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गीता दर्शन भाग-3
उसके दरवाजे पर खड़ी हो जाए, तो आलिंगन कर लेगा; क्योंकि वह जानता है कि जिसे उसने अपने भीतर जाना है, उसको मौत छू पाए, इसका कोई उपाय नहीं है। अब आप उसको गालियां और अपमानित करें, तो वह हंसेगा, क्योंकि वह जानता है, तुम्हारी गालियां उस तक नहीं पहुंच सकतीं; तुम्हारे अपमान उस तक नहीं पहुंच सकते, जो वह है । अब वह विजयी हुआ, अब वह जिन हो गया ।
तो एक तो बाहर के अर्थों में कि हम अपनी किसी भी चीज के लिए अपने पर भी भरोसा नहीं कर सकते; हमारी वृत्तियां हमें जहां
जाती हैं, हमें जाना पड़ता है; परवश, पराधीन । और एक इस अर्थों में कि हमें स्वयं का भी कोई पता नहीं है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, आत्मजयी, आत्मा को जीत लिया है जिसने, उसमें परमात्मा सदा प्रतिष्ठित है।
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः । युक्त इच्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।। ८ ।। और ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है अंतःकरण जिसका, विकाररहित है स्थिति जिसकी और अच्छी प्रकार जीती हुई हैं इंद्रियां जिसकी तथा समान है मिट्टी, पत्थर और सुवर्ण जिसको, वह योगी युक्त अर्थात भगवत की प्राप्ति वाला है, ऐसा कहा जाता है।
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स श्लोक में पिछले सूत्र में कुछ और नई दिशाएं | संयुक्त की गई हैं। ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है जो ! ज्ञान कहते हैं स्वयं को जान लेने को । विज्ञान कहते हैं पर को जान लेने को । विज्ञान का अर्थ है, दूसरे को जानने की जो व्यवस्था है। ज्ञान का अर्थ है, स्वयं को जान लेने की जो व्यवस्था है।
कृष्ण कहते हैं, तृप्त है जो ज्ञान-विज्ञान से । इसका क्या अर्थ होगा? इसका क्या यह अर्थ होगा कि जो व्यक्ति आत्मज्ञानी है, योगारूढ़ है, योग को उपलब्ध है, क्या वह समस्त विज्ञान को जानकर तृप्त हो गया है?
ऐसा अर्थ लेने की कोशिश की गई है, जो गलत है। क्योंकि अगर ऐसा होता, तो इस हमारे भारत में, जहां हमने बहुत योगारूढ़
व्यक्ति पैदा किए, हमने समस्त विज्ञानों का सार खोज लिया होता। वह हमने नहीं खोजा। तब तो हमारा एक योगी समस्त आइंस्टीनों और समस्त न्यूटनों और समस्त प्लांकों का काम पूरा कर देता । तब तो कोई बात ही न थी । तब तो अणु का रहस्य हम खोज लिए होते। तब तो समस्त विराट ऊर्जा का जो भी रहस्य है, हमने खोज लिया होता। इसलिए जो इसका ऐसा अर्थ लेता हो, वह गलत लेता है। ऐसा इसका अर्थ नहीं है । इसका अर्थ और गहरा है। यह बहुत ऊपरी अर्थ भी है, यह बहुत गहरा अर्थ भी नहीं है।
समस्त ज्ञान-विज्ञान से आत्मा है तृप्त जिसकी !
विज्ञान से तृप्ति का अर्थ है, जिसके जीवन से कुतूहल विदा हो गया | कुतूहल, क्यूरिसिटी विदा हो गई। असल में क्यूरिआसिटी बहुत बचकाने मन का लक्षण है।
यह बहुत सोचने जैसी बात है। जितनी छोटी उम्र, उतना कुतूहल होता है - यह कैसा है, वह कैसा है ? यह क्यों हुआ, यह क्यों नहीं हुआ ? जितना छोटा मन, जितनी कम बुद्धि, उतना कुतूहल होता है।
इसलिए एक और बड़े मजे की बात है कि जिस तरह बच्चे कुतूहल से भरे होते हैं, इसी तरह जो सभ्यताएं बचकानी होती हैं,. | वे विज्ञान को जन्म देती हैं। बहुत हैरानी होगी! जो सभ्यताएं जितनी चाइल्डिश होती हैं, उतनी साइंटिफिक हो जाती हैं।'
योरोप या अमेरिका एक अर्थों में बहुत बचकाने हैं, बहुत | बालपन में हैं, इसलिए वैज्ञानिक हैं। कुतूहल भारी है। चांद पर क्या है, जानना है! कुतूहल भारी है। मंगल पर क्या है, जानना है! जानते | ही चले जाना है | कुतूहल का तो कोई अंत नहीं । क्योंकि संसार का कोई अंत नहीं है।
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इसलिए कोई सोचता हो कि जब मैं सब जान लूंगा, तब तृप्त | होऊंगा, तो वह पागल है। वह सिर्फ पागल हो जाएगा।
ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है जिसका मन, इसका अर्थ ? इसका अर्थ है, जिसका कुतूहल चला गया। जो इतना प्रौढ़ हो गया कि अब वह यह नहीं पूछता कि ऐसा क्यों है, वैसा क्यों है? प्रौढ़ व्यक्ति कहता है, ऐसा है।
फर्क समझें। बच्चे पूछते हैं, ऐसा क्यों है? वृक्ष के पत्ते हरे क्यों हैं ? गुलाब का फूल लाल क्यों है? आकाश में तारे क्यों हैं? प्रौढ़ | व्यक्ति कहता है, ऐसा है, दिस इज़ सो। वह कहता है, ऐसा है । | क्योंकि अगर पत्ते वृक्ष के पीले होते, तो भी तुम पूछते कि पीले क्यों हैं? अगर वृक्ष पर पत्ते न होते, तो तुम पूछते कि पत्ते क्यों नहीं हैं?