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________________ गीता दर्शन भाग - 3 > युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः । सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ।। २८ । । और वह पापरहित योगी इस प्रकार निरंतर आत्मा को परमात्मा में लगाता हुआ सुखपूर्वक परब्रह्म परमात्मा की प्राप्तिरूप अनंत आनंद को अनुभव करता है। पा प से रहित हुआ व्यक्तित्व आत्मा को सदा परमात्मा में लगाता हुआ परम आनंद को उपलब्ध होता है। पाप से रहित हुआ पुरुष ही आत्मा को परमात्मा की ओर सतत लगा सकता है। पाप से रहित हुआ जो नहीं है, पाप में जो संलग्न है, वह आत्मा को सतत रूप से पदार्थ में लगाए रखता है। अगर पाप की हम ऐसी व्याख्या करें, तो भी ठीक होगा, आत्मा को पदार्थ में लगाए रखना पाप है। आत्मा को पदार्थ में लगाए रखना पाप है और आत्मा को परमात्मा में लगाए रखना पुण्य है। पाप का फल दुख है, पुण्य का फल आनंद है। पदार्थ का उपयोग एक बात है, और पदार्थ में आत्मा को लगाए रखना बिलकुल दूसरी बात है। पदार्थ का उपयोग किया जा सकता है बिना पदार्थ में आत्मा को लगाए । वही योग की कला है । उस कुशलता का नाम ही योग है। पदार्थ का उपयोग किया जा सकता है बिना आत्मा को पदार्थ में लगाए । । उपयोग तो करना पड़ता है शरीर से । जैसे आप भोजन कर रहे हैं। भोजन तो करना पड़ता है शरीर से जाता भी शरीर में है, पचता भी शरीर में है। जरूरत भी, भोजन, शरीर की है। लेकिन भोजन में आत्मा को भी लगाए रखा जा सकता है। और मजा यह है बिना भोजन किए भी आत्मा को भोजन में लगाए रखा जा सकता है। उपवास अगर आपने किया हो, तो आपको पता होगा। भोजन नहीं करते हैं, लेकिन आत्मा भोजन में लगी रहती है। आत्मा को लगाने के लिए भोजन करना जरूरी नहीं है; और भोजन करने के लिए आत्मा को लगाना जरूरी नहीं है। ये अनिवार्य नहीं हैं बातें। जैसे बिना भोजन किए भी हम आत्मा को भोजन में लगाए रख सकते हैं, वैसे ही हम भोजन करते हुए भी आत्मा को भोजन में न लगाएं, इसकी संभावना है। एक तो हमारा अनुभव है कि बिना भोजन किए आत्मा शरीर में लग सकती है। वह हमारा सब का अनुभव है। दूसरा अनुभव हमारा नहीं है। लेकिन दूसरा अनुभव इसी अनुभव का दूसरा अनिवार्य छोर है। अगर यह संभव है कि आत्मा भोजन में लगी रहे बिना भोजन के, तो यह संभव क्यों नहीं है कि भोजन चलता रहे और आत्मा भोजन में न लगे ? 194 यह भी संभव है। क्योंकि पदार्थ का सारा संबंध, सारा संसर्ग शरीर से होता है । पदार्थ का कोई संसर्ग आत्मा से होता नहीं । आत्मा तो सिर्फ खयाल करती है कि संसर्ग हुआ, और खयाल से ही बंधती है। आत्मा पदार्थ से नहीं बंधती, विचार से बंधती है। आत्मा तो सिर्फ विचार करती है, और विचार करके बंध जाती है। विचार ही छोड़ दे, तो मुक्त हो जाती है। आत्मा के ऊपर पदार्थ का कोई बंधन नहीं है, रस का बंधन है। और हम सब पदार्थ में रस लेते हैं। और जहां हम रस लेते हैं, वहीं ध्यान प्रवाहित होने लगता है। जहां हम रस लेते हैं, वहीं ध्यान की धारा बहने लगती है। परमात्मा में हमने कोई रस लिया नहीं । उस तरफ कभी ध्यान की कोई धारा बहती नहीं। पदार्थ में हम रस लेते हैं, उस तरफ धारा बहती है। क्या करें? इस पाप से कैसे छुटकारा हो ? यह जो पदार्थ को पकड़ने का पागलपन है, इससे कैसे छुटकारा हो ? एक आधारभूत बात इस छुटकारे के लिए जरूरी है, और वह यह कि पदार्थ में जब हम रस लेते हैं, तो यह बड़ी मजे की बात है कि जितना ज्यादा आप रस लेने की कोशिश करते हैं, उतना कम रस मिलता है। जितना ज्यादा रस लेने की कोशिश करते हैं, उतना कम रस मिलता है। | अगर आप कभी खेल खेलने गए हैं और आपने सोचा कि आज खेल में बहुत आनंद लें, बहुत सुख लें, तो आपको पता चलेगा कि आप कोशिश करते रहना सुख लेने की और आप पाएंगे कि सुख बिलकुल हाथ नहीं लगा। कोशिश से सुख हाथ लगता नहीं कोई डायरेक्ट, सीधा सुख पाया जा सकता । जिस चीज से भी आप सीधा सुख पाने की कोशिश करेंगे, पाएंगे कि चूक गए। आज तय करके जाएं घर कि आज घर जाकर सुख लेंगे। भोजन में सुख लेंगे। बच्चों से मिलकर सुख लेंगे। प्रियजनों से प्रेम करके सुख लेंगे। और पूरी, सतत कोशिश करना कि प्रेम कर रहे, और सुख लेंगे; भोजन कर रहे, और सुख लेंगे; खेल रहे, और सुख लेंगे । और आप अचानक पाएंगे कि सुख तो तिरोहित हो गया, वह कहीं है नहीं। सुख बाइ-प्रोडक्ट है। सुख सीधी चीज नहीं है। सुख ऐसा है
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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