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गीता दर्शन भाग-3>
पड़ती हैं, फिर मकान बनता है। लेकिन मन का मकान उलटा बनता | गए; आप आत्मा में ठहर गए। तब किसी शरीर के हिस्से पर जोर है। पहले मकान बन जाता है, फिर हम बाहर लकड़ियां वगैरह बांध नहीं पड़ता है। देते हैं।
और ऐसा ही सब चीजों के लिए है। घृणा भी मन का हिस्सा है, पहले मन निर्णय ले लेता है, फिर पीछे हम बुद्धि के सब बांस प्रेम भी मन का हिस्सा है। अगर दोनों के बाहर ठहर गए, तो आत्मा इकट्ठे करके खड़ा करते हैं, ताकि कोई यह न कह सके कि हम | में ठहर गए। क्रोध भी मन है, और क्षमा भी मन है। दोनों के बाहर निर्बुद्धि हैं। किसी की छोड़ दें, हम न कह सकें अपने को ही कि ठहर गए, तो मन के बाहर ठहर गए। हम निर्बुद्धि हैं। हम बुद्धिमान हैं। हमने जो भी निर्णय लिया है, इन दोनों के बाहर ठहरे हुए व्यक्ति को कृष्ण कहते हैं, बहुत सोच-समझकर लिया है।
योगारूढ़, योग में ठहरा हुआ, योग में थिर। कोई निर्णय आप सोच-समझकर नहीं ले रहे हैं। क्योंकि जो ऐसी थिरता जीवन के समस्त राज को खोल जाती है। ऐसी आदमी सोच-समझकर निर्णय लेगा, वह एक ही निर्णय लेता है, थिरता जीवन के सब द्वार खोल देती है। हम पहली बार अस्तित्व वह जो कृष्ण ने कहा है, वह समत्व का निर्णय लेता है। वह कोई की गहराइयों से संबंधित होते हैं। पहली बार हम उतरते हैं वहां, दूसरा निर्णय कभी लेता ही नहीं।
जहां जीवन का मंदिर है, या जहां जीवन का देवता निवास करता द्वंद्व के सब निर्णय नासमझी के निर्णय हैं। निर्द्वद्व होने का निर्णय है। पहली बार हम परमात्मा में छलांग लगाते हैं। ... ही समझदारी का निर्णय है। वे जो भी समझदार हैं, उन्होंने एक ही योग के पंख मिल जाएं जिसे, वही परमात्मा में छलांग लगा निर्णय लिया है कि द्वंद्व के बाहर हम खड़े होते हैं। और जिसने कहा पाता है। लेकिन योग के पंख उसे ही मिलते हैं, जिसे संमत्व का कि मैं द्वंद्व के बाहर खड़ा होता हूं, वह मन के बाहर खड़ा हो जाता हृदय मिल जाए। नहीं तो योग के पंख नहीं मिलते। समत्व से शुरू है। और जो मन के बाहर खड़ा हो गया, उसकी शांति की कोई सीमा करना जरूरी है। नहीं; क्योंकि अब उत्तेजना का कोई उपाय न रहा।
ऐसा व्यक्ति संकल्पों से क्षीण हो जाता है, कृष्ण कहते हैं। उत्तेजना आती थी द्वंद्व से, चुनाव से, च्वाइस से। अब कोई संकल्प की जरूरत ही नहीं रह जाती। संकल्प की जरूरत ही तब उत्तेजना का कारण नहीं। अब कोई टेंशन, अब कोई तनाव पैदा | पड़ती है, जब मुझे कुछ चुनाव करना हो। कहता हूं, वह चाहता हूं, करने वाले बीज न रहे। अब वह बाहर है। अब वह शांत है। अब | तो फिर पाने के लिए मन को जुटाना पड़ता है। कहता हूं, धन पाना वह मौन है। अब वह जीवन को देख सकता है, ठीक जैसा जीवन है, तो फिर धन की यात्रा पर मन को दौड़ाना पड़ता है। चाहता हूं है। अब वह अपने भीतर झांक सकता है ठीक उन गहराइयों तक, कि हीरे की खदानें खोजनी हैं, तो फिर खदानों की यात्रा पर शक्ति जहां तक गहराइयां हैं। और ऐसा व्यक्ति जो अपने भीतर पूर्ण को नियोजित करना पड़ता है। नियोजित शक्ति का नाम संकल्प है। गहराइयों तक झांक पाता है—योगारूढ़, योग को आरूढ़, योग | इच्छा सिर्फ प्रारंभ है। अकेली इच्छा से कुछ भी नहीं होता। फिर को उपलब्ध।
सारी ऊर्जा जीवन की उस दिशा में बहनी चाहिए। योग का प्रारंभ है समत्व, लेकिन जैसे ही समत्व फलित हुआ ___ मैं हाथ में तीर लिए खड़ा हूं, सामने वृक्ष पर पक्षी बैठा है। अभी कि आदमी योगारूढ़ हो जाता है। योगारूढ़ का अर्थ है, अपने में | तीर चलेगा नहीं, अभी पक्षी मरेगा नहीं। मन में पहले इच्छा पैदा ठहर गया।
होनी चाहिए, इस पक्षी का भोजन कर लं, या इस पक्षी को कैद हम योग अरूढ़ हैं। हम च्युत हैं। हम कहीं-कहीं डोलते फिरते | करके अपने घर में इसकी आवाज को बंद कर लूं, कि इस पक्षी के हैं। वह जगह भर छोड़ देते हैं, जहां हमें ठहरना चाहिए। कभी बाएं सुंदर पंखों को अपने पिंजड़े में, कारागृह में डाल दूं। इच्छा पैदा पर, कभी दाएं पर, मध्य में कभी भी नहीं। मध्य में ही आत्मा है। होनी चाहिए, इस पक्षी की मालकियत की। पर अकेली इच्छा से बाएं भी शरीर है, दाएं भी शरीर है। जब बाएं पैर पर जोर पड़ता है, | कुछ भी न होगा। इच्छा आपमें रही आएगी, पक्षी बैठा हुआ गीत तब शरीर के एक हिस्से पर जोर पड़ता है। और जब दाएं पैर पर गाता रहेगा वृक्ष पर। इच्छा आपके भीतर जाल बुनती रहेगी, पक्षी जोर पड़ता है, तब भी शरीर के एक हिस्से पर जोर पड़ता है। अगर वृक्ष पर बैठा रहेगा। आप दोनों पैर के बीच में ठहर पाए, तो आप शरीर के बाहर ठहर नहीं; इच्छा को संकल्प बनना चाहिए। संकल्प का मतलब है,