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गीता दर्शन भाग-3>
भी जरूरत न थी। जरा से घाव उकसाने की जरूरत थी। जहर फैल चित्त की लौ जरा भी कंपित न हो। तू निष्कंप हो जा। जाता उसके भीतर। कहना था कि याद आता है वह दिन, जब - युद्ध के क्षण में किसी को योगी बनाने की यह चेष्टा बड़ी द्रौपदी को नग्न किया था! भूल गया वह क्षण, जब द्रौपदी को नग्न इंपासिबल है, बड़ी असंभव है। करने की चेष्टा के बीच तू सिर झुकाए बैठा था और तेरे ही सामने ये कृष्ण जैसे लोग सदा ही असंभव प्रयास में लगे रहते हैं। दुर्योधन अपनी जांघ को उघाड़कर थपथपा रहा था और द्रौपदी से उनकी वजह से ही जिंदगी में थोड़ी रौनक है; उनकी वजह से ही, कह रहा था, आ मेरी जांघ पर बैठ जा! वह क्षण तुझे याद है? | ऐसे असंभव प्रयास में लगे हुए लोगों की वजह से ही, जिंदगी में बस, इतना काफी होता। गीता कहने की कोई जरूरत न थी। कहीं-कहीं कांटों के बीच एकाध फूल खिलता है; और जिंदगी के अर्जुन कूद पड़ा होता।
उपद्रव के बीच कभी कोई गीत जन्मता है। असंभव प्रयास, दि लेकिन कृष्ण ने वह नहीं किया। उसको सिर्फ नशा देकर लड़ा | इंपासिबल रेवोल्यूशन, एक असंभव क्रांति की आकांक्षा है कि देने की बात न थी; सिर्फ चिंता से बचा देने की बात न थी; निश्चित अर्जन योगी होकर यद्ध में चला जाए। बनाने की, विधायक प्रक्रिया की बात थी।
दो बातें आसान हैं। अर्जुन को योगी मत बनाओ, बेहोश करो, . तो कृष्ण पूरी मेहनत यह कर रहे हैं कि वह चिंता के बाहर हो और भी भोगी बना दो-युद्ध में चला जाएगा। दूसरी भी बात जाए, इतना काफी नहीं; युद्ध में उतर जाए, इतना काफी नहीं; काफी संभव है, अर्जुन को योगी बनाओ-युद्ध को छोड़कर जंगल यह है कि वह योगारूढ़ हो जाए। जरूरी यह है कि वह योगस्थ हो चला जाएगा। ये दो बातें बिलकुल आसान और संभव हैं। ये जाए, वह योगी हो जाए। और योगी होकर ही युद्ध में उतरे, तो युद्ध बिलकुल पासिबल के भीतर हैं। दो में से कुछ भी करो। अर्जुन को धर्मयुद्ध बन सकेगा, अन्यथा युद्ध धर्मयुद्ध नहीं होगा। और भोग की लालच दो-युद्ध में लगा दो। अर्जुन को योगी
दुनिया में जब भी दो लोग लड़ते हैं, तो कभी ऐसा हो सकता है, बनाओ-जंगल चला जाए। थोड़ी-बहुत मात्रा का भेद होता है। कोई थोड़ा ज्यादा अधार्मिक, कृष्ण एक असंभव चेष्टा में संलग्न हैं। और इसीलिए गीता कोई थोड़ा कम अधार्मिक। लेकिन ऐसा मुश्किल से होता है कि एक बहुत ही असंभव प्रयास है। असंभव होने की वजह से ही एक धार्मिक हो और दसरा अधार्मिक। अधार्मिक होने में ही अदभतः असंभव होने की वजह से ही इतना ऊंचा. इतना मात्रा-भेद होता है। कोई नब्बे प्रतिशत अधार्मिक होता है, कोई | | ऊर्ध्वगामी है। वह असंभव प्रयास यह है कि अर्जुन, तू योगी भी पंचानबे प्रतिशत अधार्मिक होता है। लेकिन युद्ध हमेशा अधर्म बन और युद्ध में भी खड़ा रह। तू हो जा बुद्ध जैसा, फिर भी तेरे और अधर्म के बीच ही चलता है।
हाथ से धनुष-बाण न छूटे। कृष्ण एक अनूठा प्रयोग करना चाह रहे हैं; शायद विश्व के बुद्ध जैसा होकर बोधिवृक्ष के नीचे बैठ जाने में अड़चन नहीं है; इतिहास में पहला, और अभी तक उसके समानांतर कोई दूसरा कोई अड़चन नहीं है। लेकिन बुद्ध जैसा होकर युद्ध के क्षण में युद्ध प्रयोग हो नहीं सका। वह प्रयोग यह करना चाह रहे हैं, युद्ध को के मैदान पर खड़े रहने में बड़ी अड़चन है। और इसलिए वे सब द्वार एक धर्मयुद्ध बनाने की कीमिया अर्जुन को देना चाह रहे हैं। खटखटा रहे हैं। कहीं से भी अर्जुन को प्रकाश दिखाई पड़ जाए।
वे अर्जुन से कह रहे हैं, तू योगी होकर लड़; तू समत्वबुद्धि को इस सूत्र में वे कहते हैं, मित्र और शत्रु के बीच समबुद्धि, तो तू उपलब्ध होकर लड़; तू शत्रु और मित्र के बीच बिलकुल तटस्थ योग को उपलब्ध हो जाता है। होकर लड़; अपने और पराए के बीच फासला छोड़ दे। क्या होगा फल, इसकी चिंता न कर। इसकी ही चिंता कर कि क्या है तेरा चित्त! कौन मरेगा, कौन बचेगा, इसकी फिक्र मत कर। इसकी ही योगी युजीत सततमात्मानं रहसि स्थितः। फिक्र कर कि चाहे कोई मरे, चाहे कोई बचे, चाहे तू मरे या तू बचे, एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ।। १० ।। लेकिन मृत्यु और जन्म के बीच तुझे कोई फर्क न हो; तू समत्व को इसलिए उचित है कि जिसका मन और इंद्रियों सहित शरीर उपलब्ध हो जा। चाहे सफलता आए चाहे असफलता, चाहे विजय | जीता हुआ है, ऐसा वासनारहित और संग्रहरहित योगी आए और चाहे पराजय, तू दोनों को समभाव से झेल सके। तेरे |अकेला ही एकांत स्थान में स्थित हुआ निरंतर आत्मा को