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गीता दर्शन भाग - 3 >
जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः । शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः ।। ७ ।। और हे अर्जुन, सर्दी-गर्मी और सुख-दुखादिकों में तथा मान और अपमान में जिसके अंतःकरण की वृत्तियां अच्छी प्रकार शांत हैं अर्थात विकाररहित हैं, ऐसे स्वाधीन आत्मा वाले पुरुष के ज्ञान में सच्चिदानंदघन परमात्मा सम्यक प्रकार से स्थित है अर्थात उसके ज्ञान में परमात्मा के सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं ।
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ख-दुख में, प्रीतिकर - अप्रीतिकर में, सफलताअसफलता में, जीवन के समस्त द्वंद्वों में जिसकी आंतरिक स्थिति डांवाडोल नहीं होती है; कितने ही तूफान बहते हों, जिसकी अंतस चेतना की ज्योति कंपती नहीं है; जो निर्विकार भाव से भीतर शांत ही बना रहता है-अनुद्विग्न, अनुत्तेजित - ऐसी चेतना के मंदिर में, परम सत्ता सदा ही विराजमान है, ऐसा कृष्ण ने अर्जुन से कहा। तीन बातें खयाल में ले लेनी जरूरी हैं।
एक, द्वंद्व में जो थिर है, विपरीत अवस्थाओं में जो समान है। सफलता हो कि असफलता, मान हो कि अपमान, जैसे उसके भीतर कोई अंतर ही नहीं पड़ता है, जैसे भीतर कोई स्पर्श ही नहीं होता है । घटनाएं बाहर घट जाती हैं और व्यक्ति भीतर अछूता छूट जाता है। पहले तो इस बात को ठीक से खयाल में ले लेना जरूरी है कि इसका क्या अर्थ है, क्या अभिप्राय है? क्या प्रक्रिया इस तक पहुंचने की है ? क्या मार्ग है ?
पहले तो यह ठीक से समझ लें कि हम उद्विग्न कैसे हो जाते हैं? जब दुख आता है तब भी और जब सुख आता है तब भी, तब भीतर चेतना की ज्योति को कंपने का अवसर क्यों बन जाता है ? क्या है कारण? क्या दुख ही कारण है? यदि दुख ही कारण है, तब तो कृष्ण जो कहते हैं, वह कभी संभव नहीं हो पाएगा, क्योंकि कृष्ण पर भी दुख आएंगे।
जब भीतर की चेतना समतुलता खो देती है सुख में, उत्तेजित हो जाती है, क्या सुख ही कारण है? यदि सुख ही कारण है, तब तो फिर इस पृथ्वी पर कोई भी कभी उस स्थिति को नहीं पा सकेगा, जिसकी कृष्ण बात करते हैं। स्वयं कृष्ण भी नहीं पा सकेंगे।
हम सब ऐसा ही सोचते हैं कि उद्विग्न हो गए दुख के कारण;
उत्तेजित हो गए सुख के कारण नहीं, सुख और दुख कारण नहीं हैं। जब तक आप सुख और दुख को कारण समझेंगे, तब तक उत्तेजित होते ही रहेंगे। आपने कारण ही गलत समझा है, आपका निदान ही भ्रांत है।
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सुख से उत्तेजित नहीं होता है कोई । सुख के साथ अपने को एक | समझ लेता है, इससे उत्तेजित होता है। दुख से कोई उत्तेजित नहीं होता । दुख में अपने को खो देता है, इसलिए उत्तेजित होता है।
दुख और सुख के बाहर खड़े रहने में हम समर्थ नहीं हैं; भीतर प्रवेश कर जाते हैं। एक आइडेंटिटी हो जाती है, एक तादात्म्य हो जाता है। जब आप पर दुख आता है, तो ऐसा नहीं लगता है, मुझ पर दुख आया। ऐसा लगता है, मैं दुख हो गया। जब सुख आपको घेर लेता है, तो ऐसा नहीं लगता है कि सुख आपके चारों ओर आपको घेरकर खड़ा है; ऐसा लगता है कि आप ही सुख हो गए; सुख की एक लहर मात्र ।
यह तादात्म्य, यह सुख और दुख के साथ बंध जाने की वृत्ति ही उत्तेजना का कारण है। और यह वृत्ति तोड़ी जा सकती है।
सुख-दुख आते रहेंगे। सुख-दुख बंद नहीं होते। बुद्ध के पैरों में भी कांटे चुभ जाते हैं। बुद्ध भी बीमार पड़ते हैं । बुद्ध को भी मृत्यु आती है। लेकिन हमसे कुछ भिन्न ढंग से आती है । मृत्यु तो ढंग नहीं बदलेगी। मृत्यु तो अपने ही ढंग से आएगी। लेकिन बुद्ध अपने को इतना बदल लेते हैं कि मृत्यु के आने का ढंग पूरा का पूरा बदल जाता है।
बुद्ध मरने के करीब हैं। जीवन का दीया बुझने के करीब है। शरीर छूटने को है । और एक भिक्षु बुद्ध से पूछता है, बहुत पीड़ा हो रही है। भिक्षु कहता है, बहुत मन दुखी हो रहा है। थोड़े ही क्षणों | बाद आप नहीं होंगे! बुद्ध कहते हैं, जो नहीं था, वही नहीं हो जाएगा। था, वह रहेगा। मृत्यु आ रही है । बुद्ध कहते हैं, जो नहीं था, वही नहीं हो जाएगा। इसलिए तुम व्यर्थ दुखी मत हो जाओ। क्योंकि मृत्यु उसे ही मिटा सकती है, जो नहीं था; जिसे हमने सोचा भर था कि है । स्वप्न था जो हमारी धारणा मात्र थी, अस्तित्व नहीं था जिसका। विचार मात्र था, वस्तु जगत में जिसकी कोई संभावना भी न थी, वही मिट जाएगा। जो नहीं था, वही मिट जाएगा; वह था ही नहीं। और जो था, उसके मिटने का कोई उपाय नहीं है। जो है, वह रहेगा ।
मृत्यु तो आ रही है, लेकिन बुद्ध मृत्यु को और तरह से देखते हैं। मैं मरूंगा, ऐसा बुद्ध नहीं देखते। बुद्ध देखते हैं, जो मर सकता