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________________ < गीता दर्शन भाग-3 श्रीमद्भगवद्गीता कृष्ण का संन्यास अंतरात्मा के रूपांतरण पर, इनर ट्रांसफार्मेशन अथ षष्ठोऽध्यायः पर जोर देता है। कर्म को छोड़ना बहुत कठिन नहीं है। आलसी भी कर्म को श्रीभगवानुवाच | छोड़कर बैठ जाते हैं। और इसलिए, अगर पुराने संन्यास की धारणा अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः। ने आलसियों को आकर्षित किया हो, तो बहुत आश्चर्य नहीं है। स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ।।१।। और इसलिए, अगर पुराने संन्यास की धारणा को मानने वाले श्रीकृष्ण भगवान बोले, हे अर्जुन, जो पुरुष कर्म के फल को समाज धीरे-धीरे आलसी हो गए हों, तो भी आश्चर्य नहीं है। जो न चाहता हुआ करने योग्य कर्म करता है, वह संन्यासी और कुछ भी नहीं करना चाहते हैं, उनके लिए पुराने संन्यास में बड़ा रस योगी है और केवल अग्नि को त्यागने वाला संन्यासी, योगी मालूम होता है। कुछ न करना कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है। नहीं है; तथा केवल क्रियाओं को त्यागने वाला भी संन्यासी, इस जगत में कोई भी कुछ नहीं करना चाहता है। ऐसा आदमी योगी नहीं है। खोजना मुश्किल है, जो कुछ करना चाहता है। लेकिन सारे लोग करते हुए दिखाई पड़ते हैं, इसलिए नहीं कि कर्म में बहुत रस है, बल्कि इसलिए कि फल बिना कर्म के नहीं मिलते हैं। हम कछ चाहते क ष्ण के साथ इस पृथ्वी पर एक नए संन्यास की धारणा हैं, जो बिना कर्म के नहीं मिलेगा। अगर यह तय हो कि हमें बिना १० का जन्म हुआ। संन्यास सदा से संसार-विमुख धारा | कर्म किए, जो हम चाहते हैं, वह मिल सकता है, तो हम सभी कर्म ८ थी-संसार के विरोध में, शत्रुता में। जीवन का छोड़ दें, हम सभी संन्यासी हो जाएं! लेकिन चाह पूरी करनी है, तो निषेध, कृष्ण के पहले तक संन्यास की व्याख्या थी; लाइफ कर्म करना पड़ता है। यह मजबूरी है, इसलिए हम कर्म करते हैं। .. निगेटिव था। जो छोड़ दे सब-कर्म को, गृह को, जीवन के सारे कृष्ण इससे उलटी बात कह रहे हैं। वे यह कह रहे हैं, कर्म तो रूप को निष्क्रिय हो जाए, पलायन में चला जाए, हट जाए तुम करो और फल की आशा छोड़ दो। हम कर सकते हैं आसानी जीवन से, वैसा ही व्यक्ति संन्यासी था। कृष्ण ने संन्यास को बहुत से, कर्म न करें और फल की आशा करें। जो आसान है, वह यह ' नया आयाम, एक न्यू डायमेंशन दिया। वह नया आयाम इस सूत्र | | मालूम पड़ता है कि हम कर्म तो न करें और फल की आशा करें। में कृष्ण अर्जुन से कहते हैं। और अगर कोई फल पूरा कर दे, तो हम कर्म छोड़ने को सदा ही __ अर्जुन के मन में भी यही खयाल था संन्यास का। अर्जुन भी यही तैयार हैं। कृष्ण इससे ठीक उलटी ही बात कह रहे हैं। वे यह कह सोचता था कि सब छोड़कर चला जाऊं, तो जीवन संन्यास को रहे हैं कि कर्म तो तुम करो ही, फल की आशा छोड़ दो। यह फल उपलब्ध हो जाएगा। अर्जुन भी सोचता था, कर्तव्य छोड़ दूं, करने की आशा छूट जाए, तो कृष्ण के अर्थों में संन्यास फलित होगा। योग्य है वह छोड़ दूं, कुछ भी न करूं, अक्रिय हो जाऊं, निष्क्रिय फल की आशा के बिना कर्म कौन कर पाएगा? कर्म करेगा ही हो जाऊं, अकर्म में चला जाऊं, तो संन्यास को उपलब्ध हो कोई क्यों? दौड़ते हैं, इसलिए कि कहीं पहुंच जाएं। चलते हैं, जाऊंगा। लेकिन कृष्ण ने उससे इस सूत्र में कहा है, फल की इसलिए कि कोई मंजिल मिल जाए। आकांक्षाएं हैं, इसलिए श्रम आकांक्षा न करते हए जो कर्म को करता है. उसे ही मैं संन्यासी | करते हैं; सपने हैं, इसलिए संघर्ष करते हैं। कुछ पाने को दूर कोई कहता हूं। उसे नहीं, जो कर्म को छोड़ देता है मात्र, लेकिन फल तारा है, इसलिए जन्मों-जन्मों तक यात्रा करते हैं। की आकांक्षा जिसकी शेष रहती है। जो बाह्य रूपों को छोड़ देता वह तारा तोड़ दो। कृष्ण कहते हैं, वह तारा तोड़ दो। नाव तो खेओ है, लेकिन अंतर जिसका पुराना का पुराना ही बना रह जाता है, उसे | | जरूर, लेकिन उस तरफ कोई किनारा है, उसका खयाल छोड़ दो। मैं संन्यासी नहीं कहता हूं। पहुंचना है कहीं, यह बात छोड़ दो; पहुंचने की चेष्टा जारी रखो। तो संन्यास की इस धारणा में दो बातें समझ लेनी जरूरी हैं। असंभव मालूम पड़ेगा। अति कठिन मालूम पड़ेगा। फिर नाव एक तो संन्यास का बहिर रूप है; लेकिन एक संन्यास की किसलिए चलानी है, जब कोई तट पर पहुंचना नहीं! अंतरात्मा भी है। पुराना संन्यास बहिर रूप पर बहुत जोर देता था। | | पर कृष्ण बहुत अदभुत बात कहते हैं। वे यह कहते हैं कि नाव
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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