SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 360
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ << गीता दर्शन भाग-3> मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये। क्यों करोड़ों में कोई एक प्रयास करता है उसे पाने के लिए, जिसे यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः ।।३।। पाकर सब पा लिया जा सकता है? क्या होगा कारण? होना तो परंतु हजारों मनुष्यों में कोई ही मनुष्य मेरी प्राप्ति के लिए ऐसा चाहिए कि करोड़ों में कभी कोई एक प्रयास न करे, बाकी सारे यत्न करता है, और उन यत्न करने वाले योगियों में भी कोई लोग प्रयास करें। क्योंकि परमात्मा आनंद है, जीवन है, अमृत है। ही पुरुष मेरे परायण हुआ मेरे को तत्व से जानता है अर्थात | तो करोड़ों में कोई एक क्यों प्रयास करता है? इसके कारण को थोड़ा यथार्थ मर्म से जानता है। ठीक से समझ लेना जरूरी है, क्योंकि वह उपयोगी है। सबसे पहला कारण तो यह है कि जो हमें मिला ही हुआ है, उसे पाने के लिए हम क्यों कर चेष्टा करें? सागर की मछली सब कुछ 7 भु की यात्रा सरल भी है और सर्वाधिक कठिन भी। खोजती होगी, सागर को कभी नहीं खोजती है। सागर की मछली प्र सरल इसलिए कि जिसे पाना है, उसे हमने सदा से सब खोजों पर निकलती होगी, लेकिन सागर की खोज पर कभी पाया ही हुआ है। जिसे खोजना है, उसे हमने वस्तुतः नहीं निकलती है। उसी में पैदा होती है, उसी में जीती है, बड़ी होती कभी खोया नहीं है। वह निरंतर ही हमारे भीतर मौजूद है, हमारी | है, श्वास लेती है, उसी में समाप्त होती है। उसे पता भी नहीं चलता प्रत्येक श्वास में और हमारे हृदय की प्रत्येक धड़कन में। इसलिए कि सागर है। सरल है प्रभु को पाना, क्योंकि प्रभु की तरफ से उसमें कोई भी बाधा | मछली को भी सागर का तभी पता चलता है, जब उसे सागर के नहीं है। इसे ठीक से ध्यान में ले लेंगे। बाहर निकालो। अगर मछली सागर के बाहर न आए, तो उसे कभी प्रभु को पाना सरल है, क्योंकि प्रभु सदा ही अवेलेबल है, सदा | | भी पता नहीं चलता कि सागर है। असल में सागर के साथ इतनी ही उपलब्ध है। लेकिन प्रभु को पाना कठिन बहुत है, क्योंकि | एक है कि पता भी कैसे चले! पता चलने के लिए दूरी चाहिए। आदमी सदा ही प्रभु की तरफ पीठ किए हुए खड़ा है। आदमी की | तो मछली तो कभी-कभी सागर के बाहर भी आ जाती है, तरफ से सारी कठिनाइयां हैं, प्रभु की तरफ से कोई भी कठिनाई नहीं | आदमी तो परमात्मा के बाहर कभी नहीं आता है। मछली को तो है। उसके मंदिर के द्वार सदा ही खुले हैं, लेकिन हम उन मंदिर के | कोई मछुवा कभी फांस भी लेता है जाल में और सागर के तट पर द्वारों की तरफ पीठ किए हैं। पीठ ही नहीं किए हैं, पीठ करके भाग भी तड़फने को छोड़ देता है। आदमी के लिए तो ऐसा कोई तट नहीं ही नहीं रहे हैं, अपना पूरा जीवन, अपनी पूरी है, जहां परमात्मा मौजूद न हो। आदमी जहां भी जाए, वहां शक्ति, अपनी पूरी सामर्थ्य, किस भांति उस मंदिर से दूर निकल | परमात्मा मौजूद है। जो इतना ज्यादा मौजूद है, उसकी हम फिक्र जाएं, इसमें लगा रहे हैं। छोड़ देते हैं, उसका हमें खयाल भूल जाता है। यद्यपि हम निकल न पाएंगे। हजारों-हजारों जन्मों में दौड़कर भी ध्यान रहे, हमारे ध्यान की जो धारा है, वह जो गैर-मौजूद है, उस मंदिर से हम दूर न जा पाएंगे। और जिस दिन भी हम पीठ उसकी तरफ बहती है। जैसे आपका एक दांत टूट जाए, तो जीभ फेरकर देखेंगे, पाएंगे कि वह मंदिर वहीं का वहीं मौजूद है-वहीं, | उस दांत की तरफ चलने लगती है। जो दांत मौजूद हैं, उनकी तरफ जहां से हमने दौड़ना शुरू किया था। | नहीं चलती। और भलीभांति एक दफे पता लगा लिया कि टूट आदमी की तरफ से बहुत कठिनाइयां हैं। इसलिए कृष्ण के इस गया, खाली जगह छूट गई, फिर भी दिनभर जीभ वहीं दौड़ती रहती सूत्र में उन्होंने कहा, करोड़ों में कोई एक प्रयास करता है। और | | है! जहां अभाव है, वहां हम खोजते हैं। जिसका अति भाव है, जो प्रयास करने वाले करोड़ों में कोई कभी एक मुझे उपलब्ध होता है। | एकदम मौजूद है घना होकर, वहां हम नहीं खोजते। दो बातें। करोड़ों में कभी कोई एक प्रयास करता है। इसे समझें। मन के गहरे नियमों में एक यह है कि जो हमें उपलब्ध है, और फिर प्रयास करने वाले करोड़ों में भी कभी कोई एक मुझे | उसकी हम विचारणा छोड़ देते हैं। जो हमें उपलब्ध नहीं है, उसकी परायण हुआ, मुझे समर्पित हुआ, उपलब्ध होता है। हम खोज करते हैं। जो हमारे पास है, उसे हम भूल जाते हैं। जो । क्यों करोड़ों लोगों में कभी कोई एक प्रयास करता है उसे पाने | | हम से दूर है, उसकी हम स्मृति से भर जाते हैं। जिसे हम खो देते के लिए, जिसे पाए बिना कोई चारा नहीं, जीवन में कोई अर्थ नहीं?/ | हैं, उसका पता चलता है; और जिसे हम कभी नहीं खोते, उसका 334
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy