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________________ गीता दर्शन भाग-3 > तो यह तो हमें, यह सिलोजिज्म, यह तर्क- वाक्य तो ठीक मालूम पड़ता है कि मन चंचल है, मधुसूदन, इसलिए, देअर फोर, ठहर नहीं सकता। यह तो बिलकुल तर्कयुक्त मालूम पड़ता है। लेकिन मैं आपसे कहता हूं, यह तर्कयुक्त है, लेकिन सत्य नहीं है। सत्य वचन तो यह होगा कि चूंकि मन चंचल है, मधुसूदन, इसलिए, देअरफोर, ठहर सकता है। यह सत्य होगा। क्योंकि आदमी जीवित है, इसलिए मर सकता है। अगर आपने कहा, चूंकि आदमी जीवित है, इसलिए नहीं मर सकता, तो गलत होगा। अगर आपने कहा कि आदमी स्वस्थ है, इसलिए बीमार नहीं पड़ सकता, तो गलत है। अगर आप कहें कि आदमी स्वस्थ है, इसलिए बीमार पड़ सकता है, तो ठीक है। असल में स्वस्थ आदमी ही बीमार पड़ता है। अगर आप इतने बीमार हो जाएं कि डाक्टर कह दे, स्वास्थ्य रत्तीभर नहीं बचा, फिर आप बीमार न पड़ सकेंगे, ध्यान रखना । मरा हुआ आदमी कभी बीमार पड़ते देखा है आपने? आप कह सकते हैं कि यह मुर्दा बीमार पड़ गया ? मुर्दा बीमार पड़ता ही नहीं। पड़ ही नहीं सकता। जिंदा ही बीमार पड़ सकता है। स्वास्थ्य हो, तो ही आप बीमार पड़ सकते हैं। असल में बीमारी का पता ही इसलिए चलता है कि स्वास्थ्य का भी पता चलता है। यह पोलर है, यह ध्रुवीय है। पर अर्जुन को इस सत्य का कोई बोध नहीं है। हम जैसा ही उसका मन है। जिस तर्क-विधि से हम चलते हैं, उसी तर्क-विधि से वह चलता है। हम कहते हैं कि फलां व्यक्ति से मेरा इतना प्रेम है कि कभी झगड़ा नहीं होगा। बस, हम गलत बातों में पड़ गए। जिससे प्रेम है, उससे झगड़ा होगा। पोलर हैं। जब आपका किसी से प्रेम हो, तो आप समझ लेना कि आप झगड़े का एक नाता स्थापित कर रहे हैं। लेकिन हमारा तर्क नहीं है ऐसा। हम कहते हैं, मेरा इतना प्रेम है कि झगड़ा कभी नहीं होगा। बस, मूढ़ता में पड़े आप। आपको जिंदगी की पोलेरिटी का कोई पता नहीं है। जिससे जितना ज्यादा प्रेम है, उससे उतनी ही कलह की संभावना है। अगर कलह से बचना हो, तो कृपा करके प्रेम से बच जाना। और आप सोचते हों कि प्रेम-प्रेम हम सम्हाल लेंगे, और कलह कलह से बच जाएंगे, तो आप निपट अंधकार में हो। आपको जिंदगी में यह कभी भी रास्ते पर नहीं लाएगी बात । जिसको शत्रुता बचना हो, उसको मित्रता से बच जाना चाहिए। लेकिन हम करते हैं कोशिश कि मित्र बना लें, ताकि शत्रुता से बच जाएं। प्रेम फैला दें, ताकि संघर्ष न हो। अपना बना लें, | ताकि कोई पराया न रहे। जो जितना गहरा आपका अपना है, उससे आपको उतने ही पराएपन के क्षण उपलब्ध होंगे। जो आपके जितना | निकट है, किन्हीं क्षणों में वह आपको इस पृथ्वी पर सर्वाधिक दूर | मालूम पड़ेगा। मगर यह जीवन का गहरा नियम है, जो हमारे सामान्य हिसाब में नहीं आता। और इसलिए हम जिंदगीभर गलती किए चले जाते हैं। जिंदगीभर गलती किए चले जाते हैं। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि मेरा तो मेरी पत्नी से इतना प्रेम है, फिर कलह क्यों होती है? मैं कहता हूं, इसीलिए। और तो कोई कारण नहीं है। अभी एक मौका आया। कोई आठ साल पहले एक महिला ने मुझे आकर कहा था कि मेरे पति से बहुत कलह होती है। और मेरा प्रेम इतना है ! मेरा यह प्रेम-विवाह है, और हमने जी-जान लगाकर यह शादी की है। न मेरे घर के लोग पक्ष में न उस घर के लोग पक्ष में थे। और जब तक हम घर के लोगों से लड़ रहे थें, तब तक ही हमारा प्रेम रहा। और जब से हमने शादी की, तब से हम दोनों लड़ रहे हैं ! इतना प्रेम था कि हम जीवन देने को तैयार थे, और अब हालत ऐसी है कि एक साथ बैठना मुश्किल हो गया है। बात क्य है? मैंने कहा, यही बात है। इतना प्रेम होगा, तो यही फल होगा। . फिर आठ साल बाद वह महिला मुझे मिली। मैंने उससे पूछा, | कहो, कलह कैसी चल रही है? उसने कहा, कलह ! कलह अब बिलकुल नहीं चलती, क्योंकि प्रेम ही नहीं रहा। अब कलह भी नहीं चलती। उसने शब्द मुझे कहे, वे बहुत ठीक थे। उसने कहा, अब कलह भी नहीं चलती है। अब तो कोई संबंध ही नहीं रहा । बात ही शांत हो गई। प्रेम ही नहीं बचा; अब कलह भी नहीं बची ! जितना हम मन के भीतर जाएंगे या जीवन के भीतर जाएंगे, उतना इस विरोधी तत्व को पाएंगे। रिपल्शन और अट्रैक्शन, विकर्षण और आकर्षण एक साथ हैं। राग और विराग एक साथ हैं। विरोध साथ में खड़े हैं। इसलिए अर्जुन लगता है कि ठीक पूछ रहा है; ठीक नहीं पूछ | रहा है | और अर्जुन को यह भी खयाल नहीं है कि कृष्ण जो कह रहे हैं, वह कोई सिद्धांत नहीं कह रहे हैं। अगर कृष्ण कोई सिद्धांत कह | रहे हैं, तो अर्जुन कृष्ण को हरा देगा। अगर कृष्ण कोई सिद्धांत कह रहे हैं, तो अर्जुन कृष्ण को हरा देगा। क्योंकि सिद्धांत के माध्यम से मन को हल करने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि सब सिद्धांत मन की संततियां हैं। सिद्धांत के द्वारा मन को हराने का कोई उपाय नहीं 242
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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