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- अहंकार खोने के दो ढंग -
जेवर, जिनकी बदलाहट से कोई बदलाहट दुनिया में नहीं होती। से कभी देखा। हां, कभी-कभी नए कांबिनेशन बना लेते हैं। उससे कोई बुनियादी बदलाहट स्त्रियां पसंद नहीं करतीं। स्त्रियां बहुत कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन सब पुराना ही रहता है। उस पुराने को रेसिस्टेंट, बहुत प्रतिरोधी शक्ति की तरह बदलाहट के खिलाफ हम फिर जुगाली करने लगते हैं, जैसे जानवर जुगाली करते हैं न! खड़ी रहती हैं। कोई बदलाहट!
लेकिन जानवर की जुगाली सिर्फ भोजन के लिए होती है। और लेकिन पुरुष बदलाहट के लिए बहुत आतुर रहता है। ऊपरी | हमारी जुगाली भोजन के लिए तो नहीं होती, विचारों के लिए होती बदलाहट के लिए बहुत आतुर नहीं रहता। कपड़े वह जिंदगीभर है। जानवर खाना खा लेता है, फिर निकाल-निकालकर चबाता एक से पहने रह सकता है, इससे अड़चन नहीं आती। उसकी समझ रहता है बैठकर। भैंस को कभी देखें, तो समझ में आएगा। खाए के बाहर है कि बहुत कपड़े बदलने की क्या जरूरत है! वह एक ही हुए खाने को फिर-फिर से खाती रहती है। हम भी गृहीत किए गए, ढंग के कपड़े जिंदगीभर पहने रह सकता है, कोई अड़चन नहीं | ग्रहण किए गए संस्कारों को फिर-फिर दोहराते रहते हैं।
आती। लेकिन किसी गहरी बुनियादी बदलाहट के लिए वह आतुर __आंख बंद करके बैठ जाएं, दिवास्वप्न शुरू हो जाएगा। फिल्म रहता है कि चीजों का कोई गहरा रूप बदल जाए। क्योंकि गहरा |चढ़ गई पर्दे पर। वह जो हमने देखा है, जाना है, वह फिर-फिर रूप बदले, तो वह अनेक जीवन एक जीवन में जी सके। दोहरने लगेगा।
स्त्री गहरी बदलाहट नहीं चाहेगी, वह एक ही जीवन की एक न; इससे भी हटना पड़ेगा। अन्यथा आंख की खिड़की से आप तारतम्यता को पसंद करेगी। एक सुर उसके व्यक्तित्व का है। यह न हटे। यह जो भीतर विचार की दुनिया जारी हो जाती है, इसके भी साइक, चित्त का भेद है। इस चित्त के भेद के अनुसार अध्यात्म में | समझना कि मैं पार हूं, इससे भी पार हूं, इससे भी भिन्न हूं। इससे भी गति करते वक्त खयाल रखना जरूरी है।
| भी दूर खड़े होकर देखना कि ये विचार चल रहे हैं, मैं देखने वाला 'हां, अगर कोई स्त्री एग्रेसिव हो, आक्रामक हो, जैसा कि कुछ | हूं। और अगर तीन महीने कोई इस स्मरण में ठहर जाए, कि ये जो स्त्रियां होती हैं, तो उनके लिए अनेक में एक को देखना आसान विचार चल रहे हैं, ये दूर हैं, और मैं देखने वाला हूं...। पड़ेगा। कोई पुरुष रिसेप्टिव हो, जैसा कि कुछ पुरुष होते हैं, ग्राहक और निश्चित ही आप देखने वाले हैं, आप विचार नहीं हैं। आप हो, एग्रेसिव न हो, आक्रामक न हो, तो उसके लिए एक में अनेक | विचार होते, तो आपको कभी पता ही न चलता कि विचार चल रहे को देखना आसान होगा। कैसे देखेंगे?
हैं। क्योंकि यह उसे ही पता चल सकता है, जो दूर खड़ा है। चाहे दो में से कुछ भी करें, एक काम तो दोनों को करना पड़ेगा आपने रात जाकर फिल्म देखी है सिनेमागृह में। अगर आप कि इंद्रियों के पार उठने की चेष्टा करनी पड़ेगी। आंख से बहुत फिल्म ही होते, तो देखता कौन? आप फिल्म नहीं हैं। आप कुर्सी देखा, कभी आंख बंद करके देखें। एक खयाल रखें, आंख से तो पर बैठे हुए हैं। बिलकुल अलग। लेकिन अंधेरा है कमरे में। खुद बहुत देखा, रूप के अतिरिक्त कुछ न पाया। खिड़की से बहुत दिखाई नहीं पड़ते, फिल्म ही दिखाई पड़ती है। और फिल्म ऐसी देखा, अब खिड़की से हटकर देखें।
ग्रिप बांध लेती है मन पर कि कभी-कभी दर्शक भूल ही जाता है लेकिन डर यह है कि हमारी आदतें ऐसी कंडीशंड, ऐसी | कि वह है भी। वह करीब-करीब अभिनय का पात्र हो जाता है। संस्कारित हो जाती हैं कि जब हम आंख बंद करते हैं, तब भी हम लोगों के रूमाल गीले निकलते हैं सिनेमागृह से; आंसू पोंछ-पोंछ
आंख से ही देखते रहते हैं। बंद आंख में भी आंख से ही देखते | कर आ गए हैं! रहते हैं।
कभी पीछे लौटकर सोचा है कि पर्दे पर कुछ भी न था, जिसके __ आंख ने हजार-हजार संस्कार इकट्ठे कर रखे हैं खिड़की से | लिए आप रोते थे। सिर्फ छाया और धूप का खेल था। तब मन में देखने के। वही संस्कार आंख री-प्ले करती है, फिर से फिल्म को | बड़ी बेचैनी होगी कि मैं भी कैसा नासमझ हूं! वहां कुछ था नहीं। चढ़ा देती है। और हमारे मस्तिष्क का ढंग ठीक टेप रिकार्डर जैसा । | सिर्फ विद्युत के दौड़ते हुए रूप थे। कोई जीवन भी न था वहां, है; उसमें कुछ भेद नहीं है। हमारे मस्तिष्क में प्रत्येक चीज अंकित | | लेकिन भ्रम जीवन का हो जाता है। भ्रम जीवन का हो जाता है। भूल है, वह अंकित चीज हम फिर से खोलकर देखने लगते हैं। जाते हैं अपने को, फिल्म सब कुछ हो जाती है, खुद खो जाते हैं।
आंख बंद करके हम वही देखने लगते हैं, जो हमने खुली आंख | और सिनेमागृह में तो तीन घंटे बैठते हैं, उसमें इतनी गड़बड़ हो