________________
4 गीता दर्शन भाग - 3
अर्जुन उवाच
हे
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन । एतस्याहं न पश्यामि चंचलत्वात्स्थितिं स्थिराम् ।। ३३ । । चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् । तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ।। ३४ ।। मधुसूदन, जो यह ध्यानयोग आपने समत्वभाव से कहा है, इसकी मैं मन के चंचल होने से बहुत काल तक ठहरने वाली स्थिति को नहीं देखता हूं। क्योंकि हे कृष्ण, यह मन बड़ा चंचल और प्रमथन स्वभाव वाला है, तथा बड़ा दृढ़ और बलवान है, इसलिए उसका वश में करना मैं वायु की भांति अति दुष्कर मानता हूं।
यो
ग की आधारभूत शिलाओं के संबंध में कृष्ण के द्वारा बात किए जाने पर अर्जुन ने वही पूछा है, जो आप भी पूछना चाहेंगे। अर्जुन कह रहा है, बातें होंगी ठीक आपकी, मिलता होगा परम आनंद। आकर्षण भी बनता है कि उस आयाम में यात्रा करें। लेकिन मन बड़ा चंचल है। और समझ में नहीं पड़ता है कि इस चंचल मन के साथ कैसे उस थिर स्थिति को पाया जा सकेगा ! क्षणभर भी ठहरेगी वह स्थिति, इसका भी भरोसा नहीं आता है।
फिर चंचल ही नहीं है यह मन, बहुत शक्तिशाली, बहुत जिद्दी भी है। बहुत अडिग, अपने स्वभाव को कायम भी रखता है। ऐसा लगता है कि हे मधुसूदन, जैसे वायु को वश में करना कठिन हो, वैसा ही कठिन इस मन को वश में करना है।
के साथ खूबी है। वायु पर मुट्ठी बांधे, तो पकड़ में नहीं आती है। जितने जोर से मुट्ठी बांधे, उतनी ही मुट्ठी के बाहर हो जाती है। न तो दिखाई पड़ती है वायु कि हम उसका पीछा कर सकें। ऐसा ही मन भी दिखाई नहीं पड़ता है। और न ही वायु जरा ही देर थिर रहती है। जो अथिर है प्रतिपल, यहां से वहां डांवाडोल है, दौड़ती फिरती है, ऐसा ही यह मन है - प्रतिपल दौड़ता हुआ; अदृश्य; न दिखाई पड़ता, न पकड़ में आता; सिर्फ अनुभव होता है इसके कंपन का ।
वायु का आपको अनुभव क्या है? वायु का कोई अनुभव नहीं है। वायु की दौड़ती, भागती धारा के थपेड़ों का अनुभव है। वायु अगर थिर हो, तो वायु का कोई भी अनुभव न होगा। उसकी
| अथिरता का ही अनुभव है, उसके प्रवाह का ही अनुभव है। दौड़ती है वायु आपको छूकर, तो उसका स्पर्श होता है। दौड़ता हुआ ही स्पर्श होता है। और तो कोई अनुभव नहीं है।
मन का भी, उसके परिवर्तन का ही अनुभव होता है; मन का तो कोई अनुभव नहीं है। उसकी चंचलता ही प्रतीति में आती है, और तो कुछ प्रतीति में आता नहीं है।
जैसे वायु की गति प्रतीति में आती है, वायु नहीं; ऐसे ही मन की भी चंचलता प्रतीति में आती है, मन नहीं। ऐसा जो अदृश्य, जो | पकड़ के बाहर और सदा ही भागता हुआ मन है।
तो अर्जुन की शंका उचित ही है। वह पूछता है कृष्ण को, संभावी नहीं मालूम पड़ता, इंप्रोबेबल है, असंभव दिखता है। आप कहते हैं, सदा के लिए थिर हो जाए; क्षण के लिए भी थिर होना असंभव मालूम पड़ता है । मन का यह स्वभाव ही नहीं है कि थिर हो जाए। मन तो चंचल ही है। या कहें कि चंचलता ही मन है। दुरूह मालूम होती है बात। आकर्षण भारी । मन को देखकर, कमजोरी को | देखकर, मन की स्थिति को देखकर असंभव मालूम होती है बात।
यह अर्जुन का ही सवाल नहीं है, यह पूरे मनुष्य के मन का सवाल है। इसमें दो-तीन बातें ध्यान में ले लेनी जरूरी हैं।
एक, कि मन के संबंध में जो भी हम जानते हैं, स्वभावतः उसी जानने के भीतर सोचते हैं। हमने मन को कभी थिर नहीं जाना। | तो उचित ही लगता है, स्वाभाविक ही तर्कयुक्त लगता है कि मन की थिरता असंभव है। हमने कभी मन को थिर नहीं जाना। इसलिए स्वाभाविक ही लगता है कि यह शंका उठे कि यह मन थिर नहीं हो सकेगा।
|
लेकिन यह हमारी धारणा नकारात्मक है। यह हमारी धारणा निगेटिव है। हमें थिरता का कोई अनुभव नहीं है, चंचलता का ही अनुभव है। इसलिए हमारा यह सोचना कि थिरता असंभव है, थोड़ा जरूरत से ज्यादा सोचना है। हम इतना ही कहें कि चंचल हैं। हम, थिरता का हमें कोई पता नहीं। वहां तक बात तथ्य की है। लेकिन तत्काल हमारा मन एक कदम आगे बढ़कर नतीजा लेता है, जिसके लिए कोई कारण नहीं है। हमारा मन कहता है कि नहीं, थिरता असंभव है।
चंचलता हमने जानी है, वह हमारे अतीत का अनुभव है। थिरता हमारा अनुभव नहीं है। लेकिन जो हमारा अनुभव नहीं है, वह असंभव है, ऐसा कहने का कोई कारण नहीं है। अगर बहरे को कोई | कहे, बहरे को कोई समझाए लिखकर कि वाणी संभव है; बहरा
236