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________________ गीता दर्शन भाग-3 चित्त वृत्ति निरोध, तो फ्रायड से बहुत गहरा जानते हैं। | अपने बेटे को कि जब तुम मेरे अहंकार को चोट पहुंचाते हो, तो मन जो भी इसका अर्थ करता है दमन, वह नहीं समझता। उन्हीं अर्थ होता है, तुम्हारी गर्दन दबा दूं। ऐसा होता है। इसमें कुछ छिपाने जैसा करने वालों ने यह हमारा समाज पैदा किया है, जो निपट बेईमान | नहीं है। इतना ही भीतर होता है। इसे प्रकट करने जैसा है। है, हिपोक्रेट है, पाखंडी है; बिलकुल झूठ है। और सबको पता है । मित्र तो मैं उन्हें ही कहता हूं, जिनके सामने हमारे मुखौटे न हों। कि बिलकुल झूठ है। लेकिन ऐसे जीए चले जाते हैं कि जैसे | परिवार मैं उसे ही कहता हूं, जिनके सामने हमारे मुखौटे न हों। बिलकुल सच है। बस चेहरों से ही संबंध बनाते हैं। और भीतर एक समाज मैं उसे ही कहता हूं, जो हमें स्वतंत्रता देता हो कि हम अपने दूसरी दुनिया हमारे नीचे अंडर करेंट की तरह सरकती रहती है। मुखौटे उतारकर, जो सीधे-सच्चे हैं, हो सकें। वही सुसंस्कृति है, अगर कोई आदमी चांद से उतर आए, मंगल ग्रह से आकर हमें | जहां हमारे भीतर जो है, हम वही होने के लिए स्वतंत्र हैं। देखे, तो उसे कुछ बातों का पता ही नहीं चलेगा। हमारे चेहरों का और अगर यह हो सके, अगर यह आप कर पाएं, तो आपको ही पता चलेगा। उसे पता ही नहीं चलेगा कि भीतर एक और अपने भीतर के असली रूप में जीने का अवसर मिलेगा। और तब असली दुनिया है, वास्तविक, जो चल रही है। | आप पाएंगे, वह असली रूप नरक है। और वह असली रूप दुख ___ पति-पत्नी सड़क पर चलते हैं, तब वे एक दूसरी दुनिया में हैं, है। वह असली रूप बद्ध के पहले आर्य-सत्य को प्रकट कर चेहरे वाली दुनिया में। जब उनको घर उनके मुखौटे उतारकर और जाएगा। लड़ते-झगड़ते देखो, तब एक दूसरा चेहरा है। यह तो आईने-वाईने __ और वह पहला आर्य-सत्य प्रकट हो जाए, तो उपाय तत्काल में तैयार होकर जब सड़क पर निकलते हैं, तो दूसरे दंपतियों को मिल जाता है। मकान में आग लगी है और छलांग लगाकर कोई ईर्ष्या का कारण हो जाते हैं कि दांपत्य तो यह है! कैसा सुख है! बाहर निकल जाए, ऐसे ही आप अपनी तथाकथित वृत्तियों के जाल हालांकि वे भी यही सोच रहे हैं उनके चेहरे और मुखौटों को देखकर | से छलांग लगाकर बाहर हो जाएंगे। दुबारा लौटने का मन न रह कि दांपत्य तो यह है! कैसा सुख है! जाएगा। इतना जहर है वहां! इतनी पीड़ा है वहां! असली आदमी जो भीतर बैठे हैं, हिंसा से भरे, क्रोध से भरे, लेकिन हमें उसकी प्रतीति नहीं होती। क्योंकि हम अपने को वासना से भरे, लोभ से भरे, क्रूरता से भरे, उस असली आदमी को | मानते हैं कि नहीं, ये सब बातें हम में नहीं हैं। कभी-कभी क्रोध हो पहचानना पड़े; उस असली आदमी को जीना भी पड़े। उस असली जाता है, वह दूसरी बात है, परिस्थितिवश। लेकिन हम में कोई आदमी से भागने का सीधा कोई उपाय नहीं है; जीकर ही उससे क्रोध है नहीं। छुटकारा है। उसको जीना पड़े, उसकी पीड़ा को अनुभव करना लेकिन नहीं है, तो हो नहीं सकता। स्थिति बिलकुल उलटी है; पड़े, उसके पूरे संताप से गुजरना पड़े। और जो आदमी भी उसके चौबीस घंटे भीतर क्रोध चल रहा है। बिलकुल जैसे बिजली दौड़ पूरे संताप से गुजरने को राजी है, वह क्षण में बाहर हो सकता है। रही है तार में। जब हाथ लगाओ, तब शॉक मारती है। इसका भागें मत। एस्केप से कुछ होने वाला नहीं। अपने से भागकर मतलब यह नहीं कि जब हाथ लगाते हैं, तब दौड़ती है। दौड़ती तो कहीं जा नहीं सकते हैं। जो भी अपने भीतर है, उसे पूरी तरह जीएं। चौबीस घंटे रहती है; हाथ लगाओ, तब पता चलता है। और साधक मुखौटे को तोड़ डाले, हटा दे। कह दे कि जैसा हूं, तो क्रोध तो आपमें चौबीस घंटे दौड़ रहा है, कोई जरा हाथ बुरा-भला ऐसा हूं। आदमी बुरा हूं, बुरा हूं। इस बुरेपन के ऊपर मैं लगाए, तब शॉक निकलता है। बिजली का तार भी ऐसा ही सोचता कोई मुलम्मा नहीं करूंगा, कोई मलहम-पट्टी नहीं करूंगा। बुरा हूं, होगा, जैसा आप सोचते हैं कि हममें कोई बिजली नहीं दौड़ती। यह तो बुरा हूं, उसमें क्या किया जा सकता है! इसे जाहिर करूंगा कि तो जब कोई हाथ लगाता है, तब शॉक पैदा होता है। हाथ लगाने में बुरा हूं। वाले से शॉक पैदा नहीं होता। जब कोई मुझे गाली देता है, उससे उसे कह देना चाहिए अपनी पत्नी को कि जब सडक पर कोई संदर क्रोध नहीं पैदा होता; वह तो सिर्फ हाथ लगा रहा है। क्रोध की स्त्री दिखाई पड़ती है, तो मेरा मन डोलता है। उसे कह देना चाहिए, अंतर्धारा मुझमें बहती रहती है। गाली से जरा संबंध जुड़ा कि शॉक! ऐसा होता है। और जैसे ही वह इस मुखौटे को तोड़ना शुरू मैं विकराल हो उठता हूं, पागल हो उठता हूं। वह पागलपन हमारे करेगा...उसे कह देना चाहिए अपनी पत्नी को या अपने पति को या भीतर है, वह विक्षिप्तता हमारे भीतर है। 160/
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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