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गीता दर्शन भाग-3 >
आरुरुक्षोर्मुनेयोगं कर्म कारणमुच्यते । योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते । । ३ । । और समत्वबुद्धिरूप योग में आरूढ़ होने की इच्छा वाले मननशील पुरुष के लिए योग की प्राप्ति में, निष्काम भाव से कर्म करना ही हेतु कहा है और योगारूढ़ हो जाने पर उस योगारूढ़ पुरुष के लिए सर्वसंकल्पों का अभाव ही कल्याण में हेतु कहा है।
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मत्वबुद्धि योग का सार है। समत्वबुद्धि को सबसे पहले समझ लेना उपयोगी है । साधारणतः मन हमारा अतियों में डोलता है, एक्सट्रीम्स में डोलता है। या तो एक अति पर हम होते हैं, या दूसरी अति पर होते हैं। या तो हम किसी के प्रेम में पागल हो जाते हैं, या किसी की घृणा में पागल हो जाते हैं। या तो हम धन को पाने के लिए विक्षिप्त होते हैं, या फिर हम त्याग के लिए विक्षिप्त हो जाते हैं। लेकिन बीच में ठहरना अि कठिन मालूम होता है। मित्र बनना आसान है, शत्रु भी बनना आसान है; लेकिन मित्रता और शत्रुता दोनों के बीच में ठहर जाना अति कठिन है। र जो दो के बीच में ठहर जाए, वह समत्व को उपलब्ध होता है।
जीवन सब जगह द्वंद्व है। जीवन के सब रूप द्वंद्व के ही रूप हैं। जहां भी डालेंगे आंख, जहां भी जाएगा मन, जहां भी सोचेंगे, वही पाएंगे कि दो अतियां मौजूद हैं। इस तरफ गिरेंगे, तो खाई मिल जाएगी; उस तरफ गिरेंगे, तो कुआं मिल जाएगा। दोनों के बीच में बहुत पतली धार है। वहां जो ठहर जाता है, वही योग को उपलब्ध होता है। दो के बीच, द्वंद्व के बीच जो पतली धार है, द्वंद्व के बीच जो संकीर्ण मार्ग है, वही संकीर्ण मार्ग समत्वबुद्धि है।
समत्वबुद्धि का अर्थ है, संतुलन; द्वंद्व के बीच सम हो जाना । जैसे कभी देखा हो दुकान पर दुकानदार को तराजू में सामान को तौलते। जब दोनों पलड़े बिलकुल एक से हो जाएं और तराजू का कांटा सम पर ठहर जाए – न इस तरफ झुकता हो बाएं, न उस तरफ झुकता हो दाएं; न बाएं जाए; न दाएं जाए, न लेफ्टिस्ट हो, न राइटिस्ट हो बीच में ठहर जाए, तो समत्वबुद्धि उपलब्ध होती है।
कृष्ण कहते हैं, समत्वबुद्धि योग का सार है।
कृष्ण उसे योगी न कहेंगे, जो किसी एक अति को पकड़ ले। वह भोगी के विपरीत हो सकता है, योगी नहीं हो सकता । त्यागी हो
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| सकता है। अगर शब्दकोश में खोजने जाएंगे, तो भोगी के विपरीत जो शब्द लिखा हुआ मिलेगा, वह योगी है। शब्दकोश में भोगी के विपरीत योगी शब्द लिखा हुआ मिल जाएगा। लेकिन कृष्ण भोगी के विपरीत योगी को नहीं रखेंगे। कृष्ण भोगी के विपरीत त्यागी को रखेंगे।
योगी तो वह है, जिसके ऊपर न भोग की पकड़ रही, न त्याग की पकड़ रही। जो पकड़ के बाहर हो गया। जो द्वंद्व में सोचता ही नहीं; निर्द्वद्व हुआ। जो नहीं कहता कि इसे चुनूंगा; जो नहीं कहता कि उसे चुनूंगा। जो कहता है, मैं चुनता ही नहीं; मैं चुनाव के बाहर खड़ा हूं। वह च्वाइसलेस, चुनावरहित है। और जो चुनावरहित है, वही संकल्परहित हो सकेगा। जहां चुनाव है, वहां संकल्प है। मैं हूं, मैं हूं। अगर मैं यह भी कहता हूं कि मैं त्याग को चुनता हूं, तो भी मैंने किसी के विपरीत चुनाव कर लिया। भोग के विपरीत कर लिया। अगर मैं कहता हूं, मैं सादगी को चुनता हूं, तो मैंने वैभव और विलास के विपरीत निर्णय कर लिया। जहां चुनाव है, वहां अति आ जाएगी। चुनाव मध्य में कभी भी नहीं ठहरता है। चुनाव सदा ही एक पर ले जाता है। और एक बार चुनाव शुरू हुआ, तो आप अंत आए बिना रुकेंगे नहीं ।
और भी एक मजे की बात है कि अगर कोई व्यक्ति चुनाव करके एक छोर पर चला जाए, तो बहुत ज्यादा देर उस छोर पर टिक न सकेगा; क्योंकि जीवन टिकाव है ही नहीं। शीघ्र ही दूसरे छोर की आकांक्षा पैदा हो जाएगी। इसलिए जो लोग दिन-रात भोग में डूबे | रहते हैं, वे भी किन्हीं क्षणों में त्याग की कल्पना और सपने कर लेते | हैं | और जो लोग त्याग में डूबे रहते हैं, वे भी किन्हीं क्षणों में भोग | के और भोगने के सपने देख लेते हैं। वह दूसरा विकल्प भी सदा मौजूद रहेगा। उसका वैज्ञानिक कारण है।
द्वंद्व सदा अपने विपरीत से बंधा रहता है; उससे मुक्त नहीं हो सकता। मैं जिसके विपरीत चुनाव किया हूं, वह भी मेरे मन में सदा मौजूद रहेगा। अगर मैंने कहा कि मैं आपको चुनता हूं उसके विपरीत, तो जिसके विपरीत मैंने आपको चुना है, वह आपके चुनाव में सदा मेरे मन में रहेगा। आपका चुनाव आपका ही चुनाव नहीं है, किसी के विपरीत चुनाव है। वह विपरीत भी मौजूद रहेगा।
और मन के नियम ऐसे हैं कि जो भी चीज ज्यादा देर ठहर जाए, उससे ऊब पैदा हो जाती है। तो जो मैंने चुना है, वह बहुत देर ठहरेगा मैं ऊब जाऊंगा। और ऊबकर मेरे पास एक ही विकल्प रहेगा कि उसके विपरीत पर चला जाऊं। और मन ऐसे ही एक द्वंद्व