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+गीता दर्शन भाग-3 →
एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय। जीवन में डूब जाता है। जो दिखाई पड़ता है, उसके भीतर जिसने अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ।।६।। जड़ों को खोजा, अदृश्य को खोजा, मनकों के भीतर धागे को
मत्तः परतरं नान्यत्किंचिदस्ति धनंजय । | खोजा, वह जीवन में धर्म की यात्रा पर निकल जाता है। मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ।।७।। | अदृश्य की खोज धर्म है और दृश्य में उलझ जाना संसार है। जो और हे अर्जुन, तू ऐसा समझ कि संपूर्ण भूत इन दोनों | दिखाई पड़ता है, उसको सब कुछ मान लेना संसार है। और जो प्रकृतियों से ही उत्पत्ति वाले हैं और मैं संपूर्ण जगत का | नहीं दिखाई पड़ता है, उसे दिखाई पड़ने वाले का भी मूल आधार उत्पत्ति तथा प्रलयरूप हूं, अर्थात संपूर्ण जगत का मूल्न जानना धर्म है। कारण हूं।
कष्ण इसमें दो-तीन बातें कहते हैं। एक तो वे अपने अदश्य रूप हे धनंजय, मेरे सिवाय किंचितमात्र भी दूसरी वस्तु नहीं है। | की बात करते हैं। वे कहते हैं, छिपा हुआ हूं मैं, दि हिडेन, गुप्त हूं यह संपूर्ण जगत सूत्र में सूत्र के मणियों के सदृश मेरे में | मैं, प्रकट नहीं हूं। और जो प्रकट है, वह केवल प्रकृति है। और वह गुंथा हुआ है।
जो प्रकट है, वह जो मैंने अष्टधा, आठ तरह की प्रकृति की बात . कही, उसका ही खेल है। वह सब मेरा बनाया हुआ खेल है। वे
सब मनके मैंने निर्मित किए हैं, मैं तो धागा ही हूं। ज गत प्रकट है, ऐसे ही जैसे माला के मनके प्रकट होते | __ अदृश्य है परमात्मा, इस सत्य के ऊपर इस सूत्र में जोर दिया है। UI हैं। परमात्मा अप्रकट है, वैसे ही जैसे मनकों में पिरोया | | हम सब निरंतर पूछते हैं, कहां है परमात्मा? कैसा है परमात्मा?
हुआ धागा अप्रकट होता है। पर जो अप्रकट है, उसी | | जब भी हम ऐसे सवाल उठाते हैं, तो हम गलत सवाल उठाते हैं। पर प्रकट सम्हला हुआ है। जो नहीं दिखाई पड़ता उसी पर, जो | और जो भी इन गलत सवालों के जवाब देता है, वे जवाब सवालों दिखाई पड़ता है, आधारित है।
से भी ज्यादा गलत होते हैं। ये जो हमने सारी प्रतिमाएं खड़ी कर जीवन के आधारों में सदा ही अदृश्य छिपा होता है। वृक्ष दिखाई | | रखी हैं परमात्मा की, ये हमारे प्रश्नों के जवाब हैं, जो हमने पूछे हैं, पडता है. जडें दिखाई नहीं पड़ती हैं। फल दिखाई पड़ते हैं. पत्ते कहां है। तो हमने प्रतिमाएं बना ली हैं बताने को. कि यह रहा।' दिखाई पड़ते हैं, जड़ें पृथ्वी के गर्भ में छिपी रहती हैं-अंधकार में, लेकिन ध्यान रखना, जो मूर्ति में उलझा, वह इस अदृश्य की अदृश्य में। पर उन अदृश्य में छिपी जड़ों पर ही प्रकट वृक्ष की | खोज पर न निकल पाएगा। हां, अगर मूर्ति सिर्फ द्वार बनती हो जीवन की सारी लीला निर्भर है।
अमूर्त का, अगर वृक्ष केवल जड़ों की सूचना बनता हो, और मनके यदि हम ऊपर से ही देखें, तो शायद समझें कि फूलों में प्राण | अगर धागे की खबर लाते हों, तब तो ठीक है। अन्यथा मनकों में होंगे; तो शायद हम समझें कि पत्तों में प्राण होंगे; तो शायद हम | जो उलझा, वह धागे से वंचित रह जाएगा। समझें कि वृक्ष की शाखाओं में प्राण होंगे। ऊपर से जो देखेगा, उसे | | और मजे की बात यह है कि हर मनके में धागा मौजूद है। हर ऐसा ही दिखाई पड़ेगा। लेकिन प्राण तो उन जड़ों में हैं, जो नीचे | मूर्ति में भी अमूर्त मौजूद है। हर पत्थर में भी अमूर्त मौजूद है। वह अंधकार में, अदृश्य में छिपी और दबी हैं।
जो दिखाई पड़ रहा है, सब जगह न दिखाई पड़ने वाला मौजूद है। इसलिए कोई पत्तों को तोड़ डाले, फूलों को तोड़ डाले, शाखाओं | लेकिन वह न दिखाई पड़ने वाला उसी को स्मरण में आएगा, जो को काट डाले-वृक्ष का अंत नहीं होता। फिर नए अंकुर फूट जाते दिखाई पड़ने वाले से थोड़ा भीतर प्रवेश करे। हैं, फिर नए पत्ते आ जाते हैं, फिर नए फूल खिल जाते हैं। लेकिन दिखाई पड़ने वाला मैं नहीं हूं, कोई जडों को काट डाले. तो वक्ष का अंत हो जाता है। फिर पराने कृष्ण कहते हैं, जो दिखाई पड़ता है वह प्रकृति है। फूल भी मौजूद हों, तो थोड़ी ही देर में कुम्हला जाते हैं और पुराने | दिखाई पड़ता है, इससे क्या अर्थ है? दिखाई पड़ने से अर्थ है, पत्ते भी थोड़ी ही देर में पतझड़ को उपलब्ध हो जाते हैं। इंद्रियों की पकड़ में आता है जो। चाहे आंख से दिखाई पड़े, चाहे
जीवन का विराट रूप भी ऐसा ही है। जो दिखाई पड़ता है, | कान से सुनाई पड़े, चाहे हाथ से स्पर्श हो जाए। जो भी इंद्रियों की जिसने भूल से यह समझ लिया कि वही प्राण है, वह अधार्मिक पकड़ में आता है, वह, वह प्रकृति है। और जो इंद्रियों के पार रह
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