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घोड़े / नशे में डूबा सारथी/मालकियत के लिए श्रम करना जरूरी/ इंद्रियों की शक्ति का रूपांतरण / मालकियत की घोषणा / मालकियत का सूत्र-इंद्रियों से पृथक होने का बोध / इंद्रियों से अपना तादात्म्य क्षीण करना / इंद्रियां खिड़कियां हैं / इंद्रियां उपकरण हैं / उपकरणों को आत्मा न समझें / शरीर चलता है-मैं नहीं / शरीर खाता है-मैं नहीं / पृथकता बोध के बाद ही मालकियत की घोषणा संभव / हार्मोन्स से आंदोलित भावनाएं, वासनाएं / इंद्रियां मित्र हो जाती हैं, अगर आप मालिक हैं।
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ज्ञान विजय है ... 57
द्वंद्वों के बीच थिरता / उत्तेजना का कारण-सुख-दुख से तादात्म्य / सुख-दुखादि से बाहर रह जाने की कला–योग / सुख-दुख तो बुद्धपुरुषों को भी आते हैं / तादात्म्य-शून्य चेतना प्रभु में विराजमान / तादात्म्य-भूल नहीं, भ्रांति है / भूल व्यक्तिगत है / भ्रांति समूहगत होती है / रस्सी में सांप देखना भूल है / मैं मन हूं-यह भ्रांति है; बहुत गहरे अचेतन से आती है यह भ्रांति / असली कठिनाई है-सुख से तादात्म्य तोड़ने में / दुख से बचना
और सुख पकड़ना / दुखी लोगों की धर्म की तलाश / सुख बीज है और दुख फल / दुख से छूटना हो तो सुख से छूट जाएं / सुख एक प्रलोभन है | सुख एक नींद है / सुख में डोले-फिर दुख में डोलना पड़ेगा / सुख में जागें/ बच्चे को सुख से तादात्म्य करना न सिखाएं / चेतना कंपी-कि कमजोर हुई / समतावान व्यक्ति पराधीन नहीं बनाया जा सकता / परमात्मा को झेलने की पात्रता—निष्कंप हो जाना / हम क्षुद्र बातों से डांवाडोल हो जाते हैं । ताकत की नहीं समझ की जरूरत है / समझ से अहंकार गलता है / निष्कंप होना चरित्र है / प्रज्ञा से-समझ से-शील और समाधि फलित / आत्मा को जीतने का क्या अर्थ है? / स्वयं पर हमारा रत्तीभर वश नहीं है / जानना जीतना बन जाता है / ज्ञान विजय है / हमें इतना भी पता नहीं कि मैं कौन हूं / अज्ञानी के भीतर आत्मा होते हुए भी नहीं ही है / आत्मज्ञानी अभय हो जाता है / ज्ञान-विज्ञान से तृप्त हुआ जो / ज्ञान है-स्व को जानना / विज्ञान है-पर को जानना / कुतुहल अर्थात बचकाना मन / शिशु-सभ्यताएं विज्ञान को जन्म देती हैं और प्रौढ़-सभ्यता धर्म को / सब उत्तर कामचलाऊ हैं / अस्तित्व निरुत्तर है, इसीलिए रहस्य है / निष्प्रश्न चित्त तृप्त हो जाता है / निष्प्रश्न चित्त रहस्य से आत्मसात हो जाता है / धर्म है-न पूछकर जानने का ढंग / सब सवाल-जवाब बचकाने हैं / मौन में उतरना प्रौढ़ता है।
हृदय की अंतर-गुफा ...73
अपने-अपने मुख्य द्वंद्व में समता को साधना / सुख-दुख, यश-अपयश, मित्रता-शत्रुता / प्रत्येक व्यक्ति के बोध-तंतु भिन्न-भिन्न / मित्र और शत्रु में समभाव रखने के सूत्र / अपना कोई स्वार्थ या लक्ष्य न हो / जीवन एक काम नहीं-लीला है / समत्व-जब प्रेम पाने की आकांक्षा न बची हो / प्रेम चित्त का भोजन है / प्रेम की जरूरत है तो मित्र और शत्रु में भेद / प्रेम कोई सौदा नहीं है / प्रौढ़ व्यक्ति जो प्रेम मांगने नहीं जाता / पूंछ हिलानाः एक इनवेस्टमेंट / धनपति–जिसकी धन पर अब पकड़ न रही / जो प्रेम देता है-मांगता नहीं-वह सम्राट हुआ / समभाव हो, तो शत्रु भी परमात्मा का ही काम करता हुआ दिखेगा / अर्जुन का द्वंद्व-कि अपनों को कैसे मारें / अर्जुन युद्ध के संताप से पलायन चाहता है / कृष्ण चाहते हैं : अर्जुन योगारूढ़ होकर युद्ध में उतरे / युद्ध धर्म-युद्ध बन जाए / कृष्ण का असंभव प्रयास का अभियान / एकांत अर्थात स्वयं में होना / लोनलीनेस और अलोननेस में फर्क / चित्त से भीड़ का विसर्जन / दूसरों से रस लेना / भीतरी आकाश का एकांत / अंतर-गुहा में ही प्रभु का ध्यान संभव / हृदय की गुफा / आबरी मेनन की पुस्तक-दि स्पेस ऑफ दि इनर हार्ट / मैं भीतर कौन हूं? / शरीर और मन के पार मैं कौन हूँ? / छांदोग्य उपनिषद से इशारा मिला / आंतरिक शून्यता-एकांत-प्रभु-मिलन / जिसे जानते नहीं—उसका स्मरण कैसे करेंगे? / प्रभु-स्मरण की पूर्व-शर्त-समत्व / निष्कंप चित्त