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________________ < गीता दर्शन भाग-3 > शायद इसीलिए हमें पता भी नहीं चलता कि हमारी ज्ञानधारा पतित | एकदम मूर्खतापूर्ण। लेकिन उन्हें नहीं मालूम पड़ रहा है। वे तो बड़े होती है। क्योंकि पतित होने का पता तो उन्हें चले, जो ज्ञानधारा में | स्वर्ग में जी रहे हैं! वे भी अगर लौटकर देखें, तो उन्हें भी मूढ़ता थोड़े-बहुत कभी भी होते हों, तो पतित होने का पता चले। जिनके दिखाई पड़ेगी। असल में जैसे ही हम कामातुर और वासना से भरते पास धन है, उन्हें दिवालिया होने का पता चलता है। भिखारियों को | हैं, किसी भी विषय की आसक्ति से, वैसे ही हमारे भीतर की तो दिवालिया होने का पता नहीं चलता। जो कभी थोड़ा ऊपर जीते | चेतना-धारा नीचे गिर जाती है। हैं, उन्हें नीचे आने का पता चलता है। लेकिन जो नीचे ही जीते हैं, | सुना है मैंने, एक फकीर, नाम था उसका फरीद, शेख फरीद। घाटियों को जिन्होंने अपनी जिंदगी बना लिया, शिखरों की तरफ जो | कोई लोग उसके पास आते। समझो, कोई आदमी उससे मिलने कभी उठकर भी नहीं देखते, उनको तो फिर पतन का भी पता नहीं आया। वह आकर बैठा नहीं कि फरीद जाएगा उसके पास, उसका चलता। अंधेरा ही जिनका घर है, उन्हें कैसे पता चलेगा कि उजेला | | सिर हिला देगा जोर से। कई दफे तो लोग घबड़ा जाते। और वह थोड़ा फीका हो गया, कि दीए की लौ थोड़ी कम हो गई। आदमी कहता कि आप यह क्या कर रहे हैं? तो फरीद हंसने लेकिन अगर फिर भी थोड़ा स्मरणपूर्वक खोज करें, तो जब भी लगता। कभी बैठा रहता पास में, डंडा उठाकर उसके पेट में इशारा . मन को कोई वासना तीव्रता से पकड़े, तब आप जरा अपने भीतर कर देता। वह आदमी चौंक जाता। वह कहता, आप यह क्या कर देखना कि आपके ज्ञान की जो क्वालिटी है, आपके ज्ञान का जो गुण रहे हैं। वह हंसने लगता। क्या वह बदला? क्या वह निम्न हआ? क्या वह नीचे गिरा? बहत बार लोगों ने पछा कि आप यह करते क्या हो? तो फरीद इसलिए हर वासना, चाहे तृप्त ही क्यों न हो जाए, एक सूक्ष्म | बोला कि एक दफा मैं यात्रा पर गया था। बहुत-से खच्चर साथ विषाद में छोड़ जाती है। क्योंकि वह आपको पतित कर जाती है।। थे। बड़ा सामान था। बहुत बड़ा कारवां था। वह जो खच्चरों का हर वासना, चाहे मिल ही क्यों न जाए, मिल जाते ही आपके मुंह | | मालिक था, बड़ा होशियार था। जब कभी कोई खच्चर अड़ जाता में एक कड़वा स्वाद छूट जाता है। वह कड़वा स्वाद इस बात का | और बढ़ने से इनकार कर देता...। होता है कि भीतर आपकी चेतना-धारा पतित हुई। आपने जो पाया, | और खच्चर अड़ जाए, तो बढ़ाना बहुत मुश्किल है। बढ़ता रहे, वह तो ना-कुछ; लेकिन जो गंवाया, वह बहुत कुछ; एट ए वेरी | उसकी कृपा। अड़ जाए, तो फिर बढ़ाना बहुत मुश्किल। क्योंकि न ग्रेट कास्ट। वह जो कृष्ण कह रहे हैं, वह यह कह रहे हैं कि तुम उन्हें बेइज्जती का कोई डर, क्योंकि वे खच्चर हैं। उन्हें कोई अड़चन पाओगे क्या? नहीं है। उन्हें आप गालियां दो, उन्हें कोई मतलब नहीं। एक आदमी सड़क पर चला जा रहा है, और देखता है कि एक फरीद ने कहा, लेकिन वह बड़ा कुशल मालिक था। कभी कोई अच्छा कपड़ा पहने हुए कोई गुजरा; वे कपड़े मुझे चाहिए! कपड़े खच्चर अड़ जाए, तो एक सेकेंड न लगता था चलाने में। तो मैंने की मांग, बड़ी छोटी-सी मांग है। लेकिन उसे पता नहीं कि इस मांग उससे पूछा कि तेरी तरकीब क्या है? तो उसने मुझे बताया कि वह ने उसकी चेतना को कितना नीचे गिरा दिया, तत्काल! जैसे टेंपरेचर | थोड़ी-सी मिट्टी उठाकर खच्चर के मुंह में डाल देता है। खच्चर उस नीचे गिर गया हो थर्मामीटर में; उसके भीतर ज्ञान की धारा नीचे | मिट्टी को थूक देता है और चल पड़ता है। तो फरीद ने पूछा, मैं गिर गई। | समझा नहीं कि मिट्टी उसके मुंह में डालने और खच्चर के चलने इसलिए वासना से भरे हुए व्यक्ति अक्सर छोटे बच्चों, का संबंध क्या है? नासमझों जैसा व्यवहार करने लगते हैं। कभी आपने खयाल किया | तो उस आदमी ने कहा कि मैं ज्यादा तो नहीं जानता, मैं इतना ही कि जब आप वासना में होते हैं, तो आप जो व्यवहार करते हैं, समझता हूं कि मुंह में मिट्टी डालने से उसके भीतर की जो विचारों वह करीब-करीब स्टुपिडिटी का होता है; करीब-करीब मूढ़ता का | की धारा है, वह टूट जाती है; वह जो अंडर करंट है! खच्चर सोच होता है! | रहा है, खड़े रहेंगे! अब मुंह में मिट्टी डाल दी। इतनी बुद्धि तो नहीं अगर हम दो प्रेमियों को आपस में बातचीत करते देखें, जो | है कि इन दोनों को फिर से जोड़ सके। मुंह में मिट्टी डाल दी, तो वे वासनातुर हैं, तो उनकी बातचीत हमें कैसी मालूम पड़ेगी! उनका भूल गए जाने-आने की बात। मुंह की मिट्टी साफ करने में लग एक-दूसरे से व्यवहार देखें, तो वह कैसा मालूम पड़ेगा! स्टुपिड, गए, तब तक उसने हांक दिया; वह चल पड़ा। उसने कहा, जहां 420|
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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