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< गीता दर्शन भाग-3 >
श्रीमद्भगवद्गीता
कृष्ण कहते हैं, अनन्य भाव से जो मुझे प्रेम करता! जो इस भांति अथ सप्तमोऽध्यायः
प्रेम करता है कि एक ही बचे, दो न रह जाएं।
प्रार्थना और प्रेम का यही फर्क है। जहां दो कायम रहते हैं, वहां श्रीभगवानुवाच
प्रेम; और जहां दो विलीन हो जाते हैं, वहां प्रार्थना। मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः। यह प्रार्थना का सूत्र है। अनन्य भाव की दशा केवल परमात्मा असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु।।१।। के प्रति हो सकती है, किसी व्यक्ति के प्रति नहीं हो सकती है। श्रीकृष्ण भगवान बोले, हे पार्थ, त मेरे में अनन्य प्रेम से | किसी व्यक्ति के प्रति इसलिए नहीं हो सकती कि जब भी दूसरा आसक्त हुए मन वाला और अनन्य भाव से मेरे परायण व्यक्ति होता है, तब उसकी सीमाएं हैं। और जब हम भी उसके पास योग में लगा हुआ मुझको संपूर्ण विभूति, बल, ऐश्वर्यादि व्यक्ति की भांति जाते हैं, तो अपनी सीमाओं को साथ लेकर जाते गुणों से युक्त सबका आत्मरूप जिस प्रकार संशयरहित | हैं। दोनों की सीमाएं ही दीवाल बन जाती हैं, और दोनों की सीमाएं ___जानेगा, उसको सुन ।
ही दोनों को दूर करती हैं।
मनुष्य के प्रेम में हम कितने ही निकट आ जाएं, निकट आकर
भी दूरी कायम रहती है। बल्कि सच तो यह है, जितने निकट आते Or म मौलिक रूप से जीवन के प्रति एक प्रेमपूर्ण निष्ठा || | हैं, उतनी ही दूरी का एहसास गहन, स्पष्ट होता है। प्रेमी जितने प का नाम है।
निकट आते हैं, उतना ही प्रतीत होता है कि दोनों के बीच एक बड़ा जीवन के प्रति दो दृष्टियां हो सकती हैं। एक–नकार फासला है, जो पार नहीं किया जा सकता; अनब्रिजेबल; कुछ है, की, इनकार की, अस्वीकार की। दूसरी-स्वीकार की, निष्ठा की, जिस पर कोई सेतु नहीं बन सकता। प्रीति की। जितना अहंकार होगा भीतर. उतना जीवन के प्रति वही तो प्रेम की पीडा है और कष्ट है। प्रेमी दर हो. तो इतनी अस्वीकार और विरोध होता है। जितनी विनम्रता होगी, उतना पीड़ा नहीं मालूम पड़ती, क्योंकि लगता है, पास आ सकते हैं। स्वीकार। जैसा है जीवन, उसके प्रति एक भरोसा और ट्रस्ट। और लेकिन जब प्रेमी बिलकुल ही पास आ जाए, और पास आने का जीवन जहां ले जाए, उसका हाथ पकड़कर जाने की संशयहीन | | उपाय न रह जाए, तब पीड़ा सघन हो जाती है। क्योंकि अब पास अवस्था होती है।
आने का कोई उपाय भी न रहा। जितने पास आ सकते थे, उतने कृष्ण इस सूत्र में अर्जुन से कह रहे हैं कि जो अनन्य भाव से मेरे पास आ गए। लेकिन फिर भी दूरी कायम है। वह दूरी सिर्फ प्रार्थना प्रति प्रेम और श्रद्धा से भरा है!
में ही टूटती है। और वह दूरी उसके साथ ही टूट सकती है, जिसकी अनन्य भाव को ठीक से समझ लेना जरूरी है।
कोई सीमा न हो। जिसकी भी सीमा है, उसके साथ वह दूरी नहीं प्रेम दो तरह के हो सकते हैं। एक प्रेम वैसा, जिसमें अन्य का टूट सकती है। भाव मौजूद रहता है, दूसरा दूसरा ही रहता है, और हम प्रेम करते सिर्फ परमात्मा की तरफ ऐसा प्रेम हो सकता है जो अनन्य हो हैं। पिता बेटे को प्रेम करता है, वह अनन्य नहीं होता। बेटा बेटा जाए, जिसमें दूसरा मौजूद न रहे, जिसमें दूसरा मिट ही जाए। बड़े ही होता है, पिता पिता ही होता है। प्रेम में ऐसा नहीं होता कि पिता मजे की बात है लेकिन यह, क्योंकि जब दूसरा मिटता है, तो मैं भी बेटा हो जाए, बेटा पिता हो जाए। भेद कायम रहता है। अलगाव मिट जाता हूं। मैं भी तभी तक हो सकता हूं, जब तक दूसरा है। जब मौजूद रहता है। दोनों के बीच दीवाल बनी ही रहती है। कितनी ही तक तू है, तभी तक मैं भी हो सकता हूं। मैं और तू एक ही चीज के पारदर्शी हो, कितनी ही ट्रांसपैरेंट हो, पर दीवाल बनी ही रहती है। दो पहलू हैं। एक को फेंक देंगे, दूसरा भी खो जाएगा। ऐसा नहीं पति पत्नी को प्रेम करता है, या मित्र मित्र को प्रेम करता है, तो भी | हो सकता कि मैं एक को बचा लूं और दूसरे को छोड़ दूं। अन्य भाव मौजूद रहता है। दि अदर, वह जो दूसरा है, कितना ही - इसलिए वेदांत बहुत अदभुत शब्द का उपयोग करता है, वह अपना मालूम पड़े, फिर भी दूसरा ही होता है। कितने ही निकट हो, । शब्द है, अद्वैत। वेदांत कहता है कि उस परम स्थिति में ऐसा नहीं फिर भी एक नहीं हो जाता।
कहते हम कि एक बचेगा; हम इतना ही कहते हैं कि दो न बचेंगे।
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