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________________ - प्रकृति और परमात्मा - कुछ उसको ही समर्पित हो जाए। व्यक्ति उस प्रेम को खोज रहा है, जो उसने मां से पाया था। ऐसा जो दिन-रात भजे कोई, तो विराट से सम्मिलन शुरू हो मनोवैज्ञानिक इसको ऐसा कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी पत्नी जाता है। क्योंकि हमारी चेतना उसी तरफ बहने लगती है, जिस में अपनी मां को खोज रहा है, जो कि बहुत मुश्किल मामला है। तरफ हमारी स्मृति होती है। स्मृति चेतना के लिए चैनेलाइजेशन है। मिल नहीं सकता! इसलिए कभी तृप्ति नहीं हो सकती। जैसे हम नहर बनाते हैं नदी में। नहर नहीं बनाते, तो नदी बहती वह जो अनूठा प्रेम था-शब्दहीन, निःशब्द, मौन; जाना था है, जहां उसे बहना होता है। नहर बना देते हैं, तो फिर नदी नहर से जिसे, किसी ने कहा नहीं था कभी; किसी ने दावा नहीं किया था; बहती है। और जहां हमें ले जाना होता है, नदी वहां पहुंच जाती है। लेकिन फिर भी बहा था और पहचाना था—उसी प्रेम की तलाश स्मरण या जिसे संतों ने स्मृति कहा है, सुरति कहा है, बुद्ध ने चल रही है जिंदगीभर। वह प्रेम फिर दुबारा नहीं मिलेगा, इसलिए राइट माइंडफुलनेस कहा है, सम्यक स्मृति; या और कोई सुमिरन बेचैनी है, इसलिए कठिनाई है, इसलिए अड़चन है। या और भी नाम हैं हजार। भाव में प्रवेश कर जाए यह बात। सुबह । मां की खोज चल रही है। वह नहीं मिलती। वह नहीं पकड़ में जब नींद खुले, तो ऐसा न लगे कि मैं जग रहा हूं; ऐसा लगे कि आती फिर कभी। वह कहां मिलेगी? वह कैसे मिल सकती है? मेरे भीतर परमात्मा जागा। और यह शब्द से नहीं; ऐसा आप सुबह उसका उपाय भी न के बराबर है। फिलहाल तो नहीं है। पर उसने उठकर कहें कि मेरे भीतर परमात्मा जागा. उससे बहत अर्थ नहीं है। तो कभी कहा नहीं था। पत्र नहीं लिखे थे: कोई प्रेम-पत्र नहीं लिखे क्योंकि कहने का मतलब ही यह है कि आपको भाव पैदा नहीं हो थे, बड़े दावे नहीं किए थे। लेकिन फिर दावे करने वाले लोग आते रहा है। भाव पैदा हो, तो कहने की जरूरत नहीं है। | हैं। दावे बहुत होते हैं, और भीतर कुछ भी नहीं होता। भाव और शब्द में फर्क है। शब्द धोखा देते हैं। एक आदमी | सुना है मैंने कि एक प्रेमी अपनी प्रेमिका से कह रहा है कि अगर बार-बार किसी से कहता है, मैं बहुत प्रेम करता हूं; मैं बहुत प्रेम आग भी बरसती हो, तो भी तुझे बिना देखे मैं नहीं रह सकता। अगर करता हूं। तब वह धोखा देने की कोशिश कर रहा है। क्योंकि जब प्रलय भी आ जाए, तो भी तुझे बिना देखे मैं नहीं रह सकता। अगर प्रेम होता है, तो प्रेम शब्द-शून्य होता है; कहने की भी जरूरत नहीं | एटम बम भी बरसता हो, तो भी मैं तुझे देखे बिना नहीं रह सकता। होती पूरे प्राणों से प्रकट होता है; रोएं-रोएं से प्रकट होता है। फिर उसकी प्रेयसी ने, जब वह विदा हो रहा था, उससे पूछा कि मां बच्चे से कह भी नहीं सकती कि मैं तुझे प्रेम करती हूं। कैसे कल आने वाले हो या नहीं? उसने कहा कि देखो; अगर सांझ वर्षा कहेगी! बच्चा भाषा भी नहीं जानता। फिर भी बच्चा पहचानता है। | न हुई, तो मैं जरूर आ जाऊंगा। रोएं-रोएं से, मां के चारों तरफ, प्रेम बहने लगता है। कोई भाषा __ वह जो बेचारा कह रहा था, प्रलय आ जाए, आग बरसती हो, नहीं है। | वह कह रहा है, कल अगर वर्षा न हुई, तो जरूर आ जाऊंगा! दावे और बड़े मजे की बात है, मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अगर बच्चे | हैं फिर, लेकिन दावों के पीछे कोई भाव नहीं है। को मां के पास बड़ा न किया जाए, तो फिर वह जिंदगी में किसी यह जो स्मरण है, यह जो प्रभु-परायण होने की बात है, यह जो को भी प्रेम न कर पाएगा-किसी को भी। और मजा यह है कि मां कृष्ण कहते हैं, मुझे ही जो भजे चौबीस घंटे, इसका अर्थ? इसका कभी बच्चे से कहती नहीं कि मैं तुझे प्रेम करती हूं, क्योंकि वह तो अर्थ है, जो भाव से मुझमें जीए। उठे-बैठे कहीं भी, भाव से मुझमें भाषा भी नहीं जानता; उससे कहने का कोई उपाय नहीं है। लेकिन रहे। चले-फिरे कहीं भी, भाव से मुझमें रहे। करे कुछ भी, भाव से उसे छाती से लगा लेती है। भाव की कोई धारा दोनों की छातियों मुझमें रहे। एक अंतर्धारा भाव की मेरी तरफ बहती रहे, बहती रहे, के बीच आदान-प्रदान हो जाती है। उसकी आंखों में झांकती है। बहती रहे। धीरे-धीरे वह नहर खुद जाती है, जिससे व्यक्ति और भाव की कोई धारा एक-दूसरे की आंख से उतर जाती है। उसका परमात्मा के बीच सेतु बन जाता है। हाथ हाथ में लेती है, और भाव की कोई धारा हाथ-हाथ के पार और एक बार वह सेतु निर्मित हो जाए, फिर इस प्रकृति से ज्यादा चली जाती है। शब्द नहीं। निर्बल कोई चीज नहीं है। यह बहुत निर्बल है। बहुत दीन है प्रकृति। इसलिए मनोवैज्ञानिक यह भी कहते हैं कि कोई भी व्यक्ति लेकिन जब तक वह सेतु न बने, महाशक्तिशाली है प्रकृति। क्योंकि अपनी पत्नी से तृप्त नहीं हो पाएगा। उसका कारण है कि प्रत्येक | | ये सब तुलनात्मक वक्तव्य हैं। हमारी तुलना में प्रकृति बहुत 389
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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