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________________ ← गीता दर्शन भाग-3 > तरफ जाते हुए जूतों की आवाज रास्तों पर लयबद्ध पड़ती है, इससे सुंदर संगीत मैंने कोई नहीं सुना । निश्चित ही, अहंकार अगर कोई संगीत बनाए, तो जूतों की लयबद्ध आवाज के अलावा और क्या संगीत बना सकता है ! अगर अहंकार कोई संगीत, कोई मेलोडी, अगर अहंकार कभी कोई मोजार्ट और बीथोवन पैदा करे, अगर अहंकार कभी कोई बड़ा संगीतज्ञ, तानसेन पैदा करे, तो अहंकार जो संगीत बनाएगा, वह जूतों की आवाज से ही निकलेगा। वह जो आर्केस्ट्रा होगा, उसमें जूतों के सिवाय कुछ भी नहीं होगा। संगीनें हो सकती हैं, जूते हो सकते हैं। संगीनों की चमकती हुई धार हो सकती है, जूतों की लयबद्ध आवाज हो सकती है। लेकिन नीत्शे ठीक कहता है। संकल्प का यही परिणाम है, संकल्प का यही अर्थ है। वह अहंकार की बेतहाशा पागल दौड़ है। कृष्ण कहते हैं, लेकिन संकल्प जहां है...। इसलिए बहुत से लोगों को - यह मैं आपको इंगित करना उचित समझंगा - बहुत से लोगों को यह भ्रांति हुई है कि नीत्शे और कृष्ण के दर्शन में मेल है। क्योंकि नीत्शे भी युद्धवादी है और कृष्ण भी अर्जुन को कहते हैं, युद्ध में तू जा। इससे बड़ी भ्रांति हुई है। लेकिन उन्हें पता नहीं कि दोनों की जीवन की मूल दृष्टि बहुत अलग है ! कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि तू युद्ध में जाने के योग्य तभी होगा, जब तेरा कोई संकल्प न रहे। तू युद्ध में जाने के योग्य तभी होगा, जब तेरी कोई कामना न रहे। तू युद्ध में जाने की तभी योग्यता पाएगा, जब तू न रहे। संन्यासी की तरह युद्ध में जा । कृष्ण का युद्ध धर्मयुद्ध है। बहुत और ही अर्थ है उसका। और जब नीत्शे कहता है कि युद्ध में जा, तो वह कहता है, युद्ध का अर्थ | ही है, दूसरे को नष्ट करने की आकांक्षा। युद्ध का अर्थ ही है, स्वयं को सिद्ध करने का प्रयास । युद्ध का अर्थ ही है कि मैं हूं, और तुझे नहीं रहने दूंगा। युद्ध एक संघर्ष है अहंकार की घोषणा का । तो जिन लोगों ने भी नीत्शे और कृष्ण के बीच तालमेल बिठालने की कोशिश की है, वे एकदम नासमझी से भरे हुए वक्तव्य हैं। नीर और कृष्ण के बीच कोई तालमेल नहीं हो सकता, बिलकुल बिपरीत लोग हैं। शर्तें उनकी अलग हैं। कृष्ण अर्जुन को युद्ध पर भेज सकते हैं, जब अर्जुन बिलकुल शून्यवत हो जाए। और अगर शून्य लड़ेगा, तो अधर्म के लिए नहीं लड़ सकता। अधर्म के लिए लड़ने के लिए शून्य को क्या कारण है? शून्य अगर लड़ेगा, तो धर्म | के लिए ही लड़ सकता है। क्योंकि धर्म स्वभाव है। और शून्य | स्वभाव में जीने लगता है। वह स्वभाव से लड़ सकता है। इसलिए कृष्ण ने अगर अर्जुन को इस युद्ध के लिए कहा कि तू जा युद्ध में, तो युद्ध में जाने के पहले बड़ी शर्तें हैं उनकी। वे शर्तें | अर्जुन पूरी करे, तो ही युद्ध की पात्रता आती है। वह शर्तें पूरी कर दे, तो अर्जुन में कुछ भी नहीं रह जाता जो अर्जुन का है, अर्जुन परमात्मा का हाथ बन जाता है। जो भी ये शर्तें पूरी कर देगा, वह परमात्मा का हाथ हो जाता है। वह एक सिर्फ बांस की पोंगरी हो गया, जिसमें गीत प्रभु का होगा अब । वह तो सिर्फ खाली जगह है, जिससे गीत बहेगा - एक पैसेज, एक मार्ग, एक जगह, एक रास्ता। बस, इससे ज्यादा नहीं। संकल्प सब छोड़ दे कोई । और संकल्प तभी छोड़ेगा, जब इच्छाएं छोड़ दे। इसलिए पहले सूत्र में कृष्ण ने कहा, इच्छाएं न हों। तब दूसरे सूत्र में कहते हैं, संकल्प न हों। अगर इच्छाएं होंगी, तो संकल्प तो पैदा होंगे ही। इच्छाएं जहां होंगी, वहां संकल्प भी आरोपित होंगे। संकल्प का अर्थ है, जिस इच्छा ने आपके अहंकार में जड़ें पकड़ लीं, जिस इच्छा ने आपके अहंकार को अपना सहयोगी बना लिया, जिस इच्छा ने आपके अहंकार को परसुएड कर लिया, फुसला लिया कि आओ मेरे साथ, चलो मेरे पीछे, मैं तुझे स्वर्ग पहुंचा देती | अहंकार जिस इच्छा के पीछे चलकर स्वर्ग पाने की खोज करने लगा, वही संकल्प है। इसलिए पहले सूत्र में कहा, इच्छाएं न हों; दूसरे सूत्र में कहा, संकल्प न हों; तब संन्यास है। तो संन्यास का अर्थ संकल्प नहीं है। संन्यास का अर्थ समर्पण है - समर्पण, सरेंडर | मंदिर में तो जाकर हम भी परमात्मा के चरणों में सिर रख देते हैं। लेकिन जरा गौर से खोजकर देखेंगे, तो बहुत हैरान होंगे। यह शरीर वाला सिर तो नीचे रखा रहता है, लेकिन असली सिर पीछे खड़ा हुआ देखता रहता है कि मंदिर में और भी कोई देखने वाला है या नहीं ! अगर कोई देखने वाला होता है, तो मंत्रोच्चार जोर से होता है। अगर कोई देखने वाला न हो, तो जल्दी निपटाकर आदमी चला जाता है। वह असली अहंकार तो पीछे खड़ा रहता है। वह परमात्मा के चरणों में भी सिर नहीं झुकाता है। | असल में, हमारे जीवन का सारा ढंग सिर झुकाने का नहीं है। | जीवन का सारा ढंग सिर को अकड़ाने का है। कभी-कभी झुकाते 14
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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