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हृदय की अंतर - गुफा >
हूं? क्या यही चमड़ी और खून का जोड़ मैं हूं? या मैं कुछ और भी हूं? वह झुका हुआ मेनन नीचे सोचने लगा।
उठकर खड़ा हुआ, वेटिकन के पोप ने फिर पूछा कि कहो, कौन तुम? तो उसके मन में हुआ कि वेटिकन के पोप के संबंध में कहा जाता है कि वह इनफालिबल है, वह कभी भूल नहीं करता। ईसाई मानते हैं कि उनका जो बड़ा पुरोहित है, वह कभी भूल नहीं करता। मधुर मान्यता है। मेनन को खयाल आया कि अगर मैं कहूं कि आंग्ल-भारतीय हूं, आधा भारतीय आधा अंग्रेज हूं, तो कहीं | पोप को दुख न हो। वह यह न सोचे कि मैंने उसे फालिबल सिद्ध किया, मैंने कहा कि वह भी गलती कर सकता है। तो मेनन ने कहा कि हां, आप ठीक कहते हैं महानुभाव ! मैं भारतीय हूं।
पोप बहुत खुश हुआ। मेनन ने अपनी किताब में लिखा है कि इसलिए नहीं खुश हुआ कि मैं भारतीय था और भारतीय से मिलकर उसे खुशी हुई। इसलिए भी खुश नहीं हुआ कि मैं कोई खास आदमी था और मुझसे मिलकर खुशी हुई। खुश इसलिए हुआ कि पोप इनफालिबल है, उससे कभी भूल नहीं होती ।
पर मेनन ने लिखा है कि मेरे चित्त में एक चक्कर चल पड़ा उस दिन से कि मैं कौन हूं? क्या मैं यह हड्डी और मांस और चमड़ी का जोड़ मैं हूं? मैं कौन हूं? अगर सच में यह पोप मेरी आंखों में झांककर कहता और कहता कि ठीक है, मैं समझ गया; तुम्हारा शरीर तो भारतीय है या अंग्रेज, पर तुम कौन हो ? क्या तुम शरीर ही हो ? तो वह बड़ी खोज में लग गया कि मैं कहां पाऊं कि मैं कौन हूं?
उसने बहुत खोजा, बहुत खोजा, और आखिर में हम सोच भी नहीं सकते कि उसे अपना उत्तर छांदोग्य उपनिषद से मिला । . छांदोग्य उपनिषद पढ़ते वक्त उसे यह शब्द सुनाई पड़ा, खयाल | आया, हृदय की गुफा, दि इनर स्पेस आफ दि हार्ट, वह अंतर-हृदय का आकाश। उसने कहा कि अगर मैं कोई भी हूं, तो मेरे हृदय की गुफा में ही भीतर प्रवेश करूं तो जान पाऊंगा, अन्यथा नहीं जान पाऊंगा।
फिर उसने एक कमरे में अपने को बंद कर लिया महीनों के लिए। रोटी सरका जाता कोई समय पर, वह रोटी खा लेता । पानी सरका जाता, वह पानी पी लेता । और वह आंख बंद करके बस एक ही चिंतन में लग गया, एक ही ध्यान में कि मैं कौन हूं?
शरीर मैं नहीं हूं। उसने एक महीने तक इसका ही निरंतर ध्यान किया कि शरीर मैं नहीं हूं, शरीर मैं नहीं हूं। एक महीने तक इस एक शब्द के सिवा उसने कोई उपयोग न किया कि शरीर मैं नहीं हूं।
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सोते-जागते, उठते-बैठते, होश में, बेहोशी में, जानता रहा, दोहराता रहा, समझता रहा, स्मरण करता रहा-शरीर मैं नहीं हूं। एक महीने के बाद उसने आंख खोलकर अपने शरीर को देखा और पाया कि निश्चित ही शरीर मैं नहीं हूं। एक यात्रा का पड़ाव पूरा हो गया।
और उसने लिखा है कि जिस दिन मैंने पाया कि मैं शरीर नहीं हूं, फिर मैंने आंख बंद की और मैंने कहा कि अब मैं जानने चलूं कि मैं कौन हूं! एक बात तो पूरी हुई कि क्या मैं नहीं हूं। अब मैं जानूं कि मैं कौन हूं!
और जब मैंने भीतर झांका, तो मुझे छांदोग्य की बात समझ में आई कि भीतर एक अंतर- गुफा है हृदय की, जहां मैं हूं, जो मैं हूं। और जैसे-जैसे उस अंतर - गुफा में मैंने प्रवेश किया, तो मैंने पाया, आश्चर्य ! इतना बड़ा आकाश भी नहीं है, जितनी बड़ी वह अंतर- गुफा है। और जैसे-जैसे मैं उसमें भीतर गया, वैसे-वैसे एक रहस्य उदघाटित हुआ कि जैसे-जैसे चला भीतर, वैसे-वैसे मैं मिटता गया । खाली, शून्य ही रह गया। एकांत ही रह गया। सिर्फ | एकांत, मैं भी न रहा। मेरी मौजूदगी भी तो एकांत में बाधा है।
तो आपको एकांत का अंतिम अर्थ कहता हूं, जिससे कृष्ण का प्रयोजन है। अगर आप भी बच रहे, तो भी एकांत नहीं है। एक क्षण ऐसा आता है, जब आप भी नहीं हैं; सिर्फ चैतन्य रह जाता है, आप भी नहीं होते हैं। आपको पता भी नहीं होता कि मैं भी हूं, सिर्फ होना रह जाता है। उस शुद्ध होने में एकांत है। उस एकांत में प्रभु को ध्याया जाता है। ध्याया क्या जाता है, उस एकांत में प्रभु को जान लिया जाता है। उस एकांत में प्रभु से मिलन ही हो जाता है।
कृष्ण कहते हैं, ऐसा पुरुष एकांत में प्रभु को ध्याता है। यह ध्याता शब्द बहुत अदभुत है। प्रभु का ध्यान करता है। क्या आप किसी ऐसी चीज का ध्यान कर सकते हैं, जिसका आपको पता न हो ? क्या यह संभव है कि जिसको आप जानते न हों, उसका आप ध्यान कर सकें? यह कैसे संभव है? जिसे जानते नहीं, उसका ध्यान कैसे करिएगा ? ध्यान के लिए तो जानना जरूरी है। लेकिन हम सब प्रभु का ध्यान करते हैं । और हमें प्रभु का कोई भी पता नहीं है !
ध्यान हो कैसे सकता है, जिसका हमें पता नहीं है। जिसे हमने जाना ही नहीं, यह भी नहीं जाना कि जो है भी या नहीं है ! यह भी नहीं जाना कि है, तो कैसा है ! कुछ भी जिसकी हमें खबर नहीं है, उसका ध्यान कर रहे हैं लोग बैठकर ! आंख बंद करके लोग कहते हैं कि हम प्रभु का ध्यान कर रहे हैं!
अगर उनकी खोपड़ी थोड़ी चीरी जा सके और उनकी खोपड़ी में