SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ < गीता दर्शन भाग-3 - समझे तेकेपति जाग pom S प्रलोभन है की हमारी तैयारी है, उससे हम छूट नहीं सकते। सुख को छोड़ने। लेकिन हम प्रारंभ में सोना चाहते हैं। लोग कहते हैं, सुख की की हमारी तैयारी नहीं है। नींद। सुख एक नींद ही है। सुख में बहुत मुश्किल से कोई जागता मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि सुख की पीड़ा को समझें। सुख के पूरे रूप को समझें। हर सुख के पीछे छिपे हुए दुख को __दूसरा सूत्र स्मरण रखें कि जरूर जल्दी, आजकल में सुख | आएगा. तब सजग रहें कि दख पीछे खडा है. प्रतीक्षा कर रहा है। आपको फिर एक नए दख में गिरा देने का। जब तक सख के प्रति जरूर आजकल में सम्मान आएगा. तब चौंककर खडे हो जाएं: इतना होश न हो, तब तक आप किनारे पर खड़े न हो पाएंगे। लाओत्से को स्मरण करें कि अब यह आदमी अपमान का इंतजाम लाओत्से कहता था, जब भी कोई मेरा सम्मान करने आया, तो | किए दे रहा है। जल्दी कोई सिंहासन पर बैठने का मौका आएगा, मैंने कहा, मुझे माफ करो, क्योंकि मैं अपमान नहीं चाहता हूं। उस | | तब भाग खड़े हों। फिर दुख से आपकी कभी कोई मुलाकात न होगी। आदमी ने कहा, लेकिन हम सम्मान देने आए हैं! लाओत्से ने कहा, - और एक बार यह सूत्र आपकी समझ में आ गया कि सुख से तुम सम्मान देने आए हो, और अगर मैं सम्मान लेने को राजी हुआ, बचने की सामर्थ्य दुख से बचने की पात्रता है; और जिस दिन आप तो आस-पास गांव के कहीं अपमान निकट ही होगा। वह अपनी सख से बचने की सामर्थ्य जटा लेते हैं. दख से बचने की पात्रता यात्रा शुरू कर देगा। क्योंकि मैंने कभी सुना नहीं कि ये दोनों मिल जाती है, उसी दिन आनंद का द्वार खुल जाता है। जैसे ही अलग-अलग जीते हैं। ये पेयर है, जोड़ा है। ये साथ ही चलते हैं। सुख से कोई अपने को दूर खड़ा कर ले, वैसे ही चित्त की डोलती इनमें कभी डायवोर्स हुआ नहीं है। इनमें कभी कोई तलाक नहीं हुआ | | हुई लौ थिर हो जाती है। और जो सुख में नहीं डोला, वह दुख में है। ये सदा साथ ही खड़े रहते हैं। यह अनिवार्य जोड़ा है। तुम मुझ | कभी नहीं डोलेगा। पर कृपा करो। तुम मेरे अपमान को निमंत्रण मत दिलवाओ। तुम । ध्यान रखें, सुख में डोल गए, तो दुख में डोलना ही पड़ेगा। वह अपने सम्मान को वापस ले जाओ। अनिवार्य कंपन है, जो सुख के पैदा हुए कंपनों की परिपूर्ति करते लाओत्से को उस मुल्क के सम्राट ने धन-धान्य से भेंट देनी | हैं, कांप्लिमेंट्री हैं। जैसे घड़ी का पेंडुलम बाएं आपने घुमा दिया, चाही। लोगों ने कहा कि इतना बड़ा अदभुत फकीर तुम्हारे देश में तो वह दाएं जाएगा, जाना ही पड़ेगा। कोई उपाय नहीं है बचने का। और भीख मांगे, तुम्हारे लिए शोभा नहीं है। सम्राट खुद उपस्थित | सुख में कंपित हो गए, तो दुख में कंपित होना पड़ेगा। हुआ लाओत्से के झोपड़े पर, बहुत रथों में धन-धान्य, वस्त्र, । लेकिन हम सुख में कंपित होना चाहते हैं और दुख में कंपित आभूषण, सब लेकर, करोड़ों का सामान लेकर। लाओत्से ने कहा नहीं होना चाहते। इससे उलटा करना पड़े। सुख में कंपित न होना कि अभी मैं मेरा मालिक हूं, तुम मुझे नाहक भिखारी बना दोगे। चाहें, फिर आपको दुख छू भी नहीं सकेगा। सुख की खोज में रहें तुम अपना यह सब साज-सामान ले जाओ। और अगर तुम्हें मेरी | कि जब सुख मिले, तब होश से भर जाएं और देखें कि सुख मालकियत से कोई एतराज हो, तो मैं तुम्हारे राज्य की भूमि छोड़कर आपको कंपित तो नहीं कर रहा है। चला जाऊं। लेकिन तुम मुझे परेशान मत करो। राजा ने कहा कि कठिन नहीं है। बस, स्मरण करने की बात है। कठिन जरा भी क्या कहते हैं आप? मैं तो सुख देने आया था! लाओत्से ने कहा, | नहीं है। हमें खयाल ही नहीं है, बस इतनी ही बात है। हमें स्मृति अनंत जन्मों का अनुभव यह कहता है कि जो भी सुख देने आया, ही नहीं है इस बात की कि सुख ही हमारा दुख है। दुख को हम दुख वह दुख के अतिरिक्त कुछ दे नहीं गया। अब और धोखा नहीं। | समझते हैं, सुख को हम सुख समझते हैं; बस, वहीं भ्रांति है। और लेकिन जागना पड़े सुख में; जागना पड़े सम्मान में; जागना पड़े। | वह भ्रांति समूहगत है। व्यक्तिगत नहीं है, समूहगत है। वहां, जहां अहंकार को तृप्ति मिलती है; अहंकार के चारों तरफ जब आपका बेटा स्कूल से प्रथम कक्षा में उत्तीर्ण होकर घर फूल सज जाते हैं, वहां जागना पड़े। और वहां जागना सरल है, नाचता हुआ आए, तब आप जानना कि वह दुख की तैयारी कर रहा क्योंकि शुरुआत है वहां; अभी यात्रा शुरू होती है। दुख तो अंत | है। काश, मां-बाप बुद्धिमान हों, तो उसे कहें कि इतने सुखी होने है, सुख प्रारंभ है। और सदा जो प्रारंभ में सजग हो जाए, वह बाहर की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि जितना तू सुखी होगा, उतना ही हो सकता है। बीच में सजग होना बहुत मुश्किल हो जाता है। दुख दूसरे पलड़े पर रख दिया जाएगा, जो आजकल में लौट
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy