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गीता दर्शन भाग - 3 >
रहेगा। मृत्यु पीसती ही रहेगी। और हम कंपते ही रहेंगे, स्वभावतः । यह बिलकुल स्वाभाविक है कि मौत को देखकर हम कंप जाएं। यह बिलकुल स्वाभाविक है कि चारों तरफ दुख ही दुख हो और हम कंप जाएं। यह स्वाभाविक तभी तक है, जब तक बीच की कील का सहारा नहीं मिला।
कृष्ण उसी कील की बात कर रहे हैं कि पा लेता है जो प्रभु के परम लाभ को, फिर बड़े से बड़े दुख उसे चलायमान नहीं करते हैं।
तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम् । स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ।। २३ ।। और जो दुखरूप संसार के संयोग से रहित है तथा जिसका नाम योग है, उसको जानना चाहिए। वह योग न उकताए हुए चित्त से अर्थात तत्पर हुए चित्त से निश्चयपूर्वक करना कर्तव्य है।
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सार के संयोग से जो तोड़ दे, दुख के संयोग से जो पृथक कर दे, अज्ञान से जो दूर हटा दे, ऐसे योग को अथक रूप से साधना कर्तव्य है, ऐसा कृष्ण कहते हैं। अथक रूप से ! बिना थके, बिना ऊबे ।
इस बात को ठीक से समझ लें।
मनुष्य का मन बने में बड़ी जल्दी करता है। शायद मनुष्य के बुनियादी गुणों में ऊब जाना एक गुण है। ऐसे भी पशुओं में कोई पशु ऊबता नहीं। बोर्डम, ऊब, मनुष्य का लक्षण है। कोई पशु ऊबता नहीं। आपने कभी किसी भैंस को, किसी कुत्ते को, किसी गधे को ऊब नहीं देखा होगा, कि बोर्ड हो गया है ! नहीं; कभी ऊब पैदा नहीं होती। अगर हम आदमी और जानवरों को अलग करने वाले गुणों की खोज करें, तो शायद ऊब एक बुनियादी गुण है, जो आदमी को अलग करता है।
आदमी बड़ी जल्दी ऊब जाता है, बड़ी जल्दी बोर्ड हो जाता है। किसी भी चीज से ऊब जाता है। ऐसा नहीं कि दुख से ऊब जाता है, सुख से भी ऊब जाता है। अगर सुख ही सुख मिलता जाए, तो तबियत होती है कि थोड़ा दुख कहीं से जुटाओ। और आदमी जुटा लेता है! अगर सुख ही सुख मिले, तो तिक्त मालूम पड़ने लगता है; मुंह में स्वाद नहीं आता फिर। फिर थोड़ी-सी कड़वी नीम मुंह
पर रखनी अच्छी होती है। थोड़ा-सा स्वाद आ जाता है।
आदमी ऊबता है, सभी चीजों से ऊबता है। बड़े से बड़े महल | में जाए, उनसे ऊब जाता है। सुंदर से सुंदर स्त्री मिले, सुंदर से सुंदर पुरुष मिले, उससे ऊब जाता है। धन मिले, अपार धन मिले, उससे ऊब जाता है । यश मिले, कीर्ति मिले, उससे ऊब जाता है। जो चीज मिल जाए, उससे ऊब जाता है। हां, जब तक न मिले, तब तक | बड़ी सजगता दिखलाता है, बड़ी लगन दिखलाता है; मिलते ही ऊब जाता है।
इस बात को ऐसा समझें, संसार में जितनी चीजें हैं, उनको पाने की चेष्टा में आदमी कभी नहीं ऊबता, पाकर ऊब जाता है | पाने की चेष्टा में कभी नहीं ऊबता, पाकर ऊब जाता है। इंतजार में कभी नहीं ऊबता, मिलन में ऊब जाता है। इंतजार जिंदगीभर चल सकता है; मिलन घड़ीभर चलाना मुश्किल पड़ जाता है।
संसार की प्रत्येक वस्तु को पाने के लिए तो हम नहीं ऊबते, लेकिन पाकर ऊब जाते हैं। और परमात्मा की तरफ ठीक उलटा नियम लागू होता है। संसार की तरफ प्रयत्न करने में आदमी नहीं ऊबता, प्राप्ति में ऊबता है। परमात्मा की तरफ प्राप्ति में कभी नहीं ऊबता, लेकिन प्रयत्न में बहुत ऊबता है। ठीक उलटा नियम लागू होगा भी।
जैसे कि हम झील के किनारे खड़े हों, तो झील में हमारी तस्वीर बनती है, वह उलटी बनेगी। जैसे आप खड़े हैं, आपका सिर ऊपर है, झील में नीचे होगा। आपके पैर नीचे हैं, झील में पैर ऊपर होंगे। तस्वीर झील में उलटी बनेगी ।
संसार के किनारे हमारी तस्वीर उलटी बनती है। संसार में जो हमारा प्रोजेक्शन होता है, वह उलटा बनता है। इसलिए संसार में गति करने के जो नियम हैं, परमात्मा में गति करने के वे नियम | बिलकुल नहीं हैं। ठीक उनसे उलटे नियम काम आते हैं। मगर यहीं | बड़ी मुश्किल हो जाती है।
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तो ऊबना आता है बाद में, प्रयत्न में तो ऊब नहीं | आती। इसलिए संसार में लोग गति करते चले जाते हैं। परमात्मा में प्रयत्न में ही ऊब आती है। और प्राप्ति तो आएगी बाद में, और | प्रयत्न पहले ही उबा देगा, तो आप रुक जाएंगे।
कितने लोग नहीं हैं जो प्रभु की यात्रा शुरू करते हैं! शुरू भर करते हैं, कभी पूरी नहीं कर पाते। कितनी बार आपने तय किया कि रोज प्रार्थना कर लेंगे! फिर कितनी बार छूट गया वह । कितनी बार तय किया कि स्मरण कर लेंगे प्रभु का घड़ीभर ! एकाध दिन, दो
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