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गीता दर्शन भाग-3
क्लिगिंग! सोना तो था नहीं, इसलिए सोने को आप दोष नहीं दे क्योंकि मूल्य भी मेरे मन में था। कीमत भी मेरी, भय भी मेरा, दोनों सकते। सोना तो था नहीं झोले में, इसलिए सोने को कसूरवार नहीं मेरी ईजादें, और मैं परेशान था! मुझे प्रभु को धन्यवाद दे लेने दे। ठहरा सकते। पत्थर का टुकड़ा था, लेकिन मन में सोना था। मन | | जीवन में थोड़ा तलाश करें। पदार्थ को दिए गए मूल्य हमारे में तो पकड़ थी सोने की।
मूल्य हैं। थोड़ा खोज करें। पदार्थ की पकड़ हमारा दुख, हमारी एक क्षण तो बूढ़े के हृदय की धड़कन जैसे बंद हुई-हुई हो गई। चिंता, हमारा संताप, हमारी एंग्विश है। थोड़ा खोज करें। पदार्थ को फिर उसे भी हंसी आ गई यह सोचकर कि दो मील पत्थर को ढोया, पकड़-पकड़कर हम पागल हो गए हैं। इसको थोड़ा समझें। और नाहक डरे। युवक खिलखिलाकर हंस ही रहा था, वह भी आपके मन की पकड़ ढीली हो जाएगी। और वह दिन आ सकता खिलखिलाकर हंसा। झोले को वहीं पटक दिया। और कहा कि है कभी भी, जब उस बूढ़े की तरह रात आप देर तक भजन गाते रहें अब हम यहीं सो जाएं, अब तो कोई खतरा नहीं है।
और प्रभु को धन्यवाद दें कि पदार्थ से पकड़ छूट गई। अगर पत्थर का टुकड़ा मन में सोना हो, तो खतरा हो जाता है। । ___ उसी क्षण प्रतिक्रमण हो जाता है। इधर छूटा पदार्थ से हाथ, उधर और अगर सोने का टुकड़ा मन में पत्थर हो, तो आदमी बेखतरा हो प्रभु में प्रवेश हुआ। यह युगपत, साइमलटेनियस, एक साथ घट . जाता है। आप पर निर्भर है।
जाते हैं। प्रभु को खोजने जाने की जरूरत नहीं है, सिर्फ पदार्थ से और मजे की बात है कि सोने और पत्थर में कोई बुनियादी फर्क छूटने की जरूरत है। यहां जला दीया, वहां अंधेरा गया। ऐसे ही है नहीं। सब आदमी के बनाए हए डिसटिंक्शन हैं: सब आदमी के यहां जला प्रतिक्रमण, यात्रा लौटी पीछे की तरफ, वहां प्रभु से बनाए हुए भेद हैं; बिलकुल ह्यूमन, बिलकुल मानवीय। मिलन हुआ।
आदमी न हो जमीन पर, तो क्या आप सोचते हैं, सोना सिंहासन | तो कृष्ण कहते हैं, ऐसा व्यक्ति सतत आत्मा को परमात्मा में पर बैठेगा और पत्थर पैरों में ? इस भूल में न पड़ना। कोई सोने को | लगाए रखता है। नहीं पूछेगा। कोई पत्थर को छोटा नहीं मानेगा। हीरे-जवाहरात | जिसका पदार्थ से संबंध छूट जाता है, उसका सतत संबंध कंकड़ों के पास कंकड़ों जैसे ही पड़े रहेंगे।
परमात्मा से बन जाता है। बिना संबंध के तो हम रह नहीं सकते। आदमी को हटा लें पथ्वी से फिर एक कंकड में और एक हीरे अगर ठीक से समझें तो वी एक्झिस्ट इन रिलेशनशिप्स. हम में कोई फर्क है? कोई फर्क नहीं है! सब फर्क आदमी के मन के संबंधों में ही जीते हैं। अभी पदार्थों के संबंध में जीते हैं, जब पदार्थ दिए हुए हैं। सब फर्क आदमी के मन के दिए हुए हैं। सब ह्यूमन | का संबंध छूट जाता है, तो नए संबंधों का जगत शुरू होता है; हम इनवेनशंस हैं, आदमी के झूठे आविष्कार हैं। आदमी ने ही प्रभु के संबंध में जीने लगते हैं। और आत्मा निरंतर प्रभु में लगी आरोपित किए मूल्य, और फिर उन्हीं मूल्यों में बंधता और सोचता | रहती है। क्योंकि फिर तो इतना आनंद है उस तरफ कि एक क्षण और मुट्ठी बांधकर जीता है।
को भी भूलना मुश्किल है प्रभु को। फिर कुछ भी काम करते कृष्ण कहते हैं, पाप से जो मुक्त हो, वह प्रभु की तरफ गति कर रहें—फिर दुकान चलाते रहें, दफ्तर में काम करते रहें, मिट्टी खोदते पाता है, प्रभु की तरफ उन्मुख हो जाता है। पदार्थ से मुक्त हो मन, | रहें, पहाड़ तोड़ते रहें—जो भी करना हो, करते रहें। तो प्रभु की तरफ तत्काल लीन हो जाता है।
कबीर कहते थे कि फिर ऐसा हो जाता है...। कबीर से लोग त फिर वह साध आधी रात तक प्रभ के भजन गाता रहा। पछते होंगे। कबीर तो उन लोगों में से थे, जो पाप के बाहर हए और उस जवान ने कहा भी कि अब सो जाएं! पर उस बूढ़े साधु ने कहा | जिन्होंने प्रभु का दर्शन जाना। तो कबीर से लोग पूछते होंगे कि आप कि आज मुझे जीवन में जो दिखाई पड़ा है, वह कभी दिखाई नहीं | कपड़ा बुनते रहते दिनभर, फिर प्रभु का स्मरण कब करते हैं? पड़ा था। मुझे जरा प्रभु को धन्यवाद दे लेने दे। एक पत्थर सोने का __कबीर तो जुलाहे थे और जुलाहे ही बने रहे। वे छोड़कर नहीं धोखा दे गया! और मैं धोखा खाता रहा। तो मेरे मन में ही कहीं गए। जान लिया प्रभु को, फिर भी कपड़ा ही बुनते रहे, झीनी-झीनी खोट है। और अब अगर मेरे झोले में कोई सोना लटका दे, तो भी चदरिया बुनते रहे। रोज सांझ बेचने चले जाते बाजार में। लोग मैं पत्थर ही समझंगा। और अब मझे कभी खतरा होने वाला नहीं पूछते कि आप कभ बनते. कभी बाजार में बेचते, प्रभु का है। अब मैं कभी भयभीत न होऊंगा। क्योंकि भय मेरे मन में था, स्मरण कब करते हैं?
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