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________________ 4 गीता दर्शन भाग-3> यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः। सामान्य रह जाएं; कुनकुने रह जाएं, उबलते हुए न हों। यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते । । २२ ।। ___ कुनकुने दुख धीरे-धीरे हमारी आदत बन जाते हैं। इसलिए उनसे और परमेश्वर की प्राप्तिरूप जिस लाभ को प्राप्त होकर, | हमें कोई ज्यादा पीड़ा और परेशानी नहीं होती। विशेष दुख आते हैं, उससे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता है, और तो हम पीड़ित होते हैं। इसलिए मैं कहता हूं कि भीतर हमें आनंद भगवत्प्राप्ति रूप जिस अवस्था में स्थित हुआ योगी बड़े का कोई अनुभव नहीं है, इसलिए विशेष दुख हमें पीड़ित करते हैं। भारी दुख से भी चलायमान नहीं होता है। फिर अगर विशेष दुख रोज-रोज आने लगें, तो वे भी हमें पीड़ित नहीं करते। हम उनके भी आदी हो जाते हैं। और जिसे विशेष दुख | नहीं आए हैं, उसे साधारण दुख भी आ जाए, तो भी पीड़ित करता 7 भुको पाने की कामना पूरी हो जाए, तो फिर और कोई | है। दुख के प्रति हमारी संवेदनशीलता, दुख के आने पर धीमी होती प्र कामना पूरी करने को शेष नहीं रह जाती है। प्रभु में चली जाती है। प्रतिष्ठा मिल जाए, तो फिर किसी और प्रतिष्ठा का युद्ध के मैदान पर जाता है सैनिक, तो जब तक नहीं पहुंचा है कोई प्रश्न नहीं है। मिल जाए प्रभु, तो फिर न मिलने को कुछ बचता | युद्ध के मैदान पर, तब तक बहुत पीड़ित, चिंतित और परेशान रहता है, न पाने को कुछ बचता है। है। लेकिन मनोवैज्ञानिक हैरान हैं कि युद्ध के मैदान पर पहुंचने के कृष्ण इस सूत्र में कहते हैं कि जिसने प्रभु को उपलब्ध करने का | एक-दो दिन के बाद उसकी सब पीड़ा, सब चिंता विदा हो जाती लाभ पा लिया, उसे परम लाभ मिल गया। वैसा परम लाभ को । है! क्या, हो क्या जाता है? उपलब्ध व्यक्ति, महान से महान दुख से अविचलित गुजर जाता है। - जब रोज गिरते देखता है बम को अपने किनारे, रोज अपने मित्रों इसे थोड़ा समझें। असल में हम दुख से विचलित ही इसीलिए को दफनाए जाते देखता है, रोज आदमियों को मरते देखता है, होते हैं कि हमें आनंद का कोई अनुभव नहीं है। हम दुख से । सड़क पर लाशों से गुजरता है-दो-चार दिन में संवेदनशीलता विचलित ही इसीलिए होते हैं कि हमें आनंद का कोई अनुभव नहीं | | क्षीण हो जाती है। फिर वह जो युद्ध पर जाने से डर रहा था, वह है। यदि हमें आनंद का अनुभव हो, तो दुख से हम विचलित होंगे वहीं बैठकर-पास में हवाई जहाज दुश्मन के उड़ते रहते हैं, ही नहीं। असल में जैसे हम जीते हैं, हम दुख में ही जीते हैं। बमबारी करते रहते हैं—वह नीचे बैठकर ताश खेलता रहता है। लेकिन एक तो साधारण दुख है, जिसके हम आदी हो गए हैं। अगर आपको निरंतर दुख में रखा जाए, तो आप उस दुख के जब हम पर कोई असाधारण दुख आता है, जिसके हम आदी नहीं लिए आदी हो जाते हैं; फिर उसका आपको पता नहीं चलता। हम हैं, तो हम विचलित होते हैं। एक खास स्तर पर दुख के आदी हो गए हैं, और इसीलिए बहुत ध्यान रहे, हम साधारणतः दुख में ही जीते हैं। लेकिन साधारण अड़चन होती है। दुख में जीते हैं, इसलिए कोई विचलित होने का कारण नहीं आता। ___ जब पहली दफा पश्चिम के लोगों को पता चलता है हमारी जब असाधारण दुख आता है, तो चित्त कंपित होता है और हम | गरीबी का, तो उन्हें भरोसा नहीं आता कि इतनी गरीबी को हम सह विचलित हो जाते हैं। कैसे लेते होंगे! बगावत क्यों नहीं कर देते! आग क्यों नहीं लगा फ्रायड ने कहा है अपने अंतिम दिनों के संस्मरणों में, कि जैसा डालते! दुनिया को मिटा क्यों नहीं डालते! उन्हें खयाल भी नहीं कि मैं समझता हूं, उससे ऐसा प्रतीत होता है कि आदमी को हम कभी हम गरीबी के लंबे आदी हैं! गरीबी से हमें कोई विशेष पीड़ा नहीं दख से मक्त न कर सकेंगे। ज्यादा से ज्यादा हम इतना ही कर सकते | होती। सच तो यह है कि गरीब को गरीबी से कभी पीड़ा नहीं होती, हैं कि अति दुख आदमी पर न आएं; साधारण दुख आते रहें। | पड़ोस में कोई अमीर हो जाता है, तो पीड़ा शुरू होती है। गरीबी की अगर विज्ञान पूरी तरह सफल हो गया—जो कि संभव नहीं | तो आदत होती है। लाखों वर्ष तक हमारा शूद्र बिलकुल ही पशु के दिखाई पड़ता—मान लें, अगर विज्ञान किसी दिन पूरी तरह सफल तल पर जीया है। आदी हो गया था। सपने भी छोड़ दिए थे उसने; हो गया, तो भी आपको दुख से छुटकारा नहीं दिला पाएगा। हां, | | वह दुख के लिए राजी हो गया था। इतना ही कर पाएगा कि आपके ऊपर अति दुख न आने पाएं। दुख | | हम सब दुखी हैं, लेकिन सब एक-एक दुख की सीमा तक राजी 166
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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