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________________ गीता दर्शन भाग-3 लेकिन कृष्ण कहते हैं अर्जुन को, योग ही श्रेष्ठ है अर्जुन। कि जीवन के दुख से छुटकारा हो जाए। जीवन के दुख से छुटकारा क्योंकि अर्जुन के लिए भी तपश्चर्या सरल थी। अर्जुन भी तपस्वी जिसको चाहिए, मात्र जीवन के दुख से छुटकारा जिसे चाहिए, बन सकता था आसानी से। योगी बनना कठिन था। इसलिए कृष्ण जीवन की ऊब से भागा हुआ, जो अपने को किसी सुरक्षित ने तीनों बातें कहीं; सकाम भी तू बन सकता है सरलता से; युद्ध | अंतःस्थल में पहुंचा देना चाहता है; वह बिना परमात्मा में श्रद्धा के तुझे जीतना, राज्य तुझे पाना। शास्त्र भी पढ़ सकता है तू आसानी | भी योग में संलग्न हो सकता है। से, शिक्षित है, सुसंस्कृत है। शास्त्र पढ़ने में कोई अड़चन नहीं; क्या वह परमात्मा को नहीं पा सकेगा? पा सकेगा, लेकिन यात्रा सत्य मुफ्त में मिलता हुआ मालूम पड़ता है। स्वयं को सताने वाला बहुत लंबी होगी। क्योंकि परमात्मा जो सहायता दे सकता है, वह तपस्वी भी बन सकता है तू। तू क्षत्रिय है; तुझे कोई अड़चन न | | उसे न मिल सकेगी। यह फर्क समझ लें। आएगी। लेकिन मैं कहता हूं तुझसे कि योग श्रेष्ठ है इन तीनों में। | इसलिए कृष्ण उसे कहते हैं, जो मुझमें श्रद्धा से लीन है, मेरी अर्जुन, तू योगी बन! आत्मा से अपनी आत्मा को मिलाए हुए है, उसे मैं परम श्रेष्ठ कहता हूं। क्यों? | एक बच्चा चल रहा है रास्ते पर। कई बार बच्चा अपने बाप का योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना । | हाथ पकड़ना पसंद नहीं करता। उसके अहंकार को चोट लगती है। श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः।। ४७।। | वह बाप से कहता है, छोड़ो हाथ। मैं चलूंगा। बच्चे को बड़ी पीड़ा और संपूर्ण योगियों में भी, जो श्रद्धावान योगी मेरे में लगे हुए | होती है कि तुम मुझे चलने तक के योग्य नहीं मानते! मैं चल लूंगा; अंतरात्मा से मेरे को निरंतर भजता है, वह योगी मुझे परम | तुम छोड़ो मुझे। बाप छोड़ दे या बेटा झटका देकर हाथ अलग कर श्रेष्ठ मान्य है। ले, तो भी बेटा चलना सीख जाएगा, लेकिन लंबी होगी यात्रा। भूल-चूक बहुत होगी। हाथ-पैर बहुत टूटेंगे। और जरूरी नहीं है कि इसी जन्म में चलना सीख पाए। जन्म-जन्म भी लग सकते हैं। of तिम श्लोक इस अध्याय का श्रद्धा पर पूरा होता है। | तो बेटा चलना तो चाहता है, लेकिन अपने से अन्य में कोई 1 कृष्ण कहते हैं, और श्रद्धा से मुझमें लगा हुआ योगी | श्रद्धा का भाव नहीं है। खुद के अहंकार के अतिरिक्त और किसी परम अवस्था को उपलब्ध होता है, वह मुझे के प्रति कोई भाव नहीं है। सर्वाधिक मान्य है। तो कृष्ण कहते हैं, जो मुझमें श्रद्धा से लगा है। दो तरह के योगी हो सकते हैं। एक बिना किसी श्रद्धा के योग क्या फर्क पड़ेगा? यह फर्क पड़ेगा कि जो मुझमें श्रद्धा से लगा में लगे हुए। पूछेगे आप, बिना किसी श्रद्धा के कोई योग में क्यों । है, वह श्रम तो करेगा, लेकिन अपने ही श्रम को कभी पर्याप्त नहीं लगेगा? | मानेगा, नाट इनफ। मेहनत पूरी करेगा, और फिर भी कहेगा कि बिना श्रद्धा के भी लग सकता है। बिना श्रद्धा के लगने का अर्थ | प्रभु तेरी कृपा हो, तो ही पा सकूँगा। इसमें फर्क है। अहंकार निर्मित यह है कि जीवन के दुखों से जो पीड़ित हो गया; जीवन के दुखों से न हो पाएगा, श्रद्धा में जिसका जीवन है। वह कहेगा, मेहनत मैं पूरी जो छिन्न-भिन्न हो गया जिसका अंतःकरण; जीवन के दुख जिसके | करता हूं, लेकिन फिर भी तेरी कृपा के बगैर तो मिलना नहीं होगा। प्राणों में कांटे से चुभ गए; जीवन की पीड़ा से मुक्त होने के लिए मेरी अकेले की मेहनत से क्या होगा? चलूंगा मैं जरूर, कोशिश कोई चेष्टा कर सकता है योग की। यह निगेटिव है। जीवन के दुख मैं जरूर करूंगा, लेकिन मैं गिर जाऊंगा। तेरे हाथ का सहारा मुझे से हटना है। लेकिन जीवन के पार कोई परमात्मा है, इसकी कोई बना रहे। और आश्चर्य की बात यह है कि इस तरह का जो चित्त पाजिटिव श्रद्धा, इसकी कोई विधायक श्रद्धा उसमें नहीं है। इतना है, उसका द्वार सदा ही परम शक्ति को पाने के लिए खुला रहेगा। ही हो जाए तो काफी है कि जीवन के दुख से मुक्ति हो जाए। नहीं - जो श्रद्धावान नहीं है, उसका द्वार क्लोज्ड है, उसका मन बंद है। पाना है कोई परमात्मा, नहीं कोई मोक्ष, नहीं कोई निर्वाण। कोई। वह कहता है, मैं काफी हूं। श्रद्धा नहीं है कि ऐसी कोई चीज होगी। इतना ही हो जाए, तो काफी लीबनिज ने कहा है, कुछ लोग ऐसे हैं, जैसे विंडोलेस कोई 1314
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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