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गीता दर्शन भाग - 3 >
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः । सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ।। ३१ । । इस प्रकार जो पुरुष एकीभाव में स्थित हुआ संपूर्ण भूतों में आत्मरूप से स्थित मुझ सच्चिदानंदघन वासुदेव को भजता है, वह योगी सब प्रकार से बर्तता हुआ भी मेरे में बर्तता है।
कृ
ष्ण इस सूत्र में अर्जुन को सब भूतों में प्रभु को भजने के संबंध में कुछ कह रहे हैं। भजन का एक अर्थ तो हम जानते हैं, एकांत में बैठकर प्रभु के चरणों में समर्पित गीत; एकांत में बैठकर प्रभु के नाम का स्मरण; या मंदिर में प्रतिमा के समक्ष भावपूर्ण निवेदन । लेकिन कृष्ण एक और ही रूप का, और ज्यादा गहरे रूप का, और ज्यादा व्यापक आयाम का सूचन कर रहे हैं। वे कहते हैं कि जो व्यक्ति समस्त भूतों में मुझ सच्चिदानंद को भजता है ! क्या होगा इसका अर्थ ?
इसका अर्थ होगा, जब भी कुछ आपको दिखाई पड़े, तब स्मरण करें कि वह परमात्मा है। राह पर पड़ा हुआ पत्थर हो, कि आकाश से गुजरता हुआ बादल हो, कि सुबह उगता हुआ सूरज हो, कि आपके बच्चे की आंखें हों, कि आपका मित्र हो, कि आपका शत्रु हो, जो भी आपको मिले, उसके मिलन के साथ ही जो पहला स्मरण आपके प्राणों में प्रवेश करे, वह यह हो, यह भी प्रभु है। तब सच्चिदानंद रूप को हम समस्त भूतों में भज रहे हैं, ऐसा कहा जा सकेगा।
रास्ते पर वृक्ष मिल जाए, कि गाय मिल जाए, कि नदी बहती हो — जो भी — जो भी आकार मिले कहीं जीवन में, उन समस्त आकारों में उस निराकार का स्मरण । इसके पहले कि हमें पता चले कि पत्थर है, पता चल जाए कि परमात्मा है। तो भजन हुआ, कृष्ण के अर्थों में।
इसके पहले कि मैं आपको देखूं और समझं कि आप आदमी हैं, उसके पहले मुझे पता चल जाए कि आप परमात्मा हैं। आदमी का होना पीछे प्रकट हो। निराकार की स्मृति पहले आ जाए, आकार पीछे निर्मित हो। मैं पीछे पहचानूं कि आप कौन हैं; पहले तो यही पहचानूं कि परमात्मा है। तो समस्त भूतों में प्रभु को भजा गया, ऐसा कहा जा सके।
एकांत में भजन बहुत आसान है, क्योंकि आप अकेले हैं। प्रतिमा के सामने भी भजन बहुत आसान है, क्योंकि बहुत ठीक से
समझें, तो फिर भी आप अकेले हैं। लेकिन जीवन के सतत प्रवाह में, जहां न मालूम कितने रूपों में लोग मिलेंगे; जहां कोई छुरा लिए हुए छाती पर खड़ा हो सकता है, वहां भी पहले स्मरण आ जाए कि प्रभु छुरा लिए हुए खड़ा है, तो फिर प्रभु का भजन हुआ।
जीवन में जहां घना संघर्ष है, जहां तनाव है, अशांति है, जहां शत्रुता भी फलित होती है, वहां पहला स्मरण यही आए कि प्रभु है । पीछे पहचानें रूप को, पहले अरूप की पहचान हो जाए। ऐसे | अरूप को प्रतिपल देखने की जो साधना है, उसका नाम कृष्ण इस सूत्र में कह रहे हैं, प्रभु को भजना ।
जीवंत साधना तो ऐसी ही होगी। जीवंत साधना कोनों में बंद होकर नहीं होती, जीवन के विराट घनेपन में होती है। जीवंत साधना द्वार बंद करके नहीं होती, जीवंत साधना तो मुक्त आकाश के नीचे होती है। द्वार तो हम इसीलिए बंद करते हैं कि बाहर जो है, वह परमात्मा नहीं है; वह कहीं भीतर न आ जाए ! मंदिर में तो हम इसीलिए जाते हैं कि मकान में परमात्मा को देखना कठिन पड़ेगा। | लेकिन वह साधना संकुचित है, बहुत सीमित है; उसके भी प्रयोजन और अर्थ हैं। लेकिन कृष्ण इस सूत्र में जिस विराट साधना की खबर दे रहे हैं, वह बहुत और है।
सुना है मैंने, एक आदमी था महाराष्ट्र में । घोर नास्तिक था । साधु-संतों के पास जाता, तो साधु-संत बड़ी मुश्किल में पड़ जातें । क्योंकि यह दुर्भाग्य की घटना है कि नास्तिक भी हमारे तथाकथित साधु-संतों से ज्यादा समझदार होते हैं।
साधु-संत मुश्किल में पड़ जाते। उस नास्तिक को जवाब देते उनसे न बन पड़ता। वह जो भी पूछता, उन साधु-संतों को बेचैन | कर जाता। साधु-संत होना चाहिए ऐसा कि जिसे कोई बेचैन न कर | जाए; बल्कि बेचैनी से भरा कोई पास आए, तो चैन लेकर जा सके। लेकिन वह नास्तिक बहुत-से साधु-संतों के लिए तकलीफ और परेशानी का कारण बन गया था। बड़े-बड़े साधुओं के पास जाकर भी उसने पाया कि उसके प्रश्नों का उत्तर नहीं है।
तब एक साधु ने उससे कहा कि तू इधर-उधर मत भटक। तेरे लायक सिर्फ एक ही आदमी है, एकनाथ नाम का तू उसके पास | चला जा । अगर उससे उत्तर मिल जाए, तो ठीक। नहीं तो फिर परमात्मा से ही उत्तर लेना। फिर बीच में दूसरा आदमी काम नहीं पड़ेगा। उस आदमी ने कहा, लेकिन परमात्मा तो है ही नहीं! तो उस | साधु ने कहा, फिर एकनाथ आखिरी आदमी है। उत्तर मिल जाए, ठीक; न मिले, तो तू जान ।