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________________ << अनन्य निष्ठा - वेदांत ऐसा भी कह सकता था कि उस परम स्थिति में एक ही भी बंद रखें, तो भी उनकी दोनों की कोशिश एक-दूसरे के मालिक बचेगा, लेकिन एक तो बच नहीं सकता बिना दूसरे के बचे। दूसरा | बनने की शुरू हो जाएगी। जहां दूसरा मौजूद हुआ कि मालकियत रहेगा, तो ही एक हो सकता है। इसलिए वेदांत बड़े उलटे ढंग से | शुरू हो गई, हिंसा शुरू हो गई। दूसरे के ऊपर हावी होने की इस बात को कहता है। वह कहता है, दो न बचेंगे, अद्वैत होगा। कोशिश शुरू हो गई। यह नहीं कहते कि एक बचेगा; इतना ही कहते हैं कि दो न बचेंगे। अनन्य भाव का अर्थ है, जहां कोई मालकियत का सवाल नहीं अनेक लोग सोचते हैं कि जब दो न बचेंगे, तो एक बच जाएगा। | है; जहां कोई ऊपर नहीं, कोई नीचे नहीं; जहां दूसरा ही नहीं। अगर वहां भूल होती है। उस भूल को मैं आपको साफ करना चाहता है। दसरा मौजद है, तो वह हमारा ही तथाकथित प्रेम है, उसे चाहे हम अगर दो न बचेंगे और एक ही बच जाएगा, तो फिर वेदांत को भक्ति कहें। लेकिन अगर दूसरा मालूम पड़ता है कि दूसरा है, तो यही कहना था कि एक बचेगा। अद्वैत की बात करनी व्यर्थ थी। वह भक्ति नहीं है, हमारे सांसारिक प्रेम का ही थोड़ा-सा कहनी थी एकत्व की बात, एक बचेगा। इसमें भी कृष्ण यह कहते सब्लिमेटेड, थोड़ा-सा शुद्ध हुआ रूप है। और उस शुद्ध हुए रूप हैं कि दूसरा नहीं बचेगा, दि अदर विल नाट बी, अनन्य। में सारी बीमारियां शुद्ध होकर मौजूद रहेंगी। और बीमारियां जब लेकिन अगर आप सोचते हों कि दूसरा न बचेगा, तो मैं बच शुद्ध हो जाती हैं, तो और भी खतरनाक हो जाती हैं। जब बीमारी जाऊंगा, तो आप गलत सोचते हैं। दो बचें, तो ही आप बच सकते पूरी शुद्ध होती है, तो उसका डोज होमियोपैथिक हो जाता है, बहुत हैं। अगर दूसरा न बचा, तो आप भी खो जाएंगे। आपको बचने की सूक्ष्म हो जाता है, बहुत प्राणों तक छेदता है। भी कोई जगह न बचेगी। | सुना है मैंने कि एक बौद्ध भिक्षुणी अपने साथ बुद्ध की एक अनन्य प्रेम का अर्थ है, प्रेम ही बचेगा। न तो प्रेमी बचेगा, और | | स्वर्ण-प्रतिमा रखती थी छोटी। पर बुद्ध के प्रति प्रेम वैसा ही था, न प्रेयसी बचेगी। न तो प्रेमी बचेगा, न प्रेमपात्र बचेगा; प्रेम ही बच जैसा कि लोगों का लोगों के प्रति होता है। अगर कोई राम का नाम जाएगा। सिर्फ प्रेम ही रह जाएगा। दोनों के बीच में जो है, वही ले देता, तो उसे पीड़ा होती। अगर कोई कृष्ण का नाम ले देता, तो बचेगा, और दोनों खो जाएंगे। उसे चोट पहंचती। अगर कोई जीसस का नाम ले देता. तो वह ऐसे अनन्य भाव को जो उपलब्ध हो, उस व्यक्ति को ही कृष्ण बेचैन होती। यह कोई अनन्य भाव न था। इसमें बुद्ध भी एक दूसरे कहते हैं, वही योगी है, वही भक्त है। उसे हम जो भी नाम देना | व्यक्ति थे, वह भी स्वयं और थी। और अभी ईर्ष्या कायम थी। बुद्ध चाहें। लेकिन जहां दोनों मिट जाएं, जहां एक भी न बचे। का प्रेम कृष्ण के प्रति प्रेम में बाधा बनता। डर लगता है कि अगर दोनों मिट जाएंगे, तो फिर तो कुछ भी न लेकिन यह तो समझ में आ सकता है कि बुद्ध और कृष्ण और बचेगा। और मजे की बात यह है कि जब दोनों मिटते हैं, तभी महावीर के बीच उसे ईर्ष्या मालूम पड़े। लेकिन एक बार वह चीन . उसका पता चलता है, जो सब कुछ है। और जब तक दोनों रहते | के एक मंदिर में ठहरी, जो मंदिर सहस्र बुद्धों का मंदिर कहलाता हैं, तब तक हमें कुछ भी पता नहीं चलता उसका, जो है। तब तक | है। उसमें एक सहस्र बुद्ध की प्रतिमाएं हैं। बड़ी-बड़ी प्रतिमाएं, केवल दो बर्तनों के टकराने की आवाज सुनाई पड़ती है। इसलिए | विशालकाय। जब सुबह वह अपने बुद्ध की-अपने बुद्ध सभी हमारे प्रेम कलह बन जाते हैं। ऐसा प्रेम हमारे जीवन में | की पूजा करने बैठी, तो उसके मन में हुआ कि मैं धूप जलाऊंगी, खोजना कठिन है, जो कलह और कांफ्लिक्ट न बन जाए। कलह लेकिन धुआं तो ये जो बड़े-बड़े बुद्धों की मूर्तियां खड़ी हैं, ये ले बन ही जाएगी। जाएंगी। मैं फूल चढ़ाऊंगी, लेकिन सुगंध तो इन बड़े-बड़े बुद्धों की दो व्यक्ति प्रेम में पड़े कि जानना चाहिए कि वे कलह की तैयारी | मूर्तियों तक पहुंच जाएगी। उसके पास तो छोटे-से बुद्ध थे। और में पड़ रहे हैं। शीघ्र ही कलह प्रतीक्षा करेगी। बस, दो बर्तन आवाज हमारे पास बड़ी चीज हो भी नहीं सकती। हम इतने छोटे हैं कि करेंगे, संघर्ष करेंगे, टकराएंगे। क्योंकि जहां भी मैं मौजूद हूं और | हमारा भगवान भी उतना ही छोटा हो सकता है। हमसे बड़ी चीज दूसरा मौजूद है, वहां डामिनेशन की कोशिश जारी रहेगी, वहां हमारे पास नहीं हो सकती। उसे हम सम्हालेंगे कैसे? मालकियत की कोशिश जारी रहेगी। अगर एक कमरे में हम दो जितना छोटा उसका मन था, उससे भी छोटे उसके भगवान थे। आदमियों को बंद कर दें, तो वे न भी बोलें, चुप भी बैठे, आंख रखी उसने मूर्ति, लेकिन उसे बड़ी पीड़ा हुई कि यह मैं जलाऊंगी तो 1319
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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