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< गीता दर्शन भाग-3
शक्तिशाली है। परमात्मा की तुलना में कोई सवाल ही नहीं उठता। एक आदमी का आखिर धीरज टूट गया और उसने जाकर पास कोई प्रश्न ही नहीं है।
पछा कि माफ करना, इस गधे का नाम क्या है? उसने कहा. इसका इसलिए आदमी अगर अपने पर भरोसा करे, तो उलझाएगा नाम कल्लू है। तो इतने नाम क्यों ले रहे हो? उसने कहा, ताकि अपने को। और जब से आदमियत ने, पूरी आदमियत ने अपने पर | | इसको भरोसा बना रहे कि और भी गधे लदे हैं। और सब चल रहे भरोसा करना शुरू किया है, और जब से ऐसा लगा है कि ईश्वर | हैं, तो मैं भी क्यों परेशान! चलता रहूं। उस कुम्हार ने कहा कि जरा को बीच में आने की कोई भी जरूरत नहीं है, हम काफी हैं; मैन | मास-साइकोलाजी का उपयोग कर रहा हूं, भीड़ का मनोविज्ञान। इज़ इनफ, पर्याप्त है आदमी; तब से हमने आदमी की समस्याएं अगर गधे को पता चले कि अकेले कल्लू ही चल रहे हैं, तो करोड़ गुना गहरी और गहन कर दी हैं। और सुलझाव कुछ भी बहुत मुश्किल में पड़ जाएंगे। वे बैठ जाएं, कि नहीं चलते! कोई दिखाई नहीं पड़ता। रोज उलझाव बढ़ता चला जाता है। | दुनिया में नहीं चल रहा है, हम ही क्यों परेशान हों! लेकिन चारों
एक समस्या सुलझाते हैं, तो सुलझाने में पच्चीस नई समस्याएं तरफ गधे चल रहे हैं—माणिक भी, हीरा भी—सब चल रहे हैं, खड़ी कर लेते हैं। उनको सुलझाने जाते हैं कि और हरेक समस्या | | तो कल्लू भी चल रहे हैं। वे प्रसन्न हैं, क्योंकि अकेले तो लदे नहीं; से पच्चीस समस्याएं खड़ी होती हैं। सारा मनुष्य एक समस्या हो | सब लदे हैं। और जरूर कहीं पहुंच जाएंगे। गया है; सिर्फ एक समस्या; जिसे कहीं से भी छुओ, और समस्या! कहीं पहुंचना नहीं है। कहीं पहुंचना नहीं है। जैसे सागर को कहीं से भी चखो, और नमकीन, नमक। ऐसे | अरब में एक छोटी-सी कहावत है। एक बूढ़े ऊंट से किसी ने आदमी को कहीं से भी छुओ, और समस्याएं निकल आती हैं। कुछ पूछा कि तुम पहाड़ पर जाते वक्त ज्यादा आनंद अनुभव करते हो भी करो, और समस्याएं। सब तरफ समस्याएं फैल गई हैं। क्या | | कि पहाड़ से नीचे जाते वक्त? उसने कहा, ये दोनों बातें फिजूल बात हो गई है?
हैं। असली सवाल यह है कि मेरे ऊपर बोझ है या नहीं। ऊपर-नीचे ___ असल में प्रकृति से लड़कर हम जो कर रहे हैं, उससे यही होना | | का कोई सवाल नहीं है। मेरा दोनों वक्त एक ही काम रहता है। चाहे निश्चित था। प्रकति दस्तर है. उससे लड़ा नहीं जा सकता। उससे पहाड़ के नीचे जाऊं, तो बोझ ले जाता है। चाहे पहाड़ के ऊपर लड़कर हम सिर्फ अपने ऊपर मुसीबत बुला सकते हैं। हां, थोड़ी | | जाऊं, तो बोझ ले जाता हूं। उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। सदा बोझ देर हम अपने को भ्रम में रख सकते हैं कि हम लड़ रहे हैं, और ही ढोता हूं। जीत जाएंगे। हम थोड़ी देर आशाएं बांध सकते हैं। लेकिन सब लेकिन हमें फर्क लगता है। कभी हम जब सफलता की तरफ जा आशाएं धूल-धूसरित हो जाती हैं; सब मिट्टी में मिल जाती हैं। | रहे होते हैं, तो बोझ हम आसानी से ढोते हैं, क्योंकि हमें लगता है,
फिर भी आदमी अजीब है, अब तक उसे खयाल नहीं आया। | पहाड़ उतार पर है। जल्दी पहुंच जाते हैं। पर हमें पता नहीं कि पहाड़ और हम एक-दूसरे को हिम्मत बढ़ाए चले जाते हैं। बाप बेटे को के नीचे जाकर करना क्या है ? फिर नया बोझ लादना है, फिर पहाड़ कहता है, कोई फिक्र नहीं; मैं नहीं जीता, तू जीत जाएगा। जरा | | पर चढ़ना है! परिस्थितियां ठीक न थीं। शिक्षक विद्यार्थी को कहे जाता है, कोई - हर सफलता नई असफलता का बोध देगी। हर सफलता नई फिक्र नहीं। हम नहीं जान पाए कि सत्य क्या है, लेकिन तुम जान सफलता के लिए यात्रा बनेगी। हर सफलता पड़ाव होगी, मंजिल लोगे, क्योंकि अब ज्ञान और काफी विकसित हो गया है। तो नहीं। मगर जब सफल होता है मन, तो हम ज्यादा बोझ ढो लेते
सना है मैंने, एक आदमी एक रास्ते से गुजर रहा है, एक गरीब हैं; और जब असफल होता है, तो जरा पीड़ित अनुभव करते हैं। गधे को लिए हुए है। उसके ऊपर सामान काफी लादा हुआ है। | लेकिन हम जिंदगीभर करते क्या हैं? शाबाश कल्लू! शाबास जितना गरीब गधा हो, उतना ज्यादा सामान लाद देते हैं लोग! | हीरा! शाबास माणिक! और चले जा रहे हैं। . लेकिन रास्तेभर के लोग बड़े हैरान हैं, क्योंकि वह चिल्ला-चिल्ला ___ यह जो हमारी, आदमी की आज की दशा है। और हम सब कर कई नाम ले रहा है, और गधा एक है। कभी कहता है, शाबाश | एक-दूसरे को कहे चले जाते हैं कि बढ़े जाओ, मंजिल बहुत पास कल्लू! कभी कहता है, शाबास हीरा! कभी कहता है, शाबास | है। बढ़े जाओ, मंजिल बहुत पास है। न हमें कोई मंजिल मिली माणिक! गधा एक है, और नाम इतने ले रहा है!
है; न जिनसे हम कह रहे हैं, उन्हें कोई मिलेगी; लेकिन चलाए
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