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गीता दर्शन भाग - 3 >
जवाब दे देते हैं।
कभी आपने घर में खयाल किया कि अगर आपके घर में दो बच्चे हैं, एक छोटा है, एक थोड़ा बड़ा है। आपसे सवाल पूछते हैं; आप जवाब देते हैं। आप जरा घर के बाहर चले जाएं। छोटा बच्चा बड़े बच्चे से सवाल पूछने लगता है, बड़ा बच्चा छोटे बच्चे को जवाब देने लगता । वही काम जो आप कर रहे थे, वह करने लगता है!
ये सब सवाल-जवाब बच्चों के बीच हुई चर्चाएं हैं। प्रौढ़ता उस क्षण घटित होती है, जहां कोई सवाल नहीं है, जहां कोई जवाब नहीं है, जहां इतना परम मौन है कि पूछने का भी कोई-कोई पूछने का भी विघ्न नहीं है।
तो
कृष्ण कहते हैं, ज्ञान-विज्ञान से जो तृप्त है।
नहीं, ऐसा नहीं कि सब ज्ञान-विज्ञान जान लिया। बल्कि ऐसा कि सब जानने की चेष्टा को ही व्यर्थ जाना । सब जानने की चेष्टा को ही व्यर्थ जाना। सब कुतूहल व्यर्थ जाने । सब पूछना व्यर्थ जाना। । फ्यूटिलिटी जाहिर हो गई कि कुछ पूछने से कभी कुछ मिला नहीं। यही अंतर है फिलासफी और धर्म का । यही अंतर है दर्शन और धर्म का
दार्शनिक पूछे चले जाते हैं। वे बूढ़े हो गए बच्चे हैं, जिनका बचपन हटा नहीं। वे पूछे चले जाते हैं। वे पूछते हैं, जगत किसने बनाया? और पूछते हैं कि फिर उस बनाने वाले को किसने बनाया? और फिर पूछते हैं कि उस बनाने वाले को किसने बनाया? और पूछते चले जाते हैं। और उन्हें कभी खयाल भी नहीं आता कि वे क्या पागलपन कर रहे हैं। इसका कोई अंत होगा? इसका कोई भी तो अंत नहीं होने वाला है।
अज्ञान अपनी जगह रहेगा। ये सारे उत्तर अज्ञान से दिए गए उत्तर
कुछ नहीं होगा। प्रश्न फिर खड़ा हो जाएगा। पूछते हैं, जगत किसने बनाया? कहते हैं, ईश्वर ने बनाया। अज्ञान में दिया गया उत्तर है। सच तो यह है कि अज्ञानी ही पूछते रहते हैं, अज्ञानी ही उत्तर देते रहते हैं !
उत्तर और प्रश्नों में जगत की पहेली हल होने वाली नहीं है। तो कहते हैं कि जैसे कुम्हार घड़ा बनाता है, ऐसे भगवान ने यह संसार बना दिया। भगवान को भी कुम्हार बनाने से नहीं चूकते। उसको कुम्हार बना दिया। घड़ा कैसे बनेगा बिना कुम्हार के ? तो जगत कैसे बनेगा बिना भगवान के? तो एक महा कुम्हार, उसने घड़े की तरह जगत को बना दिया।
लेकिन कोई बच्चा जरूर पूछेगा कि यह तो हम समझ गए कि | जगत उसने बना दिया, लेकिन उसको किसने बनाया? तो जो जरा धैर्यवान हैं, वे फिर कुछ और उत्तर खोजेंगे। कोई अधैर्यवान हैं, तो डंडा उठा लेंगे। वे कहेंगे, बस, अतिप्रश्न हो गया! अब आगे मत पूछो, नहीं सिर खोल देंगे !
जब अतिप्रश्न ही कहना था, तो पहले प्रश्न पर ही कह देना था कि व्यर्थ मत पूछो। क्योंकि फर्क क्या पड़ा! बात तो वहीं की वहीं खड़ी है। राज वहीं का वहीं खड़ा है। सिर्फ प्रश्न पहले जगत के साथ लगा था कि किसने बनाया, अब वही प्रश्न परमात्मा के साथ लग गया कि किसने बनाया । अल्टिमेट के साथ जुड़ा है वह, अल्टिमेट के साथ ही जुड़ा हुआ है। पहले जगत आखिरी था, अब परमात्मा आखिरी है। हम पूछते हैं, उसको किसने बनाया? और अगर आप कहते हैं कि वह बिना बनाया, स्वयंभू है, तो फिर पहले जगत को ही स्वयंभू मान लेने में कौन-सी अड़चन आती थी ?
दार्शनिक बच्चों के कुतूहल में पड़े हुए लोग हैं। इसलिए सब फिलासफी चाइल्डिश होती है। कितने ही बड़े दार्शनिक हों, कितने ही गुरु-गंभीर उन्होंने ग्रंथ लिखे हों, चाहे हीगल हों और चाहे बड़े मीमांसक हों, कितने ही उन्होंने गुरु-गंभीर ग्रंथ लिखे हों और कितने ही बड़े-बड़े शब्दों का उपयोग किया हो और कितना ही जाल बुना हो, अगर बहुत गहरे में उतरकर देखेंगे, तो छिपा हुआ बच्चा पाएंगे, जो कुतूहल कर रहा है, क्युरिअस है कि यह क्यों है, वह क्यों है ! फिर अपने ही उत्तर दे लेता है। खुद के ही सवाल हैं और खुद के ही जवाब हैं और खुद का ही खेल है।
कृष्ण कहते हैं, जो तृप्त हुआ इस सब बचकानेपन से। जो प्रौढ़ हुआ, जो कहता है, पूछना ही व्यर्थ है, क्योंकि उत्तर कौन देगा! जो | इतना प्रौढ़ हुआ कि कहता है कि चीजों का स्वभाव ऐसा है। कोई सवाल नहीं है। आग जलाती है और पानी ठंडा है। ऐसा है। ऐसा वस्तुओं का स्वभाव है।
महावीर का एक वचन है बहुत कीमती, जिसमें उन्होंने कहा है, वत्थूस्वभावो धम्म, वस्तु के स्वभाव को जान लेना ही धर्म है। ऐसा जान लेना कि ऐसा वस्तुओं का स्वभाव है; इसका यह स्वभाव है, उसका वह स्वभाव है, बस, इतना ही जान लेना धर्म है। मगर ऐसा जानना तभी संभव हो सकता है, जब ज्ञान-विज्ञान की वह | जिज्ञासा है - अनंत जिज्ञासा है, दौड़ाती ही रहती है कि और जानूं, और जानूं - वह शांत हो जाए, तृप्त हो जाए।
तो
कृष्ण कहते हैं, जिसकी जिज्ञासा, जिसका कुतूहल क्षीण
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