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गीता दर्शन भाग-3
पत्नी है। भूल भी जा सकते हैं। अक्सर भूल ही जाते हैं। पत्नी नहीं है, तब उसकी खाली जगह उसका ज्यादा स्मरण दिलाती है। आदमी जिंदा है, तो पता नहीं चलता; मर जाता है, तो घाव छोड़ जाता है; ज्यादा याद आता है। जगह खाली हो जाती है।
किसी की मौजूदगी की वजह से आपके भीतर भीड़ नहीं होती; आपके भीतरी रसों की वजह से ही भीड़ होती है। आंतरिक रस है । दूसरे में हम रस लेते हैं। इसलिए जब कोई मौजूद होता है, तो उतनी जल्दी नहीं रहती है। जानते हैं कि कभी भी रस ले लेंगे; मौजूद तो है। लेकिन पता चल जाए कि मौजूद नहीं है, तो रस ज्यादा आने लगता है। क्योंकि पता नहीं, अभी रस लेना चाहें, तो दूसरा मौजूद मिले, न मिले। तो गैर-मौजूदगी और भी ज्यादा पकड़ लेती है, जोर से पकड़ लेती है।
रवींद्रनाथ ने कहीं मजाक में लिखा है कि जिन पति-पत्नियों को अपना प्रेम जिंदा रखना हो, उन्हें बीच-बीच में एक-दूसरे से छुट्टी, हॉलीडे लेते रहना चाहिए। रवींद्रनाथ के एक पात्र ने तो अपनी प्रेयसी से कहा है – बहुत पीछे पड़ी है वह स्त्री, जो उसने कहा कि ठीक है कि हम राजी हो जाएं, विवाह कर लें। उस पात्र ने कहा, मैं राजी हूं विवाह करने को। लेकिन तेरी दूसरी शर्त मेरी समझ में नहीं आती! क्योंकि उस स्त्री की दूसरी शर्त यह है कि हम विवाह तो कर लें, लेकिन झील के एक तरफ मैं रहूंगी और झील के दूसरी तरफ तुम रहना । कभी-कभी निमंत्रण पर हम एक-दूसरे से मिल लिया करेंगे। या कभी-कभी अनायास, झील में नाव खेते या नदी के तट पर टहलते मुलाकात हो जाएगी, तो किसी झाड़ के नीचे बैठकर बात कर लेंगे! तो वह आदमी कहता है, इससे बेहतर है, हम विवाह ही न करें । विवाह किस लिए? पर वह स्त्री कहती है, विवाह तो हम कर लें, लेकिन रहें फासले पर; ताकि एक-दूसरे की याद आती रहे; ताकि एक-दूसरे को भूल न जाएं। कहीं ऐसा न हो कि एक-दूसरे के पास इतने आ जाएं कि भूल ही जाएं। भूल ही जाते । अनुपस्थिति याद को जगा जाती है।
तो इस खयाल में मत रहना आप कि भीड़ के बीच में हैं, तो भीड़ हैं। भीड़ में होने का अर्थ है कि भीड़ आपके भीतर है, तो आप भीड़ में हैं। भीड़ आपके भीतर नहीं है, तो आप बिलकुल अकेले हैं।
कृष्ण जैसा आदमी कहीं भी खड़ा हो - कैसी भी भीड़ में, कैसे भी बाजार में – अरण्य ही चलता है, जंगल ही है। हम जैसा आदमी कहीं भी खड़ा हो जाए, जंगल में भी, तो भीड़ ही चलती है, बाजार है । हमारे होने के ढंग पर निर्भर है।
तो जब अर्जुन से कहा कृष्ण ने कि ऐसा व्यक्ति समत्व को उपलब्ध हुआ, थिर हुआ, शांत हुआ, एकांत में प्रभु को ध्याता है, प्रभु का ध्यान करता है, तो क्या अर्थ होगा? किसी जंगल में, किसी पहाड़ पर, किसी गुफा में ?
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नहीं, एक और गुफा है, अंतर - हृदय की, वहां । एक और अरण्य है स्वयं के भीतर ही, शून्य का, वहां एक इनर स्पेस है, एक भीतरी आकाश है। इस बाहर के आकाश से भी विराट और
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बड़ा, वहां । हृदय की गुफा में। वहां एकांत में वह प्रभु को ध्याता है | और वहीं प्रभु का ध्यान किया जा सकता है; बाहर के जंगलों में कोई प्रभु का ध्यान नहीं किया जा सकता। इसे भी थोड़ा-सा समझ लें।
साधक के लिए विशेष ध्यान में ले लेने जैसी बात है कि प्रभु का ध्यान अंतर- गुफा में किया जाता है, हृदय की गुफा में नकल में हम कितनी ही गुफाएं बाहर बना लें पत्थरों को खोदकर, उनसे हल | नहीं होता । पत्थर बहुत कमजोर है। हृदय को खोदना पत्थर से भी | जटिल चीज को तोड़ना है; ज्यादा कठिन है। हीरे की छेनियां भी टूट जाएंगी।
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हृदय में गुफा है। सबके भीतर एक अंतर-आकाश है। एक आंग्ल-भारतीय विचारक आबरी मेनन ने एक छोटी-सी किताब लिखी है। उसके पिता तो भारतीय थे, उसकी मां अंग्रेज थी। आब मेनन ने एक छोटी-सी किताब लिखी है, दि स्पेस आफ दि. इनर हार्ट, अंतर- हृदय का आकाश । किताब बहुत मधुर संस्मरण से शुरू की है।
वेटिकन के पोप से मिलने गया था मेनन; तो वेटिकन के पोप के चरणों में सिर झुकाकर आशीर्वाद लेने को झुका। तभी वेटिकन के पोप ने अपने साथ खड़े हुए महासचिव को पूछा, किस जाति का व्यक्ति है यह, कौन है? किस जाति का व्यक्ति है यह, कौन | है ? साथ खड़े हुए सेक्रेटरी ने वेटिकन के पोप को कहा, अंग्रेज है, आंग्ल वेटिकन के पोप ने मेनन के चेहरे पर हाथ फेरा और कहा, नहीं। इसके चेहरे का ढंग भारतीय है।
झुका हुआ मेनन अपने मन में सोचने लगा, सच में मैं कौन हूं? उसको एक सवाल उठा कि मैं भारतीय हूं या अंग्रेज हूं ? लेकिन अंग्रेज होना और भारतीय होना चमड़ी से ज्यादा गहरी बात नहीं है। भीतर मैं कौन हूं ? चमड़ी तो मेरी दोनों की है। अंग्रेज की भी है थोड़ी चमड़ी मेरे पास और एक भारतीय की भी चमड़ी है थोड़ी मेरे पास । खून भी मेरे पास भारतीय का है और अंग्रेज का भी है। फिर मैं कौन