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________________ 4 मन का रूपांतरण → है, क्योंकि सब सिद्धांत मन ही पैदा करता है और निर्मित करता है। | की टीका नहीं है। उसका कारण है। क्योंकि जो भी टीका निकाल अभी मैं एक महानगर में था। एक पंडित, बड़े सज्जन, भले रहा है, उसका सिद्धांत पहले से तय है, गीता को जानने के पहले आदमी। एक ही बुराई, कि पंडित। वे मुझे मिलने आए। मैंने उनसे | से तय है। और अपने सिद्धांत को वह गीता पर थोप देता है। जब पूछा, क्या कर रहे हैं आप जिंदगीभर से? उन्होंने कहा कि मेरा तो | कि कृष्ण का कोई सिद्धांत नहीं है। कृष्ण का कुछ सत्य जरूर है। एक ही काम है कि मैं जैन साधु-साध्वियों को सिद्धांत की शिक्षा और वह उस सत्य तक पहुंचाने के लिए किसी भी सिद्धांत का देता हूं। मैंने कहा, कितनों को दिया? उन्होंने कहा, सैकड़ों जैन | उपयोग कर सकते हैं। इसलिए वे भक्ति की भी बात करते हैं, ज्ञान साधु-साध्वियों को मैंने निष्णात किया है। शास्त्र का बोध दिया है। की भी, कर्म की भी, ध्यान की भी, योग की भी। वे सारी बात करते मैंने कहा, इतने सैकड़ों जैन साधु-साध्वी आपने बना दिए, लेकिन चले जाते हैं। ये सब सिद्धांत सिद्धांत की तरह विरोधी हैं, सत्य की आप अब तक साधु नहीं हुए? उन्होंने कहा, मैं तो नौकरी बजाता तरह अविरोधी हैं। सत्य की तरह कोई विरोध नहीं है, लेकिन हं। मैंने कहा, तो कभी सोचा कि नौकरी बजाने वाला पंडित जिन सिद्धांत की तरह भारी विरोध है। साधु-साध्वियों को पैदा किया होगा, वे किस हालत के होंगे? | इसलिए गीता पर जितना अनाचार हुआ है, ऐसा अनाचार किसी नौकर से भी गए-बीते होंगे! कितनी महीने की तनख्वाह मिलती है! | पुस्तक पर पृथ्वी पर नहीं हुआ है। क्योंकि एक सिद्धांत को मानने वे कहने लगे, ज्यादा नहीं देते। पैसा तो जैनियों पर बहुत है, लेकिन | वाला जब गीता की व्याख्या करता है, तो वह अपने सिद्धांत को डेढ़ सौ रुपए महीने से ज्यादा नहीं देते! मैंने कहा, तुमने जो सब सिद्धांतों की गर्दन काटकर गीता पर थोप देता है। एक गर्दन साधु-साध्वी पैदा किए, उनकी कीमत कितनी होगी? डेढ़ सौ रुपए | बचा लेता है। जो उसके सिद्धांत से कहीं मिलता है, उसको बचा महीने का मास्टर साधु-साध्वी पैदा कर रहा है। सिद्धांत की शिक्षा | लेता है। बाकी सब की गर्दन कलम कर देता है। गीता की हत्या हो दे रहा है! जाती है। मैंने कहा, जिन सिद्धांतों को तुम लोगों को समझाते हो, उनके गीता सिद्धांतवादी शास्त्र नहीं है, गीता एक सत्य की उदघोषणा सत्य का तुम्हें खुद कोई अनुभव नहीं हुआ? उसने कहा कि | है। सिद्धांत का मोह नहीं है। इसलिए विपरीत सिद्धांतों की एक बिलकुल नहीं। मैं तो अपने डेढ़ सौ रुपए के लिए करता हूं। साथ चर्चा है-एक साथ। गीता तर्क का शास्त्र नहीं है। अगर तर्क अगर अर्जुन किसी पंडित के पास होता, तो पंडित को हरा देता। का शास्त्र होता, तो कंसिस्टेंट होता, एक संगति होती उसमें। क्योंकि अर्जुन जो कह रहा है, वे जीवन की गहराइयां हैं। हमारी | गीता जीवन का शास्त्र है। जितना विरोधी जीवन है, उतनी ही ऐसी उलझन है। लेकिन कृष्ण के साथ कठिनाई है, क्योंकि कृष्ण विरोधी गीता है। जितना जीवन पोलर है, स्वविरोधी है, उतने ही कोई सिद्धांत की बात नहीं कर रहे, सत्य की बात कर रहे हैं। गीता के वक्तव्य स्वविरोधी हैं। इसलिए अर्जुन कितनी ही कठिनाइयां उठाए, वे सत्य के सामने और कृष्ण से ज्यादा तरल आदमी, लिक्विड आदमी खोजना एक-एक जड़ सहित उखड़कर गिरती चली जाएंगी। उसने उचित कठिन है। वे कहीं भी बह सकते हैं। पत्थर की तरह नहीं हैं कि बैठ कठिनाई उठाई है। मनुष्य की वह कठिनाई है। मनुष्य के मन की गए एक जगह। पानी की तरह बह सकते हैं। या और भी उचित कठिनाई है। लेकिन जिस आदमी के सामने उठाई है. उसे सिद्धांतों होगा कि भाप की तरह हैं। बादल की तरह कोई : में कोई रस नहीं है। हैं। कोई ढांचा नहीं है। इसीलिए गीता में एक अभूतपूर्व घटना घटी है कि गीता में कृष्ण __इसलिए अर्जुन दिक्कत में पड़ता जाता है। अपनी ही शंकाएं ने इतने सिद्धांतों का उपयोग किया है कि दुनिया में जितने सिद्धांत | उठाकर दिक्कत में पड़ता जाता है। क्योंकि उसकी प्रत्येक शंका हो सकते हैं, करीब-करीब सबका। और इसलिए सभी सिद्धांतवादी | उसके मन की सूचना देती है कि वह कहां खड़ा है। इस प्रश्न ने पंडितों को गीता बड़े काम की मालूम पड़ी है, क्योंकि सब अपने अर्जुन की स्थिति को बहुत साफ किया है। मतलब की बात गीता से निकाल सकते हैं। इसीलिए तो गीता पर | । अर्जुन को मन के ऊपर किसी चीज का उसे कोई अनुभव नहीं है। इतनी टीकाएं हो सकी हैं। एकदम एक-दूसरे से विरोधी! | तर्क-बुद्धि उसके पास गहरी है। सोचता-समझता है, लेकिन भाव लेकिन उन टीकाओं में एक भी कृष्ण को समझने की सामर्थ्य के जगत में उसका कोई प्रवेश नहीं है। नियम की बात करता है, 243
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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