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________________ गीता दर्शन भाग - 3 मैंने यह नहीं कहा। अभी तो आप जिंदा हैं ! बुद्ध ने कहा, इससे क्या फर्क पड़ता है कि कल मौत होगी कि परसों मौत होगी। जब मौत निश्चित है, तो जीवन व्यर्थ हो गया। अब जितना भी समय मेरे पास है, मैं मौत की खोज में लगा दूं कि मौत क्या है ! क्योंकि जो निश्चित है, उसी की खोज उचित है। जीवन तो अनिश्चित हो गया कि समाप्त हो जाएगा। मौत, एक तुम कहते हो, निरपवाद है; होगी ही । निश्चित एक तथ्य दिखाई पड़ा है, मौत । अब मैं इसकी खोज कर लूं कि मौत क्या है! क्योंकि निश्चित की ही खोज करने कोई अर्थ है | अनिश्चित की, खो जाने वाले की खोज करना | व्यर्थ है। हैरानी होगी हमें। हम सुख की खोज करते हैं, बुद्ध दुख की खोज करते हैं। हम जीवन की खोज करते हैं, बुद्ध मृत्यु की खोज करते हैं। और बुद्ध मृत्यु की खोज करके परम जीवन को पा लेते हैं। और हम जीवन को खोजते खोजते सिवाय मृत्यु के और कुछ भी नहीं पाते ! और बुद्ध दुख की खोज करते हैं और परम आनंद को उपलब्ध हो जाते हैं। और हम सुख को खोजते खोजते सिवाय कचरे के हाथ में ढेर लग जाने के और छाती पर व्यर्थ का भार इकट्ठा हो जाने के, कहीं भी नहीं पहुंचते हैं।' उलटा दिखाई पड़ेगा, लेकिन यही सत्य है। जो मृत्यु को खोजता है, वह अमृत को खोज लेता है। जो दुख के प्रति सजग होकर दुख की खोज करता है, वह आनंद को उपलब्ध हो जाता है। इसलिए बुद्ध ने जब अपने भिक्षुओं को पहला उपदेश दिया, तो कहा कि तुम्हें मैं पहला आर्य सत्य कहता हूं। पहला महान सत्य, वह यह है कि जीवन दुख है । तुम इसकी खोज करो । योग का आधारभूत वही है कि जीवन दुख है। तभी चित्त उपराम होगा। यह तो पहली प्रतीति है कि जीवन दुख है। दूसरी बात आपसे कहूं। जैसे ही आपको यह स्पष्ट हो जाएगा कि जीवन दुख है, आप जीवन के अतिक्रमण की चेष्टा में संलग्न हो जाएंगे। क्योंकि दुख के बीच कोई भी विश्राम को उपलब्ध नहीं हो सकता। अगर यह प्रतीत हो कि पूरा जीवन है, तो आप इस जीवन से छलांग लगाने की कोशिश में लग जाएंगे। क्योंकि दुख के साथ ठहर जाना असंभव है। सुख के साथ हम ठहर सकते हैं, चाहे भ्रांत ही क्यों न हो। चाहे चेहरे पर ही क्यों न सिर्फ सुख मालूम पड़ता हो और भीतर सब दुख छिपा हो, लेकिन फिर भी हम रात ठहर सकते हैं, इस सुख को हम बिस्तर में सुला सकते हैं अपने साथ । चाहे चेहरा ही सुख का क्यों न हो, भीतर सब दुख ही क्यों न भरा हो, रात हम इस सुख के साथ सो सकते हैं। लेकिन अगर चौंककर रात में पता चल जाए कि दुख है, तो हम छलांग लगाकर बिस्तर के बाहर हो जाएंगे। दुख के साथ जीना असंभव है। तो पहला आर्य-सत्य, बुद्ध कहते हैं, जीवन दुख है। दूसरा आर्य सत्य, बुद्ध कहते हैं कि दुख से मुक्ति का उपाय है। जैसे ही प्रतीत हो, वैसे ही उपाय की खोज शुरू हो जाती है कि दुख से मुक्ति का उपाय क्या ! ध्यान रखें, हम सुख खोजते हैं, बुद्ध दुख से मुक्ति खोजते हैं। इन दोनों की दिशाएं बिलकुल अलग हैं। | सुख की खोज संसार है। दुख से मुक्ति की खोज योग है। सुख की खोज संसार है। दुख से मुक्ति की खोज, बहुत निगेटिव खोज है योग की । और संसारी की खोज बड़ी पाजिटिव मालूम पड़ती है। लगता है, हम सुख को खोज रहे हैं। योग कहता है, दुख से मुक्ति खोजी जा सकती है। और जब दुख से मुक्ति हो जाती है, तो जो शेष रह जाता है, वही आनंद है। क्योंकि वह स्वभाव है। सिर्फ व्यर्थ | को हटा देना है, जो स्वभाव है, वह प्रकट हो जाएगा। | बुद्ध कहते हैं, दूसरा आर्य सत्य भिक्षुओ, दुख से मुक्ति का उपाय है। लेकिन वह उपाय तुम्हारी समझ में तभी आएगा, जब दुख तुम्हारी प्रतीति, साक्षात्कार बन जाए। सच तो यह है, प्रतीति से ही उपाय निकलता है। आपके घर में आग लग गई है, तो आप उपाय खोजते हैं घर के बाहर निकलने का ? आप शास्त्र पढ़ते हैं, कि कोई किताब देखें, जिसमें घर में आग लगती हो, तो निकलने की विधियां लिखी हों ? कि किसी गुरु के चरणों में जाएं और उससे पूछें कि घर में आग लगी है, निकलने का उपाय क्या है? कि भगवान से प्रार्थना करें कि घर में आग लगी है, घुटने टेककर भगवान से कहें कि हे प्रभु, रास्ता बता, घर में आग लगी है ! घर में अगर आग लगी है और इसकी प्रतीति हो गई। हां, प्रतीति | न हो, तो बात अलग है। तब, लगी न लगी बराबर है। घर में आग | लगी है, इसकी प्रतीति उपाय बन जाती है। आप छलांग लगाकर बाहर हो जाएंगे। खिड़की से कूद सकते हैं, दरवाजे से निकल सकते हैं, छत से कूद सकते हैं। यह प्रतीति उपाय खोज लेगी। जैसे ही यह प्रतीति हुई कि घर में आग लगी है, आपकी पूरी चेतना संलग्न हो जाएगी और उपाय खोज लेगी। अगर ठीक समझा जाए, तो इस बात का साक्षात्कार कि घर जल 152
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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