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________________ -योग का अंतर्विज्ञान > अन्यथा आप उन्मुख न हो सकेंगे। कोई न कोई चीज आपको बौद्धों ने उसे मंडल कहा है। ऐसा मंडल बन जाता है कि आप खोचती रहेगी अपनी तरफ; कोई न कोई दिशा आपको पुकारती अपने भीतर ही घूमते हैं, बाहर से कुछ आता नहीं, बाहर आप जाते रहेगी। दिशामुक्त होंगे, तो भीतर की तरफ यात्रा शुरू होगी। नहीं। न आपकी चेतना बाहर जाती है, न बाहर से कोई ध्वनि-तरंग योग के सतत अभ्यास से, कृष्ण कहते हैं अर्जुन को, परमात्मा आपके भीतर प्रवेश करती है। इस मंडल में ठहरी हुई चेतना में प्रतिष्ठा मिलती है। वायुरहित स्थान में दीए की लौ जैसी हो जाती है। इतनी अकंप फिर अभी योग पर और बहुत बात होगी, तो हम धीरे-धीरे चेतना ही प्रभु में प्रतिष्ठा पाती है, क्योंकि निष्कंप होना ही प्रभु में उसकी और बात करेंगे। प्रतिष्ठित हो जाना है-निष्कंप होना ही। ___ कंपना ही संसार में जाना है। निष्कंप हो जाना, प्रभु में पहुंच जाना है। कंपे, कंपित हुए, संसार में गए। अगर ठं झें. तो संसार यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता। एक कंपन, अनंत कंपन का समूह है। जैसे हवा में एक पत्ता कंप रहा योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः । । १९ ।। हो वृक्ष का। बाएं हवा आती है, बाएं कंप जाता है। दाएं आती है, और जिस प्रकार वायुरहित स्थान में स्थित दीपक नहीं दाएं कंप जाता है। हिलता-डुलता, कंपता रहता है; कभी थिर नहीं चलायमान होता है, वैसी ही उपमा परमात्मा के ध्यान में हो पाता। ठीक ऐसे ही वासना में, वृत्ति में, विचार में, सब में चित्त लगे हुए योगी के जीते हुए चित्त की कही गई है। कंपता रहता है, कंपित होता रहता है, डोलता रहता है। इस डोलते हुए चित्त को अवसर नहीं है कि यह जान सके उस | जगह को, जहां यह है। इस डोलती हुई लौ को पता भी नहीं चलेगा + से वायुरहित स्थान में दीए की ज्योति थिर हो, अकंप, | कि किस दीए के तेल से, किस स्रोत से इसे रोशनी मिल रही है, UI निष्कंप, जरा भी कंपित न हो, ऐसे ही योगी का चित्त, प्राण मिल रहे हैं। यह तो हवा के झोंकों में हवा को ही जान पाएगी चेतना थिर हो जाती है। यही उपमा योगी की चेतना के ज्योति, उस स्रोत को न जान पाएगी। उस स्रोत को जानने के लिए लिए कही गई है। ठहर जाना, थिर हो जाना, रुक जाना जरूरी है। ध्यान रहे, जब तक किसी दिशा में ध्यान जाएगा, तब तक चेतना __यह रुक जाना कैसे फलित हो? यह योगी की उपमा तो ठीक है, की लौ कंपित होगी। राह पर बजता है एक कार का हार्न, चेतना लेकिन यह योगी आदमी हो कैसे? ठहरे कैसे? रुके कैसे? कंपित होगी। कोई सज्जन पीछे ही व्याख्यान दिए जा रहे हैं, चेतना कभी-कभी बहुत कठिन दिखाई पड़ने वाली बातें बहुत छोटे-से कंपित होगी। सब ध्वनियां चेतना को कंपित करेंगी। तो निष्कंप प्रयोगों से हल हो जाती हैं। कठिन तभी तक दिखाई पड़ती हैं, जब चेतना कब हो पाएगी? तक हम कुछ करते नहीं हैं और सिर्फ सोचते चले जाते हैं। सरल जब इन समस्त ध्वनियों के पार हम अपने भीतर कोई मंदिर हो जाती हैं उसी क्षण, जब हम कुछ करते हैं! कोई अनुभव, बड़ी खोज पाएं, जहां ये कोई ध्वनियां प्रवेश न करें। हम अपने भीतर से बड़ी कठिनाई को कोई छोटा-सा अनुभव तोड़ जाता है। ऊर्जा का एक ऐसा वर्तुल बना पाएं, जहां चेतना अकंप ठहर जाए, सुना है मैंने, आज जहां रूस का बहुत बड़ा महानगर है, जैसे वायुरहित स्थान में दीया ठहर जाए। चित्त के लिए ध्वनि ही स्टैलिनग्राद, पुराना नाम था उस गांव का पैत्रोग्राद। पीटर महान ने वायु है। उसको बसाया था, रूस के एक सम्राट ने। और पीटर महान जब तो ध्वनि का एक विशेष आयोजन भीतर करना पड़े, तभी लौ | उसे बसा रहा था, तो उसने एक पहाड़ी के कोने को चुना था अपने ठहर पाएगी। योग उसका अभ्यास है। और निश्चित ही ऐसी | लिए कि इस जगह मैं अपना भवन बनाऊं। लेकिन उस पहाड़ी को संभावनाएं हैं। आपको भी उपलब्ध हो सकती हैं। कोई विशेषता | हटाना बड़ा भारी प्रश्न था। और पीटर महान चाहता था, समतल नहीं है कि किसी विशेष को उपलब्ध हों। जो भी श्रम करे उस दिशा | भूमि हो जाए। बहुत इंजीनियरों को कहा, लाखों रुपए देने की बात में सतत, उसे उपलब्ध हो जाएं; तो चित्त मंडलाकार अपने भीतर | | कही। इंजीनियर कहते थे, बहुत खर्च है। कई लाख खर्च होंगे, तो ही बंद हो जाता है। यह पत्थर हटेगा।
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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