कुत्ते के सामने सिर झुकाने की, समर्पण की स्थिति उसी में हो सकती है, जो शंकर की पिंडी पर पैर रख सके। लेकिन हमारी कुछ उलटी स्थिति है। हमें जहां भी कुछ दिखाई पड़ता है, पहले संसार स्मरण आता है, पहले। अगर रास्ते में आप अकेले चले जा रहे हैं, और अंधेरे में एक आदमी निकल आता है, तो आपको पहले भला आदमी नहीं दिखाई पड़ता है। पहले कोई चोर, बदमाश, लुच्चा! आपका स्मरण ऐसा है, आपका भजन ऐसा चल रहा है ! और भगवान न करे कि आपके भजन की वजह से वह कहीं आदमी लुच्चा हो जाए। क्योंकि भजन प्रभाव तो करता ही है। आप जब दूसरे के प्रति एक दृष्टि लेते हैं, तो आप दूसरे को वैसा होने का मौका देते हैं। जब आप दूसरे के प्रति रुख लेते हैं, तो आप दूसरे को वैसा होने का अवसर देते हैं। इस जमीन पर हजारों लोग इसलिए बुरे हैं, क्योंकि उनके आस-पास हर आदमी उन्हें बुरा सोचने का मौका दे रहा है। आपको खयाल न होगा कि अगर आपको दस ऐसे आदमियों के बीच में रख दिया जाए, जो आपको भगवान मानते हों, तो आप चोरी करना बहुत मुश्किल पाएंगे कि अगर पकड़ा गए भगवान चोरी करते, तो क्या हालत होगी! अगर दस लोग आप पर भगवान जैसा भरोसा भी करते हों, आपको देखकर भगवान जैसा प्रणाम करते हों, तो अचानक आप पाएंगे कि आपकी संभावनाएं रूपांतरित होने लगीं। एक भी आदमी भरोसा कर ले, तो भी आपके भीतर कुछ नए का जन्म होता है। और एक भी आदमी अविश्वास कर दे, तो आपके भीतर शैतान की प्रतीति शुरू हो जाती है। जो दूसरे हमसे अपेक्षा करते हैं, हम उसे सिद्ध करने में लग जाते हैं। जाने-अनजाने जो हमें दूसरे सोचते हैं, हम वैसे ही हो जाते हैं। लेकिन हमें जब भी कोई दिखाई पड़ता है, तो हमें प्रभु का स्मरण नहीं आता, हमें संसार का ही स्मरण आता है। और संसार में भी जो बहुत क्षुद्र है, अंधकारपूर्ण है, अशुभ है, उसका ही स्मरण आता है। प्रभु का इस अर्थ में भजन गहरी बात है, आर्डअस, कठिन, तपश्चर्यापूर्ण है। इसका अर्थ यह है कि जहां भी रूप प्रकट हो, वहां | तत्काल स्मरण करना कि प्रभु है। और अगर ऐसा स्मरण बैठता चला जाए, तो धीरे-धीरे आप पाएंगे कि सच में सभी जगह प्रभु है । और धीरे-धीरे आप पाएंगे कि प्रभु के अतिरिक्त और कोई दिखाई पड़ना असंभव हो गया है। कृष्ण बहुत-सी विधियों की बात कर रहे हैं। यह भी एक विधि है। यह भी एक विधि है। एक सूफी फकीर हुआ है, हसन । संस्मरण लिखा है हसन ने अपना कि जब मंसूर को फांसी दी जाती थी, और लोग मंसूर पर | नुकीले पत्थर फेंक रहे थे, और मंसूर के शरीर से लहूलुहान धाराएं . |खून की बह रही थीं, तब हसन भी उस भीड़ में खड़ा था। मंसूर हंस रहा था, और हसन भीड़ में खड़ा था, और सारे लोग पत्थर फेंक रहे थे। हसन का इरादा नहीं था कि मंसूर पर पत्थर फेंके। लेकिन जिस भीड़ में खड़ा था, वह दुश्मनों की थी। और हसन की इतनी हिम्मत न थी - तब तक इतनी हिम्मत न थी - कि उस भीड़ में खड़ा रहे, जो दुश्मनों की है । कहीं कोई पहचान न ले कि यह आदमी पत्थर नहीं फेंक रहा है ! तो उसके हाथ में एक फूल था, उसने वह फूल फेंककर मंसूर को मारा। सिर्फ इस खयाल से कि लोग समझेंगे, मैं भी कुछ फेंककर मार रहा हूं। लेकिन मंसूर दूसरों के पत्थर खाकर तो प्रसन्न था, हसन का फूल | खाकर रोने लगा। हसन बहुत घबड़ाया। और हसन ने पूछा कि मेरी | समझ में नहीं आता ! लहूलुहान कर रहे हैं जो पत्थर, घाव कर रहे हैं जो पत्थर, उनकी चोट खाकर तुम हंसे चले जाते हो, और मैंने एक फूल मारा और तुम रोने लगे ? 226 मंसूर ने कहा कि मैं एक साधना में लगा रहा हूं सदा। वह साधना | मेरी यह रही है कि जब भी मुझे कोई दिखाई पड़े, तो मैं उसमें पहले परमात्मा देखूं । तो ये जो लोग मुझे पत्थर मार रहे हैं, इनमें तो मैं परमात्मा देख रहा था। लेकिन तुझे तो मैं समझता था कि तू परमात्मा है ही, इसलिए मैंने देखने की कोशिश न की । तुझे तो मैं समझता था, तू ज्ञान को उपलब्ध है ही, इसलिए तुझे परमात्मा देखने की क्या कोशिश! इनके साथ तो मैं भजन में रत था। ये पत्थर फेंक रहे थे और मैं परमात्मा देख रहा था। लेकिन जब फूल फेंका, तो मैं चूक गया। तेरे से मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि तेरे बाबत भी परमात्मा होना मैं पहले सोचूं ! तुझे तो मैं परमात्मा मानता
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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