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गीता दर्शन भाग - 3 >
ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये । मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ।। १२ ।। और भी जो सत्व गुण से उत्पन्न होने वाले भाव हैं और जो रजोगुण से तथा तमोगुण से होने वाले भाव हैं, उन सबको तू मेरे से ही होते हैं ऐसा जान, परंतु वास्तव में उनमें मैं और वे मेरे में नहीं हैं।
परमात्मा में लेकिन परमात्मा प्रकृति में नहीं
प्र है। यह विरोधाभासी, पैराडाक्सिकल सा दिखने वाला
वक्तव्य अति गहन है। इसके अर्थ को ठीक से समझ लेना उपयोगी है।
कृष्ण कहते हैं, सत्व, रज, तम, तीनों गुणों से बनी जो प्रकृति है, वह मुझमें है। लेकिन मैं उसमें नहीं हूं।
ऐसा करें कि एक बड़ा वर्तुल खींचें अपने मन में, एक बड़ा सर्किल । उसमें एक छोटा वर्तुल भी खींचें। एक बड़ा वर्तुल खींचें, और उसके भीतर एक छोटा वर्तुल खींचें, तो छोटा वर्तुल तो बड़े वर्तुल में होगा, लेकिन बड़ा वर्तुल छोटे वर्तुल में नहीं होगा ।
प्रकृति तो दिखाई पड़ती है कि असीम है, बहुत विराट; ओर-छोर का कुछ पता नहीं चलता; लेकिन परमात्मा के खयाल से प्रकृति ना कुछ है । बहुत छोटा वर्तुल है, बहुत सीमित घटना है। ऐसी अनंत प्रकृतियां परमात्मा में हो सकती हैं, होती हैं; बनती हैं, बिखर जाती हैं। परमात्मा के भीतर ही सब कुछ घटित होता है। इसलिए यह ठीक है कहना, सब कुछ मुझमें है, लेकिन मैं उस सब कुछ में नहीं हूं।
विराट क्षुद्र में नहीं होता, क्षुद्र तो विराट में होता ही है । लहर सागर में होती है, तो सागर कह सकता है, सब लहरें मुझमें हैं, लेकिन मैं लहरों में नहीं हूं। क्योंकि लहरें न रहें तो भी सागर रहेगा, लेकिन सागर न रहे तो लहरें न बचेंगी। हम सोच सकते हैं, सागर का होना बिना लहरों के, लेकिन लहरों का होना नहीं सोच सकते बिना सागर के । लहरें सागर में ही उठती हैं, सागर में ही होती हैं, फिर भी इतनी छोटी हैं कि उस सागर में उठकर भी सागर को घेर नहीं पातीं। घेर भी नहीं सकती हैं।
इस वक्तव्य को देने के कुछ कारण हैं । और साधक के लिए बहुत अनिवार्य है।
कृष्ण जब कहते हैं, यह सारी प्रकृति मुझमें है, फिर भी मैं इस
प्रकृति में नहीं हूं, तो दो बातें ध्यान में रख लेने जैसी हैं। एक तो यह कि जो परमात्मा में प्रवेश कर जाए, उसमें प्रकृति होगी। लेकिन जो प्रकृति में ही खड़ा रहे, उसमें परमात्मा नहीं होगा।
जैसे कि कृष्ण को भी भूख लगती है, और कृष्ण को भी नींद आती है, और कृष्ण के भी पैर में चोट लगती है, तो दर्द और पीड़ा होती है। कृष्ण की मृत्यु हुई; पैर में तीर लगने से हुई। प्रकृति अपना पूरा काम करती है— कृष्ण में भी, महावीर में भी, बुद्ध में भी, जीसस में भी। जब जीसस को सूली पर लटकाया गया, तो प्रकृति ने पूरा काम किया।
हम में भी प्रकृति काम करती है । हम भी खाना खाते हैं, हमारे पैर में भी दर्द होता है, पीड़ा होती है। हमें भी कोई सूली पर लटका दे, तो हम भी मर जाएंगे। लेकिन हमारा सूली पर लटकना और क्राइस्ट के सूली पर लटकने में बुनियादी फर्क होगा। क्योंकि जब | क्राइस्ट से प्रकृति छूट रही होगी, तब क्राइस्ट परमात्मा में प्रवेश कर रहे होंगे। और जब हमसे प्रकृति छूट रही होगी, तो हम कहीं प्रवेश नहीं कर रहे होंगे, सिर्फ प्रकृति छूट रही होगी।
इसलिए तो मरते समय हम इतने पीड़ित और परेशान हो जाते हैं। क्योंकि प्रकृति के अतिरिक्त हमने कुछ और जाना नहीं। और जब शरीर छूटता है, तो प्रकृति छूट रही है। हम मरे, हम मिटे |
जब क्राइस्ट की प्रकृति छूट रही है, वह छोटा वर्तुल छूट रहा है, तो क्राइस्ट भयभीत नहीं हैं, आनंदित हैं, क्योंकि वे बड़े वर्तुल में प्रवेश कर रहे हैं। लहर मिट रही है, और सागर में प्रवेश हो रहा है। जब हमारी लहर मिटती है, तो सिर्फ लहर मिटती है; सागर का हमें कुछ पता नहीं है। सागर में कोई प्रवेश नहीं होता ।
जब आपको भूख लगती है, तो आपको भूख लगती है। और | जब कृष्ण को भूख लगती है, तो प्रकृति को भूख लगती है। और जब आपके पैर में पीड़ा होती है, तो आपको पीड़ा होती है। और | जब कृष्ण के पैर में पीड़ा होती है, तो प्रकृति को पीड़ा होती है। कृष्ण तो साक्षी ही होते हैं।
जिस व्यक्ति ने परमात्मा को जाना, वह प्रकृति का साक्षी मात्र रह जाता है। वह छोटा वर्तुल उसे दिखाई पड़ता है, लेकिन वह | स्वयं बड़े वर्तुल के साथ एक हो जाता है। लेकिन जिसने परमात्मा को नहीं जाना, उसे तो छोटा वर्तुल ही सब कुछ दिखाई पड़ता है। उसके पार कुछ भी नहीं है। और जब हमारा ध्यान प्रकृति में अतिशय लग जाता है, तो अतिशय लग जाने के कारण ही परमात्मा की तरफ ध्यान जाना मुश्किल हो जाता है।
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