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________________ गीता दर्शन भाग - 3 सब किया जाता। लेकिन कहा गया पहरेदारों को कि वे बोलें न उस बच्चे के सामने कभी भी। उनके मुंह बंद, सी दिए गए। वह बच्चा बड़ा हुआ। और अकबर मुसीबत में पड़ने लगा। जैसे-जैसे वह बड़ा हुआ, उसमें आदमी जैसा कुछ भी प्रकट न हुआ। न तो वह चलना सीख पाया, न वह बैठना सीख पाया, न वह बोलना सीख पाया। वह कुछ भी नहीं सीख पाया । वह दस | साल का हो गया, उससे एक शब्द न फूटा। वह बारह साल का हो गया, उससे एक शब्द न फूटा। वह सत्रह साल का होकर मरा। और अकबर सत्रह साल तक उसकी प्रतीक्षा करता रहा । आखिर उसने कहा कि नहीं; उसमें कुछ न आया। वह सब बाहर से डाला गया है । वह सब बनावट है। सब आदमी बनाए हुए हैं, मैन्युफैक्चर्ड। हां, कोई मेड इन इंडिया, कोई मेड इन जापान । वह अलग बात है। बाकी सब आदमी मैन्युफैक्चर्ड हैं। कोई हिंदू, कोई मुसलमान, कोई जैन – सब मैन्युफैक्चर्ड हैं। क्योंकि अहंकार तक जो भी है, वह सब प्रकृति है । बुद्धि भी प्रकृति है, मन भी प्रकृति है। जैसे बाहर पड़ा हुआ पत्थर है, ऐसे ही भीतर पड़ा हुआ अहंकार है । इनमें कोई सूक्ष्म अंतर नहीं है। ये दोनों एक ही चीज हैं। यह सब बना-बनाया है। इसके पार है वह, जो अस्रष्ट, अनक्रिएटेड है। इन सबके पार जाए कोई, तो उसका दर्शन है। अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् । जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् । । ५ । । सो यह आठ प्रकार के भेदों वाली तो अपरा है अर्थात मेरी जड़ प्रकृति है । और हे महाबाहो, इससे दूसरी को मेरी जीवरूप परा अर्थात चेतन प्रकृति जान कि जिससे यह संपूर्ण जगत धारण किया जाता है। य जो आठ अंगों वाली प्रकृति है, यह अपरा है। अपरा का अर्थ होता है, निम्न, नीचे की, इस पार और इन आठ पार मेरी वह प्रकृति है, जो परा है, दि बियांड, उस पार की। ये आठ विभाजन इस किनारे के हैं । और एक मैं हूं, उस पार, इन सबसे दूर और ऊपर उठकर - परा । इन सबके पार, इन सबको ट्रांसेंड कर जाता हूं। उस चैतन्य को, उस चेतना को, जो इन सबके पार है, तू इन सबको धारण करने वाली समझ । वह जो पार है, क्या है? उस संबंध में थोड़ा-सा समझें। क्योंकि वही सबको धारण करने वाली है। वही धर्म है। वही सबको सम्हाले है। यह इतना विराट विस्तार उसकी ही छाती पर है, उस परा । उस पार की चेतना । वह पार की चेतना क्या है ? और हमारे भीतर उस पार की चेतना की तरफ जाने वाला द्वार कहां है? समस्त योग का सार, उस परा को पहचानने की प्रक्रिया, टेक्नीक है। स्वयं के भीतर वह परा, वह बियांड कहां शुरू होता है ? शरीर में नहीं, क्योंकि शरीर पदार्थ है। मन में नहीं, क्योंकि मन भी बाहर से संगृहीत विचारों का जोड़ है। बुद्धि में नहीं, क्योंकि बुद्धि भी सूक्ष्मतम अग्नि का रूप है। अहंकार में नहीं, क्योंकि अहंकार भी स्वनिर्मित धारणा है। फिर कहां ? फिर किस में हम उस सेतु को पाएं, उस द्वार को, जहां से सबको धारण करने वाली चेतना | का साक्षात और मिलन है ? इन सबके साक्षित्व में। मैं अपने शरीर का साक्षी हो सकता हूं। | यह रहा मेरा हाथ; मैं इस हाथ को देख सकता हूं। यह हाथ मेरा काट दिया जाए, तो मैं इस हाथ की पीड़ा को देख सकता हूं। यह हाथ कट जाए, तो भी मैं देखूंगा कि मैं नहीं कटा, हाथ ही कटा है। इस हाथ के कट जाने के बाद भी मुझे जरा भी न लगेगा कि मेरे बीइंग, मेरे | अस्तित्व में कुछ टुकड़ा अलग हो गया है। मैं उतना का उतना ही रहूंगा। मेरे होने की जो धारणा है, उसमें खंड जरा-सा भी अलग नहीं | होगा। मैं उतना ही रहूंगा। मेरे पैर भी कट जाएं, तो भी मैं उतना ही | रहूंगा। मेरी आंख भी फूट जाएं, तो मेरे शरीर में कमी पड़ती जाएगी, लेकिन मेरे होने में, मेरे अस्तित्व में कोई भेद न पड़ेगा। 344 सोचें ऐसा, आप रात सोए, रात आपकी आंख चली जाए नींद में। सुबह जब आपको पहली दफा पता चलेगा कि आप जाग गए हैं.. ...क्या आपको पता चल सकेगा आंख बंद में कि आपकी आंख चली गई? अगर आपके भीतर कुछ कम हो गया हो, तो जरूर पता चलना चाहिए। लेकिन कुछ कम हुआ नहीं है, इसलिए पता नहीं चलेगा। आंख खोलेंगे, और जब कुछ न दिखाई पड़ेगा, तब पता चलेगा कि कुछ कमी हो गई। भीतर कोई कमी न होगी। बाहर के संबंध का एक द्वार टूट गया, भीतर आप पूरे के पूरे हैं। भीतर आपको कोई फर्क नहीं पड़ेगा। अगर आपको बेहोश करके आपका पैर काट दिया जाए, और जब तक पैर का दर्द न चला जाए, तब तक आपको बेहोश और डीप फ्रीज में रखा जाए। फिर आपके पैर का दर्द जा चुका हो,
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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