SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ← कृष्ण का संन्यास, उत्सवपूर्ण संन्यास हैं, मजबूरी में! लेकिन वह अस्थायी उपाय होता है। इसलिए जिस आदमी ने आपसे सिर झुकवा लिया, उसको आपसे सदा सावधान रहना चाहिए। क्योंकि आप कभी इसका बदला चुकाएंगे। जिस आदमी ने कभी आपके सामने सिर झुकाया हो, अब उससे जरा बचकर रहना। आपने एक दुश्मन बना लिया है। वह आपसे बदला लेगा। क्योंकि सिर मन मर्जी से नहीं झुकाता। सिर मन बड़ी बेमर्जी झुकाता है। और प्रतीक्षा करता है कि कब मौका मिल जाए। कब मौका मिल जाए कि मैं भी इस सिर को झुकवा लूं! जब तक मन है, तब तक सिर नहीं झुक सकेगा। और जहां मन नहीं है, वहां सिर झुका ही हुआ है। वहां खड़ा हुआ सिर भी झुका हुआ है। कृष्ण जब कहते हैं, संकल्प न रहे, तो वे यह कह रहे हैं कि भीतर वह अहंकार न रह जाए, जो क्रिस्टलाइज करता है सब संकल्पों को। भीतर मैं का स्वर जारी रहता है चौबीस घंटे। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप मैं न बोलें। न! न बोलने से काम नहीं चलेगा, बोलना तो पड़ेगा ही । लेकिन जब आप बोलते हों कि मैं, तब भी जानें कि भीतर कोई मैं सघन न हो पाए। भीतर कोई मैं मजबूत न हो पाए। मैं यह सिर्फ शब्द में रहे, भाषा में रहे, व्यवहार में रहे, भीतर गहरा न हो पाए। लेकिन हमारी हालत उलटी है। हम अक्सर बाहर से मैं का उपयोग न भी करें, तो भी भीतर मैं मौजूद रहता है! बार्ड करके एक विचारक है। उसने एक छोटा-सा अभ्यास विकसित किया है साधकों के लिए। और वह अभ्यास यह है कि दिन में तुम खयाल रखो कि कितनी बार मैं का उपयोग किया; इसे नोट करते रहो। तो हुबार्ड के साधक अपनी जेब में एक नोट बुक लिए रहते हैं और दिनभर वे आंकड़े लगाते रहते हैं कि कितना मैं का उपयोग किया। दंग रह जाते हैं देखकर कि दिनभर में इतना मैं ! इतनी बार मैं बोले ! फिर हुबार्ड कहता है, इसका होश रखो। होश रखने से मैं का उपयोग कम होता चला जाता है। आज सौ दफे हुआ। कल नब्बे दफे हुआ। दो-चार महीने में वह दो-चार दफे होता है । चार-छः महीने में वह शून्यवत 'जाता है। लेकिन तब साधक को पता चलता है कि मैं का उपयोग न भी करो, तो भी भीतर मैं खड़ा है। तब पता चलता है, तब खयाल में आता है कि मैं का उपयोग मत करो, तो भी मैं खड़ा है। रास्ते पर आप चले जा रहे हैं। कोई नहीं है, तो आप और ढंग 15 से चलते हैं। फिर दो आदमी रास्ते पर निकल आए, आपका मैं मौजूद हो गया। भीतर कुछ हिला; भीतर कुछ तैयार हो गया। टाई वगैरह उसने ठीक कर ली; कपड़े उसने ठीक किए; चल पड़ा। बाथरूम में आप होते हैं तब ? कल खयाल करना। बाथरूम में वही आदमी रहता है, जो बैठकखाने में रहता है? तब आपको पता | चलेगा कि बाथरूम में और कोई स्नान करता है; बैठकखाने में और | कोई बैठता है ! आप ही । आप ही जब बैठकखाने में होते हैं, तो कोई और होते हैं । आप ही जब बाथरूम में होते हैं, तो कोई और होते हैं। बाथरूम में कोई देख नहीं रहा है, इसलिए मैं को थोड़ी देर के लिए छुट्टी है। अभी इसकी कोई जरूरत नहीं, क्योंकि मैं का सदा दूसरे के सामने मजा है, दूसरे के सामने लिया गया मजा है। बाथरूम में छुट्टी दे देते हैं। लेकिन बाथरूम में अगर आईना लगा है, तो आपको जरा मुश्किल पड़ेगी। क्योंकि आईने में देखकर आप दो काम करते हैं। दिखाई पड़ने वाले का भी और देखने वाले का भी। दो हो जाते हैं, दो मौजूद हो जाते हैं आईने के साथ। आईने के सामने खड़े होकर फिर सब बदल जाता है। सूक्ष्म, भीतर, चौबीस घंटे बोलें, न बोलें, मैं की एक धारा सरक रही है। एक बहुत अंतर्धारा, अंडर करेंट है। उसके प्रति सजग होना जरूरी है। उसके प्रति सजग हो जाएं, तो धीरे-धीरे आप समझ सकते हैं कि वही धारा संकल्पों को पैदा करवाती है। क्योंकि बिना | संकल्प के वह धारा एक्चुअलाइज नहीं हो सकती। ऐसा समझें कि जैसे आकाश में भाप के बादल उड़ रहे हैं। जब तक उनको ठंडक न मिले, तब तक वे पानी न बन सकेंगे, आकाश में उड़ते रहेंगे। ठंडक मिले, तो पानी बन जाएंगे। और ठंडक मिले, तो बर्फ बन जाएंगे। ठीक हमारे मन में भी अंतर्धारा बड़ी बारीक बहती रहती है, भाप की तरह, अहंकार की । इस भाप की तरह बहने वाली अहंकार की | जो बदलियां हमारे भीतर हैं, उनका हमें तब तक मजा नहीं आता, जब तक कि वे प्रकट होकर पानी न बन जाएं। पानी ही नहीं, जब | तक वे बर्फ की तरह सख्त, जमकर दिखाई न पड़ने लगें सारी दुनिया को, तब तक हमें मजा नहीं आता। तो अहंकार ऐसे कर्म करेगा, जिनके द्वारा बादल पानी बन जाएं। ऐसे कर्म करेगा, जिनके द्वारा पानी सख्त बर्फ, पत्थर बन जाए; तब लोगों को दिखाई पड़ेगा। तो अगर आप अकेले हैं, तब आपके भीतर अहंकार बादलों की तरह होता है। जब आप दूसरों के साथ
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy