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<< ज्ञान विजय है -
है, जो मरा ही हुआ है, वह मरेगा। स्वयं को दूर खड़ा कर पाते हैं, | मौजूद नहीं है। हम उससे विपरीत देखे चले जाते हैं। हम जो हैं, तटस्थ हो पाते हैं। मृत्यु की नदी बह जाएगी, बुद्ध तट पर खड़े रह उससे हम अपना तादात्म्य नहीं करते; और जो हम नहीं हैं, उससे जाएंगे-अछूते, बाहर।
हम अपने को एक समझ लेते हैं! क्यों हो जाती है ऐसी भूल? पीड़ा भी आती है, दुख भी आता है। सब आता रहेगा। रात भी भूल इतनी बड़ी है कि उसे भूल कहना शायद ठीक नहीं। क्योंकि आएगी, सुबह भी होगी। इस पृथ्वी पर आप ज्ञान को उपलब्ध हो भूल उसे ही कहना चाहिए, जिसे कोई कभी करता हो। जिसे सभी जाएंगे, तो रात उजाली नहीं हो जाएगी। आप ज्ञान को उपलब्ध हो | निरंतर करते हैं, उसे भूल कहना एकदम ठीक नहीं मालूम पड़ता। जाएंगे, तो दुख सुख नहीं बन जाएगा। आप ज्ञान को उपलब्ध हो ___ भूल का मतलब ही यह होता है कि सौ में कभी एक कर लेता जाएंगे, तो कांटा गड़ेगा तो फूल जैसा मालूम नहीं पड़ेगा, कांटे | हो, तो हम हकदार हैं कहने के कि कहें, भूल। सौ में सौ ही करते जैसा ही मालूम पड़ेगा। फिर अंतर कहां होगा?
हैं। कभी करोड़ दो करोड़ में एक आदमी नहीं करता है। तो भूल भीतर की चेतना कब डांवाडोल होती है ? पैर में कांटा चुभता है एकदम सिर्फ भूल नहीं है; मैथमेटिकल इरर जैसी भूल नहीं है कि तब? नहीं; जब भीतर की चेतना ऐसा मानती है कि मुझे काटा चुभ दो और दो जोड़े और पांच हो गए, ऐसी भूल नहीं है। वह कोई कभी गया, तब। अगर भीतर की चेतना कांटे के पार रह जाए, तो करता है। सिर्फ भूल कहने से नहीं चलेगा; भ्रांति है।। अनुद्विग्न रह जाती है। तो फिर चेतना अस्पर्शित, अनटच्ड, बाहर भूल और भ्रांति में थोड़ा फर्क है। और भूल और भ्रांति के फर्क रह जाती है।
को खयाल में ले लेना, दूसरी बात है। तो इस सूत्र को समझा जा यह बाहर रह जाने की कला ही योग है। इस बाहर रह जाने की | सकेगा। कला के संबंध में ही कृष्ण कह रहे हैं। और ऐसी थिर हो गई | भूल वह है, जिसमें व्यक्ति जिम्मेवार होता है, खुद की ही कुछ चेतना में, ऐसी जैसी ज्योति को हवा के झोंकों में कोई अंतर न | गलती से कर जाता है। भ्रांति वह है, जिसमें जाति, मनुष्य जैसा है, पड़ता हो; ऐसी चेतना में ही परम सत्ता विराजमान हो जाती है। | वही जिम्मेवार होती है। मनुष्य के होने का ढंग ही जिम्मेवार होता है। द्वार खुल जाते हैं उसके मंदिर के। वह विराजमान है ही। हमें |
| रास्ते से आप गुजर रहे हैं और एक रस्सी को आपने सांप समझ उसका पता नहीं चलता।
| लिया, तो वह आपकी भूल है। सब गुजरने वाले सांप नहीं चेतना दो में से एक चीज का ही पता चला सकती है। या तो समझेंगे। वह सांप से डरने वाला चित्त, सांप से भयभीत चित्त, सांप तादात्म्य की दुनिया में संयुक्त रहे, तो संसार का पता चलता रहता के अनुभवों से भरा हुआ चित्त, रस्सी से भी सांप का अनुमान कर है। या तादात्म्य की दुनिया से हट जाए, तटस्थ हो जाए, तो लेगा। वह इनफरेंस है उसका कि कहीं सांप न हो। लेकिन सभी को परमात्मा का पता चलना शुरू हो जाता है।
सांप नहीं दिखाई पड़ेगा। वह भूल है, इसलिए बहुत कठिनाई नहीं ऐसा समझें कि हम बीच में खड़े हैं। इस ओर संसार है, उस ओर है। टार्च जला ली जाए, दीया जला लिया जाए और भूल मिट परमात्मा है। जब तक हमारी नजर संसार के साथ जोर से चिपटी जाएगी। वह व्यक्तिगत है। वह मनुष्य के चित्त से पैदा नहीं होती; रहती है, तब तक पीछे नजर उठाने का मौका नहीं आता। जब व्यक्तिगत चित्त से पैदा होती है। वह इंडिविजुअल है, कलेक्टिव संसार से नजर थोड़ी ढीली होती है, पृथक होती है, अलग होती है, नहीं है। तो अनायास ही-अनायास ही-परमात्मा पर नजर जानी शुरू हो | लेकिन जिस भूल की मैं बात कर रहा हूं या कृष्ण इस सूत्र में जाती है।
बात कर रहे हैं, वह कलेक्टिव है। ऐसा नहीं है कि किसी को रस्सी दृष्टि तो कहीं जाएगी ही। दृष्टि का कहीं जाना धर्म है। लेकिन सांप दिखाई पड़ती है। जो भी गुजरता है, उसी को दिखाई पड़ती है। दो तरफ जा सकती है, पदार्थ की तरफ जा सकती है, परमात्मा की बल्कि किनारे बुद्ध और महावीर और कृष्ण जैसे लोग खड़े होकर तरफ जा सकती है। और परमात्मा की तरफ जाने का एक ही सुगम चिल्लाते रहें कि यह सांप नहीं, रस्सी है, फिर भी सांप ही दिखाई उपाय है कि वह पदार्थ की तरफ तादात्म्य को उपलब्ध न हो। बस, | पड़ता है। तो इसको भूल कहना आसान नहीं है। परमात्मा की तरफ बहनी शुरू हो जाती है।
दीए जला लो, रोशनी कर दो, चिल्ला-चिल्लाकर कहते रहो कि वह परमात्मा सदा मौजूद ही है। लेकिन हमारी दृष्टि उस पर । यह रस्सी है, सांप नहीं! फिर भी जो गुजरता है, सुनकर भी उसे