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गीता दर्शन भाग-3 -
तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः। दमन करता हुआ मालूम पड़ता है। लड़ता है शरीर से, क्योंकि ऐसा कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ।। ४६।। उसे प्रतीत होता है कि सब वासनाएं शरीर में हैं। अगर स्त्री को योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, शास्त्र के ज्ञान वालों से भी देखकर मन मोहित होता है, तो तपस्वी आंख फोड़ लेता है। सोचता श्रेष्ठ माना गया है, तथा सकाम कर्म करने वालों से भी | है कि शायद आंख में वासना है। और अगर कोई आदमी अपनी योगी श्रेष्ठ है, इससे हे अर्जुन, तू योगी हो । आंख फोड़ ले, तो हमें भी लगेगा कि ब्रह्मचर्य की बड़ी साधना में
लीन है।
पर आंखों के फूटने से वासना नहीं फूटती है। आंखों के चले न पस्वियों से भी श्रेष्ठ है, शास्त्र के ज्ञाताओं से भी श्रेष्ठ जाने से वासना नहीं जाती है। अंधे की भी कामवासना उतनी ही 1 है, सकाम कर्म करने वालों से भी श्रेष्ठ है, ऐसा योगी होती है. जितनी गैर-अंधे की होती है। अगर अंधों के पास
अर्जुन बने, ऐसा कृष्ण का आदेश है। तीन से श्रेष्ठ कामवासना न होती, तो अंधे सौभाग्यशाली थे; पुण्य का फल था कहा है और चौथा बनने का आदेश दिया है। तीनों बातों को उन्हें। जन्मांध जो है, उसकी भी कामवासना होती है; तो आंख फोड़ थोड़ा-थोड़ा देख लेना जरूरी है।
लेने से कोई कैसे कामवासना से मुक्त हो जाएगा? तपस्वियों से श्रेष्ठ कहा योगी को। साधारणतः कठिनाई मालूम लेकिन योगी? योगी आंख नहीं फोड़ता। आंख के पीछे वह जो पड़ेगी। तपस्वी से योगी श्रेष्ठ? दिखाई तो ऐसा ही पड़ता है | | ध्यान देने वाली शक्ति है, उसे आंख से हटा लेता है। साधारणतः कि तपस्वी श्रेष्ठ मालूम पड़ता है, क्योंकि तपश्चर्या रास्ते पर गुजरती है एक स्त्री, और मेरी आंखें उससे बंधकर रह प्रकट चीज है और योग अप्रकट। तपश्चर्या दिखाई पड़ती है और जाती हैं। अब दो रास्ते हैं। या तो मैं आंख फोड़ लूं; आंख फोड़ योग दिखाई नहीं पड़ता है। योग है अंतधिना, और तपश्चर्या है | | लूं, तो आप सबको दिखाई पड़ेगा कि आंख फोड़ ली गई। या मैं बहिधिना।
| आंख मोड़ लं; तो भी दिखाई पड़ेगा कि आंख मोड़ ली गई। या में अगर कोई व्यक्ति धूप में खड़ा है घनी, भूखा खड़ा है, प्यासा | | भाग खड़ा होऊ और कहूं कि दर्शन न करूंगा, देखूगा नहीं, तो भी खड़ा है, उपवासा खड़ा है, शरीर को गलाता है, शरीर को सताता आपको दिखाई पड़ जाएगा। लेकिन मेरी आंख के पीछे जो ध्यान है-सबको दिखाई पड़ता है। क्योंकि तपस्वी मूलतः शरीर से बंधा की ऊर्जा है, अगर मैं उसे आंख से हटा लूं, तो दुनिया में किसी को हुआ है। जैसे भोगी शरीर से बंधा होता है; दिखाई पड़ता है उसका नहीं दिखाई पड़ेगा, सिर्फ मुझे ही दिखाई पड़ेगा। इत्र-फलेल; दिखाई पड़ता है उसके शरीरों की सजावट; दिखाई योग अंतर-रूपांतरण है। पड़ते हैं गहने; दिखाई पड़ते हैं महल; दिखाई पड़ता है शरीर का भोगी भोजन खाए चला जाता है; जितना उसका वश है, भोजन सारा का सारा शृंगार। ऐसे ही तपस्वी का भी सारा का सारा किए चला जाता है। त्यागी भोजन छोड़ता चला जाता है। लेकिन शरीर-विरोध प्रकट दिखाई पड़ता है। लेकिन ओरिएंटेशन एक ही | योगी क्या करता है? योगी न तो भोजन किए चला जाता है, न है; दोनों का केंद्र एक ही है—भोगी का भी शरीर है और तथाकथित | भोजन का त्याग करता है; योगी रस का त्याग कर देता है, स्वाद तपस्वी का भी शरीर है।
का त्याग कर देता है। जितना जरूरी भोजन है, कर लेता है। जब हम चूंकि सभी शरीरवादी हैं, इसलिए भोगी भी हमें दिखाई पड़ | जरूरी है, कर लेता है। जो आवश्यक है, कर लेता है। लेकिन जाता है और त्यागी भी दिखाई पड़ जाता है। योगी को पहचानना स्वाद की वह जो लिप्सा है, वह जो विक्षिप्तता है, जो सोचती रहती मुश्किल है, क्योंकि योगी शरीर से शुरू नहीं करता। योगी शुरू है दिन-रात, भोजन, भोजन, भोजन, उसे छोड़ देता है। करता है अंतस से।
| लेकिन यह दिखाई न पड़ेगा। यह तो योगी ही जानेगा. या जो योगी की यात्रा भीतरी है, और योगी की यात्रा वैज्ञानिक है। बहुत निकट होंगे, वे धीरे-धीरे पहचान पाएंगे—योगी कैसे उठता, वैज्ञानिक इस अर्थों में है कि योगी साधनों का प्रयोग करता है, | कैसे बैठता, कैसी भाषा बोलता। लेकिन बहुत मुश्किल से पहचान जिनसे अंतस चित्त को रूपांतरित किया जा सके।
में आएगा। त्यागी केवल शरीर से लड़ता है शत्रु की भांति। तपस्वी केवल | | तपस्वी दिखाई पड़ जाएगा, क्योंकि तपस्वी का सारा प्रयोग
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